तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision—(सरहा के गीत)-भाग-पहला
दसवां—प्रवचन—(हिंगल डे जिबिटी डांगली जी)
दिनांक-30 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना)
पहला प्रश्न: यह प्रभा का प्रश्न है: प्रिय ओशो, हिंगल डे जे,
विपिटी डांग जांग—डो रन नन, डे जुन बुंग।
हिंगल डे जिबिटी डांगली जी?
यह अत्यंत सुंदर है, प्रभा! यह
सौन्दर्य पूर्ण है। यह बहुत बढियां है, बच्ची। मैं तुम्हें
स्थिर बुद्धि बनाए जा रहा हूं। बस एक कदम और...और संबोधि।
दूसरा प्रश्न: क्या प्रार्थना उपयोगी है? यदि हां,
तो मुझे सिखादें कि कैसे करूं। मेरा तात्पर्य है, प्रार्थना ईश्वर के प्रेम को प्राप्त करने के लिए, उसके
प्रसाद को अनुभव करने के लिए।
पहल बात, प्रार्थना उपयोगी नहीं है—जरा भी नहीं। प्रार्थना का कोई उपयोग, कोई उपयोगिता नहीं है। यह कोई वस्तु नहीं है। तुम इसका उपयोग नहीं कर सकते हो। यह कोई चीज नहीं है। यह किसी अन्य चीज का साधन नहीं है—इसका उपयोग तुम कैसे कर सकते हो?
प्रश्नकार्ता के मन को में समझ सकता हूं। तथाकथित
धर्म लोगों को यही सिखाते आए हैं कि प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचने का एक साधन है।
यह साधन नहीं है। प्रार्थना ही परमात्मा है। यह किसी चीज का साधन नहीं हो सकती।
प्रार्थना अपने में परिपूर्ण है। अपनी पूर्णता में समाहित है। जब तुम
प्रार्थनापूर्ण होते हो,
तुम दिव्य होते हो। ऐसा नहीं कि प्रार्थना तुम्हें दिव्य की और ले
जाती है, प्राथनापूर्ण होने में ही तुम अपनी दिव्यता को
अन्वेषित करते हो।
प्रार्थना साधन नहीं हे। यह स्वयं ही अपना साध्य है।
परंतु यह झूट सदियों से मनुष्य के मन में घर किए रहा
है। प्रेम भी साधन है,
प्राथना भी साधन है। वैसे ही ध्यान भी साधन है—वह सब जिसको साधन में
घआया जा सकना असंभव है उस सबको घटा दिया गया है। और यही कारण है कि सौंदर्य खो
जाता है।
प्रेम उपयोगहीन है, ऐसे ही प्रार्थना है, ऐसे ही ध्यान है।
जब तुम पूछते हो: ‘क्या प्रार्थना उपयोगी है?
तुम समझते नहीं कि प्रार्थना शब्द का क्या अर्थ है। तुम लालची हो।
तुम परमात्मा को चाहते हो, तुम परमात्मा को पकड़े रखना चाहते
हो; अब तुम परमात्मा को पकड़ रखने के साधन और उपाय खोज रहे
हो। और ईश्वर को पकड़ा नहीं जा सकता।’
तुम ईश्वर पर मालकियत नहीं कर सकते। तुम ईश्वर को अपने
पास रख नहीं सकते हो। तुम ईश्वर की व्याख्या नहीं कर सकते हो। तुम ईश्वर का अनुभव
नहीं कर सकते हो। तब ईश्वर के बारे में तुम क्या कर सकते हो? केवल एक
बात: तुम ईश्वर हो सकते हो। इस बारे में और कुछ नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि
ईश्वर तुम हो। इस बात को तुम पहचानो या न पहचानो, इसको तुम
अनुभूत करो या न करो, पर ईश्वर तुम हो; केवल वहीं तो किया जा सकता है जो हो ही चुका हो। कुछ नया जोड़ा नहीं जा
सकता...केवल प्रकटन, केवल अन्वेषण।
इसलिए पहली बात: प्रार्थना कोई उपयोगिता नहीं हे। जिस
क्षण तुम प्रार्थना का उपयोग करते हो, तुम इसे कुरूप बना देते हो। यह एक
अधर्म है। प्रार्थना का उपयोग करना। और जिस किसी ने भी तुम्हें प्रार्थना का उपयोग
करने को कहा है वह न केवल अधर्मिक ही है बल्कि धर्म-विरोधी भी है। वह समझता ही
नहीं कि वह क्या कर रहा है। वह बकवास कर रहे है।
प्रार्थनापूर्ण होओ इसलिए नहीं कि इसकी कोई उपयोगिता
है, बल्कि इसलिए क्यों कि यह एक आनंद है। प्रार्थनापूर्ण होओ इसलिए नहीं कि
इसके द्वरा तुम कहीं पहुंच जाओगे, बल्कि इसके द्वारा तुम
उपस्थित होते हो, इसके बिना तुम अनुपस्थित होते हो। यह
भविष्य में कहीं कोई लक्ष्य नहीं है, यह उस वर्तमान का
अन्वेषण है जो कि है ही, जो कि पहले से ही है।
और वस्तुओं के अर्थ में मत सोचो वर्ना प्रार्थना
अर्थशास्त्र का अंग बन जाती है। धर्म का नहीं। यदि यह एक साधन है तब तो यह
अर्थशास्त्र का एक अंग हो गई। सभी साधन अर्थशास्त्र के ही अंग है। साध्य
अर्थशास्त्र के पार की बात है। धर्म का संबंध साध्य से है। साधन से नहीं। धर्म का
कहीं पहुंचने से कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का संबंध बस एक बात जानने से है: यह
जानना कि हम कहां है।
इस क्षण का उत्सव मनाना प्रार्थना है। यहां-अभी में
होना प्रार्थना है। इन पक्षियों को सुनना प्रार्थना है। तुम्हारे चारों और बैठे
लोगों की उपस्थिति को महसूस करना प्रार्थना है। एक वृक्ष को प्रेम से स्पर्श करना
प्रार्थना है। एक बच्चे की और प्रेम से देखना, गहन स्नेह से आदर से जीवन के प्रति
सम्मान से, सब प्रार्थना ही तो है।
इसलिए पहली तो बात: मत पूछो, ‘क्या
प्रार्थना उपयोगी है?’
और फिर दूसरी बात तुम कहते हो: ‘यदि ऐसा है,
तो मुझे प्रार्थना करना सिखा दें।’
यदि तुम ‘यदि’ से प्रारंभ
करते हो, प्रार्थना नहीं सिखाई जा सकती है। ‘यदि’ से किया गया प्रारंभ ही संदेह का प्रारंभ होता
है। ‘यदि’ प्रार्थनापूर्ण मन का भाग
नहीं हैं। यह ऐसा है। यह पूर्णत: ऐसा ही है।
जब तुम भरोसा करते हो अज्ञात पर, अदृश्य पर
अप्रकट पर, तब वहां प्रार्थना है। यदि तुम ‘यदि’ से प्रारंभ करो तो प्रार्थना अधिक से अधिक एक
परिकल्पना होगी। तब प्रार्थना एक सिद्धांत होगी और प्रार्थना सिद्धांत नहीं है।
प्रार्थना कोई वस्तु नहीं है। प्रार्थना कोई सिद्धांत नहीं है—प्रार्थना तो एक
अनुभव है। तुम ‘यदि’ से प्रारंभ नहीं
कर सकते।
वह प्रारंभ ही गलत हो जाता है। तुमने गलत दिशा में
कदम उठा लिया। ‘यदियों’ को छोड़ो और तुम प्रार्थना में होगे। सब
यदियों को छोड़ो, जीवन को परिकाल्पनिक चीजों द्वारा मत जियो:
‘यदि ऐसा है, यदि ईश्वर है, तब मैं प्रार्थन करूंगा।’ पर तुम प्रार्थना कैसे कर
सकते हो यदि ईश्वर एक यदि हो? यदि ईश्वर केवल ‘जैसे कि’ हो, तो तुम्हारी
प्रार्थना भी बस जैसे की होगी। यह एक रिक्त संकेत होगी। तुम झुकोगे तुम कुछ शब्द
उच्चारित करोगे, पर तुम्हारा हृदय वहां नहीं होगा। हृदय कभी
यदियों के साथ नहीं होता। विज्ञान यदियों से काम करता है; धर्म
कभी यदियों से काम नहीं करता।
तुम पूछ रहे हो, ‘यदि प्रेम है, तो मुझे प्रेम सिखा दें।’ यदि प्रेम है? तब तुम्हारे हृदय में कुछ भी मंथन नहीं हुआ है, तब
बसंत नहीं आया है, और उस समीर ने, जिसे
कि प्रेम कहा जाता है, तुम्हें स्पर्श नहीं किया है। तुमने
शायद किसी अन्य को प्रेम के विषय में बात करते हुए सुन लिया है। तुमने शायद किसी
पुस्तक में प्रेम के विषय में पढ़ लिया है। तुम शायद रोमांटिक कविताएं पढ़ते रहे
होगे। शब्द ‘प्रेम’ तो तुम तक आया है,
पर प्रेम के अनुभव का एक क्षण भी नहीं घटा है...इसलिए तुम पूछते हो:
यदि प्रेम है, तब हमें सिखाएं, परंतु
यदि के साथ नहीं सिखाया जा सकता है।
क्या तुमने कभी भी प्रेम का, प्रार्थना
का, सौन्द्रर्य का कोई एक क्षण भी अनुभव नहीं किया है? मैं आज तक एक भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला हूं जो कि इतना अभागा हो। क्या
तुमने कभी भी रात्रि के मौन को नहीं सुना है? क्या तुम कभी भी इसके
द्वारा रोमांचित नहीं हुए हो? क्या तुमने कभी क्षितिज पर उगते सूरज को नहीं
देखा है? क्या तुमने कभी भी उगते सूरज के साथ एक गहन अर्न्तसंबंध अनुभव
नहीं किया है? क्या तुमने सूरज की किरणों को हर तरफ से और अधिक जीवन के अपने पर उंडलते
अनुभव नहीं किया है? हो सकता है तुमने उसे एक क्षण के लिए ही
किया हो? क्या तुमने कभी किसी इंसान का हाथ अपने हाथ में
थामा है और कुछ तुम में प्रवाहित होने लगा हो उस और से तुम्हारे अंतस में। क्या
तुमने उस एकात्मकता को अनुभव नहीं किया है कभी? क्या तुमने
यह अनुभवन नहीं किया है कि जब दो मनवीय-अवकाश एक दूसरे को आच्छादित कर लेते है?
और एक दूसरे में प्रवाहित हो जाते हैं? क्या
तुमने कभी किसी गुलाब के फूल को नहीं देखा है और उसकी सुगंध को नहीं सूंधा है?—और अचानक तुम किसी अन्य ही जगत में स्थानांतरित हो गए हो?
