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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-07)

मैं अभी मरा नहीं हूं—(प्रवचन-सातवां)  


ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 27 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
सूत्र:
एक भूतपूर्व सम्राट ने सद्‌गुरु गूडो से पूछा:
एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को मृत्यु के बाद क्या घटता है?
गूडो ने उत्तर दिया:

मैं इसे कैसे जान सकता हूं?
भूतपूर्व सम्राट ने कहा:
आपको इस वजह से जानना चाहिए- क्योंकि आप एक सद्‌गुरु हैं।
गूडो ने उत्तर दिया:

वह तो ठीक है श्रीमान्!
लेकिन मैं अभी मरा ही नहीं हूं।
 मनुष्य सत्य के प्रति अनजान और अज्ञानी है।
और सत्य को जानना भी कठिन है,
क्योंकि सत्य को जानने के लिए पहले तुम्हें प्रामाणिक और सच्चा बनना होगा।
केवल समान ही समान को जान सकता है।
मनुष्य झूठा और नकली है, वह गहरे में छली और बहानेबाज है।

वह स्वयं अपने लिए ही प्रामाणिक नहीं है।
उसका मौलिक चेहरा पूरी तरह से मिट चुका है।
उसके पास कई चेहरे हैं, वह अनेक चेहरों का प्रयोग करता है,
लेकिन वह स्वयं अपने ही मौलिक चेहरे के प्रति सचेत नहीं है।
मनुष्य अनुकरण करने वाला एक प्राणी है।
वह दूसरों का अनुकरण किए चले जाता है,
और धीमे- धीमे वह यह भूल ही जाता है
कि उसके अपने स्वयं के पास एक अद्वितीय और अनूठा अस्तित्व है।

सत्य को केवल तभी जाना जा सकता है जब तुम सच्चे और प्रामाणिक बनो।
इसके लिए अत्यधिक प्रयास करना होगा,
पहाड़ पर चढ़ने जैसा इसका पथ दुर्गम है,
इसलिए मनुष्य चालाकी करने की कोशिश करता है।
वह सत्य के सम्बन्ध में विचार करना शुरू कर देता है। सत्य के बारे में,
दार्शनिकता से विचार करना, बौद्धिक और सैद्धांतिक व्यवस्थाएं निर्मित
करना, यही है सब कुछ दर्शन शास्त्र: एक व्यक्ति द्वारा सत्य के सम्बन्ध में न
जाकर, अपने अज्ञान के बारे में स्वयं को धोखा देने वाली मन की एक चाल।
इसी कारण दार्शनिक विचार-धाराओं की बाढ़ सी आई हुई है। और पूरा
संसार धारणाओं और सिद्धान्तों में जी रहा है। हिंदू मुस्लिम, ईसाई, जैन और
बौद्ध लोगों की यहां लाखों विचारधाराएँ हैं। और वे सभी बहुत सस्ती हैं,
तुम्हें अपने आपको बदलने की जरूरत नहीं है।
तुम्हें केवल सामान्य बुद्धि के औसत दर्जे के मन की जरूरत है।
उच्च बौद्धिक क्षमता की कोई आवश्यकता नहीं है,
तुम कोई भी विचारधारा चुन सकते हो, इसमें कहीं कोई भी कठिनाई नहीं है,
और स्वयं अपने आप से, अपने अज्ञान को छिपा सकते हो।
दर्शनशास्त्र, इसे केवल छिपाने की ही एक विधि है:
एक व्यक्ति को बिना कुछ भी जाने हुए यह अनुभव होना शुरू हो जाता है,
कि वह जानता है।
बिना पहला कदम ही उठाए हुए एक व्यक्ति को यह अनुभव होना शुरू हो
जाता है, कि वह पहुंच गया है।
दर्शनशास्त्र, सबसे बड़ी एक बीमारी है,
और एक बार तुम उसके जाल में पड़ गए तो उससे बाहर आना बहुत
कठिन होता है,
क्योंकि वह इतनी अधिक सघनता से अहंकार की प्रतिपूर्ति करता है कि
एक व्यक्ति को जब अपने अज्ञान के बारे में पता चलता है, तो उसे बहुत चोट
लगती है।
और अज्ञान है पूरी तरह सम्पूर्ण: तुम कुछ भी नहीं जानते।
तुम पूरी तरह से अज्ञान के अंधेरे में भटक रहे हो, और यही बात चोट करती
है। एक व्यक्ति कम से कम कुछ तो जानना ही चाहता है

और दर्शनशास्त्र तुम्हें सांत्वना देता है, क्योंकि उसके पास सिद्धांत हैं,
और यदि तुम्हारे पास एक सामान्य बुद्धि भी है, तो उससे काम चल जाएगा
तुम उन सिद्धांतों को सीख सकते हो,
तुम्हारे पास तुम्हारी अपनी दार्शनिक व्यवस्था हो सकती है,
और तभी तुम्हें चैन मिलेगा।
तब न केवल तुम जानते हो, बल्कि तुम दूसरों को भी सिखा सकते हो,
दूसरों को परामर्श दे सकते हो,
तुम दूसरों के आगे अपने ज्ञान का प्रदर्शन किए चले जाते हो,
अइरि प्रत्येक चीज स्थाई हो जाती है, अज्ञान को भुला दिया जाता है।
दर्शनशास्त्र का अर्थ है-सत्य के बारे में एक तर्कपूर्ण ढांचा तैयार करना। यह
केवल उसके बारे में, उसके ही सम्बन्ध और उसके बारे में होता है।
यह कभी वास्तविक और प्रामाणिक नहीं होता।
यह उसके चारों ओर गोल-गोल घूमना भर होता है,
झाड़ी के चारों ओर जमीन पर यह चोट करने जैसा होता है,
लेकिन यह चोट सत्य के केंद्र तक कभी नहीं पहुंचती।
वह ऐसा कर भी नहीं सकती, और दर्शनशास्त्र के लिए ऐसा करना सम्भव
भी नहीं है।
ऐसा करना सम्भव क्यों नहीं है?
क्योंकि दर्शनशास्त्र तर्क पर आधारित है
और सत्य है तर्क के पार, अतर्क्य।
तुम्हें इसे थोड़ा और गहराई से समझना होगा।
तर्क की खोज है नियमितता और स्थायित्व की,
और अस्तित्व नियमित और जड़ नहीं है।
अथवा, वह इतना अधिक सघनता से नियमित है
कि विपरीत भी उसके साथ विरोधी नहीं होता।
सत्य, विरोधाभासी है। वह इतना अधिक विराट है,
कि उसमें सभी विपरीतताएं आकर मिलती हैं और उसी में समाहित हो जाती है।
तर्क है संकरा, तर्क है-किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख, एक संकरी सड़क की भांति।
सत्य है, बिना लक्ष्य का वह विराट शून्य, जो पहले ही से वहां है,
जो एक साथ सभी आयामों में गतिशील है
और जिसके लिए कहीं भी जाना नहीं है।
तर्क केवल एक आयाम होता है, जबकि सत्य है, बहुआयामी।
तर्क कहता है, 'अ ' 'अ' है, और वह कभी भी 'ब' नहीं हो सकता:
यही नियमितता और स्थायित्व है तर्क की।
और वास्तविक यथार्थ में, 'अ' है तो 'अ' ही, लेकिन निरंतर गतिशील होने
से वह 'ब' भी हो जाता है।

तर्क कहता है: जीवन जीवन है और वह कभी भी मृत्यु नहीं बन सकता।
जीवन, मृत्यु कैसे हो सकता है?
लेकिन वास्तविक यथार्थ अथवा सत्य यही है-
कि जीवन प्रत्येक क्षण मृत्यु की ओर बढ़ रहा है,
और जीवन मृत्यु भी है।
तर्क कहता है : प्रेम, प्रेम है, और वह कभी भी घृणा नहीं बन सकता
लेकिन प्रेम प्रत्येक क्षण गतिशील होकर घृणा बन रहा है
और घृणा प्रत्येक क्षण गति करती हुई प्रेम बन रही है।
तुम उसी व्यक्ति से प्रेम करते हो, और तुम उसी व्यक्ति से घृणा करते हो।
जितना गहरा प्रेम होता है, उतनी ही गहरी घृणा होती है।
घृणा और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
क्या तुम किसी व्यक्ति को प्रेम किए बिना, घृणा कर सकते हो?
तुम एक व्यकि्त से बिना प्रेम किए कैसे घृणा कर सकते हो?
पहले तुम्हें प्रेम करना होगा, केवल तभी तुम घृणा कर सकते हो।
घृणा के पहले कदम के लिए प्रेम जरूरी है।
तुम किसी व्यक्ति के साथ यदि कभी मित्र बनकर नहीं रहे हो,
तो कैसे उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो सकते हो?
केवल तर्क में ही मित्र और शत्रु अलग होते हैं,
वास्तविक सत्य यही है कि वे एक साथ ही होते हैं।
यदि तुम गहराई से अपनी घृणा में खोजो, तो यहां छिपा हुआ प्रेम पाओगे।
जिस क्षण तुम जन्म लेते हो, मृत्यु का जन्म भी तुम्हारे ही साथ हो जाता है।
जन्म है मृत्यु का प्रारम्भ,
और मृत्यु है जन्म की ओर निरंतर आगे बढ़ना।

