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शनिवार, 27 जुलाई 2013

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-01

 उपनिषदों की परंपरा व ध्यान के रहस्य
प्रवचन--पहला 
 

 दिनांक 15 फरवरी, 1972, रात्रि 

ओशो आश्रम पूूूूना 

ओम्। तस्य निश्‍चितनं ध्यानम्।

ओम्। उसका निरंतर स्मरण ही ध्यान है।

     
 इसके पूर्व कि हम अज्ञात में उतरें, थोड़ी सी बातें समझ लेनी आवशयक हैं। अज्ञात ही उपनिषदों का संदेश। जो मूल है, जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह सदैव ही अज्ञात है। जिसको हम जानते हैं, वह बहुत ही ऊपरी है। इसलिए हमें थोड़ी सी बातें ठीक से समझ लेना चाहिए, इसके पहले कि हम अज्ञात में उतरें। ये तीन शब्द ज्ञात, अज्ञात, अज्ञेय समझ लेने जरूरी है सर्वप्रथम, क्योंकि उपनिषद अज्ञात से संबंधित हैं केवल प्रारंभ की भांति। वे समाप्त होते हैं अज्ञेय में। ज्ञात की भूमि विज्ञान बन जाती है अज्ञात दर्शनशास्त्र या तत्वमीमांसा और अज्ञेय है धर्म से संबंधित।


     

      दर्शनशास्त्र ज्ञात व अज्ञात में, विज्ञान व धर्म के बीच एक कड़ी है। दर्शनशास्त्र पूर्णतः अज्ञात से संबंधित है। जैसे ही कुछ भी जान लिया जाता है वह विज्ञान का हिस्सा हो जाता है और वह फिर फिलासाफी का हिस्सा नहीं रहता। इसलिए विज्ञान जितना बढ़ता जाता है, उतना ही दर्शनशास्त्र आगे बढ़ा दिया जाता है। जो भी जान लिया जाता है विज्ञान का हो जाता है और दर्शनशास्त्र विज्ञान व धर्म के मध्य बीच की कड़ी है। इसलिए विज्ञान जितनी तरक्की करता है, दर्शनशास्त्र को उतना ही आगे बढ़ना पड़ता है क्योंकि उसका संबंध केवल अज्ञात से ही है। परन्तु जितना दर्शनशास्त्र आगे बढ़ाया जाता है, उतना ही धर्म को भी आगे बढ़ना

पड़ता है क्योंकि मूलतः धर्म अज्ञेय से संबंधित है।

     

      उपनिषद अज्ञात से प्रारंभ होते हैं, और वे अज्ञेय पर समाप्त होते हैं। और इस तरह सारी गलतफहमी खड़ी होती है। प्रोफेसर रानाडे ने उपनिषदों के दर्शन पर एक बहुत गहन पुस्तक लिखी है, परन्तु वह प्रारंभ ही बनी

रहती है। वह उपनिषदों की गहरी घाटी में प्रवेश नहीं कर सकती: क्योंकि वह दार्शनिक ही रहती है। उपनिषदों की शुरुआत दर्शनशास्त्र से होती है, परन्तु वह मात्र एक शुरुआत ही है। वे धर्म में समाप्त होते हैं, अज्ञेय में समाप्त होते हैं। और जब मैं कहता हूं अज्ञेय, तो मेरा तात्पर्य है वह जो कि कभी जाना नहीं जा सकता।

     

      कुछ भी प्रयत्न हो, कितना भी हम प्रयास करें, जैसे ही हम कुछ जानते हैं, वह विज्ञान का हिस्सा हो जाता है। जिस क्षण भी हम कुछ अज्ञात महसूस करते हैं, वह दर्शनशास्त्र का हिस्सा हो जाता है। जिस क्षण हम अज्ञेय का सामना करते हैं, केवल तभी वह धर्म होता है। जब मैं कहता हूं अज्ञेय, तो मेरा आशय है उससे जिसे कभी जाना नहीं जा सकता: परन्तु उसका सामना हो सकता है, उसे अनुभव किया जा सकता है। उसे जीया भी जा सकता है। हम उसके आमने-सामने हो सकते हैं। उसका साक्षात्कार हो सकता है, परन्तु फिर भी वह अज्ञेय ही रहता है। केवल इतना ही अनुभव होता है कि अब हम एक गंभीर रहस्य में हैं, जिसे समझा नहीं जा सकता। इसलिए इसके पूर्व कि हम इस रहस्य में उतरें, कुछ सूत्र समझ लेने चाहिए अन्यथा

कोई प्रवेश संभव नहीं होगा।

     

      पहली बात तो यह है हम कैसे सुनते हैं क्योंकि सुनने के भी कई आयाम होते हैं। आप अपने बुद्धि से अपने तर्क से सुन सकते हैं। यह एक तरीका है सुनने का, जो कि बहुत सामान्य है, बहुत सरल है और बहुत उथला, क्योंकि तर्क के साथ आप सदैव या तो बचाव करने में लगे होते हैं या हमला करने में। तर्क के साथ आप सदैव लड़ते हुए होते हैं। इसलिए जब कभी कोई कुछ भी तर्क से समझने की कोशिश करता है, वह उससे लड़ता है केवल एक परिचय हो सकता है। गहन अर्थ तो खा जाने वाला है, क्योंकि गहन अर्थ के लिए बहुत सहानुभूति के साथ सुनना अनिवार्य है। तर्क कभी भी सहानुभूति के साथ नहीं सुन सकता। वह तो बहुत तार्किक पृष्ठभूमि से सुनता है। वह कभी प्रेम से तो सुन ही नहीं सकता: वह तो असंभव है। इसलिए तर्क से सुनना ठीक है यदि तुम गणित समझने की कोशिश में हो, यदि तुम तर्कशास्त्र सीख रहे हो, और यदि तुम कोई ऐसी बात या विधि सीख रहे हो, जो पूरी तरह बुद्धिगत हो। अगर तुमने कविता को भी तर्क से सुनो, तो तुम फिर अंधे हो जाओगे। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई अपने

कान से देखने का प्रयत्न करे अथवा अपनी आंखों से सुनने का प्रयत्न करे! तुम तर्क से कविता को नहीं समझ सकते। इसलिए एक गहन समझ भी होती है या दूसरी तरह की समझ भी होती है, जो कि तर्क से नहीं होती बल्कि होती है प्रेम से, अनुभूति से, भावना से, हृदय से।

     

      तर्क सदैव ही द्वंद्व में होता है। तर्क कभी अपने में किसी भी चीज को आसानी से नहीं गुजरने देता। तर्क को हराया जाना चाहिए, केवल तभी कुछ भीतर प्रवेश कर सकता है। यह बुद्धि का एक सुरक्षा का इंतजाम है, यह अपने को बचाने की एक विधि है, एक सुरक्षा का साधन। यह हर क्षण सावधान रहता है, बिना उस के जाने कुछ भी गुजर नहीं सकता: और कुछ भी भीतर नहीं जा सकता बिना तर्क को पछाड़े। और अगर तर्क हार भी जाए, तो भी वह चीज आपके हृदय तक नहीं जा सकती, क्योंकि हार में आप सहानुभूतिपूर्ण नहीं हो सकते।

     

      श्रवण का दूसरा आयाम है हृदय के द्वारा, भावना के द्वारा। कोई संगीत सुन रहा है, तब किसी विशलेषण की आवशयकता नहीं है। सच ही, यदि आप एक आलोचक हैं तो आप कभी संगीत नहीं समझ पाएंगे। हां, हो सकता है कि आप उसका गणित, उसकी छंद रचना, भाषा आदि सब कुछ संगीत के बारे में समझ जाए, परन्तु संगीत को नहीं समझ पाएंगे, क्योंकि संगीत की विवेचना नहीं की जा सकती। वह तो समग्र है। वह एक समग्रता है। यदि तुम विवेचना करने को एक क्षण भी ठहरे तो तुमने बहुत कुछ खो दिया। वह एक बहती हुई समग्रता है। हां, कागजी संगीत की विवेचना हो सकती है, परन्तु सच्चे संगीत की विवेचना कभी

भी नहीं हो सकती, जब कि वह चल रहा हो। इसलिए आप अलग खड़े हो सकते, तुम दर्शक नहीं हो सकते तुम्हें तो उसमें भागीदार होना पड़ता है। यदि तुम उसमें भाग लेते हो, तभी तुम उसे समझ पाते हो। अतएव भावना में समझने का मार्ग हमारे स्वयं के भाग लेने से होकर आता है। आप दर्शन नहीं हो सकते। आप बाहर खड़े नहीं रह सकते। आप संगीत को एक वस्तु नहीं बना सकते। तुम्हें तो उसके हाथ बहना होता है तुम्हें तो उसकी गहनता में पूर्णतः डूब जाना होता है। ऐसे क्षण आएंगे जब कि तुम नहीं होओगे और वहां



            केवल संगीत ही होगा। वे क्षण शिखर के क्षण होंगे वे क्षण ही संगती के क्षण होंगे। तब तुम्हारे भीतर गहरे में कुछ प्रवेश कर जाता है। यह श्रवण का गहन तरीका है, पर फिर भी सर्वाधिक गहन नहीं। पहला ढंग है तर्क के द्वारा-बुद्धिगत: दूसरा है अनुभूति के द्वारा-भावात्मक: तीसरा है स्वरूप के द्वारा-अस्तित्वगत। जब आप अपनी बुद्धि से सुन रहे हैं, आप अपने स्वरूप के एक हिस्से से सुन रहे हैं। फिर जब आप अपनी भावना के द्वारा सुन रहे हैं, तब फिर आप अपने स्वरूप के एक हिस्से से ही सुन रहे हैं। तृतीय, सर्वाधिक गहन, श्रवण का सबसे अधिक प्रामाणिक ढंग है आपकी समग्रता-शरीर, मन, आत्मा सब मिलकर-एक एकत्व। यदि आप श्रवण से इस तृतीय ढंग को समझ लें, तभी आप उपनिषदों के रहस्य में प्रवेश कर पाएंगे। इस तृतीय श्रवण के लिए जो परंपरागत विधि है, वह है-श्रद्धा। अतएव आप विभाजन कर सकते हैं। बुद्धि

