अभीप्सा की आग: अमृत की वर्षा--(प्रवचन--सोहलवां)
दिनांक: 16 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
मो
को कहां ढूंढ़ो
रे बंदे, मैं तो तेरे
पास में।
ना
मैं बकरी ना
मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंड़ास
में।।
नहिं
खाल में नहिं
पोंछ में, ना हड्डी ना
मांस में।
ना
मैं देवल ना
मैं मस्जिद, ना काबे
कैलास में।।
ना
तो कौनो
क्रिया कर्म में, नहिं जोग
बैराग में।
खोजी
होय तो तुरतै
मिलिहौं, पल भर की तालास
में।।
मैं
तो रहौं
सहर के बाहर, मेरी पुरी
मवास में।
कहै
कबीर सुनो भाई
साधो, सब
सांसों की
सांस में।।
परमात्मा
प्रत्येक का
स्वभाव—सिद्ध
अधिकार है।
उसे खोया होता
तो तुम कभी पा
न सकते थे।
उसे खोया नहीं
है, इसलिए
पाने की
संभावना है।
और उसे खोया
नहीं है, इसलिए
खोज बड़ी
मुश्किल है।
जिसे खो दिया
हो, उसे
खोजने की
संभावना बन
जाती है।
लेकिन जिसे खोया
ही न हो, उसे
तुम खोजोगे
कैसे? इसलिए
परमात्मा
पहेली बन जाता
है। इस पहेली
को पहले ठीक
से समझ लें।
इस पहेली के
कुछ आधारभूत
नियम हैं।
पहला
नियम: जिसे
तुमने सदा से
पाया है, उसकी
तुम्हें याद
नहीं आ सकती।
वह सदा ही
तुम्हें मिला
रहा है; एक
क्षण को भी
वियोग नहीं
हुआ। याद तो
उसकी आती है
जिससे वियोग
हो जाए। मछली
को पता ही
नहीं चलता कि
सागर है। पता
चलेगा कैसे? सागर में ही
पैदा हुई; सागर
में ही आंख
खोली; सागर
में ही जीयी; सागर में ही दौड़ी—भागी;
सुख—दुख पाए;
सागर से सदा
ही घिरी रही; बाहर भी
सागर, भीतर
भी सागर—सागर
का पता कैसे
चलेगा? पता
चलने के लिए
वियोग जरूरी
है। तो मछुआ
जब मछली को
बाहर निकाल
लेता है सागर
से, तब
पहली दफा सागर
की याद आती
है। लेकिन
तुम्हें तो
परमात्मा के
बाहर निकालने
का कोई उपाय
नहीं है; कोई
मछुआ नहीं है,
जो तुम्हें
बाहर निकाल ले;
कोई जाल
नहीं है, जो
तुम्हें
परमात्मा के
बाहर निकाल ले;
कोई किनारा
नहीं है जहां
वह समाप्त
होता हो। तुम
उसके बाहर
नहीं जा सकते—यही
अड़चन है।
इसलिए उसकी
याद नहीं आती।
याद आए कैसे?
यह तो
पहली कठिनाई
है पहेली की।
वियोग
हो सकता तो
योग बड़ा आसान
था। तब कोई
उपाय खोज लेते, कोई रास्ता
बना लेते।
वियोग नहीं हो
सकता है, इसलिए
योग असंभव है।
ऐसी
समझ तुम्हारे
मन में गहरी
बैठ जाए, ऐसी
समझ तुम्हारे रोयें—रोयें
में समा जाए, तो अचानक
खोज समाप्त हो
गई; जिसे
कभी खोया ही
नहीं उसे पा
लिया। यह केवल
बोध का
रूपांतरण है।
न तो कुछ पाने
को है, न
कुछ खोने को
है; सिर्फ
समझ की
क्रांति है; सिर्फ आंख
खोलकर स्थिति
को देखना है।
दूसरी
बात: जो भीतर
है, उसे पाना
मुश्किल हो
जाता है।
क्योंकि सारी
इंद्रियां
बाहर खुली हैं।
आंख बाहर
देखती है; हाथ
बाहर छूते हैं;
कान बाहर की
आवाज सुनते
हैं; नासापुट
बाहर की गंध
लेते हैं—सारी
इंद्रियां
बाहर की तरफ
खुलती हैं।
क्योंकि, इंद्रियां
प्रकृति का
हिस्सा हैं, प्रकृति से
जुड़ी हैं।
प्रकृति बाहर
है; परमात्मा
भीतर है। और
प्रकृति से जोड़ने के
लिए
इंद्रियों की
जरूरत हैं।
इंद्रियां न हों
तो तुम्हारा
प्रकृति से
संबंध छूट
जाएगा। अंधे
आदमी का क्या
संबंध है
प्रकाश से? बहरे का
क्या संबंध है
संगीत से, शब्द
से? इंद्रियां
न हों तो
प्रकृति से
संबंध छूट जाएगा।
अब यह
जरा बारीक
मामला है: ठीक
से समझ लेना।
और इंद्रियां
हों तो
परमात्मा से
संबंध छूट जाएगा।
क्योंकि, भीतर
के लिए किसी
इंद्रिय की
जरूरत नहीं
हैं। दूसरे से
जुड़ना हो
तो संबंध
बनाने के लिए
कुछ आधार
चाहिए। अपने
से ही जुड़ने
के लिए क्या
आधार जरूरी है?
भीतर आंख जा
नहीं सकती; हाथ नहीं जा
सकते—जरूरत भी
नहीं है।
कमरे
में अंधेरा हो
तो रोशनी जला
लो, कमरे में
रोशनी हो जाती
है। लेकिन
कमरे में अंधेरा
हो, तब भी
तुम्हारे
भीतर तो
अंधेरा नहीं
होता। कमरे
में रोशनी जल
जाए, तब भी
तुम्हारे
भीतर रोशनी
नहीं होती; बाहर ही
बाहर सब घटता
रहता है।
कितना ही गहन
अंधेरा हो, तुम्हें
अपना तो पता
चलता ही रहता
है अंधेरे में
भी कि मैं
हूं। कुर्सी
का पता नहीं
चलता; टेबल
का पता नहीं
चलता; दीवाल
का पता नहीं
चलता; कोई
और बैठा हो
कमरे में, उसका
पता नहीं चलता;
तुम्हारा
प्रियतम बैठा
हो, उसका
पता नहीं चलता;
भगवान की
मूर्ति रखी हो
कमरे में, उसका
पता नहीं
चलता: सब खो
जाते हैं
अंधेरे में।
क्योंकि आंख
की इंद्रिय
रोशनी में काम
कर सकती हैं; बिना रोशनी
के आंख बेकार
हो जाती हैं; बाहर का कुछ
पता नहीं
चलता। लेकिन
क्या तुम्हें
यह भी भूल
जाता है कि
तुम हो? तुम्हें
अपना होना तो
पता चलता ही
रहता है।
तुम्हें अपने
होने की तो
अहर्निश धारा
बनी रहती है।
कोई
रोशनी
तुम्हारे
जानने के लिए
कि तुम हो, जरूरी नहीं;
कोई
इंद्रिय
जरूरी नहीं।
तुम
इंद्रियों के
पीछे छिपे हो।
इंद्रियां
प्रकृति से
जोड़ती हैं।
इंद्रियां न
हों तो
प्रकृति से संबंध
टूटता है।
इंद्रियां
परमात्मा से तोड़ती
हैं।
इंद्रियां न
हों तो
परमात्मा से
संबंध जुड़
जाता है।
भीतर
की यात्रा
अतीन्द्रिय
है; वहां
इंद्रियों को
छोड़ते जाना
है। जब तुम्हारी
दृष्टि आंख को
छोड़ देती है, तब भीतर की
तरफ मुड़ जाती
है।
और यह
जरा समझ लो।
आंख
नहीं देखती है; आंख के भीतर
से तुम्हारी
दृष्टि देखती
है। इसलिए कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है कि तुम
खुली आंख बैठे
हो, कोई
रास्ते से
गुजरता है और
दिखाई नहीं
पड़ता; क्योंकि
तुम्हारी
दृष्टि कहीं
और थी; तुम
किसी और सपने
में खोए थे
भीतर; तुम
कुछ और सोच
रहे थे। आंख
बराबर खुली थी,
जो निकला
उसकी तस्वीर
भी बनी; लेकिन
आंख और दृष्टि
का तालमेल
नहीं था; दृष्टि
कहीं और थी—वह
कोई सपना देख
रही थी, या
किसी विचार
में लीन थी।
तुम्हारे
घर में आग लग
गई है। तुम
भागे बाजार से
चले आ रहे हो।
रास्ते पर कोई
जयरामजी
करता है—सुनाई
तो पड़ता है, पता नहीं
चलता; कान
तो सुन लेते
हैं, लेकिन
कान के भीतर
से जो असली
सुनने वाला है,
वह उलझा है।
मकान में आग
लगी है—दृष्टि
वहां है। तुम
भागे जा रहे
हो, किसी
से टकराहट हो
जाती है—पता
नहीं चलता।
पैर में कांटा
गड़ जाता है—दर्द
तो होता है, शरीर तो खबर
भेजता है; पता
नहीं चलता।
जिसके घर में
आग लगी हो, उसको
पैर में गड़े
कांटे का पता
चलता है?
