मैं हैरान हो जाती हूं कि ओशो को वे लोग ‘सेक्स गुरु’ कहते है जिन्होंने शायद उन्हें न कभी सुना ओर न कभी पढ़ा। ओशो सेक्स के वरना में कहते क्या है धर्म गुरूओं की तरह उन्होंने कभी भी सेक्स को निन्दित नहीं किया और यही कारण रहा है तो ऐसा लगता है कि पूरा संसार सेक्स से ग्रसित है और यह पक्का है कि समाचार-पत्र की सुर्खियों में सेक्स शब्द आ जाने से उसके पाठकों में वृद्धि तो होती ही है।
और स्वच्छन्दता ओर समग्रता से ऊर्जा के बहाव को मार्ग देना—दोनों बातों में एक सूक्ष्म–सी तार है। ओशो में हमें इस सूक्ष्मता की तार पर साथ लिए चलने में एक अदम्य साहस व प्रज्ञा है।
हमें सम्बोधि की दिशा में ले चलने के लिए ओशो के कार्य में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है कि सेक्स को सही दिशा मिल क्योंकि वह नैसर्गिक है परन्तु उनका ज़ोर इसके अतिक्रमण पर है। और अतिक्रमण दमित मन से नहीं होता। तो उसका पहला क़दम उसकी अभिव्यक्ति है। यह कितना सरल-सी बात है।
....फिर ध्यान से तुम्हारी चेतन, सम्बोधि के नए द्वार खुलते है। ऊर्जा को गति चाहिए यह स्थित नहीं रह सकती और वे नए मार्ग अधिक रोचक होंगे।
यौन का जितना—सा अनुभव तुमने किया है, जहां तक तो देह का प्रश्न है, यह एक साधारण—सा अनुभव है जो सभी पशुओं, सभी मनुष्यों वे सभी पक्षियों को उपलब्ध है। इसमें कोई विशेषता नहीं, कोई विशिष्टता नहीं है। परंतु यदि ध्यान हमें समाधि के मार्ग पर ले जाता है और तुम ऊर्जा से भरे हो तो वह ऊर्जा स्वयं में ही तुम्हारे लिए नए मार्ग निर्मित कर देंगी।
इस ही मैं अतिक्रमण कहता हूं।
(द ट्रांसमिशन ऑफ द लैम्प)
मेरे पाश्चात्य संस्कारबद्धता में मुझे यह धारणा दी गई थी कि जब कास विदा होता है। तो सब समाप्त हो जाता है। ओशो हम से बात करते हुए हमेशा यही समझते का प्रयास करते है कि पूरब में यह धारणा सर्वथा भिन्न है। पूरब में जब काम विदा होता है तो वह समय उत्सव मनाने का है। जबकि पश्चिम में जब काम विदा हो रहा है तो यह एक आपदा है।
यह अवश्यम्भावी है कि एक दिन काम का ज्वर व ज्वार दोनों ही उतर जाते है और जो पीछे बचता है वह बहुत खेलपूर्ण है अब किसी के प्रति अन्वाकर्षण नहीं बल्कि एक रोचक विचार कि एक दिन ऐसा भी सम्भव होगा कि इस खेल को खेलने का हमारा स्वतन्त्र निर्णय होगा। और मुझे आशा है कि शरीर के जर्जर होने से पहले ही ऐसा घट जाए और काम ऊर्जा मनस रूप ले ले। मैं समझती हूं ऐसा सम्भव है।
प्रिय सदगुरू,
पिछले कुछ सप्ताह से मेरे भीतर काम व मृत्यु का गहन अनुभव हो रहा है क्या यह आवश्यक है कि इसे समझा जाए?
ओशो का उत्तर:
यह समझना सदा ही आवश्यक है कि तुम्हारा मन किस प्रकार कार्य करता है, तुम्हारा ह्रदय कैसे कार्य करता है। तुम्हारी भीतरी जगत में क्या चल रहा है। इसे देखते-देखते तुम इससे एक प्रकार की दूरी स्थापित कर सकोगे। एक कोशिश रहेगी कि वे सब वहीं है परंतु तुम्हारा उनसे तादात्म्य नहीं है। बोध की यही सबसे बड़ी कीमिया है। वास्तव में—यह समझने की कोशिश में तुम अलग हो जाते हो और यह दृश्य हो जाता है। और तुम कभी निरपेक्ष नहीं बन सकते, तुम सदा सापेक्ष बने रहते हो। तुम्हारी सापेक्षता को निरपेक्षता में बदलना सम्भव नहीं है अत: इससे तुम और तुम्हारे बीच की भावनाओं में अंतराल स्थापित होता है। यह एक बात है।
दूसरी बात: यह अंतराल तुम्हें इस बोध की सम्भावना देता है कि तुम्हारे साथ क्या हो रहा है। बिना कारण कुछ भी नहीं होता और कभी-कभी कुछ बातें बहुत ही बुनियादी होती है, उदाहरण के तौर पर सबसे बुनियादी प्रश्नों में से एक प्रश्न—काम व मृत्यु में क्या सम्बंध है? और यदि तुम इसे ठीक से देख सकते हो तो धीरे-धीरे काम व मृत्यु का अंतराल मिट जाएगा और वे ऊर्जा का रूप ले लेंगे।
काम शायद किश्तों में मृत्यु है, और मृत्यु काम का परम रूप।
परंतु अवश्यक ही वह ऊर्जा दोनों छोरों से अपना कार्य कर रही है काम जीवन का प्रारम्भ है और मृत्यु उसी जीवन का अंत। अत: ये दोनों एक ही ऊर्जा के दो छोर है, ध्रुव है जो एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते।
सेक्स और मृत्यु से अफ्रीका के एक मकड़े का ख्याल आता है जहां मृत्यु वे सेक्स एक-दूसरे के बहुत नज़दीक आते है मनुष्यों में सत्तर-अस्सी सालों को अंतर है। परंतु मकड़ों की कुछ विशेष जातियों में यह अंतर नहीं है। हर मकड़ा अपने जीवन में एक ही बार सम्भोग में उतरता है। और इस क्रिया में एक ऐसी—घड़ी, शिखर—अनुभव की घड़ी आती है। कि जब उसे यह चिंता नहीं होती कि साथ-साथ उसका अंत भी होता जा रहा है। और वह जिस पल में उसका शिखर—अनुभव पूरा होता है, वह स्वयं ही समाप्त हो जाता है। मादा मकड़ी उसे खाने लगती है। परंतु वह इतने हर्षोन्माद में होता है कि कोई उसे खा रहा है और जब उसका शिखर—अनुभव समाप्त होता है तो वह भी समाप्त हो जाता है।