ये प्रार्थना के क्षण हैं। यदि से प्रारंभ इसे कृपा
मत करो। जीवन के उन सब क्षणों को इकट्ठा कर लो जो कि सुंदर थे—वे सब प्रार्थना के क्षण
थे। अपने प्रार्थना के मंदिर को उन क्षणों पर आधारित करो। उसे आधार बनने दो, यदि को
नहीं। यदि की ईंटे झूठी है। वो आधार तो सुनिश्चिताओं से निर्मित करो। पूर्ण सुनिश्चितताओं
से—केवल तभी, केवल तभी इस बात की संभावना है कि तुम
प्रार्थना के जगत में प्रवेश कर सको। यह एक महान जगत है। इसका प्रारंभ तो है पर
इसका कोई अंत नहीं है। यह महासागर जैसा है।
इसलिए कृपया मत कहो कि ‘यदि ऐसा है
तो’ ऐसा ही है। और यदि अभी तुमने इसे ऐसा महसुस नहीं किया है,
तब झांको अपने जीवन में और सौन्दर्य के, प्रेम
के अनुभव में उतरो उसमें झांको-कुदो सुनिश्चितताओं को ढूंढो जो मन के पार जाती
हों। उन सब को इकट्ठा कर लो। मन की सामान्य आदते तो यह है कि उन्हें इकट्ठा न करे
क्योंकि वे तार्किक मन के विपरीत होती है। इसलिए हम कभी उन पर ध्यान ही देते। ये
घटनाएं घटती हैं, ये हर किसी को घटती हैं। मुझे यह बात
दोहराने दो: कोई भी इतना अभागा नहीं है। वे सबसे अभागे व्यक्ति को घटती हैं। आदमी
बना ही इस ढंग से, आदमी का होना ही ऐसा है—वे घटने के लिए
वाध्य हैं। पर हम उन पर ध्यान ही नहीं देते क्योंकि वे क्षण खतरनाक होते है, मन के लिए। यदि वे सच हैं तो हमारे तार्किक मन का फिर क्या होगा? वे तो बड़े अतर्किक क्षण है।
अब एक पक्षी को सुनते हुए और कोई चीज तुम्हारे भीतर
भी गाने लगती है—यह बड़ी अतर्कपुर्ण बात है। तुम पता नहीं लगा सकते हो कि ये कैसे
हो रहा है, यह क्या हो रहा है? क्या ऐसा होना चाहिए? इस सब का क्या कारण है? क्यों होता है ऐसा? इन सब बातों को मन समझ नहीं सकता तब वह क्या करे अपने बचाव के लिए,
क्योंकि चीजें तो घट रही है। तब मन इसे समझ नहीं पा रहा होता है। मन
के पास बस एक ही उपाय बचता है इस पर ध्यान ही मत दो, वह इस
बात को असर्मण कर दे। भूला दे याद ही न करे। और एक तर्क खड़ा कर दे कि यह सब एक
बहम है ऐसा कैसे हो सकता है? ये एक पागल पन है, तुम पगल हो गए थे कुछ क्षणों के लिए। तब मन इन सब की ऐसी व्याख्या करता है
जो उसके पक्ष में होती है। अपने बचाने के वह नए-नए तरिके खोजता ही रहता है। एक
पक्षी ही तो गा रहा था...ये क्या खास बात थी। इस लिए इतना झक्कीपन ठीक नहीं है,
कोई क्या कहेगा? तुम तो कितने बौधिक हो समझदार
हो ऐसा तुम कैसे कर सकते हो। तुम एक बहाव में बह गए थे, तुम
जरा भावुक हो गए थे, इस तरह की भावुकतापुर्ण बात ठीक नहीं है,
तुम्हें थोड़ा सावधान रहना चाहिए...ये कोई प्रामाणिक बात नहीं
है...ये तुम्हारा बहम मात्र है।
यह मन के नकारने का एक ढंग हो सकता है। एक बार तुम
नकारना प्रारंभ कर दो तो तब भी तुम्हारे पास कोई ऐसा क्षण तुम्हारे पास आता है जिस
पर तुम अपनी प्रार्थना का आधार खड़ा कर सको...मन उस सब के लिए एक प्रश्न चिन्ह खडा
कर देता है। यदि ऐसा है तो...।
मेरा पहला सुझाव है: अपने जीवन में जाओ। उन सब क्षणों
को स्मरण करो। तुम एक छोटे बच्चे रहे होगे, समुन्द्र तट पर सीपियां इकट्ठे करते
हुए, और दूर सूरज की र्स्वीमकिरणें तुम पर बरस रही होगी। हवा
में मधुरता तुम को छू रही होगी, समुंद्रिय नमकीन उस हवा और
गंध के साथ तुम्हारे नथुनो में प्रवेश कर रहा होगा। एक अनछुया आंनद तुम पर बरस रहा
होगा। तुम एक परिपूर्णता से लवरेज हो रहे होगे। समपूर्ण आस्तित्व तुम से होकर बह
रहा होगा। तब तुम इतने आंनद विभोर हो रहे होगे कि कोई राजा महाराज भी तुम्हारे इस
क्षण के आगे फिका पड़ गया होगा। तुम करीब-करीब संसार के सर्वोच्च शिखर पर थे—तुम
सम्राट बन गए थे कुछ क्षणों के लिए। यह वह क्षण है, यहीं है
वो आनंद की ईंटे जिससे तुम इस मंदिर का आधार रख सकते हो।
तुम एक छोटे बच्चे थे एक तितली के पीछे दौड़ते फिर
रहे थे, वही क्षण था प्रार्थना का। पहली बार जब तुम किसी स्त्री के या किसी पुरूष
के प्रेम में पड़े हो, तुम्हारा हृदय आनंद से हिलोरे ले रहा
है, एक मंथन हो रहा है, तुम्हारी
समपूर्ण ऊर्जा आंदोलित हो रही है और तुम एक नए ढंग के स्वप्न देखने लग जाते
हो...तुम्हारे आंखों मे एक रंगिनता छा जाती है, वही क्षण
होता है प्राथना का, तुम्हारा प्रथम प्रेम, तुम्हारी प्रथम मैत्र ही उस प्रथाना की उतुंग उंचाई है, वहां मंदिर बन सकता है प्रार्थना को।
अपने अतीत से किसी ऐसी चीज के विषय में कुछ
सुनिश्चितताओं को एकत्रित करो जो कि मन के पार की हो। जिसकी कि मन व्याख्या न कर
सके। जिसका की मन चिर-फाड़ न कर सके, उसकी समझ के पार की कुछ विष्मयकारी
घड़िया। जो केवल होना मात्र हो, वहा पर कोई व्याख्या करने
वाला न हो। उन कुछ क्षणों को इकट्ठा करो, थोड़े से क्षणों से
भी काम चल सकता है। परंतु एक बात का ध्यान रखो उनमें कोई यदि न हो? फिर तुम सुनिश्चिता
के साथ चल सकते हो। तब यह एक परिकल्पना नहीं होती। तब वहां भरोसा होता है। एक
निजिता शाश्वता।
यदि यह बात तुम्हारे साथ तब हो सकती थी जबकि तुम एक बालक थे, तो
यह तुम्हें अब क्यों नहीं हो सकती? जरा सोचो...क्यों? विस्मय के वे क्षण को एकत्रित करो! जबकि तुम
रोमांचित हो उठे थे। समपूर्ण विस्यम से भर गए थे।
अभी उस दिन मैं एक व्यक्ति के विषय में पढ़ रहा था, एक बहुत सरल
व्यक्ति, एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति। और एक अंग्रेज दार्शनिक,
चिंतक डॉक्टर जॉनसन उस बूढ़े व्यक्ति के साथ ठहरा हुआ था। और एक दिन
सुबह, जब वे दोनों चाय पी रहे थे, उस
बूढ़े व्यक्ति ने कहा, ‘डॉ जानसन आपको जानकर हैरानी होगी कि
जब मैं जवान था तो मैंने भी दार्शनिक बनने की चेष्टा की थी।’
डॉ जॉनसन ने पूछा, ‘फिर क्या हुआ? आप दार्शनिक क्यों नहीं बन पाए?’
वह व्यक्ति हंसा और उसने कहा, ‘परंतु
प्रसन्नचित्तता बार-बार मेरे जीवन में फूट पड़ी-प्रफुल्लता। उसी प्रसन्नचित्तता के
कारण मैं एक दार्शनिक न बन सका। बार-बार मैंने इसे दबाने की बड़ी चेष्टा की।’
इसलिए तो जीसस कहते हैं: केवल वे लोग जो छोटे बच्चों
जैसे हैं, केवल वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे—वे जिनकी आंखें
विस्मय से भरी हैं, जिनके हृदय रोमांचित हो जाने के लिए अभी
भी खुले हैं, केवल वे ही।
इसलिए पहले तो यदि को छोड़ो और कुछ सुनिश्चितताओं को
इकट्ठा करो—यह पहला पाठ है प्रार्थना के विषय में।
दूसरी बात, तुम कहते हो: ‘मुझे
सिखा दें कि प्रार्थना कैसे करूं।’
कोई कैसे नहीं है। प्रार्थना कोई तकनीक नहीं है।
ध्यान सिखाया जा सकता है,
यह एक तकनीक है। यह एक विधि है। प्रार्थना विधि नहीं है—यह तो एक
प्रेम-संबंध है! तुम प्रार्थना कर सकते हो पर प्रार्थना
सिखाई नहीं जा सकती।
ऐसा एक बार हुआ: जीसस के कुछ शिष्यों ने उनसे पूछा, ‘मास्टर,
हमें प्रार्थना सिखाएं और यह भी सिखाऐं कि कैसे?’ और जानते हो जीसस ने क्या उत्तर दिया? तुम जानते हो?
उन्होंने ठीक वैसा ही काम किया जिसकी आशा तुम एक झेन मास्टर से करते
हो: वह बस पृथ्वी पर अपने घुटनों के बल गिर गए और प्रार्थना करने लगे। शिष्य तो
हैरान रह गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आया सब इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने अपने कंधे
उचकाए होंगे कि ‘हमने तो उन्हें सिखाने के लिए कहा और वह
क्या कर रहे है?’ वह तो प्रार्थना कर रहे हैं—पर उनकी
प्रार्थना हमारी सहायता कैसे कर सकती है? बाद में उन्होंने
पूछा होगा और जीसस ने कहा होगा, ‘परंतु यहीं तो एक मात्र
उपाय है, इसके लिए कोई विधि नहीं बन सकती।’
जीसस ने प्रार्थना की—और तुम क्या कर सकते हो? यदि वे कुछ
अधिक सजग रहे होते, वे जीसस के पास ही बैठ गए होते। उनके
हाथों को पकड़ लिया होता, उनके वस्त्रों को छू लिया
होता...उनके सम्पर्क बनाने के लिए उनके हृदय में डूब गए होते। सब उनमें बह गए
होते। तब शायद वहां कोई घटना घट सकती थी।
मैं तुम्हें प्रार्थना सिखा नहीं सकता, पर मैं
प्रार्थना हूं। और प्रार्थना के लिए मुझे अपने घुटनों पर गिरने की आवश्यकता नहीं—मैं
प्रार्थना में ही हूं। तुम बस मेरे अस्तित्व को अंतग्रर्हण को विलय हो जाने दो।
मुझे ग्रहण कर लो, मुझमें बह रहे उन रस धार को पी लो,
मुझे अपने में कुछ बहने दो, खोल दो अपने हृदय
के पाट। और सच यही तुम्हें सिखाएगी की प्रार्थना क्या है? प्रत्येक
सुबह मैं तुम्हें सिखा रहा हूं कि प्रार्थना क्या है? मैं
प्रार्थना में हूं शायद ऐसा कहना भी कुछ गलत होगा मैं खुद में एक प्रार्थना
हूं...ये शायद उसके ज्यादा नजदीक है। खोले अपने वातायान, गुजरने
दो वहां पर थोड़ी सी मधुर सुवास, यह एक संक्रमणता है—यह एक
रोग है जो फैलता है, आप पल भर के लिए मेरे संग-साथ हो लो। और
सच में रोज मैं यही तो चाहता हूं।
मैं तुम्हें यह तो नहीं सिखा सकता कि प्रार्थना कैसे
की जाए पर मैं तुम्हें प्रार्थनापूर्ण होना जरूर सिखा सकता हूं। मेरी उपस्थिति के
साथ और अधिक लय में हो जाओ।
और इन प्रश्नों को अपने मन में मत रखो क्योंकि ये ही
बाधाएं बन जाऐंगी। बस मेध बन जाओ, मेध होते ही यह घटना घट जाएगी। एक दिन अचानक तुम
पाओगे कि हृदय गीत गा रहा है, और कोई चीज तुम्हारे भीतर
अचानक नाच रही है। कोई उर्जा तुम्हें घेरे हुए है, एक नई
उर्जा तुम्हारें अंदर के अंधकार को छंदविछिन्न कर जाऐगी। वह प्रवेश के इंतजार में
खडी है कब खुले वातायान ओर प्रवेश करूं। खोल दो अपने हृदय के द्वार और बह जाने दो
परमात्मा को अपने अंतस में। कर लेने दो अस्तित्व को अपने अंदर प्रवेश।
सच में यहीं तो प्रार्थना है। तुम इसे कर नहीं सकते—तुम
बस इसे होने दो। ध्यान किया जा सकता है, प्रार्थना की नहीं जा सकती। उस ढंग
से तो ध्यान कुछ अधिक विज्ञानिक है। इसे सिखाया जा सकता है। लेकिन प्रार्थना?
