गहरे नीले और बैंजली रंगों के पुष्पों की घाटी—(प्रवचन-आठवां)
ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
(ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 28 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)सूत्र:02
नीनागावा शिंजेमन, जो छंदबद्ध कविता का एक सुन्दर कवि और येन
का श्रद्धालु था, उसके अन्दरसुप्रसिद्ध सद्गुरु इनका शिष्य बनने की
इच्छा जागृत हुई,
जो उन दिनों नीले बैंजनी फूलों की घाटी मुस्कीनो में डेटोकूजी मठ का
सद्गुरु था।
उसे इक्यू द्वारा बुलवाया गया,
और बुद्ध मंदिर के प्रवेशद्वार पर उनके मध्य निम्न संवाद हुआ।
इन- आप कौन हैं?
नीनागावा: मैं बौद्ध धर्म का एक श्रद्धालु उपासक हूं।
इक्यू: आप कहां के हैं?
नीनागावा: आपके ही क्षेत्र का।
इक्यू: ओह! और इन दिनों वहां कैसा क्या हो रहा है?
नीनागावा: कौवे 'कांव-कांव' करते हैं और गौरेया चहचहाती रहती हैं।
इक्यू: आप अपने ख्यालों में अभी इस समय हैं कहां?
नीनागावा: नीले बैंजनी फूलों की सुन्दर घाटी में।
इक्यू: क्यों?
नीनागावा: क्योंकि यहां ' मिसकैंथस ' मार्निंग ग्लोरी, सूरजमुखी कुंवारे
सुनहरे रंग के सुन्दर काइसनधेमम्स और आस्टर के चमकते फूलों की
बहार है।
इक्यू: और जब वे बिदा हो जाएंगे, उसके बाद?
नीनागावा: यह मिफजीनो है-यह शरद ऋतु में चारों ओर खिलने वाले
फूलों की घाटी तो रहेगी ही।
इक्यू: फिर घाटी में उन दिनों क्या होता है?
नीनागावा: झरने खिलखिलाते हंसते हुए बहते हैं और तेज हवा, अपने
साथ सभी कुछ उड़ा कर ले जाती है। जैसे वह घाटी को बुहार देती है।
नीनागावा के ज़ेन सदृश उत्तरों से विस्मयाभिभूत होकर सदगुरु इक्यू ने
अपने कक्ष में साथ ले जाकर उसके सामने चाय प्रस्तुत की, और तभी
उसके कंठ से आशु कविता के रूप में हाइकू फूट पड़ा।
मैं विविध व्यंजन परोसकर
आपका स्वागत करना चाहता हूं
लेकिन आह! इस झेन क्षेत्र में
मैं आपको 'कुछ नहीं' ही भेंट कर सकता हूं।''
इसे सुनकर आगंतुक ने उत्तर दिया :
''ओ करुणामय महान आत्मा!
मेरा इतना अधिक ख्याल रखते हुए ही
आप सर्वाधिक कमनीय सुन्दर भेंटो में जो अमूल्य भेंट
'कुछ नहीं' दे रहे हैं
वही तो मौलिक शून्यता है।''
बहुत गहरे में उसके उत्तर से संतुष्ट और प्रभावित होकर सद्गुरु ने कहा:
मेरे वत्स! तुमने बहुत कुछ सीखा है।
कविता, धर्मशास्त्रों की अपेक्षा, धर्म के कहीं अधिक निकट है,
तर्क की अपेक्षा कल्पना कहीं अधिक निकट है।
और वस्तुत: धर्म न यह है और न वह, दोनों के ही पार है।
लेकिन तर्क के द्वारा, धर्म की अनंत शून्यता में डूबना
थोड़ा कठिन है
क्योंकि तर्कशास्त्र इस बारे में सिद्धांतों में अटल है,
उसमें लचीलापन नहीं है, उसके द्वार खुले नहीं हैं, वे बंद हैं।
उसमें उससे बाहर जाने के लिए न तो खिड़की हैं और न दरवाजे,
वह एक कब के समान है।
कोई भी स्वयं में कैद होकर केवल मर तो सकता है
लेकिन वह जीवंत प्रक्रिया की ओर नहीं बढ़ सकता।
कोई भी उसके द्वारा और अधिक जीवंत नहीं बन सकता।
तर्कशास्त्र एक जिरहबख्तर की भांति है, जिसमें तुम स्वयं बंदी बन जाते हो।
कविता, धर्म के कहीं अधिक निकट है,
क्योंकि वह तरल है, उसमें कहीं अधिक लचीलापन और प्रवाह है।
वह धर्म तो नहीं है
लेकिन तुम तर्कशास्त्र की अपेक्षा कहीं अधिक आसानी से उससे बाहर आ
सकते हो।
उसमें खिड़की और दरवाजे हैं, एक खुलापन है-
और उनसे होकर ताजी हवा कवि के हृदय की गहराइयों में केंद्र तक पहुंच
सकती है।
कविता में जड़ता नहीं है, वह थिर नहीं है, यदि तुम चाहो
तो तुम उससे बाहर हो सकते हो, वह तुम्हें बांधेगी नहीं।
और चूंकि वह कल्पनाशील है,
वह कभी भी अनजाने में अज्ञात से टकरा सकती है।
वह अंधेरे में टटोले जा सकती है- और यह अंधेरे में टटोलने जैसा ही है-
और वह टटोले ही जा सकती है, वह खोज किए ही जा सकती है।
वह हमेशा नए आयामों में गतिशील होने के लिए तैयार रहती है।
तर्क शास्त्र, विरोधी, अवरोधी और एक हठधर्मिता है।
तर्क शास्त्रियों से अधिक कट्टर व्यक्ति तुम कहीं और नहीं पा सकते।
वे कभी नए आयाम के खुलने की बात सुनेंगे ही नहीं।
वे उसकी ओर देखेंगे भी नहीं।
वे केवल इतना ही कहेंगे कि यह सम्भव नहीं है।
वे लोग सोचते हैं कि जो कुछ भी सम्भव है वह पहले ही जाना जा चुका है,
वह सब कुछ जो घट सकता था, पहले ही घट चुका है।
वे अज्ञात के प्रति सदैव संदेह ही करते रहते हैं।
कवि का हृदय सदा अज्ञात के प्रेम में डूबा रहता है।
वह किसी नूतन भाव या कल्पना के लिए अंधकार में टटोले जा रहा है-
कुछ ऐसी चीज जो मौलिक हो, कुछ ऐसी चीज जिसका स्वाद अनजाना हो,
कुछ ऐसी चीज जिसको अभी तक न तो जीया गया हो,
और जिसका न अभी तक अनुभव किया गया हो।
एक कवि टटोलता है
और जब कभी वह अज्ञात से टकरा सकता है।
वह धर्म की मौलिक शून्यता के अतल तल में गिर कर उसकी झलक पा
सकता है।
कविता प्रतीकात्मक, और सांकेतिक है, वह विरोधाभासों से भरी होती है।
ठीक यही भाषा धर्म की भी है।
वस्तुत: जब काव्यात्मक रूप में किसी प्रतीक का प्रयोग किया जाता है
तो उस बात का कुछ अलग अर्थ होता है
और जब धार्मिक मार्ग में उसका प्रयोग किया जाता है तो उसका अर्थ कुछ
और होता है। दोनों प्रतीकों और विरोधाभासों का प्रयोग करते हैं। यही उनका
मिलन-बिंदु है।
उनके अर्थ भिन्न हो सकते हैं, लेकिन उनकी विधियों का स्रोत एक ही है।
वे जुड़वां भाइयों जैसे दिखाई देते हैं।
उनमें अन्दर से बहुत बड़ा अंतर है, लेकिन कम से कम आकृति में अपनी
सतह पर बाहर से वे धर्म शास्त्र और धर्म की अपेक्षा अधिक समान लगते
और इस समानता के कारण ही
धर्म ने हमेशा अपने को काव्यात्मक रूप से ही अभिव्यक्त किया है:
उपनिषद, वेद, कबीर, मीरा, और ज़ेन कवि
कुछ ज़ेन सदगुरु ने बहुत सुन्दर हाइकू लिखे हैं, इतने अधिक सघन
कि एक विराट काव्यात्मक संसार, एक हाइकू में एक बीज बनकर सिमट
जाता है।
कभी वे इतने अधिक साधारण और सामान्य होते हैं
कि तुम तुरंत उनके महत्व को नहीं समझ सकते
लेकिन यदि तुम उन पर विचार करो और उन पर ध्यान करो
तब धीमे धीमे एक छोटा सा हाइकू ही एक द्वार बन जाता है।
कुछ ही दिनों पूर्व मैं बाशो का एक सुप्रसिद्ध हाइकू पड़ रहा था।
एक बहुत बहुत छोटी सी ज़ेन कविता, लेकिन तुम यदि तुम उस पर ध्यान
करो, तो अकस्मात् एक द्वार खुल जाता है।
वह हाइकू है:
एक बहुत पुराने तालाब में
एक मेढक उछला
पानी में एक 'छपाक' की ध्वनि हुई।
अब मन में इस चित्र को उभारें
एक बहुत पुराने तालाब में, एक मेढक उछाल भरता है।
पानी में 'छपाक' जैसी ध्वनि होती है और सब कुछ समाप्त हो जाता है।
इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। पूरी स्थिति सघन हो जाती है।
यदि तुम इस पर ध्यान करो,
तो अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि एक मौन तुम्हें चारों ओर से घेर लेता है।
कोई चीज तुम्हें अन्दर से बदल देगी।
यह वस्तुगत कला है।
ज़ेन कवि, सूफी रहस्यदर्शी, और हिंदू संत,
यह सभी अपने को काव्यात्मक भाषा के रूप में अभिव्यक्त करते रहे हैं
और यदि कभी बुद्ध, महावीर और जीसस, काव्यात्मक भाषा में न भी बोले
हों, फिर भी उसमें वहां काव्य है, भले ही वह काव्यात्मक अभिव्यक्ति न
हो।
यदि तुम उनके वचनों को सुनो, तो तुम्हें उनके उन शब्दों के नीचे एक विशिष्ट
काव्यात्मक गुणात्मकता का अनुभव होगा।
गद्य तो केवल सतह पर है। उसका रूप गद्य का है, लेकिन उसकी आत्मा में
काव्य है।
वास्तव में एक व्यक्ति, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ हो, इससे अन्यथा हो
ही नहीं सकता।
यदि गद्य में ही बोलना जरूरी हो, तो वह वैसा कर सकता है,
लेकिन वह काव्य की उपेक्षा नहीं कर सकता।
कविता वहां होगी ही, केवल वह सतह के नीचे होगी।
यदि तुम्हारे पास जरा सी थोड़ी भी अंतर्दृष्टि है, तो तुम देख सकोगे:
वह वहां जीवंत बना धड़क रहा है।
धर्म और कविता की भाषा एक जैसी ही होती हैं
उनके शब्द भिन्न हो सकते हैं लेकिन कहीं न कहीं वे एक ही बिंदु पर
मिलते हैं।
और वह मिलन-बिंदु ही इस बोध कथा का विषय है।
एक कवि एक ज़ेन सद्गुरु से भेंट करने आया।
वह जरूर ही एक महान-कवि रहा होगा,
क्योंकि केवल उच्चकोटि का महानतम कवि ही
एक रहस्यदर्शी से मिलने का आधार खोज सकता है।
प्रत्येक कवि ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि जहां कविता अपनी पराकाष्ठा पर
पहुंचती है, वहां रहस्यवाद की पहली पगध्वनि सुनाई देती है।
जहां कविता का अंत होकर वह अपने चरमोत्कर्ष पर,
अपने गौरीशंकर शिखर पर पहुंचती है, वह हिमालय बन जाती है,
और वही, रहस्य के मंदिर तक जाने का पहला कदम होता है।
कविता का सर्वोच्च शिखर, रहस्यवाद का निम्नतम तल है
और वही उन दोनों का मिलन बिंदु है।
इसलिए केवल बहुत महान कवि ही उस ऊंचाई को प्राप्त कर सकते हैं,
जहां एक ज़ेन सद्गुरु उससे कह सकेगा:
मेरे वत्स! तुमने तो बहुत कुछ सीख लिया है।
अब हम इस बोध कथा में प्रवेश करेंगे।
नीनागावा शिंजेमन जो छंदबद्ध कविता का एक सुन्दर कवि,
और ज़ेन का श्रद्धालु था, उसके अन्दर
सुप्रसिद्ध सद्गुरु इक्यू का शिष्य बनने की इच्छा जागत हुई,
जो उन दिनों नीले बैंजनी फूलों की घाटी मुस्कीनो में डेटोकूजी मठ का
सद्गुरु था।
मेरा सदा से ही यह अनुभव रहा है
कि जितने भी महानतम कवि हैं, वे धर्म से दूर नहीं रह सकते,
उन्हें उसकी ओर आना ही होता है,
क्योंकि कविता एक ऐसे बिंदु तक ले जाती है
कि उसी के पार धर्म होता है।
यदि तुम निरंतर एक कवि बने ही रहते हो, तो तुम धार्मिक बन जाओगे।
यदि तुमने अंतिम सीमा तक यात्रा नहीं की है,
तो तुम केवल एक कवि ही बनकर रह जाओगे।
इसलिए बहुत से छोटे-मोटे कवि, केवल कवि बनकर ही रह जाते हैं
महान कवियों का धर्म की ओर गतिशील होना एक बाध्यता है।
क्योंकि जब वह विशिष्ट बिंदु आ जाता है,
जहां कविता का अंत होता है और धर्म का प्रारम्भ
तो तुम उससे छुटकारा नहीं पा सकते।
यदि तुम उस सीमा तक उनका अनुसरण करते हो, तो उससे आगे तुम कहां
जाओगे?