के द्वारा समझने के लिए विधि है संशय की, शंका की: भावना के द्वारा विधि है प्रेम, सहानुभूति: परन्तु स्वरूप के द्वारा विधि है श्रद्धा: क्योंकि यदि आप अज्ञात में प्रवेश कर रहे हैं। तो आप शंका कैसे कर सकते हैं? आप ज्ञात के प्रति संदेह कर सकते हैं। जिसे आप बिलकुल नहीं जानते, उसके प्रति संदेह भी कैसे किया जा सकता है? संदेह ठीक है यदि वह ज्ञात से संबंधित है। अज्ञात से संदेह असंभव ही है। आप अज्ञात को प्रेम भी कैसे कर सकते हैं? आप ज्ञात को ही प्रेम कर सकते हैं। आप अज्ञात को प्रेम नहीं कर सकते आप अज्ञात से कोई संबंध स्थापित नहीं कर सकते। यह संबंध असंभव है।

     

      आप उससे संबंधित नहीं हो सकती हैं आप उसमें घुलमिल सकते हैं। वह दूसरी बात है परन्तु आप उससे संबंधित नहीं हो सकते। आप उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं, पर संबंधित नहीं। और समर्पण संबंध नहीं है। वह संबंध जरा भी नहीं है। वह तो मात्र दो का, द्वैत का घुलमिल जाना है। अतएव बुद्धि के साथ द्वैत होता है। आप दूसरे के साथ संघर्ष रत होते हैं। परन्तु स्वरूप के साथ द्वैत तिरोहित हो जाता है। न तो आप संघर्ष में होते हैं और न प्रेम में आप जरा भी जुड़े नहीं होते। इस तीसरे को परंपरा के अनुसार श्रद्धा, फेथ कहते हैं। और जहां तक अज्ञात का संबंध है, श्रद्धा ही कुंजी है।

     

      यदि कोई कहता है, मैं कैसे विशवास करूं? तब वह समझ नहीं रहा है। तब वह फिर बिंदु को चूक रहा है। श्रद्धा विशवास फिर एक बुद्धिगत बात है। आप विशवास कर सकते हैं, आप विश्‍वास नहीं भी कर सकते हैं। आप विशवास कर सकते हैं, क्योंकि आपके पास विशवास करने के लिए तर्क हैं। आप विशवास नहीं भी कर सकते हैं, क्योंकि आपके पास अविशवास करने के लिए तर्क है। विशवास तर्क से ज्यादा गहन कभी नहीं है। इसलिए आस्तिक, नास्तिक, विशवास ही उथली सतह के लोग हैं। श्रद्धा विशवास नहीं है, क्योंकि अज्ञात के

लिए ऐसा कुछ भी नहीं है, जो कि पक्ष अथवा विपक्ष में हो।

     

      न तो आप विशवास कर सकते हैं, और न अविश्‍वास कर सकते हैं। तो फिर क्या करने के लिए बाकी रहा? या तो आप उसके प्रति खुले हो सकते हैं या बंद रह सकते हैं। यह विश्‍वास अथवा अविश्‍वास का प्रशन ही नहीं है। यह केवल उसके प्रति खुले अथवा बंद रहने का प्रशन है। यदि तुम्हें श्रद्धा है, तो तुम खुले हो। यदि तुम्हें श्रद्धा नहीं है, तो तुम बंद रहते हो। यह तो मात्र एक कुंजी है। यदि आप अज्ञात के प्रति खुलना चाहे, तो आपको श्रद्धा होनी चाहिए। यदि आप उसके प्रति खुले, रहना नहीं चाहते, तो आप बंद रह सकते हैं परन्तु कोई भी आपके अलावा नहीं चूक रहा है। कोई भी इससे नुकसान को प्राप्त नहीं हुआ सिवा आपके। आप ही बंद रह गए एक बीज की भांति।

     

      एक बीज को टूटना होता है--मरना होता है। केवल तभी वृक्ष पैदा होता है। परन्तु बीज ने वृक्ष को कभी भी नहीं जाना। बीज की मृत्यु केवल श्रद्धा में ही हो सकती है। वृक्ष अज्ञात है और बीज कभी भी वृक्ष से नहीं मिल पाएगा। बीज भय के कारण, मृत्यु के भय के कारण बंद रह सकता है। तब बीज बीज ही रह जाएगा और आखिर में मर जाएगा, बिना दुबारा जन्मे। लेकिन यदि बीज श्रद्धापूर्वक मर जाए, ताकि अज्ञात उसकी मृत्यु में से जन्म ले सके, तभी केवल वह खुल सकता है। एक तरह से वह मर जाता है, परन्तु एक तरह से वह दुबारा जन्म पाता है-बहुत बड़े रहस्यों में। जन्म पाता है उंचे जीवन में। यह घटना श्रद्धा में घटती है। इसलिए यह विश्‍वास नहीं है। इसे कभी भी विश्‍वास समझने की नासमझी न करें। यह भावना भी नहीं है।

यह दोनों से ज्यादा गहरी है। यह आपकी समग्रता है।



      अतएव कैसे कोई अपनी समग्रता में सुने बिना बुद्धि के दुराग्रह में अटके और बिना भाव के सहमत हुए अथवा सहानुभूतिपूर्ण हुए, वरन अपने स्वरूप की समग्रता में? कैसे यह समग्रता कार्य करती है? क्योंकि हम तो केवल अलग-अलग अंगों का ही काम जानते हैं। हम तो नहीं जानते कि समग्रता कैसे कार्य करती है। हमें मात्र हिस्सों का ही पता है-यह अंग, यह हिस्सा काम कर रहा है वह अंग काम कर रहा है। बुद्धि काम कर रही है हृदय काम कर रहा है पाँव चल रहे हैं, आंखें देख रही हैं। हम केवल अंगों को जानते हैं। समग्रता कैसे काम करती है? समग्रता काम करती है अपनी गहनता निष्क्रियता में। कुछ भी सक्रिय नहीं सब कुछ चुप है। आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं। आप सिर्फ यहां है, मात्र उपस्थित और द्वार खुल जाता है।

केवल तभी आप समझ पाएंगे कि उपनिषदों का क्या संदेश है। इसलिए खाली उपस्थिति चाहिए: अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करना, कोई काम नहीं। यही मतलब है समग्र रूप से तत्पर होने का मात्र उपस्थिति। मैं इसे थोड़ा और स्पष्ट कर दूं कि मात्र उपस्थिति से मेरा क्या तात्पर्य है। यदि किसी के प्यार में पड़े हैं तो कभी ऐसे क्षण आते हैं, जब कि आप कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं। आप मात्र उपस्थिति होते हैं अपने प्रेम या प्रेमिका के पास--मात्र उपस्थित-बिलकुल मौन, यहां तक कि एक दूसरे को प्रेम भी नहीं कर रहे होते हैं,मात्र उपस्थित। तब एक विचित्र घटना घटती है।

     

      साधारणतः हमारा अस्तित्व रेखा में चलता है। हम एक रेखा में जीते हैं, एक कड़ी में जीते हैं। मेरा अतीत, मेरा वर्तमान, मेरा भविष्य--यह एक रेखा है। आप एक रास्ते पर चलते हैं, मैं एक रास्ते पर चलता हूं। हमारे अपने रास्ते हैं--रेखाबद्ध रास्ते। वास्तव में, हम कभी नहीं मिलते। हम समानांतर रेखाएं हैं, जिनका मिलना संभव नहीं। यहां तक कि यदि हम बहुत लोगों से घिरे हों तो भी कोई किसी से मिलता नहीं क्योंकि तुम अपने मार्ग पर हो और मैं अपने मार्ग पर। तुम अपने अतीत से आए हो और मैं अपने अतीत से। मेरा वर्तमान मेरे अतीत से निकला है, तुम्हारा वर्तमान तुम्हारे अतीत से निकला है। तुम्हारा भविष्य तुम्हारे अतीत व वर्तमान

से अदभुत परिणाम होगा और मेरा भविष्य मेरे वर्तमान का परिणाम होगा।

     

      अतएव हम मार्ग पर चलते हैं-रेखा बद्ध मार्गों पर, एक सीधी रेखा वाले मार्गों पर। वहां कोई मिलन संभव नहीं है। केवल प्रेम मिलते हैं, क्योंकि अचानक जब तुम किसी के पास मात्र उपस्थित होते हो समय का दूसरा ही आयाम पैदा होता है। आप दोनों एक क्षण में मिलते हैं और यह क्षण न आपके प्रेमी का है और न आपका। यह कुछ ऐसा है, जो नया है। यह न तो आपे अतीत से आया है और न आपके प्रेम के अतीत से। समय एक भिन्‍न ही आयाम में मुड़ जाता है। यह रेखा बद्ध नहीं है अतीत से भविष्य में जाता हुआ नहीं, वरन एक का वर्तमान दूसरे के वर्तमान में और दो वर्तमान क्षणों का मिलन होता है, एक बिलकुल ही नया आयाम। इस आयाम को शाश्‍वतता का आयाम कहते हैं। प्रेमियों ने कहा है कि प्यार का एक क्षण भी अपने में एक शाश्‍वतता है। वह अंतहीन है कभी खतम नहीं होता है। उसका कोई भविष्य नहीं है, उसका कोई अतीत नहीं है। वह तो मात्र उपस्थित है-अभी और यही। यही मेरा तात्पर्य है जब कि मैं कहता हूं कि यदि आप न तो अपने अतीत के साथ और न ही भविष्य के साथ, बल्कि ऐसे एक पूर्ण समग्रता के साथ कि वर्तमान क्षण में केवल आपकी उपस्थिति भर हो--यदि आप शांति से सुन सके, अक्रिया में, यदि आप केवल उपस्थित हो सके अभी और यहां, तो केवल यह क्षण ही पर्याप्त है, जिसमें एक नया आयाम खुलता है और उपनिषदों का संदेश केवल उसी आयाम में भीतर प्रवेश कर सकता है।

     

