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शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-08

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision—(सरहा के गीत)-भाग-पहला


(आठवां—प्रवचन) प्रेम के प्रति सच्चे रहो

दिनांक-28 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

सुत्र:

 पहला प्रश्न: ओशो, मैं एक मेढक हूं: मैं जानता हूं कि मैं एक मेढक हूं, क्योंकि मैं धुंधले, गहरे पानी में तैरना और चिपचिपी कीचड़ में उछलना-कूदना पसंद करता हूं। और यह मधु क्या होता है? यदि एक मेढक अस्तित्व की एक अनादृत दशा में हो सके, क्या वह एक मधुमक्खी बन जाएगा?

 निश्चय ही! मधुमक्खी बन जाना हर किसी की संभावना है। हर कोई मधुमक्खी हो जाने में विकसित हो सकता है। एक अनावृत, जीवंत, स्वस्फूर्त जीवन, क्षण-क्षण वाला जीवन, इसका द्वार है, इसकी कुंजी है। यदि कोई ऐसा जी सके कि वह जीना अतीत से न हो, तब वह मधुमक्खी है, और तब चारों तरफ मधु ही मधु है।

मैं जानता हूं कि किसी मेढक को यह बात समझा पाना कठिन है। प्रश्न सही है: और यह मधु क्या होता है?’ मेढक ने इसके विषय में कभी जाना नहीं होता। और वह ठीक उसी पौधे की जड़ के समीप रहता है, जहां कि फूल खिलते हैं, और मक्कियाँ मधु एकत्रित करती है, पर वह कभी उस आयाम में गया ही नहीं है।

मेढकसे सराह का तात्पर्य एक ऐसे व्यक्ति से है जो अतीत से जीता है, जो अपनी अतीत की स्मृतियों के पिंजड़े में कैद रहता है। जब तुम अतीत में जीते हो, तुम बस जीने का आभास मात्र देता है। वास्तव में तुम जीते नहीं हो। जब तुम अतीत में जीते हो, तुम एक यंत्र की भांति जीते हो। एक मनुष्य की भांति नहीं। जब तुम अतीत से जीते हो, यह जीना एक पुनरावृति होता है। एक नीरस पुनरावृति--तुम जीवन और अस्तित्व के आह्लाद से, आनंद से चूक रहे होते हो। वहीं तो मधुहै: जीवन का आनंद, बस यहां-अभी होने का माधुर्य, बस होने में समर्थ हो पाने की मधुरता। वह आनंद ही मधु है...और चारों तरफ लाखों फूल खिल रहे हैं। सारा अस्तित्व फूलों से भरा है।

यदि तुम जानते हो कि मधु को कैसे एकत्रित किया जाता है, यदि तुम जानते हो कि आनंदित कैसे हुआ जाए, तो तुम एक सम्राट हो जाते हो। यदि तुम यह नहीं जानते, तुम एक भिखारी बने रहते हो...यहां गीत गाते यह पक्षी--मधु बरसा रहे है! मधुमक्खी तो इकट्ठा कर लेगी, परंतु मेढक इससे चूक जाएगा। यह आकाश, यह सूरज, तुम्हारे चारों और के यह लोग--हर कोई मधु के अनंत स्रोतों को लिए फिर रहा है। हर कोई माधुर्य और प्रेम से प्रवाहित हो रहा है। यदि तुम इसे एकत्रित करना और इसका स्वाद लेना जानते हो, तब यह आपके चारों और बिखरा पड़ा है, हर जगह है। बस तुम्हें मधु एकत्रित करने की कला जाननी होगी।

परमात्मा हर स्थान पर हैं, और इन्हें समझा जाना चाहिए, और ये बातें बड़ी खतरनाक हैं। पहली बात: मधुमक्खी कभी भी किसी भी फूल से आसक्ति नहीं रखती। यह सर्वाधिक गहन रहस्य है--मधुमक्खी का किसी भी फूल से बंधन नहीं होता। इसके पास कोई आणविक परिवार नहीं होता--न पत्नी, न पति। यह बस वहीं चली जाती है, जहां कहीं भी कोई फूल इसे निमंत्रण देता है। इसके पास स्वतंत्रता है।

मनुष्य परिवार में सीमित हो गया है। तंत्र परिवारवाद के बहुत विरोध में है--और उसकी अंतर्दृष्टि महान है। तंत्र कहता है कि यह परिवार ही है जिसके कारण प्रेम पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया है। लोग एक दूसरे से अनुरक्त हो रहे हैं। लोग एक दूसरे पर मालकियत करने की चेष्टा कर रहे हैं--आनंद उठाने की चेष्टा नहीं मालकियत की चेष्टा। मालकियत ही आनंद बन जाता है। एक बड़ा परिवर्तन आ गया है: तुम एक स्त्री के साथ होते हो उसका आनंद उठाने के लिए नहीं, तुम उस संग का आनंद नहीं उठा रहे, तुम अगर एक पुरूष के साथ होती हो उस पुरूष का आनंद उठाने के लिए नहीं, आनंद तो उसका तुम जरा भी नहीं उठा रही होती हो--पर उस पर मालकियत के लिए। हमारे बीच में राजनीति प्रवेश कर गई है, महत्वाकांक्षा प्रवेश कर गई है, अर्थ शास्त्र प्रवेश कर गया है। प्रेम तो अब वहां दिखाई ही नहीं देता।

प्रेम किसी मालकियत को नहीं जानता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम लम्बें समय तक किसी एक स्त्री के साथ नहीं रह सकते--तुम जन्मों-जन्मों एक साथ रह सकते हो, बस शर्त यह है कि परिवार वहां न हो। परिवारसे मेरा तात्पर्य है कानूनी मालकियत परिवार से मेरा आशय है मांग। पति-पत्नी से तकाजा कर सकता है, वह कह सकता है, ‘तुम मुझे प्रेम देने के लिए बाध्य हो।कोई भी किसी को भी प्रेम देने के बाध्य नहीं है, पति-पत्नी को उसे प्रेम देने के लिए मजबूर कर सकता है। जब कोई भी किसी को प्रेम देने के लिए मजबूर करता है, प्रेम तो वहां से अदृश्य हो जाता है--तब वहाँ केवल दिखावा मात्र रह जाता है। तब पत्नी एक कर्तव्य पूरा कर रही होती है। कर्तव्य प्रेम नहीं है। प्रेम तो मधु है: कर्तव्य सफेद शक्कर है। देर-सवेर तुम मधुमेह से पीड़ित होओगे। यह जहर है, यह शुद्ध जहर है--सफेद शक्कर। हां, माना की इसका स्वाद वैसा ही है, कुछ-कुछ मधु जैसा ही। परंतु यह मधु कदापि नहीं।

परिवार बहुत अधिकारात्मक है। परिवार विरोध में ही मनुष्य के, विरोध में है समाज के, यह विरोध में है सार्वलौकिक भाई चारा परिवार की सीमा तुम्हारी कैद है। तुम शायद इसे महसूस न करो क्योंकि तुम इसके आदी हो गए हो।

किसी देश की सीमा पार करते समय, क्या तुम अपमानित अनुभव नहीं किये गए हो? तब तुम जानते हो कि देश तुम्हारा देश न था--यह तो एक बड़ा कारागृह था। बाहर जाते समय या अंदर आते समय तुम यह बात जानोगे--जांच-चौकी पर, हवाई अड्डे पर। चुंगी से गुजरते समय ही तुम यह जान सकोगे कि तुम एक कैदी हो, स्वतंत्रता तो झूठ थी, मात्र बकवास एक दिखावा मात्र। पर किसी देश में रहते यदि तुम उसकी सीमा को कभी पार ही न करो, फिर यह बात तुम कभी न जान पाओगे। तुम हमेशा यही सोचोगे कि तुम तो स्वतंत्र हो। तुम स्वतंत्र नहीं हो! हां, रस्सी लंबी जरूर थी। तुम इधर-उधर घूम सकते थे। परंतु स्वतंत्रता बिलकुल भी नहीं।

और यहीं बात परिवार के साथ भी है, यदि तुम सीमा को पार करने लगो तब तुम जानोगे कि तुम कैद में हो। यदि तुम अपनी पड़ोसन से प्रेम करने लगो तो तुम्हारा पूरा परिवार इसके विरोध में होगा। यदि तुम किसी अन्य स्त्री से प्रेम करने लगो, तुम्हारी पत्नी ही तुम्हारी शत्रु हो जाएगी। यदि तुम किसी अन्य पुरुष के साथ नृत्य करने लगो, तुम्हारा पति तुम्हारे ऊपर पागल हो जाएगा। उसे गुस्सा भी आ सकता है, वह तुम्हें मार भी सकता है। और अभी उस दिन ही तो आपसे कह रहा थी कि मैं तुम से बहुत प्यार और विश्वास करता हूं। मैं तुम्हारे लिए मर भी सकता हूं।

जरा तुम सीमा पर करके तो देखो! और तुम जान जाओगे कि तुम एक कैदी हो। सीमा कभी न पार करो और तुम इसी आनंदपूर्ण अज्ञान में हमेशा रहोगे कि सब-कुछ ठीक-ठाक है।

यहीं तो आसक्ति है, यह अधिकारत्व ही है, जिसने बहुत से फूलों तक जाने, बहुत से फूलों का स्वाद लेने की तुम्हारी क्षमता को नष्ट कर दिया है। जरा उस मधुमक्खी की सोचो जो कि केवल एक ही फूल से मधु इकट्ठा किए जा रही हो। वह मधु बहुत समृद्ध नहीं हो सकता। समृद्धि तो भिन्नता से आती है। तुम्हारा पूरी जीवन विरस पूर्ण हो गया है, यह समृद्धि नहीं है।

लोग मेरे पास आते है, और वे कहते हैं, ‘मैं बोर हो गया हूं! मैं क्या करूं।और बोर हो जाने का हर संभव काम वे कर रहे हैं और वे सोच रहे होते हैं कि बोरियत कहीं बाहर से आ रही है। अब तुम एक ऐसी स्त्री के साथ रह रहे हो जिसे कि तुम अब प्रेम नहीं करते पर तुम्हारे धर्मग्रंथ कहते हैं, एक बार तुमने शपथ ले ली, अब वह शपथ तुम्हें पूरी तरह से निभानी ही होगी, पूरी करनी ही होगी शपथ वाले आदमी रहो! एक बार तुम वचन भर लिया, अब वचन हारी तुम नहीं हो सकते, तुम्हें उसे निभाना ही होगा। अब यदि तुम बोर होते हो, कोई हैरानी की बात नहीं है, प्रेम गायब हो गया है।

यह इसी तरह की बात है, जैसे कि तुम एक ही भोजन रोज खाने के लिए दिया जाए, कितने दिन, तुम उसका स्वाद उठा सकते हो? पहले दिन जरूर तुमने उसका आनंद लिया हो, हां, दूसरे दिन, तीसरे दिन, बस फिर अब तुम्हारी सीमा समाप्त हो जाती है, तुम पगला भी सकते हो। फिर वहीं सदा-सदा के लिए...फिर तुम बोर हो जाना शुरू कर दोगे। और चूंकि आदमी बोर होता रहता हैं, वह अपने मन के भटकाने के हजार तरीके खोज लेता है, टी.वी. के सामने छह-छह घंटे अपनी कुर्सी पर चिपका बैठा रहता है। क्या मूढ़ता है! या सिनेमा देखने चला जाता है, रेडियो सुनने लग जाता है। या फिर अखबार पढ़ने लग जाता है। या कलबो में चला जाता है, जहां तुम जैसे-तैसे आदमी उस बोरियत से बचते रहने की कोशिश करता रहता है। संबंध के कारण उत्पन्न हुई है।

जरा इसे समझने की चेष्टा करें।

तंत्र कहता है: मधुमक्खी बनो--स्वतंत्र बनो! तंत्र यह नहीं कहता कि यदि तुम किसी स्त्री से प्रेम करते हो तो उसके साथ मत रहो--उसके साथ रहो! पर तुम्हारी प्रतिबद्धता प्रेम के प्रति हो, स्त्री के प्रति नहीं, यह एक आधारभूत अंतर है। तुम प्रेम के प्रति प्रतिबद्ध होते हो, तुम आनंद के प्रति प्रतिबद्ध! जब तुम्हारा प्रेम के प्रतिबद्ध होते हो, जब प्रेम अदृश्य हो गया हो, जब आनंद तिरोहित हो गया हो, तब धन्यवाद कहो और आगे बढ़ जाओ। जीवन में हर चीज के साथ ऐसे ही होना चाहिए। यदि तुम एक चिकित्सक हो और तुम अपने कार्य से ऊब गए हो, तब तुम्हें इसे किसी भी क्षण छोड़ देने में समर्थ होना चाहिए--उसकी कीमत कुछ भी हो। खतरे के साथ, जीवन साहसिक कर्म बन जाता है।