हेराक्लाईटिस कहता है:
परमात्मा जन्म भी है और मृत्यु भी।
वह ग्रीष्म भी है और शरद ऋतु भी।
वह भूख भी है और तृप्ति भी।
वह अच्छा भी है और बुरा भी।
वह सदा दोनों एक साथ है।
और परमात्मा ही सत्य है। वही अखण्ड अस्तित्व भी है।
यदि तुम सत्य की ओर देखो, तो देखोगे कि उसमें सभी विपरीताएं मिल रही
हैं। सत्य विरोधाभासी है, और तर्क है संगत।
तर्क है सीधा सपाट और स्पष्ट, और सत्य है बहुत जटिल।

अथवा वह गणित की कोई समस्या नहीं है-उसके बहुत से आयाम हैं।
और वे सभी अंतर्संबंधित हैं, उसमें सभी विरोधाभास एक साथ हैं
दिन, रात में बदल रहा है, रात फिर दिन में बदल रही है।
सुबह और कुछ भी नहीं, बल्कि शाम के आने का संकेत है।
युवावस्था, वृद्धावस्था में बदल रही है। सुंदरता, कुरूपता में परिवर्तित हो रही
है। प्रत्येक वस्तु बदल रही है, और बदल कर ठीक उससे विपरीत बन रही है।
इसे बहुत गहराई से समझ लेना है,
क्योंकि दर्शनशास्त्र और धर्म के मध्य यही मौलिक अंतर है।
दर्शनशास्त्र तर्कप्रधान है, जब कि धर्म ऐसा नहीं है।
दर्शनशास्त्र, तार्किक निष्पत्ति है, जब कि धर्म सत्य है, एक वास्तविकता है।
दर्शनशास्त्र को समझना कठिन नहीं है जब कि धर्म को समझना लगभग
असम्भव है।
तर्कशास्त्र, सीधी और स्पष्ट भाषा में बात करता है, जब कि धर्म बोल नहीं
सकता, क्योंकि धर्म को सत्य की भाषा प्रयुक्त करनी होती है।
तर्कशास्त्र, अस्तित्व से मन के द्वारा चुना गया एक खण्ड है,
वह पूर्ण नहीं है।
धर्म अखण्ड अस्तित्व को स्वीकार करता है, और वह जैसा है, उसे वैसे ही
जानना चाहता है।
तर्कशास्त्र बुद्धि के द्वारा तैयार की गई एक इमारत है।
दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र और विज्ञान, ये सभी बुद्धि के ही निर्माण हैं,
और यह सभी तर्क पर आधारित हैं।
धर्म है, मन के पूरे निर्माण को गिरा देना, और दर्शनशास्त्र है सत्य के बारे में
मन का निर्माण, एक व्यवस्था का सृजन।
मन वहीं रहते हुए तुम्हें चुनाव करने, प्रक्षेपण करने और खोजने में सहायता
करता है।

धर्म में तुम्हें मन के निर्माण को ध्वस्त करना होता है।
सत्य जैसा है, वैसा ही बना रहता है।
तुम सत्य के साथ कुछ भी नहीं करते-तुम पूरी तरह से मन को गिरा देते हो

सत्य, तार्किक निष्पत्ति की भांति नहीं है और तुम तब देखते हो,

यदि मन रहेगा वहां, तो अखण्ड को देखने की तुम्हें अनुमति ही न देगा।
मन नियमितता से ग्रसित है
वह विरोधाभासों को अनुमति नहीं दे सकता।
इसलिए तुम जब भी एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के निकट आते हो,
तुम्हारा मन कठिनाई में पड़ जाएगा।
तुम्हें उसमें बहुत से विरोधाभासों का अनुभव होगा।
तुम्हारा मन कहेगा
यह व्यक्ति कुछ कहता है और फिर उसका विरोध करता है,
और कभी-कभी वह जो कहता है, और तभी फिर कोई दूसरी विरोधी बात
कहने लगता है जो असंगत होती है।
एक धार्मिक मनुष्य का वास्तविक स्वभाव ही विरोधाभासी होता है
उसे ऐसा ही होना होता है,
क्योंकि वह किसी नियमितता की खोज न करता हुआ सत्य की खोज में है।
वह प्रामाणिक अस्तित्व की खोज कर रहा है। वह जैसा भी है- वह इसके
लिए प्रत्येक चीज छोड़ने को तैयार है
सत्य के लिए उसके पास कोई पूर्व निश्चित ढांचा नहीं है-
उसके पास ऐसा कोई विचार या धारणा भी नहीं है कि सत्य ऐसा ही होना चाहिए।
यदि वह अनियमित है, तो अनियमित है। वह ठीक है।
उसके पास उस पर आरोपित करने के लिए कुछ भी नहीं है।
एक धार्मिक चित्त, सत्य को सामान्य रूप से प्रकट होने की अनुमति देता है।
उसके पास कोई विचार होता ही नहीं, कि वह कैसा होना चाहिए?

एक धार्मिक व्यक्ति निष्क्रिय होता है,
और एक तार्किक, दार्शनिक और वैज्ञानिक मनुष्य सक्रिय होता है।
उसके अन्दर कोई विचार उठता है और उस विचार के द्वारा वह सत्य का
निर्माण करता है।
उस विचार के चारों ओर वह उस सत्य को खोजने का प्रयास करता है।
वह विचार ही तुम्हें सत्य को खोजने की अनुमति नहीं देता-
वह पूरा विचार ही बाधा बन जाता है।
इसलिए पहला मार्ग है तर्कशास्त्र और दूसरा मार्ग है काव्य।

कविता, तर्कशास्त्र के विरुद्ध है।
तर्कशास्त्र, विचारशील है और कविता है अतार्किक
तर्कशास्त्र, तर्कपूर्ण है और कविता है एक कल्पना,
और यह अंतर स्मरण रखने जैसा है
क्योंकि न तो धर्म न तो तर्कशास्त्र है न ही कविता।
तर्क भी मन करता है और कविता भी मन से ही उमगती है।
एक कवि, सत्य की कल्पना करता है। एक तर्कशास्त्री के सत्य की तुलना में
निश्चित ही उसका सत्य कहीं अधिक रंगीन और सुन्दर होता है,
क्योंकि वह कल्पना करता है और भयभीत नहीं होता।
वह अपनी कल्पना करने में पूरी तरह स्वतंत्र होता है,
उसे किसी विचार का अनुसरण नहीं करना होता है,
वह सत्य के बारे में पूरी तरह से स्वप्न ही देखता है, लेकिन वह फिर भी,
'किसी के बारे में' होता है।
वह सत्य अथवा पूर्ण अस्तित्व के बारे में ही स्वप्न देखता है।
वह अपने सपनों के द्वारा एक सुन्दर पूर्ण अस्तित्व का निर्माण करता है।
वह बहुरंगी होता है, क्योंकि नीचे गहराई में वह एक कल्पना है।

तर्कशास्त्र है सीधा, सपाट, रंगहीन और लगभग भूरा सा,
उसमें कोई भी काव्य नहीं होता,
क्योंकि वहां कोई कल्पना भी नहीं होती।
कविता में लगभग विरोधाभास होते हैं, क्योंकि वह एक कल्पना है।
और वह इसकी फिक्र भी नहीं करती।
तुम एक कवि से कभी भी नियमित बनने के लिए नहीं कह सकते।
यदि एक कवि एक कविता आज लिखता है, तो कल दूसरी लिखता है,
और स्वयं ही विरोधाभासी हो जाता है, लेकिन कोई भी उसकी चिंता नहीं करता।
लोग कह देते हैं-यह तो आखिर एक कविता है।
यदि एक चित्रकार आज एक चित्र उकेरता है
तो कल ठीक उसका विरोधी चित्र बना देता है।
तुम उससे नियमित होने के लिए यह नहीं कहते
तुम यह क्या कर रहे हो? कल तुमने चंद्रमा को पीला चित्रित किया था
और आज तुम लाल रंग का चंद्रमा चित्रित कर रहे हो?
तुम आखिर यह कर क्या रहे हो? तुम विरोधामासी हो।
नहीं! कोई भी नहीं पूछता उससे। वह कैनवास पर उकेरा गया काव्य है।

