तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-दूसरा
दिनांक 01 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
(सरहा के राज गीतों पर दिये गये ओशो के बीस अमृत प्रवचनों में
दस का संकलन जो उन्होंने पूना आश्रम में दिनांक 01 मई 1977 से 10 मई 1977 में ओशो
आश्रम पूना के बुद्धा हाल में दिए थे।)
भूमिका:
ओशो कहते है कि तंत्र एक खतरनाक दर्शन और धर्म है। मनुष्य के पर्याप्त
साहसी न होने के कारण ही बड़े पैमाने पर अभी तक तंत्र के प्रयोग और प्रयास नहीं
किये गए। केवल बीच-बीच में कुछ प्रयोग और प्रयास वैयक्तिगत लोगों द्वारा ही तंत्र
के आयाम को छेड़ा गया। लेकिन यह अधुरा प्रयास बहुत ही खतरनाक बन गया। अधुरी बात
हमेशा गलत और खतरनाक होती ही है। लेकिन समाज द्वरा स्वीकृति न मिलने से उन लोगों
को अनेक यातनाएं झेलनी पड़ी। उन्हें गलत समझा गया।
तंत्र कहता है कि एक ऐसी स्त्री के साथ रहना और उससे प्रेम करना भले ही वह तुम्हारी पत्नी हो, जिसके प्रति तुम्हारे प्रेम का प्रवाह बंद हो गया हो और जिसके साथ रहने में तुम्हें आनंद नहीं मिलता हो, एक पाप और व्यभिचार जैसा ही है। उसके साथ प्रेम करना एक बलात्कार करना है। और स्त्री भी यदि अपने पति से प्रेम नहीं करती और उसके साथ तब उसके साथ रहना एक प्रकार की यात्ना देने जैसा ही है। और संभोग तो एक प्रकार का बलतकार ही नहीं वेश्यावृति जैसा है।
तंत्र का विश्वास आनंद में है, और वह कहता
है कि उसके प्रति सच्चे बनकर तुम प्रत्येक चीज का बलिदान कर दो, क्योंकि आनंद ही परमात्मा है।
विवाह की सामाजतक व्यवस्था के महल जहां निति, नियम अनुशासन और सामाजिक प्रतिष्ठा भीजड़ी है, तंत्र
वहां विकसित हो ही नहीं सकता। तंत्र प्रेम करने की स्वतंत्रता चाहता है, चाहता है स्त्री हो या पुरूष दोनों को पूर्ण स्वतंत्रता मिलें।
तंत्र कहता है अपने शरीर से गहन प्रेम करो। अपने शरीर और अपनी
इन्द्रियों को सत्कार करो। उनके प्रति अनुग्रह ओर कृतज्ञता का भाव रखो। इन्द्रियां
तुम्हारे शरीर में ज्ञान और बोध के द्वार हैं। उनकी जड़ता मिटाकर उन्हें निर्मली
बनाओं। शरीर और इंद्रियों ही तुम्हारी आधार भूमि हैं, इसलिए कभी भी शरीर का विरोध मत करो। उस से प्रेम करो उसपर श्रद्धा करो।
लेकिन समाज ने हमें शरीर विरोधी बनाया है। व्रत उपवास आदि के द्वारा हम शरीर को
सताते है। अपनी सहज वृत्तियों का दमन करते है। तंत्र कहता है—शरीर को दमीत भावों
से शुद्ध करना है। खजुराहों और कोर्णाक में विभिन्न आसनों मं होने वाले मैथुन की
मूर्तियों पर ध्यान करने के लिए कहा जाता था। जिससे की तुम्हारे अचेतन में दबी
सेक्स विकृतियां चेतन तक आकर विसर्जित हो सकें। वे मेथुन मूर्तियां जैसे
मनोविश्लेषण का कार्य पूरा करती थी।
तंत्र कहता है शरीर को दमन से शुद्ध करो शरीर के अवरोधों को
हटाओं और उसकी ऊर्जा को प्रवाहित होने दो। परमानंद केवल तभी संभाव है, जब कुनकुने ढंग से न जीकर सधनता और समग्रता से सर्वोतम पर जिया जाए।
सर्वस्वीकार के भाव से जीने का नाम ही तंत्र है। र्स्वस्वीकार भाव से जिए अतीत को
भुलाकर और भविष्य की योजनाएं न बनाकर इस क्षण और यहीं में जीया जाए। अपनी