प्रार्थना तो पूरी तरह से अवैज्ञानिक है; यह
तो हृदय का मामला है।
मुझे महसूस करो और तुम प्रार्थना को महसूस करोगे।
मुझे स्पर्श करो और तुम प्रार्थना को स्पर्श कर लोगे, मुझे सुनों
और तुम उन शब्दों को छू रहे होते हो जो प्रार्थना से भरपूर हैं।
और फिर, कभी-कभी मौन बैठे-बैठे, एक वार्तालाप चलने दो एक वार्तालाप अस्तित्व के साथ। तुम अस्तित्व को
ईश्वर या पिता या माता कह सकते हो...हर नाम सही है। पर किसी कर्म-कांड को मत
दोहराओं। न ईसाइयों की प्रार्थना, न हिन्दु, न मुस्लमान, न बोद्ध, न ही
किसी मंत्र का उच्चारण करो। कोई भी नहीं चाहे तिब्बती हो या चीनी, या भारतिय, या जेनी, सब मंत्र
अवरोध है, अंतस तक डूबने में। इसे दोहराओं मत। अपने मंत्र
निर्मित करो: तोता मत बनो। क्या तुम ईश्वर से कोई अपनी ही हृदय की बात नहीं कह
सकते हो, केवल होने की इसका अभ्यास मत करो। इसके लिए कोई
तैयारी मत करो। क्या तुम उसी तरह से सीधे ईश्वर का सामना नहीं कर सकते हो जैसे की
एक बच्चा अपने माता-पिता के सामने जाता है? उनकी गोद में छुप
जाता है, मां के आंचल को आढ़ लेता है। उसके पास कोई शब्द
नहीं होते, परंतु वह होता है, और मां
उसे अपने में समेट लेती है। क्या तुम जब कुछ कह रहे होते हो...नहीं वहां शब्दों की
जरूरत नहीं होती, तुम केवल हृदय से वहां जाओ तब देखों
परमात्मा कैसे तुम्हें अपने में समेट लेता है।
प्रार्थना को घटने दो! इसके लिए तैयारी मत करो,
एक तैयार की हुई प्रार्थना है। और एक दोहराई गई प्रार्थना तो बस एक
यंत्रिक होती है। तुम ईसाई प्राथना को दोहरा सकते हो—तुम इसे रट सकते हो। बस वहां
कुछ भी नहीं होगा एक मद होगा, एक नींद होगी तुम कुछ क्षण के
लिए उसमें गिर सकते हो। और कुछ भी नहीं...। यह तुम्हें जागरूक नहीं बना सकती।
क्योंकि इसे प्रतिकर्म के रूप में किया जा रहा होता है। वहां पर क्रिया का होना ही
उसकी मृत्यु है, उस संवेदना का ह्रास है।
मैंने एक महान गणितज्ञ के विषय में सुना है जो हर रात
केवल एक शब्द की प्रार्थना किया करता था। वह आकाश की और देखता और कहता ‘वही’
(डिट्टो) जो कल भी कि थी, उसी को रोज क्या
दोहरना? इतना बुद्धिमान परमात्मा को होना ही
चाहिए। परंतु नहीं हम दोहराए ही जाते है रोज-रोज वहीं प्रार्थना। और गर्व से फूले
नहीं समाते...क्यों नहीं कह देना चाहिए फिर से ‘डिटो’ क्योंकि
शायद परमात्मा एक ही प्रार्थना को रोज-रोज सून कर परेशान जरूर हो गया होगा। उसे भी
तो कुछ विश्राम चाहिए। यदि तुम्हें कुछ नहीं कहना तो बस इतना ही कहो, ‘आज मेरे
पास कहने को लिए कुछ भी शब्द नहीं है? मैं खाली आपके द्वार आया हूं। शायद ये कहीं
बेहतर तरिका है प्रार्थना का?’
या बस मौन रहो...कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है? परंतु सच्चे तो
रहो—कम से कम अपने व समस्त के बीच में तो सत्य को ही रहने दो। यही तो प्रार्थना
है। अपने हृदय को खोल दो।
मैंने सुना है: मोजेज़ एक जंगल से गुजर रहे थे और
उन्हें एक आदमी मिला,
एक गड़रियां, एक गरीब आदमी, एक गंदा निर्धन आदमी जिसके कपड़े चीथड़े हो गए थे। और वह प्रार्थना कर रहा
था, यह प्रार्थना का समय था और वह प्रार्थना कर रहा था।
मोजेज़ उसके पीछे उत्सुकतावश खड़ा हो गया। और उसकी प्रार्थना को सुनने लगा। उसे तो
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इस तरह की भी प्रार्थना कोई कर सकता है। वह गरीब
गड़रिया कह रहा था: ‘परमात्मा, जब मैं
मरूं, मुण्े अपने स्वर्ग में आने देना—मैं तेरी देखभाग
करूंगा, यदि तेरे शरीर में जूएं पड़ गई होंगी तो उन्हें मे
बहुत ही जतन से निकालुंगा, देखो यह तो मेरा अनुभव है,
मैं तुम्हे मल-मल कर नेहला दूंगा। जिस तरह से मैं अपनी भेड़ो को
नहलाता हूं, उनकी जूंए निकलता हूं। वह कितनी प्रसन्न हो जाती
है, नहाने पर, मैं तेरे लिए गर्म दुध
करूंगा...मेरी भेड़ो का दुध बहुत ही मीठा और सुस्वादिष्ठ है। और मुझे मालिस भी
बहुत ही अच्छी आती है, जब तुम थक जाएगा तो तेरे, शरीर की मालिस करूंगा, तेरे पैरो को गर्म, पानी से धौकर उन्हें तेल की मालिस करूंगा ताकि तेरी इतनी भागदौड़ के कराण
थकावट कम हो जाए। जब तु थक कर अपने बिस्तरे पर लेट जाऐगा तो तेरे पैर भी दबा
दूंगा।’
अब तो हद हो गई मोजे़ज़ से रहा न गया, तु परमात्मा
की जूंए निकलेगा....क्या बकवास करे जा रहा है, और मोजे़ज़ ने
उस आदमी को जोर से हिलाया और कहा, ‘तु ये क्या बकवास किए जा
रहा है, भला ये भी कोई प्रार्थना है? किस तरह की ये बकवास
है, परमात्मा और गंदा, उसे जूंए...कुछ अजीब सी बात है
तेरा दिमाग तो ठीक है?’
उस गरीब व्यक्ति को बाघा पड़ी। उसने कहा, ‘जब उसने
आंखें खोल कर देखा एक, महापुर्ष उसके सामने खड़ा है, उसे कुछ झेप भी आई, और उनके चरणों मैं गिर कर माफी
मांगते हुए उसने कहां की मैने कभी उसे देखा तो नहीं है, इसलिए
मुझ से कुछ गलत हो गया तो मुझे माफ कर दो।’
मोजे़ज़ ने कहा, ‘रूक जा! फिर
से इस तरह की प्रार्थना कभी मत करना। यह तो प्रार्थना न होकर पाप हो रहा था। तू तो
अपने लिए खुद एक नर्क निर्मित कर रहा था। अच्छा हुआ की मैं यहां से गुजर रहा था।
अब इस तरह की प्रार्थना भुल कर भी मत करना।’
वह गरीब आदमी तो डर के मारे थर-थर कांपने लगा। उसे तो
पसीना आ गया। तब उसने कहा: ‘पर मैं तो अपनी सारी जिंदगी इसी तरह की प्रार्थना
करता रहा हूं, अब क्या होगा मेरा? मुझसे अंजाने में
बहुत भूल हो गई,
मेरे मन में जो आता था वहीं में कहता था, परंतु
मेरा भाव व प्रेम परमात्मा की तरफ सच्चा था मैं उनकी सेवा करना चाहता था। आप मुझ
कृपा सही प्रार्थना सिखा दिजिए।’
मोजे़ज़ को लगा कि आज उसने एक नेक कार्य किया है, एक भटके हुए
को सही मार्ग बता दिया है। और वह उसे सही ढंग की प्रार्थना सिखाने लगा। बचारो
गडरियां इतनी बड़ी प्राथना को नहीं समझ पाता। और उदास हो जाता है। और इसके बाद
मोजे़ज़ आगे बढ़ जाता है, वह चार कदम भी नहीं चला होता कि
उनके सामने परमात्मा की उपस्थिती महसूस होती है मानों कोई उन्हें कहा रहा है,
एक आवाज जंगल में गूंज उठती है, ‘हे मोजे़ज़,
सुन मैंने तुझे इस संसार में इस लिए भेजा है कि तु मेरे लोगों को
मुझ से मिलाए, मेरे पास लाए। और तु ये क्या कर रहा है? तु तो मेरे लोगों को
मुझ से दूर कर रहा है। उन्हें भटका रहा है। वह मेरा कितना प्यारा था, उसका हृदय
कितना कोमल और र्निकलुष था। उसकी प्रार्थना कितना सच्ची और प्रेम से भरी थी। मेरी
सर्वश्रेष्ठ प्रार्थनाओं में एक थी। उसमें कोई दिखावा या छलावा नहीं था, न ही वह निर्मित थी। एक ह्रदय की आवाज थी जो मुझ तक बह रही थी। और तुने तो
उसका दिल ही तोड़ दिया। तू जा और उससे अभी माफी मांग, और जो
तुने उसे अपनी प्रार्थना सिखाई है उसे वापस ले, अपने उन थोथे
शब्दों को उन मुर्दा शब्दों को वापस ले ले।’
मोजे़ज जाते है उस गड़रिए के पास और उनके पैरों में
गिर कर माफी मांगते है,
कहते है, ‘मुझे माफ कर दो, मैं गलता था और आप सही थे। परमात्मा तुम्हारी बात सून रहा था। मेरी ही
प्रार्थना वापस लोटाई जा रही थी।’
ठीक ऐसा ही होना भी चाहिए। अपनी प्रार्थना को उगने
दो। इसे घटने दो। हां,
जब कभी भी तुम परमात्मा से कुछ गपशप करने जैसा महसूस कर रहे हो,
उन क्षणों की प्रतीक्षा करो। और इस हर रोज दोहराने की कोई भी जरूरत
नहीं है। ऐसी भी कोई प्रार्थना की आवश्यकता नहीं है, जो
बनी-बनाई हो। जब तुम्होरे अंदर से कोई भाव उठे, कोई तरंग उठे,
हृदय अल्हादित हो रहा हो, प्रेम का सागर मचल
रहा हो, तब आप उसके संग साथ हो सकते हो। वहीं है प्रार्थना
सच्ची। बाकी तो सब कर्म-कांड ही है।
कभी-कभी स्नान करते समय, फैवारे के
नीचे बैठे-बैठे, अचानक प्रार्थना करने की एक उत्कण्ठा उठ
खड़ी हो तो वह क्षण अति महत्वपूर्ण है उसे मत जाने दो और डूब जाओं उस क्षण में।
उतर जाओं उस प्रार्थना में। अब यही जगह है, सही समय है प्रार्थना
का उसे मंदिर तक ले जाकर खंडित मत करो। किसी वृक्ष के नजदीक घट रही है तो वहीं बैठ
जाओ। जिस क्षण में कोई उत्कण्ठा उठ खडी हुई है, वहीं तो घट गई प्रार्थना। और तुम यह
देख कर हैरान होगे कि वह कितनी सुंदर है। जब वह हृदय की गहराईयों से उठ कर बहती
है। सच में वही सूनी भी जाती है। और उसका जवाब भी आता है।
कभी अपनी स्त्री को प्रेम के क्षण में जब एक दूसरे का
हाथ थामें हो, अचानक प्रार्थना करने की एक लालसा उठती हैं—उसी क्षण प्रार्थना में उतर
जाना। फिर उस से बेहतर प्रार्थना का क्षण तुम्हें नहीं मिलेगा। वो समय प्रेम का
परम सुख होता है जब अपनी प्रिय के संग-साथ उस समय परमात्मा हमारे बहुत ही नजदीक
होता है। नजदीक भी नहीं कहना चाहिए हम उससे लवरेज होते है, हम
उसमें डूबे ही हुए होते है। वह हम पर उस समय बरस रहा होता है। जब चरम सुख तुम पर
बरसे, उस समय प्रार्थना में डूबों। पर रूकों—इसे एक
कर्मकांड़ न बनाओं। यही तो तंत्र की दृष्टि है। चीजों को स्वस्फूर्त होने दो।
और आखिरी बात तुम कहते हो: ‘मेरा
तात्पर्य है प्रार्थना ईश्वर के प्रेम को प्रात्त करने के लिए, उसके प्रसाद को अनुभव करने लिए।’
फिर तुम्हारा प्रश्न गलत है: ‘मेरा
तात्पर्य है प्रार्थना ईश्वर के प्रेम को प्राप्त करने के लिए।’ तुम लालची हो! प्रार्थना तो प्रभु को प्रेम करने के
लिए होती है। हां, प्रेम प्रभु से हजार गुना होकर आता है,
पर आकांक्षा वह नहीं है, वह तो बस उसका
निष्कर्ष है; उकसा परिणाम नहीं, निष्पति
है। हां, प्रेम आएगा एक बाढ़ की तरह, तुम
परमात्मा की और एक कदम उठाते हो और परमात्मा तुम्हारी तरफ हजार कदम उठता है। तुम
उसे प्रेम की एक बूंद देते हो वह हजार बूंदों में लोटा देता है। वह आप पर बरस उठता
है, एक सागर की तरह उपलब्ध हो जाता है। हां, यह होता है, पर यह तुम्हारी आकांक्षा नहीं होनी
चाहिए। यह आकांक्षा गलत है। यदि तुम बस परमात्मा का प्रेम चाहते हो और इसलिए तुम
प्रार्थना कर रहे होते हो। तब तुम्हारी प्रार्थना एक सौदा है। तब यह एक व्यापार
है। और व्यापार से सावधान रहना।
अमरीका में कहीं किसी छोटे से स्कूल में अध्यापिका
बच्चों से पूछती है: ‘मनुष्य के इतिहास में महानतम व्यक्ति कौन हुआ है?’ निश्चय
ही, एक अमरीकन कहता है, ‘अब्राहम लिंकन’
एक भारतिय कहता हे, ‘महात्मा गांधी’ और एक अंग्रेज बालक कहता है, ‘विंसटन चर्चिल’
और इसी तरह से दूसरे बच्चे भी कहते है। और तब एक छोटा सा यहूदी बालक
खड़ा होता है और कहता है, ‘जीसस’ और वह
जीतता है, पुरस्कार उसी को मिलता है। लेकिन अध्यापिका उससे
पूछती है, पुरस्कार उसी को मिलता है। लेकिन अध्यापिका उससे
पूछती है, ‘तुम तो यहूदी हो, तुमने
जीसस क्यों कहा?’