और जीवन में हर चीज के साथ ऐसे ही होना चाहिए। यदि तुम एक चिकित्सक हो और तुम अपने कार्य से ऊब गए हो, तब तुम इसे किसी भी क्षण छोड़ देने में समर्थ होना चाहिए—फिर चाही उसकी कीमत कुछ भी क्यों न हो। खतरे के साथ, जीवन साहसिक कर्म बन जाता है। पर तुम सोचते हो, ‘अब मैं चालीस का, पैंतालीस को हो गया हूं, अब मैं यह काम कैसे छोड़ सकता हूं?’ और आर्थिक रुप से भी यह काम इतना अच्छा चल रहा है।...परंतु सच मानों तो अध्यात्मिक और मानसिक रुप से तुम मर रहे हो। तुम धीरे-धीरे आत्म-हत्या कर रहे हो। तब यह एकदम ठीक है: यदि तुम स्वयं को नष्ट करना और बैंक-बैलेंस को बचाना चाहते हो, तब तो यह बिलकुल ही सही है। परंतु जिस क्षण भी तुम अनुभव करो कि यह कार्य अब संतुष्टि प्रदान करने वाला कार्य न रहा, इससे बाहर निकल आओ। यह तंत्र की क्रांति है। जिस क्षण तुम देखो कि कोई चीज तुम्हें आकर्षक न रह गई है, किसी चीज ने मोहित करने का प्रफुल्लित का अपना गुण खो दिया है। अब उस में कोई आकर्षण नहीं रहा। कोई जादुई बात नहीं रही, तब तुम उससे मत चिपको। तब तुम उससे हाथ जोड़ कर कह दो, ‘मुझे खेद है।तब कृतज्ञता महसूस करो अतीत के प्रति, उसी व्यक्ति से, उस कार्य से, किसी भी चीज से जो कुछ भी मिला है उस सब के प्रति कृतज्ञता महसूस करो परंतु भविष्य के प्रति खुले रहो। यही अर्थ है एक मधुमक्खी होने का।

और सराह कहता है: केवल मधुमक्खी ही जानती है कि हर फूल मधु से भरा है।

पर मैं यह नहीं कह रहा हूं कि विपरीत अति पर चले जाओ—ऐसे लोग हैं जो विपरीत अति पर चले जा सकते है। और आदमी इतना मूढ़ है...अभी उस दिन ही मैं जर्मनी में एक कम्यून के विषय में पढ़ रहा था: ऐक्शन एनालिसिस कम्यून, अब उस कम्यून में यह नियम है कि तुम उसी स्त्री के साथ लगातार दो रातें नहीं सो सकते। अब यह बात फिर से मूढ़ता पूर्ण है। ऐसा लगता है कि मनुष्य इतना मूढ़ है कि तुम उसकी सहायता कर ही नहीं सकते। यदि तुम लगातार दो रात एक स्त्री के साथ सोते हो, कम्यून तुम्हें बाहर फेंक देता है।

अब एक अति गलत साबित हुई है—यह दूसरी अति है...यह भी गलत साबित होगी। पहली अति दमनात्मक थी: तुम्हें वर्षों तक, अपना सारा जीवन भर उसी स्त्री के साथ सोना है। उसी पुरुष के साथ सोना है। बिना यह जाने कि क्यों, क्यों तुम ऐसा किए जाते हो। समाज यह कहता है, राज्य यह कहता है, पुरोहित और राजनेता यह कहते हैं। कि तुम्हारे आणविक परिवार के स्थायित्व पर ही सारा समाज निर्भर है। यह विक्षिप्त समाज विक्षिप्त परिवार ही निर्भर है; विक्षिप्त परिवार ही वह इकाई है, वह ईंट है जिससे सारा कारागृह बना है।

विक्षिप्त राजनेता विक्षिप्त परिवार पर निर्भर हैं। विक्षिप्त धर्म विक्षिप्त परिवार पर निर्भर हैं। वे तुम्हें दबाते आए हैं। वे तुम्हें उसी स्त्री उसी पुरुष से, उस बंधन से तुम्हें दूर हटने नहीं देते। वे कहते हैं कि तुम्हें इसके साथ ही रहना है, वरना तुम अपराधी हो, पापी हो, वे तुम्हें नरम और नरक-अग्नि से बहुत भयभीत करते रहते हैं।

अब दूसरी अति, कि तुम उसी स्त्री के साथ दूसरी रात भी नहीं रह सकते। यह भी दमन है। यदि तुम अगली रात भी उसी स्त्री के साथ रहना चाहो, तो...? यह भी दमन होगा। पहली अति के साथ प्रेम तो अदृश्य हो गया। अब वहां एक ऊब प्रवेश कर गई। दूसरी के साथ घनिष्ठता अदृश्य हो जाएगी, और तुम बड़ा अलगाव महसूस करोगे, एक द्वीप की भांति। तुम अपनी जड़ें कहीं महसूस न करोगे।

तंत्र कहता है: ठीक मध्य में मार्ग है। उसी स्थान में रहो, उसी व्यक्ति के साथ रहो, उसी धंधे में रहो, जहां तुम आनंदित हो रहे हो—वरना उसे बदल दो। यदि तुम अपना सारा जीवन एक स्त्री का आनंद ले सको, यह सुंदर है, यह अत्यंत सौंदर्य पूर्ण है। तुम सौभाग्य शाली हो क्योंकि तब घनिष्ठता बढेगी, एक दूसरे में तुम्हारी जड़े स्थान ग्रहण करेंगी, तुम्हारे अस्तित्व अन्तर्गुथित हो जाएगें। धीरे-धीर तुम दोनों एक व्यक्ति, एक आत्मा, हो जाओगे और यह एक महान अनुभव है! इसके द्वारा तंत्र को सर्वोच्च शिखर जान लिया जाएगा। पर यह परिवार नहीं है—यह प्रेम-संबंध है। तुम प्रेम की गहराई में ही चले गए हो।

अब इस तरह के लोग—इस तरह के कम्यून, बहुत खतरानाक है समाज और आध्यात्मिक दोनों के लिए। वह सोच रहे है कि वे कार्य कर रहें हैं। वह तो एक प्रतिक्रिया मात्र है। समाज ने कोई गलत कार्य किया है, अब वे बहुत ज्यादा प्रतिक्रिया कर रहे है और विपरीत अति पर चले जा रहे है—जो कि फिर गलत होगी। आदमी को कहीं न कहीं संतुलन में होना ही होगा। सबसे पहली बात ये समझ लेनी चाहिए।

दूसरी बात: सराह कहता है, अस्तित्व की ढ़ांचा-रहित, अनाकृत अवस्था। यदि तुम आदत से जीते हो, तुम जीवन का आनंद नहीं ले सकते क्योंकि आदत तो पुराने की है। कैसे तुम उसी चीज को बार-बार आनदं ले सकते हो? तुम्हारा मन तो वही का वही रहता है। इसलिए ऊब होगी ही। तुम स्त्री को और पुरुष को बदल भी ले सकते हो, पर तुम तो वही हो, इसलिए पचास प्रतिशत तो सदा वही का वही ही रहता है। जीवन एक ऊब हो गया है।

इसलिए पहली बात तंत्र कहता है: कभी भी किसी व्यक्ति विशेष से ग्रस्त न रहो, व्यक्तित्वों से मुक्त रहो—तब तुम एक सौ प्रतिशत स्वतंत्र हो, एक मधुमक्खी की भांति। तुम कहीं भी उड़ जा सकते हो। तुम्हें कुछ नहीं रोकता, तुम्हारी स्वतंत्रता चरम है।

अपने अतीत के ढांचें में मत बने रहो। आविष्कार-कुशल होने की, नव-प्रवर्तक होने की चेष्टा करो। साहस-कर्ता बनो, अन्वेषक बनो। नए ढ़ंगों से जीवन का आनंद लो, इसका आनंद लेने के नए उपाय खोजो। सच में तो, उसी पुराने काम को करने के नए उपाय खोजो, नए ढंग खोज लो। संभावनाएं अनंत हैं।

तुम बहुत से द्वारों से उसी अनुभव तक पहुंच सकते हो, और हर द्वार तुम्हें एक नया दृश्य प्रदान करेगा। तब जीवन समृद्ध होता है। माधुर्य होता है, आनंद होता है, उत्सव होता है, जीवन नित नवीन बन जाता है। यही तो है जीवन का मधु। मेंढक के ढांचे में ही सीमित मत रह जाओ। हां, मेंढक थोड़ा बहुत छलांग लगा लेता है, यहां-वहां थोड़ा सा कूद-फांद लेता है। पर वह उड़ नहीं सकता। और न ही वह जान सकता है, फूल की दिव्य सुगंध को। सराह का मधु से जो तात्पर्य है वह परमात्मा के लिए एक काव्यात्मक रुपक है, कि हर कोई ईश्वरत्व को लिए है।

लोग मेरे पास आते हैं, और वह कहते हैं: हम परमात्मा को जानना चाहते है—परमात्मा कहां हैं?’ अब यह प्रश्न ही अर्थ हीन है? वह कहां नहीं है? तुम पूछते हो कि वह कहां है, तुम्हें बिलकुल ही अंधा होना चाहिए। क्या तुम उसे देख नहीं सकते हो? केवल वही तो है, वृक्षों में, पक्षीयों में, पशुओं में, पहाड़ों में, जल में, नब में, सब जगह वहीं तो है। एक स्त्री में एक पुरुष में, पिता में माता में, बेटे में कहां नहीं हैं। उसी ने तो इतने सारे रुप ले लिए है। हर तरफ वही तो है। वह हर जगह से तुम्हें, पुकार रहा है, और तुम सुनते ही नहीं हो। तुमने अपनी आंखें हर तरफ से बंद कर ली है। तुमने अपनी आंखों पर पट्टियां बाँध ली है। तुम बस किसी और देखते ही नहीं हो।

तुम एक बहुत ही संकरे ढंग से, बड़े ही केंद्रीभूत तरीके से जी रहे हो। यदि तुम धन की और देख रहे होते हो, तुम बस धन की तरफ देखते हो; फिर तुम किसी और तरफ नहीं देखते हो। यदि तुम शक्ति की तलाश में होते हो, तुम केवल शक्ति की और ही देखते हो, तुम किसी और तरफ नहीं देखते। और स्मरण रखना : धन में परमात्मा नहीं है—क्योंकि धन तो मनुष्य निर्मित है, और परमात्मा तो मनुष्य निर्मित हो ही नहीं सकता। जब मैं कहता हूं कि परमात्मा हर जगह है, स्मरण रखना कि उन चीजों को, जिन्हें मनुष्य ने निर्मित किया है, इसमें शामिल नहीं करना है। परमात्मा मनुष्य-निर्मित नहीं हो सकता। परमात्मा धन में नहीं है। धन तो मनुष्य का एक बड़ी चालाकी भरा आविष्कार है। और ईश्वर शक्ति में भी नहीं है, वह भी मनुष्य का एक पागलपन है। किसी पर अधिपत्य जमाने का विचार ही विक्षिप्त है। यह विचार ही कि मैं सत्ता में रहूं और दूसरे सत्ता-विहीन रहे,’ एक पागल आदमी का विचार है, एक विनष्टकारी विचार है।

परमात्मा राजनीति में नहीं है और परमात्मा धन में भी नहीं है। न ही परमात्मा महत्वकांक्षा में ही है। लेकिन परमात्मा हर उस चीज में है, जहां मनुष्य ने उसे नष्ट नहीं किया। जहां मनुष्य ने कोई अपनी ही रचना नहीं कि है। आधुनिक जगत में यह सर्वाधिक कठिन बातों में से एक है। क्योंकि चारों तरफ से तुम इतनी मनुष्य-निर्मित चीजों से धिरे हुए हो। क्या तुम बस इस तथ्य को देख नहीं पाते?

जब तुम एक वृक्ष के समीप बैठे होते हो, परमात्मा को महसूस करना आसान है। जब तुम कोलतार की बनी सड़क पर बैठे होते हो, तुम उस कोलतार की सड़क पर परमात्मा को वहां न पाओगे। यह बहुत सख्त है। तब तुम किसी आधुनिक शहर में होते हो, चारों और बस सीमेंट और कंक्रीट की इमारतें होती हैं, इस कंक्रीट और सीमेंट के जंगल में तुम परमात्मा को नहीं खोज सकते। तुम इसे नहीं महसूस कर सकते। क्योंकि मनुष्य निर्मित चीजें विकसित नहीं होती, यही तो सारी समस्या है। मनुष्य निर्मित चीजें विकसित नहीं होती। वे प्राय मृत है। उनमें कुछ जीवन नहीं होता। ईश्वर निर्मित चीजें विकसित होती है, पहाड़ तक बढ़ते है। हिमालय अभी भी बढ़ रहा है। ऊंचे और ऊंचे होता जा रहा है। एक वृक्ष उगता है, एक बच्चा विकसित होता है।

मनुष्य-निर्मित चीजें बढ़ती नहीं, महानतम चीजे भी। एक पिकासो का चित्र भी कभी बढ़ेगा नहीं। तब सीमेंट, कंक्रिट के जंगल तो क्या बढ़ेगें? बीथो वन का संगीत तक कभी विकसित नहीं होगा, तब प्रोधौगिकी का, मनुष्य-निर्मित यंत्रों का तो कहना ही क्या?

