तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला
छठवां—प्रवचन (मैं एक विध्वंसक
हूं)
(दिनांक 26 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम
पूना।)
पहला प्रश्न: ओशो, मैंने इधर हाल ही में संबोधि के विषय में
दिव्य-स्वप्न देखने शुरू किए हैं, जो कि प्रेम व प्रसिद्धि
के दिव्य-स्वप्नों से भी अधिक मनोरम हैं। क्या आप दिव्य-स्वप्न देखने के ऊपर कुछ
कहेंगे?
यह प्रश्न प्रेम पंकज का है।
जहां तक प्रेम और प्रसिद्धि का संबंध है, दिव्य-स्वप्न देखना पूर्णता सही है--वे स्वप्न-संसार के ही अंग है। तुम
जितने चाहो स्वप्न देख सकते हो। प्रेम एक स्वप्न है, ऐसे ही
प्रसिद्धि भी, वे स्वप्न के विपरीत नहीं हैं। सच तो यह है कि
जब स्वप्न देखना बंद हो जाता है, तो वे भी गायब हो जाते है।
उनका असित्व उसी आयाम में है, सपनों के आयम में।
सपना तो अंधकार की भांति है। यह
तभी तक रहता है जब तक कि प्रकाश नहीं होता है। जब प्रकाश फे लता है, अंधकार बस वहां से विलीन हो जाता है, वह पल भर भी वहां रह नहीं सकता। सपना इसलिए है क्योंकि जीवन अंधकार पूर्ण,
फीका और उदासीन है। सपना तो तुम्हारी एक पूरकता जैसा होता है।
क्योंकि असली प्रसन्नता तो हमारे पास है ही नहीं। इसलिए उसके विषय में हम केवल
सपना ही तो देख सकते है। क्योंकि सच में हमारे पास जीवन में कुछ है ही नहीं,
यह सत्य हमें बड़ी पीड़ा देता है, तब इस सत्य को
हम कैसे सहन कर पाएगे? यह एकदम असहनीय हो जाता है। सपने इसे
सहनीय बना देते है। सपने हमारी सहायता करते है। वे हमसे कहते हैं, ‘ठहरो! जरा आज सब कुछ ठीक नहीं है? परंतु तुम चिंता
मत करो, कल देखना हर चीज ठीक हो जाएगी। हर कार्य तुम्हारी
सोच की तरह से होगा। बस कुछ तुम्हें प्रयत्न करना होगा, शायद
अभी उतना प्रयास न किया जितना की करना चाहिए था, चलों कोई
बात नहीं, तुम्हारे भाग्य ने तुम्हारा साथ न दिया होगा। कुछ
परिस्थियां तुम्हारे विपरित रही होंगी। परंतु तुम घबड़ाओ मत, सदा
तो ऐसा नहीं होगा। और देखना ईश्वर बड़ा करुणावान है, दयालु है,
संसार के सभी धर्म कहते है कि ईश्वर बड़ा दयालु है, बड़ा करुणावान है। यह आशा की धुंधलका तुम्हें घेरे ही रहता है। तुम उससे
बाहर देख ही नहीं सकते।
मुसलमान निरंतर दोहराते हैं:
अल्लाह बड़ा मेहरबान है, रहमान
है--करुणावान है, कृपालु है? क्यों वे
बार-बार दोहराते है! हर बार जब भी वे ‘अल्लाह’ शब्द का उच्चारण करते हैं, वे इसे दोहराते ही रहते
हैं--मेहरबान, दयालु, करुणावान है।
परंतु अगर वह करुणावान न हुआ तब हमारे सपने, आशाएं कहां
जाएंगे? हमारे सपनों के अस्तित्व के लिए उसे दयालु होना ही
होगा, क्योंकि वही तो हमारी आशा है, उसकी
दया में उसकी करूणा में। कल सब कुछ ठीक हो जाएगा, कल उन्हें
ठीक होना ही होगा।
दिव्य-स्वप्न देखना अच्छा है, जहां तक प्रेम और प्रसिद्धि का संबंध है,
जहां तक बाहर जाती ऊर्जाओं का संबंध है। वह तुम्हारे सपने जिवीत ही
बाहरी ऊर्जा से है। क्योंकि बाहर जाती ऊर्जा पर सवार होकर ही हम स्वप्न के लोक में
जी सकते है। यह संसार एक स्वप्न है, एक प्रतिछाया, एक विंब, हिंदुओं का यही अर्थ है जब वे इसे एक माया,
या छलाव कहते है। यह उसी धात से बना है, जिससे
स्वप्न बने होते है। यह जागी आंखों से देखा गया एक दिव्य-स्वप्न है।
लेकिन संबोधि अस्तित्व का एक
बिल्कुल भिन्न ही तल है। वहां सपने नहीं होते। और अभी भी तुम स्वप्न देखते हो तब
संबोधि अभी बहुत बहुत ही दूर है, इसलिए तो
हिंदुओं ने इसे माया कहा है, स्वप्नों के लोक में संबोधि
नहीं।
अभी उस दिन ही मैं एक सुंदर कथा
पढ़ रहा था:
एक पादरी के पास एक तोता था और
उसे बोलना सिखाने के हर संभव प्रयत्न और प्रयास के बाद भी वह तोता चुप ही रहा। इस
बात का जिक्र पादरी ने एक दिन एक वृद्धा से किया, जो उस से मिलने के लिए आई थी। उसे वृद्धा को कुछ दिलचस्पी हुई इस बात में
और उसने तुरंत कहा: ‘मेरे पास भी एक तोता है जो कि बोलता
नहीं। यह अच्छा रहेगा यदि हम इन दोनों पक्षियों को साथ-साथ रख दें और फिर देखे कि
क्या होता है।
और फिर उन दोनों ने ऐसा ही किया।
दोनों तोतो को एक बड़े पींजड़े में रख दिया गया, और दोनों कुछ दूरी पर जाकर बैठ गए जहां से वह उनकी बात को सून सके। शुरू
में तो कुछ देर शांति छाई रही, उसके बाद कुछ पंख पड़फड़ाने की
आवाज आई, और फिर वृद्ध महिला के तोते को कहते सूना गया,
‘कुछ थोड़ा सा प्रेम-श्रेम के विषय में क्या इरादा है, प्रिय आपका? जिसके उत्तर में पादरी के तोते ने कहा,
‘इसी सबके लिए तो मैं वर्षों से मौन प्रतीक्षा और प्रार्थना करता
आया हूं--आज मेरा सपना पूरा हुआ। आज मैं बोल सकता हूं।’
यदि तुम प्रेम और प्रसिद्धि के
लिए प्रतीक्षा और प्रार्थना कर रहे हो, सपने देख रहे हो, एक दिन यह घटना घटेगी ही। यह कोई
मुश्किल बात नहीं है। बस जरा सी हठधर्मिता चाहिए...और यह होता है। व्यक्ति बस
प्रयत्न करता जाए, करता ही चला जाए...यह घटेगी ही, क्योंकि यह तुम्हारा सपना है। आखिर तुम कोई न कोई ऐसा स्थान पा ही लोगे
जहां तुम इसका प्रक्षेपण कर सको और तुम इसे देख सकते हो, और
मानों कि यह सच ही हो गया है।
जब तुम किसी स्त्री या पुरुष के
प्रेम में पड़ते हो, तुम सच में कर
क्या रहे हो? तुम एक सपना अपने भीतर संजो रहे हो, उस सपने को लिए चल रहे हो, अब अचानक यह स्त्री एक
पर्दे का काम करती है। और आप को लगता है कि आपका स्वप्न पूरा हुआ है। यदि तुम सपने
देखते ही जाओ, एक न एक दिन तुम्हें कोई पर्दा मिल ही जाएगा,
कोई न कोई तुम्हारे लिए पर्दा बन ही जाएगा और तुम्हारा सपना वहां
चित्रित बन उभर आयेगा। एक सजीव सी प्रतिछाया मात्र।
परंतु संबोधि कोई सपना नहीं है।
यह तो सब सपनों को छोड़ना है। इसलिए कृपया संबोधि के विषय में सपना मत देखो। प्रेम
सपने के द्वारा संभव है, सच तो यह है कि
यह केवल सपने के द्वारा ही देखा जा सकता है, उसी के द्वारा
ही संभव है। प्रेम स्वप्नदर्शियों के लिए ही है। परंतु संबोधि सपने के द्वारा संभव
नहीं है--सपने के कारण ही तो यह असंभव हो जाती है।
संबोधि का सपना देखा और आप इससे
चुकते चले जाते हो। इसके लिए प्रतीक्षा करो और तुम इससे चूक जाओगे। फिर तुम्हें
क्या करना चाहिए? तुम्हें करना यह
चाहिए कि तुम सपने की कार्य विधि को ठीक से समझ लो। तुम संबोधि को तो अलग ही उठा
कर रख दो। यह तुम्हारा काम नहीं है। तुम तो बस सपनों की कार्य प्रणाली को ठीक से
समझ लो। और तुम यह देखो कि सपने किस से काम करते हैं। उसकी समझ ही तुम्हारे भीतर
एक तरह की स्पष्टता लाएगी। उस स्पष्टता में तुम्हारे सपने धीरे-धीरे कम होते चले
जाएंगे, और एक दिन वह अदृश्य हो जाते है।
जब सपना नहीं होता, हमारा मन सफटिक परदर्शी होता है, हमारी आंखें निर्मल हाती है, तब संबोधि का कमल खिलता
है।
संबोधि के विषय में तो तुम अभी
बिलकुल भुल ही जाओ। इस के विषय में तो तुम्हें सोचना भी नहीं है। और सच तो यह है
कि तुम इसके विषय में सोच भी कैसे सकते हो? और अगर तुम जो भी कुछ सोचोगे वह गलत ही होगा। इस के विषय में तुम आशा नहीं
कर सकते, आकांक्षा नहीं कर सकते हो? तुम्हारी
सब आशाएं गलत होंगी ही? इसकी आकांक्षा तुम कैसे कर सकते हो?
इसकी आशा या इच्छा नहीं की जा सकती। तब फिर हम कर क्या सकते है?
अपनी अपेक्षाओं, आकांक्षाओं को समझने की कोशिश करो। आशा को
इच्छाओं को जानने समझने का प्रयास करो। सपनों को समझने का प्रयत्न करो। बस यहीं एक
समझ की आवश्यकता है। तुम बस यह जानने की कोशिश करो कि तुम्हारा मन अब तक कैसे
कार्य करता रहा है। मन की कार्यविधि में झांकने प्रयास करो, उसके
अंदर झांको, देखो, अपने अचेतन मन की
अदृश्य पर्तो को जानो। बस एक बार तुम्हें मन की कार्य-प्रणाली में तुम गहरे उतर गए,
उससे लयबद्ध हो गए, उसे तुमने स्पष्टता से देख
लिया उसके जाल में झांक लिया, और वह इतना शर्मिला है तुरंत
थम जाता है। वह अब और यहां रहता ही नहीं वह इतना चंचल है, बस
वह जरा रुका नहीं कि तुम समाधिस्त हो जाते हो। उस थमने में अस्तित्व के एक बिलकुल
ही भिन्न आयाम का स्वाद तुम्हें घेर लेता है, एक सुगंध
तुम्हारे नासापुटों में भर जाती है, तुम्हारा रोआं-रोआं आनंद
से सराबोर हो उठता है।
सपने देखना एक आयाम है, अस्तित्व एक दूसरा ही आयाम है। अस्तित्व तो है,
परंतु सपना तो मात्र एक विश्वास है।
दूसरा प्रश्न: ओशो, हाल ही के कई प्रवचनों में आप गैर-समस्या पर,
हमारी समस्याओं के अनस्तित्व पर बोले।
एक दमनकारी कैथोलिक परिवार में
पालन-पौषण होने के कारण, और उतनी
ही विश्रिप्त शिक्षा-पद्धति में इक्कीस वर्ष बिता कर, क्या
आप कह रहे हैं कि सुरक्षा के हमारे वे कवच, वे सब संस्कार,
और वे सारे दमन अस्तित्व में हैं ही नहीं, उन्हें
तुरंत छोड़ा जा सकता है--अभी।
मस्तिष्क पर छूट गई, या शरीर के पेशी तंत्र पर छूट गई, उन सब छापों का क्या होगा?