उस बालक ने कहा: ‘अपने ह्रदय में तो मैं सारे समय जानता
ही हूं कि यह मोजेज है, पर व्यापार अखिरकार व्यापार ही है।’
प्रार्थना को व्यापार मत बनाओ। इसे शुद्ध आहुति ही
रहने दो; बस अपने हृदय से ही अर्पण करो बदले में कोई चीज मत मांगो। तब बहुत कुछ आता
है...हजार गुणा, लाख गुणा...परमात्मा तुम्हारी और बहता है।
पर, पुन:, समरण रखना कि यह एक परिणति
है। परिणाम नहीं।
तीसरा प्रश्न: आपने जुंग का विचार, कि पुरूषों
को दो तरह की स्त्रियां चहिए का वर्णन किया। एतिहासिक रूप से बहुत से पुरूष ऐसा ही
महसूस करते जान पड़ते है। जबकि बहुत कम स्त्रियों को एक बार में एक से अधिक पुरूष
की आवश्यकता जान पड़ती है। क्या पुरूष के मनोविज्ञान में ही इस विचार जैसा कुछ है?
यदि हां, तो क्यों?
प्रश्न आनंद प्रेम का है। पहली बात, वह कहती है,
‘एतिहासिक रूप से बहुत से पुरूष ऐसा ही महसूस करते जान पड़ते है...।’
इतिहास मात्र बकवास है। और इतिहास रचा ही पुरूषों द्वारा जाता है।
किसी स्त्री ने इतिहास नहीं लिखा है। यह पुरूषोन्मुख है, यह
पुरूष-अधिरोहित है, यह पुरूष-व्यवस्थापित है। यह एक झूटा
इतिहास हे।
पुरूष ने स्त्री को इस ढंग से संस्कारित करने की
चेष्टा की है कि वह सरलता से उसका शोषण कर सके और स्त्री विद्रोह भी न कर सके।
गुलामों को सदा इसी तरह से सम्मोहित करे रखा जाता है कि वे विद्रोह न कर सकें।
पुरूष ने स्त्री के मन को इस तरह से संस्कारित किया है कि वह उसी ढंग से सोचती है
जिस ढंग से पुरूष चाहता है कि वह सोचे।
तुम कहती हो: ‘ऐतिहासिक रूप से, बहुत से पुरूष ऐसा ही महसूस करते जान पड़ते है...।’ क्योंकि
पुरूष अधिक स्वतंत्र हैं। वे मालिक हैं। स्त्रियां गुलामें की भांति जीती आई हैं,
उन्होंने गुलामी को स्वीकार कर लिया है। तुम्हें इस गुलामी को पूरी
तरह से उतार फेंकना है। तुम्हें इससे बाहर निकल आना है।
अभी उस रात मैं पढ़ रहा था कि छठी शताब्दी में सब
महान ईसाई नेताओं का एक बड़ा ईसाई सम्मेलन आयोजित किया गया। और यह निर्णय करने के
लिए कि स्त्रियों में आत्मा होती है या नहीं। सौभाग्य से उन्होंने निर्णय लिया कि
स्त्रियों में आत्मा होती है। लेकिन केवल एक के बहुमत से—बस एक वोट कम हुआ होता तो
ऐतिहासिक रूप से तो तुम्हारे पास कोई आत्मा नहीं होती। यह भी कुछ अधिक नहीं है, यह
आत्मा।
पुरूष ने स्त्रियों के समस्त मनोविज्ञान को कुचल डाला
है। और जो कुछ भी तुम देखती हो वह सच में स्त्रियों का मनोविज्ञान नहीं है—यह
स्त्रियों में पुरूषों द्वारा बनाया गया, पुरूषों द्वारा निर्मित मनाविज्ञान
है। जितनी अधिक स्वतंत्र तुम होओगी, उतना ही तुम भी वैसा ही
(पुरूषों जैसा) महसूस करोगी—क्योंकि सच में तो पुरूष और स्त्री उतने भिन्न नहीं है
जितना भिन्न कि उन्हें सोचा गया है। भिन्न वे हैं। उनकी जैविकी भिन्न है और निश्चय
ही उनका मनोविज्ञान भी भिन्न है—पर वे असमान नहीं हैं। असमानताओं की अपेक्षा उनमें
समानताएं अधिक हैं।
जरा सोचो: एक पुरूष रोज-रोज वही चीज खाते-खाते ऊब
जाता है। और एक स्त्री?
वह इससे ऊबेगी, अथवा नहीं। वह भी ऊब जाएगी।
दोनों के बीच अंतर क्या है? ऊब जाना स्त्री के लिए भी उतना
ही स्वाभाविक है जितना कि पुरूष के लिए। और जब तक कि काम-संबंध एक आध्यात्मिक
संबंध में विकसित न हो जाए ऊब रहेगी ही।
इस बात को
एकदम स्पष्ट हो जाने दो: एक काम-संबंध स्वयं में चिरस्थायी संबंध नहीं हो सकता
क्योंकि जहां तक काम का संबंध है, यह क्षणिक सुख है। एक बार तुम एक स्त्री से संभोग
कर चुके, तुम्हारा मामला सच में उससे खत्म हो जाता है। तुम
उसमें और उत्सुक नहीं रहते। जब तक कि काम संबंध से अधिक कोई चीज तुम दोनों के बीच
में पैदा न हो, कोई अधिक ऊंची चीज, कोई
आध्यात्मिक संबंध न बने—इसे काम द्वारा बनाया जा सकता है, इसे
बनाया जाना ही चाहिए, वरना काम संबंध मात्र शरीरिक बना रहता
है—यदि कोई आध्यात्मिक चीज, आध्यात्मिक-विवाह जैसे कोई चीज
घटे, तब कोई समस्या न होगी। तब तुम साथ-साथ रह सकते हो। और
तब चाहे तुम पुरूष हो या स्त्री, तुम दूसरी स्त्रियों या
पुरूष के विषय में सोचोगे ही नहीं। बात ही सामप्तहो गई। तुम्हें अपनी आत्मा का
साथी मिल गया।
लेकिन संबंध यदि शारीरिक मात्र है, तब शरीर थक
जाता है, ऊब जाता है। शरीर को आवश्यकता होती है रोमांच की,
शरीर को आवश्यकता होती है नए की, शरीर को
आवश्यकता होती है सनसनी की। शरीर सदा नए की लालसा करता रहता है।
एक ए. टी. एस. ड्राईवर, सेलिसबरी प्लेन की अपनी लम्बी
यात्रा के उपरांत अपने गंतव्य स्थल, एक दूरस्थ शिविर में,
अर्द्धरात्रि को पहुंची। सुरक्षा सार्जेंट ने उसे बताया कि वह अपनी
गाड़ी कहां छोड़ सकती थी और फिर उससे पूछा, ‘आज रात तुम कहां
सोओगी?’
लड़की ने उसे समझाया कि उसकी गाड़ी ही वह एक मात्र
जगह थी जहां कि वह नींद ले सकती थी। यह एक ठंडी रात थी, और सार्जेंट
ने एक क्षण सोचा और फिर कहा, ‘यदि तुम चाहो तो मेरे बंकर में
सो सकती हो—मैं फर्श पर सो जाऊंगा।’
प्रस्ताव स्वन्यवाद स्वीकार कर लिया गया। अंदर आ जाने
के बाद, लड़की को यह सोचकर बड़ा अफसोस हुआ कि बेचारा सार्जेंट बाहर ठंडे, कड़े फर्श पर पड़ा हुआ है। और बाहर की और झुककर, उसने
कहा, ‘यह ठीक नहीं है—क्यों नहीं तुम
यहीं आ जाते और जगह बनाकर यहीं मेरी बगल में सो जाते?’
यह कर चुकने के उपरांत, ‘सार्जेंट’ ने कहा, ठीक है, तो अब कैसे
रहेगा? क्या तुम क्वांरी सोना चाहती हो या विवाहिता? लड़की खिलखिलाई और बोली, ‘मेरे ख्याल में यही अच्छा
रहेगा की हम विवाहित सोए, क्या तुम ऐसा नहीं चाहते हो?’
‘ठीक है, मैं
झमेला करना नहीं चाहता, हम फिर विवाहित ही सोऐंगे, उसने लड़की की तरफ अपनी पीठ करते हुए कहां और सो गया।’
विवाह उबाता हे। यही कारण है कि तुम संसार में चारों
तरफ इतने सारे ऊबे हुए चेहरे देखते हो। विवाह भयानक ऊब है। जब तक कि कुछ
आध्यात्मिक बात इसमें न घटे...जो कि दुर्लभ बात है। इसलिए पुरूष बाहर की और देखने
लगते हैं। स्त्रियां भी बाहर की और देखेंगी पर वे स्वतंत्र नहीं है। यह कारण है कि
इतनी स्त्री-वेश्याएं तो पाते हो पर पुरूष-वेश्याएं नहीं पाते। हां, लंदन में,
वे हैं, मैं सोचता हूं थोड़े से...परंतु पुरूष
वेश्याऐं करीब-करीब न के बराबर हैं। क्यों?
वेश्यावृति विवाह का उप-उत्पाद है, और जब तक कि
विवाह ही अदृश्य न हो जाए, वेश्यावृति रहेगी ही—यह एक
उप-उत्पाद है। यह केवल विवाह के साथ ही जाएगी। अब, तुम्हारे
तथा-कथित महात्मागण वेश्यावृति को तो रोकने की चेष्टा करते रहते हैं और यही वे लोग
हैं जो विवाह को लादते जाते हैं। और वे इस बात की व्यर्थता को नहीं देखते।
वेश्यावृति का अस्तित्व विवाह ही के कारण है। पशुाओं में तो कोई वेश्यावृति नहीं
होती है। क्योंकि वहां विवाह नहीं है। क्या तुमने कभी किसी पशु को वेश्यावृति करते
देखा है? यह समस्या वहां है ही नहीं। वेश्यावृति होती ही
क्यों है?
