अनासक्ति—संबंधी
पहली विधि:
‘शरीर
के प्रति आसक्ति
को दूर हटाओं
और यह भाव करो
कि मैं
सर्वत्र हूं।
जो सर्वत्र है
वह आनंदित है।’
बहुत सी
बातें समझने
जैसी है। ‘शरीर के
प्रति आसक्ति
को दूर हटाओं।’
शरीर के
प्रति हमारी
आसक्ति
प्रगाढ़ है।
वह अनिवार्य
है; वह स्वाभाविक
है। तुम
अनेक-अनेक जन्मों
से शरीर में
रहते आए है;
आदि काल से ही
तुम शरीर में
हो। शरीर
बदलते रहे है।
लेकिन तुम सदा
शरीर में रहे
हो। तुम सदा सशरीर
रहे हो।
ऐसे क्षण,
ऐसे समय भी
रहे है जब तुम
शरीर में नहीं
थे। लेकिन तब
तुम अचेतन थे,
मूर्छित थे।
जब तुम मरते
हो, जब तुम एक
शरीर छोड़ते
हो, तो तुम
मूर्च्छा की
हालत में मरते
हो और तुम
मूर्च्छित
ही रहते हो।
फिर तुम्हारा
एक नए शरीर
में जन्म
होता है। लेकिन
उस समय भी तुम मूर्छित
ही रहते हो।
एक मृत्यु और
दूसरे जन्म
के बीच का
अंतराल
मूर्च्छा
में बीतता है।
इसलिए तुम्हें
हो तो तुम्हें एक
ही बात का पता
है और वह है
शरीर में होने
का; तुमने अपने
को शरीर में
ही जाना है।
यह इतनी
प्राचीन है,
इतनी निरंतर
है, कि तुम भूल
ही गए हो कि
मैं भिन्न
हूं। यह एक
विस्मरण है
जो स्वाभाविक
है, अनिवार्य
है। और इसी
कारण से आसक्ति
है। तुम्हें
लगता है कि
मैं शरीर हूं; और
यही आसक्ति
है। तुम्हें
लगता है कि
मैं शरीर के
सिवाय कुछ भी
नहीं हूं,
शरीर से अधिक
कुछ भी नहीं
है।
शायद तुम
मेरे साथ इस
बात पर सहमत न
हो, क्योंकि
कई बार तुम
सोचते हो कि
मैं शरीर नहीं
हूं। मैं आत्मा
हूं। लेकिन यह
तुम्हारा
जानना नहीं
है। यह बस
तुमने सुना
है। तुमने
पढ़ा है। यह
तुमने जाने
बिना मान लिया
है।
तो पहला
काम यह है कि
तुम्हें इस
तथ्य को स्वीकार
करना है कि
वस्तुत: मेरा
जानना यही है
कि मैं शरीर
हूं। अपने को
धोखा मत दो; क्योंकि
धोखा देने से
काम नहीं
चलेगा। अगर
तुम सोचते हो
कि मैं पहले
से ही जानता
हूं कि मैं शरीर
हूं तो तुम
शरीर के प्रति
अपनी आसक्ति
को दूर नहीं
कर सकते। क्योंकि
तुम्हारे
लिए आसक्ति
है ही नहीं।
तुम जानते ही
हो। और तब
अनेक कठिनाइयां
उठ खड़ी
होंगी। जिनका
समाधान नहीं हो
सकता। किसी
कठिनाई को
आरंभ में ही
हल कर सकते।
हल करने के
लिए तुम्हें
फिर आरंभ पर
लौटना होगा।
तो यह स्मरण
रहे, तुम्हें
पहले यह भली भांति
बोध होना
चाहिए कि मैं
नहीं जानता कि
मैं शरीर के अतिरिक्त
कुछ नहीं हूं।
यह पहला
बुनियादी बोध
है।
यह बोध अभी
तुम्हें
नहीं है।
तुमने जो कुछ
सुना है उससे
तुम्हारा मन
भरा है और
भ्रांत है।
तुम्हारा मन
दूसरों से