यह एक बड़ा महत्वपूर्णं प्रश्न
है--यह जयानंद का प्रश्न है। प्रश्न अति महत्वपूर्णं है, क्योंकि यह मनुष्य की आंतरिक सचाई के संबंध
में दो भिन्न दृष्टियों को दर्शाता है।
पश्चिम दृष्टिकोण है समस्या के
विषय में विचार करना, समस्या के
कारणों का पता लगाना, समस्या के इतिहास में जाना, अतीत में झांकना, समस्या को एकदम जड़ से पहचानना,
मन को असंस्कारित करना या पुर्नसंस्कारित करना, शरीर को पुर्नसंस्कारित करना, या मस्तिष्क पर जो छाप
छूट गई है उन्हें निकालना--यह पश्चिमी ढंग है। मनोविश्लेषण स्मृति में जाता है,
यह वहां काम करता हैं, यह तुम्हारे बचपन में
जाता है, तुम्हारे अतीत में जाता है, यह
हर उस जगह जाकर देखना चाहता है कि समस्या कहां से प्रारंभ हुई थी। ये भी हो सकता
है कि पचास वर्ष पहले जब तुम एक बच्चे थे, समस्या तुम और
तुम्हारी मां के संबंधों को लेकर शुरू हुई हो। फिर मनोविश्लेषण पीछे की और जाता
है।
उन पचास वर्षों का इतिहास! यह एक
बड़ा, घसीटने वाला मामला है। और फिर भी इससे
अधिक सहायता नहीं मिलती--क्योंकि लाखों समस्याएं है। यह कोई एक ही समस्या का संबंध
थोड़े ही है। तुम एक समस्या के इतिहास में जा सकते हो, तुम
अपनी पिछलें जीवन में झांक सकते हो उस समस्या का कारण मालुम कर सकते हो। शायद इस
तरह से तुम एक आध समस्या का हल भी निकाल लो, परंतु समस्याएं
तो लाखों है। यदि तुम हर समस्या में जानना प्रारंभ कर दो--एक जन्म की समस्याओं को
हल करने के लिए तुम्हें लाखों जन्मों की आवश्यकता पड़ेगी। मुझे इसे जरा फिर से कहने
दो: एक जन्म कि समस्या को हल करने के लिए तुम्हें बार-बार पैदा होना होगा। शायद
लाखों बार। फिर भी यह लगभग असंभव है। यह नहीं किया जा सकता। और उन लाखों जन्मों
में जब तुम इन समस्यों को हल कर रहे होग, तब उन जन्मों कि
फिर लाखों समस्याएं पैदा हो जाएंगी। यह तो विशियष र्वतुल पैदा हो जाएगा। और तुम
सदा उस दुशचक्र में फंसे ही रहोगे। तुम समस्याओं में अधिक से अधिक उलझते ही चले
जाओगे, यह तो अर्थहीन है।
अब, वही मनोविश्लेषण दृष्टि शरीर में भी गई है:
रॉल्ंफिग, जीव-ऊर्जा और दूसरी विधियों से जो शरीर की छापों
को, पेशी-तंत्र पर पड़ी छापों को मिटाने की चेष्टा करती हैं।
पुनः, तुम्हारे शरीर के इतिहास में जाना होगा, लेकिन इन दोनों दृष्टियों में, जो कि एक ही तार्किक
ढांचे पर स्थापित हैं, एक बात निश्चित है कि समस्या अतीत से
आती है, अतः इसके हल के लिए भी अतीत के साथ ही कुछ न कुछ
करना होगा।
मनुष्य का मन सदा दो असंभव कार्य
करने का प्रयत्न करता रहा है। पहला है: अतीत को सुधारना--जो कि किया नहीं जा सकता।
अतीत तो बीत चुका है। तुम सच में अतीत में जा नहीं सकते हो। जब तुम अतीत में जाने
की सोचते हो, अधिक से अधिक तुम उसकी स्मृति में जा
सकते हो, यह सच्चा अतीत नहीं है, यह
मात्र स्मृति है। अतीत अब है ही नहीं, इसलिए तुम इसे सुधार
भी नहीं सकते। यह मनुष्य के असंभव प्रयासों में एक है, शायद
मनुष्य इस वजह से भी बहुत ही दुख उठता चला आ रहा है। तुम अतीत को अनकिया करना
चाहते हो--तुम इसे अनकिया कैसे कर सकते हो? अतीत तो पूर्ण हो
चुका, वह तो बीत चुका है। अब इसे सुधारने या अनकिया करने की
संभावना बचती ही नहीं। तुम अतीत के साथ कुछ भी नहीं कर सकते।
और दूसरा असंभव विचार जिसने सदा
मनुष्य के मन पर अधिपत्य जमाया है, वह है: भविष्य को स्थापित करना--जिसे भी करना लगभग न मुमकिन है, जिसे नहीं किया जा सकता। भविष्य का अर्थ है वह जो अभी आया ही नहीं है,
तुम भला इसे कैसे स्थापित कर सकते हो? भविष्य
सदा अनिश्चित ही रहेगा। भविष्य सदा खुला रहता है, भविष्य
तुम्हारी शुद्ध संभावना है। जब तक की यह घट ही न जाए, तुम
इसके विषय में सुनिश्चित नहीं हो सकते।
अतीत तुम्हारी शुद्ध यथार्थता
है--यह घट चुका है। अब इस के विषय में कुछ भी नहीं किया जा सकता।
अब मन इन दो असंभव के विषय के
बीच में सोचता है, परंतु मनुष्य तो
यहां अभी वर्तमान में खड़ा है। वह अपने भविष्य के विषय में, कल
के विषय में, सब कुछ सुनिश्चित करना चाहता है। जो कि कभी
नहीं किया जा सकने वाला कार्य है। इस बात को अपने हृदय में जितना गहरे में बिठा
सकते हो बिठा लो, जितना गहरे में इसे पैठ जाने दो: यह कभी न किया
जा सकता है। भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए अपने वर्तमान के क्षण को नष्ट मत
करो। भविष्य अनिश्चितता है, भविष्य का यही तो गुण है। और
पीछे मुड़ कर देखने में अपना समय नष्ट मत करो। अतीत घट चुका है, यह एक मृत घटना बन चुकी है। इसके बारे में और कुछ भी नही किया जा सकता है।
अधिक से अधिक जो तुम कर सकते हो वह है इसकी पुर्नव्याख्या बस इतना ही। वही तो
मनोविश्लेषण कर रहा है: इसकी पुर्नव्याख्या बस इतना मात्र। पुर्नव्याख्या की जा
सकती है, परंतु अतीत को बदला नहीं जा सकता वह तो वैसा का
वैसा ही रहता है।
मनोविश्लेषक और ज्योतिष: ज्योतिष
भी किसी भी तरह से भविष्य को र्निधारित करने की कोशिश कहता है, और मनोविश्लेषण अतीत को अनकिया करने का प्रयास
करता है। इनमें से कोई भी विज्ञान नहीं है। दोनों बातें असंभव है, पर दोनों के अनुयायी हैं--क्योंकि आदमी ऐसा चाहता है। वह भविष्य के बारे
में सुनिश्चित होना चाहता है। इसलिए तो वह ज्योतिषियों के पास जाता है। वह आई-चिंग
देखता है, वह टैरट पढ़ने वाले के पास जाता है। और स्वयं को
मूर्ख बनाता रहता है, स्वयं को धोखा देने की हजार तरकीबें
करता ही रहता है।
और फिर ऐसे लोग भी है जो कहते
हैं कि वह तुम्हारे अतीत को बदल सकते है, वह उन से भी परामर्श करता है।
एक बार तुम्हारी ये दोनों पर्ते
छूट जाए, तुम इन से मुक्त हो जाओ, तब ही तुम हर तरह की मुर्खता से छूटकारा पा जाते हो। फिर तुम मनोविश्लेषक
के पास नहीं जाते, तुम किसी ज्योतिषी के पास नहीं जाते हो।
तब तुम जानते हो कि अतीत तो समाप्त हो चूका है...अब उसे अनकिया नहीं किया जा सकता
है। तुम केवल वर्तमान में खड़े रह जाते हो। जो की एक मात्र अपलब्ध क्षण तुम्हारे
पास है, उसे तुम पुर्णता से भोग सकते हो जी सकते हो, आनंदित हो सकते हो।
पश्चिम निरंतर इन समस्याओं में
देखता रहा है, इन्हें कैसे हल किया जाए। पश्चिम
समस्याओं को बड़ी गंभीरता से लेता है। और जब तुम दिए गये पूर्वनुमानों के साथ किसी
तर्क में जाते हा, वह तर्क एकदम सही जान पड़ता है।
मैं हाल ही में एक वृतांत पढ़ रहा
था:
एक महान दार्शनिक और
विश्वविख्यात गणितज्ञ हवाई जहाज में बैठे थे। एक अपनी सीट पर बैठा बड़ी गणितीय
समस्याओं पर विचार कर रहा होता है, जबकि अचानक जहाज के कैप्टेन की और से अद्घोषणा होती है: ‘मुझे खेद है कुछ देरी हो जाएगी। इंजन नम्बर एक बंद हो गया है, और अब हम तीन ही इंजनों पर उड़ रहे है।’
दस मिनट के बाद दूसरी उद्धोषणा: ‘मुझे खेद के साथ आपको सुचित करना पड़ रहा है कि,
इंजन नम्बर दो और तीन भी बंद हो गए है। और अब मात्र इंजन नम्बर चार
ही बचा है।’
तब वह दार्शनिक अपने पास कि सीट
पर बैठे हुए यात्री की और मुड़ता है और उससे कहता है, ‘यह तो खूब रही अगर यह इंजन भी बंद हो जाएंगा तो हमें सारी रात अधर में ही
लटका रहना पड़ जाएगा।’
जब तुम एक ही विशेष रेखा में
सोचते हो, तो इसकी दशा ही कुछ बातों को संभव बना
देती है, अर्थहीन बातें भी संभव हो जाती है। एक बार तुमने
मनुष्य की समस्याओं को गंभीरता से ले लिया, एक बार तुमने
मनुष्य को एक समस्या की तरह सोचना शुरु कर दिया, तुमने एक
बात तो पहले से ही मान ली--तुमने पहला कदम तो गलत उठा ही लिया। अब तुम उस दिशा में
जा सकते हो, और तुम जितना चाहो, चलते
चले जा सकते हो। अब मन के विषय मैं, मनोविश्लेषण के संबंध
में इस सदी में इतना साहित्य उत्पन्न हुआ है, लाखों लेख,
कृतियां, और पुस्तकें लिखी गई हैं। एक बार
फ्रॉयड ने एक तर्क-विशेष के द्वार खोल दिए, इसने पूरी सदी पर
अपना आधिपत्य जमा लिया है।
पूरब की एक बिलकुल ही भिन्न
दृष्टि है। पहली बात, यह कहता है कि
कोई भी समस्या गंभीर नहीं है। जिस क्षण तुम कहते हो कि कोई भी समस्या गंभीर नहीं
है, करीब-करीब निन्यानबे प्रतिशत तो समस्या मर ही जाती है।
फिर इसके विषय में तुम्हारी समस्त दृष्टि ही बदल जाती है। और दूसरी बात जो पूर्व
कहता है, वह यह है: समस्या इसलिए है कि तुम्हारा इससे
तादात्म्य हो गया है। इसका अतीत से कोई संबंध नहीं है, इसके
इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारा इससे तादात्म्य हो गया है--असली बात तो
यही है। और यही कुंजी है सभी समस्याओं को हल करने की।
उदाहारण के लिए, तुम एक क्रोधी व्यक्ति हो। यदि तुम
मनोविश्लेषक के पास जाओ, वह कहेगा, ‘अतीत
में जाओ...और यह देखो कि ये क्रोध कैसे उत्पन हुआ? किन
परिस्थितियों में यह तुम्हारे मन पर अधिक से अधिक संस्कारित हुआ, अंकित हुआ। हमें उन सब चिन्हों को धो देना होगा, हमें
उन्हें पोंछ देना पड़ेगा। हमें तुम्हारे अतीत को पूरी तरह से साफ कर देना पड़ेगा।’
यदि तुम किसी पूरबी रहस्यदर्शी
के पास जाओ, वह कहेगा: ‘तुम
सोचते हो कि तुम क्रोध हो, तुम क्रोध के साथ तादात्मय अनुभव
करते हो--यही तो गड़बड़ी हो रही है। अगली बार जब क्रोध उठे, तुम
बस देखने वाले रहो, तुम मात्र साक्षी बनो। तुम क्रोध से
तादात्म्य मत करो। मत कहो, ‘मैं क्रोध हूं।’ मत कहो, ‘मैं क्रोधी हूं।’ इसे
ऐसे घटता हुआ देखो जैसे कि यह टी. वी. के पर्दे पर चल रहा है, बस इसे तरह से इसे देखों तुम तो देख रहे हो, मात्र
दृष्टा की तरह दूर खड़े होकर। केवल साक्षी बन कर।’
तुम तो एक विशुद्ध चेतना हो। जब
क्रोध का बादल तुम्हें धेरे इसे बस देखो, और सजग रहो ताकि तुम्हारा तादात्मय न बन जाए। एक बार तुमने यह बात सीख
ली...और फिर ‘इतनी सारी समस्याएं’ का
कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता है--क्योंकि कुंजी, वही कुंजी तो
सारे ताले खोल देगी। यही बात क्रोध के साथ है, यही बात लालच
के साथ है, यही बात काम के साथ भी है, मन
जिन सब चीजों के लिए सक्षम है यही बात उन सभी के साथ है।
पूरब कहता है: बस अतादात्यत्मित
रहो। याद रखो यही तो गुर्जिएफ का अर्थ है जब वह कहता है, ‘आत्म-स्मरण। स्मरण रखो कि तुम एक साक्षी हो!