इस कुरूप चीज का अस्तित्व एक अन्य कुरूप चीज, विवाह के
कारण है। परंतु पुरूष वेश्याओं की संख्या अधिक नहीं है। क्योंकि स्त्रियां
स्वतंत्र नहीं रही हैं। उन्हें पूरी तरह से दबा दिया गया है। उन्हें काम का आनंद भी
लेने नहीं दिया गया है। उनसे यह आनंद लेने की आशा भी नहीं की जा सकती है। केवल
बुरी स्त्रियों से सेक्स का आनंद लेने की आशा की जाती है। भली स्त्रियों से नहीं;
महिलएं नहीं, केवल स्त्रियां। महिलाओं से कोई
आनंद उठाने की आशा नहीं की जाती—वे तो कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
यह सच्चा इतिहास नहीं है। यह प्रबंधित इतिहास है, यह
व्यवस्थापित इतिहास है। और यदि हजारों वर्षों तक तुम किसी विचार को आरोपित किए चले
जाओ, यह करीब-करीब वास्तविक हो जाता है। यह सच्चा मनोविज्ञान
नहीं है। सच्चे मनोविज्ञान को जानने के लिए तुम्हें स्त्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता
देनी ही होगी—और तब तुम देखोगे। और तुम हैरान हो जाओगे: वे पुरूषों से कही आगे रहेंगी।
तुम उन्हें देख सकते हो: पुरूष सदैव करीब-करीब वही
सलेटी पोशाक पहने चला जाता है—स्त्रियां? हर रोज उन्हें एक नई साड़ी चाहिए।
मैं उनके मन का निरीक्षण करता हूं। यदि उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता दे दी जाए,
वे पुरूषों से बहुत आगे निकल जाएगी। पुरूष वैसे का वैसा रह सकता है,
तुम देख सकते हो, उनके वस्त्र बहुत रंगीन नहीं
होते। और जहां तक पुरूष का संबंध है, फैशन जैसी कोई चीज उसके
लिए होती ही नहीं। कैसा फैशन? वही की वही सलेटी पैंट रोज,
औपचारिक सूट, वही टाई, और
दूसरी और स्त्रियों के कपड़ो की अलमारी भरी होती है, पुरूष
के पास कोई खास कपड़े वही गिने चुने। परंतु स्त्रियां को देखो? सारा बाजार उन्हीं की जरूरत के लिए सज़ा है। वहीं तो असली उपभोक्ता है।
पुरूष तो उत्पादक है, स्त्रियां उपभोक्ता है। बाजार
में नब्बे प्रतिशत चीजें स्त्रियों के लिए बनी होती है। क्यों? उन्हें नई चीजें पुरूष से अधिक चाहिए। क्योंकि उसकी कामुकता को दबा दिया
गया है। यह एक परावर्तन है, उनकी ऊर्जा का—चूंकि एक नया पति
तो वे रख नहीं सकतीं। एक नई साड़ी एक परिपूरक है। एक नया घर एक परिपूरक है। वे
अपनी ऊर्जा कहीं और लगा देती है...पर सच्चाई यह नहीं है। स्त्रियों को इतना भ्रष्ट
और इतना नष्ट किया गया है कि यह निर्णय करना अत्यंत कठिन है कि उनका सच्चा
मनोविज्ञान क्या है। इतिहास की मत सुनो: इतिहास तो एक कुरूप लेखा-जोखा है। यह
लेखा-जोखा एक लम्बी गुलामी है। कम से कम स्त्रियों को तो इतिहास की नहीं ही सुननी
चाहिए; उन्हें इतिहास की सब किताबे जला देनी चहिए। उन्हें तो
कहना चाहिए कि इतिहास को फिर से लिखा जाए।
तुम यह जान कर हैरान होओगे कि जब तुम एक विचार-विशेष
को आरोपित करते हो,
तो मन भी उसी के ढंग से कार्य करना प्रारंभ कर देता है। मन भी
विचारों की नकल करने लग जाता है। यह एक लम्बा सम्मोहन है, जिसमें
स्त्रियां आज तक उलझी हुई है।
लेकिन मैं यह
नहीं कह रहा हूं कि समाज को ठीक पशुओं जैसा होना चाहिए। मैं तो कह रहा हूं कि काम
को एक छलांग-लगाने वाले तख्ते की भांति होना चाहिए। यदि तुम्हारा संबंध बस काम
द्वारा ही परिभाषित होता है और इसमे और अधिक कुछ न हो, तब विवाह
वेश्यावृति को निर्मित करेगा। पर यदि विवाह तुम्हारे शरीर से गहरा तब इसकी कोई
आवश्यकता न होगी।
प्रत्येक अकेला इंसान, पुरूष या स्त्री, इतना अनंत अवकाश है...तुम जांच-पड़ताल किए जा सकते हो, तुम खोज-बीन करते चले जा सकते हो। इसका कोई अंत नहीं है। हर इंसान,
स्त्री हो या पुरूष, इतना जीवंत है, और इतना नया है—नए पत्ते आते ही रहते है। नए फूल आते ही रहते है। नई
जलवायु, नए मनोभाव—यदि तुम प्रेम करते हो, यदि तुम सच में ही घनिष्ट हो, तुम्हें कभी नहीं
लगेगा कि यह वही पुरानी स्त्री है जो तुम्हारे साथ है, कि यह
वही पुराना पुरूष है जो सालों से तुम्हारे साथ है। जीवन इतना महान गत्यात्मकता है।
पर प्रेम तो तुम करते नहीं! तुम तो शरीर
पर ही अटके रहते हो। भीतर तो तुम देखते ही नहीं। आंतरिक आकाश को तो तुम देखते ही
नहीं जो कि निरंतर परिवर्तित होता आ रहा है। ....और क्या परिवर्तन तुम्हें चाहिए?
पर उस और तो तुम देखते ही नहीं। निश्चय ही, शरीर
तो वहीं है। फिर यह उद्दीपन खो देता है। जब उद्दीपन खो जाता है, तुम्हारा जीवन ऊबपूर्ण होने लग जाता है। तुम फिर से सहायता खोजने लग जाते
हो क्योंकि तुम पगला रहे होते हो। तुम मनोविश्लेषक के पास जाते हो, तुम सहायता मांगते हो। कुछ बात बड़-बड़ हो रही है। तुम जीवन का आनंद नहीं
ले पाते हो, वहां अब कोई उल्लास नहीं हाता। तुम आत्महत्या
करने की सोचने लगते हो।
यदि तुम उद्दीपन के साथ चलते हो, तब तुम
अपराधी बन जाते हो। यदि तुम समाज के साथ ठहरते हो, वैधानिक
संस्थापन सामाजिक व्यवस्था के साथ ठहरते हो, तब तुम ऊब जाते
हो। यह एक बड़ा ही धर्म-संकट है: तुम्हें कहीं गति करने की अनुमति नहीं दी जाती।
इन दो सींगों के बीच तुम कुच्ल डाले जाते हो, मार डाले जाते
हो या तो सामाजिक व्यवस्था के साथ रहो, तब तुम एक उबाऊ जीवन
जीते चले जाते हो। या समाज विरोधी हो जाओ, पर तब तुम अपराधी
जैसे दिखते हो, तब तुम अपराध-भाव अनुभव करना शुरू कर देते
हो।
स्त्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता तक आना ही होगा। और
स्त्रियों की स्वतंत्रता के साथ पुरूष भी स्वतंत्र होंगे—क्योंकि सच में तुम
स्वतंत्र नहीं रह सकते यदि तुम किसी को गुलाम बनाए हुए होते हो। मालिक तो गुलाम का
भी गुलाम होता है। पुरूष सच में स्वंत्रत है नहीं क्योंकि वह हो सकता है: आधी
मनुष्यता गुलाम बनी रहने पर विवश हैं—कैसे पुरूष स्वतंत्र हो सकता है? उसकी
स्वतंत्रता बस यूं-ही है, बस ऊपरी दिखाई देती है। स्त्री की
स्वतंत्रता के साथ-साथ पुरूष भी स्वतंत्र हो जाएगा।
और स्वतंत्रता के साथ संभावना हैएक गहन संबंध में
प्रवेश करने की—और यदि यह घटना न भी घटे, तब ऊबे हुए रहने की कोई आवश्यकता
नहीं है। तब एक दूसरे सक बंधे रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।
एक आदमी जो कुछ समय से अस्वास्थ अनुभव कर रहा था अपने
डॉक्टर के पास गया और जांच के लिए कहा। डॉक्टर न उसकी जांच की और कहा, ‘या तो तुम
धूम्रपान, शराब और सेक्स से बाज आओ या बारह महीने के भीतर ही
तुम मर जाओगे।’
कुछ समय बाद वह आदमी वापस डॉक्टर के पास गया और उसने
कहा, ‘देखो, मैं इतना दुखी महसूस कर रहा हूं कि इससे तो
बेहतर है कि मैं मर ही जाऊं—कृपया, क्या मैं बस जरा सा
धूम्रपान कर सकता हूं?’
‘ठीक है, बस पांच
फिल्टर सिगरेट प्रति दिन,’ डॉक्टर ने कहा।
कुछ सप्ताह बाद वह आदमी फिर से दोबारा वापस आया और
कहा: ‘देखो, मुझे अपने पेग (शराब) की बहुत याद आती है,
कृपया मुझे पीने की कुछ तो इजाजत दें।’
‘ठीक है, बस दो
पेग रोज, और अधिक शरीब नहीं।’
समय गुजतरा गया लेकिन रोगी फिर एक दिन आया और कहने
लगा, उसे देखते ही डॉक्टर ने तपाक से कहां हां, हां मैं
तुम्हारी बात समझ गया, केवल अपनी पत्नी के साथ, और अधिक उत्तेजना नहीं।
जीवन को आवश्यकता होती है उत्तेजना की सनसनाहट की।
यदि तुम इसे आध्यात्मिक उत्तेजना नहीं बना लेते, उसे केवल शरीर की की मांग
बनाए रखते हो, उसे कुछ उंचे उतंग उठने दो उस में गहरा डूबों।
शरीर के अंदर ही वह सागर है, वरना तुम जीवन भर निचले उद्दीपन
में ही जीते रहे जाओगे। जैसे ही आप उच्च उत्तेजना की और हम गति करते है, निचले उद्दीपन स्वत: ही समाप्त हो जाते है। उनकी फिर आवश्यकता ही नहीं
पड़ती। इसे कोई उच्चकोटि का उतंग सन-सनाहट एक उत्तेजना तुम नहीं देते तो वह जीवन
भर निचलीकोटि का उद्दीपन ही बना रहा जाता है।
पुरूष ने स्वयं को खुला रखा है। जुंग चालबाज है, और जुंग जो
कह रहा है वही पुरानी बकवास है। पुरूष ने यह बात सदा ही कहीं है कि एक पुरूष को कम
से कम दो स्त्रियों की आवश्यकता है, तो स्त्रियों को भी दो
पुरूषों की आवश्यकता होगी ही। या तो पिता किस्म की या प्रेमी किसम की।
लेकिन मैं जो कहने की चेष्टा कर रहा हूं वह यह है कि
बीसवी सदी में भी फ्रायड और जुंग जैसे लोग उतने ही उत्कट पुरूषवादी हैं, जितना कि
कोई कभी रहा है—कोई विशेष अंतर नहीं आया है। स्त्रियों को स्वयं अपने विषय में
सोचना है, पुरूष अधिक सहायक नहीं हो सकते। उन्हें अपनी स्वयं
की समझ तक पहुंचना है—और अब यह अवसर है कि वे अपनी समझ तक पहुंच सकें।
लेकिन आनंद प्रेम का प्रश्न मूलत: स्त्रियों के बारे
में नहीं है, यह उनके मन के विषय मे है। वह अनुरक्त किस्म है, और
यह अनुरक्तता भी ऐतिहासिक संस्कारिता के कारण ही है। स्त्री अधिक अनुरक्त होती है,
क्योंकि वह भयभीत रहती है, असुरक्षा से,
सुरक्षा के विषय में, धन के विषय में, इस विषय में, उस विषय में। वह इतनी भयभीत रहती है।
उसे भयभीत किया जाता है। यह पुरूष की तरकीब है, स्त्री को
भयभीत कर देना। जब स्त्री भयभीत होती है उस पर आसानी से अधिकशासन किया जा सकता है,
उस पर अपना अधिकार जमाया जा सकता है। तुम किसी ऐेसे व्यक्ति पर
अधिकार नहीं कर सकते जो भयभीत नहीं हो। इसलिए भय निर्मित किया जाता है। अधिकार
करने के लिए।
पहले तो पुरूष स्त्रियों में उनके कौमार्य के प्रति
भय निर्मित करता है—वह बड़ा भारी डर पैदा कर देता है कि कौमार्य कोई बहुत बड़ी
बहुमूल्य बात है। सदियों-सदियों से उसने यह भय निर्मित कर रखा है, इसलिए हर
लड़की भयभीत हैं, यदि उसका कौमार्य खो गया, सब कुछ खो जाएगा। इस भय के कारण वह लोगों से संबंधित नहीं हो सकती,
वह मित्र नहीं बना सकती, वह स्वतंत्रता में
गति नहीं कर सकती। इससे पहले कि वह निर्णय ले कि किस को चुना जाए, वह थोडे से अनुभव नहीं ले सकती। वह भय...उसे कुमारी रहना सिखा देता है।
इस अंतर को देखो: वे तो कहते हैं, ‘लड़के तो
लड़के हैं।’ और क्या लड़कियां-लड़कियां नही है? लड़कियां भी लड़किया है! लड़के ही लड़के क्यों हैं?