      यही अर्थ है जबकि यह कहा जाता है कि उपनिषदों का संदेश शाशवत है। इसका अर्थ स्थायी नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि यह समय का एक बिलकुल नया आयाम है, जिसमें कि कोई भविष्य व कोई अतीत नहीं होता। इसलिए आपको एक दूसरे ढंग से चलना पड़ेगा-आपके आंतरिक समय में। और आंतरिक परिवर्तन के साथ, शब्द एक दूसरी ही आकृति लेना शुरू करते हैं, और एक भिन्‍न महत्व उनमें से उत्पन्‍न होता है।

     

      हम शब्द वही काम में लेते हैं। प्रत्येक वही शब्द काम में लेता है, परन्तु अलग-अलग मन के साथ शब्द के अर्थ भी अलग-अलग हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एक डाक्टर एक रोगी से पूछता है--कैसे हैं आप? सड़क पर किसी के आकस्मिक मिलन पर आप पूछते हैं--कैसे हैं आप? एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से पूछता है--कैसी हैं आप? शब्द तो वही हैं, परन्तु क्या अर्थ भी वही है? क्या जब एक डाक्टर अपने रोगी से पूछता है--कैसे हैं आप? और एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से पूछता है--कैसी हैं आप? तो क्या बात एक ही है? एक

बिलकुल नई बात पैदा होती है तब, एक महत्वपूर्ण बात।

     

      उपनिषदों को साधारण ढंग से नहीं समझा जा सकता। नहीं कारण है कि शास्त्री सारी बात ही चूक जाते हैं। भाषाशास्त्री भी सब कुछ चूक जाते हैं। पंडित भी सारी बात चूक जाते हैं। वे भाषा के साथ, व्याकरण के साथ वे उस सबके साथ जो कुछ भी महत्वपूर्ण है मेहनत करते हैं, परन्तु फिर चूक जाते हैं। क्यों चूक जाते हैं वे? यह चूकना इसलिए होता है, चूंकि उनका आंतरिक समय रेखा में चलने वाला होता है। वे अपनी बुद्धि से कार्य कर रहे होते, न कि अपने स्वरूप से। वास्तव में, वे उपनिषदों पर काम कर रहे होते हैं वे उपनिषदों को अपने ऊपर काम नहीं करने देते।



      यही तात्पर्य है मेरा जब मैं मात्र उपस्थित होने के लिए कहता हूं--तब ही उपनिषद आप पर काम कर सकते हैं। और वह एक रूपांतरण हो सकता है। वह आपके अस्तित्व के दूसरे तलों में ले जा सकता है। इसलिए पहली बात जो याद रखने योग्य है वह है कैसे सुनना--मात्र आपकी उपस्थिति से--अपनी पूरी श्रद्धा से उनमें डूब जाना। तर्क से न लड़े। भावना को महसूस न करें--बस, अपने स्वरूप के साथ एक हो जाए। यही कुंजी है--यही सबसे पहली बात है।

     

      दूसरी बात जो है वह है कि उपनिषद भी शब्दों का उपयोग करते हैं। उन्हें उपयोग करना पड़ता है, परन्तु वे स्वयं मौन के लिए हैं। वे बात करते हैं और वे लगातार बात करते हैं, परन्तु वे मौन के लिए बात करते हैं। ऐसा प्रयत्न बेकार है--विरोधी है, विपरीत है, असंगत है--परन्तु फिर भी केवल इसी तरह से एकमात्र संभावना है। यही एकमात्र रास्ता है। यहां तक कि मुझे भी यदि आपको मौन के लिए उत्प्रेरित करना हो, तो मुझे भी शब्द ही काम में लेने पड़ते हैं। उपनिषद शब्द काम में लेते हैं, परन्तु वे शब्दों के पूरे खिलाफ हैं वे उनके लिए हैं ही नहीं यह बात लगातार याद रखना है अन्यथा बहुत संभव है कि हम शब्दों में खो जाए। शब्दों का अपना जादू है उनका अपना चुंबकीय पन है। और प्रत्येक शब्द अपनी श्रंखला निर्मित करता है।

उपन्यासकार जानते हैं कवि जानते हैं। वे कहते हैं कि कई बार ऐसा होता है कि वे केवल अपने उपन्यास को प्रारंभ करते हैं। जब वह समाप्त होता है, वे नहीं कह सकते कि उन्होंने उसे समाप्त किया है। सचमुच, शब्दों की अपनी एक श्रंखला है। वे अपनी तरह से जीने लगते हैं और आगे चलने लगते हैं, परन्तु मैं कभी समाप्त नहीं करता। और कई बार मेरे चरित्र ऐसी बातें कहते हैं, जो मैंने कभी नहीं चाहा कि वे कहें! वे अपना एक अलग जीवन लेना प्रारंभ करते हैं और वे अपने रास्ते चले जाते हैं। वे स्वतंत्रता हो जाते हैं लेखक से, कवि से। वे ऐसे स्वतंत्र हो जाते हैं जैसे कि बच्चे अपने माता-पिता से हो जाते हैं। उनकी अपनी एक जिंदगी होती है।

     

      इसलिए शब्दों का अपना तर्क होता है। एक शब्द का उपयोग करें और आप एक रास्ते पर होंगे और शब्द बहुत सी बातें पैदा करेगा। शब्द स्वयं बहुत सी बातें उत्पन्‍न करेगा और कोई भी उनमें खो सकता है। परन्तु उपनिषद शब्दों के लिए नहीं हैं। इसलिए वे जितने कम हो सकें उतने कम शब्द काम में लेते हैं। उनका संदेह इतना टेलीग्राफिक है कि एक भी शब्द बेकार काम में नहीं लिया गया है। उपनिषद अधिक से अधिक संक्षिप्त सूत्र हैं। एक शब्द भी निरर्थक नहीं है। और शब्द भी सम्मोहन की धारा पैदा कर सकते हैं। परन्तु शब्दों को तो काम में लेना ही पड़ेगा। इसलिए, ध्यान रहे कि आप मात्र शब्दों में ही न खो जाएं।

शब्दों का अर्थ कुछ भिन्‍न बात है और उससे भी ज्यादा अच्छा होगा यदि कहें कि उनका महत्व। उपनिषद शब्द को चिन्हों, इशारों की भांति काम में लेते हैं। वे शब्दों का उपयोग कुछ दिखाने के लिए करते हैं न कि कुछ कहने के लिए। आप अपने शब्दों से कुछ कह सकते हैं, आप अपने शब्दों से कुछ दिखला सकते हैं। जब आप कुछ दिखला रहे हैं, तो शब्द से परे जाना पड़ेगा, शब्द को भूल जाना पड़ेगा। अन्यथा शब्द ही आंखों में तैरने लगते हैं और वे सारे दर्शन को बिगाड़ देते हैं। हम शब्दों का उपयोग करते हैं, परन्तु सावधानी के साथ। सदैव स्मरण रखें कि मात्र अर्थ ही मतलब नहीं है, बल्कि वे इशारे हैं। सांकेतिक रूप से उनका किया गया है, जैसे कि उंगली उपयोग चांद की ओर इशारा करने के लिए। उंगली चांद नहीं है, परन्तु कोई चाहे तो उंगली से चिपक सकता है और कह सकता है कि मेरे गुरु ने इसी को चांद बतलाया है! उंगली चांद नहीं है, परन्तु उंगली का दिखलाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। शब्द कभी भी सत्य

नहीं है पर शब्दों का उपयोग किया जा सकता है दिखलाने के लिए। इसलिए सदैव याद रखें कि उंगली को भूल जाता है। यदि उंगली ज्यादा महत्व की और ज्यादा कीमती बात हो गई चांद से, तो फिर सारी बात ही विकृत हो जाएगी। इस दूसरे बिंदु को स्मरण रखें। शब्द केवल संकेत हैं किसी उसके, जो कि शब्दहीन है, जो कि मौन है, जो कि पार है, जो कि सबका अतिक्रमण है। इसकी विस्मृति कि शब्द ही वास्तविकता नहीं है, इसने बहुत गड़बड़ पैदा की है।

     

      हजारों-हजारों विवेचनाएं उपलब्ध हैं, परन्तु वे सब शब्द से संबंधित हैं--न कि शब्द रहित वास्तविकता से। वे हजारों-लाखों वर्षों तक वाद-विवाद करते रहते हैं। पंडितों ने बहुत विवाद किया है कि इस शब्द का क्या अर्थ है और उस शब्द का क्या अर्थ है! और इस तरह एक बहुत बड़ा साहित्य निर्मित कर दिया है। उसके अर्थ की इतनी खोज हुई है जो कि पूरी तरह अर्थ हीन है। वे मुख्य बात को ही चूक गए। शब्दों का अर्थ वास्तविकता कभी नहीं था--वे तो केवल संकेत थे, उसके तरफ जो कि शब्दों से बिलकुल ही भिन्‍न है।



      तीसरी बात यह है कि मैं उपनिषदों पर आलोचना करने नहीं जा रहा, क्योंकि आलोचना केवल बुद्धि से संबंधित हो सकती है। मैं तो प्रतिसंवेदन करने जा रहा हूं बजाय आलोचना करने के। प्रतिसंवेदना दूसरी ही चीज है--बिलकुल ही भिन्‍न बात है। आप एक घाटी में सीटी बजाते हैं अथवा एक गीत गाते हैं अथवा बांसुरी बजाते हैं और वह घाटी प्रतिध्वनि करती है--प्रतिध्‍वनि करती है--और फिर प्रतिध्वनि करती है। घाटी आलोचना नहीं कर रही, घाटी सिर्फ प्रतिसंवेदना कर रही है। प्रतिसंवेदन एक जीवंत बात है, आलोचना मृत होने वाली है।

     

      मैं उस पर आलोचना नहीं करूंगा। मैं तो मात्र एक घाटी बन जाउंगा और प्रतिध्वनि करूंगा। इसे समझना कठिन होगा, क्योंकि यहां तक कि प्रतिध्वनि प्रामाणिक भी हो, तो भी आप वही ध्वनि नहीं पकड़ सकेंगे। आपको वही ध्वनि लौटकर प्राप्त नहीं होगी। आपको उसमें कुछ संगति नहीं भी मिले क्योंकि जब कभी एक घाटी प्रतिसंवेदन करती है, जब कभी वह कुछ भी प्रतिध्वनित करती है, वह प्रतिध्वनि कोई निष्क्रिय प्रतिध्वनि नहीं होती, बल्कि वह क्रियात्मक होती है। घाटी काफी कुछ उसमें, जोड़ देती है। घाटी का अपना स्वभाव काफी कुछ जोड़ देता है। एक भिन्‍न घाटी भिन्‍न तरीके से प्रतिध्वनि करेगी। ऐसा ही होना चाहिए। इसलिए जब