इसलिए
छोटे दुख को
मिटाने की एक
ही तरकीब है: बड़ा
दुख। फिर छोटे
दुख का पता
नहीं चलता।
इसीलिए तो लोग
दुख खोजते
हैं। बड़े दुख
के कारण छोटे दुख
का पता नहीं
चलता। फिर
दुखों का
अंबार लगाते
जाते हैं। ऐसे
ही तो तुमने
अनंत जन्मों
में अंनत दुख
इकट्ठे किए
हैं। क्योंकि
तुम एक ही
तरकीब जानते
हो; अगर
कांटे का दर्द
भुलाना हो तो
और बड़ा कांटा लगा
लो; घर में
परेशानी हो, दुकान की
परेशानी खड़ी
कर लो—घर की
परेशानी भूल
जाती है; दुकान
में परेशानी
हो, चुनाव
में खड़े हो
जाओ—दुकान की
परेशानी भूल
जाती है। बड़ी
परेशानी खड़ी
करते जाओ। ऐसे
ही आदमी नरक
को निर्मित
करते हैं।
क्योंकि एक ही
उपाय दिखाई
पड़ता है यहां कि
छोटा दुख भूल
जाता है, अगर
बड़ा दुख हो
जाए।
मकान
में आग लगी हो, पैर में लगा
कांटा पता
नहीं चलता।
क्यों? कांटा
गड़े तो पता
चलना चाहिए।
हॉकी के मैदान
पर युवक खेल
रहा है; पैर
में चोट लग
जाती है, खून
की धारा बहती
है—पता नहीं
चलता। खेल बंद
हुआ, रेफरी
की सीटी बजी—एकदम
पता चलता है।
अब मन वापस
लौट आया
दृष्टि आ गई।
तो
ध्यान रखना, तुम्हारी
आंख और आंख के
पीछे
तुम्हारी
देखने की
क्षमता अलग
चीजें हैं।
आंख तो खिड़की
है, जिससे
खड़े होकर तुम
देखते हो। आंख
नहीं देखती; देखनेवाला
आंख पर खड़े
होकर देखता
है। जिस दिन तुम्हें
यह समझ में आ
जाएगा कि
देखनेवाला और
आंख अलग हैं; सुननेवाला
और कान अलग
हैं: उस दिन
कान को छोड़कर
सुननेवाला
भीतर जा सकता है;
आंख को
छोड़कर
देखनेवाला
भीतर जा सकता
है—इंद्रिय
बाहर पड़ी रह
जाती है।
इंद्रिय की
जरूरत भी नहीं
है।
अतीन्द्रिय, तुम अपने
परम बोध को
अनुभव करने
लगते हो; अपनी
परम सत्ता की
प्रतीति होने
लगती है।
आंख
बाहर खुलती है—इसलिए
तुम बाहर ही
लगे रहते हो।
और बाहर भी विराट
प्रकृति है।
प्रकृति उतनी
ही विराट है जितना
परमात्मा; क्योंकि
परमात्मा की
ही प्रकृति
है। परमात्मा
अगर अंतस्तल
है तो प्रकृति
उसका बहिर्विस्तार
है। जो भीतर
अनंत है, वह
बाहर भी अनंत
ही होगा। जो
एक पहलू पर
अनंत है, वह
उसके दूसरे
पहलू में भी
अनंत ही होगा;
क्योंकि
अनंत अनंत
ही हो सकता
है।
इंद्रियां
बाहर खुलती
हैं। अनंत
विस्तार है
प्रकृति का।
तुम खोजते हो
जन्मों—जन्मों,
तृप्ति
नहीं हो पाती—हो
नहीं सकती।
कुछ न कुछ शेष
रह जाता है।
दौड़ जारी रहती
है। सदा शेष
रहेगा। सदा
दौड़ जारी रहेगी।
संसार चलता ही
रहेगा, उसका
कोई अंत नहीं
है; क्योंकि
वह परमात्मा
से ही चल रहा
है।
और इस
बाहर की दौड़
में धीरे—धीरे
तुम इतने
संलग्न हो
जाते हो कि
तुम्हें यह
याद भी नहीं
रह जाती कि यह दौड़नेवाला
कौन है; तुम्हें
याद भी नहीं
रह जाती कि यह
जाननेवाला कौन
है? और फिर
बाहर की दौड़
बाहर के
उपकरणों से
तादात्म्य
निर्मित करवा
देती है! खुद
की शक्ल देखने
के लिए भी
आईने की जरूरत
पड़ती है। खुद
की शक्ल भी
आईने के भरोसे
पर जाननी पड़ती
है! तब तुम
दूसरों की
आंखों में
अपनी झलक
खोजते हो। अगर
लोग तुम्हें
कहते हैं तो
तुम अच्छा मान
लेते हो कि
मैं अच्छा हूं;
लोग अगर बुरा
कहते हैं तो
तुम बुरा मान
लेते हो कि
मैं बुरा हूं;
लोग अगर
कहते हैं, तुम
सुंदर हो, तो
तुम मान लेते
हो कि तुम
सुंदर हो; और
लोग अगर कहते
हैं कि तुम
कुरूप हो तो
तुम मान लेते
हो कि मैं
कुरूप हूं।
दूसरों से
पूछना पड़ता है
कि मैं कौन
हूं। दूसरे भी
इतने गहन अंधकार
में खड़े हैं।
उन्हें खुद भी
पता नहीं है कि
वे कौन हैं।
वे तुमसे पूछ
रहे हैं।
अज्ञानियों
का जीवन एक—दूसरे
के अज्ञान के
सहारे खड़ा
होता है।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
हज यात्रा के
लिए गया, मक्का
गया। साथ में
दो मित्र और
थे; एक था
नाई और एक था
गांव का महामूर्ख।
वह महामूर्ख
गंजा था। एक
रात वे भटक गए
रेगिस्तान
में; गांव
तक न पहुंच
पाए। रात
रेगिस्तान
में गुजारनी
पड़ी। तो तीनों
ने तय किया कि
एक—एक पहर
जागेंगे, क्योंकि
खतरा था।
अनजान जगह थी।
चारों तरफ सुनसान
रेगिस्तान
था। पता नहीं
डाकू हों, लुटेरे
हों, जानवर
हों।
पहली
ही घड़ी, रात
का पहला
हिस्सा, नाई
के जुम्मे
पड़ां। दिनभर की
थकान थी: उसे
नींद भी सताने
लगी, डर भी
लगने लगा। रात
का गहन
अंधकार! चारों
तरफ रेगिस्तान
की सांय—सांय!
से कुछ सूझा
न कि कैसे
अपने को जगाए
रखे। तो उसने
सिर्फ अपने को
काम में लगाए
रखने के लिए
मुल्ला नसरुद्दीन
की खोपड़ी के
बाल साफ कर
दिए—सिर्फ काम
में लगाए रखने
को! और वह कुछ
जानता भी नहीं
था; नाई
था। नंबर दो
पर मुल्ला नसरुद्दीन
की बारी थी।
तो जब उसका
समय पूरा हो जगया तो नसरुद्दीन
को उठाया कि
बड़े मियां। तो
नसरुद्दीन
ने जागने के
लिए अपने सिर
पर हाथ फेरा, पाया कि सिर
सपाट है। उसने
कहा, जरूर
कोई भूल हो गई
है। तुमने
मेरी जगह उस
गंजे मूर्ख को
उठा लिया है।
हमारी
पहचान बाहर से
है। हम जानते
हैं अपने संबंध
में वही जो
दूसरे कहते
हैं। भीतर से
अपने को हमने
कभी जाना
नहीं। हमारी
सब पहचान झूठी
है। जिस दिन
हम अपने को अपने
ही तईं
जानेंगे, उसी
दिन सच्ची
पहचान होगी।
उसे ही
आत्मज्ञान कहा
है।
फिर
चूंकि
इंद्रियां
बाहर हैं, इसलिए हम
सोच लेते हैं
कि सभी कुछ
बाहर है। तो हम
प्रेम को भी
बाहर खोजते
हैं—और प्रेम
का झरना भीतर
बह रहा है; हम
धन को भी बाहर
खोजते हैं—और
भीतर परम धन
अहर्निश बरस
रहा है; हम
आनंद को भी
बाहर खोजते
हैं—और भीतर
एक क्षण को भी
आनंद से हमारा
संबंध नहीं
टूटा है।
प्यासे हम तड़पते
हैं; रेगिस्तानों
में भटकते हैं;
द्वार—द्वार
भीख मांगते
हैं—और भीतर
अमृत का झरना
बहा जा रहा
है। भीतर हम सम्राट
हैं।
इंद्रियों के
साथ ज्यादा
जुड़ जाने के
कारण और
तादात्म्य
बाहर बन जाने
के कारण, हम
भिखारी हो गए
हैं। यही नहीं
कि हम धन बाहर
खोजते हैं, यश बाहर
खोजते हैं, स्वयं को
बाहर खोजते
हैं; हम
परमात्मा तक
को बाहर खोजने
लगते हैं—जो
कि हद हो गई
अज्ञान की। तो
हम मंदिर
बनाते हैं, मस्जिद
बनाते हैं, गुरुद्वारा
बनाते हैं, परमात्मा की
प्रतिमा
बनाते हैं—हम
बाहर से इस
भांति आंक्रांत
हो गए हैं कि
हमें याद ही
नहीं आती कि
भीतर का भी एक
आयाम है।
अगर
किसी से पूछो, कितनी
दिशाएं हैं, तो वह कहता
है, दस। आठ
चारों तरफ, एक ऊपर, एक
नीचे; ग्यारहवीं
दिशा की कोई बात
ही नहीं करता—भीतर।
और वही हमारा
स्वभाव है, क्योंकि हम
भीतर से ही
बाहर की तरफ
आए हैं। हमारा
घर तो भीतर
है। गंगोत्री
तो भीतर है—जहां
से बही है
जीवन की धारा।
मां के
गर्भ में छोटे
से अणु थे तुम:
खाली आंख से
देखे भी जा
सकते थे। उसके
भी पूर्व तुम
अणु भी न थे; तुम बिलकुल
अदृश्य आत्मा
थे। तुम आकाश
में चलते तो
तुम्हारे
पदचिह्न भी न
छूटते। तुम
वृक्ष से
गुजरते तो
वृक्ष का
पत्ता भी न
हिलता तुम्हारे
गुजरने से।
तुम एक अदृश्य
पवन थे। फिर तुम
एक गर्भ में
एक छोटे—से
अणु में
प्रविष्ट
हुए। अणु भी
आंख से दिखाई
नहीं पड़ता; यंत्र चाहिए
तब दिखाई पड़ता
है। बड़े छोटे
थे। फिर अणु
बड़ा होने लगा।
ऊर्जा भीतर से
बाहर की तरफ
फैलने लगी।
शरीर निर्मित
हुआ।
इंद्रियां निर्मित
हुईं।
तुम्हारा
जन्म हुआ। अब
तुम जवान हो, या बूढ़े हो; लेकिन अगर
तुम पीछे लौटो
तो तुम पाओगे
अति सूक्ष्म
अदृश्य में
तुम्हारी
गंगोत्री है—जहां
से यात्रा
शुरू हुई—मूल
स्रोत है। और
वह मूल स्रोत
अब भी
तुम्हारे
भीतर है
क्योंकि उसके
बिना तो तुम
क्षण भर ही न
रह सकोगे। वह
मूल स्रोत उड़
जाएगा: पक्षी
उड़ जाएगा, पिंजरा
पड़ा रह जाएगा;
हड्डी—मांस
के सिवाय कुछ
भी न बचेगा!
