(अध्याय—पैतीसवां)
ओशो पूना
में सोहन के
घर ठहरे हुए
हैं। दोपहर को
कोई कहता है, 'आज
पूर्णिमा है।’
मैं जानती
हूं कि ओशो
पूर्णिमा को
नौका—विहार के
लिए जाना पसंद
करते हैं, इस
बारे में मैं
उनसे पूछती
हूं। वे सहमत
हो जोत हैं और
सोहन के पति, बाफना जी को,
जो कि बोट
क्लब के.
सदस्य हैं, कहते हैं कि
एक बड़ी नाव
बुक कर लें और
अन्य मित्रों
को भी
आमंत्रित कर
लें, क्योंकि
ओशो आनंद व
उत्सव के
अवसरों को
मित्रों के
साथ बांटना
पसंद करते हैं।
रात
भोजन के बाद, हम
सभी बोट क्लब
जाते हैं जहां
एक बड़ी सी नाव
हमारे लिए
तैयार खड़ी है।
कुल मिलाकर
करीब बीस लोग
नाव में ओशो
के साथ बैठे
हैं। आज की
रात जादुई है।
एक चाद आकाश
में है और एक
चांद मनुष्य
के रूप में हम
सबके बीच बैठा
हँस और बोल
रहा है। मेरा
हृदय खुशी से
नाच रहा है। मैं
धन्यभागी हूं
कि अपनी ओर से
बिना कुछ किए ऐसे
अपूर्व अवसर
मुझे मिल रहे
हैं।
ओशो
सोहन से एक
गीत गाने को
कहते हैं, लेकिन
वह इतने सारे
लोगों के बीच
गाने में शर्मा
रही है। ओशो
बताते हैं कि
कैसे संगीत
मौन को और
गहरा सकता है।
—उनको सुनना
मधुर संगीत को
सुनने के समान
है। कछ देर को
सभी लोग मौन
हो जाते हैं।
मैं दूर
वृक्षों से
आती हुई
झींगुरों
की आवाज को
सुन रही हूं।
नदी
का पानी धीरे—धीरे
नीचें की ओर
बहती, पिघली
चांदी जैसा
चमकीला लग रहा
है। मैं ओशो
को निहारती
हूं वे आंखें
बंद किए अपनी
पूरी शान के
साथ बैठे हैं।
नाव में एक
तिलस्मी सी
मौजूदगी है जो
मुझे 'नू ' की नाव की
याद दिलाती है।
हम
एक घंटे तक
नौका—विहार
करते है और
फिर 10—30 बजे तक घर
लौट आते है।
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