मृत्यु व काम एक—दूसरे के बहुत नज़दीक है....परंतु भले ही वे पास है या दूर, वे अलग—अलग ऊर्जाऐं नहीं है। अत: उन्हें हम एक साथ उठता हुआ अनुभव कर सकते है। इन दोनों को एक साथ उठते देखना अत्यंत शुभ है, यह एक महाबोधि है—क्योंकि लोग इसे देख नहीं पाते। वे लगभग अन्धे है, वे काम वे मृत्यु को एक साक नहीं जोड़ पाते शायद यह उनके अवचेतन का भय है जो उन्हें इन दोनों को एक साथ देखने से रोकता है। क्योंकि यदि वे दोनों को एक साथ देखना शुरू करेंगे तो डर है कि कहीं वे काम से ही भयभीत न हो जाएं—और जैविक लक्ष्य के लिए यह खतरनाक है और जैविक तल पर यही बेहतर है कि वे दोनों को एक-दूसरे से न जोड़ें।
ऐसा देखा गया है कि जब भी व्यक्ति की गर्दन काटी जाती है—अभी भी कुछ देश है जहां ऐसा होता है—और बहुत अचरज भरी बात देखने में आई है कि जिस क्षण जिस व्यक्ति का गला कटता है, उस क्षण वह कामुक हो उठता है यह बात बिना किसी अपवाद के सच है। यह बड़ी अज़ीब बात है। क्योंकि जब उसकी गर्दन कटती है तो क्या वह आश्चर्यचकित करने वाली घटना नहीं कि व्यक्ति कामुक हो उठता है? परंतु इसे रोकना उसके बस में नहीं है। जब मृत्यु घट रही है, जीवन उसका साथ छोड़ रहा है तो स्वभावत: उसकी काम ऊर्जा भी उसे छोड़ जाती है। यह पूरी घटना का ही एक हिस्सा है उसके शरीर में काम ऊर्जा का पीछे छूट जाने का कोई सवाल ही नहीं है।
प्रश्न महत्वपूर्ण है इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम मर रहे हो। इसका बड़ा सीधा—सा अर्थ है कि तुम्हारी काम—ऊर्जा अपने शिखर पर जा रही है। अत: तुम्हें मृत्यु का आभास हो रहा है। यदि काम-ऊर्जा को मिल जाए तो इसका आभास नहीं होगा।
यह प्रश्न जिस व्यक्ति ने पूछा है वह संभोग में नहीं उतरता होगा। उसकी ऊर्जा इकट्ठी होती जाती है और उस बिंदु पर आ पहुंचती है जहां उसे स्वयं ही मृत्यु का स्मरण होने लगता है। यदि तुम होशपूर्वक मरते हो तो मृत्यु तुम्हें पूर्व-शिखर अनुभव देगी।
वैसे भी स्त्री की आयु पुरूष की अपेक्षा अधिक होती है। यह उससे अधिक स्वस्थ होती है। रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधक होती है पुरूष की तरह वह जल्दी पागल नहीं होती, आसानी से आत्महत्या नहीं करती एक कारण यह हो सकता है कि उसकी काम ऊर्जा निषेधात्मक है। विधायक ऊर्जा सक्रिय शक्ति है। निषेधात्मक ऊर्जा ग्राहक शक्ति है।
शायद इस निषेधात्मक, ग्राहक ऊर्जा के कारण उसकी देह अधिक स्वस्थ है और वह अधिक जीती है। और यदि जीव—विज्ञान उसे मासिक धर्म से छुटकारा दिला सकता तो वह और अधिक जी सकती थी। और अधिक स्वस्थ हो सकती थी। वह पुरूष से अधिक शक्तिशाली हो सकती थी।
अत: काम व मृत्यु—दोनों विचारों का एक साथ उठना केवल यही बताता है कि काम ऊर्जा का संग्रह होता जा रहा है। विधायक व निषेधात्मक ऊर्जा का संग्रह देर तक वहां रहता है।
मैं जैन साधु व साध्वियों को देखता हूं—असल में वे जो भी कर रहे है, पूरी निष्ठा से कर रहे है। भले ही वह मूढ़ता पूर्ण लगे परंतु उनकी निष्ठा पर कोई संदेह नहीं है। साध्वियों के लिए ब्रह्मचर्य का पालन सहज है परंतु साधुओं के लिए अत्यंत कठिन है। ठीक वैसी ही कठिनाई ईसाई व अन्य साधुओं को है।
निषेधात्मक ऊर्जा का अर्थ केवल उतना है कि यह अधिक शांत होती है। सक्रिय ऊर्जा की प्रतीक्षा में—ताकि वे उसे ग्रहण कर सकें परंतु इसकी स्वयं की सक्रिय शक्ति नहीं होती। यहीं कारण है कि मैं स्त्री—समलैंगिकता के विरोध में हूं। यह निपट मूढ़ता है। दो निषेधात्मक ऊर्जा ओर का किसी शिखर अनुभव तक पहुंचने का प्रयास यह सीधी सी बात है कि या तो वे दिखावा कर रही है, या फिर जिसे वे शिखर-अनुभव का नाम देती है वह केवल सतही है यौंनिक नहीं और इस सतही शिखर अनुभव की तुलना यौंनिक शिखर अनुभव की तुलना में कुछ भी नहीं है। सतही शिखर अनुभव तो एक तरह की पूर्व क्रीड़ा है यह वास्तविक शिखर अनुभव तक पहुंचने में सहायक तो हो सकता है परंतु उसका स्थान नहीं ले सकता।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसी अंतरंग बात कितने अंधेरे में रही है। मैं एक दावा करता हूं और आज तक के इतिहास में ऐसा दावा पहले कभी किसी ने न किया होगा—कि सतही शिखर अनुभव पूर्व क्रीड़ा के लिए अत्यंत सहायक हो सकता है। और मानस्विद आज तक हैरान है किक्लीटोरस (योनि का बाह्म भाग) है किस लिए। क्योंकि इसका कोई जैविक मूल्य नहीं है। इस प्रश्न को हटाने के लिए बहुत से मनस्विदों ने तो शिखर अनुभव को ही झुठला दिया है। वे केवल सतही शिखर की ही बात करते है।
पुरूष का शिखर अनुभव इतना शीध्र होता है कि वह इतने कम समय में यौन शिखर अनुभव कर ही नहीं सकता। केवल कुछ पलों में परंतु यदि पूर्व क्रीड़ा निर्मित हो सके तो यह यौंनिक शिखर अनुभव के लिए स्थान बना देती है। इसकी शुरूआत हो ही गई है। सतही शिखर अनुभव शरीर में उस प्रक्रिया को जन्म देता है।
परंतु पुरूष सतही शिखर अनुभव कीओर ध्यान ही नहीं देता। क्योंकि उसका शिखर अनुभव योनि के संसर्ग में आते ही घट जाता है। उसे केवल अपने शिखर अनुभव की चिंता होती है और इसका अंत होते ही वह स्त्री के बारे में ज़रा सा भी नहीं सोचता।