ध्यानपूर्ण रहो! होशपूर्ण जागे रहो! यही तो बुद्ध भी कहते है, सजग रहो, जैसे की बादल गुजर रहा है। हो सकता है कि
वह बादल अतीत से आता हो, पर यह बात निरर्थक है। इसका कोई
विशेष अतीत होगा ही, यह शुन्य से तो आ नहीं सकता। यह घटनाओं
के एक क्रम-विशेष से ही आ रहा होगा--पर यह बात असंगत है। ठीक अभी, इसी क्षण में ही, तुम इससे विरक्त हो सकते हो,
तुम स्वयं को इससे दूर रख सकते हो। पुल को ठीक अभी तोड़ा जा सकता
है--और यह केवल अभी में ही तोड़ा जा सकता है।
अतीत में जाने से सहायता न
मिलेगी। तीस वर्ष पहले, क्रोध उठा और उस
क्षण तुम उसके साथ तादात्म्यित हो गए। अब अतीत से तो तुम अतादात्म्यित हो सकते
नहीं, यह तो अब है ही नहीं। पर इस क्षण ठीक इसी क्षण,
तुम अतादात्यिमत हो सकते हो। और तब तुम्हें अतीत के क्र्रोध
समस्त-श्रृंखला तुम्हारा हिस्सा नही रहती।
प्रश्न संगत है। इस जयानंद ने
पूछा है: ‘हाल ही कई प्रवचनों में आप गैर-समस्या
पर, हमार समस्याओं के अनस्तित्व पर बोले हैं। एक दमनकारी
कैथोलिक परिवार में पालन पोषण कराकर...’
तुम ठीक अभी और यही एक
गैर-कैथोलिक हो सकते हो। अभी! मैं कहता हूं। तुम्हें पीछे जाना ही नहीं होगा और वह
सब अनकिया करना नहीं होगा जो तुम्हारे माता-पिता ने, तुम्हारे समाज ने, तुम्हारे पुरोहित ने और चर्च ने
तुम्हारे साथ किया है। वह तो इस कीमती समय कि बर्बादी ही होगी, आज है, हमारा अस्तित्व, मात्र
होना, उसे बीते हुए कल के लिए हम इसे नाहक खो रहें हैं। पहले
से इसने इतने सारे वर्ष नष्ट कर दिए हैं, अब फिर से यह
वर्तमान क्षणों नष्ट करने लग जाएगा। तुम बस इससे बाहर निकल आ सकते हो, ठीक वैसे ही जैसे सांप अपनी केंचुली छोड़ कर सरक जाता है।
‘एक दमनकारी कैथोलिक परिवार में
पालन-पोषण कराके और एक उतनी ही उन्मंत शिक्षा पद्धति मे इक्कीस वर्ष बिता कर क्या
आप कह रहे हैं कि सुरक्षा के हमारे वे कवच, वे सब संस्कार,
और वे सारे दमन अस्तित्व में हैं ही नहीं...?
न वे हैं...। पर उनका अस्तित्व
या तो शरीर में है या तुम्हारे मस्तिष्क में है, इससे अधिक नहीं। उनका तुम्हारी चेतना तुम्हारे अस्तित्व से कुछ लेना-देना
नहीं है। क्योंकि चेतना को संस्कारित नहीं किया जा सकता। चेतना तो हमेशा मुक्त
रहती है। मुक्ति इसका आंतरिक गुण है, स्वतंत्रता इसका स्वभाव
है। सच तो यह है कि यह प्रश्न पूछने में भी तुम उस स्वतंत्रता को दर्शा रहे हो।
जब तुम कहते हो, ‘एक उन्मत शिक्षा पद्धति में इक्कीस वर्ष,
जब तुम कहते हो, ‘एक दमनपूर्ण कैथोलिक परिवार
मे पालन पोषण कराके’--इस ‘क्षण’
में तो तुम तादात्मित नहीं हो। तुम देख सकते हो: कैथोलिक दमन के
इतने वर्ष, एक शिक्षा-विशेष के इतने सारे वर्ष। इस क्षण में,
जब तुम इसे देख रहे होते हो, यह चेतना अब
कैथोलिक तो नहीं हैं, वर्ना तो इसके प्रति सजग कौन होता?
यदि तुम सच में ही कैथोलिक हो गए होते, तब सजग
कौन हुआ होता। तब तो सजग हो पाने की कोई संभावना न रही होती।
यदि तुम कह सकते हो, ‘एक उतनी उन्मंत शिक्षा-पद्धति में इक्कीस
वर्ष,’ एक बात सुनिश्चित है: तुम अभी उन्मंत नहीं हो। पद्धति
असफल हो गई, यह आपना काम नहीं कर सकी। जयानंद, तुम उन्मंत नहीं हो इसलिए तुम समस्त पद्धति को उन्मंत देख सकते हो। एक
पागल व्यक्ति यह नहीं देख सकता कि वह पागल है। केवल एक स्थिर चित व्यक्ति ही देख
सकता है कि यह पागलपन है। पागलपन को पागलपन की भांति देख पाने के लिए स्थिर बुद्धि
की आवश्यकता पड़ती है। उन्मंत पद्धति के वे इक्कीस वर्ष असफल हो गये है, वह समडत दमनकार संस्कारिता असफल हा गई हैं। यह सच में सफल हो भी नहीं
सकती। यह उसी अनुपात मे सफल होती है जिस अनुपात में तुम इससे तादात्मित होते हो।
किसी भी क्षण तुम अलग खड़े हो जा सकते हो...यह वहां है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि
यह वहां नहीं है, पर यह अब तुम्हारी चेतना का अंग न रही।
चेतना की यही तो सुंदरता है, चेतना किसी भी वस्तु से खिसक सकती है। उसके
लिए कुछ बाधा नहीं है। इसके लिए कोई सीमा नहीं है, अभी एक
क्षण पहले तुम एक अंग्रेज थे--राष्ट्रीयता की बकवास को समझ के, एक क्षण बाद ही तुम अंग्रेज नहीं रहे। मैं यह नही कह रहा हूं कि तुम्हारी
श्वेत त्वचा बदल जाएगी, यह श्वेत ही रहेगा--पर तुम इस
श्वेतता से तादात्मित नहीं रहते, तुम अब काली त्वचा के
विपरीत नहीं होते। तुम इस मुढ़ता को देख लेते हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बस यह
देख कर कि तुम अब अंग्रेज न हरे, तुम अंग्रेजी भाषा भूल
जाओगे, नहीं। यह अभी भी तुम्हारी स्मृति में बनी रहेगी,
परंतु तुम्हारी चेतना वहां से सरक आई है। तुम्हारी चेत
ना अब पहाड़ी की चोटी पर खड़ी है, उपर से बस निहार रही है, उपर से बादियों से झांक रही है। अब, अंग्रेज तो वादी
में मृत है और तुम पहाड़ी पर खड़े हो, दूर, असंबद्ध, अछूते, साक्षी की
तरह।
पूरब की सारी प्रक्रिया एक शब्द
में बताई जा सकती है--‘साक्षीभाव।’
और पश्चिम की समस्त प्रक्रिया एक शब्द में जाहिर की जा सकती है: ‘विश्लेषण।’ विश्लेषण से तो तुम वतुर्ल में फंस जाते
हो, बस गोल-गोल ही धूमते रहते हो परीधि के आस पास। और
सा़क्षी भाव तुम्हें तुरंत घेरे के बाहर फैंक देता है।
विश्लेषण एक दुष्चक्र है। यदि सच
में ही तुम विश्लेषण में जाओ, तुम बस
हैरान हो जाओगे--यह कैसे संभव है, यदि, उदाहरण के लिए, तुम अतीत में जाने का प्रयास करो,
तुम कहां रूकोगे? ठीक कहां पर? यदि तुम अतीत में जाओ, तुम्हारी कामुकता कहां से
शुरू हुई? जब तुम चौदह वर्ष के थे? परंतु
तब यह क्या आकाश से टपक पड़ी? यह देह में तैयार हो रही होगी।
इसलिए कब? जब तुम पैदा हुए? पर जब तुम
मां के गर्भ में थे, तब क्या यह तैयार नहीं हो रही थी?
तब किस समय? जिस क्षण तुम्हारा गर्भाधान हुआ?
पर उससे पहले? तुम्हारी आधी कामुकता तुम्हारी
मां के अंडे में परिपक्व थी, और बाकि आधी तुम्हारे पिता के
वीर्य मे परिपक्व हो रही थी। अब चले जाओ...कहां तुम रूकोगे? तुम्हें
आदम और हव्वा तक जाना होगा। और फिर भी यह बात खत्म नहीं होती: तुम्हें स्वयं पिता
ईश्वर तक जाना ही पड़ेगा। उसने अव्वल तो आदम को बनाया ही क्यों?...
विश्लेषण तो सदा अधूरा ही रहेगा, इसलिए विश्लेषण सच में किसी की सहायता नहीं कर
पाता। यह कर नहीं सकता। यह तुम्हें तुम्हारी वास्तविकता से थोड़ा सा समायोजित कर
देता है, बस इतना ही। यह एक तरह का समायोजन ही है। यह
तुम्हारी सहायता करता है तुम्हारी समस्याओं को थोड़ा समझने में। उनकी उत्पत्ति कैसे
हुई, वह उठी कहां से है। वह क्यों उठी हैं? और यह थोड़ी सी बोधिक समझ तुम्हें समाज से बेहतर समायोजित होने में सहायता
करती है, पर रहते हो तुम वही के वही। तुम्हारे व्यक्तित्व
में कोई बदलाव नहीं आता। इस सब से कोई रूपांतरण नहीं आता, इसके
द्वारा कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं होता।
साक्षी भाव क्रांति है, यह एक आधारभूत परिवर्तन है--एकदम जड़ से! यह एक
बिल्कुल ही नए व्यक्ति को अस्तित्व में ले आता है, क्योंकि
यह तुम्हारी चेतना को समस्त संस्कारों से मुक्तत करा लेता है। हमारे देह में और मन
में तो संस्कार होते है। परंतु हमारी चेतना तो असंस्कारित ही रहती है सदा कुंआरी
नवीन। यह शुद्ध है, सर्वदा शुद्ध। यह नव-नूतन, अनछुई कुंआरी है। इसका कौमार्य नष्ट नहीं किया जा सकता।
पूरब का दृष्टिकोण है तुम्हें
स्मृति दिलाना इस कुंआरी चेतना का, उसकी शुद्धता का, उसकी निर्दोषता का। यही तो सराह
राजा से कह रहा है, बार-बार कह रहा है। हमारा जोर आकाश पर है
और पश्चिम का जोर मेधों पर हैं। मेधों की एक उत्पति है, यदि
तुम जानना चाहो कि वह कहां से आते है, तुम को समुद्र तक जाना
होगा, फिर सूरज की किरणों तक और जल के वाष्पीकरण पर, मेधों के बनने पर...और तुम चलते रह सकते हो, पर यह
एक गोल घेरे वर्तुल की तरह घूमनें जैसा ही है। बादल बनते है, फिर धिर आते है, वृक्षों के प्रेम में पड़ते है,
फिर से पृथ्वी पर बरसना शुरू कर देते है, नदियां
बन जाते हैं, नदियां फिर से समुद्र में गिर जाती हैं। फिर
वाष्प बन कर सूर्य कि किरणों पर चढ़ कर बादल बन जाते है, फिर
बरस पड़ते है। ये चक्र चलता ही रहता है, ये रूकता ही नहीं। बस
गोल-गोल। यह तो एक चक्र हुआ, तुम इससे बाहर कैसे निकल सकते हो।
एक बात से दूसरी बात फिर वहीं दोहराव, तुम चक्र से बाहर निकल
ही नहीं पाते। इसे संसार चक्र कहा है हिंदुओं ने।
आकाश की कोई उत्पति नहीं है।
आकाश असृजित है, यह किसी चीज से
नहीं बनता। सच तो यह है कि किसी का अस्तित्व, रूप, आकार होने के लिए आकाश की घट की आवश्यता होती ही है। यह एक अति आवश्क है,
पहले से जरूरी है, किसी रूप का बनना, वहां आकाश होना ही चाहिए। तुम ईसाई धर्मशास्त्री से पूछ सकते हो--वह कहता
है, ‘ईश्वर ने संसार की रचना की।’ उससे
पूछो कि ईश्वर की रचना से पहले क्या यहां आकाश नहीं था, तब
तुम्हारा ईश्वर कहां रहता था, उसने संसार कहां से रचा?