वह जो
तुम्हारे भीतर
छिपा है—इंद्रियां
चूंकि बाहर
खुलती हैं—उसकी
तुम्हें याद
ही नहीं आती
है। परमात्मा
तक को तुम
बाहर निर्मित
कर लेते हो।
और कैसा मजा
है, तुम ही
बनाते हो
परमात्मा की
मूर्ति और फिर
उसी के सामने टेककर तुम
प्रार्थना
करते हो।
तुम्हें यह भी
याद नहीं आती
कि अपनी बनाई
हुई इस मूर्ति
के सामने
प्रार्थना
करने से क्या
होगा। उस
परमात्मा को
खोजो जिसने
तुम्हें
बनाया है। तुम
उस परमात्मा
के सामने हाथ जोड़े
बैठे हो, जो
तुमने ही
बनाया है।
तुम्हारा
परमात्मा तुमसे
बेहतर नहीं हो
सकता।
तुम्हारा
परमात्मा तुमसे
छोटा ही होगा।
इसलिए तुम्हारे
मंदिर—मस्जिदों
में जो भी
देवी—देवता
बैठे हुए हैं,
तुमसे छोटे
हैं। तुमने ही
बनाए हैं, तुमने
ही सजाया—संवारा
है उनको। वे
तुम्हारी
कृतियां हैं—कलात्मक
होंगी, धार्मिक
नहीं हो
सकतीं।
कलात्मक हो
सकती हैं, और
कला के
मंदिरों में
तुम उन्हें
रखो— समझ में
आता है; लेकिन
धार्मिक उनको
समझ लो तो तुम
बड़ी भयंकर भूल
में पड़ गए। और
बाहर के
परमात्मा से
जो उलझ गया, वह पूजा करे,
प्रार्थना
करे, तीर्थयात्रा
करे, यज्ञ—हवन
करे।सब
व्यर्थ; सब
पानी में चला
जा रहा है; वह
जैसे
रेगिस्तान
में पानी डाला
जा रहा हो, जैसे
कि रेगिस्तान सोख
लेगा—सब खो
जाएगा। भीतर
की भूमि में डालो पानी—अगर
चाहते हो कि
परमात्मा का
अंकुरण हो।
बाहर के
रेगिस्तान
में पानी
डालने से
अंकुरण न होगा;
क्योंकि
जिसने
तुम्हें
बनाया है, जिससे
तुम पैदा हुए
हो, जिससे
तुम आए हो—उसे
तुम अब भी
अपने भीतर लिए
हो; क्योंकि
उसके बिना तो
तुम जी ही
नहीं सकते। सब
सांसों की सांस
में! तुम्हारी
हर सांस में
वही सांस ले
रहा है।
तुम्हारी हर
धड़कन में उसी
की धड़कन है। तुम्हारी
हर कंपन में
उसी का कंपन
है। तुम्हारे
होने में उसी
का होना है।
तीसरी
बात; परमात्मा
को तुम खोजने
भी निकलते हो,
तो तुम इतने
उधार हो कि
तुम्हारी खोज
भी उधार होती
है। तब जटिलता
बहुत बढ़ जाती
है। ऐसा ही
समझो कि तुम्हें
खुद तो प्यास
नहीं लगी है, तुमने किसी
का प्रवचन सुन
लिया और प्यास
लग गई। तुमने
मुझे सुन लिया
और मुझे सुनकर
तुम्हें ऐसा
लगा कि अच्छा
खोजना चाहिए
परमात्मा को;
तुम्हें
खुद कोई प्यास
ही न थी। यह
परमात्मा की खोज
का क्षण
तुम्हारे
अपने जीवन
अनुभव से न
आया था।
तुम्हारे
जीवन के संताप
ने तुम्हें उस
जगह न
पहुंचाया था,
जहां कि
प्रार्थना के
लिए
व्याकुलता
पैदा होती।
तुम्हारी
जीवन की
चिंताओं ने
तुम्हें उस जगह
न पहुंचा दिया
था, जहां
कि तुम शांत
होने के लिए प्रगाढ़
कामना करते।
तुम्हारे
संसार के
अनुभव में इतनी
परिपक्वता न
थी कि तुम देख
लेते कि यह सब
माया है, सपना
है। तुम्हारी
खुद की आंख
अभी इतनी सबल
न थी कि तुम इस
चारों तरफ के
फैलाव की
व्यर्थता को
समझ पाते।
तुम्हारा बोध
इतना जाग्रत न
था कि तुम
देखते कि हम
जो भी कर रहे
हैं, वह
नाटक से
ज्यादा नहीं
है। लेकिन
तुमने मुझे सुन
लिया, या
किसी और को
सुन लिया, कि
बात प्यारी
लगी, मन को
भायी, तर्क
जचा, बुद्धि
सहमत हो गई—तुम
खोज पर निकल
गए। अब बहुत
मुश्किल हो
जाएगी
क्योंकि खोज
तो प्यास से
होती है, बुद्धि
के निर्णय से
नहीं।
समझ लो
कि तुम्हें
प्यास नहीं
लगी है। और
किसी ने पानी
की खूब चर्चा
की और तुम
प्रलोभित हो गए—क्या
करोगे? पानी
मिल जाएगा तो
क्या करोगे? प्यास
तुम्हें लगी
नहीं है।
तुम्हारे
प्राण पानी को
मांग नहीं रहे
हैं।
एक झेन
फकीर हुआ—लिंची।
उससे किसी ने
पूछा कि तुम
क्या कर रहे
हो? तुम
लोगों को क्या
समझाते हो? उसने बड़ी एक
अनूठी बात
कही। उसने
कहा: "सेलिंग
वॉटर बाय द
रिवर' (नदी
के किनारे
पानी बेच रहे
हैं) बड़ी
अनूठी बात है।
नदी के किनारे
पानी बेचने की
कोई जरूरत नहीं
है, नदी ही
मुफ्त पानी दे
रही है। लेकिन
लिंची ने कहा
कि नदी के
किनारे पानी बेच
रहे हैं, क्योंकि
लोग प्यासे
नहीं हैं। नदी
उन्हें दिखाई
नहीं पड़ती।
लेकिन
क्या कोई
दूसरा आदमी
तुम्हें
प्यासा बना
सकता है? तुम
प्यासे होओ तो
दूसरा
तुम्हें इस
बोध से भर
सकता है कि
प्यास है; लेकिन
तुम प्यासे
होओ ही न, तो
कोई तुम्हें
प्यासा नहीं
बना सकता। और
बिना प्यास के
जो खोज पर
निकल जाता है,
वह व्यर्थ
ही समय खराब
करता है।
क्योंकि मूलतः
तो वह चाहता
ही नहीं है।
और तब अनूठी
चीजें घटती
हैं, जिनका
हिसाब रखना
मुश्किल हो
जाता है। जाते
तुम मंदिर हो,
लेकिन
दिखाई पड़ती
हैं सुंदर
स्त्रियां।
ऐसा होगा, क्योंकि
मंदिर की तो
कोई प्यास न
थी; प्यास
तो स्त्रियों
की थी। किसी
की बातचीत सुनकर
मंदिर का खयाल
आया। प्यास
उधार है।
जाओगे मंदिर;
देखोगे तो वही जो
तुम्हारी
प्यास है।
ऐसा
हुआ कि लंडन
के एक चर्च
में...। उस चर्च
की बड़ी
प्रशंसा इंग्लैंड
की महारानी ने
सुन रखी थी, तो वह एक बार
गई। बड़ी भीड़
थी चर्च में।
हजारों लोग
पंक्तिबद्ध
खड़े थे।
दरवाजे के
बाहर तक कतार
लगी थी। भीतर
जगह न थी।
रानी
प्रभावित
हुई। उसने
चर्च के
पुरोहित को
कहा कि मैं
बहुत प्रभावित
हूं—प्रशंसा
मैंने बहुत
सुनी थी; लेकिन
मैंने यह न
सोचा था कि
इतने लोग...!
उसने कहा, आप
भूल में हैं।
ये चर्च के
लिए नहीं आए
हैं, ये
आपके लिए आए
हैं। इनमें से
हम किसी को
नहीं पहचानते।
इनको हमने कभी
देखा ही नहीं।
ये जो भावविभोर
खड़े हैं—परमात्मा
के लिए नहीं।
आप कभी बिना
खबर किए आएं, तब आपको
असली स्थिति
का पता चलेगा।
तो रानी छिपकर
बिना किसी को
बताए, कुछ
दिनों बाद
दुबारा उस
चर्च में गई।
पादरी था, दो—चार
बूढ़े लोग थे, जो करीब—करीब
सोए थे। पादरी
बोल रहा था, सोए हुए लोग
सुन रहे थे।
तुम
मंदिर किसलिए
जाते हो? तुम
समझते कोई भी
कारण हो; लेकिन
तुम्हारी जो
प्यास होगी, वही कारण
होगा। तो यह
भी हो सकता है
कि तुम मंदिर
जा रहे होओ, क्योंकि
मुकदमा न हार
जाओ।
दो दिन
पहले एक मित्र
आए—मंदिरों की
तो छोड़ दो—दो
दिन पहले एक
मित्र आए, कहने लगे कि
तीन साल से, जब से आपको
पढ़ रहा हूं, बड़ी क्रांति
हो गई है जीवन
में। मैं बड़ा
प्रसन्न हुआ
कि यह तो बहुत
अच्छा हुआ।
मैंने कहा, अब क्रांति
के संबंध में
कुछ कहो।
उन्होंने कहा,
दो—दो फैक्टरीज
चल रही हैं।
एक पैसा पास न
था। जब से
आपको पढ़ा जीवन
में क्रांति
हो गई। दो—दो फैक्टरीज
चल रही हैं।
सब सुख—सुविधा
है। कार है।
बच्चे सब
अच्छे हैं, कालेज में
पढ़ रहे हैं।
और आपकी बड़ी
कृपा है।
ऐसा
व्यक्ति कैसे
मुझे समझ
पाएगा? अब
मैं यहां कोई फैक्टरियां
चलवाने
को हूं? और
दो फैक्टरीज
चलें कि दो सौ
चलें—जीवन में
कैसे क्रांति
हो जाएगी?
मेरे
पास भी लोग आ
जाते हैं, जिनको कहीं
और जाना था।
अब वह संयोग
की ही बात होगी,
क्योंकि
इसमें मेरा
क्या हाथ हो
सकता है, उसकी
फैक्टरी के
चलने में? मेरी
किताब पढ़ रहे
हैं, उससे
उनकी दो—दो फैक्टरियां
चल रही हैं।
अब मेरी किताब
पढ़ने से
फैक्टरी चलने
का क्या लेना—देना?
चलती
फैक्टरी बंद
हो जाए तो समझ
में भी आता है।
लेकिन चल कैसे
सकती हैं फैक्टरियां?
लेकिन वे
जीवन की
क्रांति इसको
बता रहे हैं।
बड़े
प्रफुल्लित
हैं।
मुझे
भी ठीक न लगा
कि उनसे कुछ
कहो, क्योंकि
कुछ कहना
बेकार होगा।
बहरों के सामने
वीणा बजाने का
कोई भी अर्थ
नहीं। मैंने
उनसे कहा, अब
आ गए हैं यहां
तो कुछ ध्यान
करें।
उन्होंने कहा,
सब आपकी
कृपा से ठीक
हो रहा है, अब
ध्यान की क्या
जरूरत है?