चित्रकला एक कविता है, मूर्तिकला भी एक कविता है,
और तुम कलाकार को पूरी स्वतंत्रता उपभोग करने की अनुमति देते हो।
लेकिन काव्य एक कल्पना है।
मन के दो केंद्र होते हैं।
एक है विचार करना और दूसरा है कल्पना करना।
लेकिन दोनों का केंद्र मन ही है-
और धर्म है-दोनों के भी पार सभी के पार,
उसका केंद्र मन में तो है ही नहीं।
यह न तो विज्ञान है और न कविता अथवा यह दोनों एक साथ है।
इसी कारण कविता की अपेक्षा धर्म कहीं अधिक गूढ़ रहस्यवाद है।
वह मन को उसके सभी केंद्रों के साथ गिरा देता है,
और तब वह निरीक्षण करता है।
यह ठीक ऐसे ही है, जैसे मानो तुम अपना धूप का चश्मा उतार कर अलग
रख दो और तब देखो।
मन को उठाकर एक ओर रखा जा सकता है क्योंकि वह एक यांत्रिक प्रणाली
तुम मन नहीं हो।
मन ठीक एक खिड़की की तरह है।
तुम वहां खड़े हुए खिड़की के द्वारा बाहर देख रहे हो,
तब खिड़की की चौखट या फ्रेम ही, पूरे अस्तित्व अथवा सत्य का फ्रेम बन
जाता है,
तुम खिड़की से बाहर देखते हो,
चंद्रमा उदित हुआ है और आकाश बहुत सुन्दर दिखाई दे रहा है,
लेकिन तुम्हारा आकाश खिड़की के फ्रेम के आकार का सीमित आकाश
होगा।
और यदि खिड़की पर किसी खास रंग के शीशे लगे हुए हैं,
तब खिड़कियों के शीशे का रंग ही तुम्हारे आकाश को उसी रंग का बना देगा।
धर्म है, सामान्य रूप से घर से पूरी तरह बाहर आकर
उस विराट अस्तित्व अथवा सत्य को देखना,
किसी खिड़की या दरवाजे के द्वारा नहीं,
चश्मों, शीशों अथवा किन्हीं धारणाओं के द्वारा नहीं,
लेकिन वह जैसा है, उसे पूरी तरह से वैसे ही मन को अलग हटाकर देखना।
और यही है इस पूरे धर्म की कार्य-प्रणाली।
सभी तरह के योग, तंत्र और ध्यान की सभी विधियां और कुछ भी न होकर,
केवल मन को एक ओर उठाकर रख देने की ही विधियां हैं।
मन के साथ इस तादात्म्य को कैसे तोड़ा जाए और तब निरीक्षण किया जाए।
तब जो कुछ भी है सत्य, वह प्रकट होगा।
'जो' वास्तव में है, वह उद्‌घाटित होगा। इसे सदा स्मरण रखें।
कभी-कभी धर्म तर्क की भाषा में भी बोलेगा,
तब यह धर्मशास्त्र बन जाता है।
कभी-कभी धर्म कविता की भाषा में भी बात करेगा,
तब यह ताजमहल की तरह वस्तुगत कला बन जाती है।
यदि तुम पहली बार ताजमहल को देखने जाओ
तो तुम समझोगे कि वस्तुगत कला क्या होती है।
ताजमहल की भांति यदि तुम वस्तुगत कला के किसी भी नमूने को बैठकर
पूरी तरह से देखते हुए उसका निरीक्षण करो,
तो अचानक एक मौन तुम्हें चारों ओर से घेर लेता है, और तुम पर एक शांति
उतर आती है।
ताजमहल का पूरा निर्माण ही
तुम्हारे अस्तित्व के अंतस से संबंधित है।
केवल उसकी आकृति की ओर देखते हुए ही, तुम्हारे अन्दर
कुछ चीज जैसे बदलने लगती है।

यहां दो तरह की कलाएं हैं।
पहली तरह की कला है वैयक्तिक, उदाहरण के लिए पिकासो की कला।
यदि तुम पिकासो के चित्र की ओर देखो-
तो तुम समझ सकते हो कि पिकासो का मन किस तरह का होना चाहिए
क्योंकि उसके चित्र, उसके ही मन को चित्रित करते हैं।
उसे निश्चित रूप से दुस्वप्नों में जीने वाला व्यक्ति होना चाहिए
क्योंकि उसके सभी चित्र स्तब्ध कर देने वाले भयानक उत्पीड़न को चित्रित
करते हैं। तुम बिना रुग्णता और पागलपन का अनुभव किए उन चित्रों की
ओर अधिक देर तक नहीं देख सकते।
यह उसके अपने अन्दर का पागलपन है, जिसे उसने रंगों द्वारा
कैनवास पर उड़ेल दिया है।
और यह छूत की बीमारी की भांति है।
यह है वैयक्तिक कला-
तुम जो कुछ भी करते हो, तुम उसमें अपने मन को ले आते हो।
वस्तुगत कला में तुम्हें अपने मन को उसमें नहीं लाना होता,
बल्कि कुछ पदार्थगत नियमों का अनुसरण करना होता है,
जिससे वह व्यक्ति जो उसकी ओर देखेगा, उस पर ध्यान करेगा, बदल जाएगा।
पूरब की सारी कला ने वस्तुगत होने का प्रयास किया।
कलाकार, अपनी कृति में उपस्थित नहीं है।
चित्रकार को भुला दिया जाता है मूर्तिकार का विस्मरण कर दिया जाता है।
वास्तुकार, शिल्पकार सभी विस्मृत हो जाते हैं, क्योंकि वे उससे संबंधित
नहीं हैं।
वे केवल कुछ निश्चित पदार्थगत नियमों का अनुसरण कर रहे है
कला के एक ऐसे उत्कृष्ट नमूने का सृजन करने के लिए
जिससे सदियों बाद भी, जब कभी भी कोई उनकी ओर देखे तो ध्यान जैसी
कुछ चीज उनमें घटे।

पूर्णिमा की चांदनी रात में कोई भी बातचीत न करते हुए
ताजमहल के निकट मौन बैठकर केवल उस पर ध्यान करने से
समय रुक जाता है और समयहीनता का क्षण घटता है,
और तब अचानक वहां बाहर ताजमहल भी नहीं रह जाता, कोई चीज तुम्हें
अन्दर से बदलती है।
कभी-कभी धर्म, मन के इस सत्य को इस संसार के सम्मुख लाने के लिए
वस्तुगत कला के सम्बन्ध में बात करता है।
कभी-कभी वह तर्क के सम्बन्ध में बात करता है।
तब वह धर्मशास्त्र बन जाता है, तब वह तर्क वितर्क करता है।
लेकिन यह दोनों ही इस संसार के साथ किए गए समझौते हैं।
यह समझौते, औसत दर्जे के सामान्य मन के मनुष्यों तक
धर्म को लाने के लिए किए गए हैं।
जब धर्म अपनी परिपूर्ण शुद्धता में कुछ कहता है तो वह विरोधाभासी होता

लाओत्से के ताओ-ते-चिंग की भांति,
अथवा हेराफ्लाईटस के वचन, अथवा ये जेन बोध-कथाएं।
अपनी शुद्धता से धर्म, तर्क ओर कल्पना दोनों का अतिक्रमण कर देता है।
वह पूरी तरह से सभी के पार होता है।
अब थोड़ी सी बात, 'पूरी तरह से सभी के पार' के बारे में- तभी हम इस
बोध कथा में प्रवेश करेंगे।
यह बहुत छोटा सा, एक बीज के समान सूक्ष्म है।
लेकिन यदि तुम हृदय की भूमि को अनुमति दो
तो यह विकसित होकर एक विशाल वृक्ष बन सकता है।
यदि तुम इसकी आकृति की ओर देखो, तो यह बहुत नन्हा-सा है
लेकिन यदि तुम इसके अन्दर छिपे हुए अरूप को देखो
तो उसकी कोई सीमाएं ही नहीं, वह अनंत है।
इस 'सभी के पार' के बारे में कुछ चीजों की बाबत सचेत बनना है-
पहली बात यह कि यह ' पूरी तरह सभी के पार
अज्ञात को ही सत्य मानने से बहुत अस्पष्ट और जटिल है,
इसके लिए तुम्हारे रूपांतरण की आवश्यकता है
अन्यथा तुम इसे समझने में सफल न हो सकोगे।
इसके लिए आवश्यकता है-तुम्हारी समझ अथवा बोध में स्पष्टता हो।
यह प्रश्न अकेली बुद्धि का नहीं है, क्योंकि हो सकता है
कि एक अति विद्वान भी इसे समझने में समर्थ न हो सके
और कभी एक सामान्य देहाती भी इसे समझ जाए।
कभी-कभी आइन्व्हीन भी इससे चूक सकता है।
क्योंकि यह प्रश्न निपुणता और बुद्धि का है ही नहीं-
यह प्रश्न है सुस्पष्ट निर्मल समझ का, किसी चतुरता या कुशलता का नहीं।

सुस्पष्टता एक भिन्न चीज है।
कुशलता, सत्य के साथ चालबाज बनने का एक तरीका है,
यह मक्कारी है।
सुस्पष्टता, पूरी तरह इससे भिन्न है:
यह मक्कारी या चालबाजी न होकर, बच्चे जैसी निर्दोषता होती है।
तुम्हारे पास मन नहीं होता, खिड़की पूरी तरह खुली हुई होती है।
तुम्हारे पास कोई विचार नहीं होते।
क्योंकि विचारों से भरा हुआ मन स्पष्टता और निर्मलता खो देता है,
वह ठीक बादलों से भरे हुए एक आकाश जैसा होता है।
विचारों से भरा हुआ मन पारदर्शी नहीं होता, वह एक कबाड़खाना होता है।
और इस कूड़े कबाड़ से भरे मन के द्वारा तुम यह अनुभव नहीं कर सकते, तुम
देख नहीं सकते कि सत्य क्या होता है?
एक व्यक्ति को अपने आप को निर्मल और शुद्ध करना होता है।
गहरे तक सफाई करने की आवश्यकता होती है
उसे बहुत सी ध्यान विधियों से होकर गुजरना होता है
जिससे धीमे- धीमे तुम्हारा मन इस तरह सुस्पष्ट और कोरा हो जाए
जैसे बिना बादलों के आकाश होता है।
इसलिए यह प्रश्न किसी बुद्धिगत समझ का न होकर
एक भिन्न तरह के अस्तित्व का प्रश्न होता है,
जो कोरे आकाश की भांति सुस्पष्ट और निर्मल हो।