उसने संसार को कहां रखा? आकाश बहुत ही जरूरी
है...ईश्वर के होने के लिए भी। तुम यह नहीं कह सकते, ‘ईशवर
ने आकाश बनया।’ यह अर्थहीन होगा, क्योंकि
तब उसके पास होने के लिए कोई स्थान ही नहीं होगा। आकाश को पहले होना ही चाहिए।
आकाश तो सदा से रहा है। पूरब के
दृष्टिकोण से आकाश के प्रति स्मृतिपूर्ण हो जाना। पश्चिम दृष्टिकोण तुम्हें मेधों
के प्रति और अधिक सजग बनाता है। और तुम्हारी थोड़ी सी सहायता भी करता है। पर यह
तुम्हें तुम्हारे अंतर्तम केंन्द्र के प्रति जागरूक नहीं बनाता। परिधि-हां परिधि
के प्रति तो तुम थोड़े से सजग हो जाते हो, परंतु केंद्र के प्रति सजग नहीं होते। और परिधि तो एक चक्रवात है। तुम्हें
तो चक्रवात का केन्द्र ढूंढना है। और यह घटना साक्षी भाव से ही घटती है।
साक्षीभाव तुम्हारे संस्कारों को
बदलेगा नहीं। साक्षीभाव तुम्हारे पेशीतंत्र तुम्हारे शरीक सरंचना को बदलेगा नहीं।
लेकिन साक्षीभाव तुम्हें बस यह अनुभव दे देगा कि तुम सब दबी भावनाओं और संस्कारों
के पार हो जाओंगे। पार होने के उस क्षण में भावातीतता के उस क्षण में किसी समस्या
का अस्तित्व नहीं होता—तुम्हारे लिए तो कम से कम नहीं।
और अब यह तुम पर निर्भर करता है।
शरीर तो अभी भी उसी पेशीतंत्र को लिए रहेगा, मन तो अभी भी उन्हीं संस्कारों को लिए रहेगा—अब यह तुम पर है: यदि तुम्हें
कभी समस्या की लालसा उठे, तुम मन-शरीर में जा सकते हो और
उसका (समस्या का) आनंद उठा सकते हो। यदि तुम समस्या को न चाहो, तुम इससे बाहर रह सकते हो। शरीर-मन की घटना में एक छापे की भांति समस्या
रहेगी तो, पर तुम इससे अलग और दूर रहोगे।
इसी तरह तो एक बुद्ध पुरूष कार्य
करता है। तुम भी स्मृति का उपयोग करते हो, बुद्ध पुरूष भी स्मृति का उपयोग करता है—पर वह इससे तादात्मिक नहीं होता।
वह स्मृति का उपयोग यंत्र की भांति करता है। उदाहरण के लिए मैं भाषा का उपयोग कर
रहा हूं। जब मुझे भाषा का उपयोग करना होता है, मैं मन का और
उसके समस्त छापों का उपयोग करता हूं लेकिन यह जागरूकता कि मैं मन नहीं हूं,
निरंतर बनी ही रहती है। इसलिए मालिक मैं ही रहता हूं, मन तो एक सेवककी भांति रहता है। जब मन को बुलाया जाता है, यह आता है—पर अधिपत्य इसका नहीं हो सकता।
इसलिए तुम्हारा प्रश्न सही है:
समस्याएं तो होंगी पर वे शरीर और मन में केवल बीज रूप में रहेंगी। अपने अतीत को
तुम कैसे बदल सकते हो? तुम अतित में एक कैथोलिक रहे हो, यदि चालीस वर्ष तक तुम एक कैथोलिक रहे हो, तब उन
चालीस वर्षों को तुम कैसे बदल सकते हो। और कैसे एक कैथोलिक नहीं हो सकते हो। वे
चालीस वर्ष तो कैथोलिक रहने के एक समय के रूप में रहेंगे ही। न-पर तुम इससे खिसक
जा सकते हो। अब तुम जानते हो कि वह मात्र एक तादात्म्य था। उन चालीस वर्षों को
नष्ट नहीं किया जा सकता और उन्हें नष्ट
करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम उन चालीस वर्षों को भी एक निश्चित ढंग से,
एक सृजनात्मक ढंग से उपयोग में ला सकते हो। वह उन्मत्त शिक्षा भी एक
सृजनात्मक ढंग से उपयोग में लाई जा सकती है।
मस्तिष्क पर छूट गई, शरीर के पेशी-तंत्र पर छूट गई उन सब छोपों का
क्या होगा?
वे वहां रहेंगी, पर एक बीज की भांति: सम्भावना की तरह से। यदि
तुम बहुत अकेलापन अनुभव करो और तुम्हें समस्याओं की याद आए, तो
तुम उन्हें रख सकते हो। यदि तुम दुःख के बिना बड़े दुःखी महसूस करो, तुम उन्हें रख सकते हो। वे सदा उपलब्ध रहेंगी, पर
उन्हें रखने की कोई आवश्यकता नहीं है, उन्हें रखने की कोई
जरूरत नहीं है। यह तुम्हारा ही चुनाव रहेगा।
आने वाली मनुष्यता को यह निर्णय
करना होगा कि क्या इसे विश्लेषण ही के मार्ग पर चलते रहना है या कि मार्ग बदल कर
इसे साक्षीभाव के मार्ग पर आ जाना है। मैं दोनों विधियों का उपयोग करता हूं। मैं
विश्लेषण का उपयोग करता हूं विशेष रूप से उन साधकों के लिए जो पश्चिम से आते है—मैं
उन्हें समूहचिकित्सा से गुजारता हूं। वे समूह विश्लेषण वादी हैं। वे समूह
मनो-वेश्लेषण के उप-उत्पाद हैं। वे विकसित हुए हैं, फ्रॉयड यादि यहां आए तो एन्काउन्टर (ग्रुप) को वह पहचान न पाएगा। या
प्राइमल थैरेपी उसे पहचान पान मुश्किल हो जाएगी। यह क्या हो रहा है? क्या ये सब लोग पागल हो गए है? लेकिन ये उसी के काम
की प्रशाखाएं हैं: वही प्रणेता था, उस के बिना कोई प्राइमल
थैरेपी न होती। उसने ही यह सारा खेल शुरू किया था।
जब पश्चिम के लोग मेरे पास आते
हैं, मैं उन्हें समूहों में रख देता हूं। यह
उनके लिए अच्छा है। उन्हें उसी चीज से प्रारंभ करना चाहिए जो उनके लिए सरल हो। फिर
धीरे-धीरे मैं बदलता हूं। पहले तो वे रेचक समूहों में, जैसे
एनकाउंटर, प्राइमल थैरेपी, में जाते
हैं, और फिर मैं उन्हें विपसना में भेजता हूं। विपस्सना है
एक साक्षीभाव। एन्काउटर से विपस्सना में बड़ा संस्लेषण है। जब तुम एन्काउंटर से
विपस्सना में जाते हो, तुम पश्चिम से पूरब में जाते होते हो।
तीसरा प्रश्न: क्या आपके कृत्य
भी संसार में शुभ और अशुभ का वही अनुपात लाते हैं?
कौन से कृत्य? क्या तुम मुझ में कोई कृत्य खोज पाते
हो...बोलने के अतिरिक्त? और उसमें भी, मैं
हर सावधानी लेता हूं कि मैं जो भी कहूं उस का खण्डन करने वाली बात भी कह दूं। इसलिए
अंत में, बस रिक्तता...यही खण्डन का उपयोग है। यदि मैं कहता
हूं धन एक, तो तुरंत मैं कहता हूं, झण
एक—और कुल परिणाम है शून्य।
मैं कर्ता नहीं हूं। मैं कुछ
करता ही नहीं। वह सब जिसे तुम कृत्य कह सकते हो वह है मेरा तुमसे बोलना। और वह
इतना अंत र्विरोधी है कि यह शुभ या अशुभ कुछ नहीं ला सकता। मैं स्वयं को ही नकारत
जाता हूं। और यदि तुम अ-कर्म की इस अवस्था को समझ गए, तुम चेतना की सर्वोच्च संभावना को समझ लोगे।
सर्वोच्च चेतना कर्ता नहीं है। यह तो एक होना मात्र है। और यदि कर्म जैसी कोई चीज
वहां दिखाई भी पड़ती है, यह तो बस एक खेल है। मेरा बोलना बस
एक खेल है।
और कुल प्रयास यह है कि तुम मेरे
प्रति मतवादी न हो जाओ। तुम हो भी नहीं सकते—मैं वैसी संभावना ही नहीं छोड़ता। मैं
इतना खण्डन करता हूं, कैसे तुम कोई मत
निर्मित कर सकते हो? यदि तुम कोई मत निर्मित करने की चेष्टा
भी करो, तुम पाओगे कि मैंने इसका भी खण्डन किया है।
एक ईसाई मिशनरी मेरे पास आया
करता था, और उसने कहा, ‘आपने
तो इतना बोला है। अब जिस चीज की आवश्यकता है वह एक है एक छोटी सी किताब जो कि आपके
दर्शन को प्रस्तुत कर सके—ईसाई प्रश्नौतर पुस्तिका जैसी कोई चीज, संक्षेप में।’
तब मैंने कहा, ‘यह कठिन होगा। यदि कोई मुझे संक्षेप में बताने जा रहा है, वह पागल हो जाएगा। और उसे चुनने का, और क्या चुने
इसका कोई उपाय न सूझेगा। जब मैं जा चुका होऊंगा, बहुत से लोग
मेरे ऊपर पी. एच. डी. थीसिस लिखने में पागल हो जाएंगे-क्योंकि जो कुछ भी कहा जा
सकता है वह मैंने कह दिया है जो कुछ नकारा जा सकता है वह मैंने नकार दिया है।’
चौथा प्रश्न: एक प्रश्न
अ-विश्वास में—आप अहंकार के इतने विरोध में क्यों बोलते है? क्या अहंकार भी ईश्वर का ही एक रूप नहीं है,
अस्तित्व द्वारा खेला जाने वाला एक खेल नहीं है?
यदि यह बात तुम्हारी समझ में आ
जाए, तब तो अहंकार की कोई समसया ही नहीं
हैं। यही तो कुल प्रयोजन है की क्यों मैं अहंकार के विरोध में बोले चला जा रहा
हूं। ताकि तुम नहीं हो केवल ईश्वर है। यदि तुम ऐसी गहन समझ को प्राप्त हो जाओं कि
अहंकार भी ईश्वर का ही एक खेल है, तब तो यह पूर्णत: शुभ है।
तब तो कोई समस्या ही नहीं रहती। तब तो छोड़ने के लिए तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं।
यदि तुम समझ लो कि अहंकार भी
ईश्वर का ही खेल है, तब तुम इसमें
नहीं होते। सभी कुछ ईश्वर का हैं—यही तो अहंकार शून्यता का अर्थ होता है—अहंकार
भी।
पर सावधान रहना! तुम कहीं अपने ही साथ चालबाजी न कर रहे होओ।
और मन बड़ा चालाक है। ईश्वर के नाम पर तुम शायद अपने अहंकार को बचाने की चेष्टा ही
न कर रहे होओ। यह तुम पर निर्भर है। लेकिन सजग रहना यदि तुम सच ही में समझ गए कि
सब कुछ ईश्वर का ही है तब तुम होते ही नहीं।
इसलिए अहंकार है कहां? अहंकार का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है: मेरा अपना निजी जीवन है; मैं
अस्तित्वगत प्रवाह का अंग नहीं हूं। मैं नदी का अंग नहीं हूं—मैं तैर रहा हूं,
मैं धारा में ऊपर की और जा रहा हूं, विपरित—मेरा
अपना निजि लक्ष्य है, मुझे इसकी जरा भी प्रवाह नहीं है कि
अस्तित्व कहां जा रहा है। मेरे अपने स्वयं के निजी लक्ष्य होते है। में उन्हीं पर
चल रहा हूं, उन्हें ही मैंने पाना है। उन्हीं के पाने की चेष्टा
कर रहा हूं। और अहंकार इसी का नाम है। यही अहंकार का अर्थ है निजी लक्ष्य रखना।
अहंकार मूढ़ता है।
यह शब्द ‘ईडियट’ बड़ा ही सूंदर है।
इसका अर्थ है अपनी निजी ढंग रखना। इसका अर्थ है निजी लक्ष्य रखना, निजि शैली रखना। अहंकार ईडियोटिक है। यह बस इतना ही कहता है कि ‘मैं सार्वभौम का अंग नहीं हूं। में निजी हूं, मैं
अलग हूं। मैं एक द्वीप हूं, मैं महाद्वीप से संबंधित नहीं
हूं।’ यह समस्त से सबंधित न होना ही तो अहंकार है। यह अलग
होने का विचार ही तो अहंकार है।
यह कारण है कि सभी रहस्यदर्शी
कहते आये है: अहंकार को छोड़ो। वे क्या कह रहे है? वे कह रहे है: अलग मत रहो। अहंकार छोड़ देने का कोई और अर्थ नहीं है: अलग
मत रहो—अस्तित्व के साथ एक हो जाओ। और नदी के विपरीत मत बहो—वह मूर्खता है,
तुम बस थकोगे और हारोगे। नदी के साथ बहो। सारे रास्ते भर, नदी के साथ रहो। उसी की लय में बहो, तब जीवन में एक
आनंद होगा, तुम नदी का ही एक अंग बन जाओगे। और पूर्ण
विश्रांति होगी, तुम्हारे आस पास। एक लयवदिता होगी तुम्हारे
जीवन में।
नदी के साथ आनंद है। नदी के
विपरीत तनाव है, थकावट है,
चिंता है, जिद्दोजहद है, अहंकार चिंता और तनाव निर्मित करता है।
अब तुम पूछते हो, ‘आप अहंकार के इतने विरोध में क्यों बोलते हो?