देखो! जहां कहीं भी तुम वृद्धि देखो, वहां ईश्वर है—क्योंकि केवल ईश्वर ही विकसित होता है, कुछ और नहीं। हर चीज में बस ईश्वर ही बढ़ता है। जब वृक्ष में कोई पत्ता उग रहा होता तो वह ईश्वर ही है। जब कोई पक्षी गीत गा रहा होता है, तब ईश्वर ही गा रहा है। जब कोई पक्षी उड़ान भर रहा होता है, तब परमात्मा उड़ान भर रहा होता है। जब एक छोटा बच्चा खिलखिलाकर हंस रहा होता है तब परमात्मा ही खिलखिला रहा होता है। जब तुम किसी स्त्री या पुरूष की आंखों से आंसुओं को बहते देखते हो, यह ईश्वर ही रो रहा होता है।

जहां कहीं भी तुम जीवंतता पाओं, हां; ईश्वर वहीं है। ध्यान पूर्वक सुनो। समीप आओ। ध्यान पूर्वक महसूस करो। सावधान हो जाओ। तुम पवित्र भूमि पर हो।

तंत्र कहता है: यदि तुम अपनी आंखों की पट्टी को गिरा दो, ‘अनाकृत जीवन शैलीसे यहीं तो तंत्र का आशय है...यदि तुम अपनी आंखों से धारणाओं को गिरा दो, उन्हें निर्मल हो जाने दो, उनको सजग हो जाने दो तब देखो अचानक तुम पाओगे कि तुम सभी दिशाओं में देख सकते हो। तुम्हें कुछ विशिष्ट दिशाओं में ही देखने के लिए समाज द्वारा बहकाया गया है। समाज ने तुम्हें एक गुलाम बना डाला है।

एक बड़ा षड़यंत्र है। हर छोटा बच्चा क्षतिग्रस्त कर दिया जाता है। तुरंत, जिस क्षण वह पैदा होता है—समाज उसे विकृत करना आरंभ कर देता है। इसलिए इससे पहले कि वह सजग हो सके, उसे गुलाम और अपंग बना दिया जाता है। हजार तरीके से अपंग। जब कोई व्यक्ति अपंग होता है, उसे निर्भर रहना ही पड़ेगा। परिवार पर, समाज पर, राज्य पर, सरकार पर, पुलिस पर, सेना पर—उसे हजार चीजों पर निर्भर रहना पड़ेगा। और उस निर्भरता के कारण वह सदा गुलाम ही बना रहेगा। वह कभी भी एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं हो सकेगा। इसलिए समाज अपंग बना देता है—इतने सूक्ष्म तरीकों से अपंग बना देता है—और तुम्हें पता भी नहीं चलता। इससे पहले कि तुम कुछ जानने में समर्थ हो सको, तुम अपंग बना दिए जाते हो।

तंत्र कहता है: पुन: स्वास्थ्य प्राप्त कर लो। समाज ने जो कुछ भी तुम्हारे साथ किया है, उसे अनिकया कर दो! धीरे-धीरे सजग होते जाओ और समाज ने जो संस्कार जबरदस्ती तुम्हारे ऊपर छोड़े है, उन्हें अनिकया करते जाओ—और अपना जीवन जीना प्रारंभ करो। यह तुम्हारा जीवन है, इससे किसी और को क्या लेना-देना है। यह पूरी तरह से तुम्हारा जीवन है। यह तुम्हें ईश्वर का एक उपहार है, तुम्हारे लिए एक व्यक्तिगत उपहार, जिसके ऊपर तुम्हारा नाम लिखा है। तुम इसका आनंद लो, तुम इसे जियो! और इसके लिए यदि तुम्हें बहुत कीमत भी चुकानी पड़े, यह कीमत चुकाने योग्य है, तुम उसके लिए तैयार रहो। अपने जीवन के लिए यदि तुम्हें अपना जीवन भी देना पड़े, वह कुछ भी नहीं, वह पूर्णत: ठीक है।

तंत्र बड़ा विद्रोहात्मक है। इसका भरोसा एक बिलकुल ही भिन्न तरह के समाज में है, ऐसा समाज में जो अधिकारात्मक नहीं है। जो धन-उन्मुख नहीं होगा। जो सत्तामुखी नहीं होगा। इसका भरोसा एक भिन्न तरह के परिवार में है। जो अधिकारात्मक नहीं होगा, और जो जीवन-नकारात्मक नहीं होगा। हमारे परिवार तो जीवन-नकारात्मक होते है।

एक बच्चा पैदा होता है और समस्त परिवार उसके जीवन के सारे आनंद को मार डालने की चेष्टा करता है। जब कभी भी बच्चा आनंदित होता है, वह गलत होता है; और जब कभी भी वह दुखी, लम्बा चेहरा लिए होता है, वह अति अज्ञाकारी, और सुशील बन जाता है। पिता कहता है: अच्छा है समझदार है।बहुत अच्छा बच्चा है, किसी को तंग नहीं करता। मां भी बहुत खुश होती है, इसे पालने के लिए तो मैं जरा भी तंग नहीं हुई, मुझे पता ही नहीं चला यह बहुत ही सीधा था। जब भी बच्चा अधिक जीविंत होगा, खतरानाक ही होगा, समस्या खड़ी करता ही रहेगा। तब हमारे सामने एक खतरा खड़ा हो जाता है, हम उसके आनंद को मारने लग जाते है। उसको अपंग बनाने की चेष्टा शुरू कर देते है।

और मूलभूत रूप से सारा आनंद कामुकता से संबंधित होता है। और समाज एंव परिवार काम से इतने भयभीत होते है कि वे बच्चों को कामुकतापूर्ण आनंदित होने की अनुमति दे नही सकते—और वही सब आनंद का आधार है। वे बड़े प्रतिबंधी हैं: बच्चों को अपने यौनांग छूने तक नहीं देते। वे उसे उसके साथ खेलने तक नहीं देते। पिता भयभीत है, मां भयभीत है, हर कोई भयभीत है। उनका भय उनके माता-पिता से आता है, वे विक्षिप्त है, बच्चें को डर रहे होते है, गुप्त अंगों को छेड़ेगे तो बीमार हो जाओगे। बच्चा डर जाता है। सहम जाता है।

क्या तुम यह सब देख नहीं रहे हो? एक बच्चा जब अपने गुप्तअंगों से खेल रहा होता है, तुरंत हम उसे डांट देते है, ‘रूक जाओ! ऐसा फिर कभी मत करना।और वह कुछ कर भी नहीं रहा था, वह बस अपने अंगों को मात्र छू रहा था, उसके छूअन का आनंद ले रहा था। शायद तुम्हें पता हो कि यौनांग सबसे अधिक संवेदनशील होते है। सबसे ज्यादा जीवंत, सबसे ज्यादा आनंददायी, सबसे ज्यादा सजीव। अचानक, बच्चे में कोई चीज कट जाती है। वह भय-भीत हो जाता है। उसकी ऊर्जा मे किसी चीज को रूकावट बना दिया है। अब वह कभी भी गुप्तअंगों को छूकर आनंद अनुभव करेगा, उसके मन में एक अपराध भाव आ जायेगा। बालमन पर वह पहले ही अंकित हो चूका है। और जब कभी भी वह अपराध भाव महसूस करेगा वह यह भी महसूस करेगा की वह पापी है। कि वह कोई गलत काम कर रहा है। उसका आनंद एक अपराध बन जायेगा, उसे वह गलत मानेगा, प्रकृति उसे अपनी और अकृषित करेगी परंतु वह जायेगा परंतु एक अपराध भाव के साथ और आनंद के बाद भी उसके मन में एक अपराध ही होगा।

हजारों संन्यासिसयों का मेरा यह अवलोकन है: जब कभी भी वे आनंदित होते हैं, वे अपराधी अनुभव करते है। वे उन माता-पिता को खोजने लग जाते है, जो अभी भी कहीं किसी रुप में आस पास होगा और कहेगा की रूक जाओ। और जब कभी भी वे उदास होते है तो सब ठीक-ठाक होता है। समाज ने उदासी को स्वीकार कर लिया है, दुख को स्वीकार कर लिया है। आनंद को इंकार किए चले जा रहे है।

और बच्चें को किसी ने किसी तरह से जीवन के आनंद को जानने से रोका जाता है। माता-पिता प्रेम-क्रीड़ा में संलग्न हो रहे है। बच्चे इस बात को जानते है। वे आवाजें सुनते है; कभी-कभी उसे महसुस भी करते है, ये क्रिया लगातार चल रही होती है। परंतु उन्हें इस सब के लिए अपराध भाव से भर दिया जाता है। बच्चों को इसे समझना चाहिए, आज समाज इतना जागरूक हो गया है, फिर भी इन क्रिया कलापों को हीनता की नजर से देख जाता है। बच्चा जब बड़ा हो जाए उसे इस बात को समझने में माता पिता को उसका सहयोग करना चाहिए। उसके मन में जो बचपन में अपराध भाव भर गया है उसे दबाने नहीं देना चाहिए। उन्हें जानना चाहिए कि प्रेम एक सुंदर घटना है—कोई कुरूप बात नहीं, कोई छिपाने वाली बात नहीं, कोई रहस्य बनाकर रखने वाली बात नहीं। यह पाप नहीं है, यह तो आनंद है।

और यदि बच्चे अपने माता-पिता को प्रेम करते देख लें, काम संबंधी हजारों बीमारियां संसार से गायब हो जाऐगी—क्योंकि उनका आनंद फूट निकलेगा। और वे अपने माता-पिता के प्रति सम्मानपूर्ण अनुभव करेंगे। हां, एक वे भी प्रेम करेंगे और वे भी जानेंगे कि यह एक महोत्सव है। यदि वे माता-पिता को इस भांति प्रेम करते देखलें मानों कि वे प्रार्थना कर रहा हों और ध्यान कर रहे हों। इसका एक महान प्रभाव होगा।

तंत्र कहते हैं कि प्रेम(संभोग) ऐसे उत्सव से, ऐसे धार्मिक सम्मान से, आदरपूर्वक किया जाना चाहिए कि बच्चे यह महसूस कर सकें कि कोई महान घटना घट रही है। उनका आनंद बढ़ेगा और उनके आनंद में कोई अपराध भाव न होगा। यह संसार अत्यंत आनंदित हो सकता है। परंतु यह संसार आनंदित है नहीं। किसी आनंदित व्यक्ति को पा जाना एक दुर्लभ बात है। अत्यंत ही दुर्लभ। और केवल आनंदित व्यक्ति ही स्थिर-बुद्धि हो सकता है। गैर-आनंदित व्यक्ति तो विक्षिप्त होता है।

जीवन के विषय में तंत्र की तो एक भिन्न ही दृष्टि है, बिलकुल ही भिन्न, क्रांतिकारी रूप से भिन्न दृष्टि। तुम मधु मक्खी बन सकते हो। स्वतंत्रता में, तुम मधुमक्खी बन जाते हो। गुलाम होकर, तुम मेंढक होते हो। स्वतंत्र होकर तुम मधुमक्खी हो जाते हो।

स्वतंत्रता के संदेश को सुनो। स्वतंत्र होने के लिए तैयार हो जाओ। हर उस चीज के प्रति जो बंधन निर्मित करती हो, तुम्हें सजग और जागरूक हो जाना है।

 

दूसरा प्रश्न: मैं एक स्कूल-अध्यापक हूं, पुरोहित, राजनेता, और पंड़ित का एक तरह का पनीला—मिश्रण, जिस सबसे आपको चिढ़ है। क्या मेरे लिए भी कोई आशा है? फिर मैं छप्पन वर्ष का हूं—क्या में बाकी की बची जिंदगी भी धैर्य पूर्वक यूं ही बिता दूं। और उम्मीद करू की अगली बार मेरा भाग्य अच्छा होगा?