स्त्री समलैंगिकता नारी स्वतंत्रता अभियान में घर कर रही है। क्योंकि यह उन्हें सतही शिखर अनुभव देती है। परंतु यह दूसरी तरह की मूढ़ता है क्योंकि यह केवल पूर्व क्रीड़ा है यह तो वही बात हुई कि आपने पुस्तक कि भूमिका देखी और पुस्तक कहीं नहीं है। और तुम जब तक चाहों, भूमिका पढ़ते रहो। बार-बार कितनी बार, परंतु तुम पुस्तक तक कभी नहीं पहुंच सकते।
यदि स्त्री प्रतीक्षा करती रही तो यह भी निषेधात्मक ऊर्जा को अपने में इकट्ठी कर लेती है। यदि यह बहुत अधिक हो जाए तो उसके मन में मृत्यु का विचार आ सकता है। क्योंकि इस मन: स्थिति में उसके भीतर उठता प्रेम व कामोन्माद अति सुंदर शिखर अनुभव है जो उसे मृत्यु का अनुभव देगा।
यदि तुमने अपना जीवन मूर्च्छा में दुःख और परेशानी में बिताया है तो यह निश्चित है कि मृत्यु आने से पहले तुम कोमा में चले जाओगे। अत: तुम्हें ऐसा कोई अनुभव नहीं है और न ही ऐसा कोई बोध,कि मृत्यु नहीं घट रही है। और यह तुम नहीं तुम्हारा शरीर है—यह वाहन जिसका उपयोग तुम आज तक करते रहे हो।
यदि यह प्रश्न किसी पुरूष का है तो उस पर भी यही बात लागू होती है। परंतु ऐसा कभी-कभार ही होता है। जब पुरूष ऐसी चरम स्थिति तक पहुंच सका कि उसे मृत्यु का विचार आने लगे उसकी ऊर्जा इतनी गतिशील होती है इतनी सक्रिय कि पूर्व इसके कि वह चरम स्थिति पर पहुंचे उसकी ऊर्जा स्खलित हो जाती है। अत: मुझे ऐसा लगता है कि यह प्रश्न किसी स्त्री का है।
और आज तक किसी ने स्त्री की बात नहीं सुनी है, आज तक किसी ने इस बात की चिंता नहीं की है कि वह क्या अनुभव करती है। कैसे अनुभव करती है। सदियों से जो बात पुरूष ने अवश्य जान ली है—इसका प्रमाण भारत में हमारे यहां की चित्रकारी है, मूर्तियां है, जिनमे इस तथ्य को दर्शाया गया है कि पुरूष ने हमेशा स्त्री को एक तरह की मृत्यु के रूप में अनुभव किया है।
परंतु यह एक ग़लत फ़हमी है। मृत्यु स्त्री में नहीं,तुम्हारी काम-ऊर्जा में निहित है।
परंतु इस तरह पुरूष हमेशा अपना प्रक्षेपण करते रहे है कि वे इतना नहीं देख पाते कि उनकी अपनी काम ऊर्जा उन्हें मृत्यु के पास ले आती है। और यह स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते क्योंकि उनकी काम ऊर्जा कभी अपनी चरम स्थिति तक आती ही नहीं। उन्हें मृत्यु का स्मरण दिला सके परंतु स्त्रियां, यदि उनकी बात सुनी जाए, तो इस घटना के विषय में उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है।
प्रज्ञावान स्त्री को ईसाइयत ने नष्ट कर दिया है। मध्यकाल में उन्हें हज़ारों की संख्या में जिंदा जला दिया गया। अंग्रेजी का शब्द ‘विच’ का सही अर्थ है—प्रज्ञावान स्त्री। परंतु वह स्त्री इतनी निंदित हो चुकी थी कि यह शब्द भी निंदित हो गया। वरना यह शब्द तो आदरपूर्ण था। यह प्रज्ञावान पुरूष के बराबर शब्द था। पूरे विश्व में प्रज्ञावान स्त्रियां थी और ऐसी ही बातें थीं जिनके बारे में प्रज्ञावान स्त्री ही जान सकती थी।
यदि इस तथ्य को ठीक से न समझा गया तो भारत की मूर्तियां और चित्र कुछ अजीब दिखाई देंगे। जैसे कि शिव लेटे हुए है और उनकी पत्नी शिवानी नंगी तलवार लेकर और दूसरे हाथ में अभी-अभी कटे सिर को लेकर उनकी छाती पर नृत्य कर रही है। उसके गले में नर मुंड़ों की माला है। और सभी कटे सिरों में से खून टपक रहा है। और उसका नृत्य उन्माद भरा है। ऐसे लगता है कि यह शिव को मार डालेगी। यह नृत्य इतना उन्माद भरा है और यह स्त्री इतनी उन्मत्त है कि शिव के बचने का कोई उपाय ही नहीं।
मैं जो भी कह रहा हूं वह सभी अनुभवों पर आधारित है पूरब में स्त्री का सम्मान होता रहा है पश्चिम में जो हुआ वैसा यहां कभी नहीं देखा गया—उसे मारना और ज़िंदा जलाना। प्रज्ञावान स्त्रियों को सदा से आदर मिला और उनकी प्रज्ञा को स्वीकार किया जाता रहा है। क्योंकि वह पुरूष का आधा भाग है पुरूष की प्रज्ञा अधूरी है जब तक कि स्त्री की प्रज्ञा को उसमें समाहित न किया जाए तो यह प्रज्ञा सम्पूर्ण नहीं होगी। उसके अनुभव को भी सुनना होगा।
बहुत—से—शिखर—अनुभवों में, विशेषकर पूरब में स्त्री ने मृत्यु को अपने आस—पास मंडराते देखा है। मैं खासकर पूरब की बात इसलिए करता हूं कि प्राचीन समय में पूरब जब तक शिखर—अनुभव न हो, लोग सम्भोग में नहीं उतरते थे। यह उस समय की बात है जब दमित धारणाओं ने मनुष्य को विभाजित व खंडित करना शुरू नहीं किया था।
और ऐसा नहीं कि तुम्हें प्रतिदिन सम्भोग में उतरना होगा। दोनों को एक ऐसी चरम स्थिति की प्रतीक्षा करनी है जहां उनके लिए अब और अधिक प्रतीक्षा करना लगभग असम्भव हो जाए। स्वभावत: वे लोग कहीं अधिक समझदार रहे होंगे। कभी हफ्ते या महीने में एक बार वे सम्भोग में उतरते होंगे। और उनके प्रेम ने अपूर्व अनुभवों को जन्म दिया होगा। ऐसे अनुभव प्रतिदिन का सम्भोग कभी नहीं दे पाता।
तुम्हारे पास उतनी ऊर्जा ही नहीं बचती कि इतना बड़ा अनुभव तुम्हें हो सके। वह तो तभी सम्भव है जब तुम्हारे नियंत्रण चरम अवस्थ आई हो। थिरकती हुई ऊर्जा के साथ। और फिर शुरू होता है वह नृत्य जहां दो ऊर्जाओं का मिलन होता है और वे एक दूसरे में डूबती है। उस चरम अवस्था में पुरूष भी मृत्यु को अपने आस—पास अनुभव कर सकता है। मृत्यु का अनुभव तो उसे भी होता है क्योंकि ऊर्जा तो एक ही है परंतु जैसे ही उसकी काम ऊर्जा स्खलित होती है, मृत्यु का अनुभव तिरोहित हो जाता है।