दूसरी बात जो स्मरण रखने की है,
वह यह है कि धार्मिक चित्त कभी भी इस क्षण के पार नहीं जाता,
क्योंकि जैसे ही तुम इस क्षण के पार जाते हो,
तुम मन के द्वारा कार्य करना प्रारम्भ कर देते हो।
यहां भविष्य है ही नहीं, इसलिए तुम उसकी ओर कैसे देख सकते हो?
तुम केवल उसके बारे में विचार कर सकते हो।
तुम भविष्य केबारेमें केवल विचार करसकते हो, तुम उसे देख नहीं सकते।
केवल वर्तमान क्षण ही देखा जा सकता है, जो पहले ही से यहां है।
इसलिए धार्मिक चित्त इसी क्षण में जीता है,
तुम धार्मिक चित्त को इस क्षण के पार जाने के लिए विवश नहीं कर सकते,
क्योंकि धार्मिक चित्त जिस क्षण भविष्य के बारे में सोचने लगता है,
वह धार्मिक ही नहीं रह जाता।
तुरंत ही उसके चित्त या मन की गुणात्मकता बदल जाती है।
एक धार्मिक चित्त 'अभी और यहीं' में रहता है,
और रहने का केवल यही एक तरीका है।
यदि तुम भविष्य के बारे में अथवा उस क्षण के बारे में सोचते हो,
जो यहां है ही नहीं, तो तुम पहले ही मन के जाल में फंस जाते हो,
और तुम विचारों को उत्पन्न होने की अनुमति देते हो,
क्या कभी तुमने इसका निरीक्षण किया है, कि वर्तमान में कोई विचार होते ही
नहीं?
ठीक अभी, कैसे विचार का अस्तित्व हो सकता है?
वर्तमान क्षण में कभी कोई विचार रहा ही नहीं है,
वह हमेशा अतीत अथवा भविष्य में रहता है।
या तो तुम अतीत के बारे में सोचते हो-तब वहां तुम कल्पना करते हो,
अथवा तुम भविष्य के बारे में सोचते हो-तब वहां तर्क-वितर्क होता है।
तुम वर्तमान में कैसे सोच सकते हो?
तुम केवल उसमें हो सकते हो।
और यह क्षण इतना अधिक सूक्ष्म, इतना अधिक छोटा और आणविक होता
है, कि उसमें किसी विचार के होने का स्थान होता ही नहीं।
विचार के लिए स्थान की, चारों ओर से घिरे एक ऐसे स्थान की आवश्यकता
होती है, जिसमें वह रह सके,
और वर्तमान में विचार को ऐसा कोई स्थान मिलता ही नहीं।
केवल अरूप आत्मा ही वहां रह सकती है।
इसलिए तुम जब कभी वर्तमान में होते हो, विचार रुक जाते हैं,
अथवा यदि तुम विचार प्रक्रिया रोक दो, तो तुम वर्तमान में होंगे।

एक धार्मिक चित्त की भविष्य के बारे में कोई उत्सुकता होती ही नहीं,
वह उसके और न सम्बन्ध में होती है, जो अतीत में हो चुका है।
वह इसी क्षण में जीते हुए एक क्षण से दूसरे क्षण में जाता है।

जब यह क्षण चला जाता है तो दूसरा क्षण आता है:
धार्मिक मनुष्य उसमें चला जाता है। वह एक नदी की भांति होता है।
एक बहुत-बहुत गहरी बात यह स्मरण रखने योग्य है कि एक धार्मिक चित्त,
एक धार्मिक मनुष्य और एक धार्मिक अस्तित्व हमेशा एक प्रक्रिया होता है,
वह सदा गतिशील और प्रवाहमान होता है।
निश्चित रूप से वह गतिशीलता बिना किसी उद्देश्य के होती है।
वह किसी लक्ष्य के पीछे गतिशील नहीं होता,
वह सामान्य रूप से, बस गतिशील होता है
क्योंकि अस्तित्व का स्वभाव ही गतिशीलता है। वह अस्तित्व के साथ ही
गतिशील होता है
ठीक उस तरह जैसे कोई नदी के साथ बहता है।
वह समय की सरिता के साथ प्रवाहित होता है।
वह क्षण- क्षण जीता हुआ गतिशील होता है।
वह कोई भी कार्य नहीं कर रहा है, वह प्रामाणिक रूप से उस क्षण को जी रहा है।
जब वह क्षण चला जाता है, तो दूसरा क्षण आता है, और वह उस क्षण को
जीने लगता है।
एक धार्मिक मनुष्य के पास प्रारम्भ का तो अनुभव होता है, पर अंत का नहीं।
जागरण से ही उसका प्रारम्भ होता है, लेकिन अंत नहीं।
वह होता ही जाता है, और बढ़ता ही जाता है।

अज्ञान के साथ मामला ठीक इसके विपरीत होता है-
अज्ञान के पास प्रारम्भ का अनुभव नहीं होता, लेकिन अंत का होता है।
क्या तुम कह सकते हो कि तुम्हारा अज्ञान कब से शुरू हुआ?
उसका कोई प्रारम्भ होता ही नहीं।
बुद्ध को अज्ञान के अनुभव का प्रारम्भ कब से हुआ?
उसका कोई प्रारम्भ नहीं था, लेकिन उसका अंत हुआ।
एक विशेष पूर्णिमा की रात्रि को पच्चीस शताब्दियों पूर्व उसका अंत हुआ।
अज्ञान का अंत होता है, लेकिन प्रारम्भ नहीं:
बुद्धत्व का शुभारम्भ होता है, लेकिन उसका अंत नहीं होता।
और इस तरह से यह चक्र पूरा हो जाता है।
जब एक अज्ञानी मनुष्य बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो यह चक्र पूरा हो जाता है।
अज्ञान को प्रारम्भ का कोई अनुभव नहीं होता, लेकिन अंत का होता है,
बुद्धत्व को बोध के प्रारम्भ होने का अनुभव होता है, लेकिन उसका कोई अंत
नहीं होता।

अब यह चक्र पूरा हो जाता है।
अब यहां वह निर्दोष अस्तित्व है, जिसका चक्र पूरा हो चुका।
लेकिन चेतना के इस चरम उत्कर्ष का अर्थ किसी स्थिरता से नहीं है,
क्योंकि बुद्धत्व का कभी अंत होता ही नहीं।
बोध सदा बढ़ता ही जाता है, बढ़ता ही जाता है, वह शाश्वत हो जाता है।

अब बीज की भांति इस सुन्दर बोध कथा को समझने का प्रयास करें:
एक भूतपूर्व सम्राट ने सद्‌गुरु गूडो से प्रश्न किया:
मृत्यु के बाद बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के साथ क्या घटता है?
यदि उसने यह प्रश्न दार्शनिकों से पूछा होता,
तो उन्होंने बहुत से उत्तर दिए होते,
क्योंकि शास्त्र ऐसे उत्तरों से भरे पड़े हैं।
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को मृत्यु के बाद क्या घटता है?
बुद्ध से भी यही प्रश्न बार-बार पूछा गया था।
और वह कभी-कभी इस प्रश्न को सुनकर सामान्य रूप से हंस पड़ते थे।
एक बार ऐसा हुआ कि शाम के झुटपुटे का समय था
और बुद्ध के निकट एक छोटा सा मिट्टी का दीया जल रहा था।
किसी व्यक्ति ने फिर यही प्रश्न पूछा:
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के साथ मृत्यु के बाद क्या घटता है?
बुद्ध ने दीये की ज्योति बुझा दी और पूछा:
'अब उस ज्योति का क्या हुआ, जो अब है ही नहीं?'
वह कहां चली गई? वह अब है कहां?
एक क्षण पहले ही वह यहां थी, अब वह कहां चली गई?'
ठीक ऐसा ही बोध को उपलब्ध व्यक्ति के साथ मृत हो जाने पर होता है।
यह उत्तर नहीं है।





वह व्यक्ति जरूर ही असंतुष्ट होकर यह अनुभव करते हुए लौटा होगा।
कि बुद्ध ने उसके प्रश्न को टाल दिया।
जिन लोगों ने भी 'उसे' जाना है, उन्होंने सदा उससे बचने की कोशिश की है
लेकिन जो लोग नहीं जानते, उन लोगों के पास बहुत से उत्तर हैं।
तुम विद्वानों और पंडितों से पूछो
और वे तुम्हें बहुत से उत्तर उपलब्ध करा देंगे।
तुम अपनी पसंद का उनमें से कोई भी उत्तर चुन सकते हो।

गूडो ने उतर दिया
मैं इसे कैसे जान सकता हूं?
तुम कोई चीज भविष्य के बारे में पूछ रहे हो, और मैं यहीं और अभी हूं।
मेरे लिए वहां कोई भी भविष्य नहीं है।
केवल इस क्षण का ही अस्तित्व है, और यहां कोई दूसरा क्षण है ही नहीं।
तुम एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति की मृत्यु के बाबत पूछ रहे हो,
जो या तो कहीं भविष्य में है, अथवा कहीं अतीत में है।
बुद्ध के साथ क्या हुआ था?
इसी वजह से गूडो ने कहा: मैं इसे कैसे जान सकता हूं?
उसके कहने का अर्थ है:
मैं अभी और यहीं हूं न मेरे लिए अतीत अर्थपूर्ण है और न भविष्य।
वह कह रहा है
ठीक अभी, मेरी ओर देखो। बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति तुम्हारे सामने बैठा है।
वह कह रहा है
मेरी ओर देखो। तुम्हारी उत्सुकता मृत्यु में क्यों है?