इंद्रियों को जीवंत और संवेदनशील बनाओं और बचपन से ही सम्मोहित मन में भरे गए
विचारों से मुक्त हो जाओं। तंत्र कहता है कि यह कार्य तीन सचेतनाओं का निरीक्षण
करने से हो सकता है। पहली सचेतना है कि मन को गतिशील बनाकर उसे विचारों से भर जाने
दो। और उनका सचेत होकर तटस्थता से निरीक्षण करो। धीमे-धीमें तुम्हारे जीवन में तब
मौन के अंतराल आने प्रारंभ होंगे। और धीरे-धीरे विचारों की ही भांति निरीक्षणकर्ता
भी विचारों के साथ विलुप्त हो जाएगा। वहां है वास्तविक मौन। तीसरी चेतना के साथ
विषयवस्तु और व्यक्तिकता दोनों ही चली जाती है। शरीर दमित मनोवेगों से शुद्ध हो जाता
है और सभी भ्रमों और मायाजाल से मुक्त तुम्हारे अंदर तंत्र का अंर्तदृष्टि का जन्म
होता है।
किसी फूल के सौंदर्य के साथ एक
स्त्री अथवा पुरूष का भी अतुलनीय सौंदर्य हो सकता है। उसे देखकर उसका आनंद लो। यदि
अदृश्य प्रेम का झोंका चले अथव किसी अज्ञात आकर्षण से स्त्री पुरूष साथ-साथ रहना
चाहें तो जब तक उन्हें एक दूसरे के सानि्नध्य में आनंद मिलता हो, वे साथ-साथ रहें। जिस दिन एक दूसरे के साथ
आनंद मिलना बंद हो जाए। वे प्रसन्नता से अब तक बिताए मधुर क्षणों के प्रति
कृतज्ञता व्यक्ति करते हुए एक मित्र की भांति पृथक हो जाना चाहिए। उन्हें वैश्विक
साधन अपना कर बच्चा उत्तपन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हां, यदि दो प्रेम एक लम्बी अवधि तक प्रेमपूर्ण साथ रहते हुए बच्चा चाहते हैं
तो उसका पालन करने का दायित्व कम्यून का होगा। तंत्र के यह प्रयोग इसीलिए खुले
समाज के मध्य संभव नहीं हैं, तभी ओशो ने नगर-नगर में
प्रेमपूर्ण कम्यूनें बनाने का स्वप्न देखा था। ऐसा भविष्य मे संभव है, पर बड़े-बड़े शहरों मं समझदार युवक युवतियां लगभग ऐसी ही जीवन शैली से
जीने का प्रयासरहित प्रयास कर रहे है। परंतु उस जीने में ध्यान और तांत्रिक
अंर्तदृष्टि का आभाव है। जब तक जीवन में ध्यान और तंत्र का उदय नहीं होगा समाझ का
आंतरिक उत्तुंग नहीं आ सकता।
असल में तंत्र कोई धर्म नहीं
है, यह तो जीने की एक शैली है, इसके न कोई धर्मशास्त्र ही है। न ही इसका मंदिर निर्मित किया जा सकता है।
न ही पूजा गृह है, न कोई पंडित पुरोहित है और न कोई मध्यस्थ
है। यह वैयक्तित्व को नष्ट न कर उसका सम्मान और समर्थन करता है। तंत्र की यह
अंर्तदृष्टि पूरे विश्व में अनूठी और अद्वितीय है।
तंत्र सभी तथाकथित धर्मों के
विरूद्ध एक खुला विद्रोह है। प्रत्यके धर्म तुम्हें एक विशिष्ठ ढ़ांचा, अनुशासन, एक शैली आकार
प्रकार देता हे। तंत्र है मन के सभी ढ़ांचों, खेलों और सृजन
के विरूद्ध एक स्वतंत्रता और मुक्ति। तंत्र अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता के साथ अन्य
व्यक्ति की भी पूर्ण स्वतंत्रता में श्रद्धा रखता है। वह कहता है सजग सचेत और
तटस्थ निरीक्षण कर्ता बनकर अतीत और भविष्य से मुक्त होकर अभी और यहीं मैं समग्रता
से जियो।
तंत्र कहता है कि जब तुम अपने
ऊपर बलात कोई अनुशासन थोपते हो तो तुम पूरी तरह विभाजित और अंदर से अव्यवस्तित हेा
जाते हो। जब शरीर और मन थिर और व्यवस्थित हो जाते हैं तो तुम पूरे अस्तित्व के साथ