अभी—अभी चिकित्सा—शास्त्र ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि जो व्यक्ति सम्भोग का सुख अधिक लेते है वह ह्रदय-गति रूकने से नहीं मरते परंतु उन्हें यह पूछना चाहिए कि वे और किस वजह से मरते है। वे दीर्घायु होते और सदा युवा बने रहते है परंतु तुम एक निम्नतम स्तर पर रहकर ही सम्भोग कर सकते हो। अधिक तर लोग उसी सतर पर करते है। वह सम्भोग संतोषजनक, तृप्ति दायक नहीं होता वह तुम्हें परितृप्त नहीं करता,सिर्फ तुम्हें एक अवसाद की स्थिति में छोड़ देता है।
सम्भोग ऊर्जा की चरम अवस्था के समय किया जाना चाहिए परंतु उसके लिए एक अनुशासन का होना आवश्यक है। लोगों ने अनुशासन का उपयोग सम्भोग ने करने के लिए किया है। मैं तुम्हें ऐसा अनुशासन सिखाता हूं जिससे कि तुम सही ढंग से सम्भोग कर सको ताकि तुम्हारा सम्भोग—मात्र एक शारीरिक घटना ही बनकर न रह जाए और तुम्हारे मनोजगत में प्रवेश ही न कर पाए। और उसमे तो तुम्हारे आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने की क्षमता है। अपनी चरम अवस्था में यह तुम्हें आध्यात्मिक जगत में ले जाएगा।
परंतु ठीक उसी घड़ी मृत्यु का स्मरण क्यों आता है? क्योंकि तुम अपने शरीर को अपने मन को भूल जाते हो। बस रह जाती है विशुद्ध चेतना—अपने प्रेमी के साथ एकरूप होकर। यह अनुभव मृत्यु जैसा ही है।
ज्यों ही तुम मरते हो, यदि तुम होशपूर्वक मर रहे हो तो तुम अपने शरीर अपने मन को भूल जाओगे। बस चेतना बचेगी.....ओर तब तुम्हारी चेतना समग्र हो जाती है और समग्र के साथ एक होना किसी भी शिखर अनुभव से कई गुना सुंदर अनुभव है। परंतु ये दोनों बातें गहरे में एक दूसरे से जुड़ी है वे एक है और जो व्यक्ति मृत्यु को समझना चाहता है, उसे काम को समझना होगा और इसके विपरीत भी यही सच है।
परंतु आश्चर्य की बात है—सिगमंड फ्रायड या कार्ल गुस्ताव युंग, जो सेक्स को समझने में लगे है, वे भी मृत्यु से उतने ही भयभीत है। मृत्यु के बारे में उनकी समझ बहुत दूर तक नहीं जाती। जहां तक मृत्यु का प्रश्न है, उनके बारे में कोई नहीं सोचता, यहां तक कि उसके बारे में कोई बात नहीं करता।
अगर तुम मृत्यु की बात शुरू करते हो तो लोग सोचते है कि तुम सभ्य नहीं हो। यह ऐसी बात है कि जिसके बारे में चर्चा नहीं करनी चाहिए। मृत्यु को तो बस नज़र अन्दाज करना चाहिए परंतु मृत्यु को नज़र अन्दाज करने से जीवन तुम्हारी समझ में नहीं आ सकेगा। ये सभी एक दूसरे से जूड़े है।
सेक्स शुरूआत है और मृत्यु अंत है। जीवन इन दोनों के बीच में है—एक ऐसी ऊर्जा जो काम और मृत्यु के बीच में बहती है। इन तीनों को एक साथ समझना होगा।
कोई प्रयास नहीं करना हे, कोई प्रयोग नहीं करने है। ख़ासकर समकालीन जगत में। पीछे मुड़कर देखो तो पूरब में बुद्ध और महावीर से पहले उन लोगों ने निश्चित ही इस घटना को बहुत ध्यान से देखा होगा। अन्यथा क्या आवश्यकता थी शिव की पत्नी को गले में नरमुंड माला डालकर उनकी छाती पर नाचने की। और उसके हाथों मे क्या है—एक हाथ में ताजा कटा सर जिसमें से खून टपक रहा है, और दूसरे हाथ में नंगी तलवार है। वे पूरी तरह उन्मत्त दिखती है।
स्त्री कैसे इस कामोन्माद की गहराई में हो सकती ही। उसका उदाहरण के रूप में यह केवल एक चित्रीकरण है। और पुरूष केवल उसके नीचे पड़ा हुआ है। और वह उस की छाती पर नृत्य कर रही है। वह उसका गला काट भी सकती है, या उसकी छाती पर चल रहे उस नृत्य के कारण उसकी मृत्यु भी हो सकती है।
लेकिन एक बात तय है कि मृत्यु वहां सुनिश्चित है। मृत्यु असल में होती है या नही,यह और बात है।
अचेतन में शायद यह एक कारण है कि क्योंकि पश्चिम में वे लोग सदा भयभीत रहे है। उनहोंने सम्भोग के लिए केवल एक ही आसन चुना है और वह है कि पुरूष ऊपर हो ताकि वह स्त्री को पूरी तरह बेकाबू होने से रोक सके—वैसे ही जैसे शिवानी शिव की छाती पर होती है।
और सदियों से स्त्री को यह सिखाया गया है कि उसे बिल्कुल भी गति नहीं करनी है क्योंकि ऐसा केवल वेश्या ही करती है। उसे केवल मृतावस्था में पड़े रहना है। बिना हिले—डुले। इस तरह वह कभी भी कामोन्माद का शिखर अनुभव नहीं कर पाएगी। न सतही, न ही यौनिक। क्योंकि आखिर वह स्त्री है और उसकी मर्यादा व प्रतिष्ठा का सवाल है। उसे भोगने की छूट नहीं है। उसे तो इस सारी प्रक्रिया में अत्यंत गम्भीर बने रहना है। केवल पुरूष ही संचालन कर सकता है। स्त्री नहीं। मेरी दृष्टि में यह डर की वजह से है। पूरब में ऐसा रहा है। कि सम्भोग के सामान्य आसन में स्त्री ऊपर है, पुरूष नहीं। पुरूष का स्त्री के ऊपर होना एकदम भद्दा लगता है। वह वज़न में भारी है। लम्बा है और व्यर्थ ही कोमल स्त्री को रौंद रहा है। और वैज्ञानिक दृष्टि से तो यह ठीक होगा कि पुरूष ऊपर न हो, ताकि वह अधिक संचालन न कर सके। और स्त्री को संचालन की अधिक स्वतंत्रता हो। आनंदातिरेक में चीख़ने की, पुरूष को माने की, काटने की, उसके चेहरा खरोंचने की, या जो भी उसके मन में आए, वह करने की। उसे शिवानी बनना होगा। उसके पास चाहे तलवार न हो लेकिन नाखून तो है। लम्बे नाखून,वह उन नाखुनों से बहुत कुछ कर सकती है। और यदि वह ऊपर हो तो उसमें अधिक गति हो सकती है। पुरूष धीमा होता है। और यदि ऐसा हुआ तो वे दोनों ही कामोन्माद के शिखर पर पहुंच सकते है। यदि पुरूष ऊपर हो और स्त्री नीचे हो, तो दोनों को कामोन्माद के शिखर पर पहुंचना असम्भव है। लेकिन पुरूष ने कभी इस बात की परवाह ही नहीं कि। उसने तो केवल स्त्री का उपयोग किया है।