मैं कुछ कहता हूं, उसका यह अर्थ नहीं होता कि प्रत्येक को वही कहना होगा। यह ऐसा है, जो मेरी घाटी प्रतिध्वनि करती है।

     

      मुझे स्टीवेन की पंक्तियां याद आती हैं, जो कि एक झेन कविता की तरह हैं। बीस आदमी एक पुल को पार कर रहे हैं एक गांव के भीतर अथवा बीस आदमी बीस पुलों को पार कर रहे हैं बीस गांवों में! जब मैं कुछ पढ़ता हूं और मेरी घाटी किसी विशेष ढंग से प्रतिध्वनि करती है, तो वह निष्क्रिय नहीं होती। उस प्रतिध्वनि में मैं भी उपस्थित होता हूं। जब आपकी घाटी फिर से प्रतिध्वनि करेगी, तो वह दूसरी ही बात हो जाएगी। जब मैं एक जीवंत प्रतिसंवेदन कहता हूं, तो मेरा मतलब इससे ही है।

     

      कभी-कभी यह बिलकुल ही असंगत लगे: क्योंकि घाटी उसे एक रूप प्रदान कर देती है, एक अपना ही रंग दे देती है। यह स्वाभाविक है। इसलिए मैं कहता हूं कि आलोचनाएं बड़ी अपराधपूर्ण हैं। केवल प्रतिसंवेदन होने चाहिए, कोई आलोचना नहीं क्योंकि आलोचक यह महसूस करने लगता है कि जो कुछ वह कह रहा है, वह पूर्णतः सत्य है। एक आलोचक महसूस करने लगता है कि दूसरी आलोचनाएं गलत हैं, और दूसरों की आलोचनाओं को काटना उसका स्व-आरोपित कर्तव्य है, क्योंकि वह सोचता है कि उसकी आलोचना तभी सही हो सकती है, जबकि दूसरों की आलोचना गलत हो। लेकिन प्रतिसंवेदन के साथ ऐसा नहीं होता: हजारों प्रतिसंवेदन संभव हो सकते हैं। और प्रत्येक प्रतिसंवेदन सही है यदि वह प्रामाणिक है। यदि वह

आपकी गहनता से आती है, तो वह सही है।

     

      क्या सही है और क्या गलत है, इसका कोई कुलों निर्णायक नहीं है। यदि कुछ आपके भीतर से आपकी गहनता से आता है, यदि आप उसके साथ एक हो जाते हैं, यदि वह आपके पूर्ण स्वरूप में से झंकृत हो रहा है, तो वह सही है। अन्यथा कितना ही होशियार, व कितना ही तर्कयुक्त क्यों न हो, वह गलत होता है। यह एक प्रतिसंवेदन होने वाला है। और जब मैं इसे प्रतिसंवेदन कहता हूं, तो यह एक कविता की तरह अधिक और एक फिलॉसाफी की तरह कम होगा। यह कोई पद्धति नहीं होगी। आप पद्धतियां निर्मित नहीं कर सकते प्रतिसंवेदनों से प्रतिसंवेदन आणविक होते हैं, खंड-खंड। उनमें आंतरिक एकता होती है, परन्तु उस आंतरिक एकता को खोजना इतना आसान नहीं। वह एकता एक टापू, और एक अंतर्देश की तरह होती है।

एक टापू, और एक अंतर्देश में एकता होती है और बहुत गहरे, बहुत गहरे समुद्र की गहराई में जमीन एक होती है। यदि यह बात समझ में आ जाए तो कोई आदमी एक टापू नहीं होता। गहरे में, चीजें एक हैं जितने गहरे आप जाते हैं, उतने ही अधिक आप ऐक्यता को पाते हैं। इसलिए यदि एक प्रतिसंवेदन प्रामाणिक है, तो फिर कोई भी प्रतिसंवेदन जो कि चाहे बिलकुल विरोधी दिखता हो, भिन्‍न नहीं हो सकता--नाचे गहराई में एकता होगी। परन्तु नीचे गहरे उतरना पड़े। और आलोचनाए बहुत उपरी चीजें होती हैं।



      इसलिए मैं आपको कोई आलोचना नहीं दे रहा। मैं तो कहूंगा कि इस उपनिषद का क्या अर्थ है। मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि इस उपनिषद का मेरे लिए, मुझमें क्या अर्थ है। मैं कोई दावा नहीं कर सकता: और जो लोग भी दावा करते हैं, वे अनैतिक लोग हैं। कोई भी नहीं कह सकता कि इस उपनिषद का क्या अर्थ होता है। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि इस उपनिषद का मेरे भीतर क्या अर्थ होता है—यह मेरे भीतर कैसे गूंजता है।

     

      ऐसा प्रतिसंवेदन आपके भीतर भी प्रतिसंवेदना उत्पन्‍न कर सकता है, यदि आप केवल यहां उपस्थित हों। तब जो भी मैं कहूंगा, वह आपके भीतर भी प्रतिध्वनित होगा। और यदि वह प्रतिध्वनित हो, तभी केवल आप उसे समझ करें। इसलिए मात्र एक घाटी की तरह हो जाएं, अपने को छोड़ दें, ताकि आप स्वतंत्रता से प्रतिध्वनि कर सकें। अपने से एक घाटी की भांति ही संबंधित हों बजाय उपनिषद की भाषा के अथवा उसके जो मैं कह रहा हूं। बस, अपने से एक घाटी की तरह संबंधित हों और बाकी सब अपने आप आएगा। किसी तनाव की आवश्‍यकता नहीं, कोई खिचे हुए प्रयत्न की जरूरत नहीं मुझे समझने के लिए। वह रुकावट बाधा बन

जाएगी। मात्र आराम में हो जाएं। मात्र मौन व अक्रिया में हो और जो भी होता हो उसे अपने में गूंजने दें। वे सारी गुंजारें, झंकारें आपको एक दूसरे ही आयाम में ले जाएगी, एक दूसरे ही दर्शन को ले जाएंगी।



      अंतिम बात, मैं न तो हिंदू हूं, न मुसलमान हूं, और न ही ईसाई हूं। मैं एक बेघरबार घुमक्कड़ हूं। मैं उपनिषदों की परंपरा से बाह्य रूप से जुड़ा हुआ नहीं हूं, इसलिए मेरा उपनिषदों में कुछ लगाया हुआ, व्यस्त स्वार्थ नहीं है। जब कोई हिंदू आलोचना करता है अथवा जब भी कोई हिंदू उपनिषदों के बारे में सोचता है, तब उसका उसमें कुछ इनवेस्टमेंट होता है, लगाया हुआ होता है। जब एक मुसलमान उपनिषदों के लिए लिखता है, तो उसके विरोध में उसका कुछ लगाया हुआ होता है। वे दोनों ही सही व प्रामाणिक नहीं हो सकते। यदि कोई हिंदू है, तो वह उपनिषदों के बाबत सच्चा नहीं हो सकता: यदि कोई मुसलमान है, तो वह भी उपनिषदों के बार में सच्चा नहीं हो सकता। वह झूठा होगा ही। परन्तु यह धोखा इतना सूक्ष्म होता है कि

इसका हमें पता ही नहीं चलता।

     

      आदमी अकेला ऐसा प्राणी है जो कि अपने से ही झूठ बोल सकता है और धोखों में जी सकता है। यदि आप हिंदू हैं और उपनिषदों के बारे में सोच रहे हैं, या आप मुसलमान हैं और कुरान के बारे में सोच रहे हैं, अथवा ईसाई हैं और बाइबिल के बारे में सोच रहे हैं, तो आपको कभी पता ही नहीं चलेगा कि आप कभी सच्चे नहीं हो सकते। किसी को किसी का न होना पड़े, केवल तभी प्रतिसंवेदन सच्चा हो सकता है। जुड़ा होना गड़गड़ी करता है और मस्तिष्क को विकृत कर देता है और ऐसी बातें दिखलाता है, जो कि हैं ही नहीं अथवा मना कर देता है उन्हें जो कि हैं। इसलिए मेरे लिए वह मुसीबत नहीं है। आपके लिए भी मेरा सुझाव है कि जब भी आप कुरान पढ़ रहे हों, या उपनिषद सुन रहें हों, अथवा बाइबिल--तो हिंदू न हों, ईसाई न हों

या मुसलमान बिलकुल न हों। मात्र होना पर्याप्त है। आप गहरे में उतरने में समर्थ हो सकेंगे। मतों के साथ, सिद्धांतों के साथ, आप कभी खुले नहीं रह सकते। और एक बंद दिमाग समझ के धोखे कर सकता है, लेकिन कभी कुछ समझ नहीं सकता। इसलिए मैं किसी का भी नहीं हूं। और यदि मैं इस उपनिषद के प्रति प्रतिसंवेदन करता हूं। वह केवल इसलिए कि मैं इसके प्रेम में पड़ गया हूं। यह जो सब से छोटा उपनिषद है आत्म-पूजा, यह एक बहुत ही अपूर्व घटना है। इसलिए थोड़ा इस अनोखे उपनिषद के बारे में--कि मैंने क्यों इसको विषय रूप में बोलने के लिए चुना है?