मिले ज्ञान से
संस्कारित
है। यह ज्ञान
उधार है। यह
ज्ञान सच्चा
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि यह
गलत है। जिन्होंने
कहा है उन्होंने
ऐसा जाना है।
लेकिन जब तक
यह तुम्हारा
अनुभव न हो
जाए, तब तक तुम्हारे
लिए गलत है।
जब मैं कहता
हूं कि कोई
चीज गलत है तो
मेरा मतलब यह
है कि यह तुम्हारा
अपना अनुभव
नहीं है। यह
किसी और के
लिए सच हो सकता
है। लेकिन
तुम्हारे
लिए सच नहीं
है। और इस
अर्थ में सत्य
वैयक्तिक
अनुभूति है।
अनुभूत सत्य
ही सत्य है।
जो अनुभूत
नहीं है वह
सत्य नहीं
है। कोई
जागतिक सत्य
नहीं होता है।
प्रत्येक
सत्य को सत्य
होने के लिए
पहले वैयक्तिक
होना पड़ता
है।
तुम जानते
हो, तुमने सुना
है कि मैं
शरीर नहीं हूं—यह
तुम्हारे
ज्ञान का हिस्सा
है, यह तुमने
बाप दादों से
सुना है—लेकिन
यह तुम्हारा
अनुभव नही है।
पहले इस तथ्य
का साक्षात
करो कि मैं
अपने को शरीर
की भांति ही
जानता हूं। यह
साक्षात्कार
तुम्हारे
भीतर बड़ी
बेचैनी पैदा
करेगा। इस
बेचैनी को
छिपाने के लिए
ही तुमने यह ज्ञान
इकट्ठा किया
था। तुम माने
रहते हो कि
मैं शरीर नहीं
हूं। और तुम
शरीर की भांति
रहे आते हो।
इससे तुम
विभाजित हो
जाते हो। इससे
तुम्हारा
सारा जीवन
अप्रामाणिक
हो जाता है।
झूठ और नकली
हो जाता है।
वस्तुत: यह
चित की रूग्ण
अवस्था है,
भ्रांत अवस्था
है। तुम जीते
हो शरीर की
तरह और तुम
बातें करते हो
आत्मा की तरह।
और तब द्वंद्व
है। संघर्ष
है। तब तुम
सतत एक आंतरिक
उपद्रव में,एक गहन
अशांति में
जीते हो।
जिसका
निराकरण संभव
नहीं है।
तो
पहले इस तथ्य
को देखो कि
मैं आत्मा के
संबंध में कुछ
नहीं जानता
हूं, मैं जो कुछ
भी जनता हूं
वह शरीर के
संबंध में जानता
हूं। इससे
तुम्हारे
भीतर एक बड़ी
बेचैनी की स्थिति
पैदा होगी। जो
भी अंदर छिपा
है वह उभर कर सतह
पर आएगा। इस
तथ्य के
साक्षात्कार
से कि मैं
शरीर हूं। तुम्हें
वस्तुत:
पसीना आने लगेगा।
इस तथ्य का
साक्षात करके कि
मैं शरीर हूं, तुम्हें
बहुत बेचैनी
होगी। तुम
बहुत अजीब
अनुभव करोगे।
लेकिन इस
अनुभव से
गुजरना ही
होगा; तो
ही तुम जान
सकते हो कि
शरीर के प्रति
आसक्ति का क्या
अर्थ है।
ऐसे
शिक्षक है जो
कहे चले जाते
है कि तुम्हें
अपने शरीर से
आसक्त नहीं
होना चाहिए।
लेकिन तुम्हें
इस बुनियादी
बात का ही पता
नहीं है कि
शरीर के प्रति
यह आसक्ति क्या
है। शरीर के
प्रति आसक्ति
शरीर के साथ
प्रगाढ़
तादात्म्य
है, लेकिन पहले
तुम्हें
समझना है कि
यह तादात्म्य
क्या है।
तो अपने उस