 

पुरोहित के लिए, राजनेता के लिए, पंडित के लिए तो कोई आशा नहीं है। अगले जन्म में भी नहीं। पर पुरोहित होना, राजनेता होना, पंडित होना तो तुम छोड़ सकते हो, किसी भी क्षण—और तब आशा है। लेकिन पुरोहित के लिए कोई आशा नहीं, राजनेता के लिए कोई आशा नहीं, पंडित के लिए कोई आशा नहीं। इस बारे में मैं एक दम से सुनिश्चित हूं, अगले जन्म में भी, उससे अगले और अगले जन्म में भी—कभी नहीं। मैंने कभी नहीं सुना कि कोई पुरोहित कभी निर्वाण को पहुंचा हो, कभी नहीं सुना कि किसी राजनेता का कभी परमात्मा से मिलना हुआ हो। कभी नहीं सुना कि कोई पंडित कभी जाग गया हो। ज्ञानी हुआ हो। मनीषी हो गया हो। नहीं यह संभव ही नहीं है।

पंडित ज्ञान में विश्वास करता है, जानने में नहीं। ज्ञान तो बाहर से है, जानना भीतर से है। पंडित जानकारी पर भरोसा करता है। वह जानकारी इकट्ठी करता जाता है। यह एक भारी बोझ बन जाता है। पर भीतर कुछ उगता नहीं। आंतरिक वास्तविकता तो वही की वही बनी रहती है—उतनी ही अज्ञानी जितनी कि पहले थी।

राजनेता शक्ति—सत्ता की तलाश करता है—यह एक अहंकार की यात्रा है। और जो पहुंचते है वे तो विनीत होते है। अहंकारी नहीं। अहंकारी तो कभी नहीं पहुंचते, उनके अहंकार के कारण वे पहुंच ही नहीं सकते। अहंकार तो तुम्हारे और परमात्मा के बीच सबसे बड़ी बाधा है—एक मात्र बाधा। इसलिए राजनेता तो पहुंच ही नहीं सकते।

और पुरोहित...पुरोहित बड़ा चालाक होता है। वह तुम्हारे और परमात्मा के बीच मध्यस्थ बनने की चेष्टा कर रहा होता है। और परमात्मा को जाना उसने जरा भी नहीं होता है। वह सबसे बड़ा धोखेबाज है, सबसे बड़ा कपटी। वह मनुष्य जो सबसे बड़ा पाप कर सकता है, वह वहीं पाप कर रहा है। वह दिखावा कर रहा है कि वह परमात्मा को जानता है। इतना ही नहीं यह भी कि वह परमात्मा को तुम्हें उपलब्ध भी करवा देगा, कि तुम आओ, उसका अनुसरण करो और वह तुम्हें उस परम तक ले चलेगा। और उस परम के बारे में जानता वह कुछ भी नहीं है। वह शायद कर्मकांड़ जानता है, प्रार्थना कैसे की जाए शायद वह यह भी जानता हो, परंतु उस परम को वह नहीं जानता। वह तुम्हें कैसे ले जा सकता है? वह स्वयं अंधा है और जब कोई अंधा अंधे को राह दिखलता है, दोनों कुएं में गिरजाते है।

पुरोहित के लिए तो कोई आशा नहीं, राजनेता के लिए तो कोई आशा नहीं। पंडित के लिए तो कोई भी आशा नहीं है। पर आनंद तेजस, तुम्हारे लिए आशा है, प्रश्न आनंद तेजस का है—तुम्हारे लिए आशा है, हर आशा है।

और यह आयु का प्रश्न नहीं है। तुम छप्पन वर्ष के हो, या छिहत्तर के, या एक सौ छ: के—उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह आयु का प्रश्न नहीं है। क्योंकि यह समय का प्रश्न नहीं है। शाश्वतता में प्रवेश करने के लिए कोई क्षण इतना ही उपयुक्त है जितना कि कोई दूसरा क्षण—क्योंकि कोई भी व्यक्ति प्रवेश तो यहां—अभी में ही करता है। इसमें फिर क्या अंतर पड़ता है कि तुम कितने वर्ष के हो? छप्पन के या सोलह के—सोलह वर्ष बाले को भी यहां अभी में प्रवेश करना है, और छप्पन वर्ष वाले को भी अभी में प्रवेश करना है। और न तो तुम्हारे सोलह वर्ष सहायक हैं, और न ही छप्पन वर्ष सहायक है। दोनों के लिए अगल-अलग समस्याएं हैं। जो कि मैं जानता हूं। जब एक सोलह वर्षीय नवयुवक ध्यान में या परमात्मा में प्रवेश करना चाहता है, उसकी समस्या उस व्यक्ति से भिन्न है, जो छप्पन वर्ष का है। क्या है अंतर? परंतु यदि तुम उसे मापो, अंतत: अंतर संख्यात्मक है, गुणात्मक नहीं।

सोलह-वर्षीय व्यक्ति के पास केवल सोलह वर्ष का अतीत है, इस तरह से तो वह उस व्यक्ति से बेहतर अवस्था में है, जो छप्पन वर्ष का है। उस व्यक्ति के पास छप्पन वर्ष का अतीत है। छोड़ने के लिए उसके पास भारी बोझ है। बहुत सी आसक्तियां हैएक छप्पन वर्ष के जीवन के बहुत से अनुभव है, बहुत सारा ज्ञान है। सोलह वर्ष वाले के पास छोड़ने के लिए कुछ अधिक नहीं है। उसके पास छोटा सा भार है, जरा सा सामान—एक छोटा सा सूटकेस एक छोटे से लड़के का सूटकेस। छप्पन वर्ष वाले के पास बहुत सा सामान है। इस तरह से तो छोटे वाला एक बेहतर स्थिति में है।

लेकिन एक दूसरी बात भी है: बड़ी आयु वाले के पास अब भविष्य नहीं बचा है। छप्पन वर्ष वाले के पास, यदि वह पृथ्वी पर सत्तर साल तक जीने वाला है, केवल चौदह वर्ष बचे है। मात्र चौदह वर्ष...उसके पास न के बराबर भविष्य बचा है। न ही अधिक कल्पना, न अधिक सपने। सोलह वर्ष वाले के पास लम्बा जीवन है, उसके लिए लम्बा भविष्य है, बहुत सी कल्पनाए उसका इंतजार कर रही है। कितने सपने उसकी राह में इंतजार कर रहे है। अनंत कल्पनाएं खड़ा उसकी राह तक रही है।

नवयुवक के लिए अतीत छोटा है पर भविष्य बहुत बड़ा; वृद्ध के लिए अतीत बड़ा है, भविष्य छोटा है—कुल मिलाकर बात वही है। यह सत्तर वर्ष की ही बात है; दोनों को ही सत्तर वर्ष ही छोड़ने होते है। नवयुवक के लिए, सोलह वर्ष अतीत में, बाकी वर्ष भविष्य में। भविष्य भी उतना ही छोडा जाना है जितना कि अतीत। इसलिए अंत में, अंतिम हिसाब में, कुछ अंतर नहीं पड़ता।

तुम्हारे लिए हर आशा है, आनंद तेजस। और चूंकि तुमने प्रश्न पूछा है, काम शुरू हो ही चुका है। तुम अपने पुरोहित, राजनेता, पंडित के प्रति सजग हो गए हो—यह एक अच्छी बात है। किसी रोग के विषय में सजग हो जाना, यह जान लेना कि यह क्या है, आधा इलाज हो जाता है।

और तुम संन्यासी हो गए हो, तुमने पहले से ही अज्ञात में एक कदम उठा लिया है। यदि तुम मेरे साथ होने जा रहे हो, तुम्हें अपने पुरोहित से, अपने राजनेता से अपने पंडित से अलविदा कहना होगा। परंतु मुझे विश्वास है कि तुम यह काम कर सकते हो, वर्ना तुमने यह प्रश्न पूछा ही नहीं होता। तुमने यह महसूस किया है कि यह अर्थहीन है। वह सब जो अब तक तुम करते आए हो, वह सब अर्थहीन है—यह तुमने अनुभव किया है। यह भाव बड़ा कीमती है।

इसलिए मैं यह नहीं कहूंगा कि बस धैर्य रखो और अगले जन्म की प्रतीक्षा करो, न। मैं कभी भी स्थगन के पक्ष में नहीं हूं। सब स्थगन खतरनाक होते है, और बड़ी चालबाजी होती है उनमें। यदि तुम कहते हो, ‘इस जन्म में तो मैं स्थगित कर दूंगा अब कुछ नहीं किया जा सकता है! तुम बस दिखाव कर रहे हो। और यह बचने की एक तरकीब है: ‘अब क्या किया जा सकता है? मैं इतना वृद्ध हो गया हूं।

मृत्यु के समय पर भी, अंतिम क्षण में भी, परिवर्तन घट सकता है। उस समय भी जब कि व्यक्ति मर रहा हो, एक क्षण के लिए वह अपनी आँख खोल सकता है...और परिवर्तन घट सकता है। और इससे पहले कि मौत आए, वह अपने सारे अतीत को छोड़ सकता है। और वह पूरी तरह से ताजा हो कर मर सकता है। तब वह एक नए ही ढंग से मर रहा होता है। वह एक संन्यासी की तरह से मर रहा है। वह गहन ध्यान की अवस्था में मर रहा है। और गहन ध्यान में मरना-मरना नहीं होता। क्योंकि वह उस समय पूरी जागरूकता के साथ मर रहा है, तब कहां मृत्यु है। मृत्यु तो एक बेहोशी का नाम है।

यह तो एक क्षण में घट सकता है। इसलिए कृपया स्थगित मत करो। ऐसा मत कहो: क्या में बाकी की बची जिन्दगी को धैर्यपूर्व यूं ही बीता दूं...?’, तुम इसे अभी छोड़ दो यह मूल्यहीन है, इसे क्यों ढोना? प्रतीक्षा क्यों करना? और यदि तुम प्रतीक्षा करते हो, अगला जन्म भी कोई भिन्न होने नहीं जा रहा है—इसीलिए तो मैं कहता हूं कि पुरोहित के लिए और राजनेताओं के लिए, पंडितों के लिए तो कोई आशा नहीं है। अगला जीवन तो वहीं से शुरू होगा जहां से तुम इस जीवन को समाप्त करते हो। फिर से पुरोहित, फिर से राजनेता, फिर से पंडित। तुम अगला जीवन इसी जीवन की निरंतरता में तो पाओगे। यह फिर भिन्न कैसे होगा? यह वही चक्र होगा और फिर से घूम गया होगा।

और इस बार तो मैं तुम्हें उपलब्ध हूं। कौन जानता है? अगली बार शायद मैं उपलब्ध न रहूं। इस बार तो, जैसे-तैसे अंधेरे में टटोलते-टटोलते तुम मुझसे टकरा गए हो। अगली बार कोई नहीं जानता...इस बार तो तुम्हें छप्पन वर्ष लग गए उस आदमी के पास आने जिसके द्वारा क्रांति संभव है। कौन जानता है? अगली बार शायद तुम बोझिल हो जाओ, निश्चय ही तुम और अधिक बोझिल हो जाओगे—पिछले जन्म को बोझ, और अगले जन्म का बोझ...तुम्हें ऐसे आदमी तक आने में, उसे ढूंढ पाने में शायद सत्तर वर्ष लग जाएं।

      इसलिए तो मैं कहता हूं कि राजनेता के लिए और पुरोहित के लिए और पंडित के लिए तो भविष्य में भी कोई आशा नहीं है। लेकिन तुम्हारे लिए हर आशा है—क्योंकि तुम पुरोहित नहीं हो, और न ही तुम राजनेता हो, और न ही तुम पंडित हो। तुम हो भी कैसे सकते हो? यह तो चीजें है जो चारों और इकट्ठी हो जाती है, परंतु अन्तर्तम केंद्र तो सदा स्वतंत्र रहता है। अपने आप एक मेंढक होने की तरह मत सोचो—मधुमक्खी बनो....।

 

तीसरा प्रश्न: एक सन्यासी के जीवन में दान का क्या महत्व होना चाहिए?