     

      प्रथम--यह सब से छोटा है यह बिलकुल बीज की तरह है--प्रबल, विशेष--जिसमें सब कुछ भरा हो। प्रत्येक शब्द एक बीज है, जिसमें कि अनंत संभावनाएं हैं। इसलिए आप अनंतकाल के लिए ध्वनि व प्रतिध्वनि पैदा कर सकते हैं, और जितना आप इसके बारे में सोचते हैं उतना ही आप इसे गहरे में जाने देने में मदद करते हैं, व नए-नए अर्थ इसमें से प्रकट होते हैं। ये जो बीज की तरह शब्द हैं, ये गहरे मौन में पाए जाते हैं। सच ही यह बड़ा अजीब लगता है, परन्तु यह एक तथ्य है। यदि आपके पास बहुत कम कहने के लिए हो, तो ही आप ज्यादा कहेंगे। और यदि आपके पास वास्तव में ही कुछ कहने के लिए है, तो आप उसे कुछ ही पंक्तियों में, कुछ ही शब्दों में--यहां तक कि एक ही शब्द में कह सकते हैं। जितना कम आपको कहना हो, उतने ही अधिक शब्दों का उपयोग आपको करना पड़ेगा। जितना अधिक आपको कहना है, उतने ही कम

शब्दों का आपको उपयोग करना होता है।

     

      यह अब मनोवैज्ञानिकों के लिए जानी-मानी बात हो गई है। कि शब्द कुछ बोलने के लिए काम में नहीं लिए जाते, बल्कि कुछ छिपाने के लिए काम में लिए जाते हैं। हम बोलते चले जाते हैं, क्योंकि हमको कुछ छिपाना है। यदि आप कुछ छिपाना चाहते हैं तो आप चुप नहीं रह सकते--क्योंकि आपका चेहरा उसे बोल देगा--आपकी चुप्पी उसे झंकारें कर देगी। अन्य शंकातुर हो सकते हैं कि आप कुछ छिपा रहे हैं। आप शब्दों के द्वारा धोखा दे सकते हैं मौन के द्वारा आप धोखा नहीं दे सकते।

     

      उपनिषदों के पास वास्तव में ही कुछ कहने के लिए है, इसलिए वे उसे बीज रूप में कहते हैं--सूत्रों में, छोटे-छोटे सूत्रों में। इस उपनिषद में केवल सत्रह सूत्र है। उन्हें आधे पृष्ठ पर लिखा जा सकता है एक पोस्टकार्ड के एक साइड में ही इस पूरे उपनिषद को लिखा जा सकता है। पर यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण संदेश है। इसलिए हम हर एक शब्द बीज को लेंगे और उसके भीतर प्रवेश करने का प्रयत्न करेंगे—एक जीवंत संवेदन में उसके प्रति होने की कोशिश करेंगे। आपके भीतर हो सकता है कुछ तरंगित होने लगे, ऐसा प्रारंभ हो सकता है क्योंकि ये शब्द बहुत ही प्रबल, शक्ति पूर्ण हैं। इनमें बहुत कुछ भरा है यदि इनके अणुओं को तोड़ा जा सके, तो बहुत बड़ी तादाद में उर्जा निकलेगी। इसलिए खुले रहें ग्राहक, गहरी श्रद्धा से भरे हुए रहें और इस उपनिषद को अपना काम करने दें।



अब हम आत्म-पूजा उपनिषद में प्रवेश करते हैं।

ओम् ध्यान है इसका सतत स्मरण करना।

ओम्--ओम् यह शब्द बहुत कीमती है--महत्वपूर्ण है



     

      एक संकेत की भांति, इशारे की तरह वे गुप्त कुंजी की तरह। इसलिए सर्वप्रथम इसे ही खोलें। ओम् में पाँच मात्राएं हैं। पहली मात्रा है अ: दूसरी है ओ तीसरी है म्। ये तीन स्थूल चरण हैं। जब हम ओम् शब्द को बोलते हैं, तो ये तीन अक्षर होते हैं। परन्तु ओम् का उच्चारण करें और अंत में जो म् आता है वह मण्म्ण्म् गुंजरित होगा। वह आधी मात्रा है--चौथी। तीन स्थूल हैं और सुनी जा सकती हैं। चौथी आधी स्थूल है। यदि आप काफी सजग हैं तो ही यह सुनी जा सकेगी अन्यथा यह खो जाएगी। और पांचवी कभी नहीं सुनी जाती। जब कि ओम् शब्द का गुंजार होता है, तो वह गुंजार ब्रह्म के शून्य में प्रवेश कर जाती है। जबकि ओम् की

ध्वनि चली जाती है और ध्वनिशून्यता बच रहती है, वही पांचवीं मात्रा है। आप ओम् का उच्चारण करते हैं, तब अ-ओ-म बड़े स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं, तब एक पीछे चला आता मण्म्‍ण्म् की आधी मात्रा और तब उसके बाद ध्वनि शून्यता। वही पांचवीं है। यह जो पांचवीं है, केवल इशारा है, बहुत सी चीजों की ओर।



      प्रथम, उपनिषदों का जानना है कि मनुष्य की चेतना पांच भागों में बंटी है। हम मोटी-मोटी तीन को जानते हैं--जागरण, स्वप्न गहरी निद्रा। ये तीन मोटे-मोटे चरण है--अ-ओ-म। उपनिषद चतुर्थ को तुरीय कहते हैं। उन्होंने उसका कोई नाम नहीं दिया, क्योंकि वह कुछ बड़ी मात्रा नहीं। चौथा वह है जो कि गहरी नींद के प्रति भी सजग रहता है। यदि आप गहरी निद्रा में थे, गहरी स्वप्न रहित निद्रा मैं, तो सुबह आप कह सकते हैं, मैं गहरी, बहुत गहरी नींद में था। कोई आपके भीतर जागता था और अब स्मरण करता है कि बहुत गहरी स्वप्न रहित नींद थी। एक साक्षी वहां मौजूद था। वह साक्षी ही चौथे के नाम से जाना जाता है। परन्तु उपनिषद कहते हैं कि वह चौथा भी अंतिम नहीं है, क्योंकि साक्षी होना भी अभी अलग होना है। इसलिए जब वह

साक्षी भी मिट जाता है, केवल तभी अस्तित्व बचता है बिना साक्षी के--वही पांचवीं है। इसलिए यह ओम् बहुत सी चीजों के लिए चिन्ह है--बहुत सी चीजों के लिए--मनुष्य के पांच शरीरों के लिए। उपनिषद उन्हें इस तरह बांटते हैं--अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानस्य व आनंदमय--पांच कोष हैं--पांच शरीर। यह ओम ब्रह्म का चिन्ह है। यह केवल एक चिन्ह है, लेकिन यह एक संकेत भी है। इसका क्या अर्थ है, जबकि मैं

कहता हूं कि यह संकेत भी है?

     

      जब कोई अस्तित्व में गहरे जाता है जड़ों तक, बहुत गहरे, तो वहां विचार नहीं होते। विचार करने वाला भी वहां नहीं होता। विषय-बोध भी वहां नहीं होता, और न कर्ता का बोध ही होता है, परन्तु फिर भी, सब कुछ होता है। उस विचारशून्य, कर्ताशून्य क्षण में, एक ध्वनि सुनाई पड़ती है, वह ध्वनि ओम की ध्वनि से मिलती है--मात्र मिलती है। वह ओम नहीं है इसीलिए वह मात्र एक संकेत है। हम उसे फिर से उत्पन्‍न नहीं कर सकते। वह करीब-करीब मिलती-जुलती ध्वनि है। इसलिए वह कितनी ही ध्वनियों का समस्वर है, परन्तु सदैव ही ओम के सबसे अधिक पास है।

     

      मुसलमानों व ईसाइयों ने उसे आमीन की तरह पहचाना है। वह ध्वनि जो कि सुनाई देती है, जब कि सब कुछ खो जाता है और केवल ध्वनि गूंजती रह जाती है ओम् से मिलती-जुलती होती है वह आमीन से भी मिल सकती है। अंग्रेजी में बहुत से शब्द हैं--ओम्निप्रजेंट, ओम्निशियन्ट, ओम्निपोटेंट--यह ओम्नि मात्र ध्वनि है। वास्तव में ओम्निशियन्ट का अर्थ होता हैः वह जिसने कि ओम् को देखा हो, और ओम् सब के लिए ही संकेत है। ओम्निपोटेंट का अर्थ होता है वह जो कि ओम् के साथ एक हो गया है, क्योंकि वही सब से बड़ी संभावना है सारे ब्रह्म की ध्वनि में भी मौजूद है। और वह ध्वनि सब को चारों तरफ से घेरे है, सर्व के उपर से बह रही है। ओमनिशियेन्ट, ओम्निप्रजेंट व ओम्निपोटेंट में जो ओम्नि है वह ओम् है। आमीन भी ओम् है। अलग-अलग साधक, अलग-अलग लोग भिन्‍न-भिन्‍न पहचान को पहुंचे हैं। परन्तु वे सब किसी भी प्रकार से ओम् से मिलते-जुलते हैं।

     

      आधुनिक विज्ञान विद्युत कणों को अस्तित्व की आधारभूत इकाई समझता है। परन्तु उपनिषद विद्युतकणों को नहीं, बल्कि ध्वनि कणों को आधार मानता है। विज्ञान कहता है कि ध्वनि विद्युत कणों की ही बदलाहट है, रूपांतरण है। ध्वनि स्वयं अपने में कुछ नहीं वरन विद्युत है। उपनिषद कहते हैं कि विद्युत कुछ नहीं है, बल्कि ध्वनि का रूपांतरण है। एक बात जरूर है कि किसी भी तरह ध्वनि व विद्युत परिर्वितत की जा सकती हैं एक-दूसरे में। परन्तु आधारभूत कौन है? विज्ञान का कहना है कि विद्युत आधारभूत है। उपनिषदों का कहना है कि ध्वनि आधारभूत है, और मैं सोचता हूं कि यह जो भेद है, वह केवल उनकी पहुंच के कारण से है।

     