प्राचीन समय में पूरब की प्रज्ञा इस मामले में बिलकुल ही भिन्न थी। उपनिषद के समय में स्त्री भी उतनी ही सम्मानित थी जितना कि पुरूष। असमानता का सवाल ही नहीं था। स्त्री ने सभी शास्त्र पढ़े थे और उसे शास्त्रों में भाग लेने दिया जाता थ।
वह एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण दिन रहा होगा जब पुरूष ने स्त्री को दूसरा दर्जा दिया और उसे पुरूष के आदेश को मानने के लिए मजबूर किया। उसे शास्त्र पढ़ने तक का भी अधिकार नहीं। उसे जीवन की समस्याओं पर चर्चा करने का भी अधिकार नहीं। और उसकी अपनी धारणा क्या है। उसे पूछने का तो कोई सवाल ही नहीं आता। वह अधूरी रह गई और इसी नकार के कारण पुरूष विभाजित व खंडित बना रहा है। अब समय आ गया है कि हम स्त्री और पुरूष दोनों को पूरी तरह से एक दूसरे के क़रीब लाएं। उसके अनुभव,उसकी सूझबूझ, उसके ध्यान, एक पूर्णता जो जन्म दें। और वही सच्ची मानवता का शुभारम्भं होगा।
मैंने ओशो को कहते सूना है कि साधक को मृत्यु का अनुभव होता है। देह की नहीं अपितु मन की, और तभी वह फिर से जन्म लेता हे। संस्कृत में इसे द्विज कहा जाता है। ओशो की सन्निधि में—उनकी लयवद्ध वाणी, मौन ने अंतरालों में उतरती, समयातित में रूकी—सी, हमें ध्यान में लिए चलती है। यह एक बात है। और दूसरी बात यह हमें दिन-भर के कार्यों में बोधपूर्ण बनाती है। उदाहरण के तौर पर जब मैं चलती हूं, तो मुझे स्मरण रहता है कि मन में कुछ और सोच विचार न करके मुझे केवल चलना है। खाते समय भीतर बिना किसी संवाद के मुझे केवल खाना है। मुझे यह खेलपूर्ण—सा लगता है। और यह बोध मेरी पूरी दिन चर्या में फैल जाता है। परंतु अपने कमरे में अकेले शांत रहना मेरी लिए कुछ अलग बात है। खाली बैठना और कुछ न करना मेरे लिए मृत्यु जैसा है। मुझे ऐसे लगता है कह हर चीज़ छूट रही है। और मृत्यु और कुछ भी नहीं सब छूटते जाने का अहसास है। मैंने ओशो को कहते सूना है कि व्यक्ति इसीलिए बेहोशी में मरता हे, यह प्रकृति की महानता शल्य-चिकित्सा है—आत्मा को देह व मन से अलग करना जिसका तादात्म्य आजीवन तुम्हारे साथ रहे। अत: सबसे करूणा वान ढंग है, बेहोशी में मरना। इसीलिए व्यक्ति को उसकी पिछली मृत्यु व जीवन का स्मरण नहीं रहता।
जब मैं मौन में बैठती हूं तो मेरा पहला विचार होता है: ‘कुछ करो, बहुत कुछ करने को है।’ यहां तक कि दिन भर के कार्यों को बोधपूर्ण होकर करना भी मेरे लिए कुछ करने जैसा है। कम-से-कम मौन होना भी कुछ करने जैसा है। जब भी मैं मौन में बैठती हूं मेरा मन भयभीत हो जाता है। यह कहता है : क्या हुआ यदि तुम एक घंटा बैठती हो, तुम्हें इससे क्या लाभ होता है। तुम और भी संवेदनशील हाथी जाओगी और जीवन का सामना न कर पाओगी। यह तो बड़े कमाल की बात है। यदि मैं उसी पकड़ छोड़ दूं तो क्या? आह! मुझे हीरो की खदान वाली कथा याद आती है। और ओशो का वादा भी, कि आगे ओर, कुछ और भी है।
कुछ पत्र-पत्रिकाओं में मैने कुछ उन व्यक्तियों की ऐसी कहानियां पढ़ी है जो लगभग मर गए थे। ऑपरेशन थियेटर की मेज़ पर उन्हें मृत्यु का अनुभव हुआ क्योंकि उनकी ह्रदय-गति रूक गई थी। या कुछ ऐसे व्यक्ति जो किसी बड़ी दुर्घटना के बाद कोमा में चले गए थे और पुन: जीवित हो गए। जब मैंने उन अनुभवों का विवरण पढ़ा तो मैं यह देखकर आश्चर्य चकित रह गई कि वे लगभग वही अनुभव थे जो मुझे ध्यान के दौरान हुए।
पिछले वर्ष हेराल्ड ट्रिब्यून में एक लेख था जिसमे उन व्यक्तियों के अनुभवों की चर्चा थी जो किसी अकस्मात दुर्घटना में अपनी देह से अलग हो गए थे। उनमें हर व्यक्ति सुरंग के अंत में ‘प्रकाश’ उसमें से गुजरने व अत्यंत प्रेम व आनंद को अनुभव की बात करता था। इनमें से कुछ व्यक्ति ईसाई होने के कारण इस ‘प्रकाश’ जीसस का नाद देते। और अपने रोग से उबरने पर धार्मिक हो जाते। मुझे ऐसी अनुभूति ध्यान में हुई है। भले ही मैं ‘प्रकाश’ में विलीन होने से पहले ही उससे निकल जाती हूं।
एक संन्यासी मित्र ने ‘दि हिंडन स्पलैंडर’ प्रवचन माला में ओशो से इस अनुभव के बारे में पूछा था। उसने एक बड़े से काले बिंदु का अनुभव किया। इस काले बिंदु के बीच में सफेद बिंदु है। यह सफेद बिंदु गोलाकार घूमता हुआ करीब आता जाता है। परंतु जो ही काला बिंदु पूरी तरह मिटने लगता है, मैं आंखें खोल देता हूं।
ओशो : ‘तुम्हारे साथ जो घटा वह बहुत महत्वपूर्ण था, अभूतपूर्व व अद्वितीय था। यह पूरब की विश्व को दिया गया बहुत बड़ा योग दान है : एक बोध, कि दो आंखों के मध्य में एक तीसरी आँख है जो प्राय: सुषुप्त रहती है। उसके लिए बहुत कड़ा परिश्रम चाहिए। काम ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन में, गुरूत्वाकर्षण के विरोध में—और जब ऊर्जा इस तीसरी आँख तक पहुंचती है, यह खुल जाती है।’