सारे ज्ञान को
अलग हटा दो
जिसने तुम्हें
यह भ्रांत
धारणा दी है
कि तुम आत्मा
हो। यह अच्छी
तरह जान लो कि
मैं एक ही चीज
को जानता हूं
और शरीर है।
कैसे यह बोध
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
उपद्रव को,
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
नरक को उभार
कर ऊपर ले आता है।
उसे प्रत्यक्ष
कर देता है।
जब
तुम्हें बोध
होता है कि
मैं शरीर हूं
तो पहली दफा तुम्हें
आसक्ति का
बोध होता है।
पहली दफा तुम्हारी
चेतना में इस
तथ्य का बोध
होता है कि यह
शरीर है—जो
पैदा होता है
और मर जाता
है। यहीं मैं
हूं। पहली दफा
तुम्हें इस
तथ्य का बोध
होता है कि यह
कामवासना,
क्रोध—यही मैं
हूं। इस तरह
सभी झूठी
प्रतिमाएं
गिर जाती है।
तुम अपने सचाई
में प्रकट हो
जाते हो।
यह
सचाई दुखद है,
बहुत दुखद है।
यही कारण है
कि हम उसे
छिपाते रहते
है। यह एक
गहरी चालाकी
है। तुम अपने
को आत्मा को
आत्मा माने
रहते हो और जो
भी तुम्हें नापसंद
है उसे तुम शरीर
पर थोप देते
हो। तुम कहते
हो कि
कामवासना
शरीर की है, और प्रेम
मेरा। तुम
कहते हो कि
लोभ और क्रोध
शरीर का है और
करूणा मेरी
है। करूणा आत्मा
की है और क्रुरता
की है। क्षमा
आत्मा की है
और क्रोध शरीर
का है। जो भी
तुम्हें गलत
और कुरूप मालूम
पड़ता है। उसे
तुम शरीर पर
थोप देते हो।
और जो भी तुम्हें
गलत और कुरूप
मालूम पड़ता
है। उसे तुम
शरीर पर थोप
देते हो। और
जो भी तुम्हें
सुंदर मालूम
पड़ता है।
उसके साथ तुम
अपना तादात्म्य
बना लेते हो।
इस तरह तुम
विभाजन पैदा
करते हो।
यह
विभाजन तुम्हें
जानने नहीं
देता कि आसक्ति
क्या है। और
जब तक तुम यह
नहीं जानते कि
आसक्ति क्या
है और जब तक
तुम उसके नरक
से, उसकी पीड़ा
से नहीं
गुजरते हो,
तब तक तुम उसे
दूर नहीं हटा
सकते। कैसे
दूर करोगे?
तुम किसी चीज
को तभी दूर
करोगे जब वह
रो सिद्ध हो, जब वह भारी
बोझ सिद्ध हो।
जब वह नरक
सिद्ध हो। तभी
तुम उसे अपने
से अलग कर
सकते हो।
तुम्हारी
आसक्ति अभी
नरक नहीं
सिद्ध हुई है।
बुद्ध कुछ भी
कहें, महावीर
कुछ भी कहें, वह
अप्रासंगिक
है। वे कहे जा
सकते है कि आसक्ति
नरक है। लेकिन
यह तुम्हारा
भाव नहीं है।
इसीलिए तुम
बार-बार पूछते
हो कि आसक्ति
से कैसे छूटा
जाए। अनासक्त
कैसे हुआ
जाये। आसक्ति
के पार कैसे
हुआ जाए। तुम
यह ‘’कैसे’’ इसीलिए
पूछते रहते हो
क्योंकि
तुम्हें
नहीं मालूम है
कि आसक्तिक्या
है। इधर तुम
जानते हो कि
आसक्ति क्या
है तो तुम कूद
कर बाहर निकल
जाओगे, तभी
तुम ‘कैसे’ नहीं
पूछोगे!