प्यास
तुम्हारी
अंततः
तुम्हारे
जीवन का वातावरण
बनती है, तुम्हारी
जो भीतर प्यास
है, वही
तुम्हारे
चारों ओर का
परिवेश बन
जाता है। तुम
प्रार्थना भी
करोगे तो तुम
मांगोगे धन। तुम
प्रार्थना भी
करोगे तो
मांगोगे पद।
तुम ध्यान भी
करोगे तो
मांगोगे
संसार। तुम
परमात्मा के
पास भी जाओगे
तो तुम्हारी
मांग संसार की
होगी।
प्यास
चाहिए। और
प्यास कैसे
आएगी? इसलिए
इतना बड़ा
उपद्रव धर्म
के नाम पर खड़ा
हो गया है। वह
कोई शोषण
करनेवाले
लोगों ने कर
दिया है, ऐसा
नहीं है; तुम्हारी
जरूरत से पैदा
हो गया है।
तुम जो मांगते
हो उसकी कोई न
कोई तो पूर्ति
करेगा। इकोनॉमिक्स
का सीधा—सा
नियम है कि
जहां—जहां
डिमांड होगी,
वहां—वहां
सप्लाई होगी।
जहां—जहां
मांग होगी, वहां—वहां
कोई न कोई
पूर्ति
करेगा। तुम
अगर जहर भी मांगते
हो, तो जहर
की दुकान खुल
जाएगी।
क्योंकि आखिर
कोई तो जहर बेचेगा—किसी
को मरना है, आत्महत्या
करनी है, तो
जहर की दुकान
खुल जाएगी।
तुमने
जो मांगा है, उसके कारण
तुम्हारे
सारे मंदिर
जहर की दुकानें
हो गए हैं। और
उनमें से तो
ज्ञानी तो हट
गया, क्योंकि
तुम्हारी
मांग की वह
पूर्ति नहीं
कर सकता था।
उसमें अज्ञानी,
पुरोहित और
पंडित होकर
बैठ गए। वे
तुम्हारी मांग
की पूर्ति
करते हैं, गंडेत्ताबीज बांटते हैं;
तुम जो
चाहते हो वह
देने के लिए
हमेशा तैयार हैं।
और यह मामला
ऐसा है कि बड़ा
महत्वपूर्ण
हैं।
मंदिर
में पुजारी
आश्वासन देता
है कि जो तुम चाहते
हो वह मिल
जाएगा। अगर मिल
जाए तो पुजारी
का प्रभाव बढ़
जाता है; अगर
न मिले तो
किसी दूसरे
मंदिर की तलाश
में चले जाते
हो। और कभी न
कभी तो तुम जो
खोजते रहते हो,
वे क्षूद्र
चीजें, वे
तुम्हें मिल
ही जाएंगी। उस
वक्त्त
तुम किसी न
किसी मंदिर
में
प्रार्थना कर
रहे होओगे, जब वे चीजें
मिलेंगी—वह
संयोग
महत्वपूर्ण
हो जाएगा।
जिसको जहां मिल
जाता है वह उस
मंदिर का भक्त
हो जाता है।
जिसको जहां
मिल जाता है, वह उस गुरु
का भक्त हो
जाता है।
लेकिन
तुम जो पा रहे
हो, उसका
किसी सदगुरु
से कुछ लेना—देना
नहीं। सदगुरु
तुम्हें कुछ
और ही देना
चाहता है। सदगुरु
तुम्हें वह
संपदा देना
चाहता है जो
कभी न चुकेगी।
सदगुरु
तुम्हें उस
जगत में ले
जाना चाहता है
कि तुम संसार
में तृप्त मत
हो जाना, क्योंकि
तुम परमात्मा
को पाने को
बने हो और उससे
कम पर तृप्त
हो जाना
नासमझी होगी।
प्यास
चाहिए। अगर
तुम जीवन को
गौर से देखो
तो प्यास अपने—आप
उठनी शुरू हो
जाएगी। इसलिए
ठीक—ठीक गुरु
सिर्फ
तुम्हें होश
सिखाता है, कि तुम
सिर्फ थोड़ा जागकर
जियो। जागकर
तुम जियोगे
तो जितना
जागरण बढ़ेगा
उसी मात्रा
में संसार सपना
मालूम पड़ने
लगेगा। तुम
जितने सोये
हुए हो, उतना
ही सपना सच
मालूम पड़ता
है। गहरी नींद
में सपना
बिलकुल सच
मालूम पड़ता
है। थोड़ी करवट
बदलने लगते हो,
थोड़ी नींद
टूटने लगी, सुबह करीब आ
गई, तो शक
पैदा होने
लगता है सपने
पर। आंख खुलती
है, जाग गए—सपना
दो क्षण याद
रहता है, फिर
बिलकुल भूल
जाता है, जैसे
हुआ ही न हो।
आंख धो लो
ठंडे पानी से,
सपने के लोक
से समाप्ति हो
गई। सपना उसी
मात्रा में सच
मालूम होता है,
जिस मात्रा
में तुम
मूर्च्छित हो,
बेहोश हो।
जिस मात्रा
में तुम जागते
हो, उसी
मात्रा में
सपना मालूम
होने लगता है।
जब तुम ठीक से
जागते हो, सपना
टूट जाता है।
तुम जागो
थोड़े। जो भी
तुम कर रहे
होओ—धन कमा
रहे होओ, पद
कमा रहे होओ, यश कमा रहे
होओ—थोड़ा जागो।
थोड़ा जागकर
देखो, क्या
कर रहे हो? ठीकरों
पर जीवन को
गंवा रहे हो। कंकड़—पत्थर
बीन रहे हो।
सब पड़ा रह
जाएगा। मौत
द्वार पर
दस्तक देगी—तुमने
जो कमाया, सब
पड़ा रह जाएगा।
इसको तुम
कसौटी बना लो।
मौत के साथ, जो यहीं छोड़
देना पड़ेगा
मौत के आने पर,
वह कमाना
नहीं है, गंवाना
है। जो तुम
मौत के भीतर
भी साथ ले जा
सकोगे, वही
कमाई है। इसको
तुम मापदंड
बना लो। कुछ
ऐसा भी कमा लो,
जो मौत
छीनकर भी
तुमसे छीन न
सके। और अगर
ऐसी संपदा का
खयाल उठ आए तो
अतृप्ति पैदा
होगी। चारों
तरफ तुम्हें
लगेगा कि यहां
तो पानी है ही
नहीं; बस
प्यास और
प्यास है, जलन
और जलन है, आग
है; यहां
कहीं छाया
नहीं है, धूप
ही धूप है।
छाया तो भीतर
है।
एक बार
बाहर से
अतृप्ति होने
लगे, तो भीतर
की स्मृति
आएगी। जब बाहर
की खोज व्यर्थ
हो जाती है, तभी कोई
भीतर की खोज
पर निकलता है।
लेकिन
तुम खोज बदल
लेते हो, लेकिन
रहते बाहर ही
हो। धन कमाते
हो; थक
जाते हो धन
कमाने से। धन
की व्यर्थता
किसको नहीं
दिखाई पड़ती? गरीब को
नहीं दिखाई
पड़ती जिसके
पास नहीं है; लेकिन जिसके
पास है उसको
तो निश्चित
दिखाई पड़ती
है। साफ हो
जाता है कि
कुछ पाया
नहीं। धन का ढेर
लग जाता है, और भीतर तो
तुम वैसे के
वैसे ही
निर्धन रहते हो,
प्रेम नहीं
खरीद सकते। और
प्रेम के बिना
कैसे तृप्त
होओगे?
धन से
यश खरीद सकते
हो? खुशामद
खरीद सकते हो,
यश नहीं।
खुशामद से कोई
कभी तृप्त हुआ
है? क्योंकि
जिसकी खुशामद
की जाती है, वह भी भली
भांति देखता
है कि खुदामद
की जा रही है।
धन से
तुम
प्रतिष्ठा
खरीद सकते हो? पद खरीद
सकते हो, प्रतिष्ठा
नहीं। और पद
पर जब तक तुम
होते हो तब
जिस
प्रतिष्ठा को
तुम अपनी
समझते हो—वह
पद की है, तुम्हारी
नहीं। तुम
राष्ट्रपति
हो जाओ—तुम्हारी
प्रतिष्ठा है;
फिर न हो
जाओ राष्ट्रपति,
कोई
तुम्हें
पूछता नहीं; खबर भी नहीं
चलती कि तुम
कहां हो।
राधाकृष्णन
कहां रहते हैं—पता
चलता है? क्या
करते हैं—पता
चलता है? कुछ
पता नहीं
चलता।
1917 में, जब रूस में
क्रांति हुई,
और लेनिन ने
तख्ता बदलकर
सत्ता हथिया
ली, तो जो
आदमी उस वक्त
रूस में सबसे
ज्यादा
प्रतिष्ठित
और
प्रभावशाली
आदमी था—करैन्स्की—वह
रूस छोड़कर भाग
गया। वह
प्रधानमंत्री
था। 1917 में सारे
जगत में उसका
नाम था। फिर 1960
तक उसका कोई
पता नहीं चला,
क्या हुआ। 1960
में वह मरा, तब पता चला
कि उसने छोटी—सी
दुकान
न्यूयॉर्क
में खोल रखी
थी।
1917 से लेकर
1960—लंबा फासला
है। पद नहीं
रहा तो कौन
पूछता है! पद
की पूछ है। पद
प्रतिष्ठा
नहीं है।
क्योंकि पद की
प्रतिष्ठा
तुम्हारी
प्रतिष्ठा
कैसे हो सकती
है? प्रतिष्ठा
तो सब है कि
तुम्हारी
गरिमा का स्रोत
तुम्हारे
भीतर हो; कि
तुम्हारी
रोशनी
तुम्हारे
भीतर जलती हो;
कि तुम जहां
चलो, जहां
कदम रखो, वह
भूमि पवित्र
हो जाए, जहां
तुम्हारे पैर
पड़ें, तुम
जिस जगह पर
बैठ जाओ, वह
जगह सिंहासन
हो जाए।
तुम्हारे
कारण पद की प्रतिष्ठा
हो—तब
प्रतिष्ठा है;
पद के कारण
तुम्हारी
प्रतिष्ठा हो—तुम्हारी
क्या
प्रतिष्ठा है?
तुम कुर्सी
के धोखे में
हो। रोशनी
तुम्हारी
नहीं है, अपनी
नहीं है।
न
तुम्हारा धन
सच्चा है, न तुम्हारा
पद सच्चा है।
जब तुम देखोगे
यह, जब तुम
गौर से समझोगे,
तब एक नई
प्यास का
आविर्भाव
होगा। वह
प्यास होगी कि
सच्चे को
खोजना है। और
फिर चाहे
सच्चा पद हो, सच्चा धन हो,
सच्चा
प्रेम हो—ये
सब नाम उस एक
ही परमात्मा
के हैं।
सत्य
एक है। और उस
एक सत्य को
पाकर प्रेम भी
सत्य हो जाता
है; धन भी
सत्य हो जाता
है; पद भी
सत्य हो जाता
है—सब सत्य हो
जाता है—सब
सत्य हो जाता
है। क्योंकि
उस सत्य में
सराबोर तुम
सत्य हो जाते
हो। तुम जो
छूते हो, वही
सोना हो जाता
हो। तुम जहां
पैर रखते हो, वहां मंदिर
बन जाते हैं।
तुम जहां चलते
हो, वहीं
तीर्थ हो जाता
है।
तीर्थ
जाने से कुछ
भी न होगा। और
जब हम कीमिया बताते
हैं कि
तुम्हीं
तीर्थ हो जाओ—और
जब कि कीमिया
सदा से जग—जाहिर
है, कोई छिपा
राज नहीं है—कि
हम तुम्हीं को
मक्का और काशी
और कैलाश बना
देते हैं, तो
फिर तुम क्यों
बाहर भटकते हो?
लेकिन
तीर्थ भी
हमारे बाहर
हैं। हमारा सब
कुछ बाहर है, क्योंकि हम
बहिर्मुखी
हैं। और जीवन
का स्रोत भीतर
है। और हमारी
अंतर्मुखता
बिलकुल खो गई
है।
अब हम
कबीर का सूत्र
समझने की
कोशिश करें।
सीधे—सादे
शब्दों में
कबीर कहते
हैं:
"मो
को कहां ढूंढो
रे बंदे, मैं
तो तेरे पास
में।
ना
मैं बकरी ना
मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंडास
में।।
नहिं
खाल में नहिं
पोंछ में, ना हड्डी ना
मांस में।
ना
मैं देवल, ना मैं
मस्जिद, ना
काबे कैलास
में।।'
मनुष्य
ने कितने—कितने
उपाय किए हैं
कि परमात्मा
को बाहर खोज
ले; कभी
मंदिर की
मूर्ति के
सामने धूप
जलाई है, दीये
जलाए हैं;
कभी मंदिर
की मूर्ति के
सामने बलिदान
दिए हैं—भेड़,
बकरी, आदमियों
के भी; नरमेध
यज्ञ भी
आदमियों ने
किए हैं!
लेकिन बकरी को,
भेड़ को, या
आदमी को काट
डालने से कैसे
तुम परमात्मा
पा लोगे? बड़े
सस्ते में
पाने चले हो—एक
बकरी काट दी, कि एक भेड़
काट दी; किसको
धोखा दे रहे
हो?