लयवद्ध हो, जाते हो और
पूरा अस्तित्व स्वत: व्यवस्थित हो जाता है। शरीर और मन के पार जाने के लिए उनकी
आवश्यकताओं की उपेक्षा न कर उनकी बात सुनों और उन्हें विरोधी न बनाकर अपनी मित्र
बनाओं।
तांत्रिक रूपातंरण के लिए ओशो
तंत्र का एक नक्शा अथवा मानचित्र देते है, जो उसके मार्ग को सरल और सुबोध बना देता है। तंत्र की पहली अंतदृष्टि है
कि प्रत्येक व्यक्ति स्त्री और पुरूष दोनों एक साथ है। उसमें पुरूष की आक्रमक और
सक्रिय ऊर्जा के साथ स्त्री की निष्क्रिय, प्रेमपूर्ण और
संवेदन शील ऊर्जा भी सम्मलित है। प्रत्येक पुरूष एक स्त्री की छवि को और एक स्त्री
एक पुरूष की छवि को अपने अंदर अपने साथ लिए हुए चल रहा है। जब बाहर का कोई पुरूष
अथवा स्त्री तुम्हारे अंदर के पुरूष अथवा स्त्री की छवि के अनुरूप होती है,
तभी तुम उसके प्रेम में खो जाते हो। पर फिर भी बाहर का पुरूष या
स्त्री कभी भी अंदर के स्त्री-पुरूष के परिपूर्ण रूप से पूर्ण अनुरूप नहीं हो
सकते। इसी कारण वह सुख के साथ दुख और प्रसन्नता के साथ अप्रसन्नता भी देता है।
तंत्र कहता है कि इस लिए कोई भी बाहर के स्त्री पुरूष केसाथ संतुष्ट बने नहीं रह
सकता। इसलिए तुम्हें अपने अंतर की गहराईयों में ही गतिशील होना होगा। तुम्हें अपने
अंदर ही उस पुरूष या स्त्री को खोजना होगा। और वह विलय या संभोग तुम्हारी अपूर्णता
को पूर्णता प्रदान कर सकता है। समग्रता से सजगता सचेत और प्रेमपूर्ण रहते हुए एक
सामान्य संभोग में भी तुम कुछ समय के लिए आनंद के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकते हो।
इस झलक के मिलने से तुम आश्वस्त हो जाते हो कि सेक्स के अंर्तसंभोग के द्वारा तुम
उस शाश्वत परमानंद को प्रापत कर सकते हो।
समग्रता से सजग सचेत रहते हुए
प्रेम पूर्ण संभोग में आनंद के सर्वोचशिखर पर पहुंचते हुए जब शरीर की पूरी ऊर्जा
कम्पित और सपन्दित होती नृतय करती है, तो तुम ध्यान पूर्ण रहकर अंदर बहती इन तरंगों में बहकर आनंद के सागर को छू
सकते हो। वह क्षण बहुत ही अदभुत होता है, वहां एक उर्जा का
विषफोट हुआ है। वहां एक नव उत्पत्ती हुई है। जिसका की तुम्हें शाक्षी बन जाना है।
जब काम उर्जा का ऊर्ध्वगमन होता हे तो तुम्हारे अंदर के पुरूष का पुरूष ऊर्जा का
मूलाधार चक्र, स्त्री स्वाधिष्ठान चक्र की और गतिशील होना
शुरू हो जाता है। इन दो चक्रों के मिलन से ऊर्जा मुक्त होकर उच्चतम केंद्र मणिपूर
चक्र पर चोट करती है। मणीपूर चक्र पुरूष चक्र है, और अनाहत
चक्र स्त्री चक्र है। जब ऊर्जा मणीपूर चक्र पर इकट्ठी होती जाती है फिर एक और अंतर
संभोग होता है मणीपूर और अनाहत चक्र का। वह महा संभोग होता है। तभी गुरू नानक ने
एक जगह कहा है पूर्ण पुरूख तब जाकर साधक एक पूर्णता में प्रवेश करता है, स्त्री अपने में एक पूर्ण स्त्री बन जाती है और पुरूष अपने में एक पूरूष।
यह तीसरा मिलन अथवा अंर्तसंभोग
चौथे के लिए ऊर्जा सृजित करता है, और ऊर्जा
सहस्त्रासार पर जो स्त्री या पुरूष न होकर पूर्ण हो जाता है। वहीं मिलन शाश्वत
होता है। जो फिर कभी विघटन नहीं होता। और यहीं सत-चित आनंद का अनुभव होता है। इस