क्योंकि लड़को से कौमार्य नहीं मांगा जाता। उन्हें स्वतंत्रता दी
जाती है।
कौमार्य के द्वारा एक बड़ा संस्कार डाल दिया जाता है।
और एक बार स्त्री अपना कौमार्य खोने के प्रति बहुत भयभीत हो जाए...सोचो, बीस बर्ष की
आयु तक, बीस वर्ष तक तो वह अपना कौमार्य बचाती आई है। बीस
वर्ष के उस दबाव के कारण उस मानसिकता के कारण, उस संसकार के
कारण। वह एक बुझ जाती है, ठींडी होत जाती है। वह बुझ जायेगी।
फिर शायद वह कभी सेक्स का आनंद नहीं उठा पायेगी। तब प्रेम उससे कभी प्रभावित नहीं
हो पायेगा। वह कभी परंम आनंद के सुख को प्राप्त नहीं कर पायेगी। सब मर जाएगा। वह
जान ही नहीं पायेगी की परम आनंद भी कुछ होता है। वह बस एक यंत्र बन जायेगी,
बच्चे पैदा करेगी, कष्ट झेलेगी। वे केवल पुरूष
के लिए एक साधन बन कर रह जाऐगी। यह बड़ा पदावनतन है।
लेकिन यदि कौमार्य बहुत महत्वपूर्ण हो, और बीस वर्ष
का संस्कार हो कि लड़की को क्वारी रहना है। और सदा रक्षा के लिए तत्पर रहना है,
तो उस आदम को छोड़ पाना बहुत कठिन होगा। कैसे तुम बीस वर्ष के
संस्कार के पश्चात, अचानक इसे छोड़ सकती हो? बए एक दिन हनीमून आता है और तुम्हें इसे छोड़ना होता है—कैसे तुम इसे छोड़
सकती हो? तुम दिखाव मात्र कर सकती हो। परंतु भीतर कहीं गहरे
में तुम अपने पति को एक अपराधी, एक जानवर, एक कुरूप व्यक्ति हमझती हो क्योंकि वह कुछ ऐसा काम कर रहा है। जिसे तुम
पाप समझती हो। वह शादी के नाम से भला पवित्र कैसे हो सकता है। किसी और पुरूष को
तुमने वह काम करने से रोका, समाज ने तुम्हें बंधान डाले।
प्रेम तो पाप है, और यह आदमी आज वही काम कर रहा है।
कोई भी पत्नी अपने पति को क्षमा करने में समर्थ नहीं
हो पाती। सच तो यह है कि,
विशेष रूप से भारत में, कोई पत्नी अपने पति का
सम्मान नहीं करती, कर सकती ही नहीं। सम्मान प्रदर्शित वह
जरूर करती है। पर सम्मान कर वह नहीं सकती—भीतर गहरे में तो वह इस पुरूष से नफरता
करती है क्योंकि यही तो वह आदमी है जो उसे पाप में घसीट रहा है। कैसे फिर कोई पति
का सम्मान कर सकता है। यदि वह उसे पाप में ले जा रहा हो, वह
तो पापी है। उसके बिना तुम कंवारी थी; उसके साथ तुम्हारा पतन
हो गया है। इसीलिए तो समाज इतना अधिक सिखाता है: पति का सम्मान करो! क्योंकि समाज जानता है कि प्राकृतिक रूप से तो स्त्री उसका सम्मान करपाएगी
नहीं, इस लिए सम्मान को लादना पड़ता है...पति का सम्मान करो
क्योंकि चीजें यदि स्वाभाविक ढंग से ही हो, तब तो वह इस आदमी
से नफरत करेगी। यही तो वह आदमी है जो उसके लिए नर्क तैयार कर रहा है।
और इसी पाप से फिर बच्चे पैदा हो जाते हैं—कैसे तुम
अपने बच्चों को प्रेम कर सकती हो? पाप से पैदा हुए बच्चे,
गहन अचेतन में तो तुम इनसे भी नफरत करोगी ही। बच्चों की उपस्थिति
मात्र तुम्हें बार-बार उस पाप की याद दिलाएगी मात्र जो तुमने इन्हें पैदा करने के
लिए किया था।
इस मूर्खता के कारण सारे समाज ने दुःख उठाये हैं।
प्रेम पुण्य है,
पाप नहीं। और अधिक प्रेम के लिए समर्थ हो पाना अधिक पुण्यात्मा होना
है। प्रेम का आनंद उठाने में सक्षम हो पाना एक धार्मिक व्यक्ति का मूलभूत गुण है—ये
मेरी परिभाषाएं हैं।
आनंद प्रेम बड़ी अनुरक्तिपूर्ण है—और वह सोचती है कि
जो कुछ भी उसके विषय में सच है वही सभी स्त्रियों के विषय में सच है? एक तरह से
वह सही भी है, क्योंकि बाकी सब स्त्रियां भी इसी ढंग से
संस्कारित की गई है। पर यह बात सत्य है नहीं। न दूसरी स्त्रियों के विषय में न
तुम्हारे विषय में, आनंद प्रेम, यह बात
सत्य है नहीं।
व्यक्ति बनने में समर्थ होओ तब तुम्हें स्वतंत्रता का
कुछ स्वाद मिलेगा। एक स्त्री को कभी एक व्यक्ति की भांति सोचा ही नहीं गया है। जब
वह छोटी होती है,
वह एक पुत्री होती है। वह पत्नी होती है। जब थोड़ी सी वृद्धा हो
जाती है, वह मां होती है, थोड़ी सी और
वृद्धा तब वह दादा, नानी होती है—पर स्वयं वहा कहीं भी नहीं
होती। सदा दूसरों से जूड़ी होती है।
वैयक्तिता की आवश्यकता है एक मुलभूत जरूरत के रूप
में। स्त्री-स्त्री है। उसका पुत्री होना गौण है। उसका पत्नी होना गौण है, उसका पत्नी
होना गौण है, उसका मां होना गौण है, स्त्री-स्त्री
है। उसका स्त्रैणपन प्रमुख बात है। और जब स्त्रियां व्यक्ति होना प्रारंभ कर देंगी,
वह एक बिलकुल भिन्न ही संसार होगा—अधिक सुंदर, अधिक आनंदपूर्ण।
अब तो बस ऊब और ईष्या है, और कुछ भी
नहीं। तुम स्त्री से ऊबे हुए हो, स्त्री तुमसे ऊबी हुई है।
तुम ईर्ष्यालु हो, वह ईर्ष्यालु है। यह ईर्ष्या ऊब की छाया
की भांति क्यों आती है? ऊब इसे लाती है। बहुत से लोग मेरे
पास आते है और वे चाहते है कि वे ईर्ष्यालु न होंएं, पर वे
समझ नहीं पाते कि ईर्ष्या क्यों आती है, वे इसकी कार्यविधि
को नहीं जानते।
सुनो: जब तुम किसी स्त्री से ऊबते होते हो, भीतर गहरे
में तुम जानते हो कि वह भी तुमसे ऊबी हुई होगी। यह स्वाभाविक है। यदि वह तुमसे ऊबी
हुई है, तब वह भी कहीं किसी अन्य पुरूष को खोज रही होगी—कोई
दूधवाला, डाकिया, ड्राईवर—जो कोई भी
उपलब्ध हो, वह कहीं खोज में लगी होगी। तुम जानते हो जब तुम
ऊबे होते हो, तुम दूसरी स्त्रियों की और देखना शुरू कर देते
हो। इसलिए तुम जानते हो। यह एक स्वाभाविक निष्कर्ष है। ईर्ष्या जगती है। इसलिए तुम
ईर्ष्यालु हो जाते हो—वह भी देख रही होगी। फिर तुम यह देखने के उपाय खोजने लगते हो
कि वह देख रही है अथवा नहीं। और स्वाभाविक है कि वह देखना कैसे बंद कर सकती है?
इतने सारे पुरूष है और तुमसे वह ऊबी हुई है। यह उसकी जिंदगी है,
उसकी सारी जिंदगी दाव पर लगी है।
स्त्री ईर्ष्यालु है; वह जानती है कि पति ऊबा हुआ है।
अब वह उतना प्रफुल्लित नहीं रहता जितना कि वह पहले रहा करता था, अब वह आनंद से दौड़ता हुआ घर नहीं आता। अब वह बस उसे बर्दाश्त करता है। सच
तो यह है कि अब वह उस (स्त्री) की जगह अपने समाचार पत्र में अधिक उत्सुक रहता है।
वह जल्दी से चिड़चिड़ा हो जाता है। छोटी-छोटी बातें और वह बड़ा क्रोधित और रूखा हो
जाता है। वह सारी सौम्यता, वह सारी हनीमून वाली सौम्यता जा
चुकी होती है। वह जानती है कि वह ऊब गया है। अब वह उस में उत्सुक नहीं है।
तब अचानक, निश्चित रूप से वह जान जाती है,
उसकी अन्तर्संवेदना जान लेती है कि वह कहीं और उत्सुकता ले रहा होगा—ईर्ष्या
फिर वह यदि किसी दिन आनंदित होता हुआ घर आता है। वह चिंतित हो जाती है: वह किसी
अन्य स्त्री के साथ रहा होगा वरना वह इतना प्रसन्नचित क्यों दिखाई दे रहा है?
यदि वह कहीं छूट्टी पर जाता है, या कहीं किसी
व्यपार संबंधी यात्रा पर जाता है, वह चिंतित हो जाती है। यदि
वह व्यापार संबंधी यात्राओं पर अधिक जाना प्रारंभ कर दे, यह
बात और भी सुनिश्चित हो जाती है...ईर्ष्या संबंधों में जहर घोल देती है। पर यह ऊब
का ही एक हिस्सा होती है। यदि तुम उस व्यक्ति से ऊबे हुए न होओ, तुम ईर्ष्यालु भी न होओगे। क्योंकि वह ख्याल ही तुम्हारे मन में नहीं
आएगा। सच तो यह है कि यह किसी और की दूसरे में उत्सुकता के कारण नहीं बल्कि यह
तुम्हारी किसी और में उत्सुकता के कारण है कि तुम ईष्यालु होते जा रहे हो, कि तुम्हारे अंदर ईर्ष्या जगती जा रही है।
निश्चय ही, स्त्रियां अधिक ईर्ष्यालु हैं,
क्योंकि वे कम स्वतंत्र होती है। उनकी ऊब अधिक सुस्थपित है। वे
जानती हैं, कि पुरूष बाहर जाता है; उसे
अधिक संभावनाएं हैं, अधिक अवसर हैं। वे घर में पिंजड़े में
बंद रहती हैं, बच्चों के साथ घर में कैद रहती है। उनके लिए
अधिक स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। वे ईर्ष्या अनुभव करती हैं। जितनी अधिक ईर्ष्या वे
अनुभव करती हैं, उतनी ही वे और अधिक अनुरक्त होती है। भय
उत्पन्न होता है। यदि पुरूष उन्हें छोड़ दे, तब क्या होगा।
एक गुलाम अपनी स्वतंत्रता के स्थान पर अपनी सुरक्षा से अधिक आसक्त हो जाता है। एक
गुलाम अपनी मुक्ति से ज्यादा अपनी सलामती से आसक्त हो जाता है। यही तो हुआ है।
इसका स्त्री-मनोविज्ञान से कुछ लेना देना नहीं है। प्रेम! हां,
मैं समझता हूं: यह घटना स्त्री के ही साथ घटी है, यह एक कुरूप घटना है। इसे छोड़ा जाना है। यदि पुरूष और स्त्री थोड़े से भी
अधिक सजग हो जाएं तो भविष्य में ऐसा नहीं होना चाहिए। और दोनों ही नर्क में जी रहे
हैं।
जागीरदार साहब और जागीरदारनी साहिबा कृषि प्रदर्शनी
के प्रमुख संरक्षक थे,
और उद्धाटन समारोह के उपरांत वे कर्तव्यपरायण ढंग से किसानों और
अन्या प्रजा से भेंट करते, प्रदर्शनी में रखी बस्तुओं को
देखते वहां घूम रहे थे।
लेकिन श्रीमंत जी ने बियर तम्बू में इतना समय लगाया
कि जागीरदारनी जी पुरस्कृत सांड को प्रशंसा भरी नजरों से देखने चली गयी। किसी नर
पशु को इतना सुसज्जित उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था।
‘तुम्हारे पास तो बड़ा ही अच्छा जानवर
है, गाइल्स,’ उन्होंने पशुरक्षक से
कहा।
‘जी हां, मालकिन,
वह स्वयं भी योद्धा है और योद्धाओं का पिता भी है।’
‘मुझे इसके बारे में और बताओ।’
‘मालकिन, पिछले
वर्ष उसे वंशवृद्धि के लिए तीन सौ बार पशुजनन केन्द्र पर भेजा गया।’
‘क्या यह सच हैं? अच्छा, जरा जागीरदार साहब के पास चले जाओ और उन्हें
बता दो कि यहां एक ऐसा सांड है जो एक वर्ष में तीस सौ बार पशुजनन केन्द्र पर गया
है। बता दोगे न।’
गाइल्स कर्तव्यतापूर्ण ढंग से जागीरदार साहब के पास
गया और संदेश उन्हें दिया—‘यह तो बड़ी रोचक बात है,’ उसने टिप्पणी की, ‘मेरे ख्याल में उसकी गाय के साथ?’