उसी क्षण कविता स्वयं धर्म में रूपांतरित हो जाती है,
किसी को भी उसका अनुसरण करना ही होता है।
यही चीज एक तर्कशास्त्री और एक वैज्ञानिक के साथ भी घटती है,
लेकिन कुछ अलग तरह से।
एक वैज्ञानिक के साथ भी, यदि वह दृढ़ता से अपने कार्य में निरंतर जुटा- ही
रहता है, तो एक क्षण ऐसा आता है,
जहां वह यह अनुभव करता है वह एक ऐसी अंधी तंग गली में पहुंच गया
है, जिसके आगे मार्ग बंद हो गया है।
और वहां एक अतल शून्यता भरी खाई है, और सभी रास्ते बंद हो गए हैं।
कवि के साथ यह अनुभव अलग तरह का होता है।
वहां उसके सामने मार्ग तो होता है, लेकिन वह मार्ग कविता की ओर न जाने
का होता है।
उसका मार्ग अपने आप स्वत: ही धर्म के मार्ग में बदल जाता है।
लेकिन एक तर्कशास्त्री, एक वैज्ञानिक अथवा एक दार्शनिक के लिए वह
अलग तरह से घटता है।
वह अंधी तंग गली के उस छोर पर आ जाता है, जहां मार्ग समाप्त हो जाता
है। वह कहीं आगे जाता ही नहीं, उसके आगे कोई रास्ता होता ही नहीं,
वहां केवल एक ढालू चट्टान और गहरी खाई होती है।
अंतिम दिनों में ऐसा ही अल्वर्ट आइन्सटीन के साथ घटा।
ऐसा केवल महान लोगों को ही घट सकता है।
कम बुद्धि वाले, उसी सड़क के उस स्थान पर कभी नहीं पहुंचते
जहां रास्ता तंग होता हुआ बंद हो जाता है, और वे वहीं उसे सड़क पर ही,
यह विश्वास करते हुए मर जाते हैं कि वह सड़क उन्हें कहीं ले जा रही थी।
रूपांतरण तो महान लोगों का ही होता है।
अल्वर्ट आइन्सटीन को अपने जीवन के अंतिम दिनों में,
यह अनुभव होना शुरू हो गया था, कि उनका पूरा जीवन यों ही व्यर्थ बीत
गया।
किसी ने उनसे पूछा
यदि आपका जन्म फिर से हो, तो आप क्या बनना पसंद करेंगे?
उन्होंने उत्तर दिया: मैं फिर से कभी भी एक वैज्ञानिक न बनकर
एक नल का मिस्त्री बनना अधिक पसंद करूंगा,
लेकिन कभी भी वैज्ञानिक नहीं। इसने सब कुछ समाप्त कर दिया।
अपने अंतिम दिनों में उन्होंने परमात्मा के बारे में अथवा जीवन की उस
अंतिम सर्वोच्च स्थिति, जो सभी रहस्यों का एक रहस्य है के बारे में सोचना
शुरू कर दिया था,
और कहा था: मैं इस अस्तित्व के रहस्य के जितने अधिक अन्दर
गहराई में गया, मैंने अधिक से अधिक यह अनुभव किया
कि यह रहस्य शाश्वत और अनंत है।
मैंने जितना अधिक उसे जाना
मैं अपनी जानकारी अथवा ज्ञान के बारे में उतना ही अनिश्चित बनता गया।
यह रहस्य इतना अधिक विराट है, कि वह कभी भी चुकता नहीं, बढ़ता ही
जाता है।
यही धारणा, परमात्मा के भी बारे में है:
उसका रहस्य इतना अधिक विराट है, कि उसका विकास होना कभी रुकता नहीं
तुम उसे जितना भी जानते हो, जितना भी जान सकते हो,
फिर भी वह अज्ञात ही बना रहता है।
तुम जितना अधिक उसके अन्दर जाते हो, गहरे और गहरे उतरते ही चले
जाते हो,
और तुम फिर भी यह पाते हो, कि तुम परिधि पर ही घूम रहे हो।
तुम उस रहस्य सागर में डुबकी लगाते हो, लेकिन तुम उसकी थाह नहीं
पाते।
तुम ठीक उस रहस्य के केंद्र में कभी पहुंच ही नहीं सकते।
वह क्षण कभी आता ही नहीं, जब तुम यह कह सकी: मैंने सब कुछ जान
लिया है।
सिवाय मूर्ख व्यक्तियों के किसी भी अन्य व्यक्ति ने यह कहा ही नहीं।
एक समझदार व्यक्ति अपने को अधिक से अधिक अज्ञानी होने का अनुभव
करना शुरू कर देता है।
केवल मूर्ख लोग ही इधर-उधर से कुछ चीजें इकट्ठी कर लेते ऐं,
और यह सोचना शुरू कर देते हैं, कि वे जानते हैं।
केवल मूर्ख लोग ही ज्ञानी होते हैं, जो जानने का दावा करते हैं।
वैज्ञानिक खोज में भी
एक क्षण ऐसा आता है, जब मार्ग कहीं नहीं ले जाता,
तभी अचानक वहां एक छलांग लगती है।
एक कवि, धर्म में बिना किसी छलांग के प्रविष्ट हो सकता है,
उसे साधारण रूप से सरकते हुए धर्म के मार्ग पर आ जाना है
क्योंकि दोनों रास्ते एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
लेकिन एक वैज्ञानिक को धर्म के पथ पर आने के लिए एक छलांग भरनी
होती है।
तीन सौ साठ डिग्री तक पूरी तरह घूमना होता है
उसे पूरी तरह ऊपर से नीचे, अन्दर से बाहर और बाहर से अन्दर आना होता
है। लेकिन एक कवि, एक सर्प की भांति अपनी केंचुल छोड्कर
सरकते हुए बाहर निकल सकता है।
मैं इसी वजह से यह कहता हूं कि काव्य, धर्म के कहीं अधिक निकट है।
यह व्यक्ति नीनागावा शिंजेमन जरूर ही एक बहुत महान कवि रहा होगा,
इसीलिए ज़ेन अथवा ध्यान में उसकी उत्सुकता जागृत हुई।
यदि तुम्हारे काव्य का सृजन तुम्हें ध्यान की ओर नहीं ले जाता, तो वह काव्य
है ही नहीं।
अधिक से अधिक वह शब्दों का चतुरता से किया गया एक संयोजन है
वह एक तुकबंदी है, लेकिन वहां काव्य की आत्मा नहीं है।
तुम एक अच्छे भाषाशास्त्री, एक अच्छे व्याकरण, छंद आदि के जानकार और
शब्दों को छंद में ढालने वाले एक ऐसे कवि हो सकते हो-जो काव्यशास्त्र के
सभी नियमों और सिद्धांतों को जानता हो, लेकिन तुम एक कवि नहीं हो
सकते-
क्योंकि अपनी गहराई में स्थित केंद्र पर कविता, ध्यानपूर्ण होती है।
एक कवि, मात्र शब्दों की माला गूथने वाला एक माली ही नहीं होता;
उसके पास कल्पना के साथ एक अंतर्दृष्टि होती है।
वह कैवल शब्दों को गीत, छंद में संयोजित करने वाला ही नहीं होता,
कुछ विशिष्ट क्षणों में कविता कहीं अज्ञात से उतरती है-
वे क्षण ध्यान के ही होते हैं।
वास्तव में जब कवि वहां नहीं होता, कविता तभी घटती है।
जब कवि पूरी तरह अनुपस्थित हो जाता है
तभी अकस्मात् बिना मांगे कहीं अज्ञात से कुछ बरस कर उसे आप्लावित कर
देता है तभी अचानक उस अज्ञात की जैसे कोई किरण उसके अन्दर प्रविष्ट हो
जाती है।
उसके शरीर रूपी घर को, जैसे एक ताजा हवा का झोंका
एक ताजगी और सुवास से भर देता है।
अब उसे ताजी हवा के इसी स्पंदनशील झोंके का भाषा में जैसे अनुवाद भर
करना होता है।
वह सही अर्थों में शब्दों की माला गूंथने वाला माली न होकर
अज्ञात से उतरे अनजान अनुभव का अपनी भाषा में अनुवाद मात्र करता है।
एक कवि, एक अनुवादक होता है,
उसके आंतरिक अस्तित्व में जो कुछ घटता है,
वह उसी का अपने शब्दों में केवल अनुवाद करता है।
यह आंतरिक अनुभूति संवेदना जैसा अधिक और विचार जैसा कम होता है।
यह बुद्धिगत बहुत कम, और अधिक से अधिक हार्दिक होता है।
एक कवि प्रामाणिक रूप से बहुत साहसी होता है,
हृदय से जीने के लिए बहुत बड़ा साहस चाहिए।
साहस के लिए अंग्रेजी का शब्द Courage बहुत दिलचस्प है।
यह लैटिन भाषा के मूल Cou से आता है, जिसका अर्थ होता है-हृदय।
इसलिए साहसी होने का अर्थ है, हृदय के साथ रहना।
दुर्बल मनुष्य, केवल दुर्बल मनुष्य ही बुद्धि के साथ जीते हैं,
भयभीत बने, वे अपने चारों ओर तर्कजाल का एक सुरक्षा कवच निर्मित कर
लेते हैं।
वे डरकर अपने हृदय के सारे खिड़की-दरवाजे बंद कर लेते हैं,
वे अपने को धर्म शास्त्रों, धारणाओं, शब्दों और सिद्धांतों की ओट में छिपा लेते है।
हृदय का मार्ग ही साहस का मार्ग है।
यह असुरक्षा में जीना है,
यह प्रेम और श्रद्धा में जीना है,
यह अज्ञात की ओर आगे बढ़ना है,
और यह अतीत को छोड़ते हुए भविष्य को होने की अनुमति देना है।
साहस का अर्थ है खतरनाक रास्तों की ओर बढ़ना,
जीवन बहुत खतरों से भरा है और केवल कायर ही खतरों से दूर रह सकते
लेकिन तब, वे पहले ही से मरे हुए हैं।