ओशो ने उसे समझाया कि जब ऐसा हो तो वह आंखे न खोले।
और एक बार काल बिंदु विलीन होने लगे....वह काला बिंदु तुम स्वयं हो और सफेद बिंदु तुम्हारी चेतना। काला बिंदु तुम्हारा अहंकार है और सफेद बिंदु आपका अस्तित्व,अपने आस्तित्व को फैलने दो और अहंकार को विदा होने दो।
‘बस जरा सा साहस चाहिए—यह मृत्यु जैसा लग सकता है। क्योंकि काले बिंदु से तुम्हारा तादात्म्य है और वह विलीन हो रहा है। और सफेद बिंदु से तुम्हारा तादात्म्य कभी भी नहीं रहा था। अंत: कुछ अनजाने, कुछ अपरिचित में तुम आविष्ट हो रहे हो।’ मेरा अनुभव है कि ध्यान से कभी कोई हानि नहीं हो सकती क्योंकि दृष्टा, या साक्षी वहीं है। जब मैंने ओशो से कहा कि कई बार ध्यान में मेरी इच्छा होती है कि मैं होश खो दूं, उन्होंने कहा, ‘होश गंवाने, बेहोश होने की अवस्था के पार जाना होगा—घबराओ नहीं—बेहोश हो जाओ, होश खो दो, इसमें खो जाओ, इसे अपने ऊपर आच्छादित हो जाने दो। एक पल के लिए सब खो जाएगा परंतु केवल एक पल के लिए और फिर अचानक—सूर्योदय, और राम समाप्त हो गई।’
ओशो ने मृत्यु पर बहुत चर्चा की है क्योंकि मृत्यु एक बहुत बड़ा रहस्य है। साथ ही बहुत बड़ा भय भी। रजनीश उपनिषद में वे कहते है।
‘हमने अपना जीवन खोना ठीक उसी घड़ी से शुरू कर दिया जब हम पैदा हुए थे। क्योंकि जन्म और कुछ नहीं मृत्यु का प्रारम्भ है। पल-पल आप मरते ही जाएंगे ऐसा नहीं कि किसी विशेष दिन आप सत्तर के होंगे, तो ही मृत्यु आती है। सह एक घटना नहीं है यह वह प्रक्रिया है जो जन्म से ही प्रारम्भ हो जाती है। उसे सत्तर वर्ष लगते है, थोड़ी असली प्रक्रिया तो है यह परंतु यह घटना नहीं है। और इस तथ्य पर जोर डालता हूं, ताकि मैं यह स्पष्ट कर सकूं कि मृत्यु व जीवन दो अगल बातें नहीं है। वे दो तब होती है यदि मृत्यु घटना हो जो जीवन का अंत करती हे। तभी वे दो हो सकती है। तब वे दोनों द्वन्द्वात्मक हो जाती है। शत्रु हो जाती है।’
जब मैं यह कहता हूं कि मृत्यु जन्म से प्रारम्भ होने वाली प्रक्रिया है, तो मैं यह कहा रहा हूं कि जीवन भी मृत्यु से प्रारम्भ होने वाली प्रक्रिया है—और यह दो अलग प्रक्रियाएं नहीं है। यह एक ही प्रक्रिया है; यह जन्म से प्रारम्भ होती है। और मृत्यु पर समाप्त हो जाती है। परंतु जीवन वे मृत्यु एक पक्षी के दो पंखों, दो हाथों व दो टांगों के समान है। जीवन द्वन्द्वात्मक है—और यदि तुम इसे समझो तो मृत्यु का स्वीकार स्वय: ही हो जाता है। यह आपके विरोध में नही है। यह आपका ही एक अंश है; इसके बिना तुम जीवित नहीं रह सकते।
और मैं आपसे कहता हूं: मृत्यु कल्पना है, मृत्यु कहीं है ही नहीं क्योंकि कुछ भी मरता नहीं है। बस चीजें बदलती है। और यदि तुम सचेत हो तो तुम इस बदलाव को बेहतर बना सकते हो।
‘विकास ऐसे ही घटता है।’
निर्वाणो की मृत्यु अकस्मात थी, अकल्पनीय थी, और आघात देनेवाली थी। मुझे ऐसा लगा कि मेरा एक हिस्सा कहीं खो गया है। और मुझे अत्यावश्यक महसूस हुआ कि अब से मुझे जी भरकर जीना है। उसकी मृत्यु ने मुझे इस अत्यावश्यकता का उपहार दिया। यदि ओशो ने किसी को सम्बुद्ध किया होता, यदि उन्होंने किसी के लिए कुछ किया होता तो वे उसके लिए ही करते। परंतु हमें अपने मार्ग पर अकेले ही जाना हे। वे तो केवल इंगित ही कर सकते है। बहुत सी ऐसी बातें है जो ओशो ने कहीं, मैंने उसे काव्य की तरह लिया, मुझे पता ही नहीं चला कि वे हमें सत्य दे रहे है।
दस वर्ष पहले निर्वाणो और मैं ओशो के चरणों में बैठी थीं। हम दोनों उनके कमरे में ध्यान में बैठी थी। वे अपनी कुर्सी पर बैठे थे और हम घंटा भर फ़र्श पर। पहले दो मिनट के भीतर, मुझे ऐसे लगा कि एक धमाका हुआ है। और मैं कुछ देर के लिए रंगों वे प्रकाश में खो गई। कुछ पलों के बाद, ओशो ने कहा, ‘ठीक है, अब वापस लौट आओ।’ उनके चेहरे पर मुस्कान थी और वे बोले कि यह उनका अपेक्षा से कहीं अधिक था और अब निर्वाणों और मैं जुड़वां हो गई—ऊर्जा से जुड़ी हुई।
निर्वाणों और मैं बारह वर्ष तक बहुत त्वरा में जीए;एक-दूसरे से प्रेमपूर्ण तो कभी ‘जानी दुश्मन’ जिसे ओशो इस प्रकार कहते थे कि जो एक कमरे में इकट्ठे नहीं रह सकें। यह बड़ा गहन रिश्ता था। विश्व-भ्रमण के अंत में जब हम मुम्बई में थे तो हमारी एक दूसरे से बहुत गहनता थी। ओशो का धुलाई वाला कमरा उसका बैडरुम था और उसका ताप 120 डिग्री रहता था। हम एक दूसरे से चिपककर सोते थे। और जगह के कारण स्थिति बहुत कठिन थी। फिर भी हम दानों में बहुत प्रेम था। अपने ब्रिटिश तौर-तरीक़ों में वह लोगों के साथ घनिष्ठ नहीं थी। परंतु एक ही कमरे में रहते-रहते उसके व्यवहार में बदलाव आ गया। मैं उसकी कंघी करती, जूड़ा बनाती और वह गिर जाता क्योंकि उसके बाल भारी वे रेशमी थे।
मैंने अंतिम बार उसको तब देखा जब वह बुद्धा हॉल से बाहर जा रही थी। और मैं प्रवेश-द्वार पर बैठी थी, हमने एक दूसरे को देखा और मुस्कुराई। यह उसके लिए अंतिम विदा थी।