अगर
तुम्हारे घर
में आग लगी हो
तो तुम किसी
से पूछने नहीं
जाओगे, तुम
किसी गुरु के
पास यह पूछने
नहीं जाओगे कि
आग से कैसे
बचा जाये। अगर
घर जल रहा हो
तो तुम तत्क्षण
बाहर निकल
जाओगे। तुम एक
क्षण भी देर
नहीं करोगे।
तुम गुरु की
खोज भी नहीं करोगे।
तुम शास्त्रों
से सलाह नहीं
लोगे। तुम यह
जानने की चेष्टा
भी नहीं करोगे
कि निकलने के
उपाय क्या है, कि निकलने
के लिए किन
साधनों को काम
में लाया जाए, कि निकलने
के लिए कौन सा
द्वार सही
द्वार है। ये
चीजें
अप्रासंगिक
है, जब घर
धू-धू कर जल
रहा हो।
जब
तुम जानते हो
कि आसक्ति क्या
है तो तुम यह
जानते हो कि
घर जल रहा है।
और तब तुम उसे
अपने से दूर
कर सकते हो।
इस
विधि में
प्रवेश के
पहले तुम्हें
आत्मा
संबंधी उधार
ज्ञान को हटा
देना होगा,
ताकि शरीर के
प्रति आसक्ति
अपनी समग्रता
में प्रकट हो
सके। यह बहुत
कठिन होगा;
उसका
साक्षात्कार
गहरी चिंता और
संताप में ले
जाएगा। यह आसान
नहीं होगा;
कठिन होगा,
दुष्कर
होगा। लेकिन
यदि तुम्हें
एक बार उसका
साक्षात्कार
हो जाए तो तुम
उसे दूर कर
सकते हो। और ‘’कैसे’’
पूछने की
जरूरत नहीं
है। यह बिलकुल
ही आग है,
नरक है;
तुम उससे
छलांग लगाकर
बाहर निकल
सकते हो।
यह
सूत्र कहता
है: ‘शरीर के
प्रति आसक्ति
को दूर हटाओं
और यह भाव करो
कि मैं
सर्वत्र हूं। जो
सर्वत्र है वह
आनंदित है।’
और
जिस क्षण तुम
आसक्ति को
दूर हटाओगे,
तुम्हें बोध
होगा कि मैं
सर्वत्र हूं।
इस आसक्ति के
कारण तुम्हें
महसूस होता है
कि मैं शरीर
में सीमित
हूं। शरीर
तुम्हें
नहीं सीमित
करता है,
तुम्हारी
आसक्ति तुम्हें
सीमित करती
है। शरीर तुम्हारे
और सत्य के
बीच अवरोध
नहीं निर्मित
करता है,
उसके प्रति
तुम्हारी
आसक्ति
अवरोध
निर्मित करती
है।
एक
बार तुम जान
गए कि आसक्ति
नहीं है तो
फिर तुम्हारा
कोई शरीर भी
नहीं है—अथवा
सारा अस्तित्व
तुम्हारा
शरीर बन जाता
है। तुम्हारा
शरीर समग्र
अस्तित्व
का हिस्सा बन
जाता है। तब
वह पृथक नहीं
है।
सच
तो यह है कि
तुम्हारा
शरीर तुम्हारे
पास आया हुआ
निकटतम अस्तित्व
है; और कुछ
नहीं। शरीर
निकटतम अस्तित्व
है। और वही
फिर फैलता
जाता है। तुम्हारा
शरीर अस्तित्व
का निकटतम
हिस्सा है और
फिर सारा अस्तित्व
फैलता जाता
है। एक बार
तुम्हारी
आसक्ति गई कि
तुम्हारे
लिए शरीर न
रहा। अथवा
समस्त अस्तित्व
तुम्हारा
शरीर बन जाता
है। तब तुम
सर्वत्र हो, सब तरफ हो।
शरीर
में तुम एक
जगह हो; शरीर
के बिना तुम
सर्वत्र हो।
शरीर में तुम
एक विशेष स्थान
में सीमित हो; शरीर के
बिना तुम पर
कोई सीमा न
रही। यही कारण
है कि जिन्होंने
जाना है वे
कहते है कि
शरीर कारागृह
है। दरअसल,
शरीर कारागृह
नहीं है। आसक्ति
कारागृह है। जब
तुम्हारी