 

प्रश्न एक संन्यासी का नहीं है—प्रश्न फिलिप मार्टिन का है। पहली बात तो यह, फिलिप मार्टिन, कि संन्यासी हो जाओ। तुम्हें दूसरों के विषय में प्रश्न नहीं पूछने चाहिए, यह सज्जनता नहीं है। तुमने अपने बारे में प्रश्न पूछने चाहिए। पहले संन्यासी हो जाओ, फिर पूछो। लेकिन प्रश्न अर्थपूर्ण है, इसलिए उत्तर तो मैं देने जा रहा हूं। और मुझे ऐसा महसूस होता है कि देर-सवेर फिलिप मार्टिन संन्यास हो ही जाएगा। प्रश्न में ही झुकाव दिखाई देता है।

पहली बात: दुनिया के सारे धर्मों में चैरिटी पर, दान पर, बहुत जोर दिया गया है। और उसका कारण यह है कि आदमी ने धन के साथ सदा अपराधभाव महसूस किया है। दान का इतना प्रचार इसीलिए किया गया है ताकि मनुष्य कुछ कम अपराधभाव महसूस करे। तुम्हें हैरानी होगी; प्राचीन अंग्रेजी में एक शब्द है गिल्ट जिसका अर्थ है धन। जर्मन भाषा में एक शब्द है गेल्ड जिसका अर्थ धन है। और गोल्ड तो बहुत करीब है ही। गिल्ट, गिल्ट, गोल्ड—किसी ने किसी तरह गहरे में धन के साथ अपराधभाव जुड़ा है।

जब कभी भी तुम्हारे पास धन होता है तुम अपराधीर अनुभव करते हो...और यह स्वाभाविक हैं, क्योंकि इतने सारे लोगों के पास धन नहीं है। तुम अपराध भाव से बच कैसे सकते हो? जब कभी भी तुम्हें धन मिलता है, तुम जानते हो कि तुम्हारी वजह से कोई गरीब हो गया है। जब कभी भी तुम्हें धन मिलता है, तुम जानते हो कि कहीं न कहीं कोई न कोई जरूर भूख से मर रहा होगा। और इधर तुम्हारा बैंक बैलेंस बड़ा और बड़ा होता जा रहा है। किसी बच्चे को जीवित रहने के लिए औषधि न मिल सकेगी। किसी स्त्री को दवा न मिल सकेगी, कोई गरीब आदमी मर जाएगा क्योंकि उसके पास भोजन न होगा। इन चीजों से तुम कैसे बच सकते हो? ये तो वहां होगी ही। जितना अधिक धन तुम्हारे पास होगा, उतनी ही अधिक ये चीजें तुम्हारी चेतना में विस्फोटित होती रहेंगी, तुम अपराधी अनुभव करोगे।

 दान तुम्हें तुम्हारे अपराध-भाव से निर्भार करने के लिए है, इसिलए तुम कहते हो, ‘मैं कुछ तो कर रहा हूं: मैं एक अस्पताल खोलने जा रहा हूं, एक कॉलेज खोलने जा रहा हूं। मैं इस दान फंड को रूपया देता हूं, उस ट्रस्ट को रूपया देता हूं।तुम थोड़े से आनंदित महसूस करते हो। संसार सदा निर्धनता में जिया है, संसार सदा तंगी में जिया है, निन्यान्वे प्रतिशत लोग निर्धनता का जीवन जिए है। करीब-करीब भूखे रहते है, और मर जाते है। और केवल एक प्रतिशत व्यक्ति समृद्धि के साथ, धन के साथ जिए है। उन्होंने सदैव अपराध-भाव अनुभव किया है। उनकी सहायता करने के लिए धर्मों ने दान की धारणा का विकास किया है। यह उन्हें उनके अपराध-भाव से छुटकारा दिलाने के लिए है।

इसलिए पहली बाता जो मैं तुमसे कहना चाहूंगा वह यह है: दान कोई सदगुण नहीं है—यह बस तुम्हारी स्थिर बुद्धि को सकुशल बनाए रखने के लिए है, वरना तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे। दान सद्गुण नहीं है—यह एक पुण्य भी नहीं है। यह नहीं कि जब तुम दान देते हो तो तुम कोई अच्छा काम करते हो। बात कुल यह है कि धन को इकट्ठा करने में तुम जो बुरे काम करते हो, तुम उसके लिए पश्चाताप करते हो। मेरे देखे तो दान कोई महान गुण नहीं है—यह तो पश्चाताप है, तुम पश्चात्ताप कर रहे होते हो। एक सौ रूपये तुमने कमाये, दस रूपये तुमने दान में दे दिए। यह एक पश्चात्ताप है। तुम थोड़ा सा अच्छा महसूस करते हो; तुम उतना खराब महसूस नहीं करते, तुम्हारे अहंकार थोड़ा सा सुरिक्षत महसूस करता है। तुम परमात्मा से कह सकते हो, ‘मैं केवल शोषण ही नहीं कर रहा था, मैं गरीब आदमियों की मदद भी कर रहा था।मगर यह किसी तरह की मदद है? एक तरफ तो तुम सौ रूपए छीन लेते हो, और दूसरी और देते हो केवल दस रूपये—ये तो ब्याज तक नहीं?

यह एक तरकीब है जिसका आविष्कार तथाकथित धार्मिक लागों ने किया था। गरीबों की सहायता करने के लिए बल्कि धनवालों की सहायता करने के लिए। यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाने दो: यह मेरी दृष्टि है—यह एक तरकीब रही है धनवालों की सहायता करने की, गरीबों की नहीं। यदि निर्धन लोगों की सहायता हुई भी, वह तो मात्र इसका परिणाम था, एक उप-उत्पाद, परंतु यह उनका उद्देश्य नहीं था।

मैं अपने संन्यासियों को क्या कहता हूं?

मैं दान की बात ही नहीं करता हूं। यह शब्द ही मुझे कुरूप लगता है। मैं तो बांटने की बात करता हूं—और इसमें एक बिलकुल ही भिन्न गुण के साथ बांटना। यदि तुम्हारे पास है, तुम बांट लो। इसलिए नहीं कि बांटने से तुम दूसरों की सहायता करोगे, ; बल्कि बांटने से तुम विकसित होओगे। जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतना ही ज्यादा तुम विकसित होते हो।

और जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतना ही ज्यादा तुम्हें और मिलता है—चाहे जो भी हो। यह केवल धन का ही प्रश्न नहीं है। यदि तुम्हारे पास ज्ञान हो, उसे बांटो। यदि तुम्हारे पास प्रेम हो, उसे भी बांटो। जो भी तुम्हारे पास हो, उसे बांटो, उसे चारों और फैलाओ; हवाओं में उड़ती एक फूल की सुगंध की तरह इसे फैलने दो। इसका विशेष रूप से गरीबों से ही कोई संबंध नहीं है। जो भी उपलब्ध हो उसी के साथ बांट लो...और गरीब भी तरह-तरह के होते है।

एक धनी व्यक्ति भी गरीब हो सकता है क्योंकि उसने कभी कोई प्रेम जाना ही नहीं है। उसके साथ प्रेम बांटो। एक गरीब आदमी ने शायद प्रेम जाना हो पर अच्छा भोजन नहीं—उसके साथ भोजन को बांटो। एक धनी व्यक्ति के पास शायद सब कुछ हो, परंतु समझ न हो, उसे अपनी समझ को बांटो लो, वह भी गरीब है। गरीबी की हजार किस्में है। जो भी तुम्हारे पास हो, उसे भी बांट लो।

लेकिन याद रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह पुण्य है, कि परमत्मा इसके लिए स्वर्ग में तुम्हें एक विशेष स्थान देगा, कि तुम्हारे साथ एक विशेष्ट व्यवहार किया जाएगा। कि तुम्हें एक अति विशिष्ट व्यक्ति माना जाएगा। और न ही बांटने से तुम अभी और यही आनंदित हो जाओगे। जमाखोर कभी आनंदित नहीं हो सकता। जमाखोर तो मूल रूप से बड़ा कब्जियत वाला व्यक्ति होता है। वह जमा ही किए चला जाता है। वह विश्राम नहीं कर सकता, वह दे नहीं सकता। वह जमा ही किए जाता है, जो कुछ भी उसे मिलता है, वह बस उसी को जमा कर लेता है। वह कभी उसका आनंद नहीं उठा पाता क्योंकि आनंद उठाने के लिए भी तुम्हें बांटना तो पड़ता ही है—क्योंकि सारा आनंद एक तरह का बांटना ही है।

यदि तुम सच में ही अपने भोजन का आनंद उठाना चाहते हो, तुम्हें मित्रों को बुलाना होगा। यदि तुम सच में ही भोजन का आनंद उठाना चाहते हो, तुम्हें अतिथियों को निमंत्रण देना होगा, वरना तुम इसका आनंद न उठा पाओगे। यदि सच में ही तुम मदिरापान का लुत्फ उठाना चाहते हो, कैसे तुम अकेले अपने कमरे में इसका लुत्फ उठा सकते हो। तुम्हें दोस्त, अपने साथी खोजने ही होगे। तुम्हें बांटना आना ही चाहिए, आनंद बांटने से बढ़ता है।

आनंद सदा बांटना है। आनंद अकेले में नहीं होता। अकेले तुम कैसे आनंदित हो सकते हो? एकदम अकेले—जरा सोचो! कैसे तुम आनंदित हो सकते हो, एकदम अकेले? नहीं, आनंद तो एक संबंध है। यह संग-साथ है। सच तो यह है कि जो लोग पहाड़ पर भी चले गए होते हैं, और एकांत जीवन जीते होते हे। वे भी अस्तित्व के साथ बांटते है, वे भी अकेले नहीं होते। वे बांट लेते है, तारों और पहाड़ों, पक्षियों और वृक्षों के साथ—वे भी वहां अकेले नहीं होते।

जरा सोचो! बारह वर्ष तक महावीर जंगल में अकेले खड़े रहे थे—पर वह अकेले नहीं थे। मैं तुमसे कहता हूं, अधिकारता से, कि वह अकेले नहीं थे। पक्षी वहां आते थे, और उनके चारों और खलते रहते थे। पशु आते थे उनके पास बैठ जाते थे। वृक्ष उन्हें देख का गद्दगद्द हो कर उन पर फूल बरसाते थे। रात को सितारे जगमगाते थे, सुबह जब सूर्य उदय होता तो उनके तन बदन को छूता था, दिन-रात, सर्दियां-गर्मिया... और सारे वर्ष कुछ न कुछ होता ही रहता था। यह आनंदपूर्ण था। हां, इंसानों से वह दूर थे—उन्हें दूर रहना ही था क्योंकि इन्सानों ने उन्हें इतनी हानि पहुंचाई थी कि स्वस्थ होने के लिए उन्हें दूर रहना ही था। यह तो बस एक निश्चित समय तक इंसानों से दूर रहने के लिए चले गए थे। ताकि वह उन्हें और अधिक कष्ट न पहुंचा सके। यही कारण है कि संन्यासी कभी-कभी एकांत में चला जाता है। बस अपने घाव को भरने के लिए। वरना लोग अपने खंजर तुम्हारे धावों में चुभोजे ही रहेंगे, वे उन धावों को हरा ही रखेंगे; वे उन्हें भरने न देंगे, वे तुम्हें जो उन्होंने किया है उसे अनकिया करने का अवसर ही न देंगे।

बारह वर्ष तक महावीर मौन थे: चट्टानों और वृक्षों के पास खड़े, बैठे, पर वह अकेले न थे—सारे अस्तित्व ने उनके आसपास भीड़ लगा रखी थी। सारा अस्तित्व उनके ऊपर समाविष्ट हो रहा था। फिर एक दिन वह आया जब वह स्वस्थ्य हो गए। उनके घाव भर गए। और अब वह जान गए थे कि कोई उन्हें हानि नहीं पहुंचा सकता है। वह पार जा चुके थे। अब कोई भी इंसान उन्हें चोट नहीं पहुंचा सकता था। वह इंसानों से संबंधित होने के लिए, उस आनंद को बांटने के लिए जो उन्हें वहां जंगल में प्राप्त हुआ था, वापस लौट आना ही पड़ा।

जैन धर्मग्रंथ केवल इतना ही कहते है कि वह इस संसार को छोड़ कर चले गए थे। वे उस दूसरे तथ्य की बात ही नहीं करते...वह संसार में वापस क्यों लोट कर आ गए? कौन सा कारण है जो उन्हें संसार में धकेल रहा था, वह आनंद जो उनके भीतर घटा था वह बहने को तत्पर हो रहा था। यह तो आधी ही बात हुई कि वह संसार को छोड़ कर जंगलों में चले गए, यह पूरी कथा नहीं है।

बुद्ध जंगल में चले गए थे, पर वह वापस भी लौट आये थे। कैसे तुम वहां जंगल में बने रह सकते हो जब कि तुम्हें वहमिल गया हो? तुम्हें वापस आना होगा और इस बांटना होगा। हां, वृक्षों के साथ बांट लेना अच्छा है, पहाड़ो के साथ बाटा जा सकता है, पक्षियों के साथ बांट सकते हो। परंतु वृक्ष इतना तो नहीं समझ पाते। वे तो बड़े ही र्निबुद्धि हैं। पशुओं के साथ बांट लेना अच्छा है; वे सुंदर है—पर मानवीय आदान-प्रदान की सुंदरता ही कुछ और होती है। उस सम्पूर्णता की पूर्णता मनुष्य के पास बांटना ही प्रत्युत्तर हो सकता है। उन सबको वापस लौटना ही पड़ा, संसार में, मनुष्य के बीच में, अपनी उत्फुल्लता, अपने आनंद, अपनी समाधि को बांटने के लिए।

दानकोई अच्छा शब्द नहीं है,  यह बड़ा ही भारी शब्द है। मैं तो बांटने की बात करता हूं। अपने संन्यासियों से मैं कहता हूं कि बांटो। दानशब्द में कुछ कुरूपता भी है; ऐसा लगता है कि तुम तो ऊंचे हो और दूसरा तुमसे नीचे है; कि दूसरा एक भिखारी है। कि तुम दूसरे की मदद कर रहे हो, कि वह जरूरत में है। यह अच्छी बात नहीं है। दूसरों को ऐसे देखना मानो कि वह तुमसे नीचा हो—तुम्हारे पास है और उसके पास नहीं है—अच्छी बात नहीं है। यह अमानवीय है।

बांटना एक बिल्कुल ही भिन्न दृष्टि की बात है। इस बात का प्रश्न ही नहीं है कि उसके पास है अथवा नहीं है। प्रश्न तो बस यह है कि तुम्हारे पास बहुत अधिक है—तुम्हें बांटना ही है। जब तुम दान देते हो, तुम दूसरे से तुम्हें धन्यवाद देने की अपेक्षा करते हो। जब तुम बांटते हो, तुम उसे धन्यवाद देते हो कि उसने तुम्हें ऊर्जा उडेलने का अवसर दिया—जो कि तुम पर बहुत एकत्रित हो गई थी। यह भारी होने लगी थी। तुम कृतज्ञ अनुभव करते हो।

बांटना तुम्हारी प्रचुरता से है। दान दूसरे की गरीबी के लिए है। वरना तुम्हारी समृद्धि से है। उनमें गुणात्मक भेद है।

नहीं, मैं दान की बात ही नहीं करता, मैं तो बांटने की बात करता हूं...और यह बढ़ेगा। यह एक आधारभूत नियम है। जितना अधिक तुम देते हो, उतना ही अधिक तुम्हें मिलता है। देने में कभी कंजूस न बनो।

 

चौथा प्रश्न: ध्यान करते समय, मेरा मन फिर भी पांच सौ मील प्रतिघंटा चलता रहता है। मैं कभी मौन का अनुभव नहीं करता हूं, और जो कुछ भी साक्षीभाव घटता है वह अत्यंतअल्प होता है। झलकों की भांति। क्या मैं अपना समय बर्बाद कर रहा हूं?