एक व्यक्ति, जो जीवंत है, वास्तव में जीवित रहते हुए जीवन स्फूति से भरा
हुआ है।
वह हमेशा अज्ञात की ओर गतिशील होता ही है।
उसमें खतरा होता है, लेकिन वह जोखिम उठाएगा ही।
हृदय हमेशा जोखिम उठाने को तैयार रहता है,
हृदय एक जुआरी जैसा होता है, जब कि मन व्यापारी होता है।
मन अथवा बुद्धि हमेशा हिसाब किताब जोड़ती है, वह चालाक होती है।
हृदय कोई हिसाब-किताब नहीं करता।
अंग्रेजी का यह शब्द Courage बहुत सुन्दर और दिलचस्प है।
इसका अर्थ है हृदय के द्वारा जीना:
एक कवि हृदय के द्वारा ही जीता है।
और धीमे- धीमे हृदय ही में वह अज्ञात की पगध्वनि सुनना शुरू कर देता है।
बुद्धि उस ध्वनि को नहीं सुन सकती, वह अज्ञात से बहुत-बहुत दूर होती है।
मन या बुद्धि, ज्ञात से, जानकारी से भरी होती है।
तुम्हारा मन है क्या? वह, वही सब कुछ है जो तुम जानते हो।
वह अतीत है तुम्हारा, जो बीत चुका, जो मुर्दा है।
मन और कुछ भी नहीं बल्कि इकट्ठी हुई स्मृतियां और बीत जाने वाला अतीत
है। हृदय है भविष्य, हृदय है हमेशा आशा से आप्लावित।
हृदय हमेशा भविष्य में ही कहीं होता है।
मन सोचता है अतीत के बारे में और हृदय स्वप्न देखता है भविष्य के।
और मैं तुमसे कहता हूं
कि अतीत की अपेक्षा, भविष्य कहीं अधिक वर्तमान के निकट है।
इसी कारण मैं कहता हूं कि एक कवि, धर्म के कहीं अधिक निकट है।
दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र, अस्तित्व को जानने का सैद्धांतिक दर्शन, धर्मशास्त्र
और विज्ञान यह सभी अतीत और ज्ञात से सम्बंधित हैं,
काव्य, संगीत, नृत्य, कला-और सभी कलाएं भविष्य की सम्पत्ति हैं।
धर्म, वर्तमान की सम्पत्ति है, और मैं तुमसे कहता हूं
कि अतीत की तुलना में भविष्य वर्तमान के कहीं अधिक निकट है,
क्योंकि अतीत तो पहले ही जा चुका। भविष्य को अभी आना है।
भविष्य को अभी भी प्रकट होना है।
भविष्य में अभी भी सम्भावना है, कि वह आएगा, वह आ ही रहा है।
प्रत्येक क्षण वह वर्तमान बनता जा रहा है।
प्रत्येक क्षण भविष्य ही वर्तमान बनता जा रहा है,
और वर्तमान अतीत होता जा रहा है।
अतीत में कोई सम्भावना नहीं है, उसका उपयोग किया जा चुका।
तुम पहले ही उससे आगे बढ़ चुके-वह चुक गया।
वह अब एक मुर्दा चीज की भांति है, वह एक कब है।
भविष्य है एक बीज की भांति, वह आ रहा है, हमेशा उसमें से कुछ आता ही है
और वह हमेशा वर्तमान से मिलता भी है।
तुम सदैव गतिशील रहते हो।
वर्तमान और कुछ भी नहीं, बल्कि वह भविष्य की ओर गतिशीलता है।
वह पहले ही से उठाया हुआ वह कदम है, जो तुम ले चुके हो,
और वह भविष्य बनने जा रहा है,
कविता का सम्बन्ध है, सम्भावनाओं, आशा और सपनों के साथ है,
वह भी निकट से निकटतम।
यह व्यक्ति, नीनागावा जरूर ही एक महान कवि रहा होगा।
मैं यह क्यों कह रहा हूं कि उसे एक महान कवि होना ही चाहिए?
मैंने उसकी कोई कविता नहीं पड़ी, मैं यह भी नहीं जानता कि उसने लिखा
क्या है?
लेकिन मैं यह भी कहता हूं कि उसे एक महान कवि जरूर होना ही चाहिए
क्योंकि ज़ेन के प्रति उसकी उत्सुकता जागृत हुई,
और इतना ही नहीं
उसमें, सुप्रसिद्ध सद्गुरु इक्यू का शिष्य बनने की चाह उत्पन्न हुई।
ज़ेन के प्रति उत्सुक होना ही पर्याप्त नहीं है
जब तक कि तुम एक शिष्य न बनो।
धर्म में दिलचस्पी लेना ही पर्याप्त नहीं है- यह अच्छा है, लेकिन यह बहुत
दूर तक नहीं ले जाता।
दिलचस्पी एक कौतूहल मात्र बन कर रह जाती है,
दिलचस्पी केवल मानसिक ही बनी रहती है,
जब तक कि तुम प्रतिबद्ध होकर एक छलांग न लगाओ,
जब तक कि तुम एक शिष्य न बनो।
शिष्य बनना एक बहुत बड़ा निर्णय है,
यह कोई साधारण निर्णय नहीं है
यह बहुत कठिन है, लगभग असम्भव निर्णय है।
मैं यह सदा से कहता रहा हूं कि एक शिष्य बनना सबसे अधिक असम्भव
क्रांति है।
क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे पर कैसे श्रद्धा कर सकता है?
कोई भी व्यक्ति कैसे अपना जीवन किसी दूसरे व्यक्ति को सौंप सकता है?
यह सबसे अधिक असम्भव क्रांति है, लेकिन यह घटती है।
और जब यह घटती है तो बहुत सुन्दर होती है।
इसके जैसा यहां अन्य कुछ है भी नहीं।
लेकिन केवल वे ही लोग जो बहुत साहसी होते हैं, लगभग जीवट साहस
की प्रतिमूर्ति,
केवल वे ही लोग आगे बढ्कर कदम उठा सकते हैं।
यह कायरों के लिए नहीं है
यह बुद्धि प्रधान लोगों के बस की बात नहीं है,
यह उन्हीं लोगों के लिए है, जो हृदय में जीते हैं,
यह उनके लिए है, जिनमें साहस है, जो जोखिम उठा सकते हैं।
यह अभी तक खेले गए खेलों में सबसे बड़ा जुआ है,
क्योंकि तुम अपना पूरा जीवन दांव पर लगाते हो।
तुम अपने आपको किसी दूसरे व्यक्ति को सौंपते हो,
जब कि तुम नहीं जानते कि वह है कौन? तुम उसे जान भी नहीं सकते।
तुम कुछ विशिष्ट चीजों का अनुभव करते हो,
लेकिन तुम सद्गुरु के बारे में कभी भी निश्चित नहीं हो सकते।
हमेशा एक संदेह बना ही रहता है तुम्हें
इस संदेह के बावजूद भी, एक व्यक्ति को छलांग लगानी ही पड़ती है।
संदेह की संतुष्टि नहीं हो सकती। नहीं।
तुम उसे छिपा सकते हो, लेकिन तुम संदेह करने वाले भाग को समझा नहीं सकते।
तुम उसे कैसे आश्वस्त कर सकते हो?
तुम्हें सद्गुरु के साथ उसके सान्निध्य में रहना होगा,
केवल तभी संदेह मिट सकेगा। इससे पहले ऐसा होना सम्भव ही नहीं है।
केवल अनुभव ही उसके मिटने में सहायक बनता है।
इसलिए तुम उसे कैसे आश्वस्त कर सकते हो?
मन हमेशा हिचकता है।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि वे हिचक रहे है,
वे पचास प्रतिशत पक्ष में और पचास प्रतिशत विरोध में हैं।
उन्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें कुछ प्रतीक्षा करनी चाहिए?
यदि वे प्रतीक्षा करते हैं, तो वे हमेशा प्रतीक्षा ही करते रहेंगे,
क्योंकि यदि वे यह सोचते हैं कि वे तभी छलांग लगाएंगे, जब मन
सौ प्रतिशत निश्चित और आश्वस्त हो जाएगा,
तो वे लोग कभी भी ऐसा निर्णय लेंगे ही नहीं।
क्योंकि मन कभी भी किसी भी चीज के बारे में सौ प्रतिशत
आश्वस्त हो ही नहीं सकता-मन का स्वभाव ही ऐसा है।
वह हमेशा टुकड़ों में बंटा हुआ खण्डित ही होता है, वह कभी भी समग्र,
अथवा अखण्ड हो ही नहीं सकता।
हृदय और मन के मध्य यही अंतर है।
हृदय हमेशा पूर्ण और अखण्ड होता है और मन हमेशा विभाजित।
मन ही तुम्हारे अस्तित्व को विभाजित करता है।
हृदय तुम्हारे अस्तित्व का अविभाजित भाग है।
शिष्यत्व हृदय से होता है।
मन, मनोरंजन और सैर सपाटे की ही बातें किए चले जाता है,
और इस संदेह तथा मन की चटर-पटर के बावजूद भी
एक व्यक्ति छलांग लगाता है।
मैं कहता हूं कि इस सभी के बावजूद छलांग लगाना ही केवल मात्र मार्ग है
तुम सामान्य रूप से मन की बात सुनते नहीं, तुम प्रामाणिक रूप से मन के
अधीन बने गतिशील होते हो।
हृदय तक पहुंची और उससे पूछो।
शिष्य बनना, व्यक्ति के प्रेम में पड़ने जैसा है,
यह किसी व्यापारिक साझेदारी के समान नहीं है, यह कोई मोल-तोल का
सौदा नहीं है।
तुम प्रामाणिक रूप से अपने को सौंपते हो, समर्पित करते हो,
बिना यह जाने हुए कि तुम्हें कुछ भी घटने जा रहा है अथवा नहीं,
क्या तुम्हें अपने समर्पण के प्रतिदान में कुछ मिलेगा अथवा नहीं?