एक बार ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति गड़ो से भेंट करने आया,
जो उस समय का सर्वाधिक प्रसिद्ध सद्‌गुरु था, क्योंकि वह सम्राट का भी
सद्‌गुरु था।
और वह व्यक्ति बहुत बूढ़ा, लगभग नब्बे वर्ष का था,
जो बौद्धों के एक विशिष्ट सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता था।

उसने कहा: मैं बहुत दूर से चलकर आया हूं
और मेरा जीवन अब लगभग समाप्त होने को है,
और मैं सदा से यह प्रतीक्षा करता रहा हूं कि कब आपसे मिलने का अवसर पा सकूं।
इसलिए मरने से पहले मैं आपके पास आया हूं
क्योंकि मेरे पास आपसे पूछने के लिए एक प्रश्न है।
लगभग पचास वर्षों से मैं बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन कर रहा हूं
और मैं अब सब कुछ जानता हूं
केवल एक चीज मुझे परेशान करती है, क्योंकि शास्त्रों में लिखा है'
वृक्ष और चट्टानें भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएंगी।
मैं इस बात को कभी समझ ही नहीं पाता, वृक्ष और चट्टानें भी?
गूडो ने कहा: मुझे एक बात बतलाओ,
क्या तुमने कभी स्वयं अपने बारे मेँ सोचा है, कि तुम-
बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हो अथवा नहीं?
उस व्यक्ति ने उत्तर दिया है तो यह बात अजीब,
लेकिन मैं जरूर यह स्वीकार करूंगा कि मैंने कभी इसके बारे में सोचा ही
नहीं।
वृक्ष और चट्टानें कैसे बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हैं?
इस बात के बारे में वह पचास वर्षों से सोचता आ रहा था,
और इसी प्रश्न को गूडो से पूछने के लिए इतनी अधिक दूर से आया था,
और उसने कभी भी स्वयं के बारे में सोचा ही नहीं था।
लोग यह न जानकर, कि ठीक अभी वे जीवित हैं
मृत्यु के बारे में बातचीत करते हैं।
जीवन यही है, पहले इसे जानें और उसे समग्रता से जीएं।
तुम मृत्यु के बारे में बात करते ही क्यों हो?
लोग, मृत्यु के बाद क्या होगा, इस बारे में बात करते हैं।
इस बारे में सोचना कहीं अधिक अच्छा होगा, कि तुम्हारे साथ जन्म के बाद
से अब तक क्या घटा है और जब आएगी मृत्यु हम उससे भी मिल लेंगे।
पहले जीवन से मिलो, जो यहीं और अभी है।
और यदि तुम जीवन से भेंट कर सकते हो, तो तुम मृत्यु से भी मिलने में
समर्थ हो सकोगे।
कोई भी व्यक्ति जो ठीक तरह से जी सकता है, वह ठीक तरह से मरेगा।
कोई भी व्यक्ति जो चेतना और पूरे होश से क्षण- क्षण सजग होकर समृद्ध
जीवन जीता है, वही व्यक्ति, निश्चित रूप से जब मृत्यु भी आती है, तो वह
वैसा ही करता है
वह उसे भी जीएगा, क्योंकि वह उस गुणात्मस्कता को जानता है, कि वर्तमान
में कैसे जीया जाए। जब मृत्यु भी उसके लिए वर्तमान का क्षण बन जाती है,
तो वह जियेगा लेकिन लोगों की उत्सुकता जीवन के बारे में कम और मृत्यु के
बारे में अधिक होती है।

लेकिन यदि तुम जीवन को ही नहीं जानते,
तो यह कैसे मान लिया जाए कि तुम मृत्यु के बारे में भी जानने में समर्थ हो सकोगे?
मृत्यु जीवन से पृथक नहीं है
वह उसकी ही प्रामाणिक पराकाष्ठा है।
यदि तुम जीवन से ही चूक गए तो तुम मृत्यु को देखने में भी समर्थ न हो
सकोगे।
मृत्यु आएगी, लेकिन तुम अचेत बने रहोगे।
यही सब कुछ हो भी रहा है।
लोग गहन अचेतावस्था और कोमा में मर जाते हैं।
वे अपना पूरा जीवन मूर्च्छा में ही गुजारते हैं,
और जब तुम जीवन के साथ ही अचेत बने जीते रहे
तो तुम यह कल्पना भी कैसे कर सकते हो
कि तुम मृत्यु के पूर्व भी होशपूर्ण होने में समर्थ हो सकोगे?
मृत्यु तो एक क्षण में हो जाएगी,
और जीवन है सत्तर अथवा अस्सी वर्ष की एक प्रक्रिया।
यदि तुम अस्सी वर्ष में भी सचेत न बन सके,
यदि तुम्हें होशपूर्ण बनने के लिए अस्सी वर्ष भी पर्याप्त नहीं हैं,
तो तुम एक क्षण में होशपूर्ण होने में कैसे समर्थ हो सकोगे?
केवल वही व्यक्ति, जो क्षण- क्षण जीता रहा है
मृत्यु का साक्षात्कार करने में समर्थ हो सकेगा,
क्योंकि जब उसने जीवन को क्षण- क्षण जीया है
तो मृत्यु भी उससे बचकर नहीं खिसक सकती।
उसके पास ऐसी सुस्पष्टता, और इतनी सघन पारदर्शिता होती है
कि उस अकेले क्षण में भी जब मृत्यु चलकर आती है
वह उसे देखने में समर्थ हो सकेगा।
एक व्यक्ति जो जीवन को देखने में समर्थ हो चुका है
वह स्वचालित रूप से मृत्यु को देखने में भी समर्थ होगा-
और तब कोई एक यह जान पाता है
कि वह न तो जीवन है और न मृत्यु
वह तो केवल साक्षी है।

जब कोई व्यक्ति, बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के बाबत यह पूछता है-कि
मृत्यु के बाद उसे क्या घटता है?
तो यह निश्चित है कि वह स्वयं बोध को उपलब्ध नहीं है।
और इसीलिए अपने गहरे अज्ञान से वह यह पूछ रहा है, इसलिए उत्तर देना कठिन है।
यह ठीक उसी तरह है कि जैसे एक अंधा व्यक्ति पूछे
कि सुबह सूरज के निकलने पर क्या होता है?
उसे कैसे यह स्पष्ट किया जाए?
उसके साथ संवाद कैसे हो? यह असम्भव है।
एक बार ऐसा हुआ कि एक अंधा व्यक्ति, जो केवल अंधा ही न होकर एक
बहुत बड़ा दार्शनिक भी था,
पूरा गांव, उससे परेशान था, क्योंकि उसने तर्कपूर्ण ढंग से यह सिद्ध किया था
कि यहां, प्रकाश जैसी कोई भी चीज होती ही नहीं।
वह कहता था : मेरे पास हाथ हैं। मैं उनसे स्पर्श कर सकता हूं।
और महसूस कर सकता हूं इसलिए मुझे दिखाओ, प्रकाश है कहां?
यदि ऐसी कोई भी वस्तु अस्तित्व में है, तो उसका स्पर्श किया जा सकता है,
यदि कोई चीज वास्तव में है और तुम उस पर किसी चीज से चोट करो,
तो मैं उसकी आवाज सुन सकता हूं।
और गांव वाले उससे बहुत अधिक परेशान थे,
क्योंकि वे अपने समर्थन में कोई भी प्रमाण न जुटा सकते थे।
उसके पास चार इन्द्रियां थीं, और वह कहता था:
मेरे पास चार ज्ञानेन्द्रियां हैं। तुम मेरे सामने प्रकाश लाओ,
और मैं अपनी चारों इन्द्रियों द्वारा उसे देखूंगा
कि वास्तव में वह है भी अथवा नहीं?
और वे लोग कहते थे: चूंकि आप अंधे हैं, इसलिए आप देख नहीं सकते।
वह हंस पड़ता था और कहता था: ऐसा लगता है, जैसे तुम सपना देख रहे
हो। आंखें आखिर होती क्या हैं? और तुम कैसे सिद्ध कर सकते हो,
कि तुम्हारे पास आखें हैं और मेरे पास नहीं हैं।
तुम अपने प्रकाश के बारे में मुझे बतलाओ वह होता क्या है।
उसे स्पष्ट करो।
ऐसा वे लोग कर नहीं सकते थे।
लेकिन वे लोग बहुत निराशा का अनुभव करते थे
क्योंकि यह व्यक्ति तो अंधा था, और उन लोगों के पास आंखें थीं।