जब उसकी मृत्यु हुई तो मुझे ऐसे नहीं लगा कि ऐसा कुछ पीछे नहीं बचा हो जो मैं उसे कहना चाहती थी। वास्तव में उसके प्रत्येक मित्र ने ऐसा ही अनुभव किया। वह पूर्णता में जी ली और मैंने पहले ही सीख लिया था कि मुझे इस बात के लिए बोधपूर्ण होना है। मैं जिसे भी जानती हूं उससे कुछ अनकहा न रह जाए। मैं किसी भी प्रियजन के साथ बेहोशी में बर्ताव न करूं क्योंकि यह सत्य है कि शायद वे फिर कभी न मिले और जो अनकहा रह जाता है वह एक खाई, एक घाव छोड़ जाता है। जो कभी नहीं भरता।
जब निर्वाणो जिंदा थी वह मेरे लिए पहेली की तरह थी......उसका रहन—सहन का ढंग सब कुछ। एक पल में वह नन्हीं बालिका सह होती—दूसरे ही पल वह तलवार खींचकर काल मां का रूप ले लेती। उसकी मृत्यु भी उसके जीवन की तरह पहेली ही थी। मुझे नहीं मालूम था कि उसने देह क्यों छोड़ी। मुझे इतना मालूम है कि वह बहुत अवसाद में थी और जब से मैं उसे जानती थी वह हमेशा मरने की बात करती थी। परंतु मैं हमेशा यह सोचती थी कि अचानक कुछ घटेगा। कुछ बदलेगा और एक दिन वि सम्बोधि को प्राप्त हो जायेगी। मेरा ख्याल है कि वह सम्बोधि के नजदीक थी, बहुत नजदीक। इतना नजदीक की बस छू.....लो। वह बड़ी प्रज्ञावान थी ओशो के साथ उसकी जितनी लयबद्धता थी वह शायद किसी और से नहीं थी। कई बार जब वे बीमार होते तो उसे कहीं भीतर से पता होता कि समस्या क्या है। और ओशो कई बार कहते थे कि वह कितने प्यार से उनकी देख-रेख करती है। उसकी समझ बहुत प्रखर थी, व्यक्ति को समझने में उसकी बुद्धि कुशाग्र थी। खासतौर पर नकारात्मक बातों में। इस सबके बावजूद वह इतने गहरे विषाद में उतर जाती कि एकदम बेहोश हो जाती। और उस समय कोई दूसरा भी उसकी सहायता करने में असम्भव हो जाता। वह कमरे में बंद हो जाती और अपने अवसाद में अकेले डूब जाती।
जब वह छोटी थी तो उसके माता-पिता उसे स्विट्जरलैंड़ के अस्पतालों में लेकिर जाते क्योंकि वह कुछ खाती नहीं थी। इसलिए पिछले कुछ सालों में जबसे मैं उसे जानती थी, उसके हार्मोंस में असंतुलन था और इसलिए वह दवा लेती थी। परंतु कुछ लाभ न हुआ। 1989 की शुरूआत में इलाज के लिए वह इंग्लैंड के मानसिक रो चिकित्सा के लिए अस्पताल भी गई परंतु वहां दो दिन भी नहीं रूकी। उसने कहा कि डॉक्टर उससे भी अधिक पागल है। और उसे यह भी लगता था कि अपने विचार को वह स्वयं भी ठीक कर सकती थी।
अंतिम कुछ महीनों में मैंने उसे नहीं देखा क्योंकि मैं जब भी उसे देखने जाती तो वह हमेशा मुझे लौटा देती—और वह दरवाजा ही नहीं खोलती थी। यह उसका न मिलने का संकेत था। मेरी उससे न मिलने में ही बेहतरी थी क्योंकि मुझे उसकी अप्रसन्नता छू जाती थी। अंतिम कुछ अवसरों पर जब भी मैं उसे मिली तो वह हमेशा अपनी चिंता के बारे में वह उदर के नीचे के भाग ‘हारा’ में तीव्र पीड़ा की ही बात करती। वर्षों तक सुबह उठती तो जी मिचलाता। मैं अपनी आंखें खोलती और पहली बात जो मेरे भीतर उभरती—‘नहीं-नहीं, अब और नहीं।’ उसके घावों को मैं अपने मानकर जीने लगी थी।
जब मैं उससे अंतिम बार मिलने गई तो हम हल्की गपशप कर रहे थे। मैं अपने पुरूष मित्र पर इलजाम लगा रही थी क्योंकि वह किसी दूसरी महिला के साथ था और मैं भली बुरी बातें कह रही थी। स्त्रियों के सामने उसको बुद्ध दिखाने के लिए। बाद में मैंने सोचा मुझे किसी दूसरे के बारे में ऐसा कुछ कहने का अधिकार नहीं। और मुझे पता भी नहीं है कि उसकी परिस्थिति क्या है। और मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा। मैं अगली सुबह निर्वाणों से मिली और उससे अपने कहने के लिए क्षमा मांगी कि जब मुझे किसी के बारे में पता नहीं तो उसे बुरा भला कहने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।
वह बाली, ‘अरे थोड़ी—सी बुराई अपनी सहेलियों से कर लेने में क्या बुराई है। नहीं तो तुम अर्द्धसम्बुद्ध होकर नहीं रहा जा सकता। या तो तुम पूर्ण सम्बुद्ध हो या ज़रा भी नहीं।’
कितनी समझ की बात है ऐसा कहना, मैं तो कहूंगी कि वह बहुत प्रज्ञावान थी।
मैं जब भी उसे याद करने के लिए आँख बंद करती हूं तो वह मुझ हंसती हुई ही दिखाई देती है। वह जब प्रसन्न होती तो हर्षातिरेक में होती और मैंने शायद ही कोई ऐसा ज़िन्दादिल व्यक्ति देखा हो।
बुद्धा हाल में मैं ध्यान जब भी उसके साथ ध्यान में बैठती थी, कुछ देर के मौन के बाद ही मुझ उसके भीतर से एक आवाज1 आती सुनाई देती थी। ठीक वैसी आवाज़ मेरे भीतर से उठती है। जब मैं परितुष्ट, केंद्रित व प्रेम पूर्ण होती हूं। अत: मैं समझ सकती थी कि वह किस अवस्था में है। इसीलिए जब एक सप्ताह के बाद उसकी मृत्यु हुई तो मुझे बहुत बड़ा आघात लगा क्योंकि उस अवस्था को जानने के बाद मैं नह समझती कि कोई व्यक्ति इतने अवसाद में जा सकता है। उसे उस ध्यानपूर्ण अवस्था का अनुभव था परंतु उसका अवसाद इतना गहरा था कि कुछ भी नहीं हो सका।