निगाह शरीर पर
ही सीमित नहीं
है तब तुम सर्वत्र
हो।
यह
बात बेतुकी
मालूम पड़ती
है। मन को,
जो शरीर में
है, यह बात
बेतुकी मालूम
पड़ती है। यह
बात पागलपन
जैसी लगती है—कोई
व्यक्ति
सभी जगह कैसे
हो सकता है।
और वैसे ही
बुद्ध पुरूष
को हमारा यह
कहना कि मैं ‘यहां’
हूं,
पागलपन जैसा
मालूम पड़ता
है। तुम किसी
एक स्थान में
कैसे हो सकते
हो? चेतना
कोई स्थान
नहीं लेती है, इसीलिए अगर
तुम आंखें बंद
कर लो तो पता
लगाने की चेष्टा
करो कि शरीर
में ही कहां
हूं तो तुम
हैरान रह
जाओगे; तुम
नहीं खोज
पाओगे कि मैं
कहा हूं।
अनेक
धर्म ओर अनेक
संप्रदाय हुए
है जो कहते है
कि तुम नाभि
में हो। दूसरे
कहते है तुम
ह्रदय में हो।
कुछ कहते है
कि तुम सिर
में हो। कुछ
कहते है कि
तुम इस चक्र
में हो और कुछ
कहते है कि उस
चक्र में हो।
लेकिन शिव कहते
है कि तुम
कहीं नहीं हो।
यही कारण है
कि अगर तुम
आंखें बंद कर
लो और खोजने
की कोशिश करो कि
मैं कहां हूं
तो तुम कुछ
नहीं बता
सकते। तुम तो
हो, लेकिन तुम्हारे
लिए कोई ‘कहां’ नहीं है।
तुम बस हो।
प्रगाढ़
नींद में भी
तुम्हें
शरीर का बोध
नहीं रहता है।
तुम तो हो।
सुबह जाग कर
तुम कहोगे कि
नींद बहुत
गहरी थी। बहुत
आनंदपूर्ण
थी। तुम्हें
एक गहन आनंद
का बोध था
लेकिन तुम्हें
शरीर का बोध
नहीं था।
प्रगाढ़
निद्रा में तुम
कहां होते हो?
और मरते हो तो
तुम कहां जाते
हो? लोग
निरंतर पूछते
है कि जब कोई
मरता है तो वह
कहां जाता है?
लेकिन
यह प्रश्न
निरर्थक है, मूढ़ता
पूर्ण है। यह
प्रश्न
हमारे इस भ्रम
से ही उठता है
कि हम शरीर
में है। अगर
हम मानते है
कि हम शरीर है
तो फिर प्रश्न
उठता है कि
मरने पर हम
कहां जाते है।
तुम
कहीं नहीं
जाते हो। जब
तुम मरते हो
तो तुम कहीं
नहीं जाते हो।
यही कारण है
कि वे ‘निर्वाण’ शब्द
चुनते हो।
निर्वाण का
अर्थ है कि
तुम कहीं नहीं
हो। ज्योति
के बुझने को
भी निर्वाण
कहते है। तुम
कह सकते हो कि
बुझने के बाद
ज्योति कहां
है? बुद्ध
कहेंगे कि यह
कहीं नहीं है।
ज्योति बस
नहीं हो गई
है। बुद्ध
नकारात्मक
शब्द चुनते
है: ‘कहीं
नहीं।’
निर्वाण का
अर्थ है। जब
तुम शरीर से
बंधे नहीं हो
तो तुम
निर्वाण में
हो, तुम
कहीं नहीं हो।
अगर
तुम बुद्ध से
पूछोगे तो वे
कहेंगे कि तुम
नहीं हो। यही
कारण है कि वे ‘निर्वाण’
शब्द चुनते
है। निर्वाण
का अर्थ है कि
तुम कहीं नहीं
हो। ज्योति
के बुझने को
भी निर्वाण
कहते है। तुम
कह सकते हो कि
बुझने के बाद
ज्योति कहां
है। बुद्ध
कहेंगे कि वह
कहीं नहीं है।
ज्योति बस
नहीं हो गई
है। बुद्ध
नकारात्मक
शब्द चुनते
है। ‘कहीं
नहीं।’
निर्वाण का
वहीं अर्थ है।
जब तुम शरीर
से बंधे नहीं
हो तो तुम
निर्वाण में
हो, तुम
कहीं नहीं हो।
