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सोमवार, 13 जनवरी 2020

शूून्य की किताब-(Hsin Hsin Ming)-ओशो

(शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक Hsin Hsin Ming का हिन्दी अनुवाद शुन्य की किताब जो झेन गुरु सोसान के सुत्रों पर ओशो के अमृत प्रवचनों का संकलन है।)
 
प्रवेश से पूर्व

प्रतीक जिस वस्तु को अभिव्यक्त करता है उसका ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। गुलाब का महत्व नहीं है 'गुलाब' शब्द महत्वपूर्ण हो गया है। और मनुष्य शब्द का इतना आदी हो गया है शब्द से इतना आविष्ट हो गया है कि शब्द से प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। कोई 'नीबू' का नाम ही लेता है तो तुम्हारे मुंह में पानी आता है। यह शब्द का आदी हो जाना है। हो सकता है नीबू भी इतना प्रभावकारी न हो भले ही नीबू टेबल पर रखा हो और तुम्हारे मुंह में पानी भी न आए। लेकिन कोई कहता है 'नीबू’?
और तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है। शब्द वास्तविक से अधिक महत्वपूर्ण हो गया
है-- यही उपाय है--और जब तक तुम इस शब्द-- आसक्ति को नहीं छोड़ते तुम्हारा
वास्तविकता से साक्षात्कार नहीं होगा। दूसरा कोई और अवरोध नहीं है।


बिलकुल भाषारहित हो जाओ और अचानक वास्तविकता वहां है--वह सदा से ही
वहां है। अचानक तुम्हारी आंखें स्पष्ट होती हैं; तुम्हें स्पष्टता उपलब्ध होती है और सब
आलोकित हो जाता है। सभी ध्यान--विधियों की बस यही चेष्टा है कि भाषा को कैसे छोड़ा जाए। समाज को त्याग देने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि बुनियादी तौर पर समाज भाषा के सिवाय और कुछ नहीं है।
इसीलिए पशुओं के समाज नहीं हैं, क्योंकि भाषा नहीं है। जरा सोचो अगर तुम
बोल न सकते, अगर तुम्हारे पास कोई भाषा न होती, तो समाज का अस्तित्व कैसे होता? असंभव! कौन तुम्हारी पत्नी होती? कौन तुम्हारा पति होता? कौन तुम्हारी मां होती और कौन तुम्हारा पिता होता?
बिना भाषा के सीमाएं संभव नहीं हैं। इसीलिए पशुओं के समाज नहीं हैं। और अगर कोई समाज है उदाहरण के लिए चींटियों और मधुमक्खियों का तो तुम सोच सकते हो कि भाषा जरूर होगी। और अब वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मधुमक्खियों की भाषा होती है--बहुत ही छोटी भाषा केवल चार शब्दों की लेकिन उनकी एक भाषा है। चींटियों की कोई भाषा जरूर होगी उनका इतना व्यवस्थित समाज है वह भाषा के बिना नहीं हो सकता।
समाज का अस्तित्व भाषा के कारण है। जैसे ही तुम भाषा से बाहर हो जाते हो,
समाज मिट जाता है। हिमालय जाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि अगर तुम अपनी भाषा साथ ले जाते हो तो भले ही तुम बाहर से अकेले होओ लेकिन भीतर समाज होगा। तुम मित्रों से बात कर रहे होओगे अपनी या दूसरों की पत्नी से प्रेम कर रहे होओगे खरीद--फरोख्त चल रही होगी। जो कुछ भी तुम यहां कर रहे थे वहां भी वही जारी रखोगे।
एक ही हिमालय है और वह है अंतर--चेतना की एक अवस्था, जहां भाषा नहीं है।
और यह संभव है-- क्योंकि भाषा एक प्रशिक्षण है वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुम भाषा
के बिना पैदा हुए थे। भाषा तुम्हें दी गई है तुम उसे प्रकृति से लेकर नहीं आए हो। वह
प्राकृतिक नहीं है, वह समाज का सह--उत्पाद है।
प्रसन्न होओ, क्योंकि उससे बाहर निकलने की संभावना है। अगर तुम उसे जन्म से ही लाए होते तो उससे बाहर निकलने का कोई उपाय न होता। लेकिन तब उसकी
आवश्यकता भी न होती, क्योंकि तब वह ताओ का एक हिस्सा होती। वह ताओ का हिस्सा नहीं है, आदमी ने उसकी रचना की है। वह उपयोगी है, उसका एक प्रयोजन है समाज भाषा के बिना नहीं हो सकता।
व्यक्ति को दिन में चौबीसों घंटे समाज का हिस्सा होने की जरूरत नहीं है। कुछ
मिनटों के लिए भी, अगर तुम समाज का हिस्सा नहीं हो अचानक तुम पूर्ण में लीन हो जाते हो और ताओ का अंश बन जाते हो। और तुम्हें लचीला होना चाहिए। जब तुम्हें समाज में जाना हो तब भाषा का प्रयोग करना चाहिए; जब तुम्हें समाज में न जाना हो, तब तुम्हें भाषा को छोड़ देना चाहिए। भाषा का एक कृत्य एक तकनीक की भांति उपयोग होना चाहिए। तुम्हें उसे मानसिक बाधा नहीं बनाना चाहिए यही सारी बात है।
सोसान भी भाषा का प्रयोग करता है। मैं भी भाषा का प्रयोग कर रहा हूं क्योंकि मैं तुम तक कुछ पहुंचाना चाहता हूं। लेकिन जब तुम नहीं होते, तब मैं भाषा में नहीं होता हूं। जब मुझे बोलना पड़ता है, मैं भाषा का प्रयोग करता हूं; जब तुम वहां नहीं होते मैं भाषा के बिना होता हूं फिर भीतर शब्द नहीं घूमते। जब मैं संवाद करता हूं मैं समाज का हिस्सा बन जाता हूं। जब मैं संवाद नहीं कर रहा हूं मैं ताओ का एक अंश ब्रह्मांड का अंश, प्रकृति या परमात्मा का अंश बन जाता हूं--जो भी तुम नाम उसको देना चाहो तुम दे सकते हो।
परमात्मा के साथ मौन ही संवाद है मनुष्य के साथ भाषा संवाद है।
ओशो


8 टिप्‍पणियां:


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