क्या अहंकार भी ईश्वर का ही एक रूप नहीं है। अस्तित्व द्वारा खेला
जाने वाला एक खेल नहीं है।’
यदि तुम्हारी समझ में यह बात आ
गई है तो कम से कम तुमसे तो मैं अहंकार छोड़ने के लिए नहीं कह रहा हूं; तब तो तुम्हारे पास छोड़ने के लिए कुछ और बचा
भी नहीं, छोड़ना तो बस एक अहंकार ही है वह तुम छोड़ चूके हो
शायद...? परंतु बहुत सावधान रहना सजग रहना। मन इतना चालाक
है।
मैंने यह छोटी सी कथा सुनी है:
एक बंदर और एक लकडबग्घा जंगल में
साथ-साथ टहल रहे थे जबकि लकड़बग्घे ने कहां, ‘जब कभी भी मैं उधर वाली झाड़ियों में से गुजरता हूं, एक बड़ा शेर मेरे ऊपर कूद पड़ता है और मुझे मारता ही जाता है, मारता ही जाता है, और मैं जानता भी नहीं कि क्यों?’
बंदर ने तपाक से कहा, ‘ठहरो, जरा इस बार जब
तुम वहा से गुजर रहे होओ तो मैं तुम्हारे साथ आऊंगा, और मैं
हर समय तुम्हारे साथ ही चिपका रहूंगा।’
इसलिए वे साथ-साथ चलते रहे और
जैसे ही वे उन झाड़ियों तक पहुंचे, एक शेर उन पर कूद पड़ा और उसने लकड़बग्घे को मारना शुरू कर दिया। बंदर तो
झट से एक पेड़ पर चढ़ कर बैठ गया। वहीं से बैठा वह सब देखता रहा, अत: जब शेर चला गया, अधमरे लकड़बग्घे ने बंदर से
पूछा, ‘तुम नीचे क्यों नहीं उतरे और मेरी सहायता क्यों नहीं
की।’
और बंदर ने कहा: ‘तुम इतना हंस रहे थे कि मैंने सोचा कि तुम्हीं
जीत रहे हो।’
अहंकार से सावधान रहना। यह स्वयं
की सुरक्षा के उपाय और साधन खोज ले सकता है। यह युक्ति संगति कर सकता है; अहंकार बडा युक्तिवादी है और एक सुक्तिसंगतता
ही इसका कुल आधार है।
पांचवा प्रश्न: प्यारे ओशो, कृपया मुझसे यह बात कह दें ताकि मैं इसके विषय
में चिंता करना बंद कर सकूं—
‘अरूप, तुम्हारे साथ हर चीज पूर्णत: सुंदर जा रही हे। अब चाहे तुम्हारा मन कितना
ही कोशिश करे अब बहुत देर हो चुकी है। मैंने तुम्हें अपने पंख के भीतर सुरक्षित ले
लिया है और अब वापसी का कोई उपाय नहीं है। और अब से तुम आनंदित, और अधिक आनंदित होने जा रही हो।’
धन्यवाद, ओशो! मैं आशा करती हूं
कि यह ऐसा ही है पर कभी-कभी मैं कंप जाती हूं।
यह प्रश्न अरूप का है। अब पहली
बात: तुम कहती हो कि मैं तुमसे कहूं, ‘तुम्हारे साथ हर चीज पूर्णत: सुंदर जा रही है।’
मेरे कहने मात्र से ही तो यह
सुंदर नहीं हो जाएगी। इससे तुम्हें एक सांत्वना तो मिल सकती है, पर मैं यहां तुम्हें सांत्वना देने के लिए तो
हूं नहीं। या तो असली चीज लो या फिर इस बारे में फिक्र ही मत करो। सांत्वना तो
झूटी चीज है। यह तो खेलने का एक खिलौना ही है। यह तो बस समय बिताने के लिए है। और
समय बिताना समय को नष्ट करना ही तो है।
और दूसरी बात, तुम कहती हो, ‘हर चीज
पूर्णत: सुंदर जा रही है’—कठिन बात है। ‘पूर्णत सुंदर’—कठिन है। यहां पृथ्वी पर पूर्ण तो कुछ
होता ही नहीं। साक्षीभाव के अतिरिक्त। न कुरूपता पूर्ण है, न
ही सुंदरता ही पूर्ण है। न पसन्नता ही पूर्ण है, न
अप्रसन्नता पूर्ण है। केवल साक्षीभाव। और जब तुम साक्षी होते हो, तुम न कुरूप महसूस करते हो, न सुंदर, न प्रसन्न, न अप्रसन्न—बस तुम मात्र होते हो।
मेरा कहने का कुल इतना अर्थ है
की साक्षी बनो। तुम चाहोगे कि हर चीज सुंदर हो—तुम साक्षी होना नहीं चाहते। तुम
अधिक सुखद अनुभव लेना चाहते हो। यही कारण है कि तुम निरंतर सांत्वना खोजते हो। लोग
मेरे पास आते हैं सहायता लेने के लिए नहीं बल्कि सांत्वना लेने के लिए। बस पीठ
थपथपाए जाने के लिए। यदि मैं कहता हूं कि हर चीज ठीक चल रही है। वे अच्छा महसूस
करते हैं, लेकिन यह भावना कब तक मदद कर सकेगी?
देर-अबेर यह क्षय होकर समाप्त हो जाएगी। फिर से उन्हें आना ही
पड़ेगा, और फिर वे प्रतीक्षा करते है कि मैं उसके सिर को
थपथपाऊं। इससे तुम्हें कोई सहायता नहीं मिल रही है। ये तो एक विषियस सर्कल बन जाता
है। तुम्हें आवश्यकता है एक रूपांतरण की। और यह मेरे ऊपर एक निर्भरता निर्मित
करेगा, और में तुम्हें मुझ पर निर्भर बना देने के लिए नहीं
हूं?—तुम्हें आत्मनिर्भर होना है। तुम्हें अपना स्वयं होना
है, तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना है।
‘अब चाहे तुम्हारा मन कितनी ही कोशिश करे,
अब बहुत देर हो चुकी है।’
बहुत देर कभी नहीं होती, तुम फिर-फिर पुरानी केंचुल में खिसक जाते हो,
तुम फिर इससे तादात्मित हो जाते हो। और जब सच ही मैं बहुत देर हो
जाएगी तब तुम फिर यह प्रश्न न पूछोगे। तब तुम जान लोगे कि अब वापस जाने की कोई
संभावना नहीं है। यह बात तब तुममें सुनिश्चित होगी। यह तुम्हारा अपना जानना होगा।
इसके लिए तुम्हें मेरे प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होगी। चूंकि अभी तुम्हें मेरे
प्रमाणपत्र की आवश्यकता है, इसी से जान पड़ता है कि घटना अभी
नहीं घटी है—तुम कंप रही हो।
मैंने सुना है: मुल्ला नसरूद्दीन
अदालत में खड़ा था। ‘यह अपराध तो
किसी दक्ष अपराधी द्वारा ही किया जा सकता था,’ सरकारी वकील
ने कहा, ‘और बडी ही दक्षता और चतुराई से किया गया था।’
शर्म से लाल होते हुए, मुल्ला नसयद्दीन, अभियुक्त
अपने पैरों पर खड़ा हुआ और बोला, ‘श्री मानजी, यह चापलूसी आपको कहीं न ले जा सकेगी—मैं तो अपना अपराध स्वीकार करने से
रहा।’
परंतु अपराध स्वीकार वह कर चुका
है। अरूप ने अपराध स्वीकार कर लिया है। यह प्रश्न नहीं है, यह एक स्वीकारोक्ति है—और यह स्वाभाविक है कि
वह चिंता अनुभव करे। यह आशा करना, कि यह चिंता अनुभव न करे,
अमानवीय है। कम से कम इस अवस्था में। कभी-कभी वह कंप जाती है: यह
मानवीय है, स्वाभाविक है। यह अच्छा है कि इसे स्वीकार कर
लिया जाए बजाए इसके कि इसे इंकार किया जाए, बजाए इसके कि एक
पर्दा निर्मित कर लिया जाए और इसे छिपा दिया जाए।
‘कृपया मुझसे यह बात कह दें ताकि मैं इस
इसके विषय में चिंता करना बंद कर सकूं।’
कैसे तुम इसके विषय में चिंता
करना बंद कर सकती हो? बस मेरे कह देने
से? यदि यह इतना सरल होता, तब तो मैंने
हर किसी से यह कह दिया होता। यह बात इतनी आसान नहीं है। जो कुछ भी मैं कहूंगा,
तुम अपने ही ढंग से उसकी व्याख्या कर लोगे, और
तुम नई चिंताएं खोज लोगे। जो कुछ भी मैं कहूंगा उसकी व्याख्या तुम्हें करनी ही
होगी—तुम इसे पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर सकते, तुम इस पर
पूर्ण भरोसा नहीं कर सकते। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हें इस पर पूर्ण
भरोसा करना ही होगा; मैं बस इतना ही कह रहा हूं कि यह
स्वाभाविक है। मैं तुमसे कोई अस्वाभाविक बात नहीं चाहता। मैं तुमसे कोई असगंत बात
नहीं चाहता। यह स्वाभाविक है। कभी-कभी तुम कंपते हो, कभी-कभी
तुम मेरे विरोध में हो जाते हो, कभी-कभी तुम बड़े नकारात्मक
होते हो। कभी-कभी तुम्हें ऐसा लगता है कि सब कुद बस छोड़ दिया जाए और तुम्हारे
पुराने संसार में लौट जाया जाए। मैं नहीं कहता कि तुम कुद अपराध कर रहे हो-न-यह तो
बस मानविय है। यह अत्यंत स्वाभाविक है। यदि तुम ऐसे काम न करो, तब कुछ बात गलत है, तब कुछ कमी है।
जो कुछ भी मैं कहूंगा उसकी
व्याख्या फिर उसी चिंता करने वाले मन से की जाएगी। यदि मैं ठीक-ठीक यही कह दूं कि:
हां अरूप, तुम्हारे साथ हर चीज पूर्णत: सुंदर हो
रही है। तुम सोचोगी, ‘क्या ओशो मजाग कर रहे थे? क्या सच में उनका यही तात्पर्य है।’ वह चिंता करने
वाला मन इसके ऊपर कूद पड़ेगा। तुम्हारी व्याख्याएं होनी ही हैं।
इस छोटी सी कहानी को सुनो:
एक पादरी देर रात एक सभा से वापस
लौट रहा था। कार चलाते-चलाते उसे अचानक ख्याल आया कि उसने सांयकालीन प्रार्थना तो
कही ही नहीं है। एक शांत सड़क के किनारे उसने अपनी कार रोकी, नीचे उतरा और कार की हैडलाईट्स के प्रकाश का
उपयोग करते हुए अपनी प्रार्थना करनी प्रारंभकर दी।
उसे शुरू किए अभी बहुत देर नहीं
हुई थी कि एक लॉरी के वहां आ पहुंचने से वह हैरान रह गया। लॉरी के चालक ने, यह सोचकर की कुछ गड़बडी है, अपनी गाड़ी रोकी, अपनी तरह की खिड़की का शीश गिराया,
और पूछा, ‘कोई समस्या है, दोस्त?’