      उपनिषद अंतिम सत्य तक ध्वनि के माध्यम से पहुंचते हैं, मंत्रों के द्वारा। वे ध्वनि का उपयोग करते हैं ध्वनि शून्य को उपलब्ध करने के लिए। धीरे-धीरे ध्वनि को छोड़ दिया जाता है--और धीरे-धीरे ध्वनि शून्यता पा ली जाती है। अंत में, जब वे नीचे पेंदे में पहुंचते हैं वे उस कास्मिक साउंड--ब्रं की ध्वनि को सुनते हैं। वह कोई विचार नहीं है--वह कोई पैदा की गई ध्वनि नहीं है--वह तो अस्तित्व के अपने स्वभाव में अंतर्निहित है। उसी ध्वनि को उन्होंने ओम् कहा है। वे कहते हैं कि जब हम ओम को दोहराते हैं, वह मात्र समरूपता है--दूर बहुत दूर की नकल। वे कहते हैं, वह सही नहीं है यह वह नहीं है जो कि वहां जानी जाती है, क्योंकि यह तो हमारे द्वारा उत्पन्‍न की गई है। यह तो मात्र किसी फोटोग्राफ की तरह है, यह सिर्फ उससे मिलती-जुलती है। मेरी फोटो मुझसे मिलती है, पर वह मैं नहीं हूं।

     

      मैंने एक डच पेंटर वान गॉग के बाबत सुना है। एक बहुत सभ्य महिला वान गॉग को सड़क पर मिली और कहने लगी--मैंने आपकी तसवीर देखी है और वह इतनी सुंदर थी एवं इतनी प्यारी थी कि मैंने उसे चूम लिया। वान गॉग ने पूछा--क्या उस तसवीर ने कुछ जवाब दिया? महिला ने कहां--नहीं, तसवीर कैसे जवाब दे सकती है? वान गॉग ने कहा--तब वह मैं नहीं था। एक फोटो समरूप हो सकती है, परन्तु वह वास्तविक नहीं है। उसके साथ कुछ गलती नहीं है, बस इतना काफी है कि वह मिलती-जुलती है। परन्तु किसी को उसे मूल समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। इसलिए ओम् मात्र संकेत है उसका जिससे कि वह मिलता-जुलता है, एक फोटो की तरह।

     

      ओम् एक गुप्त कुंजी भी है। जब मैं कहता हूं कि गुप्त कुंजी, तो मेरा अर्थ है कि वह अंतिम ध्वनि से मिलती-जुलती है। यदि आप उसका उपयोग कर सकें और उसके साथ-साथ धीरे-धीरे भीतर गहरे में जा सकें, तो आप अंतिम द्वार तक पहुंच जाएंगे, क्योंकि वह मिलता-जुलता है और वह और भी अधिक मिलेगा, यदि आप कुछ बातें और करें। जैसे, यदि आप ओम् का उच्चारण करें, तो आपको अपने होंठ काम में लेने पड़ते हैं--आपका शरीर-यंत्र भी काम में लेना पड़ता है और तब बहुत कम सादृश्‍यता होगी। एक बहुत ही मोटी यांत्रिकता काम में लेनी पड़ती है और वह उसे विकृत कर देती है। ओम् एक मोटी वस्तु में बदल जाता है। अपने होंठ काम में मत लें केवल अपने भीतर अपने मन की सहायता से ओम् की ध्वनि उत्पन्‍न करें। अपने शरीर को भी काम में मत लें, तब वह और भी मिलती-जुलती होगी: क्योंकि तब आप एक और अधिक सूक्ष्म माध्यम का उपयोग करेंगे। वह और भी अच्छी फोटो पेश करेगा।

     

      मन का भी उपयोग न करें। प्रथम, उपरी शरीर को काम में लें, फिर उसे छोड़ दें। फिर मन को काम में ले। बस भीतर ओम् शब्द की ध्वनि उत्पन्‍न करें। तब उसे भी बंद कर दें और ध्वनि को प्रतिध्वनित होने दें। कोई भी प्रयास न करें, यह अपने से आता है तब यह वह जप बन जाता है। तब आप उसे उत्पन्‍न नहीं कर रहे, आप तो मात्र उसके प्रवाह में हैं। तब वह और भी गहरा चला जाता है, और वह और भी अधिक वास्तविक हो जाता है। आप उसे एक कुंजी की भांति काम में ले सकते हैं। जब वह बिना प्रयत्न के होने लगे, जब वह आपके शरीर के बिना होने लगे बिना मन के होने लगे--और जब केवल ध्वनि ही आपके भीतर प्रवाहित होने लगे, तो आप उसके बहुत समीप हैं।

     

      अब केवल एक चीज और गिरा देनी है--उसे जो कि ओम् की ध्वनि को अनुभव कर रहा है--वह मैं ईगो, वह अहं जो कि अनुभव कर रहा है कि ओम् की ध्वनि मेरे चारों तरफ ओर गूंज रही है। यदि आप इसे भी गिरा दें, तब कोई बाधा नहीं रहती और फोटो की नकल असली फोटो में बदल जाती है। इसलिए यह गुप्त कुंजी है।



      यह ओम् बहुत अदभुत है। यह रहस्यविदों के लिए उतना ही आधार भूत है, जितना कि आइंस्टीन का सापेक्षता का नियम भौतिक शास्त्र के लिए। उस र्फामूला में भी तीन बातें हैं--एक चिन्ह, एक संकेत व एक गुप्त कुंजी। इस ओम् में भी तीन बातें हैं, परन्तु आधारभूत में यह एक गुप्त कुंजी है। जब आप उससे द्वार न खोलें, तब तक इसके बारे में सोचना बिलकुल व्यर्थ है समय, जीवन व शक्ति सब व्यर्थ नष्ट करना है। जब तक कि आप द्वार खोलने के लिए तैयार नहीं हों, क्या लाभ होगा खाली कुंजी की बात करने से! यहां तक कि आप इसके सारे दार्शनिक रहस्य भी जाने लें तो भी वह बेकार है। इसलिए इसे सदैव प्रारंभ में रखते हैं--ओम्। यह चाबी है। यदि आप एक घर में घुसें, तो पहली वस्तु जो काम में ली जाएगी, वह है चाबी। इसलिए घुसें, कुंजी को काम में लें परन्तु यदि आप मात्र चाबी के बारे में सोचने में लगे रहे और बराबर द्वार पर ही बैठे रहे, तो यह चाबी फिर आपके लिए एक चाबी नहीं है, बल्कि एक बाधा है। तब उसे फेंक दें, क्योंकि वह कुछ खोल तो रही नहीं, बल्कि वह बंद कर रही है। और चाबी के कारण, आप लगातार सोचते चले जाते हैं। कोई चाबी के बारे में मनन करता रह सकता है, बिना उसका

उपयोग किए।



      बहुत से लोग हैं जिन्होंने कि ओम के विषय में सोचा है, चिंतन किया है कि क्या अर्थ है ओम का। उन्होंने ढांचे खड़े किए बड़े-बड़े ढांचे, परन्तु उन्होंने कभी चाबी का उपयोग नहीं किया: वे कभी उस महल के भीतर नहीं घूसे। यह एक चिन्ह है एक संकेत है, परन्तु आधारतः यह एक गुप्त कुंजी है। इसे ब्रह्म में प्रवेश के लिए एक विधि की तरह काम में लिया जा सकता है--उस सागर रूप में घुसने के लिए विधि की तरह इसका उपयोग किया जा सकता है। जितना सूक्ष्म यह होता जाता है, उतना ही वास्तविक के पास होता जाता है और जितना स्थूल होता है, उतना कम पास होता है।



      ध्यान उसका सतत स्मरण है। यह पहला सूत्र है। हम तीन आयामों के जगत में रहते हैं। पहला आयाम है--मैं-यह, वस्तुओं का संसार--मैं और मेरा घर, मैं और मेरा फर्नीचर, मैं और मेरा धन। यह एक मैं यह का घेरा है। एक वस्तुओं का जगत मुझे घेरे है।



      फिर एक दूसरा आयाम है--मैं तू, मैं और मेरी प्रेयसी, मैं और मेरा मित्र, मैं और मेरा कुटुंब,--एक व्यक्तियों का जगत। यह दूसरा घेरा है।

     

      उसके बाद एक तीसरा आयाम है--मैं-वह, मैं और विश्‍व। उपनिषद कहते हैं, ध्यान उसका सतत स्मरण है—न तो वस्तु का, न ही तेरा, वह कोई व्यक्ति नहीं है। वह तो वह है, परन्तु हम उसे वह क्यों कहते हैं? जब कभी हम वह कहते हैं, उसका अर्थ होता है वह कुछ जो कि अतिक्रमण करता है, वह जो कि पार है, वह कुछ जो कि वहां नहीं है जहां हम हैं--न तो हमारी वस्तुओं के संबंध में है और न हमारे व्यक्तियों के साथ संबंधों में है--वह उसका कोई नाम नहीं है, क्योंकि यदि उसे आप कोई भी नाम देते हैं, जैसे कि ईश्‍वर, तो वह मैं-तू का संबंध बन जाता है। यदि आप उसे माता या पिता कहते हैं, तो आप उसे दूसरे आयाम में ले जाते हैं। यदि आप कहते हैं कि कोई ईश्‍वर नहीं है, तो फिर आपको एक ही आयाम में रहना पड़ता

है--मैं-वस्तु।

     

      वह वस्तु नहीं है। आस्तिक इस बात से राजी हैं कि वह कोई वस्तु नहीं है, परन्तु वे कहते हैं कि वह व्यक्ति है। उपनिषद उसे एक व्यक्ति की तरह पुकारने के लिए राजी नहीं हैं, क्योंकि एक व्यक्ति की तरह उसे बताना उसे सीमित करना है, एक व्यक्ति की तरह उसे मानना उसे सीमाओं में बांधना है। वे केवल उसका, वह; (दैट) शब्द का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, बस इतना पर्याप्त है, लेकिन उसे हम कोई नाम नहीं दे सकते हैं, क्योंकि उसकी कोई आकृति नहीं है, कोई सीमा नहीं है--वह सर्वस्व है--ऑलनेस। इसलिए क्या कहें उसे? इसलिए वे उसे ईश्‍वर कह कर भी नहीं पुकारते, वे उसे भागवत--डिवाइन भी नहीं कहते वे उसे लार्ड--मालिक भी नहीं कहते। वे उसे किसी भी नाम से नहीं पुकारते। जब उसका कोई रूप नहीं है, कोई नाम नहीं है, तो वे मात्र उसे लिए दैट--वह शब्द का उपयोग करते हैं।

     