तभी उस कस्बे में बुद्ध का आगमन हुआ।
वे सभी लोग, इस अंधे पागल दार्शनिक को बुद्ध के पास ले गए
और उन लोगों ने बुद्ध से निवेदन किया:
कृपया आप ही इसे स्पष्ट करने का प्रयास करें, हम लोग तो हार गए।
और इस व्यक्ति के पास कुछ ऐसा है, जिससे उसने सिद्ध किया है, कि
प्रकाश जैसी कुछ चीज है ही नहीं, क्योंकि उसका स्पर्श नहीं किया जा
सकता, उसे सूंघा नहीं जा सकता, उसका स्वाद नहीं लिया जा सकता,
और उसे सुना नहीं जा सकता,
फिर वह अस्तित्व में कैसे हो सकता है?
अब आप यहां पधारे हैं, आप ही उसे स्पष्ट कर सकते हैं।
बुद्ध ने कहा:
तुम लोग मूर्ख हो। एक अंधे व्यक्ति को प्रकाश के बारे में कुछ भी बताया ही
नहीं जा सकता, किए गए सारे प्रयास व्यर्थ हैं।
लेकिन मैं एक व्यक्ति को जानता हूं जो बहुत बड़ा चिकित्सक है
तुम इस व्यक्ति को उसके पास ले जाओ, वह इसकी आखें ठीक कर देगा।
उस व्यक्ति को उस चिकित्सक के पास ले जाया गया,
उसकी आखों का उपचार किया गया। वह व्यक्ति वास्तव में अंधा नहीं था।
छ: महीनों में उसे दिखाई देने लगा।
तब वह दौड़ता हुआ बुद्ध के निकट आया, जो उस समय एक दूसरे कस्बे में
थे। वह उनके चरणों पर गिर पड़ा और उसने कहा:
आपकी करुणा से अब मैं जान सकता हूं कि प्रकाश क्या होता है।
अब मैं समझ पा रहा हूं कि वे बेचारे गांव वासी उसे सिद्ध क्यों नहीं कर पाते
थे, और अब मैं समझता हूं कि आपने मुझे चिकित्सक के पास भेजकर बहुत
ठीक किया। मुझे उपचार की आवश्यकता थी-न कि प्रकाश के बारे में
दार्शनिक सिद्धांतों की।

जब एक अज्ञानी व्यक्ति पूछता है,
कि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के साथ मरने के बाद क्या घटता है? इसे छोड़े,
यहां यह भी स्पष्ट नहीं किया जा सकता
कि एक जीवित बुद्ध के साथ क्या घटता है?
क्या घटा मेरे साथ? मैं इसे कैसे स्पष्ट कर सकता हूं?
इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है। यह असम्भव है, जब तक कि तुम स्वयं
देखना शुरू न कर दो, जब तक तुम्हारी आंखें न खुल जाएं?
यदि तुम स्वयं ही नहीं बदलते, तो कुछ भी नहीं समझाया जा सकता।
संवाद होना ही असम्भव है।
क्योंकि इस अस्तित्व में बुद्धत्व की पूर्ण रूप से भिन्न एक अलग गुणात्मकता है-
और तुम उसके प्रति पूरी तरह अंधे हो!
तुम विश्वास कर सकते हो कि मैं बुद्ध हूं लेकिन तुम देख और समझ नहीं सकते।
वह विश्वास ही सहायता करेगा, क्योंकि वह विश्वास ही तुम्हें खुले रहने
की अनुमति देगा।
वह श्रद्धा ही तुम्हारी सहायता करेगी।
क्योंकि तुम इंकार कर सकते हो, तुम कह सकते हो,
नहीं, मैं विश्वास नहीं कर सकता। मैं कैसे करूं विश्वास?
मैं जब उसे जानता ही नहीं, फिर मैं कैसे विश्वास कर सकता हूं?
वह तुम्हारे हृदय के द्वार बंद कर देगा, तब वहां कोई भी सम्भावना नहीं है।
यही कारण है कि धर्म का आग्रह श्रद्धा पर है।
जब लोग कहते हैं कि प्रकाश का अस्तित्व है,
तो अंधा व्यक्ति उस पर विश्वास और श्रद्धा कर सकता है।
और यदि वह श्रद्धा रखता है, तभी उसके लिए कोई सम्भावना है।
यदि वह श्रद्धा ही नहीं रखता, तब वह अपने उपचार करने की भी अनुमति
न देगा।
वह कहेगा: तुम कर क्या रहे हो? प्रकाश की कोई सत्ता है ही नहीं,
और आंखें जैसी कोई चीज है ही नहीं। मैं तुम पर विश्वास ही नहीं करता,
इसलिए जाओ, और कृपया मेरा समय नष्ट मत करो।

निस तल से उच्च तल पर, विचार और भाव सम्प्रेषित करना असम्भव है,
इसमें कोई व्यवस्था कार्य नहीं कर सकती।
तुम्हें अस्तित्व के उस उच्च तल तक स्वयं उठना होगा
केवल तभी, अचानक तुम देख और समझ सकते हो।
और जब तुम देखते, समझते और अनुभव करते हो, तभी श्रद्धा पूर्ण होती है।
पर देखने और समझने से पहले, किसी को आस्था और श्रद्धा करनी होगी,
अपना रूपांतरण होने देने की अनुमति देनी होगी।

गूडो ने उत्तर दिया: मैं कैसे जान सकता हूं?
मृत्यु अभी तक मेरे पास आई नहीं। जब उसे आना है वह तभी आएगी।
तब मैं उसे जान लूंगा और आपको सूचित कर दूंगा
लेकिन ठीक अभी तो मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता।

एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति तुम्हें कोई सिद्धांत नहीं देगा,
वह तुम्हें सिद्धांत न देकर, अंतर्दृष्टि देना चाहेगा।
अंतर्दृष्टि का तुम्हारे अन्दर उत्पन्न होना एक बहुत गहरी घटना है।
सिद्धांत होता है, उधार लिया हुआ।
वह उत्तर भी दे सकता था, क्योंकि एक बुद्ध के साथ क्या घटता है,
इसके बारे में वहां बहुत से सिद्धांत और मत हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद वह एक तल पर पहुंचता है,
जिसे मोक्ष कहा जाता है, जहां वह शाश्वत रूप से निवास करता है।
कुछ लोगों के वक्तव्य और भी अधिक इन्द्रधनुषी हैं,
वे कहते हैं कि वह परमात्मा के राज्य में प्रवेश करता है
और शाश्वत रूप से परमात्मा के ही साथ रहता है।
ठीक उसी तरह, जैसे जीसस परमात्मा के सिंहासन के दाईं और बैठे हुए
फरिश्तों के साथ नाचते गाते उत्सव और आनंद मनाते रहते हैं।
इस बारे में यहां लाखों तरह के सिद्धांत हैं,
लेकिन वे सभी लोगों को सांत्वना देने के लिए धर्मशास्त्रियों के द्वारा सृजित
किए गए हैं।
आपने पूछा है-इसलिए किसी न किसी व्यक्ति को तो इसका उत्तर देना ही
होगा
लेकिन बुद्धों को नहीं: वे सभी उसके बारे में मौन रहे हैं।
उनकी इसके प्रति कोई उत्सुकता ही नहीं है।

जीसस कहते हैं? मैदान में खिले लिली के फूलों की ओर देखो।
वे केवल यहीं और अभी में रहते हैं।
वे आने वाले कल की चिंता ही नहीं करते,
कल स्वयं उनकी फिक्र करेगा।
कोई व्यक्ति बाइबिल के नए टेस्टामेंट को साथ लेकर
एक जेन सद्‌गुरु के पास आया और कुछ वाक्यों को,
विशेष रूप से इस वाक्य को पढ़कर सुनाया:
'मैदान में खिले लिली के पुष्पों पर जरा विचार करो, वे कोई श्रम नहीं करते,
वे आने वाले कल के बारे में नहीं सोचते
और वे यहीं और अभी में खिले हुए इतने अधिक सुन्दर हैं
कि महान सम्राट सोलोमन भी, जो अपने गौरव के शिखर पर पहुंचा हुआ है,
वह भी ऐसी सुन्दरता को देखकर वस्त्र पहनना तक भूल जाता है। '
जब वह इसे पड़ रहा था, तो जेन सद्‌गुरु ने कहा;
रुको! जो कुछ कहा गया है, यही बुद्धत्व है।
वह न तो जीसस के बारे में ही कुछ जानता था, और न ईसाइयत के बारे में।
ईसाइयत जापान में कुछ दिनों पहले ही पहुंची थी।
सद्‌गुरु ने कहा : रुको! अब कुछ और पढ़ने की जरूरत ही नहीं है।
जो कुछ कहा गया है, वह किसी बुद्ध का ही वचन है।
सभी बुद्धों ने इसी क्षण में बने रहने का ही आग्रह किया है।
इसी वजह से गूडो ने कहा: मैं उसे कैसे जान सकता हूं?
भूतपूर्व सम्राट ने कहा:
''आपको इस वजह से जानना चाहिए
क्योंकि आप एक सद्‌गुरु हैं।
एक सद्‌गुरु से हम उत्तरों की अपेक्षा रखते हैं।''