अपने
को काटे बिना
कोई भी
परमात्मा को
नहीं पा सकता।
लेकिन आदमी
अपने को बचाता
है और किसी दूसरे
को चढ़ाता
है। बकरी के
काटने से शायद
बकरी पा ले; बाकी तुम
कैसे पा लोगे?
और बकरी भी
नहीं पा सकेगी?
क्योंकि
उसने स्वयं को
नहीं काटा है।
स्वयं
को बलिदान कर
देना, स्वयं
को मिटा देना
ही सूत्र है—स्वयं
को पा लेने
का। परमात्मा
के साथ भी
आदमी सौदा कर
रहा है कि चलो
एक बकरी को
चढ़ा देते हैं;
चलो रुपया चढ़ाए देते
हैं।
आदमी
ने आदमी को भी चढ़ाया।
फिर यह बात
बेहूदी होती
गई, तो आदमी
ने प्रतीक खोज
लिए। पहले
आदमी खून चढ़ाता
था, अब वह
सिंदूर लगाता
है। वह खून का
प्रतीक है। पहले
आदमी सिर को चढ़ाता था, अब नारियल चढ़ाता है।
नारियल आदमी
की खोपड़ी जैसा
है—दो आंख भी
दिखाई पड़ती है
और दाढ़ी—मूंछ
सब है। आदमी
के सिर फोड़े
हैं आदमी ने
मंदिर की
मूर्ति के
सामने; फिर
वह जरा
अमानवीय हो
गया, तो
प्रतीक खोज
लिए हैं।
लेकिन अपने को
चढ़ाने से
आदमी बचता
रहा। ये सब
तरकीबें हैं—अपने
को चढ़ाने
से बचाने की।
तुम
जाते हो गंगा
कि स्नान करके
पवित्र हो जाओगे।
निश्चित, एक
स्नान की
जरूरत है; लेकिन
वह भीतर की
गंगा का स्नान
है। बाहर की गंगा
में स्नान
करने से शरीर
की धूल—धंवास
झड़ जाए; तुम
कैसे शुद्ध हो
जाओगे? पानी
तुम्हें
छुएगा भी नहीं,
स्पर्श भी न
होगा। अलग—अलग
आयाम हैं।
दोनों एक—दूसरे
को छूते भी
नहीं। लेकिन
आदमी बचना
चाहता है, अपने
को बदलने से।
यह
थोड़ा समझ लें।
अपने को बदलने
से बचना चाहता
है और यह
अहंकार भी
बचाए रखना
चाहता है कि
हम अपने को
बदलने की
कोशिश कर रहे
हैं। इसी से
सारा उपद्रव
पैदा हुआ है।
ठीक जी रहे
हैं; हम ऐसे ही
क्षुद्र जीवन
जी रहे हैं; हम यह कौड़ी—कंकड़ में लगे
हैं; हम यह
बाजार में ही
अपना जीवन
गंवा रहे हैं।
यह भी अहंकार
को तृप्ति
नहीं मालूम
पड़ती। अहंकार
कहता है, इतना
नहीं; कुछ
और करो, कुछ
बड़ा करके
दिखाओ। यह सब
तो यहीं पड़ा
रह जाएगा। तो
कुछ धर्म—पुण्य
भी करो। तो
तुम समझौता कर
लेते हो, क्योंकि
धर्म—पुण्य तो
कठिन मामला है—उसमें
तो तुम्हें
पूरा जीवन
बदलना पड़ेगा—तो
तुम कहते हो
कि कोई सस्ती
तरकीब। तो
तरकीब यह है
कि तुम तीर्थ
कर आओ। एक चार
दिन की छुट्टी
निकाल लो।
ध्यान
रहे, धर्म को
कोई भी संसार
में से छुट्टी
निकालकर नहीं
कर सकता। धर्म
ता जब होता है,
तब
तुम्हारे चौबीस
घंटे धर्म में
बहने लगते
हैं। धर्म कुछ
ऐसा नहीं है
कि पंद्रह
मिनट कर लिया
और बाकी फिर पौने
चौबीस घंटे
मजे से अधर्म
किया। खंड—खंड
नहीं हो सकता।
धर्म तो सांस
की तरह है: जब तक
चौबीस घंटे न
चले, तब तक
उसका कोई सार
नहीं है। तो
तुम गए तीर्थ,
दो दिन भजन—कीर्तन
में रस लिया, थोड़ा दान—पुण्य
किया; फिर
घर आकर उसी
पुरानी
दुनिया में
संलग्न हो गए—और
जोर से; क्योंकि
वह चार दिन जो
नुकसान हुआ है,
वह भी पूरा
तो करना ही
पड़ेगा। तो अगर
जेब एक काटते
थे तो दो
काटने लगे। और
फिर अगले दफा
जाना है
तीर्थयात्रा
पर, तो
उसके लिए भी
तो पैसा
इकट्ठा करना
पड़ेगा। मंदिर
हो आते हो—ऐसा
लगता है जैसे
तुम परमात्मा
पर कुछ एहसान
कर रहे हो।
क्योंकि, मंदिर
से जब तुम
लौटते हो तो
बड़े अकड़ककर
लौटते हो—फिर
कर आए एहसान!
और कुछ विनम्र
नहीं होते मंदिर
से, तीर्थ
से लौटकर
विनम्र नहीं
होते। जो आदमी
हज हो आता है, वह हाजी हो
जाता है! उसकी
अकड़ देखो! यह
तरकीब है, बिना
धार्मिक हुए
धार्मिक होने
की। धर्म से भी
बच गए, क्योंकि
वह तो
महाक्रांति
है। उससे बड़ी
कोई क्रांति
नहीं। वह तो
अकेली
क्रांति है, एकमात्र
क्रांति है—जिससे
तुम्हारा सब
कुछ बदल जाता
है, सब कुछ
नया हो जाता
है; पुराना
इस तरह मर
जाता है कि
पुराने से नए
का कोई संबंध
ही नहीं होता—सातत्य
ही टूट जाता
है, शृंखला
ही बदल जाती
है; जैसे
पुराना आदमी
बचा ही नहीं
और एक नए आदमी
का आविर्भाव
हो जाता है।
वह तो नया
जन्म है।
लेकिन
उतना महंगा, उतना हिम्मत
का काम, तुम
नहीं कर पाते।
तुम सोचते हो,
थोड़ा सस्ते
में निपटा लो।
असली फूल तुम
नहीं उगा पाते;
तुम कागज के
फूल बाजार से
खरीद लाते हो।
और कागज के
फूलों की एक
खूबी है: न तो
पानी देना
पड़ता, न
उनकी चिंता
करनी पड़ती है,
क्योंकि
जानवर भी
उन्हें नहीं
खाते। वे तुम
जैसे नासमझ
नहीं हैं कि कागज
का फूल और
जानवर खाए, कभी इस भूल
में नहीं
पड़ेगा; सिर्फ
आदमी ही ऐसी
भूलें करता
है। और फिर
कागज का फूल
सुबह जन्मा है,
सांझ को
मरता है—ऐसा
भी नहीं; सनातन
मालूम होता है—रखा
है, रखा है,
रखा है। एक
दफा ले आए—सदा
के लिए हो
गया।
जीवन
तो प्रतिपल
नया करना होता
है। जीवन
पत्थरों की
तरह नहीं है, फूलों की
तरह है। और
धार्मिक जीवन
तो प्रतिपल नया
उगता हुआ फूल
है। धार्मिक
जीवन तो
प्रतिपल अतीत
की मृत्यु है
और वर्तमान का
जन्म है। वहां
तो हर चीज
ताजी है। वह
जरा कठिन
मालूम पस?ता
है, और
इतना ज्यादा
मालूम पड़ता है
कि इतनी प्यास
ही नहीं है।
तो लोग कहते
हैं कि फूल
चाहिए, तो
घर में तुम
कागज के फूल
रख लेते हो।
और अब तो प्लास्टिक
के फूल उपलब्ध
हैं। कागज के
फूल में भी
खतरा था—कभी
आग लग जाए, कभी
यह हो जाए। अब
प्लास्टिक के
फूल हैं तो और भी
खतरा कम है; बड़ी सुरक्षा
है।
ऐसे ही
तुम एक झूठे
भगवान का
मंदिर बनाकर
घर में रख
लेते हो, एक
मूर्ति को
निर्मित कर
लेते हो। उससे
तुम्हारा कुछ
नहीं बिगड़ता;
तुम जैसे हो,
वैसे ही
रहते हो। न
केवल उतने, बल्कि उस
मूर्ति से तुम
जैसे हो, अपने
को और मजबूत
कर लेते हो, कि अब तुम
धार्मिक भी हो
गए।
तुम्हारा
धर्म आत्मवंचना
है। पृथ्वी पर
जो इतने मंदिर—मस्जिद
दिखाई पड़ते
हैं, वे
तुम्हारे
धोखे का
विस्तार हैं।
जिस दिन तुम्हें
यह दिखाई
पड़ेगा, उस
दिन तुम्हारी
आंख भीतर लौटनी
शुरू होगी। उस
दिन तुम असली
मंदिर खोजोगे।
वह मंदिर तुम
हो। इसलिए
कबीर कहते
हैं:
"मो
को कहां ढूंढो
रे बंदे, मैं
तो तेरे पास
में।
ना
मैं बकरी ना
मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंड़ास
में।।
नहिं
खाल में नहिं
पोंछ में, ना हड्डी ना
मांस में।
ना
मैं देवल ना
मैं मस्जिद, ना काबे
कैलाश में।।'
न तो
मैं देवल हूं, न मस्जिद
में हूं, न
काबे में हूं,
न कैलाश में
हूं।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर है। तुम
परमात्मा हो।
तुम्हारा होना
ही परमात्मा
का होना है।
तुम परमात्मा
का एक रूप हो।
तुम परमात्मा
की एक लहर, एक
तरंग हो। तुम
परमात्मा की
एक भावदशा
हो। तुम
परमात्मा का
एक संगठन हो।
तुम एक इकाई
हो। वह होगा
सूरज, तो
तुम एक छोटे
दीए हो, लेकिन
आग वही है। वह
होगा विराट, वह होगा
महासागर, तुम
एक बूंद हो; लेकिन एक
बूंद में पूरा
सागर छिपा है।
और एक बूंद को
कोई पूरा जान
ले, तो
पूरे सागर को
जान लिया; कुछ
और जानने को
बचता नहीं है।
क्योंकि एक
बूंद में जब
सूक्ष्म रूप
से पूरा सागर
मौजूद है। पिंड
में
ब्रह्मांड मौजूद
है। आत्मा में
परमात्मा
मौजूद है।
व्यक्ति में
समष्टि मौजूद
है।
ना तो कौनो
क्रिया कर्म
में, नहिं जोग
बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं,
पल भर की तालास
में।।
ना तो कौनो
क्रिया कर्म
में। होना है
परमात्मा का स्वाभाव; क्रिया—कर्म
तो ऊपर—ऊपर
है। तुम मंदिर
में बैठकर
पूजा कर रहे
हो, घंटी
बजा रहे हो, घंटी बजती
रहेगी; तुम
दीया लेकर
आरती उतार रहे
हो, आरती
उतर जाएगी—लेकिन
इससे
तुम्हारे
होने में क्या
फर्क पड़नेवाला
है? तुम तो
तुम ही रहोगे।
और क्रिया से
परमात्मा का
क्या संबंध है?