शिव
विधायक शब्द
चुनते है;
वे कहते है कि
तुम सब कहीं
हो। लेकिन
दोनों शब्द
एक ही अर्थ रखते
है। अगर तुम
सब कहीं हो तो
तुम कहीं एक
जगह नहीं हाँ
सकते। तुम सब
कहीं हो,
यह कहना
करीब-करीब
वैसा ही है
जैसा वह कहना
कि तुम कहीं
नहीं हो।
लेकिन शरीर से
हम आसक्त है
और हमें लगता
है कि हम बंधे
है। यह बंधन
मानसिक है;
यह तुम्हारी
अपनी करनी है।
तुम अपने को
किसी भी चीज
के साथ बाँध
सकते हो। तुम्हारे
पास एक कीमती
हीरा है,
और तुम्हारे
प्राण उसमें
अटके हो सकते
है। यदि वह
हीरा चोरी हो
जाए तो तुम
आत्महत्या
कर सकते हो।
तुम पागल हो
सकते हो। क्या
करण है?
बहुत लोग है
जिनके पास
हीरा नही है।
उनमें से कोई
भी आत्महत्या
नहीं कर सकता
है। किसी को
हीरे के बिना
कोई कठिनाई
नहीं हो रही
है। लेकिन
तुम्हें क्या
हुआ है?
कभी
तुम भी हीरे
के बिना थे और
कोई समस्या
नहीं थी। अब
तुम फिर हीरे के
बीना हो,
लेकिन अब समस्या
है। यह समस्या
कैसे निर्मित
होती है? यह
तुम्हारी
अपनी करनी है।
अब तुम आसक्त
हो, बंधे
हो। हीरा तुम्हारा
शरीर बन गया
है; अब तुम
इसके बिना
नहीं रह सकत।
अब इसके बिना
तुम्हारा
जीना असंभव
है।
जहां
भी तुम आसक्त
होते हो, नया
कारागृह बन
जाता है। और
हम जीवन में
यहीं करते है; हम निरंतर
और-और कारागृह
बनाते जाते
है। बड़े से
बड़े कारागृह
बनाते रहते
है। और फिर हम
उन कारागृहों
को सजाते है।
ताकि वे घर
मालूम पड़ें
और फिर हम भूल
ही जाते है कि
वे कारागृह है।
यह
सूत्र कहता है
कि अगर तुम
शरीर से अपनी
आसक्ति को
दूर कर सको तो
यह बोध घटित
होगा कि मैं
सर्वत्र हूं,सब
कहीं हूं। तब
तुम बूंद न
रहे, सागर
हो गए; तब
तुम्हें
सागर होने का
भाव होता है।
अब तुम्हारी
चेतना किसी स्थान
से नहीं बंधी
है; वह स्थान
मुक्त है।
तुम बिलकुल
आकाश के सामन
हो जाते हो।
जो सबको घेरे
हुए है। अब
सबकुछ तुममें
है—तुम्हारी
चेतना अनंत तक
फैल गई है।
और
फिर सूत्र
कहता है: ‘जो
सर्वत्र है वह
आनंदित है।’
एक
जगह से बंधे
रह कर तुम
दुःख में
रहोगे क्योंकि
तुम सदा उससे
बड़े हो जहां
तुम बंधे हो।
यही दुःख है।
मानों तुम अपने
को एक छोटे-से
पात्र में
सीमित कर रहे
हो। सागर को
एक घड़े में
बंद किया जा
रहा है। दुःख
अनिवार्य है।
यही दुःख है।
और जब भी इस
दुःख की
अनुभूति हुई
है, बुद्धत्व
की खोज,
ब्रह्म की खोज
शुरू हो जाती
है।
ब्रह्म
का अर्थ है
अनंत, असीम
फैलाव। और
मोक्ष की खोज
स्वतंत्रता
की खोज है।
सीमित शरीर
में तुम स्वतंत्र
नहीं हो सकते
हो। एक स्थान
में तुम बंध
जाते हो। कहीं
नहीं या सब
कहीं में ही
तुम स्वतंत्र
हो सकते हो।
मनुष्य
के मन को
देखो। वह सदा
स्वतंत्रता
खोज रहा है—उसकी
दिशा चाहे जो भी
हो। दिशा
राजनीतिक हो