चक्र पर सारी द्वैवता समाप्त हो जाती है। सहस्त्र दल कमल खिल जाता है। इसमें
अस्तित्व से एक होने की अनुभूति होती है। पहला मिलन जैसे की नींद में, दूसरा जैसे की स्वप्न में, अर्द्धजागृत अवस्था में
और तीसरा और चौथा मिलन जाग्रत अवस्था में होता है। प्रत्येक मिलन में रूपांतरण की
प्रक्रिया का प्रारंभ हो जाता है।
तंत्र तुम्हें भय से मुक्त करता है। वह संसार के विरोध में
नहीं है। वह विपरीत ध्रुव पर न जाकर मध्य में बना रहता है। न तंत्र संसार का
विरोधी है न ही वह सेक्स का विरोधी है। वह केवल चढ़ने के लिए उसे प्रथम सीढ़ी का
पायदान ही मानता है। वहां बैठे रहने का हिमायती नहीं है तंत्र।
भगवान बुद्ध ने सेक्स का अति क्रमण करने को और जीवन के
मूलस्त्रोत शून्यता तक पहुंचने को कहा था। पर नियम अनुशासन की जंजीर से बांधकर
बौद्ध सेक्स का दमन करने लग गए है। सरहा का तंत्र की यह अंतदृष्टि बौद्ध धर्म के
विरूद्ध एक विद्रोह ही है। पर सरहा ने बुद्ध का विरोध नहीं किया है, उनका अनुगत ही ग्रहण किया है। उसने सेक्स को अतिक्रमण करने का मार्ग
प्रदर्शन किया और बुद्ध की मूल प्रवृति शून्यता को उपलब्ध होने की अंतदृष्टि दी।
सहस्त्रासार पर पहूंच कर आस्तित्व के साथ एक होने में ही शुन्यता है।
पंचमकार की साधना करने वाले ढोंगी तांत्रिकों ने तंत्र के नाम
पर उसे केवल यौनाचार बनाकर बदनाम कर दिया है। जिसके कारण राजा भौज ने उज्जेन की
पवित्र तंत्र नगरी में ही अकेले एक लाख जोड़ो को मरवा डाला था। एक मुर्ख दरबारी ना
समझ के कारण, या ढोंगी तंत्रिको के अभद्र प्रर्दश्न के
कारण। हर वह चीज जो हम देखते है उसे समझ गय हम यह जरूरी नहीं होता। उस की तरह
उसमें डूबने से ही हम उस रहस्य को छू सकते है। आज समाज केवल ढोंगी तांत्रिकों के
अलाव कुछ नहीं है। उसके बाद तो बचे खुचे उन साधको का भूमिगत हो जाना पड़ा जिस के
कारण ये खुबसूरत विज्ञान गुप्त रहस्यों में खो गया।
सरहा के ये सूत्र बहुत ही दुर्लभ है, और ओशो के मुखार बिंदु से तो वे सोन पर सुहागा बन गए। उन एक-एक गीतों को
ओशो ने जीवितं कर दिया। तंत्र की विधि और अंतदृष्टि को पुनजीवित करने में ये ओशो
के प्रवचन बहुत सहयोगी होंगे आज नहीं तो कल इन रहस्य को कोई साधक समझेगा ओर फिर एक
नया मार्ग खूल सकता है। अब धीरे-धीरे फिर लोग समझदार होते जा रहे है, हर चीज अब फिर रहस्यों से निकल कर बहार आ रही है। जब मैं इन प्रवचनों को
टाईप कर रहा था तो मेरे जीवन में अचानक कुछ नई पन का अर्विभाव हुआ। मेरी
अंर्तदृष्टि उन गहरे रहस्यों में डूबने ही नहीं मुझ में कुछ उतरने लगा। एक
नया-विकास जो ऐसा लगने लगा मैं उसे पल में छू लूगा उस में जी लूंगा...टाईप करते
कितनी-कितनी देर तो मैं रोता रहता, ह्रदय के एक नए आयाम में
प्रवेश कर लिया था। शायद ये प्रवचन आपके जीवन में भी नवनुतन का प्रवेश कर जाए।
आपके अंदर भी एक नई अंतदृष्टि का जन्म हो जाए। मेरी अंतर की यहीं कामना है जो मुझे
हुआ है वह सभी साधको को जो इन शब्दों को पढ़ रहे है इन्हें पी रहे इन में डूब कर
एक नए ही तीर को छू जाए। ओशो की महान कृपा। आप सब पर भी बरसे।
स्वामी आनंद प्रसाद मनसा
thank you guruji
जवाब देंहटाएं