तुम सारी
क्रियाएं छोड़
दो, तो भी
तो तुम्हारे
भीतर जीवन
रहेगा। तुम
बिलकुल आंख बंद
करके पड़ जाओ, कुछ भी न करो,
तो भी तो
तुम हो!
तो
क्रिया तो गौण
है, बाहर है;
होना भीतर
है, मूल
है। होकर ही
कोई परमात्मा
को पाता है।
कर—करके कुछ
भी नहीं कोई
पा सकता।
क्रिया से
होना बड़ा है।
क्योंकि सब
क्रियाएं
होने से
निकलती हैं।
और सब
क्रियाओं को
भी जोड़ दो तो भी
सब क्रियाओं
के जोड़ से
होना नहीं
पूरा होता; होना फिर भी
बड़ा हैं।
तुमने जो भी
किया है अब तक,
सब भी जोड़
दिया जाए तो
भी तुम उससे
बड़े हो, क्योंकि
तुम कुछ और कर
सकते हो। तुम
प्रतिफल कुछ
और करते
रहोगे। करना
तो पत्तों की
तरह है—निकलते
चले जाते हैं।
होना जड़ की
तरह है। जड़ को
ही खोजो।
पत्ते—पत्ते
बहुत खोजा, बहुत भटके।
पत्ते अनंत
हैं—और भटकते
रहोगे। जड़ को
पकड़ लो।
व्यक्तित्व
की जड़ कहां है?—कर्म में
नहीं, क्रिया
में नहीं, सिर्फ
होने मात्र
में।
विचार
भी क्रिया है।
हाथ से कुछ
करो, वह भी
क्रिया है; मन से कुछ
करो, वह भी
क्रिया है। जब
सब क्रिया
शांत हो जाती
है—न हाथ कुछ
करते हैं, न
मन कुछ करता
है; जब तुम
बस हो; सब
ठहर गया, कोई
गति नहीं है, कोई तरंग
नहीं—अचानक, अचानक सब
मौजूद हो जाता
है जिसकी तुम
तलाश कर रहे
थे; आनंद
और प्रेम और
परमात्मा सब
बरस जाता है।
ना तो कौनो
क्रिया कर्म
में, नहिं जोग
बैराग में।
कबीर ठीक झेन फकीरों
जैसे हैं।
कबीर कहते हैं,
कुछ भी करने
की जरूरत नहीं
है कि तुम योग
करो, कि
तुम आसन लगाओ,
कि तुम
शीर्षासन करो,
कि तुम हजार
तरह के क्रियाकांड
में उलझो—कुछ
भी करने की
जरूरत नहीं
है। क्योंकि
जिसे तुम खोज
रहे हो, वह
सब करने से
पहले
तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। यह फर्क
ठीक से समझ
लेना, जैसा
है, क्योंकि
बहुत नाजुक
है। होना—बीइंग,
और करना—डुइंग:
यह फर्क बहुत
नाजुक है।
ऐसा
समझो कि तुम
किसी के प्रति
प्रेम में हो, तो तुम कुछ करते
हो। तुम्हारा
प्रेमी मिलता
है तो गले लगा लेते
हो। तुम्हारा
प्रेमी
आनेवाला होता
है तो द्वार
पर टकटकी
लगाकर बैठ
जाते हो।
तुम्हारा
प्रेमी
आनेवाला होता
है, तो
किसी दूसरे की
पगध्वनि भी
भ्रांति देती
है कि शायद
प्रेमी आ गया;
उठकर द्वार
पर आ जाते हो।
प्रेमी आनेवाला
है तो भोजन
तैयार करते
हो। प्रेमी
आनेवाला है तो
भेंट तैयार
करते हो। बहुत
कुछ करते हो।
लेकिन प्रेम
क्या कुछ करना
है? करने
के पहले प्रेम
है। प्रेम एक भावदशा
है। कुछ भी न
करो तो क्या
प्रेम मिट
जाएगा, क्या
करने का जोड़
ही प्रेम है? तो प्रेम है
ही नहीं। करने
से तो प्रेम
की
अभिव्यक्ति
हो रही है।
लेकिन जिसकी
अभिव्यक्ति
हो रही है, वह
तो करने के
पहले मौजूद है,
तभी
अभिव्यक्ति
हो सकती है।
ऐसा
हुआ, एक बहुत
महत्वपूर्ण व्यक्त्ति
हुआ—लॉरेंस।
वह था तो
अंग्रेज
लेकिन जिंदगी
भर रहा अरबों
के साथ, रेगिस्तान
में। उसे
रेगिस्तान की
जिंदगी पसंद
थी। और
रेगिस्तान
में लोग उसे
बिलकुल अपना
मानने लगे।
पेरिस में एक
बड़ी प्रदर्शनी
थी, और
अरबों के एक
दल को लेकर वह
पेरिस
प्रदर्शनी
दिखाने ले
गया। कोई बारह
अरब उसके साथ
गए। वे पहली
दफा
रेगिस्तान के
बाहर निकले
थे। एक बड़ी शानदार
होटल में उसने
उन्हें
ठहराया। उसकी
बड़ी
प्रतिष्ठा थी—उस
व्यक्ति की।
लेकिन वह बड़ा
चकित हुआ कि
वे जो अरब थे, किसी चीज
में रस न लें।
न तो वे
प्रदर्शनी
देखने में रस
लें; बस
जल्दी—जल्दी
वापस चलना है।
और जैसे होटल
पहुंचे, वे
फौरन बाथरूम
में घुस जाएं।
वह बड़ा हैरान
हुआ कि मामला
क्या है? उनको
सबसे चमत्मकारी
जो चीज लगे, वह लगे नल।
रेगिस्तान
में रहने वाले
लोग, पानी
के लिए तड़पे—बस
वे जल्दी ही
टोंटी खोलकर
या तो शॉवर
के नीचे खड़े
हो जाएं या
पानी देखें।
उनको देखने
में ही...उनको
बहुत रस आए।
बड़ी—बड़ी चीजें
थीं
प्रदर्शनी
में—सारी
दुनिया की प्रदर्शनी
थी—मगर उन्हें
किसी चीज में
रस न था; उन्हें
केवल नल की
टोंटी में रस
था। फिर जिस दिन
वे जाने को थे,
कार आकर खड़ी
हो गई, सामान
लद गया और अरब
सब नदारद!
ट्रेन चूकने
की नौबत आ गई
तो वह भागा
हुआ ऊपर आया
कि भाई क्या कर
रहे हो? वे
सब टोंटियां
खोल रहे थे साथ
ले जाने को।
उसने उन्हें
समझाया कि नासमझो!
टोंटियों
से कुछ न
होगा। टोंटी
तो तुम ले
जाओगे, लेकिन
भीतर जल का
स्रोत चाहिए।
टोंटी से जल
नहीं आ रहा है;
टोंटी से
सिर्फ निकल
रहा है; आ
तो बहुत भीतर
से रहा है।
तुम्हारे
सारे कृत्य, प्रेम में
जो करते हो, टोंटियों जैसे हैं।
तुम किसी को
गले लगा लेते
हो—वह टोंटी
है, उससे
जल गिरेगा; लेकिन भीतर
जल चाहिए, तो
ही गिरेगा।
भीतर न हो तो
तुम गले से
लगा लोगे तो
हड्डियों से
हड्डियां मिल
जाएंगी, चमड़ी—चमड़ी
को छुएगी,
लेकिन
प्रेम का कोई
भी आदान—प्रदान
न होगा; प्रेम
की लपट एक
हृदय से दूसरे
हृदय में न
जाएगी। टोंटी
तुम खोलकर बैठे
रहोगे। जल की
एक बूंद न
टपकेगी।
होना
पहले है, करना
अभिव्यक्ति
है। तो किसी क्रियाकांस
से कोई
परमात्मा को
नहीं पा सकता;
लेकिन अगर
कोई परमात्मा
को पा ले तो
उसके जीवन की
हर कृत्य से
वह प्रगट होने
लगता है। उसके
उठने—बैठने
में भी
परमात्मा की
अभिव्यक्ति
होती है। उसकी
आंख का एक
इशारा
परमात्मा का
इशारा हो जाता
है। फिर वह जो
भी करता है, वह सभी पूजा
है।
कबीर
ने कहा है, जो जो करुं सो
पूजा।
क्योंकि कबीर
न कभी मंदिर
गए, न
मस्जिद; कपड़ा ही
बुनते रहे!
जुलाहे थे तो
काम जारी रखा।
लोग कहते भी
गए, बंद कर
दो, क्यों कपड़ा
बुनते हो? वे
कहते थे, जो
जो करुं
सो पूजा और
जिसके लिए कर
रहा हूं वह
परमात्मा है।
झीनी—झीनी रे बीनी रे
चदरिया! वह भी
परमात्मा के
लिए ही बुन
रहा हूं।
बाजार जाते तो
जो भी ग्राहक
खरीदता उसको वे
हमेशा राम ही
कहते कि राम, सम्हालकर
रखना, बहुत
प्यार से बुनी
है। बड़ी
प्रार्थना से
बुनी है। एक—एक
धागे में
प्रार्थना
है। ऐसे ही
नहीं बुन दी
गई है; राम
के लिए बुनी
है। पता नहीं
ग्राहक समझ भी
पाते या नहीं,
या इस आदमी
को पागल
समझते। लेकिन
कबीर कहते हैं,
जो भी मैं
करता हूं, वह
अब सभी पूजा है;
जो जो
करता हूं सभी
परिक्रमा है।
कृत्य
से कोई
परमात्मा को
नहीं पाता; परमात्मा को
पा ले तो सभी
कृत्य
धार्मिक हो जाते
हैं—सभी! छोटे—छोटे
कृत्य। प्यास
लगी है। पानी
पीना—वह भी
धार्मिक हो
जाता है, क्योंकि
प्यास भी उसी
को लगी है, पानी
भी उसी का है।
पानी का मिलन
प्यास से, परमात्मा
का सृष्टि से
मिलन है; सृष्टि
का स्रष्टा से
मिलन है; जैसे
कवि का कविता
से; जैसे
मूर्तिकार का
अपनी मूर्ति
से मिलन हो जाए;
जैसे
गीतकार को
अपना ही गीत
वापस लौट आए
और मिल जाए।
जब प्यास लगती
है तो भीतर
स्रष्टा को प्यास
लगी है—उसका
ही पानी है, उसकी ही
सृष्टि है।
गीतकार पर गीत
वापस लौट आया—वर्तुल
पूरा हो गया; सृष्टि
स्रष्टा में
लीन हो गई।
छोटी—सी पानी
पीने की छोटी
घटना में भी
सृष्टि स्रष्टा
में लीन हो
रही है।
जो जो
करूं सो पूजा!
तब भोजन करो
तो भी पूजा
है। तब कबीर
अलग से भोग
नहीं लगाते
परमात्मा को; तब कबीर जो
भोजन करते हैं,
वही
परमात्मा को
लगाया गया भोग
है। क्योंकि भीतर
परमात्मा
बैठा है।
ना
तो कौनो
क्रियाकर्म
में, नहिं
जोग बैराग
में।
खोजी
होय तो तुरतै
मिलिहौं, पलभर की तालास
में।।
और
जब...जो भीतर ही
बैठा है, जो
तुम्हारा
होना है, जिसका
किसी क्रिया
से कुछ लेना—देना
नहीं, जिससे
सब क्रियाएं
निकलती हैं, जो सभी का
मूल है—उसको
क्या तुम आसन
लगाकर पाओगे?