‘बिलकुल नहीं श्रीमान जी, तीन सो अलग-अलग गायों के साथ।’
‘अच्छा-अच्छा, जाओ
और जागीरदारनी साहिबा को यह बात बता दो, बता दोगे न।’
पशु इतने आनंदित हैं—क्योंकि रहने के लिए उनके पास
कोई संस्थाएं नहीं है। और ध्यान रखना, मैं विवाह के विरोध में नहीं हूं,
मैं तो एक उच्च विवाह के पक्ष में हूं। हां इस तरह के विवाह के मैं
विरोध में जरूर हूं, क्योंकि इस विवाह ने ही तो वेश्यावृति
को निर्मित किया है। मैं उच्च विवाह के पक्ष में हूं।
यदि तुम किसी स्त्री या किसी पुरूष के साथ में
घनिष्टता पा सको,
एक आध्यात्मिक घनिष्टता, तब एक स्वाभविक
संग-साथ निर्मित होगा—इसे बाध्य करने के लिए किसी कानुन की आवश्यकता नहीं होगी। तब
साथ-साथ रहने में एक स्व:स्फूर्त आनंद होगा। जब तक यह बना रहे, शुभ है; जब यह विलीन हो जाए, तब
साथ-साथ रहने का कोई अर्थ नहीं है—कोई भी प्रयोजन नहीं है। तब तुम एक दूसरे को
कुचल रहे होते हो, एक दूसरे को मार डाल रहे होते हो; तब तुम या तो एक स्वयंपीड़क हो या परपीड़क—तुम विक्षिप्त हो।
यदि मेरा विचार किसी दिन प्रचलित हो जाए—जो कि बहुत
कठिन जान पड़ता है क्योंकि मनुष्य मृत भूमिकाओं का इतना आदि हो गया है कि वह यह
भूल ही गया है कि जीवन जिया कैसे जाए—यदि किसी दिन जीवन का वर्चस्व हो जाए और
मनुष्य इतना साहसी हो जाए कि खतरनाक ढंग से जी सके। तब असली विवाह हुआ करेंगे। तब तुम बहुत
से आत्मिक-संगियों को साथ-साथ पाओगे। तब कोई वेश्यावृति न होगी।
निश्चय ही मनुष्य का एक बड़ा भाग अपने संगियों को बदलता रहेगा, पर
इसमें भी कुछ गलत नहीं है। एक मात्र समस्या जो बार-बार पुरूषों और स्त्रियों के मन
में उठती रहती है, वह है: बच्चों का क्या होगा? यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।
मेरी धारणा कम्यून की है, परिवार की नहीं। परिवारों को तो
अदृश्य होना है—कम्यून ही बचने चाहिए।
उदाहरण के लिए यह एक कम्यून है। बच्चे कम्यून के होने
चाहिए और कम्यून को बच्चों की देखभाल करनी चाहिए। मां का तो पता होना चाहिए, मां कौन है,
पर पिता का पता नहीं होना चाहिए—उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। यही तो
मनुष्यता की प्रारंभिक अवस्था थी: मातृप्रधान बाद में समाज, पितृप्रधान
हो गया। बाद में समाज पितृप्रधान होने के कारण महत्वपूर्ण हो गया। और पिता के साथ
ही हजार विकृतियां उस में प्रवेश कर गई। सबसे बड़ी विकृति हुई है निजि संपत्ति,
यह पिता के साथ आई। और समाज तब तक निजी संपति से पीडित रहेगा जब तक
कि पिता अदृश्य न हो जाता।
एक कम्यून—जहां बच्चे कम्यून के हों, जहां कम्यून
बच्चों का पालन-पोषण कर सके। मां उनकी देखभाल तो करेगी पर एक बात पर मां भरोसा कर
सकती है, कि वह एक पुरूष से दूसरे पुरूष के पास जा सकती है—उसमें
कोई समस्या नहीं है। बच्चों की देखभाल होती रहेगी, यदि वह मर
भी जाए, कम्यून तो है।
और जब सम्पति कम्यून की हो, किसी
व्यक्ति की न हो, तब सच्चा कम्यूनिस्म (सम्यवाद) आएगा। अभी
तो सोवियत संध में भी सच्चा साम्यवाद नहीं आया है। पिता के साथ, इसका अस्तित्व हो भी नहीं सकता, यह असंभव बात है।
निजी संपत्ति और परिवार के साथ आणविक परिवार के साथ--पिता,माता, बच्चे-फिर आई निजी संपत्ति। निजि संपत्ति केवल तभी जा सकती है जब यह
आणविक परिवार विलीन हो जाए और एक दम वह वह धारणा एक दम भिन्न है। इस की जगह कम्यून
आ जाएगा। अब यह संभव है। संसार अब चेतना की उस अवस्था तक पहूंच गया है। जहां पर
कम्यून हो सकता है। कौन किसी तरीके से नहीं। ऐसा नहीं कि पहले कम्युनिज्म आ जाए—यह
संभव नहीं है। यदि कम्युनिजम पहले आ जाए यह केवल तानाशाही लाएगा, यह केवल कुरूपता ही देगा समाज को। जैसे की आज सोवियत संध में हो रहा है।
या जैसा की चीन में हो रहा है।
पहले तो, जहां तक सेक्स का संबंध है, कम्यून का जीवन होने दो, तब संपति विलीन हो जाएगी।
संपति काम-संबंधी मालकियत का ही एक अंग है। जब एक स्त्री तुम्हारी होती है,
जब एक पुरूष तुम्हारा होता है, संपत्ति
तुम्हारी होती है—संपत्ति तुम्हारी होगी ही। जब तुम किसी मनुष्य की ही मालकियत
नहीं करते, संपत्ति पे मालकियत करने की चिंता कौन करता है? तब संपत्ति केवल उपयोग करने के लिए ही रह जाती है। उस पर मालकियत करने की
आवश्यकता नहीं होती। और जब मालकियता नह हो तब इसे उपयोग करना अधिक सरल होता है,
जिन लोगों की मालकियत होती है, वे तो उपयोग कर
नहीं पाते—वे सदा भयभीत ही रहते है, वे कंजूस हो जाते हैं।
संपत्ति का उपयोग अधिक स्वतंत्रतापूर्वक किया जा सकता है। जब मालकियत न हो तो।
लेकिन पहले तो परिवार को विलीन होना होगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सारे परिवार
अदृश्य हो जाएंगे। लेकिन यह ठीक ही है, क्योंकि जो भी लोग
पर्याप्त रूप से अध्यात्मिक नहीं है। उन्हें क्यों ऊबते रहने के लिए बाध्य किया
जाना चाहिए। उन्हें क्यों ऐसे सम्बंध में रहने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए जो कि
किसी आनंद की और न ले जाता हो? क्यों? यह
तो अपराध है।
चौथा प्रश्न:
मैं सोचा करता था कि मैं काफी जागरूक हूं, काफी समर्पित हूं। वह
प्रतिरूप अब भी मेरे मन मे कौंध जाता है पर अब सच में मैं इस पर विश्वास नहीं
करता। और इस सब से में कभी-कभी सोच में पड़ जाता हूं, कि
कहीं ऐसा तो नहीं कि जागरूकता और समर्पण की आपकी सारी बातचीज हमें बस पागल बना
देने के लिए हो। जैसे कि गधे के सामने लटकी हुई गाजर और वास्तव में इस सब का कोई
अस्तित्व न हो—और यह बात मुझे एक साथ क्रोधित, मूढ़ और
उदासीन बना जाती है?
गाजर का तो आस्तित्व है...और गधे का नहीं अब यह
तुम्हासरे ऊपर है कि तुम क्या चुनते हो: तुम गधे हो जा सकते हो, तब गाजर
नहीं होती। यदि तुम गाजर की तरफ देखो, तब गाजर तो होती है और
गधा वहां से अदृश्य हो जाता है। सवभावत: यदि तुम सोचो कि गाजर तो है नहीं, तुम क्रोधित, मूढ़ और उदासीन महसूस करोगे ही। तब तुम
गधे हो गये हो। इसलिए गाजर नहीं है यह सब की जगहर तुम अपने भीतर क्यों नहीं
झांकते-क्या तुम हो?
मेरा कुल जोर इतना है: संबोधि है, तुम नहीं हो,
जागयकता ता है—अहंकार नहीं है, यही सब बात पर
मेरा ही नहीं हजारों साल सक सब संत कहते चले आ रहे है। उनका जोर इसी बात पर है।
पर फिर भी, चुनाव तुम्हारा ही है, यह तुम पर निर्भर करता है। यदि तुम दुख को चुनना चाहो तब दुख तो बस अहंकार
को चुनना होगा, फिर तो तुम्हें गधे को चुनना होगा। फिर तो
तुम्हें यही विश्वास किए जाना होगा कि गाजर होती ही नहीं। परंतु सच तो यह है कि यह
होती है। एक बार तुम गाजर को अनुभव करना प्रारंभ कर दो, तुम
देखने लगोगे कि गधा अदृश्य होता जा रहा है। यह तो मात्र एक विचार था।
गाजर के साथ आनंद है। अहंकार के साथ केवल नर्क है। तुम तो कुछ
भी चुनना चाहो, तुम स्वतंत्र हो जिसे चाहे चुन लो।
पांचवा प्रश्न: आपसे मिलने से पहले मैं बहुत दूखी था
और पूर्णत: अ-जागरूक था। अब मैं दुखी हूं थोड़ी सी जागरूकता के साथ। इसमें नया
क्या है?
क्या तुम इसे देख नही सकते हो? यह जो थोड़ी
सी जागरूकता—क्या तुम सोचते हो कि यह मूल्य हीन है? यह तो पहली किरण है...और
सूरज बहुत दूर नहीं है। यदि तुम किरण को पकड़ लो, यदि तुम किरण की दिशा में चल
पड़ो तो। जाहां से किरण आ रही है। तुम प्रकाश के स्त्रोत तक ही पहुंच जाओंग।
यदि अंधकार में एक किरण भी चम जाए, यह पर्याप्त
सबूत है कि प्रकाश का होना...परमात्मा का होना। इसे बस थोड़ी सी जागरूकता मत कहो।
पर मैं समण्ता हूं। हम इतने लम्बे समय से अ-जागरूकता
में जिए है। हम इतने समय से मूर्च्छा मे जिए है, हम इतनी समय से यंत्र-समान
जीए है। कि जब थोड़ी सी जागरूकता आती भी है, हमारी पुरानी
आदतें इतनी भारी पड़ जाती है कि हम......।
एक बार की बात है एक नवयुवती ए.टी.एस में भर्ती हुई
और डॉक्टरी जांच के लिए गई। डॉक्टर ने उसके कपड़े उतरवाए और फिर अपने सहायक को
बुलवाया। ‘इस तरफ देखो: सबसे बड़ी नाभि जो मैंने अपने डॉक्टरी जीवन मे देखी है।’
नवयुवक डॉक्टर ने देखा और कहा, ‘ज्यार्ज की
कसम, लड़की, यह तो एक विशाल नाभि
है—क्या में चिकित्सा पत्र के लिए इसका एक चित्र खींच सकता हूं?’
लड़की तो अब थक चुकी थी और उसकी समझ में नही आ रहा था
कि यह सब किस की सहायता के लिए था, ‘यदि तुम भी मुक्ति सेना में उतने ही
वर्ष हरे होते जितने की मैं रही हूं तो तुम्हारी नाभि भी बड़ी होती।’
इससे तो रहस्य और भी गहरा गया। ‘मुक्ति सेना?’ उसका इस बात
से क्या लेना देना है?
‘मैं दस वर्ष तक उसका
झंडा उठाती रही हूं।’
और तुम तो झंड़ा लाखों जन्मों से उठाते चले आए हो—इसलिए नाभि
बहुत बड़ी हो गई है।
मूर्च्छा ही तुम्हारी सारी जीवन कथा है; अपने विषय
मे तुम जो कुद भी जानते हो वह कुछ और नहीं बस मूर्च्छा ही है। इसलिए जब प्रकाश की
एक किरण प्रवेश करती भी है, पहले तो तुम इस पर भरोसा ही नहीं
करते। शायद तुम देख रहे हो कि शायद यह एक सपना है? कोई इंद्रजाल है? कोई सम्मोहन है? शायद प्रक्षेपण हो? हो सकता है इसमें
कोई धोखधड़ी हो। यदि तुम इस पर भरोसा कर भी लो, यह तुम्हारे समस्त अतीत के सामने
इतनी छोटी दिखाई देती है कि तुम्हें यह विश्वास नहीं होता कि किस तरह से यह
तुम्हारी सहायता कर सकती है। छोटा सा दीया एक दीपक?
परंतु एक बात मैं तुमको बता दूं: उसे ध्यान से समझ लेना एक
छोटा सा दीया भी समस्त घर में छाए गहरे अंधकार को पल में विलिन कर जाता है। उसके
उस छोटेपन पर मत जाओ। वह बहुत ही शक्तिशाली है। अंधकार में कुछ भी शक्ति नहीं होती, अंधकार
एक नपुसंगता है। एक छोटा सा दीपक बहुत ही पुंसग होता है—क्योंकि यह है तो! अंधकार तो एक
अनुपस्थिति का नाम है। वह है नहीं केवल भाषता है।
एक व्यक्ति खून और खरोंचों से ढका अस्पताल पहुंचा। ‘क्या बात हुई
है?’ डॉक्टर ने
पूछा।
‘यह मेरी पत्नी के कारण हुआ है—उसका एक
और दुख स्वप्न।’
मुर्खता की बात मत करो! हो सकता है उसने तुम्हें एक
लात जमाई हो, उसी कारण ये चोटे तुम्हें लग गई हो।
‘सुनो, डॉक्टर-उसे
एक दुखस्वप्न आया: वह जोर-जोर से चिल्लाई, भाग जाओ, जल्दी से—मेरा पति घर आ रहा है।’ और उस समय मैं आधा
जाग रहा था, स्वभावकत: मैं खिड़की से नीचे कुद गया।
मूर्च्छित रहने की आदत लम्बी है। पुरानी है। पर उस
थोड़ी सी जागरूकता की और देखो, स्वयं को उस पर केन्दित करो—यही तुम्हारी आशा है।
उस छोटी सी किरण से ही द्वार खुल जाता है।
क्या ये सब तुम देख नहीं सकते हो? जो तुम मुझसे पूछते हो: ‘इसमें
नया क्या है?’
छट्ठा प्रश्न: मैं एक कैथोलिक ईसाई हूं। आपने प्रवचनों को मैं
पसंद करता हूं लेकिन जब आप कोई ऐसी बात कहते हैं जो मेरे धर्म के विपरीत जाती हो, तब
मैं बहुत उद्विग्न हो जाता हूं। मैं क्या करूं?