      उसका सतत स्मरण ही ध्यान है। यदि आप उसे सतत स्मरण कर सकें, तो फिर आप ध्यान में हैं। जब आप वस्तुओं के साथ हो, उसे स्मरण रखें जब आप लोगों के साथ हों, उसे स्मरण रखें। जहां भी आप हों उसे सदैव स्मरण रखें। हम कभी सीमित को सीमित की भांति नहीं देखते सदैव गहरे देखें और उस असीम को अनुभव करें। कभी आकृति को आकृति तरह न देखें सदैव आकृति के नीचे गहरे जो आकृतिहीन है उसे देखें। कभी वस्तुओं को वस्तुओं की तरह न देखें, गहरे जाए, उन्हें अनुभव करें, और वह--दैट प्रकट हो जाएगा। कभी किसी व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व में कैद न देखें। उसके भीतर गहरे में प्रवेश कर जाएं और उसका अनुभव करें जो कि पार चला जाता है, वह जो भीतर है उसके भी पार चला जाता है। उसका सतत स्मरण ही ध्यान है। कोई विधि, कोई पद्धति, कोई तरीका नहीं है--बस, केवल सतत स्मरण। परन्तु यह बहुत कठिन है।

     

      उसका सतत स्मरण रखना है--बिना किसी अंतराल के, बिना क्रम टूटे, बिना एक क्षण के लिए भूले। सतत स्मरण हो--लगातार बिना किसी भी अंतराल के। यह जो निरंतर स्मरण है, बहुत ही कठिन है। हम कुछ लोगों के लिए लगातार स्मरण नहीं कर सकते। जरा अपनी श्‍वासों को गिनना शुरू करो, और याद रखो कि लगातार स्मरण के आप कितनी श्‍वासें गिन पाते हैं, श्‍वास की क्रिया को, आती-जाती श्‍वास को खयाल में रखना कितने श्‍वास गिन पाते हैं। स्मरण रखें और गिनें। आप तीन या चार गिन पाएंगे और फिर चूक जाएंगे। कुछ बीच में आ गया और आप भूल गए। और तब आपको याद आता है कि ओह, मैं तो गिन रहा था और मैंने तीन गिने और चूक गया।

     

      स्मरण सबसे कठिन बात है, क्योंकि हम सोए हुए लोग हैं। हम गहरी नींद में सोए हुए हैं। हम नींद में चल रहे हैं, नींद में बात कर रहे हैं, गति कर रहे हैं, जी रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं! हम सब कुछ नींद में ही कर रहे हैं, एक गहरी निद्रा में, एक गहरे प्राकृतिक सम्मोहन में। इसीलिए इतनी गड़बड़ है, इतना संघर्ष है। इतनी हिंसा है और इतनी लड़ाई है। यह में कैसे जीवित रही! और अभी भी हम किसी तरह चला रहे हैं। परन्तु हम सोए हुए हैं। हमारा व्यवहार ऐसा व्यवहार नहीं कि उसे जागा हुआ, सावधानी पूर्ण या सचेतन कहा जा सके। हम जागे हुए नहीं हैं। एक मिनिट के लिए भी हम अपने प्रति सजग नहीं रह सकते। इसका थोड़ा प्रयत्न करें और तब आपको पता चलेगा कि आप कितने सोए हुए हैं। यदि मैं अपने आपको एक मिनट के--साठ सेकेंड के लिए भी लगातार स्मरण नहीं रख सकता, तो कितनी गहरी नींद में मैं सोया हूं! दो या

तीन सेकेंड और फिर नींद आ जाती है, और मैं वहां नहीं होता--मैं कहीं चला गया। सजगता चली गई और मूच्र्छा उसकी जगह आ गई। एक गहरा अंधकार हो जाता है और फिर मुझे खयाल आता है कि मैं अपने प्रति सजग हो रहा था।

     

      पी॰ डी॰ ऑसपेन्स्की गुरजिएफ के साथ काम कर रहा था तथा उसके स्व-स्मरण की विधि पर भी। जब वह पहली दफा गुरजिएफ से मिला, उसने पूछा--आपका स्व-स्मरण; सेल्फ रिमेंबरिंगद्ध से क्या तात्पर्य है? मुझे याद है, मैं पी॰ डी॰ ऑसपेन्स्की हूं। गुरजिएफ ने कहा--अपनी आंखें बंद करो और स्मरण करो कि तुम पी॰ डी॰ ऑसपेन्स्की हो, और अब विस्मरण हो जाए तो मुझे कह देना। स्पष्ट कह देना। केवल दो या तीन उसने कहा--मैं तो स्वप्न देखने लगा। मैं तो भूल गया कि मैं पी॰ डी॰ ऑसपेन्स्की हूं। मैंने तीन या चार बार कोशिश की। मैंने अपने भीतर कहा कि मैं पी॰ डी॰ ऑसपेन्स्की हूं। और तब एक सपना शुरू हो गया और मैं सजग नहीं रह पाया। गुरजिएफ ने कहा, यह स्व-स्मरण नहीं सजग नहीं रह पाया। गुरजिएफ हो। पहली

बात तो यह है कि तुम पी॰ डी॰ ऑसपेन्स्की नहीं हो, और दूसरी बात यह कि यह स्मरण नहीं है। जब स्मरण आएगा, तो तुम पहले व्यक्ति हो जो कि मना करोगे कि तुम पी॰ डी॰ ऑसपेन्स्की हो।

     

      तीन महीने के लिए ऑसपेन्स्की ने बड़ी मेहनत की, बहुत परिश्रम किया। जितनी कोशिश तुम करते हो, उतना पता चलता है कि यह कितना मुश्‍किल है। जितना भी तुम प्रयत्न करते हो, उतना ही तुम्हें पता चलता है कि तुम अपनी सारी जिंदगी सोए हुए ही रहे। यह जो हमारे पास है, यह मात्र यांत्रिक सजगता है। हम इससे चल सकते हैं, रोजाना का काम कर सकते हैं, परन्तु कभी गहरे में नहीं जा सकते। तीन महीने के लिए उसने कोशिश की और बहुत कोशिश की और जब सजगता को प्राप्त हुआ, तो चेतना का एक नया ही स्तंभ प्रकट हुआ। जब वह अनुभव कर सकता था और साथ ही लगातार सजग भी रह सकता था, तो गुरजिएफ उसको एक सड़क पर घुमाने के लिए साथ ले गया। तब ऑसपेन्स्की ने कहा--पहली बार, एक शहर की सड़क पर, मैंने जाना कि प्रत्येक व्यक्ति सोया हुआ है, प्रत्येक व्यक्ति नींद में चल रहा है। लेकिन मैं भी उस नींद में चल चुका था, उस दशा में, और कभी सजग नहीं था। और मैंने देखा कि हर एक आदमी सोया हुआ है, अपनी खुली आंखों से। वह इतना घबड़ाया कि उसने अपने गुरु से कहा--मैं आगे नहीं चल सकता, मैं वास लौटूंगा। यहां हर एक ऐसा सोचा है कि यहां कुछ भी हो सकता है।

मैं आगे नहीं बढ़ सकता।

     

      एक सड़क के किनारे बैठ जाऐं, और लोगों की घूमती हुई आंखों की ओर देखें। तब तुम्हें मालूम होता है कि हर एक मनुष्य अपने में बंद है। उसे बिलकुल ही होश नहीं है कि उसके चारों तरफ क्या हो रहा है। कोई अपने से बात कर रहा है, कोई अपने हाथ हिला रहा है, शक्लें बना रहा है, जैसे वह किसी सपने में। हो सकता है। होंठ हिल रहे हैं प्रत्येक अपने भीतर बात कर रहा है। किसी को भी होश नहीं कि बाहर उसके चारों तरफ क्या हो रहा है। सब लोग यंत्रवत चले जा रहे हैं। वे अपने घरों को लौट रहे हैं। उन्हें यह स्मरण रखने की आवश्‍यकता नहीं कि उनके घर कहां हैं। वे यंत्रवत चलते हैं। उनकी टांगें चलती हैं उनके हाथ कार के पहिए को घुमाते हैं, वे अपने घर पहुंच जाते हैं, परन्तु यह सारी प्रक्रिया सोते में हो रही है—एक यांत्रिक क्रिया है रोज की। रास्ते बने हैं और उन रास्तों पर वे चढ़े चले जाते हैं। इसीलिए हम सदैव नये से घबड़ाते हैं, क्योंकि तब हमें नए रास्ते बनाने पड़ते हैं। हम नए से डरते हैं, क्योंकि नए के साथ रोजमर्रा की

बात नहीं चलेगी और कुछ समय के लिए हमें सावधान होना पड़ेगा। हम हमेशा ही अपने मृत दैनिक कार्यों में गड़े हुए रहते हैं और एक तरफ से मरे हुए होते हैं। एक सोया हुआ आदमी, वास्तव में, मृत होता है, उसे जीवित नहीं कह सकते।

     

      पूरे जीवन में मात्र कुछ ही क्षणों के लिए हम जागते हैं और वे क्षण गहरे प्रेम के क्षण होते हैं जो कि बहुत ही मुश्‍किल से होता है। यह केवल कुछ ही लोगों को होता है--बहुत ही कम लोगों को। और जब यह होता है, प्रत्येक यह समझेगा कि वह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि वह इतना भिन्‍न हो गया होता है—क्योंकि उसने वस्तुओं को दूसरे रंग में देखीं होती हैं, एक भिन्‍न ही संगीत में, एक अलग ही रोशनी में। वह अपने चारों ओर देखता है और एक भिन्‍न ही दुनिया को देखता है। सचमुच ही वह व्यक्ति हमारे लिए पागल हो गया है, इसलिए हम उसे क्षमा कर सकते हैं, क्योंकि वह पागल है। वह एक स्वप्न में है!