 

तुम्हारा मन तो बड़ा सुस्त है। केवल पांच सौ मील प्रति घंटा, बस? और क्या तुम सोचते हो कि यह कोई गति है? तुम तो काफी धीमें हो। मन की गति को जानते ही नहीं, वह तो इतना तेज चलता है। यह तो प्रकाश से भी तेज चलने वाला है। प्रकाश एक सेकंड़ में एक लाख छियासी हजार मील चलता है। मन तो उससे भी तेज चलता है। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं—यही तो मन का सौंदर्य है, यही तो उसका महान गुण है। इसे नकारात्मक रूप से लेने के स्थान पर, मन के साथ लड़ने के स्थान पर इसे दोस्त बना लो।

तुम कहते हो, ‘ध्यान करते समय मेरा मन फिर भी पांच सौ मील प्रति घंटा चलता रहता है’—इसे चलने दो। इसे और तेज जाने दो। तुम बस दृष्टा रहो। तुम मन को इतना तेज चलते, इतनी गति से भागते, देखते रहो। इसका आनंद उठाओं मन के इस खेल को आनंद लो।

संस्कृत में इसके लिए हमारे पास एक विशेष शब्द है; हम इसे कहते है चिद्विलास—चैतन्य की क्रीड़ा। यह सितारों की और भागता है, यहां से वहां तेजी से दौड़ता, सारे अस्तित्व में उछल-कूद मचाना, मन की इस क्रीड़ा का आनंद लो। इस में गलत क्या है? इसे एक सुंदर नृत्य होने दो। इसे स्वीकार कर लो।

मेरे ख्याल में तुम जो कर रहे हो वह यह है कि तुम इसे रोकने की चेष्टा कर रहे हो—वह तुम कर नहीं सकते। मन को कोई नहीं रोक सकता। हां, मन एक दिन रूकता है, पर कोई इसे रोक नहीं सकता। मन थमता है, पर ऐसा तुम्हारे प्रयास से नहीं होता। मन थमता है, तुम्हारी समझ से। तुम बस साक्षी बनो और यह देखने की चेष्टा करो कि हो क्या रहा है, यह मन क्यों दौड़ रहा है। यह बिना किसी कारण के नहीं दौड़ रहा है। तुम महत्वकांक्षी होगे। देखने की चेष्टा करो कि यह मन क्यों दौड़ रहा है, यह कहां दौड़ रहा है—तुम्हारी महत्वकांक्षा इसे दौड़ा रही है। यदि यह धन के विषय में सोच रहा है, तो इसे समझने की चेष्टा करो। मन प्रश्न नहीं है। तुम धन के विषय में स्वप्न देखना शुरू कर देते हो, कि तुमने एक लाटरी जीत ली है। या यह या वह, और फिर तुम योजनाएं तक बनाना प्रारंभ कर देते हो कि इस धन को कैसे खर्च किया जाए। क्या खरीदा जाए, क्या न खरीदा जाए? या फिर सोचता है कि तुम एक राष्ट्रपति बन गए हो। एक प्रधान मंत्री बन गए हो। और फिर तुम सोचना शुरू कर देते हो कि अब क्या किया जाए, देश को या संसार को कैसे चलाया जाए। जरा मन का अवलोकन तो करो। मन जा किस तरफ रहा है। तुम्हारे भीतर एक गहन बीज होना चाहिए। तुम तब तक मन को नहीं रोक सकते जब तक कि वह बीज अदृश्य न हो जाए। मन तो बस तुम्हारे अंतर्तम बीज के ही आदेश का पालन कर रहा है। कोई काम के विषय में सोच रहा है; तब उसके भीतर कहीं न कहीं दमित कामवासना है। देखो कि मन किस तरफ दौड़ रहा है। अपने भीतर गहराई में देखो, खोजा कि बीज कहां है।

मैंने सुना है:

    पादरी बहुत परेशान था। सुनोउसने अपने चर्च-सहायक से कहा, ‘किसी ने मेरी साईकिल चुरा ली है।

आप इस पर बैठकर कहां-कहां गए थे। रेक्टर?’ सहायक ने पूछा।

केवल अपने ही इलाके में मुलाकातों के लिए।

सहायक ने सुझाव दिया कि पादरी अपना रविवारीय प्रवचन दस आज्ञाएंविषय पर दें। जब आप तुम चोरी नहीं करोगेपर पहुचेंगे, आप और मैं चेहरों को गौर पर देखेंगे—हमें कुछ न कुछ मिलेगा।

रविवार आया, पादरी ने आज्ञाओं के विषय में सही प्रवाह में अपना प्रवचन प्रारंभ किया, मगर फिर वह सूत्र खो गया, उसने अपना विषय बदल दिया और बड़े असंतोषपूर्ण तरीके से घसीटते हुए प्रवचन पूरा किया।

सर’, सहायक ने कहा, ‘मैंने तो सोचा था कि आप....।

मैं जानता हूं, गाइल्स, मैं जानता हूं। लेकिन तुम्हें पता है कि जब मैं तुम व्यभिचार नहीं करोगे पर पहुंचा तो अचानक मुझे याद आया कि मैं अपनी साइकिल कहां छोड़ आया था।

जरा देखो तो तुम अपनी साईकिल कहां छोड़ आए हो। मन किन्हीं कारणों से ही दौड़ता फिरता है।

मन को चाहिए समझ, जागरूकता। इसे रोकने का प्रयत्न मत करो। यदि तुम इसे रोकने का प्रयत्न करते भी हो, अव्वल तो तुम सफल हो ही नहीं सकते, दूसरे अगर तुम सफल हो भी गए—यदि कोई निरंतर बरसों तक प्रयत्न करे तो सफल हो भी सकता है—यदि तुम सफल हो गए, तुम मंदबुद्धि हो जाओगे। इससे कोई सतोरी घटित न हो सकेगी।

पहली बात तो यह कि तुम सफल हो ही नहीं सकते हो। और यह शुभ भी है। तुम सफल नहीं हो रहे हो। यदि तुम सफल हो सको, यदि तुम सफल होने की व्यवस्था कर लो, यह बड़ी दुर्भाग्य जनक बात होगी—तुम मंदबुद्धि हो जाओगे। तुम बुद्धिमत्ता खो दोगे। उस गति के साथ ही तो बुद्धिमत्ता है, उस गति के साथ ही तो सोच-विचार की, तर्क की, बौद्धिकता की तलवार निरंतर तेज होती रहती है। कृपया अपने मन को मत रोको, न ही चेष्टा करो, मैं मंद-बुद्धियों के पक्ष में नहीं हूं। और मैं यहां किसी को मूढ़ बन जाने में सहायता के लिए नहीं आया हूं।

 धर्म के नाम पर बहुत से लोग मूढ़ हो गए है। वे करीब-करीब जड़ बुद्धि हो गए हैं—मन को रोकने की चेष्टा में बिना यह समझे कि यह इतनी गति से क्यों चल रहा है...अव्वल तो यह चलता ही क्यों है? मन बिना किसी कारण के नहीं चलता। बिना इसके कारण में जाए, बिना इसकी पर्तों में, अचेतन मन की गहन तहों में जाए, बस इसे रोकने का प्रयत्न न करे। रोक वे सकते हैं पर उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी, और कीमत यह होगी कि उनकी बुद्धिमता खो जाएगी।

तुम भारत में चारों और घूम सकते हो, तुम्हें हजारों ऐसे संन्यासी, महात्मा मिल जाएंगे, उनकी आंखों में झांको, वे अच्छे लोग है, भले लोग है, पर मूढ़ बन गए है। यदि तुम उनकी आंखों में झांको, वहां कोई बुद्धिमता नहीं पाओगे। तुम वहां कोई प्रज्ञा नहीं पाओगे। वह असृजनशील व्यक्ति हैं, वे किसी चीज का सृजन नहीं कर रहे होते है। वे जीवंत लोग नहीं है। उन्हें किसी भी तरह से संसार की कोई सहायता नहीं की है। उन्होंने एक चित्र या एक कविता या एक गीत भी नहीं रचा है, क्योंकि एक कविता रचने के लिए भी तुम्हें बुद्धिमता की आवश्यकता की जरूरत होती है। तुम्हारे मन में एक विशिष्ट गुणों की आवश्यकता होगी।

मैं तुम्हें यह सुझाव नहीं दूंगा कि तुम मन को रोको, बल्कि तुम इसे समझो। समझ के साथ एक चमत्मकार घटता है। चमत्कार यह है कि समझ के साथ, धीरे-धीरे, जब तुम उन कारणों को समझते हो और उन कारणों में गहराई से देखा जाता है, और उन कारणों में गहराई से देखने पर वे कारण विलीन हो जाते है। तब मन धीमा हो जाता है। परंतु बुद्धिमत्ता खोती नहीं, क्योंकि मन के साथ जबरदस्ती नहीं की जा रही होती है।

जब तुम समझ के करणों को दूर नहीं करते, तब तुम क्या कर रहे होते हो? तुम एक कार चला रहे हो, उदाहारण के लिए, और तुम एक्सीलेरेटर को दबाए चले जाते हो और साथ में दूसरे पैर से ब्रेक को भी दबाने लग जाते हो। तब कार अस्वभाविक रूप से चल रही होती है। तुम उसके यंत्र को बिगाड़ रहे होते हो। ये चेष्टा बहुत खतरनाक है। और इस बात कि बहुत अधिक संभावन बन जाती है कि तुम कोई ने कोई दुर्घटना करने को तैयार हो। ये काम साथ-साथ नहीं किए जाने चाहिए। यदि तुम ब्रेक का इस्तेमाल कर रहे हो तो तुम एक्सीलीरेटर पर से पैर को हटा लो। तुम इसे छोड़ दो, इसे मत दबाओ। यदि तुम एक्सीलीरेटर को दबा रहे हो तो ब्रेक से पैर को हटा लो। दोनों काम एक साथ मत करो। वर्ना तुम कार के सारे यंत्र को बरबाद कर दोगे। वह नष्ट हो जाएगी। तुम दो विपरीत काम एक साथ कर रहे हो।

महत्वाकांक्षा तुम लिए फिरते हो—और मन को तुम रोकने की चेष्टा करते हो? महतवकांक्षा गति निर्मित करती है, इसलिए गति को तो तुम बढ़ा रहे होते हो—और दूसरी और मन पर तुम ब्रेक भी लगा रहे हो। तुम मन के सारे सूक्ष्म यंत्र को खराब कर रहे हो। वह विनष्ट हो रहा है। इस तरह से तुम उस नष्ट कर दोगे यह अति संवेदन शील है। बहुत नाजुक यंत्र है। सारे आस्तित्व में सबसे नाजुम चीज मन ही है। इसलिए इस बारे में कृप्या मुढ़ मत बनों।

इसे रोकने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम कहते हो, ‘मैं कभी मौन का अनुभव नहीं करता और जो कुछ भी साक्षीभाव घटता है, वह अत्यल्प होता है, झलकों की भांति।

आनंदित महसूस करो। यह भी बड़ी मूल्यवान बात है। ये झलकें ये साधारण झलकें नहीं है। इन्हें बस यूं ही मत ले लो। लाखों लोग ऐसे है, जिन्हें में अत्यल्प झलकें भी नहीं घटी है। वे लोग जियेगे और मर जाएंगे। वे कभी न जानेंगे कि साक्षीभाव क्या है—एक क्षण के लिए भी नहीं। तुम आनंदित हो तुम सौभाग्यशाली हो।

पर तुम कृतज्ञ अनुभव नहीं कर रहे हो। यदि तुम कृतज्ञ अनुभव नहीं करोगे, ये झलकें विलीन हो जाएंगी। कृतज्ञ अनुभव करो, बे बढ़ेंगी। कृतज्ञता के साथ हर चीज बढ़ती है। आनंदित महसूस करो कि तुम धन्य हो—वे बढ़ेंगी। इस सकारात्मकता के साथ चीजें बढ़ेंगी।

और जो कुछ भी साक्षीभाव घटता है वह अत्यल्प होता है।

इसे अत्यल्प होने दो! यदि यह एक अकेले क्षण के लिए भी घटता है, यह घट तो रहा है, तुम्हें इसका स्वाद तो मिलेगा। और उस स्वाद के साथ, धीरे-धीरे, तुम अधिक से अधिक ऐसी स्थितियां निर्मित करोगे जिनमे यह अधिक और अधिक घटेगा।

क्या मैं अपना समय बर्बाद कर रहा हूं?’