लेकिन वास्तव में एक सद्‌गुरु कभी कोई उत्तर देता ही नहीं।
वह पूरी तरह से तुम्हारे सभी प्रश्नों को नष्ट करता है।
इन चीजों के बीच वहां एक बहुत बड़ा अंतर है।
एक सद्‌गुरु से हम अपने प्रश्नों के उत्तर पाने की अपेक्षा करते हैं,
लेकिन यदि प्रश्न ही मूर्खतापूर्ण हैं, तो उत्तर भी उससे बेहतर नहीं हो सकते।
तुम एक मूर्खता भरे प्रश्न का उत्तर, प्रज्ञापूर्ण ढंग से कैसे दे सकते हो?
पूरा प्रश्न ही मूर्खतापूर्ण है।
कोई व्यक्ति आता है और पूछता है:
हरे रंग का स्वाद कैसा होता है?
प्रश्न निरर्थक है, क्योंकि वहां चीजों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है।
लेकिन भाषा की दृष्टि से प्रश्न पूरी तरह ठीक है।
तुम पूछ सकते हो: हरे रंग का स्वाद कैसा होता है?
वाक्य की संरचना में भाषा की दृष्टि से कोई भी दोष नहीं है।
कई कारणों से ठीक इसी तरह जब कोई पूछता है:
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति जब मर जाता है, तो उसके साथ क्या घटता है?
पहली बात तो यह, कि वह कभी मरता ही नहीं।
एक बुद्ध, ऐसा व्यक्ति होता है, जिसने शाश्वत जीवन को जाना है।
वह कभी मरता ही नहीं
और दूसरी बात यह, एक बुद्ध, एक व्यक्ति रह ही नहीं जाता।
उसका अहंकार विसर्जित हो चुका है, इसी कारण वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है।
इसलिए पहली बात तो यह है, कि वह कभी मरता ही नहीं,
और दूसरी बात यह कि वह पहले ही से मरा हुआ है,
क्योंकि वह अब और अधिक रहा ही नहीं।
बुद्धत्व को उपलब्ध होने के चालीस वर्ष बाद तक, बुद्ध भ्रमण करते रहे,
लेकिन इन चालीस वर्षों में,
जब कि वह एक गांव से दूसरे गांव में, बिहरते हुए
लोगों से निरंतर बातचीत करते रहे,
उन्हें वह सभी कुछ देते रहे, जो उन्होंने प्राप्त किया था,
फिर भी यह कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी एक शब्द तक का उच्चारण
न किया,
और न उन्होंने कभी पृथ्वी पर एक भी कदम रखा।
आखिर इसका क्या अर्थ है?
यह ठीक ही कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी एक शब्द तक का उच्चारण
नहीं किया,
क्योंकि वह अब और रहे ही कहां थे?
जब तुम हो ही नहीं, फिर तुम कैसे किसी शब्द का उच्चारण कर सकते हो?
यह कुछ ऐसे था, जैसे मानो, बुद्ध ने नहीं, स्वयं अस्तित्व ने ही उन शब्दों का
उच्चारण किया,
क्योंकि अब बुद्ध, एक व्यक्ति रहे ही नहीं थे,
केवल कार्य करने की सुविधा और उपयोग के लिए उनका नाम भर रह गया
था।
अन्यथा वहां उसकी भी कोई जरूरत नहीं थी।
उन्होंने कभी एक कदम तक पृथ्वी पर नहीं उठाया,
लेकिन वह निरंतर भ्रमण और भ्रमण करते ही रहे,
उनके बिहरने से पूरा प्रांत ही बिहार कहा जाने लगा।
बिहार का अर्थ ही होता है-बिहरना अथवा भ्रमण करना।
और चूंकि वहां वह भ्रमण करते रहे थे, इसलिए पूरा प्रांत ही बिहार के नाम
से जाना जाने लगा।
और यह ठीक है-पूरी तरह से ठीक-
कि वे कभी एक कदम भी न चले।

मैं तुमसे बात करता हूं: मैं निरंतर तुमसे बातचीत करता हूं लेकिन फिर भी
मैंने एक शब्द तक का उच्चारण नहीं किया है।
जब अहंकार ही नहीं होता वहां, तो कौन कर सकता है उच्चारण?
तब क्या होता है, जब मैं तुमसे बात करता हूं?
यह ठीक ऐसा है, जैसे वृक्षों में होकर हवा का एक झोंका गुजर जाता हो,
यह ठीक ऐसा है, जैसे वर्षा का मौसम नदी को स्पर्श करता हुआ उसकी ओर
बढ़ा आ रहा हो।
यह ठीक इस तरह है जैसे अचानक पुष्प खिल जाएं
लेकिन मैं वहां उपस्थित नहीं हूं।
और फूल यह दावा नहीं कर सकते कि वे स्वयं खिले हैं।
हवा का झोंका यह नहीं कह सकता, कि मैं इन वृक्षों से होकर गुजरा हूं
क्योंकि हवा के झोंके के पास कुछ भी कहने के लिए अहंकार है ही नहीं।
नदी यह नहीं कह सकती : मैं सागर की ओर बढ़ रही हूं।
नदी प्रवाहित हो रही है लेकिन वहां कोई भी नहीं है, जो नदी को गति दे
रहा है।
मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूं
लेकिन मैंने एक शब्द का भी उच्चारण नहीं किया है।
लेकिन ऐसी चीजों को प्रतिसंवेदित कैसे किया जाए?

एक बुद्ध एक अर्थ में पहले ही मर चुका है,
उसका अतीत मिट गया है, वह केंद्र ही न रहा वहां।
अब वह कहीं भी नहीं है-और वह हर कहीं है।
अब वह अखण्ड अस्तित्व के साथ हो गया है।
लहर स्वयं सागर में जाकर विलुप्त हो गई है।
इसलिए जब तुम एक बुद्ध को किसी स्थान पर खड़ा हुआ देखते हो,
उसका शरीर सम्पर्क साधने के लिए एक बिंदु मात्र है, केवल इतना ही।
इसके अलावा वह और कुछ भी नहीं है। वह ठीक बिजली के एक बटन की
भांति है,
यदि तुम उसे दबा दो, विद्युत ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है,
अन्यथा विद्युत ऊर्जा तो हर कहीं है ही।
इसलिए जब एक बुद्ध वहां खड़ा हुआ है।
वह ब्रह्माण्ड के लिए ठीक एक सम्पर्क स्थापित करने वाला बिंदु है।
वह वहां अब और है ही नहीं, वह केवल एक द्वार का रास्ता है।
वह संसार सागर में एक लंगर की भांति उसके अस्तित्व रूपी जहाज को रोके
हुए है, और जब लंगर उठा दिया जाता है
बुद्ध का शरीर रूपी जहाज भी सागर में खो जाता है।
तुम पूछते हो: मरने के बाद क्या होता है?
जब एक लहर बचती ही नहीं, तो होता क्या है? वह सागर ही बन जाती है।
जब एक बुद्ध और अधिक रहता ही नहीं,
उसका शरीर उसी तरह मिट जाता है जैसे एक लहर सागर में समा जाती है।