तुम नहीं जानते
तुम केवल अपने को सौंपते हो,
इसीलिए मैं इसे सबसे बड़ा साहस कहता हूं।
उसकी केवल दिलचस्पी मात्र ही नहीं थी ज़ेन में, वह एक श्रद्धालु था।
वह उससे प्रेम करता था।
दिलचस्पी, कौतूहल और पूछताछ यह मन की होती है।
और श्रद्धा और भक्ति जन्मती है हृदय में।
….उसमें एक शिष्य बनने की इच्छा जागृत हुई।
एक शिष्य बनना क्या होता है? आखिर इसका क्या अर्थ है?
इसका अर्थ है: मैंने सभी प्रयास कर लिए और असफल रहा,
मैंने उसकी बहुत तलाश की, लेकिन उसे पा न सका,
मेंने वह सभी कुछ कर लिया, जो मैं कर सकता था
और मैं जैसे का तैसा रहा। मेरे अन्दर कोई भी रूपांतरण नहीं हुआ।
इसलिए मैं अब समर्पण करता हूं।
अब सद्गुरु ही वास्तविक रूप से निर्णय करेगा, मैं नहीं।
मैं अब एक छाया की भांति पूरी तरह से उसका अनुसरण करूंगा।
वह जो कुछ भी करने को कहेगा, मैं उसे करूंगा।
मैं उससे प्रमाण नहीं मांगता।
मैं यह भी नहीं कहूंगा कि पहले वह मुझे समझ बुझा कर आश्वस्त करे।
मैं तर्क-वितर्क नहीं करूंगा, मैं परिपूर्ण श्रद्धा के साथ पूरी तरह उसका
अनुसरण करूंगा।
मन फिर भी इस बारे में प्रश्न उठा सकता है:
'यह तुम कर क्या रहे हो? ऐसा करना ठीक नहीं है।
यह तुम्हें कहीं भी नहीं ले जाएगा, यह मूर्खतापूर्ण है, यह पागलपन है।'
मन इसी तरह बहुत कुछ कहे चला जाएगा,
लेकिन एक बार जब तुम शिष्य बनने का निर्णय ले लो,
फिर तुम मन की सुनो ही मत, तुम सद्गुरु को सुनो।
अभी तक तुम अपने मन और अहंकार की बात सुनते आए हो,
अब आगे से तुम सद्गुरु को ही सुनोगे। अब सद्गुरु ही तुम्हारा मन होगा।
शिष्य बनने का यही अर्थ होता है:
तुम अपने आपको, अपने 'मैं' को उठाकर एक तरफ रख दोगे,
और सद्गुरु को अनुमति दोगे कि वह तुम्हारे अस्तित्व के
गहरे केंद्र पर पहुंच सके।
तुम अब बचे ही नहीं। अब केवल सद्गुरु ही है।
शिष्य बनने का अर्थ है: एक छाया बनना,
अपने अहंकार को पूरी तरह एक किनारे अलग रख देना।
उसे इक्यू द्वारा बुलवाया गया
और बुद्ध मंदिर के प्रवेश द्वार पर उनके बीच निस संवाद हुआ।
ज़ेन बोध कथाएं प्रामाणिक रूप से अत्यंत ही अर्थपूर्ण हैं:
उनमें एक शब्द भी अनावश्यक नहीं है।
.. .मंदिर के प्रवेशद्वार पर उनके मध्य निस संवाद हुआ।
पहला शब्द है-' संवाद। '
संवाद, केवल बातचीत नहीं है, वह चर्चा-परिचर्चा भी नहीं है,
वह तर्क-वितर्क भी नहीं है, वह कोई वाद-विवाद भी नहीं है।
संवाद का गुण ही कुछ और होता है।
संवाद तब होता है-जब दो आत्माओं का प्रेम पूर्ण मिलन होता है।
वे तर्क-वितर्क और वाद-विवाद करने का प्रयास नहीं करते,
बस पूरी तरह सहानुभूति पूर्ण व्यवहार से,
दोनों एक दूसरे को समझने का प्रयास करते हैं।
संवाद का अर्थ है, एक-दूसरे के अस्तित्व में सहभागिता करना:
दो मित्र अथवा दो प्रेमी जब अपने अन्दर बिना किसी विरोध के यह सिद्ध
करने का प्रयास किए बिना कि तुम ठीक हो और दूसरा गलत-जब ऐसे दो
के बीच बातचीत होती है, तभी घटता है संवाद।
जब तुम लोगों से बातचीत करते हुए
सूक्ष्मतम रूप से अपने आपको ठीक सिद्ध करने का प्रयास किए जाओ,
और दूसरा अपने आप को ठीक सिद्ध करने का प्रयास करे
तब उनके मध्य संवाद होना सम्भव ही नहीं है।
संवाद का अर्थ होता है दूसरे व्यक्ति को खुले मन से समझने का प्रयास करना।
संवाद एक दुर्लभ घटना है और यह बहुत सुन्दर होता है,
क्योंकि दोनों ही संवाद के द्वारा समृद्ध होते हैं।
वास्तव में जब तुम बातचीत करते हो, तो वह एक चर्चा-परिचर्चा
अथवा एक वाद-विवाद ही हो सकता है,
दोनों एक-दूसरे के विरोध में एक शाब्दिक संघर्ष द्वारा,
यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि मैं ठीक हूं और तुम गलत हो।
संवाद, पूरी तरह इससे भिन्न होता है,
संवाद एक-दूसरे के विरोध में दिखावा न होकर
एक-दूसरे का हाथ थामकर, साथ-साथ सत्य की ओर
एक-दूसरे की सहायता करते हुए मार्ग खोजकर आगे बढ़ना होता है।
एक-दूसरे के साथ-साथ सहयोग करना होता है,
वह सत्य को पाने का एक लयबद्ध प्रयास होता है।
वह किसी भी तरह से कोई संघर्ष होता ही नहीं।
वह सत्य को पाने के लिए मित्रतापूर्वक साथ-साथ गतिशील होना होता है,
सत्य की प्राप्ति के लिए एक-दूसरे की सहायता करना होता है।
किसी के भी पास पहले ही से सत्य नहीं होता,
लेकिन जब दो व्यक्ति साथ-साथ सत्य के बारे में जांच और खोज प्रारम्भ
करते हैं,
वो, वही संवाद होता है, जिससे दोनों ही समृद्ध होते हैं।
और जब सत्य मिलता है, तो वह न तो मेरा होता है और न तुम्हारा ही।
जब सत्य प्राप्त होता है
तो वह उन दोनों से कहीं अधिक विराट होता है, जिन्होंने उसे खोजने में एक
दूसरे का साथ दिया था,
वह दोनों को ही चारों ओर से आच्छादित कर लेता है,
और दोनों ही समृद्ध हो जाते हैं।
संवाद से ही गुरु और शिष्य के मध्य सम्बन्ध जुड़ने की शुरुआत होती है,
और इसे मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही घटना चाहिए
अन्यथा मंदिर के अन्दर जाना सम्भव नहीं है।
इसीलिए बोध कथा में महत्वपूर्ण शब्द है-' प्रवेश द्वार पर '
इस संवाद को प्रवेश द्वार पर ही होना चाहिए था।
संवाद घटना ही प्रमुख बात है, यदि यह नहीं घटता
फिर वहां शिष्य बनने की कोई सम्भावना ही नहीं है।
तब इक्यू ने प्रवेश द्वार से ही उसे बिदा कर दिया होता
क्योंकि फिर वहां उस व्यक्ति को मंदिर के अन्दर आमंत्रित करने की
कोई आवश्यकता ही नहीं होती, वह अर्थहीन होता।
इसलिए प्रवेशद्वार की सीढ़ियों पर बैठे हुए ही संवाद घटित हुआ।
इक्यू ने उस व्यक्ति को समझने का प्रयास किया।
उसे इस व्यक्ति की सम्भावनाओं, क्षमताओं और
उसे अनुभव करते हुए समझना था।
उसकी खोज कितनी गहन है? उसकी खोज की प्रवृत्ति कितनी गहरी है?
कहीं वह केवल एक कौतूहल मात्र ही तो नहीं है?
कहीं वास्तव में वह श्रद्धालु भक्त न होकर केवल एक दार्शनिक ही तो नहीं
है?
इक्यू उसके अस्तित्व को अनुभव कर समझने का प्रयास कर रहा था,
और नीनागावा ने कोई भी प्रतिरोध न करते हुए इसमें उसे सहयोग दिया।
वह भयभीत नहीं हुआ, उसने अपना बचाव करने की कोशिश नहीं की,
उसने ऐसा कुछ बनने और दिखाने का बहाना नहीं बनाया,
जो वह वास्तव में नहीं था।
उसने इस व्यक्ति के सम्मुख अपना हृदय पूरी तरह खोल कर रख दिया।
उसने इस व्यक्ति को अपने अन्दर प्रवेश करनी की अनुमति दी
जिससे वह उसे अनुभव कर समझ सके,
क्योंकि इसी तरह से एक सद्गुरु को यह तय करना होता है
कि तुम केवल संयोगवश ही यहां आए हो
अथवा तुम प्रामाणिक रूप से यहां आए हो।
यह आना संयोगवश भी हो सकता है
किसी व्यक्ति ने तुम्हें इस बाबत बताया था और तुम इस सड़क से होकर
गुजर रहे थे.....
इसलिए तुमने सोचा कि अभी तो फिल्म देखने जाने के लिए काफी समय
बचा है,
चलो, चलकर यहां भी देख लें, कि यह सद्गुरु कौन और कैसे हैं?