उसको तो
लेटकर भी पाया
जा सकता है।
लेटने में भी
वही मौजूद है।
उसे तुम सिर
के बल खड़े
होकर पाओगे? उसे तो पैर
के बल खड़े
होकर बड़े मजे
से पाया जा सकता
है, क्योंकि
वह तब भी
मौजूद है। उसे
तुम उपवास
करके पाओगे? उसे तुम
शरीर को सताकर
पाओगे? उसे
तुम धूप में
बैठकर पाओगे?
क्योंकि
छाया भी उसी
की है। सभी
कुछ उसका है इसलिए
कुछ भी करने
की शर्त नहीं
है। शर्त है
तो होने की है
कि तुम हो जाओ;
कि तुम इतने
भरपूर हो जाओ
कि तुम्हारे
प्रत्येक
कृत्य से वही
बहने लगे।
और
कबीर एक बड़ा
अनूठा विचार
कह रहे हैं: वह
जो झेन फकीर
कहते हैं—सडन
एनलाटमेन्ट—समाधि
इसी पल हो
सकती है। एक
पल तक भी
रुकने की कोई
जरूरत नहीं है, स्थगित करने
की कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि समाधि
कोई सरकारी
दफ्तर नहीं है
कि कल, कल, कल, और
फिर कभी नहीं
होता। समाधि
कोई रेड टेप
नहीं है कि
उसके लिए कोई
बड़े दफ्तरों
में
प्रार्थना
करनी पड़ती है,
फिर वहां से
सैंक्शन
मिले, फिर
रिश्वत खिलाओ,
फिर
लाईसेंस निकालो—तब
तुम्हारी
समाधि होगी।
अगर दूसरे का
सहारा लेना हो
तो फिर पता
नहीं कब वह दूसरा
सहारा देगा और
कब घटना
घटेगी। अगर
दूसरे पर थोड़ी
भी निर्भरता
हो तो समय
लगेगा, दूसरे
का क्या भरोसा—दे,
न दे! लेकिन
समाधि
तुम्हारा
शुद्ध निर्णय
है। समाधि एक
मात्र घटना है
इस जगत में जो
तुम्हारे
अकेले होने से
घट सकती है, जिसके लिए
दूसरे की
जरूरत नहीं
है। सभी
घटनाओं में
दूसरे की
जरूरत है।
प्रेम तक के
लिए दूसरे की
जरूरत है।
दूसरा न हो तो
कैसे प्रेम
घटेगा। इसलिए
प्रेम भी
निर्भर है, मोहताज है।
अकेली समाधि
एकमात्र घटना
है जो मोहताज
नहीं है, जो
भिखारी नहीं
है। अकेली
समाधि सम्राट
है। तुम जिस
क्षण चाहो, तुम ही न चाहो—तुम्हारी
मर्जी तुम कई
बार सोचते हो
कि तुम चाहते होऔर घटती
नहीं है; तुम
गलत सोचते हो।
तुम चाहते
नहीं; नहीं
तो घटेगी ही।
वह नियम है।
उस नियम में
कोई रूपांतरण
नहीं हुआ है।
कभी नहीं
होगा।
मुझसे
कई बार लोग
आकर कहते हैं
कि आप कहते
हैं, चाहने से
घट जाएगी; चाहते
तो हम भी हैं, लेकिन उनकी
चाह मैं देख
रहा हूं कि
बिलकुल कुनकुनी
है। चाह का
मतलब हंडरेड
डिग्री, सौ
डिग्री पर
होनी चाहिए, तभी पानी
उबलता और भाप
बनता है। भाप
बनाने की इच्छा
है, बड़ा
तबेला रखे
बैठे हैं मन
का और एक
अंगारा लगा
रखा है नीचे—उससे
होता ही नहीं।
ऐसा
हुआ कि एक
सम्राट ने एक
फकीर को, उसकी
यह बात सुनकर—फकीर
ने कहा कि
परमात्मा
मेरी सब जगह
रक्षा करता है;
हर हालत में
मेरी रक्षा
करता है; मुझे
किसी और चीज
की रक्षा की
जरूरत नहीं है,
वह काफी है।
सम्राट ने कहा,
ठीक! सर्द
रात थी, बर्फ
पड़ती थी। उस
फकीर को महल के
पास की नदी
में नग्न खड़ा
करवा दिया गले—गले
पानी में, और
कहा, देखें,
तेरा
परमात्मा
कैसे बचाता
है! सुबह फकीर
ताजा था, बिलकुल
ठीक—ठीक था
गुनगुनाता
गीत—जैसी उसकी
आदत थी। वह
महल आया।
सम्राट देखकर
भरोसा न कर
सका। इतनी
सर्द रात थी
कि मर ही जाता,
जम ही जाता
खून। क्या
मामला है? उसने
कहा, तो
तुम बच गए? तुमने
कोई सहारा तो
नहीं लिया? सैनिक ने
कहा—जो इसे
लेकर आया था—कि
सहारा लिया है,
मैंने रात
देखा था। महल
के ऊपर जो
दीया जलता है
उसको वह देख
रहा था। उसी
से मालूम होता
है, इसको
गर्मी मिली
है। कहां महल
का दीया, दो
फर्लांग
के फासले पर
नदी, बर्फ
पड़ती रात! मगर
सम्राट ने कहा
कि यह तो तुमने
धोखा दिया।
परमात्मा
पर्याप्त
नहीं है।
फकीर
कुछ बोला
नहीं। वह लौट
गया। कुछ
दिनों बाद
फकीर ने दावत
दी सम्राट को।
उसके दरबारियों
को, सभी को
बुलाया। बड़ी
दावत दी। करीब—करीब
नगर को
निमंत्रित कर
लिया। सब लोग
पहुंचे। फकीर
की दावत थी।
सम्राट भी
आया। बैठे लोग,
फकीर अंदर
जाए बार—बार, फिर बाहर आ
जाए। पूछा कि
बड़ी देर हुई
जा रही है, बात
क्या है? उसने
कहा कि भोजन
पक जाए तो मैं
खबर दूं। फिर
देर बहुत होने
लगी, भूख
भी बढ़ने लगी।
और फकीर फिर
इधर—उधर की
बातें करें।
आखिर सम्राट
ने कहा कि
मामला क्या है?
मैं अंदर
चलकर देखना
चाहता हूं।
दोपहर भी हो गई
अब सांझ भी
करीब आई जाती
है। यह क्या
भूखे मार
डालोगे? अंदर
जाकर देखा तो
वहां कुछ भी न
था! खाली चूल्हे
पर एक बड़ा
तपेला रखा था।
मीठे चावल
उसमें भरे हुए
थे। आग तो
वहां थी ही
नहीं। उसने
कहा, तू यह
क्या कर रहा
है? उसने
कहा, आप के
महल का दीया!
हम उसी आग पर
तपा रहे हैं, जिस आग से हम
उस रात बच गए
थे। कभी न कभी
जरूर भोजन पक
जाएगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि चाह तो
है। लेकिन जब
वे कहते हैं
चाह तो है, तब भी मैं
देखता हूं कि
वे डर रहे हैं
कि कहीं ऐसा न
हो कि समाधि
लग ही जाए।
चाह तो है, उसमें
भी पैर पीछे
खींचते हुए
मैं उनको
देखता हूं। वे
मेरी तरफ ऐसा
देखते हैं, ऐसा नहीं कि
आप पक्का ही
मान लें। मतलब
है, थोड़ी
जिज्ञासा है।
जानने का थोड़ा
खयाल है।
चाह जब
पूरी होती है; जब चाह समग्र
होती है; जब
तुम्हारे
प्राण में
सिर्फ चाह ही
चाह होती है; जब तुम्हारे
रोएं—रोएं
से एक ही
पुकार उठती है
परमात्मा को
पाने की—तब
कबीर ठीक कहते
हैं: खोजी होय
तो तुरतै मिलिहौं।
जितनी गहन चाह
है, उतनी
ही परमात्मा
और तुम्हारे
बीच की दूरी
कम हो जाती
है। अगर चाह परिपूर्ण
है तो दूरी
समाप्त हो गई।
चाह का ही सवाल
है।
श्री
अरविंद ने उस
तरह की चाह के
लिए एक नए शब्द
का प्रयोग
किया है, वह
ठीक है। इसे
वे कहते हैं:
अभीप्सा।
आकांक्षा
नहीं, अभिलाषा
नहीं—अभीप्सा।
अभीप्सा के
शब्द में बल
है। उसका अर्थ
है ऐसी चाह की
पूरा जीवन दाव
पर लगा है कि
कुछ बचाने का
सवाल नहीं है;
संदेह
रत्तीभर नहीं
है—तब उसी पल
घट जाती है
घटना।
देर लग
रही है, क्योंकि
देर तुम लगा
रहे हो। देर
लग रही है, क्योंकि
तुम चाहते हो
कि देर लगे।
अभी कहीं—कहीं
संसार में रस
बाकी है।
सोचते हो, एक
दिन और गुजर
जाए, समाधि
न लगे; तो
यह जो सौदा
किया है, यह
निपट जाए; कि
यह जो नया—नया
प्रेम हो गया
है किसी
स्त्री से, इससे तृप्ति
हो जाए—जरा और
देर समाधि न
लगे।
देखना
अपने मन में
गौर से: तुम
इसी क्षण
समाधि चाहते
हो? कुछ राग—रंग
बचा नहीं है? सब तरफ से
तुम भर गए हो
संसार से? कोई
और चाह नहीं
बची?
जब सभी
चाहें—जैसे
सभी नदियां
सागर में गिर
जाती हैं—जब
सभी चाहें एक
चाह में गिर
जाती हैं, उसी क्षण, उसी क्षण
परमात्मा
मिला ही हुआ
था; बस तुम
जाग ही जाते
हो, नींद
टूट जाती है, सपना मिट
जाता है। सपने
तक से जागने
में आदमी डरता
है, अगर
सपना अच्छा चल
रहा हो, और
बुरा भी चल
रहा हो तो आशा
तो बनी रहती
है कि आज बुरा
चल रहा है, आज
जरा धंधा ठीक
नहीं चल रहा
है, कल
चलेगा; कौन
जाने कल सब
ठीक हो जाए!
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक रात
सपना देखा।
सपने में देखा
कि कोई एक देवदूत
कह रहा है कि
निन्यानबे
रुपये ले लो।
मुल्ला ने कहा, निन्यानबे?