सकती है,
सामाजिक हो
सकती है,
मानसिक हो
सकती है,
धार्मिक हो
सकती है। दिशा
जो भी हो,
मनुष्य का मन
स्वतंत्रता
की खोज कर रहा
है। स्वतंत्रता
मनुष्य की गहनत्म
आवश्यकता
मालूम पड़ती
है। जहां भी
मनुष्य के मन
को अवरोध
मिलता है,
जहां भी उसे
गुलामी का
बंधन का अहसास
होता है,
वह उसके
विरूद्ध
लड़ता है।
मनुष्य
का सारा
इतिहास स्वतंत्रता
के युद्ध का
इतिहास है।
आयाम भिन्न
हो सकते है।
माक्र्स और
लेनिन आर्थिक
स्वतंत्रता
के लिए लड़ते
है। गांधी और
अब्राहम लिंकन
राजनीतिक स्वतंत्रता
के लिए लड़ते
है। और हजारों
तरह की
गुलामियां है,
और संघर्ष
जारी है।
लेकिन एक बात
निश्चित है
कि कहीं गहरे
में मनुष्य
निरंतर और-और
स्वतंत्रता
की खोज कर रहा
है।
शिव
कहते है—और
यही बात सभी
धर्म कहते है—कि
तुम राजनीतिक
तल पर स्वतंत्र
हो सकते हो,
लेकिन संघर्ष
समाप्त नहीं
होगा। एक तरह
की गुलामी हट
जाएगी लेकिन
और तरह की
गुलामियां
है। जब तुम
राजनीतिक रूप
से स्वतंत्र
होगे तो तुम्हें
अनय
गुलामियों का
बोध होगा।
आर्थिक गुलामी
समाप्त हो
सकती है।
लेकिन तब तुम
अन्य
गुलामियां के
प्रति सजग हो
जाओगे; यौन
और शरीर के तल
पर जो गुलामियां
है उनके प्रति
सजग हो जाओगे।
यह संघर्ष तब
तक नहीं खत्म
होगा जब तक
तुम यह नहीं
अनुभव करते,यह नहीं
जानते कि मैं
सर्वत्र हूं।
जिस क्षण तुम्हें
प्रतीत होता
है कि मैं
सर्वत्र हूं, कि मैं सब
जगह हूं,
तो स्वतंत्रता
प्राप्त
हुई।
यह
स्वतंत्रता
राजनीतिक
नहीं है, यह स्वतंत्रता
आर्थिक नहीं
है, यह स्वतंत्रता
सामाजिक नहीं
है। यह स्वतंत्रता
अस्तित्वगत
है। यह स्वतंत्रता
समग्र है।
इसीलिए हमने
उसे मोक्ष कहा
है—समग्र स्वतंत्रता।
और तुम तभी
आनंदित हो
सकते हो। हर्ष
या आनंद तभी
संभव है जब
तुम पूरी तरह
स्वतंत्र
हो। सच तो यह
है कि पूरी
तरह स्वतंत्र
होना ही आनंद
है। आनंद
परिणाम नहीं
है। स्वतंत्रता
की घटना ही
आनंद है। जब
तुम पूरी तरह
स्वतंत्र हो
तो तुम आनंदित
हो।
यह
आनंद परिणाम
की तरह नहीं
घटित हो रहा
है। स्वतंत्रता
ही आनंद है,
गुलामी दुःख
है। संताप है।
जिस क्षण तुम
किसी सीमा में
बंधा अनुभव
करते हो उसी
क्षण तुम दुःख
में पड़ जाते
हो। जहां-जहां
भी तुम सीमित
अनुभव करते हो
वहां-वहां तुम
दुःख अनुभव
करते हो। और
जब तुम असीम-अनंत
अनुभव करते हो, दुःख विलीन
हो जाता है।
तो
बंधन दुःख है
और मुक्ति
आनंद है। जब
भी तुम्हें
इस स्वतंत्रता
का अनुभव होता
है। तुम्हें
आनंद घटित
होता है। अभी
भी जब तुम्हें
किसी तरह की
स्वतंत्रता
का अनुभव होता
है, चाहे वह
समग्र न भी हो, तो तुम प्रसन्न
हो जाते हो।
जब तुम किसी
के प्रेम में
पड़ते हो,
तुम पर एक
खुशी, एक
आनंद बरस जाता
है। यह क्यों
होता है?