यदि यह आना संयोगवश है
तो अच्छा है इस सम्बन्ध का अंत प्रवेश द्वार पर ही कर दिया जाए
क्योंकि यह कहीं भी आगे नहीं ले जाएगा।
यदि मन तार्किक है,
यदि मन अपने ही विचारों से पूरी तरह भरा हुआ है
तब तुम एक छात्र तो बन सकते हो, लेकिन एक शिष्य नहीं।
और एक सद्गुरु एक शिक्षक नहीं होता,
वह छात्रों की खोज नहीं करता, वह कोई स्कूल नहीं चला रहा है।
वह हृदय के एक मंदिर का सृजन कर रहा है, वह एक तीर्थ बना रहा है,
वह इस पृथ्वी पर एक पावन पवित्र ज्ञान-गंगा का अवतरण कर रहा है।
इक्यू को उसे अनुभव करना था, और उसने बहुत प्रामाणिकता से उसका
अनुभव कर, उसे समझा,
और उस व्यक्ति ने बहुत साहस से यह सिद्ध किया
कि वह प्रामाणिक है।
उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करते हुए सद्गुरु के सभी प्रश्नों के उत्तर
दिए।
सद्गुरु ने उससे जो कुछ भी पूछा, उसने समग्रता से उसका पूरा उत्तर दिया।
ये उत्तर बहुत सुन्दर हैं, अब हम उनकी ओर धीमे- धीमे यात्रा करेंगे।
उसे इक्यू द्वारा बुलवाया गया
और मंदिर के प्रवेशद्वार पर उनके मध्य निम्न संवाद घटित हुआ।
इक्यू ने पूछा: आप कौन हैं?
यही पूरी खोज बनने जा रही थी।
'मैं कौन हूं?' धर्म, इस बारे में ही की गई सारी खोज है।
यदि तुम पहले ही से यह जानते हो कि तुम कौन हो?
तो फिर फिक्र करने की कोई जरूरत ही नहीं है।
अथवा यदि तुमने अपने अज्ञान में अपने नाम और रूप के साथ
बहुत अधिक पहचान बना ली है, यदि तुम नाम और आकृति में ही डूबे हो,
तब भी तुम अभी इतने विकसित नहीं हुए हो
कि इक्यू जैसा सद्गुरु तुम्हें स्वीकार कर ले।
तब तुम्हें ऐसे किसी छोटे सद्गुरु और वास्तव में किसी शिक्षक के पास जाना
चाहिए जो तुम्हें शिक्षा दे सके, कि तुम न तो नाम हो,
और न हो रूप, और तुम एक शरीर भी नहीं हो, और न यह हो और न वह,
और वह तुम्हारे अन्दर एक ऐसी दार्शनिक भूमि तैयार कर दे
जिसमें एक सद्गुरु बीज बो सके।
तब तुम्हें किसी शिक्षक के पास जाने की जरूरत है।
इसलिए जो पहली बात इक्यू ने पूछी, वह यही थी-'तुम कौन हो?'
नीनागावा ने उत्तर दिया: बौद्ध धर्म का एक श्रद्धालु।
यह अत्यंत ही विनम्र और बिना कोई दावा करने वाला उत्तर है।
उसने अपना नाम नहीं बतलाया, कि मैं नीनागावा हूं-आप नहीं जानते मुझे?
क्या आपने अभी तक देश के सबसे बड़े कवि के बारे में कुछ भी नहीं सुना?
क्या आप अखबार नहीं पढ़ते
आप कितना व्यर्थ का प्रश्न पूछ रहे हैं : तुम कौन हो?
इस देश में प्रत्येक व्यक्ति मुझे जानता है, और यहां तक कि सम्राट भी।
कवि बहुत-बहुत अधिक अहंकारी व्यक्ति होते हैं
कवि, लेखक, उपन्यासकार-इन सभी का बहुत अधिक प्रगाढ़ अहंकार
होता है।
तुम साहित्यकारों से अधिक अहंकारी कोई दूसरा मनुष्य नहीं खोज सकते।
उनके साथ संवाद होना बहुत-बहुत कठिन होता है
वे पहले ही से जानते हैं।
वे तुम्हें सिखा सकते हैं, लेकिन उन्हें कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता।
केवल इसलिए कि कुछ पंक्तियों को छंदबद्ध कर वे एक कविता बना सकते
केवल इसलिए कि वे एक लेख कहानी या उपन्यास लिख सकते हैं,
वे यह शिद्दत से अनुभव करने लगते हैं कि हां, वे भी कुछ हैं।
वास्तव में एक प्रामाणिक कवि के पास कोई भी अहंकार नहीं होगा-
यदि किसी कवि का अहंकार बहुत अधिक प्रगाढ़ है, तो वह कवि है ही
नहीं।
क्योंकि उसने अपनी कविता से ही कुछ भी नहीं सीखा।
उसने उस मौलिक सत्य को भी नहीं समझा,
कि कविता केवल तभी उतरती है, जब वह उपस्थित नहीं रहता,
इसलिए यदि उसे बाध्य होकर कविता लिखनी पड़ी होगी,
तो वह कविता एक यांत्रिक कौशल हो सकती है, वह कवि एक यांत्रिक हो
सकता है,
लेकिन वह एक कवि नहीं है।
वह सुन्दर शब्दों का एक लयबद्ध संयोजन करने में समर्थ हो सकता है,
वह काव्यशास्त्र के सभी नियमों का अनुसरण करने में कुशल हो सकता है,
लेकिन वह एक कवि नहीं है।
तकनीकी रूप से वह ठीक और कुशल हो सकता है
लेकिन अन्दर अपनी गहराई में यदि अहंकार अभी भी वहां है,
तो वह यह जानता ही नहीं कि कविता क्या होती है,
क्योंकि कविता तो केवल तभी घटती है, जब तुम वहां मौजूद ही नहीं होते।
वास्तव में एक महान कवि कोई भी दावा नहीं करेगा,
कि वह उस कविता का सृजनहार है।
वह यह दावा कैसे कर सकता है, जब उसके घटने के समय वह उपस्थित
ही नहीं था वहां।
अंग्रेजी साहित्य के महान कवियों में से एक कवि कॉलरेज के साथ ऐसा हुआ
कि जब वह मरा, तो अपने पीछे लगभग चालीस हजार अधूरी कविताएं छोड़ गया।
वह एक कविता लिखना शुरू करता, तीन पंक्तियां लिखता और रुक जाता,
सालों गुजर जाते, और अचानक एक दिन, वह उसमें दो पंक्तियां-
और जोड़ देता और फिर रुक जाता।
चालीस हजार अधूरी कविताएं।
उसके मरने से ठीक पहले किसी व्यक्ति ने उससे आ-
आखिर तुम यह कर क्या रहे हो?
यह इतनी सुन्दर काव्य पक्तियां हैं, तुम इन कविताओं को पूरा क्यों नहीं कर देते?
उसने उत्तर दिया: मैं उन्हें पूरा कैसे कर सकता हूं?
मैंने उन्हें कभी लिखा ही नहीं। वे तो स्वयं ही उतरीं। कहीं अज्ञात से आईं।
जब वे स्वयं से आईं, आ गईं।
जब वे नहीं आतीं, तो नहीं आतीं, इसमें मैं क्या कर सकता हूं?
उन्हें खींच कर आने के लिए विवश नहीं किया जा सकता।
मैं नहीं जानता कि वे कहां से आईं?
कभी कोई पंक्ति चांदनी से झरी, कभी कोई पंक्ति अचानक फूल सी खिल
उठी।
कभी-कभी पूरी कविता ही क्रमिक रूप से उतरी,
और कभी नहीं भी उतरी और कुछ भी नहीं किया जा सका।
क्योंकि मैं स्वयं नहीं जानता था कि वे काव्य पंक्तियां कहां से आ रही हैं?
और सत्य बात तो यह है कि जब वे आईं, तो मैं वहां था ही नहीं।
मैं तो इतना अधिक विस्मय विमूढ होकर केवल एक शून्यता भर रह गया था,
इसलिए मैं उन अधूरी कविताओं को पूरा कैसे कर सकता हूं?
यही कारण है पुरानी कविताएं बिना किसी के हस्ताक्षर के आज भी जीवित
कोई भी नहीं जानता कि उन्हें किसने लिखा?
किसने लिखे महानतम कविताओं में उपनिषद?
उनकी रचना किसने की, कोई भी नहीं जानता।
उन कवियों ने उन पर अपने हस्ताक्षर ही नहीं किए।
उन्होंने अपना नाम इसलिए अंकित नहीं किया,
क्योंकि उन्होंने विनम्र होकर यह अनुभव किया,
कि वे उनके रचयिता, अथवा सृजनहार हैं ही नहीं, वे तो कहीं अज्ञात से उतरी हैं।
जब नीनागावा से पूछा गया, 'आप कौन है?'
यदि वह अन्य दूसरे सामान्य कवियों, लेखकों और साहित्यकारों की भांति
अपने अहंकार से भरा होता, तो उसने कुछ इस तरह कहा होता:
''आप मुझे नहीं जानते, मैं गौरवमय काव्य का रचयिता नोबेल पुरस्कार
विजेता हूं और सम्राट ने भी मेरी कविताओं की प्रशंसा की है
और अपने राज्य का कवि बनाकर मुझे सम्मानित किया है। ''
नहीं, नीनागावा ने कहा: मैं बौद्ध धर्म का एक श्रद्धालु उपासक हूं।
उसने अपनी कविता के बारे में कुछ कहा ही नहीं,
उसने अपने नाम की प्रसिद्धि के बारे में कोई बात ही नहीं की,
और न उसने स्वयं अपने बारे में कुछ भी बताया।
उसने साधारण रूप से इतना ही कहा : मैं बौद्ध धर्म का, बुद्ध का एक उपासक हूं।
एक श्रद्धालु उपासक-यह प्रदर्शित करता है-
कि वह वहां अपने हृदय के कारण अपने प्रेम के कारण आया था।
वह वहां कोई तर्क-वितर्क करने की वजह से नहीं आया था,
वह वहां अपनी भावनाओं के कारण, एक श्रद्धालु बनकर आया था।
इक्यू ने पूछा: आप कहां के हैं?
नीनागावा ने उत्तर दिया, आपके ही क्षेत्र का।
एक बहुत सुन्दर संकेत और प्रतीक है यह।
वास्तव में वह उसी क्षेत्र से आ रहा था
देश के जिस क्षेत्र अथवा भाग से इक्यू आया था।
लेकिन वह उस भाग के बाबत बता ही नहीं रहा था।
वह आंतरिक क्षेत्र के बारे में, अपनी तरिक-खोज के बारे में बता रहा था।
भले ही इस क्षेत्र में आप अधिक आगे हों
आप हो सकता है पहुंच भी गए हों वहां, और मैं केवल एक नव प्रवेशी हूं
लेकिन मैं हूं आपके ही क्षेत्र का, हम लोगों की खोज एक ही है।
मैं भी एक सहयात्री हूं।
एक बार तुम्हारा हृदय, सत्य को जानने की ओर प्रवृत्त हो जाए
तो तुम सभी बुद्धों के सहयात्री बन जाते हो।
वे वहां पहुंच गए हैं, तुम भी पहुंच जाओगे एक दिन।
हो सकता है इसमें कई जन्म लग जाएं
लेकिन इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता-तुमने मार्ग पर यात्रा का शुभारम्भ
कर दिया है।
तुम हो सकता है, अभी शुरुआत ही कर रहे हो,
लेकिन अब तुम एक सहयात्री हो।
नीनागावा ने उत्तर दिया- आपके ही क्षेत्र का,
मैं भी आपके उसी संसार का ही एक भाग हूं जहां आप रहते हैं
इक्यू ने पूछा: और इन दिनों वहां कैसा क्या हो रहा है?