मुझे मालूम है कि ओशो ने हर सम्भव प्रयास किया उन्होंने जो भी सम्भव था, उसे वह दिया। वह उसे वहां रखना चाहते थे परंतु वह जहां भी जाना चाहती, वह जाने के लिए स्वतंत्र थी। वह कई बार इग्लैंड गई। वहां वह एक दो दिन रूकती और फिर लौट आती। वह उस वर्ष के प्रारम्भ में एक नया जीवन शुरू करने आस्ट्रेलिया चली गई। दो चार दिन में ही वह लौट आई। वह स्पेन, स्विट्जरलैंड, थाईलैंड बहुत से स्थानों पर गई परंतु कुछ ही दिनों में वहां से भी लौट आई। मैं सोचती हूं कि यदि वह ओशो के देह त्याग तक वहीं रह जाती तो घटना घट जाती और वह इसके जीवन को ही बदल डालती। उन्होंने कहा कि उसकी मृत्यु असमय थी।
उस रात निर्वाणो के मृत शरीर को नदी के किनारे श्मशान घाट ले जाया गया और ओशो के कहने के अनुसार कुछ ही मित्र वहां गए। मैंने उसे खुले श्मशान घाट को बहुत पहले संन्यासियों से भरा देखा था। और अब वहां हमे केवल चालीस के करीब थे और उसके मृत को एम्बुलेंस में लाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने उसे नमस्कार किया जब उसे चिता पर लिटाया गया। मेरी मित्र अमियो ने जब उसका शरीर देखा तो बोली, ‘यह निर्वाणो नही है—वह जा चुकी है।’
शरीर को चिता पर रखकर श्मशान के बीचो-बीच लकड़ियों से ढक दिया गया। जब आग धधकने लगी तो मैंने उसके आसपास चक्कर लगाया और स्वयं को निर्वाणो के दाएं और खड़े पाया और सोचा बड़े आश्चर्य की बात है कि मैंने पहले बार किसी देह को जलते हुए देखा और वह निर्वाणो की थी और निर्वाणो की मृत्यु मेरी मृत्यु से पहला सामना था।
लकडियां इस प्रकार लगाई गई थी कि एक प्रकार की खिड़की का आकार बन गया था जिसमें से उसका चेहरा देखा जा सकता था जो ऐसा लग रहा था मानों सफ़ेद मुखौटा हिल-डुल रहा हो और पीले धुएं की शक्ल में बदल रहा हो। उसके होठ सूज गए थे और गहरे लाला हो गये थे। लपटों के नृत्य में कुछ फुसफुसाते हुए लग रहे थे।
निर्वाण, मैंने ढलते चाँद को देखा। धीरे-धीरे मैंने आग की और से मुंह मोड़ लिया और में बेहोश हो गई। जब मैंने आंखें खोली तो मुझे मालूम नहीं था कि मैं कहां हूं, कुछ देर के लिए तो मुझे लगा मैं मर गई हूं।
उस रात मैंने सोचा, ‘उसे मुझ पर गर्व होता—उसकी चिता पर बेहोश होना।’ यह एक नाटकीय बात होती जो वह अवश्य करती। और वह हमेशा कहती थी कि मैं अतिभावुक हूं। मुझे कभी भी पता न चल पाता परंतु मुझे इतना मालूम था कि वे उसे कितना प्रेम करते थे। उन दोनों के बीच एक करिश्मा था। जो उनकी और से निर्वाणो के मूड व स्वभाव से विचलित नहीं होता था। वह जब भी वापस आती—शायद सदा के लिए—तो बिना किसी प्रश्न के उसका स्वागत होता। ऑस्ट्रेलिया से वापस आने के तीन दिन बाद वह ‘नया जीवन शुरू करने जा रही थी।‘ उसने कहा, चलो देखते है कि मेरा पागल मन आगे क्या सोचता है।
चाहे मुझे पिछले जन्मों का कोई अनुभव नहीं पर मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि उनका सम्बन्ध बहुत पुरातन था। 1978 के प्रवचन में उन्होंने कहा था कि चालीस वर्ष पहले पिछले जन्म में वह उनकी प्रेमिका और सत्रह वर्ष की आयु में टाइफायड होने से उसकी मृत्यु हो गई।और उसने उन्हें बचन दिया था कि वह वापस आएगी और उनकी देख-रेख करेगी।(ओशो स्वर्णिम बचपन)
मैंने ओशो को कहते सूना है कि किसी व्यक्ति को उसके कृत्यों, कर्मों से नहीं अपितु वह जो है उससे ही परखना चाहिए। निर्वाणो के साथ यह देखना इतना स्पष्ट था कि एक और वह इतनी सुंदर ‘आत्मा’ या चेतना थी और दूसरी और उसके साथ निभा पाना अति कठिन था। ओशो कहते थे कि उसने कभी ध्यान नहीं किया और उनके कार्य में उसने हमेशा ही बाधा डाली। वे कहते थे कि उनकी देख-रेख के कार्य में उसने हमेशा ही कठिनाई पैदा करती थी। ओशो का कार्य क्या है—शायद उसे इसका बोध ही नहीं था। उनके हजारों अनुयायी है और वे प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर कार्य कर रहे है। वहीं व्यक्ति इस बात का प्रमाण है, जो ओशो ध्यान विधियों द्वारा होने वाले परिवर्तन के लिए ग्राहक है।
यह समझना आसान नहीं है कि बेशर्त प्रेम क्या है, वह प्रेम जो बदले में कुछ नहीं मांगता, इस संसार में इतना दुर्लभ है। हम तो केवल उसी प्रेम को जानते है, जो हमें दूसरे पर अपना अधिकार और कब्जा करना सिखाता है। ओशो का प्रेम व करूणा अपरिवर्तनीय थे और निर्वाणो के लिए सदा उपलब्ध थे। वह स्वयं प्रेम है, और उनका प्रेम सदा ही पात्रता की प्रतीक्षा में रहता है। कभी-कभी वह इसे ग्रहण करने में भी असमर्थ रहती थी। परंतु यह बात तो हम सब पर लागू होती है।
बहुत कुछ ऐसा है जिसकी थाह नहीं ली सकती, वह रहस्य ही रहता है। ऐसा लगता है जैसे बात समझ में नहीं आती। मैं जितना समझाने की कोशिश करती हूं कि इन पिछले कुछ वर्षों में क्या होता रहा उतना मैं इस पल में लौट आती हूं—श्वास मेरे नासापूटों को छूती हुई, मेरे
शरीर से गुजरती हुई। फिर मैं अपनी खिड़की में से पेड़ का एक तना देखती हूं....ठोस,स्थिर, सूर्य का प्रकाश और हवा पत्तों में से बहती हुई, उन्हें लम्बी उंगलियों की तरह हिलाती हुई, बहते पानी की झर-झर, गीत गाते पक्षी। और मैं मौन में निहारती रहती हूं।
वास्तव में वहां क्या है? शायद इसे समझ पाना हमेशा से ही असम्भव है।
‘जीवन एक पहेली है जीने के लिए, यह कोई समस्या नहीं है जिसे सुलझाना है....ओशो’
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