बुद्ध पहले ही से मर चुका है, इसी कारण वह बुद्ध हुआ है।
और दूसरी बात यह भी है कि वह कभी भी मर नहीं सकता,
क्योंकि एक बार जब अहंकार मर जाता है, तो शाश्वत जीवन प्राप्त हो जाता
है, अब बुद्ध कहीं भी नहीं है, और वह प्रत्येक स्थान में है।
जब तुम्हारे पास कोई केंद्र नहीं रह जाता,
तो पूरा अस्तित्व ही तुम्हारा केंद्र बन जाता है।
यह प्रश्न ही मूर्खतापूर्ण है
यह तर्कपूर्ण और अर्थपूर्ण तो दिखाई देता है, लेकिन है मूढ़तापूर्ण।
इसी वजह से गूडो ने उत्तर दिया: मैं कैसे जान सकता हूं?
इस उत्तर में बहुत सी चीजों की ओर संकेत किया गया है।
गूडो कह रहा है मैं हूं ही नहीं। फिर किसे जानना चाहिए?
जब लहर सागर में खो गई, तो वह कैसे जान सकती है?
भूतपूर्व सम्राट ने कहा:
आपको इस वजह से जानना चाहिए
क्योंकि आप एक सद्‌गुरु हैं।
हम लोग एक सद्‌गुरु से उत्तर पाने की अपेक्षा करते हैं।
लेकिन उत्तर तो शिक्षकों द्वारा दिए जाते हैं, सद्‌गुरुओं द्वारा नहीं।
सद्‌गुरु पूरी तरह से तुम्हारे मन को मिटाते हैं।
ऐसा लग भी सकता है, कि वह तुम्हें उत्तर दे रहे हों,
लेकिन वे उत्तर कभी देते नहीं। वे कभी भी पकड़ में नहीं आते।
तुम किसी बात को पूछो, वह किसी दूसरी बात के बाबत बताने लगते हैं।
तुम 'अ' के बारे में पूछो, वे बात करेंगे 'ब' के बाबत।
लेकिन वे तुम्हें बहुत समझा बुझा कर फुसलाते हैं।
वे 'ब' के बारे में बात करते हुए तुम्हें यह विश्वास दिलाते हैं,
कि हां! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे दिया गया।
लेकिन तुम्हारे प्रश्न मूर्खतापूर्ण हैं उनका उत्तर नहीं दिया जा सकता।
वे असंगत हैं।
इसलिए एक सद्‌गुरु कभी तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता ही नहीं,
लेकिन वह तुम्हें यह अहसास कराता है कि वह तुम्हें उत्तर दे रहा है,
लेकिन वह पूरी तरह से तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन को ही खींचने का
प्रयास कर रहा है।
उसका पूरा प्रयास ही यह होता है कि तुम्हारे मन को गिरा कर ध्वस्त कर
दिया जाए।

यदि तुम एक सद्‌गुरु के निकट कुछ देर बने रहो
तो तुम मिटने लगोगे।
वह एक इतनी गहरी शून्यता की खाई है, कि तुम पूरी तरह उसमें खींच लिए
जाओगे।
न वहां प्रश्न रहेंगे और न उत्तर।
केवल तभी, जब तुम्हारे अन्दर केवल मौन रह जाता है,
एक सद्‌गुरु तुम्हारे साथ सफल होता है।
उत्तर, फिर तुम्हारे मन को भर देंगे,
इसलिए एक सद्‌गुरु तुम्हें उत्तर कैसे दे सकता है? वे सिद्धांत बन जाएंगे?
वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने की अनुमति ही नहीं देंगे।
एक सद्‌गुरु तुम्हारे प्रश्नों को वास्तव में काटता चला जाता है
जब तक कि धीमे-धीमे तुम पूछना बंद ही न कर दो।
और जब न पूछने का क्षण आता है
उत्तर केवल तभी दिया जाता है।
लेकिन वह उत्तर शाब्दिक नहीं होता
वह उत्तर उसके पूरे अस्तित्व से आता है।
तब सद्‌गुरु अपने आपको तुममें उडेलता है
वह एक वाहन होता है, जिसके द्वारा वह अपना पूरा अस्तित्व तुम्हारे अन्दर
उडेलता है।
क्यों?
''आपको इस वजह से जानना चाहिए
क्योंकि आप एक सद्‌गुरु हैं।''
हम सोचते हैं कि एक सद्‌गुरु को बहुत अधिक ज्ञानी होना चाहिए
उसे प्रत्येक बात जाननी चाहिए।
वास्तव में एक सद्‌गुरु कुछ भी नहीं जानता:
वह अज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंच कर ही सत्य को उपलब्ध हुआ है,
क्योंकि अज्ञान ही केवल निर्दोष हो सकता है, ज्ञान कभी भी निर्दोष नहीं होता।
ज्ञान हमेशा बेईमान और चालबाज होता है,
वह कभी भी निर्दोष हो ही नहीं सकता।
वह कुछ भी नहीं जानता, यही अज्ञान की पराकाष्ठा है।
उसने सारी जानकारी गिरा दी। वह है, लेकिन वह जानने वाला नहीं है।
और वह जो कुछ भी कह रहा है, वह उसके ज्ञान या जानकारी से नहीं,
वह उसकी निर्दोषता से ही निःसृत हो रहा है।
वह लाखों बातें कह सकता है, क्योंकि उसकी निर्दोषता,
शक्ति और ऊर्जा का एक सागर है,
वह वर्षों तक बोले चला जाता है-बुद्ध चालीस वर्षों तक बोलते रहे।

अब विद्वान कहते हैं कि एक व्यक्ति के लिए चालीस वर्षों तक निरंतर बोले
चले जाना, और वह भी इतनी अधिक चीजों के बारे में, असम्भव है।
यह उन लोगों के लिए बहुत कठिन प्रतीत होता है,
क्योंकि वे यह नहीं जानते कि निर्दोषता का भंडार कभी चुकता ही नहीं।
ज्ञान चुक जाएगा
यदि मैं किसी के-, को जानता हूं तो वह जानना सीमित है,
और तब मैं निरंतर बोले ही चले नहीं जा सकता।
और यदि तुम सुनने का तैयार हो, तो मैं अनंत समय तक बोले चले जा सकता हूं
क्योंकि यह सभी कुछ जानकारी से बाहर नहीं आ रहा है,
बल्कि यह निर्दोषता की पराकाष्ठा के शून्य से आ रहा है।
निर्दोषता और अज्ञान की यह पराकाष्ठा तुम्हारे अज्ञान जैसी नहीं है:
तुम्हारा अज्ञान और निर्दोषता चरम सीमा तक विकसित नहीं है।
तुम जानते हो-और वास्तव में तुम बहुत अधिक जानते हो।
तुम ऐसा कोई भी निर्दोष व्यक्ति नहीं खोज सकते जो जानता न हो।
वह कम जाने या अधिक, लेकिन वह जानता है,
वह गलत अथवा ठीक कुछ भी जान सकता है, लेकिन वह जानता है।
यहां तक कि एक मूर्ख भी जानता है, और वह इस बात पर जोर देता है
कि वह उसे बिल्कूल ठीक से जानता है।
केवल एक बुद्ध ही जानने से इंकार करता है।
सुकरात ने कहा है: जब में युवा था,
मैं बहुत सी बातें जानता था, वास्तव में मैं सब कुछ जानता था।
जब में थोड़ा अधिक विकसित हुआ, तो मुझे यह अनुभव होना शुरू हो गया,
कि मैं अधिक न जानकर, बहुत थोड़ा सा ही जानता हूं।
और जब मैं पूरी तरह से आ हो गया।
तब मैं पूरी चीज केवल यही समझा
कि अब मैं केवल एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता।

जब वह युवा था, उसने बहुत सी चीजें जानी थीं
युवावस्था को अपने पर बहुत अभिमान होता है।
केवल अल्प विकसित लोग ही अधिक जानकारी रखने वाले होते हैं।
विकसित होना, निर्दोष होने जैसा है,
जो कुछ भी नहीं जानती।
अथवा वह केवल यही जानती है, कि वह कुछ भी नहीं जानती।

गूडो ने उत्तर दिया
मैं उसे क्यों जान सकता हूं? मुझे क्यों जानना चाहिए उसे?
भूतपूर्व सम्राट ने कहा:
'आपको इसलिए जानना चाहिए
क्योंकि आप एक सद्‌गुरु हैं।'
उत्तरों की अपेक्षा है।
उन्हें जानना ही चाहिए। यदि वह ही नहीं जानते, तब दूसरा कौन जानेगा?
और गूडो ने कितनी सुन्दर बात कही-
उसने कहा-'जी हां! श्रीमान, लेकिन मैं अभी मरा नहीं हूं।
मैं एक सद्‌गुरु हूं लेकिन अभी मृत नहीं हुआ हूं।
प्रतीक्षा कीजिए। जब मैं मर जाऊंगा, तब मैं बताऊंगा, कि मरने के बाद
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के साथ क्या घटता है।
मैं अभी जीवित हूं और आप मुझसे मृत्यु के बारे में पूछ रहे हैं।
मृत्यु अभी घटी नहीं है, इसलिए मैं उसे कैसे जान सकता हूं?
जब वह घटेगी, मैं आपको सूचित कर दूंगा।
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को मृत्यु कभी घटती ही नहीं।
गूडो वास्तव में चतुर है। बोध को उपलब्ध व्यक्ति की कभी मृत्यु नहीं होती,
केवल अज्ञानी मनुष्य ही मरते हैं। केवल अहंकार की ही मृत्यु होती है।
जब तुम्हारे अन्दर कोई केंद्र रहता ही नहीं, फिर कौन मर सकता है?
फिर कैसे मृत्यु सम्भव है?
अपने 'स्व' की अपने अहंकार की ही मृत्यु सम्भव है।
जहां 'स्व' बचा ही नहीं, उसकी मृत्यु कैसे हो सकती है?
सभी बुद्ध सदियों से एक ही बात कहते रहे हैं:
अपने अहंकार को मार दो, जिससे तुम शाश्वतता को उपलब्ध हो सको।
अहंकार को मर जाने दो
तब तुम्हारे लिए कोई भी मृत्यु होगी ही नहीं,
तुम मृत्यु के पार अमर हो जाओगे।

आज इतना ही 

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