वह उसे धकियाते हुए उकसा रहा है,
हो सकता है वह केवल बहाने बना कर कहीं से उधार ली हुई सुन्दर
विद्वत्तापूर्ण बातों से उसे धोखा देने की कोशिश तो नहीं कर रहा है?
हो सकता है, उसने ज़ेन शास्त्रों का अध्ययन किया हो,
जहां ऐसे संवादों का उल्लेख किया गया है।
लेकिन वह इक्यू से बचकर नहीं जा सकता,
यदि वह बहाने बना रहा है, तो वह कहीं न कहीं गिरेगा ही।
आह! और इन दिनों वहां कैसा क्या हो रहा है?
इक्यू उसे वापस पीछे ले जाना चाहता है।
नीनागावा भी इस बात को भली भांति समझ रहा है
कि 'आपके क्षेत्र से' उसका क्या अर्थ है?
लेकिन वह उसे एक क्षण भी सोचने की अनुमति नहीं देना चाहता।
इसीलिए वह पूछता है: और इन दिनों वहां कैसा क्या हो रहा है?
कौन वहां का प्रधानमंत्री बन गया है?
किसकी पत्नी किसके साथ भाग गई है?
कोई अफवाह, कोई गपशप: आखिर वहां उस क्षेत्र में क्या कुछ चल रहा है?
कुछ न कुछ घटनाएं वहां जरूर घटी होंगी-
कोई व्यक्ति मरा होगा, किसी का विवाह हुआ होगा
कुछ न कुछ घटनाएं घटी ही होंगी आखिर वहां क्या कुछ हो रहा है?
नीनागावा ने कहा: कौवे, 'कांव कांव' करते रहते हैं। गौरइयां चटचमती
रहती हैं।
मंत्री, प्रधानमंत्री और उनका राजनीतिक संसार,
बाजार और अर्थशास्त्र, ये चीजें सच्चा इतिहास नहीं हैं।
ये केवल दुर्घटनाएं या संयोग हैं, जो केवल परिधि पर घटते रहते हैं।
ये उस शाश्वत जगत का भाग नहीं हैं, वे हर समय घटते ही रहते हैं
यहां क्या शाश्वत है? उनके लिए जो उसे जानते हैं, केवल वही असली
खबर है।
और जो उसे नहीं जानते, उनके लिए जो कुछ संयोगवश अथवा दुर्घटनावश
हो रहा है, वही एकमात्र समाचार है।
नीनागावा ने उत्तर दिया: कौवे 'कांव कांव' करते रहते हैं और गौरेयां
चहचहाती रहती हैं।
यही शाश्वत समाचार है जो सदा होता ही रहता है,
और अभी भी हो रहा है।
गर्मी और सर्दी स्वाभाविक रूप से आती जाती हैं, और बादल घिरते है
और उड़ जाते हैं, यही शाश्वत है सब कुछ।
सुबह सूर्योदय होता है और शाम सूर्य अस्त हो जाता है
और रात आकाश में तारे झिलमिलाते हैं,
और ऐसा सभी कुछ अभी भी हो रहा है।
यही प्रामाणिक समाचार है।
कौवे इस बात की फिक्र नहीं करते कि कौन प्रधानमंत्री बना,
और गौरेयों का जरा भी ध्यान संसार की इन घटनाओं की ओर नहीं जाता,
केवल मनुष्य ही अपने अन्दर यह कूड़ा कर्कट भरे जा रहा है।
हेनेरी फोर्ड ने कहा है - 'इतिहास वह शैथ्या है, जिस पर लोग चिर निद्रा में सो गए हैं।'
एक इतने अधिक धनी व्यक्ति से ऐसा वक्तव्य आना,
यह बहुत दुर्लभ चीज है। लेकिन यह सत्य है।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि नेपोलियन जीतता है या हार जाता है?
कौन शासन करता है? शाश्वत अस्तित्व निरंतर गतिशील है।
इन सभी घटनाओं से बेखबर, कि वहां क्या हो रहा है?
नीनागावा क्या कह रहा है? वह कह रहा है, अस्तित्व हमेशा से वैसा ही है,
कौवे, ' कांव-कांव ' करते हैं, गौरेयां चहचहाती रहती हैं।
और आप अपने खयालों में अभी इस समय हैं कहां?
इक्यू की कठोरता, अब दूसरे आयाम से आक्रमण करती है।
और आप अपने खयाल से, अभी इस समय हैं कहां?
नीनागावा उत्तर देता है : 'नीले-बैंजनी फूलों की सुन्दर घाटी में।'
वह मठ, मुरस्कीनो की नीले बैंजनी फूलों के क्षेत्र के नाम से जाना जाता था।
इक्यू ने पूछा: क्यों?
आप इसे इस नाम से क्यों पुकारते हैं? क्या इसलिए क्योंकि-
आप इस समय गहरे नीले बैंजनी फूलों के क्षेत्र में हैं?
नीनागावा ने उत्तर दिया, चारों ओर ही मिसकैंथस, सूरजमुखी
मॉर्निंग ग्लोरी, क्यारे सुनहरे रंग के काइसनथेम्स, और ऑस्टर के फूल
खिले हुए हैं।
नीनागावा यह नहीं कहता कि इस मठ का नाम नीले बैंजनी फूलों का क्षेत्र
नामों का सम्बन्ध अतीत की स्मृतियों से है
और सद्गुरु पूछ रहा था, अभी वर्तमान के बारे में।
और अभी तो चारों ओर बस फूल ही फूल हैं...
मिसकैंथस, मार्निंग ग्लोरी, सूरजमुखी, कॉइसनथेम्स और आस्टर के फूल।
ये सभी फूल इस घाटी को गहरे नीले और बैंजनी रंग से रंग देते हैं।
जब इक्यू ने अभी के बारे में पूछा तो नीनागावा ने ' अभी ' के बारे में उत्तर
दिया।
इक्यू जैसा सद्गुरु वास्तव में एक असम्भव व्यक्तित्व है। वह जरा भी
विश्राम नहीं लेता।
उसने पूछा: और जब ये मुरझा जाएंगे, उसके बाद?
ये फूल अभी तो यहां हैं, बिल्कुल ठीक।
इसीलिए आप इस क्षेत्र को गहरे नीले बैंजनी फूलों का क्षेत्र कहते हैं।
लेकिन शीघ्र ही ये फूल भी चले जाएंगे, तब आप इस घाटी को क्या
कहकर पुकारेंगे?
नीनागावा ने उत्तर दिया: यह मियाजीनो है-शरद ऋतु के फूलों का क्षेत्र।
यह बात समझ लेने जैसी हैं।
बादल आते हैं और बरस कर चले जाते हैं-यह एक ही सिक्के के दो पहलू है।
फूल खिले हैं और तब वे मिट जाते हैं-
ये भी एक ही घटना या चीज के दो पहलू हैं।
उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों विपरीत नहीं हैं:
वे एक ही चीज के दो पहलू हैं।
अभी यहां फूल खिले हैं, इसलिए इसे बैंजनी फूलों की घाटी कहा जाता है।
और जब यह फूल चले जाएंगे तो लोग कहेंगे-
कि यह वह क्षेत्र है, जहां इस समय शरद् ऋतु में खिलने वाले फूल नहीं हैं।
यह फिर भी बैंजनी फूलों की घाटी ही रहेगी,
लेकिन अपने दूसरे पहलू से फूलों की अनुपस्थिति के कारण।
एक बार ऐसा हुआ कि एक ज़ेन सद्गुरु अपनी मां से बहुत अधिक प्रेम करता
था। ज़ेन शिष्य बनने से पूर्व ही, वास्तव में उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी।
वह एक ज़ेन भिक्षु बनना चाहता था, लेकिन उसकी मां ने कहा:
तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है और मैं बेचारी अकेली असहाय हूं।
इसलिए उसने कहा: आप फिक्र न करें। मैं भले ही भिक्षु बन जाऊं,
लेकिन मैं आपका बेटा ही बना रहूंगा और आप मेरी मां।
मैं कुछ भी छोड़ नहीं रहा हूं और न आप कुछ भी खो रही हैं।
इसलिए उसकी मां ने फिर उसे भिक्षु बनने की अनुमति दे दी।
वह अपनी मां से बहुत अधिक प्रेम करता था।
जब वह अपनी मां के लिए चीजें खरीदने बाजार जाता, तो लोग उस पर हंसते,
वे कहते हैं: हम लोगों ने एक भिक्षु को कभी भी चीजों को खरीदते हुए नहीं देखा।
बौद्ध भिक्षु केवल भिक्षा मांगते हैं, और न केवल वह भिक्षा ही मांगता था,
वह मछली और मांस भी खरीद रहा था,
लोग उसका उपहास उड़ाते हुए कहते थे, यह तो बहुत अधिक हो गया।
वस्तुत: वह यह चीजें अपनी मां के लिए ही खरीदता था, स्वयं अपने लिए नहीं :
वह मांस मछली पसंद करती थी, क्योंकि वह धार्मिक भिक्षुणी या संन्यासिनी
नहीं थी।
तब, जब उसकी मां ने लोगों को ही नहीं, पूरे कस्बे को एक भिक्षु को मछली
खरीदने पर हंसते और उपहास उड़ाते हुए देखा, तो वह शाकाहारी बन गई।
और चूंकि लोग उसे चीजें खरीदते देखकर हंसते थे,
उसकी मां ने कहा: तुम बाजार मत जाया करो। मैं स्वयं जाकर चीजें खरीद
लूंगी।
लेकिन उसका पुत्र निरंतर उसे प्रेम करता रहा।
तब एक दिन जब वह कहीं प्रवचन देने गया था,
उसकी मां की मृत्यु हो गई, वह वहां था ही नहीं।
वह ठीक समय पर घर आ गया, मृत शरीर अभी भी वहां था,
और लोग उसे श्मशान ले जाने की तैयारी कर रहे थे।
वह मृत शरीर के पास आकर बोला: '' मां! तो तुमने छोड़ ही दिया शरीर। ''
और उसने स्वयं ही उसकी ओर से उत्तर देते हुए कहा : ''हां बेटे! मैंने छोड़
दिया शरीर।''
तब उसने कहा: ''आप जरा भी फिक्र न करें।''
क्योंकि शीघ्र ही मैं भी तो अपना शरीर छोडूंगा।
तब मां की ओर से उत्तर देते हुए उसने कहा : ''ठीक है, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा
करूंगी।''
और तब उसने लोगों से कहा:
मैंने अपनी मां से अलविदा कह दी। संवाद पूरा हुआ।
मेरे लिए दाह संस्कार पूरा हो गया। आप लोग मृत शरीर को ले जा सकते हैं।
किसी व्यक्ति ने उससे पूछा: हम लोग कुछ समझे नहीं आपकी बात,
आखिर मामला क्या है? आप अभी किससे बातें कर रहे थे?