‘नहीं, सब ठीक है,
धन्यवाद,’ पादरी ने उत्तर दिया। चालक ने अपनी
लॉरी को गियर में डाला और वहां से दूर जाते जाते चिल्लाया, ‘मैं
बस इतना ही कह सकता हूं: यह कोई बहुत ही मजेदार किताब होगी जो कि तुम इस समय पढ़
रहे हो।’
अब जरा ऐसे व्यक्ति की सोचो जो
एक सुनसान सड़क पर कार की हैडलाइटस में कोई किताब पढ़ता हो—तुम क्या सोचोगे? क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई बाईबिल
वहां पढ़ रहा होगा? बाईबिल पढ़ने की ऐसी जल्दी भी क्या थी?
बाईबिल पढ़ने में कोई इतना उत्सुक हो सकता है?
क्या वह प्रतीक्षा नहीं कर सकता, क्या वह घर जाकर इसे वहां नहीं
पढ़ सकता? लॉरी के चालक ने तो अपने मन के अनुसार ही इसकी
व्याख्या की होगी—उसने कहा, ‘मैं बस इतना ही कहा सकता हूं:
यह एक बड़ी ही मजेदार किताब होगी जो कि तुम इस समय पढ़ रहे हो।’
तुम निरंतर व्याख्या करते हो। और
स्वाभाविक है कि तुम अपने मन के अनुसार ही व्याख्या करते हो। जो मैं कहूंगा वह
नहीं सुना जाएगा, तुम उसे अपने ही
ढंग से सुनोगे। यदि तुम चिंता कर रहे हो, तुम उसके विषय में
भी चिंता करोगे। यदि तुम संदेहशील हो, तुम उसके विषय में भी
संदह करोगे। यदि तुम नकारात्मक हो, तुम उसके विषय में भी
नकारात्मक होओगे। यदि तुम श्रद्धावान हो, तुम उस पर भी भरोसा
करोगे।
अरूप कहती है, ‘कृपया मुझसे यह बात कह दें ताकि मैं इसके
विषय में चिंता करना बंद कर सकूं। न, चिंता करना इतनी आसानी
से बंद नहीं किया जा सकता है। मेरे कहने से सहायता न मिलेगी। तुम्हें कुछ करना
पड़ेगा। तुम्हें जो मैं कहता हूं वह करना पड़ेगा। तुम्हें थोड़ा सा अधिक
व्यवाहिरिक बनना पड़ेगा। तुम्हें साक्षीभाव साधना पड़ेगा।’
तीन बहुत भूखे आवारगर्द थे, और वे एक घर में पहुंचे जहां का रखवाला चावल
पका रहा था और उसने कहा कि वे तीनो रात को वहां रूक सकते है। और जिस किसी का भी
सपना सर्वश्रेष्ठ होगा उसी को कुछ गर्म चावल खाने को मिल सकता था। इसलिए अगली सुबह,
पहले आदमी ने कहा, ‘मैंने सपना देखा कि मैं एक
राजा हूं।’
दूसरे ने कहां: ‘यह तो कुछ भी नहीं—मैंने तो सपना देखा कि मैं
स्वयं ईश्वर हो गया हूं।’
तीसरे की बारी आई तब उसने कहा: ‘मेरा सपना तो बहुत साधारण था और मेरे जीतने की
तो कोई संभावना ही नहीं है, मैंने सपना देखा की गर्मा-गर्मा
चालव ठंड़ा हो रहा है, इस लिए मैं उसे खा गया।’
व्यवहारिक बनने से यही है मेरा
तात्पर्य। इसलिए अरूप, व्यवहारिक बनो।
जो मैं कहता हूं वह करो—मेरे कहने मात्र से सहायता न मिलेगी...और चावल सच में ठंडा
हो रहे है। तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे भीतर एक सपना निर्मित करने में सहायता
करूं और चावल है कि ठंडा हुआ जा रहा है। तुम बस जाओं और चावल खाने का आनंद लो।
इससे तुम्हारे भीतर केवल एक सपना
पैदा होगा यदि मैं तुमसे यह बात कहूं, ‘अरूप तुम्हारे साथ हर चीज पूर्णत: सुंदर जा रही है। अब चाहे तुम्हारा मन
कितनी ही कोशिश करे, अब बहुत देर हो चुकी है। मैंने तुम्हें
अपने पंख के भीतर सुरक्षित ले लिया है और वापसी को कोई उपाय नहीं है।’
अव्वल तो मैं यह बात कह ही नहीं
सकता क्योंकि सुरक्षित और निरापद होने की इच्छा मात्र आध्यात्मिक विकास के विपरीत
है। मैं तो तुम्हें एक खतरनाक क्षेत्र से धकेल रहा हूं। मैं तो तुम्हें एक खाई में
धकेल रहा हूं। तुम मेरे पंख के नीचे सुरक्षित होना चाहोगे—अब मैं तो तुम्हें
अस्तित्व की अतुल गहराई में फैंक रहा हूं—जहां कोई सुरक्षा नहीं, कोई निरापदता नहीं। मैं एक रक्षक नहीं हूं—मैं
एक विध्वंसक हूं। मैं तो तुम्हारी सुरक्षा नहीं हूं। यदि तुम सच में ही मुझे समझते
होओ, मैं तुम्हारा खतरनाक जीवन होने जा रहा हूं।
यदि तुमने मुझे समझ लिया है, तुम सदा असुरक्षित रहोगे। तुम कभी भी सुरक्षा
और निरापदता की मांग नहीं करोगे। सुरक्षा और निरापदता का तो तुम तिरस्कार करोगे।
उन्हें तो तुम शत्रु समझोगे—वे हैं भी। तुम तो खुले में होने का आनंद उठाओगे,
जीवन में जो कुछ भी संभव है उस सब के प्रति मेद्य रहोगे। हां,
मौत के प्रति भी मेद्य, ‘सब’ में मौत भी तो सम्मिलित है। एक असली जीवन प्रतिक्षण मौत का सामना करता है।
केवल नकली जीवन प्लास्टिक के जीवन सुरिक्षित होते है।
नहीं, यह तो मैं तुमसे नहीं कह सकता कि मैंने
तुम्हें अपने पंख के भीतर सुरक्षित ले लिया है और अब वापसी का कोई उपाय नहीं है।
तुम गिर सकती हो, तुम अंतिम सीढ़ी से भी गिर सकती हो। जब तक
कि तुम संबोधि को ही उपलब्ध न हो जाओ, वापसी का उपाय है। तुम
वापस जा सकती हो। तुम नकार सकती हो, तुम धोखा खा सकती हो,
तुम इंकार कर सकती हो। तुम फिर से दुःख में गिर सकती हो—एक दम अंतिम
सीढ़ी से भी तुम गिर सकती हो। जब तक कि तुमने पूरी सीढ़ी पार न कर ली हो, अंतिम पाया भी, जब तक कि तुम नाकुछ ही न हो जाओ। तुम
नीचे गिर सकती हो। जरा सा अहंकार, अहंकार का जरा सा स्पंदन,
तुम्हें वापस ले आने के लिए पर्याप्त है। यह फिर से संधनित हो सकता
है। यह फिर से समन्वित हो सकता है। यह फिर से एक नई यात्रा बन जा सकता है।
और सुरक्षा मेरा ढंग नहीं है।
संन्यासी बनने का अर्थ ही यह है कि अब तुम बिना सुरक्षा के जीवन जीने को तैयार हो।
वही सबसे बड़ा साहस है और उस बड़े साहस से ही बड़ा आनंद संभव हो जाता है।
‘और अब से तुम आनंदित, और अधिक आनंदित होने जा रही हो।’
मैं कोई एमिले कुए नहीं हूं—मैं
कोई सम्मोहनविद नहीं हूं। हां, तुम
स्वयं को इस भांति सम्मोहित कर सकती हो। यही तो कुए की कार्यविधि थी। वह अपने
मरीजों से कहता था, ‘सोचो, स्वप्न देखो
कल्पना करो, मन की दृष्टि से देखो—हर रात सोने जाने से पहले,
हर प्रात: नींद के उपरांत, बार-बार यही
दोहराओं—मैं बेहतर होता जा रहा हूं, मैं ज्यादा स्वस्थ होता
जा रहा हूं, मैं अधिक आनंदपूर्ण होता जा रहा हूं.....।
दोहरते जी रहो, दोहराते ही रहो।’
हां, इससे कुछ सहायता मिलती है। यह तुम्हारे चारों
और एक इन्द्रजाल निर्मित कर देता है। पर क्या तुम चाहोगी कि मैं इंद्रजाल निर्मित
करने में तुम्हारी सहायता करूं? मेरा कुल ढंग है अ-सम्मोहन
का, यह सम्मोहन का जरा भी नहीं है। मैं नहीं चाहता कि तुम
किसी भी इंद्रजाल से सम्मोहित हो जाओ। मैं तो तुम्से सभी इंद्रजालों से पूरी तरह
से असम्मोहित हो जाना चाहता हूं। जब तुम भ्रम-निर्मित की अव्स्था में होते हो,
पूरी तरह से भ्रमनिवृति, तब संबोधि एकदम समीप
होती है।
फिर अरूप कहती है, ‘धन्यवाद, ओशो। मैं आशा करती हूं कि यह ऐसा ही
है....।’
देखो! उसके मन ने पहले
से ही व्याख्या करना शुरू कर दिया: ‘में आशा करती हूं कि यह
ऐसा ही है...यह ऐसा नहीं है—वह बस आशा करती है, कैसे तुम
स्वयं को घोखा दे सकते हो!
और मैं तुम्हारे कंप जाने की निंदा नहीं कर रहा हूं—कभी-कभी
कंप जाना एकदम ठीक है, कभी-कभी कंप
जाना पूर्णत: मानवीय है। यह बिलकुल सही है। इसकी कभी निंदा मत करना। इसे स्वीकार
कर लेना। एक झूटा अकेपन निर्मित करने की चेष्टा मत करना—वह मन का होगा और एक धोखा
होगा, और वह तुम्हें कहीं भी न ले जा सकेगा। इस (कंपन को)
जैसा यह है वैसा ही रहने दो। जैसा यह है इसे वैसा ही स्वीकार कर लो और अधिक से
अधिक जागरूक होती जाओ। अधिक से अधिक साक्षी होती जाओ। केवल उस साक्षीभाव में ही
तुम सुरक्षित रहोगी। केवल उस साक्षीभाव में ही तुम प्रतिदिन अधिक आनंदित और अधिक
आनंदित होती जाओगी, बार-बार इसे दोहराने से कुछ नहीं होगा।
केवल उस की साक्षी बनों। साक्षीभाव में ही तुम्हारा कंपना थमेगा। केवल उस
साक्षीभाव में ही तुम अपने अस्तित्व के केंद्र पर पहुंचोगी—जहां मृत्यु नहीं है।
जहां भरपूर जीवन है, जहां कोई उस अमृत को पीता है। जिसकी बात
सराह कह रहा है।
छट्ठवां प्रश्न: यह ठीक-ठीक क्या चीज है जो कि प्रत्यक्ष को
देख पाने में मेरी दृष्टि में बाधा बन रही है? मैं बस समझ ही नहीं पाता कि क्या करूं और क्या
न करूं। कब मैं मौन की ध्वनि सुनने में समर्थ हो सकूंगा?
‘यह ठीक-ठीक क्या चीज है जो कि प्रत्यक्ष को देख
पाने में मेरी दृष्टि में बाधा बन रही है?’
इसे देख पाने की आकांक्षा ही। प्रत्यक्ष की आकांक्षा नहीं की
जा सकती। प्रत्यक्ष तो है। तुम आकांक्षा करते हो, तुम दूर चले जाते हो। तुम इसे खोजना शुरू कर देते हो, उसी क्षण में तुमने इसे दूर बना दिया, अब यह
प्रत्यक्ष न रहा, अब यह समीप न रहा; तुमने
इसे बहुत दूर रख दिया। प्रत्यक्ष को तुम खोज कैसे सकते हो?
यदि तुम समझते हो कि यह प्रत्यक्ष है तो तुम इसे खोज कैसे सकते हो? यह तो वहां है ही। इसे खोजने की और इसकी आकांक्षा करने की आवश्यकता ही
क्या है?