तुम समय बर्बाद नहीं कर रहे हो, क्योंकि समय पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं हुआ है। उस पर तुम्हारी कोई मालकियत नहीं है। तुम उसी चीज को तो बर्बाद कर सकते हो जिसे पर तुम्हारी मालकियत हो। समय पर तुम्हारी कोई मालकियत नहीं है। समय तो बर्बाद होगा ही चाहे तुम ध्यान करो या न करो—समय तो नष्ट हो ही रहा है। समय तो दौड़ ही रहा है। तुम चाहे जो भी करो, तुम कुछ करो या न करो, समय की गति तो अपनी रफतार से चलती ही रहेगी। तुम समय बचा नहीं सकते हो। तब तुम इसे बर्बाद भी कैसे कर सकते हो। तुम केवल उसी चीज को बर्बाद कर सकते हो जिसे तुम बचा सकते हो।

समय तुम्हारा नहीं है। इसके विषय में तो भूल ही जाओ।

और समय का जो सर्वश्रेष्ठ उपयोग तुम कर सकते हो वह है इन झलकों को ले लेना—क्योंकि आखिर में तुम पाओंगे कि केवल वही क्षण बच गए है जो कि साक्षीभाव के क्षण थे। बाकी तो सब कुछ बह गया। खत्म हो गया। मिट गया। वह धन जो तुमने कमाया था, वह प्रतिष्ठा जो तुम ने अर्जित की थी, वह सम्मान जो तुमने प्राप्त किया था, वे सब तो समय की गोद में मिट गए। खत्म हो गये बह एक उस धार में। केवल वे क्षण जब तुम्हें साक्षी भाव की कुछ झलकें मिली, केवल वही क्षण बच गए है। केवल वही क्षण तुम्हारे साथ जाएंगे जब तुम यह जीवन छोडकर जाओगे—केवल वही क्षण तुम्हारी पूंजी है, वह तुम्हारे संग जा भी सकते है, क्योंकि वह शाश्वत की पूंजी है। वे क्षण समय के नहीं है।

परंतु आनंदित अनुभव करो कि यह घट रहा है। यह सदा धीरे-धीरे घटता है। लेकिन बूंद-बूंद से एक महासागर भर जाता है। यह बूंदों में घटता है। लेकतिन बूंदों में सागर आ रहा है। तुम बस कृतज्ञता पूर्वक, समारोह पूर्वक, सधन्यवाद इसका स्वागत्म करो।

और मन को रोकने की चेष्टा बिलकुल भी मत करो। मन को अपनी गति से चलने दो—तुम बस देखो।

 

पांचवा प्रश्न--काम उर्जा को समाधि में कैसे रूपांतरित किया जा सकता है?

 

तंत्र और योग के पास मनुष्य के भीतर का एक विशिष्ठ मानचित्र है। अच्छा हो यदि तुम इस मानचित्र को समझ लो—यह तुम्हारी मदद करेगा, यह तुम्हारी बड़ी सहायता करेगा।

तंत्र और योग कहते है कि मनुष्य के शरीर में सात केंद्र हैं—सूक्ष्म शरीर में, देह में नहीं। सच तो यह है कि ये रूपक हैं। पर आंतरिक मनुष्य के संबंध में कुछ समझने के लिए ये बहुत ही सहायक हो सकते है। ये सात चक्र इस तरह से हैं।

पहला और सर्वाधिक मूलभूत है मूलाधार—इसीलिए इसे मूलाधार कहते है। मूलाधार का अर्थ है आधारभूत, तुम्हारी जड़ों वाला। मूलाधार चक्र वह केंद्र है जहां काम-उर्जा ठीक अभी उपलब्ध है, परंतु समाज ने उस चक्र को बहुत बिगाड़ दिया है।

इस मूलाधार चक्र के तीन कोण हैं: पहला है मौखिक, मुंह, दूसरा है गुद्दा, और तीसरा है जाननेन्द्रिक। ये मूलाधार के तीन कोण हैं। बच्चा अपना जीवन मौखिक से प्रारंभ करता है, और गलत लालन-पालन के कारण बहुत से लोग मौखिक पर ही अटके रह जाते है, वे कभी बढ़ते ही नहीं। यही कारण है कि धूम्रपान, च्यूंगम, निरंतर-भोजन, करना जैसी इतनी धटनाएं घटती है। यह एक मौखिक स्थिरण है—वह केवल मुंह तक ही सिमित हो कर रह जाते है।

बहुत से ऐसे आदिम समाज है जिनमें चुम्बन नहीं लेते। सच तो यह है कि यदि बच्चा सही ढंग से बड़ा हुआ है, उसका पालन पौषण सही हुआ है तो वहा चुम्बन अद्दश्य हो जाता है। चुम्बर हमें दर्शाता है कि मनुष्य मौखिक ही रहा है। जब पहली बार आदिम समाजों को सभ्य मनुष्य के चुम्बन के विषय में पता चला, वे हंसे, उन्होंने सोचा यह तो हास्यस्पद बात है। दो आदमियों का एक दूसरे को चूमना: यह अस्वास्थ्यकर भी जान पड़ता है; हर तरह के रोग को, संक्रमण को एक दूसरे मे स्थानांतरित कर देना। और वे कर क्या रहे है? और ये सब किस लिए? परंतु मनुष्य मौखिक ही रह गया है।

बच्चा मौखिक रूप से अतृप्त रहता है। मां उसे अपना स्तन इतना अधिक नहीं देती जितना कि उसकी आवश्यकता होती है। इसलिए बच्चे सिगरेट पियेगे। बड़ा चुम्बन लेने वाला बनेगा, च्यूंगगम चबाएगा। या अधिक खाने वाला होगा। निरंतर उसे खाने की लत लगी ही रहेगी। यदि मांऐं अपने बच्चों को उनकी आवश्यकतानुसार स्तन देती रहें, तब मूलाधार क्षति-ग्रस्त नहीं होता।

यदि तुम धूम्रपानी हो, चुसनी का उपयोग करके देखो, इसने बहुत से लोगों की सहायात की है। मैं इसे बहुत लोगों को देता हूं, यदि कोई मेरे पास आता है और पूछता है कि धूम्रपान कैसे बंद किया जा सकता है। मैं कहता हूं, ‘एक चुसनी ले लो, एक नकली स्तन, और उसे अपने मुंह में रखो। इसे अपने गले में लटता लो और जब कभी भी तुम धूम्रपान करना चाहो, इस चुसनी को अपने मुंह में रख लो और इसका आनंद लो। और तीन सप्ताह के भीतर, तुम हेरान रह जाओगे, धूम्रपान की तलब विलीन हो गए है।

कहीं न कहीं, स्तन अभी भी आकर्षित करता है। यही कारण है कि आदमी स्त्रीयों के स्तनां पर इतना केंद्रित हो गया है। इसका कोई कारण नहीं जान पड़ता...क्यों? क्यों आदमी स्त्रियों के स्तनों में इतना उत्सुक है? चित्रकला, मुर्तिकला, फिल्म, अश्लील-साहित्य—हर चीज स्तनोन्मुख जान पड़ती है। और स्त्रियां भी निरंतर अपने स्तनों को छिपाने और फिर भी दिखाने की चेष्टा करती रहती है—वर्ना तो ब्रा मूढ़ता है। यह एक तरकीब है एक साथ छिपाने और दिखाने की, यह एक बड़ी विरोधाभासी तरकीब है। और अब अमरीका में जहां हर मूढ़तापूर्ण बात अपने अति पर पहुंचती है, वे इंजक्श्नप द्वारा रसायन पदार्थ, सिलिकान व अन्य वस्तुएं स्त्रियों के स्तनों के अंदर पहूंचा रहे है। वे स्तनों को सिलिकान से भर रहे हे ताकि वे बड़े हो जाए व आकार में आ जाएं—उस आकार में जिसमे अ-प्रौढ़ मनुष्यता उन्हें देखना चाहती है। यह बचकाना विचार है, पर आदमी कैसे न कैसे मौखिक ही रहता है।

यह मूलाधार की सबसे निचली अवस्था है।

फिर थोड़े से लोग मौखिक से बाहर निकल आते है और वे गुद्दे पे अटक जाते है क्योंकि दूसरी बड़ी क्षति शौच-प्रशिक्षण के साथ घटती है। बच्चों को एक निश्चित समय पर शौच जाने के लिए बाध्य किया जाता है। अब बच्चे तो अपने अंत्र-गति पर नियंत्रण रख सकते नहीं, इसमें समय लगता है, इस पर नियंत्रण पाने में तो उन्हें बरसों लग जाते हैं। इसलिए वे क्या करते है? वे बस जोर-जबरदस्ती करते हैं, वे अपने गुदीय-यंत्र को बंद कर लेते हैं, और इसी कारण वे गुद्दीय स्थिरित हो जाते है।

यहीं कारण है कि संसार में इतनी कब्जियत है। ये बीमारी केवल मनुष्य को ही है, बाकि किसी प्राणी को नहीं है। जंगली अवस्था में कोई जानवर कब्ज का शिकार नहीं होता। कब्ज मनौविज्ञानिक अधिक है। यह एक क्षति है मूलाधार को। और इस कब्ज के कारण बहुत सी चीजे मनुष्य के मन में घटने लग जाती है।

एक आदमी संग्रहकर्ता हो जाता है—संग्रहकर्ता ज्ञान का, संग्रहकर्ता धन का, संग्रहकर्ता पुण्य का—वह संग्रहकर्ता हो जाता है, और कंजूसी उसके रग-रग में समा जाती है। वह कोई चीज छोड़ ही नहीं सकता। जिस किसी चीज पर भी उसका हाथ पड़ता है, वह उसी को पकड़ लेता है। और इस गुद्दीय-प्रमुखता के कारण, मूलाधार को बड़ी क्षति पहुंचती है क्योंकि जाना तो पुरूष या स्त्री को जननेन्द्रिक तक है। यदि वे मौखिक या गुद्दीय पर स्थिर हो जाएं, तो वे जननेन्द्रिक तक कभी नहीं पहुंच पाते—यही कारण है कि समाज तुम्हें कभी भी पूरी तरह कामुक नहीं होने देता। इसी तरकिब का उपयोग कर रहा है।

तब गुद्दीय स्थिरीकरण इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि जननेन्द्रियां कम महत्वपूर्ण हो जाती हैं। इसी कारण इतनी समयौनता है। समयौनता संसार से तब तक विलीन नहीं होगी जब ते कि गुदोन्मुखता विलीन नहीं हो जाती। शौचप्रक्षिण एक बड़ा खतरनाक प्रशिक्षण है।

और फिर कुछ व्यक्ति यदि जननेन्द्रिक हो भी जाए, किसी न किसी तरह वे मौखिक व गुदीय पर स्थिर न रहें और जननेन्द्रिक हो जाए, तब मनुष्यता में काम के प्रित बड़ा अपराध-भाव निर्मित कर दिया जाता है। सेक्स को अर्थ पाप हो जाता है।

ईसाइयत ने काम को इतना बड़ा पाप माना है कि वे एक मूढ़ता पूर्ण बात को प्रस्तावित करते रहते हैं, दिखाते रहते है और उसे सिद्ध करने की चेष्टा करते रहते हैं, कि ईसा का जन्म एक चमत्कार से हुआ था, कि वह स्त्री-पुरूष के संबंध से पैदा ही नहीं हुए थे। कि मेरी कुंवारी थी। सेक्स इतन बड़ा पाप है कि जीससे की मां भला कैसे सेक्स में उतर सकती है? साधारण जन के लिए तो यह ठीक है पर जीसिस की मां का सेक्स में संलग्न हो जाना और उसी बीच जीसस का जन्म, इतना पवित्र व्यक्ति, सेक्स के द्वारा कैसे पैदा हो सकता है?

मैं पढ़ रहा था:

एक नवयुवती थी जिसकी तबीयत ठीक नहीं चल रही थी, इसलिए उसकी मां उसे एक डॉक्टर के पास ले गई, सारी बातचीत मां ने ही कीवह इसी किस्म की स्त्री थी।

वह गर्भवती है,’ डॉक्टर ने कहा।

डॉक्टर, मैं तो कहूंगी कि तुम मूर्ख हो। मेरी बेटी ने तो कभी किसी पुरूष का चुंबन तक नहीं लिया है! क्या तुमने ऐसा किया है, डार्लिंग?’ लड़की की मां ने लड़की की और मुड कर पुछा।

नहीं मम्मी, मैंने तो कभी किसी पुरूष का हाथ तक नहीं पकड़ा है।

डॉक्टर अपनी कुर्सी से उठा, और खिड़की तक गया, फिर आकाश में ताकने लगा। एक लम्बे मौन के बाद, मां ने पूछा, ‘क्या वहां कुछ गड़बड है, डॉक्टर?’