उसने कहा: मैं अपनी मां की अनुपस्थिति से बात कर रहा था,
क्योंकि वह उसके अस्तित्व का दूसरा पहलू है।
उन लोगों ने पूछा - लेकिन आप उत्तर क्यों दे रहे थे?
उसने कहा: क्योंकि वह अब उत्तर नहीं दे सकती, इसलिए मुझे ही दोनों
काम करने पड़े।
अनुपस्थिति उत्तर नहीं दे सकती, इसलिए मुझे उसकी ओर से उत्तर देना पड़ा।
लेकिन वह अभी भी अपने अनुपस्थित आयाम में है।
इसलिए जब इक्यू ने पूछा: और जब वे चले जाएंगे, उसके बाद?
नीनागावा ने उत्तर दिया, यह मियाजीनो है-शरद ऋतु में खिलने वाले
फूलों की घाटी तो यह रहेगी ही।
यह है वही क्षेत्र, लेकिन अपने अनुपस्थित पहलू के रूप में।
प्रकट अथवा अप्रकट, अस्तित्व में अथवा अस्तित्वहीन,
और जीवन अथवा मृत्यु यह उसी एक चीज के ही दो पहलू हैं,
इसमें चुनने जैसा कुछ है ही नहीं, और जो चुनते हैं, वे मूर्ख हैं,
और अनावश्यक रूप से दुःख और पीड़ा सहन करते हैं।
अब विस्मयाभिभूत होकर इक्यू ने अंतिम प्रश्न पूछा:
जब फूल बिदा हो जाते हैं तो इन मैदानों में फिर क्या घटता है?
नीनागावा ने उत्तर दिया: झरने हंसते खिलखिलाते हुए बहते हैं,
और तेज हवा अपने साथ सब कुछ उड़ाकर ले जाती है, जैसे वह
घाटी को बुहार देती है।
स्मरण रहे : यह देन जैसा है, लेकिन यह पूरी तरह ज़ेन नहीं है।
वह एक कवि है, गहरी समझ का एक बहुत महान कवि,
लेकिन कविता का सर्वोच्च, केवल ज़ेन का प्रारम्भ है,
वह धर्म का भी शुभारम्भ है।
है यह सब कुछ ज़ेन जैसे ही तत्वों वाला।
वह समझदार है, उसने एक विशिष्ट झलक देखी है,
उसके हृदय के द्वार खुले हैं, वह संवेदनशील है।
उसने अंधेरे में टटोला है, और वह अपनी ही खोज के द्वारा उससे टकराया
भी है, उसे एक विशिष्ट अनुभूति का स्वाद मिला है।
लेकिन अभी भी वह केवल एक झलक है।
ऐसा कभी-कभी घट जाता है-
एक अंधेरी रात में अचानक बिजली कौंध जाती है, और तुम्हें एक झलक
मिल जाती है,
तब फिर से अंधेरा घिर आता है।
यह वह है, जो एक महान कवि को घटता है:
वह ठीक सीमा रेखा पर खड़ा हुआ है
जहां से वह उस पार की कुछ झलक पा सकता है।
लेकिन वे केवल झलकें हैं। वे ज़ेन जैसी हैं।
वे ज़ेन कब बनेंगी?
वे केवल तभी ज़ेन बनेंगी, जब वे लम्बी अवधि तक झलकें ही न रहेंगी,
लेकिन वे तुम्हारा अस्तित्व बन जाएंगी।
तब तुम क्षण-क्षण उन्हीं में जीते हो।
वे आती और जाती नहीं।
वे प्रामाणिक रूप से तुम्हारा आंतरिक अस्तित्व ही बन जाती हैं, ठीक उसी
तरह जैसे तुम हो।
फिर वे बिजली की कौंध की तरह नहीं होतीं,
भरी दोपहर में वह प्रकाश की बाढ़ की तरह पूरा दिन ही बन जाती हैं।
आकाश में ऊंचाई पर स्थित सूर्य जैसा प्रकाश स्रोत वहां बना ही रहता है।
फिर वहां अंधकार के आने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती।
फिर वह झलक न होकर तुम्हारा भाग बन जाती हैं।
तुम जहां भी जाते हो, उसे साथ लिए चलते हो।
तुम्हारा आंतरिक प्रकाश अब प्रदीप्त हो रहा है-
तुम अब संयोगों पर निर्भर नहीं रहते। तुम अब उसमें रम जाते हो।
वह तुम्हारा घर बन जाता है।
बुद्धि के द्वारा सत्य तक पहुंचने का प्रयास करना ठीक ऐसा ही है
जैसे कोई व्यक्ति कानों के द्वारा देखने का प्रयास करे।
ऐसा होना सम्भव ही नहीं है। कान सुन सकते हैं, लेकिन देख नहीं सकते।
हृदय के द्वारा सत्य तक पहुंचने का प्रयास करना इस तरह है
जैसे कोई हाथों से देखने का प्रयास करे।
हाथ देख तो नहीं सकते
लेकिन वे फिर भी एक झलक दे सकते हैं, कि देखना क्या हो सकता है?
एक अंधा व्यक्ति, यदि एक स्त्री से प्रेम करता है
तो वह उसके चेहरे और शरीर को छूकर, उसके उभारों, गोलाइयों, मोड़ों
उष्णता और उसकी संगमरमर जैसी संरचना का हाथों द्वारा ही
एक विशिष्ट झलक को देखने जैसा कुछ अनुभव करता है।
हाथ तुम्हें देखने जैसी एक विशिष्ट झलक दे सकते हैं,
ठीक-ठीक पूरी तरह देखने जैसी तो नहीं, क्योंकि हाथ कैसे देख सकते हैं?
वे केवल टटोल सकते हैं।
लेकिन जब तुम बंद नेत्रों से किसी के चेहरे का स्पर्श करते हो
तुम उसके मोड़ों ओर घुमावों से नाक, कान और आंखों को छूकर
यह अनुभव कर सकते हो कि चेहरा किस तरह का होगा।
एक कवि एक संवेदनशील हाथ की ही भांति होता है,
जो अपने हाथों के द्वारा सत्य की प्रकृति का अनुभव करता है
उसे ज़ेन जैसी ही कुछ विशिष्ट झलकें मिलती हैं
और ज़ेन का एक प्रामाणिक व्यक्ति आंखों की भांति होता है,
वह टटोलता नहीं है, उसे हाथों से स्पर्श करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है,
क्योंकि वह देख सकता है।
नीनागावा के ज़ेन सदृश उत्तरों से विस्मयाभिभूत होकर
सद्गुरु इक्यू ने उसे अपने साथ कक्ष में ले जाकर उसके सामने चाय प्रस्तुत
की।
ये सभी यह प्रदर्शित करने के संकेत और प्रतीक हैं
कि तुम्हें निकट से निकटतम आने की अनुमति दे दी गई।
और उसने उसे स्वयं ढालकर चाय प्रस्तुत की।
चाय, ज़ेन का वह प्रतीक है, जिसका अर्थ है सजगता और होश,
क्योंकि चाय तुम्हें अधिक सजग और सचेत बनाती है।
चाय का आविष्कार बौद्धों द्वारा ही किया गया,
और सदियों से वे चाय का प्रयोग ध्यान में सहायक होने के लिए करते रहे हैं।
और चाय इसमें सहायक है भी
यदि तुम एक प्याला कड़क चाय का पी लो, और तब ध्यान करने बैठो
तो कम से कम एक घंटे तक तुम्हें नींद नहीं आएगी,
और तुम सचेत बने रहोगे।
अन्यथा तुम जब भी विश्रामपूर्ण होकर शांति का अनुभव करोगे
नींद आ जाएगी। नींद को दूर करने के लिए चाय सहायता करती है।
यह कथा कही जाती है कि जब बोधिधर्म चीन के एक विशिष्ट पर्वत ' ता '
पर बैठा हुआ ध्यान कर रहा था।
उस 'ता' नाम के पर्वत से ही, 'चा' अर्थात् 'टी' का नाम पड़ा।
उस पर्वत का उच्चारण, 'ता' अथवा 'चा' के रूप में किया जा सकता है,
इसी कारण भारत में ही 'टी (Tea)' को चाय अथवा चा कहा जाता है।
बोधिधर्म ध्यान कर रहा था, और वास्तव में वह बहुत बड़ा ध्यानी था।
वह अट्ठारह घंटे तक ध्यान करना चाहता था, लेकिन यह कठिन था।
उसे बार-बार नींद आने लगती थी,
और उसकी पलकें बार-बार झपकने लगती थीं।
इसलिए उसने अपनी पलकों को काटकर बाहर फेंक दिया,
और अब वहां आंखों के बंद होने की कोई सम्भावना ही नहीं रह गई।
यह कहानी बहुत सुन्दर है-
वे ही पलकें पहली बार चाय का बीज बनीं,
और उनसे एक विशिष्ट पौधे का जन्म हुआ।
उस पौधे की पत्तियों से बोधिधर्म ने संसार में पहली बार चाय तैयार की,
और वह यह अनुभव कर आश्चर्यचकित रह गया,
कि यदि तुम उस पौधे की पत्तियों को उबाल कर पी लो,
तो तुम एक लम्बी अवधि तक सजग बने रहोगे।
इसलिए ज़ेन के लोग सदियों से चाय पीते आ रहे हैं,
और चाय पीना उनके लिए एक बहुत-बहुत ही पावन कृत्य बन गया है।
जब एक ज़ेन सद्गुरु चाय स्वयं प्यालों में डालकर प्रस्तुत करता है,
तो यह एक प्रतीक है और इस बात का संकेत है
कि वह इसके द्वारा यह कह रहा है: अधिक सजग और होशपूर्ण बनो।
नीनागावा को चाय प्रस्तुत कर वह जैसे कह रहा है, तुम सत्पथ पर चल रहे
हो। तुम हो तो ठीक रास्ते पर, लेकिन तुम थोड़ा सोए-सोए चल रहे हो।
तुमने दिशा तो पा ली है, अब इसी दिशा में आगे बढ़ते जाओ।
शीघ्र ही तुम्हारा ज़ेन जैसा अस्तित्व, ज़ेन ही बन जाएगा,
लेकिन तुम्हें कुछ और अधिक होशपूर्ण होने की आवश्यकता होगी।
नीनागावा के ज़ेन जैसे वक्तव्य से विस्मयाभिभूत होकर इक्यू उसे अपने
साथ अपने कक्ष में ले गया और उसे चाय प्रस्तुत की।
वह चाय नहीं होश परोस रहा है, एक पूरा प्याला भर होश,
यह इस बात का प्रतीक है कि अब तुम्हें और अधिक होशपूर्ण बनना चाहिए।
उसे इसी सब की तो जरूरत है।
तब इक्यू ने आशु कविता के रूप में यह हाइकू कही:
मैं विविध व्यंजन परोस कर
आपका स्वागत करना चाहता हूं।
पर आह! इस लेन क्षेत्र में
मैं चाय के सिवा और कछ भी प्रस्तुत नहीं कर सकता।
अथवा केवल 'कुछ नहीं' ही भेंट कर सकता हूं।
इसके दो अर्थ हैं।
सामान्य अर्थ यही है
कि ज़ेन क्षेत्र में सुरुचिपूर्ण भोजन के प्रति संवेदनशील होने की अनुमति नहीं है।
वहां बहुत ही सादा भोजन ने की अनुमति दो
चावल, थोड़ी-सी तरकारी, और चाय। यहां विविध व्यंजन लेने की अनुमति नहीं है।
इसलिए पहला इसका साधारण अर्थ यही है:
मैं आपको विविध व्यंजन परोसना चाहता हूं
लेकिन आह! इस ज़ेन क्षेत्र में
हम कुछ भी तो नहीं परोस सकते।
यह इक्यू का आखिरी प्रयास था,
जिससे वह उसके गहनतम केंद्र में तीर की तरह प्रविष्ट होकर
यह देख सके, कि वह इसका अर्थ समझ सकता है अथवा नहीं?