प्रत्यक्ष तो दिव्य है। पार्थिव ही तो अलौकिक है। और तुच्छ ही
तो गूढ़ है। तुम्हारे नित्य प्रतिदिन के साधारण कृत्यों में, तुम प्रतिक्षण परमात्मा से मिल रहे होते हो
क्योंकि उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं। तुम किसी अन्य किसी अन्य से मिल ही नहीं
सकते; हजार-हजार रूपों में यह सदा परमात्मा ही है जिससे कि
तुम मिलते हो। परमात्मा बहुत प्रत्यक्ष है। केवल परमात्मा ही तो है। पर तुम खोजते
हो, तुम आकांक्षा करते हो...और तुम चूक जाते हो। अपनी खोज
में ही तुम परमात्मा को दूर बहुत दूर कर देते हो। यह अहंकार की एक तरकीब है। इसे
समझने की कोशिश करो।
अहंकार प्रत्यक्ष में उत्सुक नहीं होता क्योंकि प्रत्यक्ष के
साथ अहंकार जी नहीं सकता। अहंकार समीप जरा भी उत्सुक नहीं होता। अहंकार तो उत्सुक
होता है दूर में, कठीन में,
बहुत दुर्लभ में। जरा सोचो; आदमी चंद्रमा पर
पहुंच गया है और आदमी अपने ही हृदय तक नहीं पहुंच पाया है...दूर का रस है, अहंकार का। आदमी ने अंतरिक्ष यात्रा का आविष्कार कर लिया है, पर अभी तक आत्मा-यात्रा का विकास नहीं किया जा सका। क्योंकि वह तो
तुम्हारे पास से भी पास है। वह एवरेस्ट पर पहुंच सकता है। पर अपने अस्तित्व में
जाने की चिंता उसे जरा भी नहीं है। वह पास से भी पास से लगातार चूकता जा रहा है।
और दूर से दूर की खोज में जाता जा रहा है। क्यों?
अहंकार को अच्छा लगता है—यात्रा यदि कठिन हो तो अहंकार को
अच्छा लगता है। कुछ साबित करने को तो है। यदि यह कठिन होती है, कुछ सिद्ध करने को तो होता है। चंद्रमा पर
जाने में तो, अहंकार को अच्छा लगात है, पर अपने स्वयं के अस्तित्व में जाना कोई बड़े दावे की बात नहीं है।
एक प्राचीन कथा है:
परमात्मा ने संसार बनाया; उन दिनों वह पृथ्वी पर रहता था। तुम कल्पना कर सकते हो, उसकी बड़ी मुसीबत थी। हर कोई शिकायत करता था, हर कोई
बड़े अटपटे प्रश्न किसी भी समय उसके द्वार पर आकर दस्तक दे देता। रात में भी लोग आ
जाते, और वे कहते, ‘ये बात तो गलत है,
आप ऐसा कैसे कर सकते हो।’ आज इतनी गर्मी हो
रही है, आज बहुत बारिस आ गई, मेरी भैस
मर गई, कल मेरी लड़की की शादी है इसलिए आज बारिस नहीं आनी
चाहिए। कोई कहता मेरी तो फसल सूख रही है, आप कल बारिस जरूर
करना। और परमात्मा करीब-करीब पागल होता जा रहा था। अब किस की सूने और किस की न
सूने। चौबीस घंटे सिकायत ही सिकायत। अब क्या किया जाए? इतने
सारे लोग इतनी सारी आकांक्षाएं, और हर कोई उससे आशा करता है
कि उसकी बात सूनी जाए। उसकी आवश्यकता की पूर्ति की जाए। हर व्यक्ति की आकांक्षा एक
दूसरे के विरोधि होती। किसान चाहता कि बारिस हो, कुम्हार
चाहता कि वर्षा न हो, उसके वर्तन बनाए गए खराब हो जाएगे। सब
नष्ट हो जाऐंगे। उसे तो कम सक कम कुछ दिन के लिए तेज धूप निकालनी चाहिए यही धोबी
भी चाहते की उनके धूले कपड़े सुखते ही नहीं इस लिए बारिस तो होनी ही नहीं चाहिए।
और इस तरह की हजारो विरोधाभाषी शिकायते आती रहती न उसे सोने ही दिया जाता न वह ठीक
से खा ही सकता था। परमात्मा बहुत परेशान हो उठा।
तब उसने अपने सलाहाकरों को इकट्ठा किया और उनसे पूछा कि मैं अब
क्या करूं, ‘मेरी जान की तो अजीब मुसिबत हो गई
है—ये लोग तो मुझे पागल ही किए जा रहे है। और सब को मैं संतुष्ट कैसे कर सकता हूं,
सब एक दूसरे के विराधाभाषी है। किसी के लिए ठीक है तो दूसरे के लिए
वही गलत। अजीब मुसिबत में फंस गया हूं। मुझे तो ऐसा लगात है इसी तरह से चलता रहा
तो ये लोग एक दिन मेरी हत्या कर देंगे। मैं कोई जगह चाहता हूं जहां मैं चेन से
विश्राम से रह सकूं क्या आप लोगो में से कोई मुझे ऐसी जगह बता सकता है।’
और उन्होंने बहुत सी जगहों के नाम लिए, सुझाव दिए। किसी ने कहा, यह कोई समस्या नहीं है, आप एवरेस्ट पर चले जाओ,
क्योंकि हिमालय बहुत ही ऊँचा है और दूर्गम भी वहां कोई नहीं जा सकता
है।’
परमात्मा ने कहा, ‘तुम नहीं जानते, बस कुछ ही क्षणों के बाद—परमात्मा
के लिए तो यह कुछ ही क्षण थे—एडमंड हिलैरी व तेनसिह वहां पहुचने वाले हैं।’ और फिर वही समस्या पैदा हो जाने वाली है। और एक बार वह जान गए की मैं
कहां पर हूं तो वह हेलीकॉप्टरों से भी यहां पहूंच सकते है। बसों से आना शुरू हो
जाएगे रेल मार्ग विछा देंगे। इससे काम नहीं चलेगा। इससे समस्या कुछ क्षणों के लिए
तो दूर हो जाऐगी। परंतु सदा के लिए नहीं। तुम कोई और उपाय बताओं। हर प्राणी के समय
की गति अलग है, सापेक्षवाद की थ्योरी की तरह। चिंटी का समय
ओर कुत्ते का समय या मनुष्य का समय या मनुष्य में भी प्रत्येक का अंतस का समय
भिन्न है इसी तरह हम हिन्दुओं के अनुसार हमारा एक वर्ष और परमात्मा का एक दिन
बराबर है। इसलिए परमत्मा यहा एक क्षण की बात कर रहे है।
फिर किसी ने सुझाव दिया, ‘क्यों न आप चांद पर चले जाएं?’ परमात्मा ने कहा, वहां भी आदमी अब पहूंचने वाला है, तब किसी ने दूर सितारों का सुझाव दिया, तब परमात्मा ने कहां बात वहीं के वहीं है।
यह स्थाई हल नहीं है, यह तो एक तरह का
स्थगन है। मैं तो कोई स्थाई हल चाहता हूं। तब परमात्मा एक बहुत पुराने सेवक ने
खड़े होकर वह परमात्मा के पास गया और उनके कान में एक सुझाव डाला। परमात्मा के
चेहरे पर एकदम मुसकुराहट छा गई और उन्होंने कहा तुम एक दम ठीक कहते हो। आपके इस
सुझाव से तो काम चल सकता है।,
उस बूढ़े सेवक ने कहा बस एक ही जगह है जहां आप सुरक्षित रह
सकते है वह है—मनुष्य के भीतर छीप जाओं, उसके अंदर जाकर रहने लग जाओं वह सब जगह ढूंढता फिरेगा परंतु अंदर कभी नहीं
जायेगा। और यही वह स्थान है जहां परमात्मा तब से अब तक छिपा हुआ है: स्वयं मनुष्य
में ही। यही वह अंतिम स्थान है जहां मनुष्य कभी सोच भी नहीं सकता है।
प्रत्यक्ष चूक जाया जाता है। क्योंकि अहंकार उसमें उत्सुक नहीं
होता। अहंकार तो उत्सुक होता है कठोर, कठिन में, दु:साध्य चीजों में। क्योंकि वहां चुनौती
होती है। जब तुम जीतते हो, तुम दावा कर सकते हो। यदि
प्रत्यक्ष ही वहां हो और तुम जीत भी जाओ। यह किस तरह की जीत हुई। तुम कोइ खास
विजेता नहीं मानते।
प्रत्येक्ष
लगातार चूकता जाता है। वहां अहंकार की उत्सुकता नहीं है। वह दूर दराज की खोज करता
है। और जो दूर है उसे तुम खोज कैसे सकते हो। जबकि तुम प्रत्यक्ष को नहीं खोज पाते?
‘यह ठीक-ठीक क्या चीज है जो कि प्रत्यक्ष को देख
पाने में मेरी दृष्टि में बाधा बन रही है?’
यह आकांक्षा ही तुम्हें भटका रही है। आकांक्षा को छोड़ दो और
तुम प्रत्यक्ष को देख लोगे।
‘मैं बस समझ ही नहीं पाता कि क्या करूं और क्या
न करूं?’
तुम्हें करना कुछ भी नहीं है। तुम्हें बस सजग हो जाना है उस सब
के प्रति जो तुम्हारे चारों और घट रहा है। करना तो फिर एक अहंकार यात्रा है। करने
से अहंकार को अच्छा लगता है—करने को कुछ है तो। करना अहंकार के लिए भोजन है, यह अहंकार को शक्तिशाली बनाता है। अ-कर्म और
मुंह के बल घरती पर आ गिरता है। तब उसे पोषण नहीं मिल पाता।
इसलिए बस अ-कर्ता बन जाओ। जहां तक ईश्वर का, सत्य का और इसकी खोज का संबंध है। कुछ भी मत
करो। अव्वल तो यह कोई खोज है ही नहीं, इसलिए तुम इस विषय में
कुछ कर ही नहीं सकते। तुम बस हो जाओ। मुझे इसे दूसरे ढंग से कहने दो: यदि तुम होने
की अवस्था में होते हो, परमात्मा तुम तक आता है। मनुष्य कभी
परमात्मा को नहीं पा सकता। परमात्मा ही मनुष्य को पाता है। बस एक मौन अवकाश में हो
रहो, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं,
कोई स्वप्न नहीं—और उस मौन अवकाश में अचानक तुम पाओगे कि वह
(परमात्मा) वहां है। वह सदा वहां रहा है। बस तुम मौन न थे इसलिए तुम उसे देख न
सके। तुम उसकी शांत, धीमी आवाज सुन न सके।
‘कब मैं मौन की ध्वनि सुनने में समर्थ हो
सकूंगां?’
कब?—तुम गलत प्रश्न
पूछते हो। अभी या कभी नहीं। इसे सुनो अभी। क्योंकि यह यहां है, संगीत चालू है, संगीत हर तरफ है। बस तुम्हें मौन
होने की जरूरत है ताकि तुम इसे सुन सको। मगर ‘कब’ कभी मत कहो; ‘कब’ का अर्थ है
तुम भविष्य को बीच में ले आए, कब का अर्थ है तुम आशा करना
शुरू कर चूके, तुम स्वप्न देखने लग गए हो। कब तो भविष्य में
है, वह तो अभी नहीं कहा रहा है। और यह सदा अभी यहीं होता है।
इसी क्षण में। तब कैसे मिल हो सकता है। परमात्मा के लिए केवल एक ही समय है: अभी,
और केवल एक ही स्थान है, यहां। ‘वहां’, न ही ‘तब’—इन्हें छोड़ दो।
और अंतिम प्रश्न: ओशो, क्या आपको कभी शब्दो की कमतरी का अहसास होता है?
प्रश्न ऋषी का है। जब कभी भी मैं कोई भी शब्द उच्चारित करता
हूं, मुझे सदा कमी का अहसास होता है—क्योंकि
मैं कहना चाहता हूं उसे कहा नहीं जिसे शब्दों में कहा नहीं जा सकता। और जो
संप्रेषित किया जाना है उसे संप्रेषित नहीं किया जा सकता। तो तुम स्वभावत: पूछोगे
कि फिर मैं क्यों बोले चले जाता हूं?