     

      वास्तव में, ठीक इसके विपरीत, मामला उल्टा ही है। हम सोए हुए हैं, और एक क्षण के लिए वह एक गहरी वास्तविकता के प्रति जाग गया है। परन्तु वह अकेला है और वह जागरूकता लगातार नहीं रह सकती: क्योंकि वह एक आकस्मिक घटना है। वह उसके प्रयत्न से नहीं हुआ जो कुछ उसने पाया। वह एक अकस्मात घटना है। वह फिर सो जाएगा, और जब वह सो जाएगा, तब वह अनुभव करेगा कि उसे अपने प्रेमी या प्रेयसी द्वारा धोखा हुआ है क्योंकि वह जादू अब वहां नहीं है। वह जादू आया, क्योंकि वह एक नए ही संसार के प्रति जागा। इस संसार में कितने ही संसार हैं। वह अवगत हुआ, और अब फिर से सो गया, इसलिए वह अनुभव करता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। हर एक प्रेम करने वाला यह सोचता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। किसी ने उसे धोखा नहीं दिया है। केवल एक अचानक जागरण में उसने एक अलग ही संसार के दर्शन कर लिए, एक अलग ही सौंदर्य से भरे, अलग-अलग ध्वनियों से भरे, और अब वह फिर से सौ गया है। वह झलक खो गई और अब ऐसा अनुभव करता है कि उसे धोखा दिया गया। किसी ने उसे धोखा नहीं दिया है। केवल इतना ही हुआ कि अचानक वह जाग गया था।

     

      कोई या तो प्रेम में, अथवा मृत्यु में सजग हो पाता है। आप मृत्यु की मुट्टी में आ गए हैं, तो आप जाग जाएंगे। आकस्मिक दुर्घटनाओं में--कार काबू से बाहर पहाड़ी के नीचे आ रही है--आप जाग जाएंगे क्योंकि अब कोई भविष्य नहीं है और अतीत समाप्त हो गया है। केवल यह वर्तमान क्षण, यह पहाड़ी से नीचे गिरने का क्षण ही सब कुछ है। अब एक अलग ही समय का आयाम खुलता है। आप यहां और अभी में है, पहली बार, क्योंकि कोई भविष्य नहीं है। आप भविष्य के बार में नहीं सोच सकते, अतीत समाप्त हो ही रहा है। इन दोनों के बीच, एक क्षण के लिए, इस संकट में, आप सजग हो गए हैं। इसलिए प्रेम व मृत्यु ही ऐसे क्षण हैं, जब कि हम जागरूक होते हैं, लेकिन वे हमारे हाथ में नहीं हैं।

     

      इसलिए जब उपनिषद कहते हैं--उसका सतत स्मरण तो इसका अर्थ है कि यदि आप लगातार, सतत उसका स्मरण कर सकें प्रत्येक वस्तु में, प्रत्येक घटना में, जो कुछ भी है उसमें वही है, भीतर व बाहर, यदि हर चीज उसकी ही स्मृति के लिए संकेत बन जाए, तो चेतना का विस्फोट होगा। नींद तब नहीं होगी। आप सजग व जागरूक हो जाएंगे। वह सजगता, वह जागरूकता ही ध्यान है।

     

      दो बातें और हैं। लगातार का अर्थ होना है बिना किसी अंतराल के--बिना एक क्षण के गैप के भी। परन्तु यह बहुत कठिन है, क्योंकि तब आपकी जिंदगी असंभव हो जाती है। यदि आप निरंतर, उसका स्मरण करते चले जाते हैं, तो आप जीएंगे कैसे? आप चलेंगे कैसे? आप खाएंगे कैसे? यह समस्या खड़ी होती है यदि आप उसका नाम स्मरण करते हैं, यदि राम का स्मरण करते हैं, जीसस का या किसी का भी करते हैं तो। यदि आप उसके नाम का स्मरण करते हैं, उसे कोई भी नाम देते हैं, यदि आप बार-बार राम-राम दोहराते हैं, तो आपका जीवन असंभव हो जाएगा: क्योंकि या तो आप राम-राम का स्मरण ही कर सकते हैं या आप सड़क पर चल ही सकते हैं।

     

      एक मिलिटरी के सिपाही को मेरे पास लाए थे--एक बहुत ही सीधा आदमी, बड़ी ही भक्त। वह राम-राम बोलने की सतत चेष्टा में लगा था। किसी गुरु ने उसे निरंतर राम का जप करने के लिए कहा था। वह इतना उस जप में खो गया कि बाहर का उसका जीवन असंभव हो गया। वह सो नहीं सकता था, क्योंकि उसे राम का स्मरण करना था! यदि आप भीतर राम-राम-राम दोहराते जा रहे हैं, तो आप सो नहीं सकते। यह लगातार क्रिया सोने नहीं देगी। वह सड़क पर भी नहीं चल सकता था, क्योंकि कोई हॉर्न बजा रहा है और वह सुन

नहीं पाता है। वह अपने चारों ओर अपने ही जप से घिर गया था, बंद हो गया था। वह बिलकुल संवेदनशील हो गया था। वह एक सेना का सिपाही था, इसलिए उसका कैप्टेन उसे मेरे पास लाया था और कहा था कि यह सुन भी नहीं सकता। मैं कहता हूं, लेफ्ट टर्न, और यह खड़ा है और यह देख रहा है, यह गैरहाजिर है। क्या कर रहा है यह? कैप्टेन ने कहा कि असंभव हो गया है और अब इस आदमी को अस्पताल भेजना पड़ेगा। मैंने उस सिपाही से पूछा--तुम क्या कर रहे हो? उसने मुझे कहा कि मैं आपको बतला सकता हूं, मेरे कप्तान को नहीं। मेरे गुरु ने मुझे एक मंत्र दिया है और इसलिए मैं राम-राम-राम निरंतर दोहरा रहा हूं। और अब यह दोहराना इतना गहरा चला गया है; (क्योंकि मैं तीन साल से लगातार दोहरा रहा हूं) कि मेरी नींद खो गई है। मुझे दिखलाई नहीं पड़ता कि क्या हो रहा है। मैं सुन नहीं सकता कि मेरे चारों ओर क्या हो रहा

है। मेरे और संसार के बीच एक बड़ी दीवार आ गई है। मैं अपने राम के जप में बंद हो गया हूं। उसने मुझसे पूछा कि मैं दोनों कैसे करूं? यदि मुझे निरंतर जप करना है, तो फिर मैं कुछ और नहीं कर सकता। इसलिए मुझे बतलाएं कि क्या करूं? यदि मैं कुछ और करता हूं, तो जप टूट जाता है, और अंतराल फिर अनिवार्यतः आएंगे।



      यहां स्मरण का यह मतलब नहीं है। इसीलिए उपनिषद उसका कोई नाम नहीं दे रहे, कोई रूप नहीं दे रहे, केवल कह रहे हैं--वह--दैट। और उसका निरंतर स्मरण असंभव है, क्योंकि आपको उसको उसका नाम-स्मरण नहीं करना है। बल्कि आपको उसे अनुभव करना है प्रत्येक बात में जो भी आप कर रहे हैं—यहां तक कुएं से पानी ला रहे हैं उसमें भी। किसी झेन फकीर बोकूजू से पूछा कि वह हर समय क्या करता है? उसने कहा--मैं कुछ भी लगातार नहीं करता हूं। जो कुछ भी मैं कर रहा हूं, मैं समग्र रूप से करता हूं। जब मैं कुएं से पानी ला रहा हूं, तो मैं कुएं से पानी ही ला रहा हूं। जब मैं लकड़ी काट रहा हूं, तो मैं लकड़ी ही काट रहा हूं। जब मैं सो रहा हूं तो मैं सो रहा हूं। प्रश्‍नकर्ता ने पूछा--तब फिर आप क्या कर रहे हो? बोकूजू ने सीधा उत्तर दिया--मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। जब मैं लकड़ी काट रहा हूं, तब वह लकड़ी काट रहा हूं, तो वह पानी ला रहा है। वह ही पानी ला रहा है और वही पानी भी है जो कि लाया जा रहा है और वह ही लकड़ी भी है जो कि काटी जा रही है। अब वह ही है, और मैं नहीं हूं। इसलिए हर चीज पूजा हो गई है और प्रत्येक बात ध्यान हो गई है।

     

      यह सारा उपनिषद इसी एक बात से संबंधित है कि कैसे आपकी जिंदगी को ही एक पूजा बना दे। यह उपनिषद पूर्णरूप से सब क्रियाकांड के विरोध में है। किसी क्रिया की आवश्‍यकता नहीं--केवल एक अलग रुख--एक स्मरण उसका--कुछ भी करने में, कुछ भी न करने में, परन्तु सतत स्मरण उसका। आपको याद नहीं करना कि--चलो, अच्छा, यह पत्थर भी वह है। यदि आप इस तरह याद करने चले कि यह पत्थर भी वह है, तब वह स्मरण नहीं है क्योंकि तब दो मौजूद हैं--यह पत्थर और वह। जब उपनिषद कहते हैं—सतत स्मरण उसका तो उसका अर्थ है कि पत्थर गिर जाना चाहिए। केवल वही है। वह गहरा अनुभव है, एक सतत अनुभव।

     

      अनुभव करना प्रारंभ करें। किसी भी वस्तु को छुएं नहीं बिना उसका अनुभव किए। बिना उसका अनुभव किए किसी को भी प्रेम न करें। हिलें भी नहीं, यहां तक कि श्‍वास भी न लें बिना उसका अनुभव किए। ऐसा नहीं है कि आपको उसे प्रत्येक चीज पर आरोपित करना है। आपको तो उसे प्रत्येक वस्तु में खोजना है। यह भेद स्पष्ट हो जाना चाहिए। आपके किसी भी चीज पर उसे आरोपित नहीं करना है। आप आरोपित कर सकते हैं, वह एक तरकीब होगी। आपको खोजना है। एक फूल को देखकर आप आरोपित कर सकते हैं और कह सकते हैं, ओह, वह फूल वह ही है।



      नहीं, आरोपण न करें। कुछ भी न कहें। बस केवल फूल के पास चुप हो जाए उसकी तरफ देखें। गहरी सहानुभूति में हो जाए, उसके साथ गहरे में जुड़ जाएं। अपन को भूल जाए। मात्र निष्क्रिय सजगता में हों और फूल खिल उठेगा। उसमें। उसका वह प्रकट हो जाएगा। इसलिए उसे खोजते चले जाएं। यही मतलब है सतत स्मरण का, और उसका सतत स्मरण ही ध्यान है।





इतना आज ही।

ओशो

बंबई, दिनांक 15फरवरी, 1972, रात्रि
































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