और इसका दूसरा अर्थ है:
मैं तुम्हें विविध व्यंजन परोस कर
तुम्हारा स्वागत करना चाहता हूं।
आह! पर इस देन क्षेत्र में
मैं केवल 'कुछ नहीं' को ही भेंट कर सकता हूं।
मैं भेंट में 'कुछ नहीं' ही दे सकता दूं।
इसका यह अर्थ भी हो सकता है: मैं कोई भी चीज भेंट में नहीं दे सकता।
अथवा इसका यह भी अर्थ हो सकता है:
मैं तुम्हें केवल 'कुछ नहीं' ही दे सकता हूं
तब 'कुछ नहीं' ही भेंट है।
होश और 'कुछ नहीं यह दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं।
तुम जितने अधिक होशपूर्ण होते हो, तुम उतना ही अधिक
'कुछ नहीं' होने का अनुभव करते हो।
इसलिए पहले तो इक्यू ने चाय प्रस्तुत कर जैसे कहा: होशपूर्ण बनो।
तब वह कहता है, मैं अन्य कोई और चीज प्रस्तुत नहीं कर सकता
सिवाय 'कुछ नहीं' के। चाय प्रस्तुत किए जाने के बाद-
यह सद्गुरु द्वारा फेंका गया आखिरी जाल था।
यदि नीनागावा कुछ होने का बहाना बना रहा होता, तो निश्चित और विश्राम
पूर्ण होकर उसने सोचा होता:
मैं अब स्वीकार कर लिया गया। सद्गुरु मुझे स्वयं अपने कक्ष में ले गए
मुझे स्वयं अपने हाथों से चाय डालकर प्रस्तुत की।
चाय लेने के बाद वह निश्चित होकर आराम करता।
क्योंकि तुम बहुत अधिक देर तक बहाना नहीं बना सकते।
बहाना बनाना या ढोंग ओढ़ना एक ऐसा तनाव है, कि एक व्यक्ति को तनाव
छोड्कर विश्राम में जाना ही होता है।
और जब सद्गुरु ने तुम्हें स्वयं अपने हाथों से चाय डालकर प्रस्तुत की हो,
अब वहां बहाना बनाए रखने की कोई जरूरत ही नहीं है,
प्रत्येक चीज समाप्त हो चुकी।
इसलिए वह आखिरी जाल था।
नीनागावा ने उत्तर दिया:
ओ करुणामय महान आत्मा।
जो मेरा इतना अधिक ख्याल कर आप सर्वाधिक कमनीय विविध भेंटों में से
एक-एक भेंट,
जो 'कुछ नहीं' का उपहार दे रहे हैं
वही मौलिक शून्यता है।
नहीं! उसके पास वास्तव में, ज़ेन जैसी ही समझ है,
वह केवल मात्र एक कवि ही नहीं है।
अस्तित्व के प्रामाणिक काव्य की कोई चीज उसे जरूर घटी है
प्रत्येक चीज समाप्त हो चुकी।
इसलिए वह आखिरी जाल था
नीनागावा ने उत्तर दिया :
''ओ करुणामय महान आत्मा!
मेरा इतना अधिक ख्याल कर,
आप सर्वाधिक कमनीय सुंदर भेंटों में से एक भेंट
जो ' कुछ नहीं ' का उपहार दे रहे हैं,
वही मौलिक शून्यता है।
इससे अधिक कुछ और दिया ही नहीं जा सकता।
यही आखिरी परम कमनीय सुन्दर भेंट है
जो स्वयं अस्तित्व का ही सर्वोच्च स्वाद है।
यह ऐसा है जैसे मानो तुमने परमात्मा को ही भोजन बनाकर पचा लिया हो।
सभी सुन्दरतम विविध व्यक्तियों में यह 'कुछ नहीं' की भेंट सर्वाधिक सुन्दर है।
उससे बहुत गहरे में प्रभावित होकर सद्गुरु ने कहा:
मेरे वत्स! तुमने तो बहुत अधिक सीख लिया
यह सीखना ज्ञान नहीं है।
ज़ेन में सीखने और ज्ञान के मध्य एक अंतर है,
मैं पहले इसे स्पष्ट करना चाहता हूं।
ज्ञान या जानकारी उधार की होती है, जबकि सीखना तुम्हारा होता है।
ज्ञान होता है-शब्दों, भाषा और धारणाओं के द्वारा
सीखना होता है अनुभव के द्वारा।
ज्ञान का हमेशा अंत हो जाता है, तुमने जान लिया, वह पूरा हो गया।
सीखना कभी भी पूरा नहीं होता, वह हमेशा मार्ग पर ही गतिशील रहता है।
सीखना एक प्रक्रिया है, कोई भी उसे किए चले जाता है,
और जीवन के आखिरी क्षण तक, कोई भी सीखता ही रहता है।
ज्ञान कहीं किसी स्थान पर रुक जाता है और अहंकार बन जाता है।
सीखना कभी भी नहीं रुकता, वह विनम्र बना रहता है।
ज्ञान उधार लिया हुआ होता है
तुम अपने ज्ञान से सद्गुरु को कभी धोखा नहीं दे सकते,
क्योंकि तुम्हारे शब्द केवल परिधि पर ही रहेंगे,
गहरे में तुम्हारा अस्तित्व तुम्हें प्रकट कर देगा।
तुम अपने को शब्दों में छिपा नहीं सकते।
एक सद्गुरु के लिए तुम्हारे शब्द पारदर्शी होते हैं।
तुम जो कुछ भी अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हो
वह हमेशा उसके पीछे वहां छिपी वास्तविकता को देख सकता है।
यदि यह व्यक्ति भी केवल जानकारी या थोथे ज्ञान वाला रहा होता
तो इक्यू द्वारा तुरंत पकड़ लिया जाता।
लेकिन नहीं, वह वास्तव में एक ऐसा व्यक्ति था, जो सीख रहा था।
उसने सीखा था, वह ज्ञानी होने का ढोंग नहीं कर रहा था।
अस्तित्व और जीवन के विविध अनुभवों के द्वारा उसने बहुत कुछ सीखा था
'मेरे वत्स!' इक्यू ने कहा: तुमने बहुत सीखा है।
एक ज़ेन सद्गुरु द्वारा इतना कहना बहुत कुछ है,
क्योंकि वे सभी, ऐसी बात कहने के बारे में बहुत कंजूसी करते हैं।
जब एक ज़ेन सद्गुरु ऐसी कोई बात कहता है, तो उसका बहुत अर्थ होता है।
और वह ऐसी बात केवल तभी कह सकता है,
जब वह वास्तव में प्रभावित होता है,
जब वह प्रामाणिकता से उसकी सच्चाई का अनुभव करता है
केवल तभी, वह ऐसी बात कह सकता है, अन्यथा नहीं।
इस बोध कथा को समझो और तुम स्वयं को उसके समानान्तर रखकर अनुभव करो।
क्या तुमने सीखा है अथवा तुमने केवल जानकारी ही इकट्ठी की है?
इसे अपना बहुत ही महत्वपूर्ण नियम बना लो।
ज्ञान या जानकारी के द्वारा प्रभावित न होकर
स्वयं प्रवर्तित सहज स्वाभाविक प्रत्युत्तर आने दो,
केवल तभी तुम मेरे निकट से निकट आ सकोगे।
और केवल तभी एक दिन अन्दर ले जाकर,
मैं तुम्हें एक प्याला चाय पीने को आमंत्रित कर सकता हूं।
अन्यथा तुम केवल शारीरिक रूप से ही मेरे निकट हो सकते हो,
और उससे कोई भी सहायता मिलने वाली नहीं।
मुझे तुम्हें होश और सजगता परोसनी है,
और मुझे तुम्हें विविध सुन्दर व्यंजनों अथवा भेटों में से
सर्वाधिक मूल्यवान भेंट, 'कुछ नहीं' अर्थात् शून्यता देनी है।
समाप्त
बेहतरीन ......
जवाब देंहटाएंKhubsuurat
जवाब देंहटाएंthank you guruji
जवाब देंहटाएंनमस्कार स्वामीजी, सद्गुरु के चरणों में समर्पित होते हुए भी जब मन सवाल,शंकाऍ,प्रश्नो,संदेह,....... करते हैं तो शिष्य को क्या करना चाहिए उसका सचोट,आत्मीय,स्नेहयुक्त,...... मार्गदर्शन मानों ओशो स्वयं अपने अबोध शिष्य की अंगुली थामे धीमे-धीमे गुफ्तगू करके,दुलार करके,आहलादित अमृत वचनों से स्पर्श करके शिष्य को यह "अमृत वेला "की साक्षी लिए सुसज्ज,प्रोत्साहित करते हैं
जवाब देंहटाएंसद्गुरु इक्यू और समर्पित शिष्य नीनागावा के बीच धटे संवाद पर जब ओशो के अमृत मात्र छंटकाव से ही इतना रोम पुलकित हों उठता हैं कि मानों कई बार अश्रु उभर आते हैं की ओशो कितनी अथाह,बिना रुके,निरंतर, अस्खलित वाणी प्रवाह से अपने शिष्यों पर,प्रेमिओं पर,समर्पितो पर कृपा की हैं !! सच में ओशो मैं धन्य हुई हूँ.......अश्रुपूरित आपको साष्टांग प्रणाम 🌺🙏🙏🙏🌺