मैं कठिन चेष्टा कर रहा हूं। हो सकता है आज मैं असफल रहा
हूं...कल। कल मैं असफल हुआ, हो सकता है आज।
मैं अलग-अलग ढंगों से बोले चला जाता हूं, हो सकता है इस ढंग
से बोलने पर तुमने न सुना हो; हो सकता है किसी और ढंग से
बोलने पर यह तुम्हारे अधिक समीप हो। इस ढंग से किसी और न तो सुन लिया है; तुमने नहीं सुना है। किसी और ढंग से शायद तुम इसे सुन सको।
परंतु कमी मुझे सदा महसूस होती है। शब्द सरलता से नहीं आते—क्योंकि
संदेश नि:शब्द है। मैं कोई पुरोहित नहीं हूं, मैं तुम्हें कोई मत देने की चेष्टा नहीं कर रहा हूं। मैं कोई सिद्धांत
तुम्हें समझाने की चेष्टा नहीं कर रहा हूं। मुझे कुछ हुआ है, मुझमें कुछ घटा है—मैं उसे संप्रेषित करने की चेष्टा कर रहा हूं। मैं
तुम्हारे साथ सलाप करने का प्रयास कर रहा हूं।
शब्द बडे अटपटे हैं। वे बड़े लधु
बड़े छोटे हैं। उनमें वह नहीं समा पाता जो मैं चाहता हूं कि उन में समा जाए। इसलिए
हर क्षण मैं किंकर्तव्य विमूढ होता हूं। जिन लोगों को कभी अनुभव नहीं हुआ होता वे
कभी किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं होते; किसी भी
शब्द से काम चल जाएगा।
मैंने एक सुंदर कहानी सुनी है:
इसके ऊपर ध्यान करो,
किसी इलाके का पादरी अपने विशप
से बातचीत कर रहा था, और वार्तालाप के
दौरान उसने कहा, ‘आप के लिए तो, श्रीमान
यह ठीक है कि आप जब कोई प्रवचन तैयार करते हैं, आप इसे बिशेष-प्रदेश
के कई चर्चों में दे सकते हैं, पर मुझ तो प्रत्येक रविवार को
दो नए प्रवचन तैयार करने होते है।’
बिशप ने कहा, तुम्हें भी मेरी ही तरह किसी भी विषय पर एक
क्षण के नोटिस पर प्रवचन दे सकते में सक्ष्म होना चाहिए।’
‘मैं आपको इस बात पर चुनोती देता हूं,
पादरी ने कहा।’ आप अगले रविवार मेरे चर्च में
आईए और मैं आपकी परीक्षा लूंगा।’
बिशप आने के लिए सहमत हो गया और
समय पर व्याख्यान मंच पर पहुंचा जहां वेदी पर एक
कार्ड रखा था जिस पर एक ही शब्द लिखा था ‘कब्ज’—यही है आज के प्रवचन का विषय। बिना संकोच,
उसने बोलना प्रारंभ कर दिया: और मोजेत ने दो गोलिया ली और पहाड़ी की
और चले गए।’
पादरी कभी किकर्तव्यविमूढ नहीं
होता। उसके पास इतने सारे धर्म ग्रंथ उपलब्ध होते है। वह सदा अपनी स्मृति से कुछ
ढूंढ ही लाते है। मैं सदा किकर्तव्यविमूढ होता रहता हूं—क्योंकि जो मैं तुमसे कहना
चाहता हूं वह कोई विषय नहीं है, वह मेरी
आत्म चेतनता है। जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं वह मेरा हृदय है। वह मेरा मन नहीं
है। दुर्भाग्य तो यह है कि उपयोग मुझे मन का करना होता है क्योंकि और कोई उपाय
नहीं है। हृदय को संप्रेषित करने के लिए भी व्यक्ति को उपयोग तो मन का ही करना
होता है। यही उसकी सबसे बड़ी विसंगति है। यह बड़ी अतर्क्य बात है। यह असंभव की
चेष्टा करना है। पर इसके अतिरिक्त कोई और उपाय दिखता ही नहीं। सब बुद्ध असहाय होते
है।
लेकिन यदि तुम पूछो: क्या मैं
कभी शब्दों के लिए किकर्तव्यविमूढ होता हू? हां, मैं सदा होता हूं। प्रत्येक शब्द और मैं
हिचकिचाता हूं: क्या इससे काम चल जाएगा? इससे कैासे काम
चलेगा? यह जानते हुए भी कि इससे सहायता न मिलेगी, मैं इसका उपयोग किए चला जा रहा हूं। यह एक आवश्यक बुराई है। मौन बेहतर
होता, कहीं ज्यादा बेहतर होता, पर जब
मैं तुम्हारी और देखता हूं मैं हिचकितचाता हूं। यदि मैं मौन हो जाऊं, तुम्हारे लिए मेरे समीप आना और भी कठिन हो जाएगा। तुम शब्द ही नहीं समझ
पाते, मौन तो तुम कैसे समझ सकोगे? और
यदि मौन को तुम समझ सको, तुम उस मौन को मेरे शब्दों में भी
सुन सकोगे।
यदि मैं मौन हो जाऊं, तुममें से ज्यादा से ज्यादा पांच प्रतिशत मेरे
पास रूकोगे। वे पांच प्रतिशत शब्दों से भी समझ सकते हैं। क्योंकि वे मेरे मौन को
सुन रहे होते हैं। मेरे शब्दों को नहीं। इसलिए उन पांच प्रतिशत के लिए तो कोई
समस्या नहीं है। लेकिन बाकी पीच्चनवे प्रतिशत जो न तो शब्दों को समझ सकते हैं और न
ही उन शब्दों में छिपे मौन को ही समझ पाते है। वे बस किंकर्तव्यमूढ रह जायेगे। मैं
उनकी जरा सी भी सहायता न कर पाऊंगा। मेरे शब्दों के कारण कम से कम वे मेरे आसपास
डोलते तो रहते है।
उस आस पास डोलते रहने में ही यह
संभावना तो है कि किसी असुरक्षित क्षण में उनका मुझसे संपर्क बन सकता है, कोई असुरक्षित क्षण और अपने बावजूद वे मेरे
समीप आ जा सकते है। वे मुझसे टकरा सकते है। कोई अ-सुरक्षित क्षण, और मैं उनके हृदय मैं पैठ लगा सकता हूं। कुछ मंथन हो सकता है। यह एक
संभावना मात्र है। पर फिर भी करते जाने योग्य है।
उन पांच प्रतिशत की सहायता तो
दोनों ही ढंग से हो सकती है। परंतु इस पीच्चानवे प्रतिशत की सहायता मौन द्वारा नही
की जा सकती। और वह पांच प्रतिशत भी यदि में शुरू में ही एक दम मौन रहा होता तो, यह भी नहीं हुआ होता। वह पांच प्रतिशत मार्ग
दिखाता है ताकि पीच्चानवे प्रतिशत मार्ग धीरे-धीरे हो सकेगा नब्बे प्रतिशत,
पीच्चासी प्रतिशत, अस्सीप्रतिशत....।
जिस क्षण मैं यह महसूस करुं कि
हम से कम पचास प्रतिशत लोग मौन को समझ सकते हैं, तब शब्दों को छोड़ा जा सकता है। उनके (शब्दों के) बारे में मैं बहुत
प्रसन्न नहीं हूं। कोई भी कभी न था: न लाओत्सु, न सराह,
न बुद्ध, न महावीर..कोई भी कभी भी नहीं था।
परंतु शब्दों का उपयोग करना उन सभी को पड़ा ही। इसलिए नहीं की उसे मौन में संलिप्त
नहीं किया जा सकता था। मौन संलाप हो सकता है1 पर उसके लिए एक बड़ी उच्च कोटि की
चेतना की आवश्यकता होती है।
एक बार ऐसा हुआ:
भारत के दो महान रहस्यदर्शी कबीर
और फरीद एक बार मिले और दो दिन तक पास-पास मौन बैठे रहे। शिष्यों को तो बड़ी
निराशा हुई: वे तो चाहते थे कि दोनों बोले ताकि वे (शिष्य) कुछ मूल्यवान बातें सुन
सकें। वे आशा कर रहे थे, महीनों से वे
आशा करते होते थे, कि कबीर और फरीद मिलेंगे और बड़ी बारिश
होगी। और वे इसका आनंद उठाऐगे। परंतु वे दोनों तो बस मौन ही बैठे रहे। और शिष्य ऊब
गए। जम्हाईया लेने लगे। और बेचारे क्या करते? और इन दोनों
आदमियों को हो क्या गया था?—क्योंकि पहले तो वे कभी मौन न
थे। न तो कबीर कभी अपने शिष्यों के साथ मौन होते थे, और न ही
फरीद अपने शिष्यों के साथ कभी पहले मौन रहे थे। ‘क्यों?’
क्या हो गया था? क्या ये दोनों गूंगे हो गए थे?
पर वे कुछ कह तो सकते थे, यह उचित न होता।
दो दिन बाद जब कबीर और फरीद ने
एक दूसरे को गले लगाया और अलविदा कहा—वह भी मौन में ही—और जब शिष्य अपने-अपने
गुरूओं के साथ अकेले रह गए तो उन पर टूट पड़े। और कबीर के शिष्यों ने कहा, ‘क्या कुछ गड़बडी हो गई थी?’ हम तो महीनों से प्रतीक्षा कर रहे थे की आप दोनो मिलेगे तो अमृत की वर्षा
होगी। और आप है कि एक शब्द भी नहीं बोले। और हम प्रतीक्षा करते-करते थक गए। दो दिन
कितने भारी हो गए थे। हमारे लिए उस का आप अंदाज नहीं कर सकते।’
तब कबीर हंसे: ‘अमृत को बरस रहा था, परंतु तुम उसे नहीं पी सके,
वह शब्दों के पास का था, जो तुम्हारी पकड़ के
बहार है। वहीं तो पहली बार अमृत झरा, जिसकी जन्मों जन्मों प्यास
होती है, पीने वाला भी परमात्मा ओर पिलाने वाला भी परमात्मा।’
परंतु शिष्य तो केवल शब्द ही पकड़ सकते थे उसके अंदर के मौन को भी
नहीं फिर उस मौन अमृत को कैसे महसूस कर सकते थे। जहां शब्द भी नहीं थे। कौन शब्दों
में उसकी महीमा गाता, वहीं तो मूखों मैं तुम्हारे साथ सालों
से कर रहा हूं, उस अमृत बेला में इस कुरूप भाषा को कोई क्यों
बीच में लाता। जब सब कुछ निशब्द में बहाया जा सकता है, लूटाया
जा सकता है तब इन शब्दों की कौन परवाह करे। माफ करो। मुझे ये शब्द तो केवल
तुम्हारे लिए है। शायद तुम भी कल इस काबिल हो सको जिसे शब्दों के बिना कहा जा सके
तब मैं पूर्ण सफल हो जाऊंगा।
और फरिद के शिष्यों ने भी फरीद से पूछा की आप बोले क्यों नहीं:
‘फरीद ने कहा, क्या
तुम मुझे पागल समझते हो, जो तुम्हें शब्दों में कह रहा था
उसे कबीर के सामने कह कर अपनी हंसी उडवाता...तब कितनी फजीहत होती आप उसे नहीं
सकते।’
बोलना एक मजबुरी है, वह भी तुम्हारे सामने।वर्ना तो कौन बोलना चाहता है। ...हम ठीक एक ही जगह
पर हैं इसलिए कुछ संप्रेषित करने को है ही नहीं। कुछ कहने को है ही नहीं। जिस क्षण
मैंने उनकी आंखों मे झांका और उन्होंने मेरी आंखों में झांका, हमने एक दूसरे को पहचान लिया।
अंतस की वर्तालापउसी एक क्षण में घट गई। कहने के लिए शब्दो की
कोई भी आवश्कता नहीं थी, सच कितना आंनद
बरसा उन दो दिनों जीवन की अनमोल क्षण थे। बड़े भाग्य से मिलते है, जहां दो मौन एक साथ बैठे हो तुम्हारा बहुत-बहुत आभार जो तुमने उस क्षण के
लिए हमें मिला दिया। वो क्षण बड़ा हीअनमोल था। हम दो नहीं थे एक थे, घट मिट गया था। वहां तो केवल आकाश बचा था। अब न वहां शब्द थे न वहां कोई
था फिर बात क्या होती। हम वहां केवल अतिथि थे, हमने एक दूसरे
को आच्छादित किया, हमने एक दूसरे को अतिप्लावन किया। हम एक
दूसरे में विलय हो गए। मौन में खो गए। जब मौन बोलता हो तब शब्द नहीं बालते न ही
उनकी जरूरत होती है।
मैं सच में शब्दों के लिए हमेशा किकर्तव्यविमुढ़ हो जाता हूं, हर शब्द को बड़ी ही हिचकिचाहट के साथ बोलता
हूं, यह भली भांति जानते हुए कि इससे काम न चल सकेगा। यह
पर्याप्त न होगा। कोई भी चीज कभी भी पर्याप्त नहीं हो पाती—सत्य इतना विशाल है और
शब्द इतने छोटे।
आज इतना ही।
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