नहीं बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं। केवल इतना मात्र भेद है, पिछली बार जब ऐसी घटना घटी थी, तब पूरब में एक तारा प्रकट हुआ था—शायद इस बार इससे मैं चूकना नहीं चाहता वहीं देख रहा हूं।

सेक्स की इतनी निंदा की गई है कि तुम इसका आनंद उठा नहीं पाते हो। और यही कारण है कि उर्जा कहीं न कहीं मौखिक, गुद्दीय या जननेन्द्रिय में अटक कर रह जाती है। यह उपर नही जा पाती है।

तंत्र कहता है कि आदमी को मुक्ति दी जानी है, इन तीन चीजों से अनाकृत किया जाना है। इसलिए तंत्र कहता है कि पहला बड़ा काम तो मूलाधार में किया जाना है। मौखिक स्वतंत्रता के लिए: चीखना, हंसना, चिल्लाना, रोना-पीटना बहुत सहायक हो सकता है। इसलिए मैंने एनकाउन्टर, प्राईमल, गेस्टाल्ट और इसी तरह की समूह-चिकित्साओं को चुना है—ये सब मौखिक स्थिनतरण से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकती है। और गुद्दिय स्थिति से तुम्हें छुटकारा दिला सकती है। प्राणायम, त्रीवरश्वास प्रणाली, इसमें बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। क्योंकि यह सीधी गुद्दीय केंद्र पर चोट करती है। और धीर-धीर इस प्रकृयां के द्वारा इस गुदीयकेंद्र से मुक्त हो सकते हो। तब तुम्हारे मन को शरीर को एक विशेष शांति का अनुभव होगा। एक तनाव जो तुम लिए चल रहे हो वह मुक्त होते ही तुम र्निभार महसूस करोगे। इसलिए सक्रिय ध्यान और कुंड़लनी ध्यान को करने के लिए मैं अधिक जोर देता हूं। आज के मनुष्य के लिए यह बहुत अधिक महत्व पुर्ण है।

और फिर काम केंद्र: काम केंद्र को अपराध भाव से, निंदा से मुक्त किया जाना है। तुम्हें इसके विषय में फिर से सीखना प्रारंभ करना है। केवल तभी क्षति-ग्रस्त काम केंद्र स्वस्थ हो सकता है। वह एक स्वास्थ ढंग से कार्य कैसे कर सकता है। तुम्हें इसका आनंद उठाना फिर से सीखना है—बिना किसी अपराध भाव के।

अपराध-भाव की भी हजार किस्में हैं। हिन्दू मन में एक भय है कि वीर्य उर्जा एक महान उर्जा है—यदि एक बूंद भी खो गई तो, तुम भी गए। यह बड़ी खतरनाक कब्जियत वाली दृष्टि है। इसे जमा कर लो! तुम इस बात को जान लो की खोता कुछ भी नहीं, तुम इतना सक्रिय शक्ति हो, तुम उस उर्जा को प्रतिदिन निर्मित करते जाते हो। खोता कुछ भी नहीं है।

हिंदु मन वीर्य से, वीर्य-उर्जा से अत्याधिक ग्रस्त है। एक बूंद भी खोनी नही चाहिए। वे निरंतर भयभीत रहते है। इसलिए जब कभी भी वे संभोग करते है, यदि वे संभोग करे तो, तब वे बड़ी हताशा में पड़ जाते है, वे सोचते है कि हाए इतनी सारी उर्जा बर्बाद हो गई। इसे शरीर किस महनत से तैयार करता है। एक मुढ़ धारणा। तुम्हारे पास उर्जा की एक मृत-मात्रा नहीं है; तुम एक डायनमो हो—तुम उर्जा निर्मित करते हो तुम इसे प्रतिदिन निर्मित करते हो। सच तो यह है कि जितना अधिक तुम इसका उपयोग करते हो, उतना ही अधिक तुम्हारे पास यह होती है। यह ऐसे ही काम करता है। जैसे कि तुम्हारा सारा शरीर। यदि तुम अपने मांस-पेशियों को उपयोग में लाओंगे, वे बढ़ेगी। यदि तुम चलोगे, तुम्हारी टांगें मजबूत होंगी। यदि तुम दौड़ोगे, दौड़ने के लिए तुम्हें और उर्जा मिलेगी। यह मत सोचना कि जो व्यक्ति कभी न दौड़ा हो और अचानक दौड़ने लगे, उसके पास अधिक ऊर्जा होगी—उसके पास उर्जा होगी ही नहीं। उसके पास तो दौड़ने का पेशी-तंत्र ही न होगा।

उस सब को जो परमात्मा ने तुम्हें दिया है, उसका उपयोग करो, उसे उपयोग में लाओ और तुम्हें वह और अधिक मात्रा में मिलने लगेगा।

इसलिए एक हिंदू पागलपन है: जमा करो। यह कब्ज की तरह से है। और अब एक अमरीकन पागलपन है, वह अतिसार की तरह से कि बस फेंकों इसे, बाहर निकालने दो, अर्थपूर्ण हो, अथवा न हो, इस से कुछ लेना देना नहीं है। बस फेंकते जाओ। इसलिए अस्सी वर्ष का आदमी भी बचकाने ढंग से सोचता है। काम शुभ है, काम सुंदर है पर यह अंत नहीं है। यह एल्फा तो है, परंतु ओमेगा नहीं है। व्यक्ति को इसके पार जाना है। पर इसके पार जाना कोई निंदा नहीं है। इसके पार जाने के लिए भी इसी से होकर गुजरना होता है।

तंत्र काम के प्रति सबसे स्वस्थ दृष्टि रखता है। यह कहता है काम शुभ है, काम स्वास्थ है, काम प्राकृतिक है, परंतु मात्र पुनर्उत्पाद के अतिरिक्त काम में और अधिक संभवानएं भी है। और काम में केवल मौज-मस्ती के अलावा और भी अधिक संभावनाएं है। काम अपने में परम का कुछ अंश छिपाए है, समाधि की एक झलक छुपाए है, आनंद का एक उतंग छुपाए है।

मूलाधार चक्र को विश्रांत करना है, विश्रांत कब्जियत से, विश्रांत अतिसार से। मूलाधार चक्र को अपने अधिकतम पर, एक सौ प्रतिशत पर कार्य करना है। तभी ऊर्जा गति करना प्रारंभ करती है।

दूसरा चक्र है स्वाधिस्थान चक्र, हारा, मृत्यु-केंद्र। ये दोनों केंद्र बहुत क्षतिग्रस्त हुए है। क्योंकि मनुष्य काम से भयभीत रहा है और मनुष्य मृत्यु से भी भयभीत रहा है। इसलिए मृत्यु से दूर रहना है: मृत्यु के विषय मे बात मत करो! इसे तो भूल ही जाओ। यह तो घटती ही नहीं। यदि कभी यह घटती हो भी, इस पर कोई ध्यान मत दो। इसको अवधान में लाओ ही मत। यहीं सोचते रहो कि तुम सदा ही जीने वाले हो—मृत्यु से बचो।

तंत्र कहता है: न तो काम से बचो, न ही मृत्यु से बचो। यही कारण है कि सरहा श्मशान में ध्यान करने के लिए गया—मृत्यु से बचने के लिए नहीं। और वह तीर बनाने वाली स्त्री के साथ रहा स्वस्थ काम का, परिपूर्ण काम का, अधिकत्म काम का एक जीवन जीने के लिए। श्मशान भूमि में, एक स्त्री के साथ रहा, उस स्त्री के साथ रहने के कारण उसके क्रेंद्रों को विश्रांति मिली, उसे खिलने में सहयोग मिला, उसके द्वार पुर्णता से खुल गए। मृत्यु और काम। एक बार तुम मृत्यु को स्वीकार कर लो और इससे भयभीत न रहो, एक बार तुम काम को स्वीकार कर लो और इससे भयभीत न रहो, तुम्हारे दोनों निचले केंद्र विश्रांति में हो जाते हैं।

और यही दो वे निचले केंद्र है जो समाज द्वारा क्षति-ग्रस्त किए गये है। बुरी तरह से क्षति-ग्रस्त। एक बार ये स्वास्थ हो जाएं...बाकी पांच केंद्र क्षति-ग्रस्त नहीं होते, इन्हें क्षति-ग्रस्त करने की अवश्कता ही नहीं होती क्योंकि इन पांचों क्रेंद्र तक लोग जीते ही नहीं वहां तक पहूंचते ही नहीं। इस लिए समाज इन्हें क्षति-ग्रस्त करने के बारे मे सोचता ही नहीं क्योंकि उसका काम तो निचले दो केंद्र से ही चल जाता है। ये दो केंद्र तो प्राकृतिय रूप में उपलब्ध हैं। जन्म घट चुका है—काम केंद्र मूलाधार। और मृत्यु धटने को है: स्वाधिस्थान—दूसरा केंद्र। ये दो चीजें हर व्यक्ति के जीवन मे हैं, इसलिए समाज ने इन दोनों केंद्र को नष्ट कर दिया है। और इन्हीं दोनों की सहायता से शासन करने की चेष्टा की है।

तंत्र कहता है: ध्यान करो जब तुम संभोग मे उतरो, ध्यान करो जब कोई मरता हो—वहां जाओ, देखो, उस पर अवध्यान करो। मरते हुए व्यक्ति की बगल में कुछ क्षण के लिए बैठ जाओ। उसकी मृत्यु को महसूस करो, उसमे भागीदार बनो। मरते हुए आदमी के साथ गहन ध्यान मे उतरो। और जब कोई आदमी मर रहा होता है तब इस बात की संभावना है कि मृत्यु का स्वाद लिया जा सकता है। क्योंकि इस बात को जरा समझों कि जब कोई व्यक्ति मर रहा होता है, वह स्वाधिस्थान चक्र से बहुत सी ऊर्जा मुक्त करता है...उसे ऊर्जा मुक्त करनी पड़ती है क्योंकि वह मर जो रहा है। बिना इसे मुक्त किय वह मर भी नहीं सकता। क्योंकि स्वाधिस्थान चक्र पर समस्त दबी हुई ऊर्जा मुक्त होगी ही क्योंकि अब वहां उसका काम खत्म हो रहा है, वह मर जो रहा है। इस बात को जरा समझ लो।

इसलिए जब कोई आदमी या कोई स्त्री मरती हो, इस अवसर को चूको मत। यदि तुम किसी मरते हुए व्यक्ति के पास हो, मौन हो, शांत बैठे हो, चुपचाप ध्यान की अवस्था में बैठे हो। उस अवसर का उपयोग करे ध्यान में उतरों और देखों तुम किस सरलता से ध्यान की गहराई में उतर सकते हो। जब भी कोई मरता है तब अचानक एक विस्फोट से ऊर्जा चारों और फैल जाएगी, और तुम मृत्यु का स्वाद ले सकते हो। और उससे तुम्हें बड़ी विश्रांति मिलेगी: हां, मृत्यु घटती है, पर मरता कोई नहीं। हां, मृत्यु घटती है, पर सच तो यह है कि मृत्यु कभी घटती ही नहीं।

संभोग के समय, ध्यान करो ताकि तुम जान सको कि समाधि का कुछ अंश कामुकता में प्रवेश कर जाता है। और मृत्यु पर ध्यान करते समय, इसमे गहरे उतरो ताकि तुम देख सको कि अमर्त्य का कुछ मृत्यु में प्रवेश करता हे। ये दो प्रयोग बहुत सरतला से ऊपर जाने में तुम्हारी सहायता कर सकते है। और मैं कहता हूं की जरूर ही करेंगे।

इस बात भी जरा समझ लो, की संभोग से बाकी पांच केंद्र जो तुम्हारे है वह नष्ट नहीं होते है। वह तो उस समय समंजित होते है, बस इतना भर करना है उससे ऊर्जा को गति करने देनी है, उसे रोकना नहीं है, वे वहां पूर्णत: समंजित होते है—बस ऊर्जा से उन दोनों केंद्रों की सहायता की जाए, ऊर्जा गति करना प्रारंभ कर देती है। इसलिए मृत्यु और प्रेम को अपने ध्यान की दो विषय वस्तु होने दो। उसे सरलता और सहजता से अपने जीवन मे उतरने दो।

 

अंतिम प्रश्न: प्यारे ओशो, क्या ओशो सारे संसार में कोका-कोला के विज्ञापन की भांति ही होने जा रहा है?

 

क्यों नहीं....... ?

 

आज इतना ही

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


2 टिप्‍पणियां:

  1. अति ज्ञानवर्धक, बहुत अच्छे।


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