सौ लूंगा।
और जब लेने ही
हैं तो
निन्यानबे
क्यों? क्यों
मुझे चक्कर
में
निन्यानबे के
डालते हो? सौ
ही दे दो।
लेकिन उसने
इतने जोर से
कहा कि सौ ही
दे दो, कि
खुद के मुंह
से आवाज निकल
गई और नींद
टूट गई। नींद
टूट गई तो
उसकी आंख खुल
गई। उसने पत्नी
से कहा कि बड़ी
मुसीबत हो गई।
फिर उसने आंख बंद
की और कहा, भाई,
कोई हर्जा
नहीं, निन्यानबे
ही दे दो। मगर
अब वहां कोई
है नहीं। अठानबे,
सतानबे—वह उतरता
आया और उसने
कहा, अच्छा,
एक ही दे दो,
जिसके लिए जिद्द खड़ी
हो गई थी। तुम
निन्यानबे कह
रहे थे; हम
सौ कह रहे थे।
अब हम एक पर भी
राजी हैं।
मगर अब
सपना नहीं है
वहां।
आदमी
सपने में भी—सुखद
सपना चल रहा
हो तो चलाए
रखना चाहता है; दुखद चल रहा
हो तो सोचता
है कि आज दुख
है, कल सब
ठीक हो जाएगा।
सुख हो तो पकड़ने
का मन होता है,
दुख हो तो
कल आशा बांधे
मन अटका रहता
है।
समाधि
का अर्थ है कि
न तो अब सुख की
कोई चाह रही, न कोई सुख की
आशा रही।
संसार जैसा था
वैसा देख लिया—आर—पर,
व्यर्थ
पाया, स्वप्न
पाया; अब
तो जागने की
एकमात्र
इच्छा रह गई।
सभी इच्छाएं
जो संसार में
नियोजित थी, अब एक ही चाह
में आ गिरीं
कि जाग जाऊं।
फिर तुम्हें
कोई रोक न
सकेगा। कोई
रोकने को नहीं
है। तुम्हारी
चाह में ही
तुम बंटे हो।
तुम्हारी
शक्ति इधर लगी,
उधर लगी, हजार तरफ
लगी है। वह
सारी शक्ति एक
ही चाह में गिर
जाए, अभीप्सा
बन जाए—खोजी
होए तो तुरतै
मिलिहौं—वही
मतलब है कबीर
का।
खोजी
कौन है? परमात्मा
की चाह जिसकी
अभीप्सा हो गई
है; जो सब
दांव पर लगाने
को राजी है; जो कुछ भी
बचाना न
चाहेगा। खोजी
होय तो तुरतै
मिलिहौं—और
जब तुरंत एक
पल भी न जाएगा—पल
भर की तालास
में।
मैं तो
रहो सहर के
बाहर, मेरी
पुरी मवास
में। कबीर कह
रहे हैं कि
परमात्मा
संसार में
नहीं रह रहा
है, शहर के
बाहर है। शहर
यानी संसार—वह
जो चारों तरफ
फैला है।
परमात्मा
वहां नहीं रह
रहा है। मेरा
रहना तो भीतर
के गढ़ में
है। मैं तो
वहां हूं। सब
तरफ संसार है;
सिर्फ भीतर
संसार नहीं है;
वहां मोक्ष
है।
लोग
पूछते हैं, मोक्ष कहां
है और मंदिरों
में नक्शे भी
टंगे हैं कि
ऐसा—ऐसा जाओ
फिर यहां ये—ये
सीढ़ियां
पड़ेंगी और ये—ये
द्वार
मिलेंगे। और
नीचे नरक है
और ऊपर स्वर्ग
है और सबके
ऊपर मोक्ष है।
मोक्ष
भीतर है। ऊपर, नीचे, बाहर,
कहीं भी
नहीं है।
मोक्ष भीतर
है। खोजने
वाले में छिपा
है वह जिसकी
खोज चल रही
है। पूछनेवाले
में छिपा है
वह, जिसको
तुम पूछ रहे
हो।
मैं तो
रहौं सहर
के बाहर, मेरी
पुरी मवास
में। मवास का
अर्थ होता है,
भीतर का
दुर्गम गढ़।
कहै
कबीर सुनो भाई
साधो, सब
सांसों की
सांस में।
सब
सांसों की
सांस में।
कहां है सब
सांसों की सांस?
तुम
सांस से नहीं
जी रहे हो, क्योंकि तुम
चाहो तो एक
क्षण को सांस
को रोक दे
सकते हो। जब
सांस नहीं
होती, बंद
है, तब भी
तुम हो।
तुम्हारा
होना बिना
सांस के भी हो
सकता है। फिर
अगर तुम इसका
अभ्यास करो तो
दस मिनट के
लिए रोक सकते
हो, दस दिन
के लिए रोक
सकते हो।
लोगों ने
सालों तक के
लिए सांस रोक
दी है। अब तो
वैज्ञानिक भी
इससे राजी हो
गए हैं कि
सांस जीवन का
लक्षण नहीं है,
सिर्फ जीवन
की
अभिव्यक्ति
है। योगियों
ने तो मनोवैज्ञानिकों
को तो बड़े
संकट में डाल
दिया, क्योंकि
उनकी परिभाषा
डगमगा गई है
कि आदमी मर गया,
इसको कैसे
तय करें।
क्योंकि पहले
तो निश्चित परिभाषा
थी: सांस बंद
हो गई—आदमी मर
गया; सांस
की जांच—पड़ताल
कर लो—आदमी मर
गया। लेकिन
पूरब में, अनेक
योगियों ने
प्रयोग करके
दिखाए जहां कि
वे दस मिनिट
के लिए सांस
बंद कर लेते, बिलकुल बंद
कर लेते।
डॉक्टर जांच
करके कह देता
है कि हमारे
हिसाब से तो
यह आदमी मर
गया है। सांस
से तो शरीर चल
रहा है, जीवन
नहीं।
जीवन
सांस से भी
गहरा है। सांस
से तो शरीर चल
रहा है, जीवन
नहीं।
सब
सांसों की
सांस में।—उसका
मतलब है कि सब
सांसों के
भीतर भी जो
छिपा है जीवन, वहां मैं
हूं। वही जीवन
सब सांसों की
सांस है।
श्वास शरीर का
जीवन है। शरीर
टूट जाएगा
श्वास के बिना;
लेकिन वह
पूरी तरह
जीवित था।
इजिप्त
में एक आदमी
को 1880 में, एक
फकीर को जमीन
में दफनाया
गया—जिंदा। और
उसने कहा, चालीस
साल बाद मुझे
निकालना।
जिन्होंने
दफनाया था वे
सब मर गए।
चालीस साल! एक
आदमी न बचा गवाह,
जो मौजूद था
दफनाते
वक्त। लोग
धीरे—धीरे भूल
ही गए। चालीस
साल इतना लंबा
वक्त है!
संयोग की बात
थी कि एक आदमी
को लायब्रेरी
में पढ़ते—पढ़ते
एक पुरानी
किताब मिल गई,
और उसमें
उसका उल्लेख
था। तो उसने
इंतजाम
करवाया। 1920 में
वह कब्र खोदी
गई, वह
आदमी जिंदा
बाहर आया, और
तीन साल तक
जिंदा रहा, बाद में भी।
श्वास
शरीर का हिस्सा
है। कबीर कहते
हैं, सब
सांसों की
सांस में। और
परमात्मा को
अगर खोजना है
तो तुम्हें
वहां खोजना
होता, जहां
श्वास भी निस्स्पंद
हो जाती है; विचार भी
बंद हो जाते
हैं, श्वास
भी निस्स्पंद
हो जाती है।
सब गति शून्य
हो जाती है, सब क्रिया
लीन हो जाती
है; सिर्फ
होना मात्र
बचता है; सिर्फ
तुम होते हो
शुद्ध—एक शांत
झील की भांति,
जिस पर एक
भी लहर नहीं; एक शुद्ध
दर्पण की
भांति, जिस
पर एक भी
प्रतिबिंब
नहीं; एक
गहन सन्नाटा,
जिसमें
सन्नाटे के भी
आवाज नहीं—वहां
सब सांसों की
सांस में छिपा
है।
जिस
दिन अभीप्सा
होगी, उसी
दिन द्वार खुल
जाएंगे। जिस
दिन तुम पुकारोगे
पूरे प्राण से,
उसी दिन
द्वार खुल
जाएंगे।
जीसस
ने कहा है, खटखटाओ—और द्वार
खुल जाएंगे। पुकारो, आवाज दो, प्रत्युत्तर
मिलेगा।
लेकिन तुम
पुकारते नहीं।
न तुम द्वार
खटखटाते हो।
तुम बातचीत
करते हो। तुम
पूछते हो, कैसे
खटखटाएं? तुम
पूछते हो, कैसे
पुकारें? जब
बच्चे को भूख
लगती है, वह
पूछता है किसी
से, कैसे
पुकारें? किसी
बच्चे ने किसी
से पूछा? बड़ी
हैरानी की बात
है। बच्चा
पैदा होते से
ही, भूख
लगती और आवाज
देता है, रोता—चिल्लाता
है। यह बच्चा
कहां सीखा
होगा? इसको
सीखने की कोई
भी तो सुविधा
नहीं थी गर्भ
में। ये गर्भ
से सीधे चले आ
रहे हैं और
भूख लगी और
पुकार देते
हैं।
तुम
जिस परमात्मा
के गर्भ से आए
हो, वहीं से
तुम पुकार सीखकर
आए हो। जिस
दिन तुम्हारी
अभीप्सा
होगी। उसी दिन
पुकार उठ
जाएगी। एक गहन
आवाज
तुम्हारे भीतर
से उठेगी। उस
गहन आवाज में
कोई भाषा न
होगी।
क्योंकि भाषा
तो सब सीखी हुई
है। उस गहन
आवाज का तुम
एक ही अनुमान
कर सकते हो, बच्चे के
रुदन से, जब
वह भूखा है।
तब तुम रो
उठोगे।
तुम्हारा रोआं—रोआं
उस रोने में
सम्मिलित हो
जाएगा। तब तुम
कुछ कहोगे
नहीं:
तुम्हारा
पूरा रोना ही
तुम्हारा
कहना होगा।
सूफी
फकीर कहते हैं
कि मत पूछो कि
प्रार्थना कैसे
करें? क्योंकि
अगर किसी ने
बता दिया तो
तुम सदा के लिए
भटक जाओगे। मत
पूछो कि
प्रार्थना
कैसी करें?
वे
कहते हैं कि
एक भिखारी एक
सम्राट के
द्वार पर खड़ा
था। सम्राट ने
उसे देखा और
लाकर धन—संपत्ति
से उसकी झोली
भर दी। उसने
कुछ कहा नहीं।
और देखने वाले
चकित हुए।
उन्होंने उस
भिखारी को, जब सम्राट
वापस चला गया
भीतर महल के, पूछा। उसने
कहा, कहने
को क्या है? मेरा पूरा
होना ही
असफलता की
कथा! अब और
कहने को क्या
है? मैं
सिर्फ खड़ा हो
गया वहां।
सम्राट ने
मुझे देखा।
बात खत्म हो गई।
कहने को क्या
है? और अगर
सम्राट अंधा
हो और अगर देख
न सके तो कहने
से भी क्या
होगा?
परमात्मा
के द्वार पर
तुम्हें कुछ
गायत्री मंत्र
थोड़े ही बोलना
है कि अल्लाह—हू—अकबर
की आवाज लगानी
है। तुम्हारी
सीखी कोई प्रार्थना
की वहां जरूरत
नहीं है; तुम
ही वहां
प्रार्थना
बनकर खड़े हो
जाओ।
तुम्हारा
होना ही
तुम्हारी प्रार्थना
हो। तुम्हारा
रोआं—रोआं
प्यासा हो।
तुम्हारी
धड़कन—धड़कन में
चाह हो—ऐसी
चाहत कि शब्द
भी छोटे पड़
जाएं। तुम एक
लपट की तरह
जिस दिन खड़े
हो जाओगे; उसी
क्षण:
"खोजी
होय तो तुरतै
मिलिहौं,
पल भर की तालास
में।
कहै
कबीर सुनो भाई
साधो, सब
सांसों की
सांस में।।'
"कस्तूरी
कुंडल बसै!'
आज
इतना ही।
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