तीन चीजें हैं: पहली, केवल वही सुनो जो तुम्हारे
अनुकूल हो; उसे सुनो हीमत जो तुम्हारे विपरीता हो। यही काम
तो बहुत से लोग कर रहे है वर्ना तो यात्रा बड़ी ऊबड़-खाबड़ हो जाएगी। लेकिन जब तुम
यहां होते हो, सुनते हुए, यह कठिन होता
है—उससे बचे कैसे जाए? सच तो यह है कि इससे पहले कि तुम यह
जानो कि यह तुम्हारे विपरीत है, तुम इसे सुन ही चुके होते
हो।
फिर तो तुम्हें कुछ ऐसा काम करना चाहिए जो कि प्रोफेसर
लोग जानते हैं कि कैसे किया जाए, जो कि पंडित लोग, विद्वान
लोग जानते है कि कैसे किया जाए। जब तुम कोई ऐसी बात सुनो जो तुम्हारे विपरीत जाती
हो, पहले तो: यह सोच लो कि यह तो तुच्छ बात है; इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, यह कोई महत्वपूर्ण बात
नहीं है। इससे तुम्हारा मन नहीं बदलता! यह तो एक मामूली सी
बात है। शायद विस्तार में थोड़ी सी भिन्न हो पर मूलत: तो ओशो तुमसे सहमत हैं ही।
यह बात मन में रखो।
ऐसा हुआ:
एक स्त्री डॉक्टर के पास गई, और उससे
शिकायत की कि वह कामोवेशित नहीं हो पाती। डॉक्टर ने उसकी जांच की और उसे बताया कि
यउदि वह डॉक्टर की बताई हुई खुराक खाती रहेगी, वह बहुत
कामातुर हो जाएगी। वह महिला इस बात पर सहमत हो गई। और कुछ सप्ताह बाद वह वापस आई
और अपने डॉक्टर से कहा, -‘कोई गड़बड हो गई है। पिछली रात मैं
इतनी कामातुर हो गई की अपने पति का कान चबा गई।’
‘ओह, तुम क्षुद्र
बातों की चिंता बिलकुल भी मत करो,’ डॉक्टर ने कहा है, ‘इसमें बस
प्रोटीन होता है—कार्बोहाईड्रेट नहीं।’
यह पहला उपाय है। कि बस छोटे-छोटे विस्तारों में...यह
कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। इससे
तुम्हें सहायता मिलेगी और तुम इतने उद्विग्न न होओगे।
दूसरा उपाय है: इसकी व्याख्या कर लो—यही तो सराह
बार-बार कहता जाता है। व्याख्याकार हो जाओ! इसकी व्याख्या इस ढंग से करो कि यह
तुम्हारे विचार के समीप आ जाए। यह सदा किया जा सकता है; बस
थोड़ी सी क्रीड़ा—बस इतना ही। यह कोई बड़ी समस्या नहीं है; यह
तो तुम आसानी से कर सकते हो। यदि तुम सच ही में एक कैथोलिक रहे हो, यह बात जरा सी भी कठिन नहीं होगी।
तुम एक कहानी सुनो:
आइरिश खुदाई मजदूर रंगीन लड़कियों से भरे उस घर के
सामने की सड़क खोद रहे थे। एक पादरी(प्रोटेस्टेंट) वहां पहुंचा, अपना टोप
नीचे झुकाया और घर के अंदर घुस गया। पैट माइक से कहता है, ‘तुमने
देखा?’ इन पादरियों से तुम और क्या उम्मीद कर सकते हो?’
थोड़ी देर बाद एक रबाई वहां पहुंचा, अपना कॉलर
उल्टा किया, और भीतर घुस गया। माइक पेट से कहता है, ‘यह क्या इतनी खराब बात नहीं है कि ‘खुद के अपने
लोगों’ का पुरोहित को ऐसी जगह पर जाना चाहिए।‘
आखिर में एक कैथोलिक पादरी वहां आ पहुंचा, अपने चोगे
को अपने सिर के चारों तरफ लपेटा और घर के भीतर घुस गया।
‘पैट, कितना
अफसोस होता है यह सोचकर कि यहां की कोई लड़की बीमार पड़ गई होगी।’
यह एक व्याख्या है। जब रबाई भीतर जाता है, बात कुछ और
होती है; जब पादरी भीतर जाता है तब बात भिन्न होती है। और जब
कैथोलिक पादरी वहां पहुंचता है...तुम व्याख्या बदल ले सकते हो। इसमें कोई समस्या
नहीं है। अब कोई लड़की बीमार जान पड़ती है।
यह दूसरा उपाय है मुझसे बचने को।
अब तीसरा उपाय सून लो: सोच लो कि यह आदमी तो पागल है।
यह सबसे अधिक सुनिश्चित उपाय है—यदि कोई और उपाय काम नहीं करता, यह करता है।
बस सोच लो कि यह आदमी तो पागल हो गया है। एक पागल आदमी की बात को अधिक महत्व नहीं
देना चाहिए, वह भी कैथोलक वाद के खिलाफ जब कुछ कोई बोल रहा
हो। यह बात तुम्हारी बहुत ही सहायता कर सकती है। और फिर देखना तुम जरा भी उद्विग्न
नहीं होओगे।
नव-नियुक्त पादरी ने सोचा कि वह इस विशाल इलाके में
पैदल ही घूमेगा-फिरेगा और अपने अनुयायी-समुदाय से भेंट करेगा। एक दिन धूल भरी
पगडंडी पर मीलों तक चलते रहने के उपरांत उसे चौदह बच्चों वाला एक धर्मनिष्ठ परिवार
मिला।
शुभ-दिवस करने के बाद, तुम तो आयरलैंड के लिए गौरव
की बात हो—इस इलाके का सबसे बड़ा परिवार।
तभी उस परिवार के एक सदस्य ने कहा शुभ सुबह, फादर,
परंतु आप गलत है, इस इलाके का सबसे बड़ा
परिवार यह नहीं है—वह तो डोयलन का है, पहाड़ी के ऊपर।
यह एक थका हुआ पादी था जिसने डोयलन और उसके सोलह
बच्चों का अभिवाद किया—‘ईश्वर इन सोलह नन्हें बच्चों का भला करे,’ उसने कहा।
क्षमा करे फादर, ‘पर एक प्रोटेस्टेंट परिवार है।’
‘तब में तुरंत यहां से जाना चाहुंगा,’
पादरी ने कहा, ‘क्योंकि एक गंदे कामुक पागल के
अतिरिक तुम और कुछ नहीं हो।’
यदि में तुमसे सहमत नहीं होता, ‘यह आदमी तो
पागल है--’ कहने से तुम्हें सहायता मिलेगी।
यही वे तरकीबें है जो दूसरे लोग भी उपयोग में लाते
है। और उद्विग्न नहीं होते। अब तो रहस्य तुम्हें पता चल गया...तुम भी यह कर सकते
हो।
लेकिन यदि तुम्हारा कुल प्रयास यही है कि उद्विग्न न
हुआ जाए, तब तुम यहां हो ही क्यों? मेरा तो कुछ प्रयास ही यह
है कि तुम्हें जितना अधिक हो सके उत्तेजित करूं, क्रोधित
कुरू। तब मेरे पास आया ही क्यों जाए? जब तक कि मैं तुम्हें
परेशान न करू, परेशान न कंरू तब तक तुम्हारा रूपांतरित होना
अति कठिन होता है। जब तक कि मैं बहुत ठोर चोट तुम्हारे अहंकार पर तुम्हारी धारणाओं
पर नहीं करता तुम जागते ही नहीं। तुम्हारे लिए मेरे पास और कोई उपाय नहीं है,
कोई आशा नहीं होती।
यह मेरी करूणा ही है कि मैं तुम्हारी खोपड़ी को ठोके
चला जा रहाह हूं—क्योंकि यही एकमात्र उपाय है। और मुझे बहुत अधिक ठोकना पड़ता है:
मैं भी क्या कर सकता हूं?
तुम्हारे पास खोपडियां ही इतनी मोटी है, कोई
बात तुम्हे उत्तेजित करती ही नहीं तुम जरा टस से मस नहीं होते। जब कोई सच्ची बात
तुम्हारी दृष्टि में आ जाती है, वरना तो यह तुम्हें कैसे
हिला झकझोर सकती है।
सदा स्मरण रखना: कोई भी चीज जो तुम्हें आधारहिन बना
दे, तुम्हें डावाडोल कर दे। तुम्हारे धरातल को झकझोर दे। वही मूल्यवान है। उसे
से तुम्हारा परिवर्तन हो सकता है। तुम्हारी खोपड़ी इतनी मोटी है, उसे तोड़े बिना हृदय का द्वार खूल ही नहीं सकता। इस बात पर चिंतन-मनन करो।
इसे अपने अस्तित्व में लम्बे सयम तक रहने दो ताकि तुम सब संभव कोणों से इसे देख
सको—क्योंकि कोई चीज तुम्हें उद्विग्न करती क्यों है? इसका
सीधा सा अर्थ है कि यह चीत तुम्हारी नींद को तोड़ रही है, तुम
विश्राम मेंएक खलल पड़ रही है। तुम्हें जागरूक बना रही है। अब तक नींद में तुम जो
भी विश्वास करते आ रहे थे, वह मात्र एक झूठ था। केवल सत्य ही
उद्विग्न करता है। केवल सत्य ही नष्ट करता है क्योंकि सत्य ही निर्माण भी कर सकता
है।
मैं एक विप्लव हूं....और यदिसच में ही तुम्हें मेरे
साथ होना है, तुम्हें एक अराजकता से गुजरना ही होगा। यही तो सराह कह रहे है। यही तो सब
कुछ तंत्र है...अनाकृतिकरण तुम्हारे
चरित्र को अलग ले जाना, तुम्हारी चिंतना को अलग ले जाना,
तुम्हारे मन को अलग ले जाना। यह शल्यचिकित्सीय प्रणाली है, तंत्र की।
मैं असहाय हूं। मुझे यह करना ही है। और मैं जानता हूं
कि यह एक बहुत अकृतज्ञ काम है।
अंतिम प्रश्न: संसार क्या है?
संसार यह कहानी है:
लंदन का कोहरा थेम्स नदी के ऊपर मंउरा रहा था जबकि उस
नौजवान आवारगर्द ने रात बिताने के लिए नदी तट पर के अपने ठिकाने को व्यवस्थित करना
शुरू किया। अचानक एक मृदु आवाज ने उसे जगाया और नजर उठा कर उसने देखा, एक शोफर
द्वारा चलाई जा रही कार से उतरते हुए एक अनिंध सुंदरी को आते हुए।
‘मेरे गरीब मित्र,’ उसने कहा: ‘तुम बहुत ठंडे ओर गीले हो रहे होओग। चलो
मैं तुम्हें अपने घर ले चलूं और रात तुम वहीं बिताना।’
निश्चय ही वह आवारागर्द उस निमंत्रण को ठुकरा नहीं
सकता था और वह कार में चढ़कर उसके बगल मं बैठ गया। थोड़ी ही दूर चलने के बाद एक
बड़े विकटोरियन प्रासाद के सामने कार रूकी, और उस आवारागर्द को अपने पीछे-पीछे
आने का इशारा करती वह सुंदरी कर से नीचे उतरी। द्वार एक बटलर ने खोला जिसको निर्देश
दिया की इस व्यक्ति को स्नान और भोजन कर दिया जाए। और नौकरों के एक क्वार्टर में
एक आरामदायक बिस्तर भी दे दिया जाए।
कुछ समय के उपरांत वह सुंदरी सोने जाने की तैयारी कर
रही थी, उसे अचानक यह ख्याल आया कि उसके मेहमान को किसी चीज की आवश्यकता पड़ सकती
है, इसलिए नाईटी पहनकर वह नौकरों के क्वार्टरों की और आई। जब
वह एक कोने से मुड़ी ही थी, प्रकाश की एक किरण उसकी आँख पर
पड़ी जिससे उसे लगा कि उसका मेहमान अभी सोया नहीं था। द्वार पर धीरे से दस्तक देकर
वह भीतर घुसी और नौजवान से पूछा कि वह सौ क्यों नहीं रहा था।
‘निश्चय ही, तुम
भूखे तो नहीं हो?’
‘तब शायद तुम्हारा बिस्तर आरामदायक
नहीं होगा?’
‘लेकिन यह तो आराम दायक है—एक दम
मुलायम और गर्म।’
‘तब तो तुम्हें संग-साथ की आवश्यकता
है। थोड़ा सा उस तरफ खिसको....’
नौजवान, आनंद-मगन, उस
तरफ खिसका.....( और थेम्स नदी में जा गिरा.....)
आज इतना ही
Nice collection, please keep it up.
जवाब देंहटाएंPlease publish all speech of Osho.
Solution of all problems
जवाब देंहटाएंhttps://youtu.be/wfNc2kGdccQ
Hey Nice article
जवाब देंहटाएंself publishing in India
Hey Nice article
self publishing Hey Nice article
Best hybrid publishers 2022
Hey Nice article
self publishing