असल
में जब भी तुम
किसी के प्रेम
में पड़ते हो तो
तुम शरीर के
प्रति अपनी
आसक्ति को
दूर हटा देते
हो। किसी गहरे
अर्थ में अब दूसरे
का शरीर भी
तुम्हारा
अपना शरीर हो
गया है। तुम
अब अपने शरीर
में ही सीमित
नहीं हो,
दूसरे का शरीर
भी तुम्हारा
आवास बन गया
है। घर बन गया
है। तुम्हें
थोड़ी स्वतंत्रता
महसूस होती
है। अब तुम
दूसरे में गति
कर सकते हो और
दूसरे तुममें
गति कर सकते
है। एक अर्थ
में एक अवरोध
गिर गया;
अब तुम पहले
से ज्यादा
हो।
जब
तुम किसी को
प्रेम करते हो
तो तुम पहले
से बहुत ज्यादा
हो जाते हो।
तुम्हारा
होना थोड़ा
फैला, थोड़ा
विराट हुआ।
तुम्हारी
चेतना अब पहले
कि तरह
क्षुद्र न रही; उसने नया
विस्तार पा
लिया है।
प्रेम में तुम
थोड़ी स्वतंत्रता
का अनुभव होता
है। हालांकि
यह समग्र नहीं
है। और देर-अबेर
तुम फिर बंधन
अनुभव करोगे।
तुम्हें
विस्तार तो
मिला, लेकिन
यह विस्तार
अभी भी सीमित
है।
इसीलिए
जो लोग वस्तुत:
प्रेम करते है
वे देर-अबेर
प्रार्थना
में उतर जाते
है।
प्रार्थना का
अर्थ है,वृहद
प्रेम। प्रार्थना
का अर्थ है
पूरे आस्तित्व
के साथ प्रेम।
अब तुम्हें
रहस्य का पता
चल गया। तुम्हें
कुंजी का,
गुप्त कुंजी
का पता चल
गया। कि मैंने
एक व्यक्ति
को प्रेम किया
ओर जिस क्षण
मैंने प्रेम
किया, सारे
अवरोध गिर गए।
सारे दरवाजे
खुल गए और कम से
कम एक व्यक्ति
के लिए मेरा
होना विस्तृत
हुआ। मेरे
प्राणों का
विस्तार
हुआ। अब तुम्हें
गुप्त कुंजी
मालूम है कि
अगर मैं
पूरे-अस्तित्व
को प्रेम करने
लगू तो मैं
शरीर नहीं
रहूंगा।
प्रगाढ़
प्रेम में तुम
शरीर नहीं रह
जाते हो। जब
तुम किसी के
प्रेम में
होते हो तो
तुम अपने को
शरीर नहीं
समझते हो। तो
जब तुम्हें
प्रेम नहीं
मिलता है,
जब तुम प्रेम
में नहीं होते
हो, तब तुम
अपने को शरीर
ज्यादा
अनुभव करते
हो। तब तुम्हें
अपने शरीर का
ख्याल ज्यादा
रहता है। तब
तुम्हारा
शरीर बोझ बन
जाता है। जिसे
तुम किसी तरह ढोते
हो। जब तुम्हें
प्रेम मिलता
है, शरीर
निर्भार हो
जाता है। जब
तुम्हें
प्रेम मिलता
है और तुम
प्रेम में होते
हो तो तुम्हें
ऐसा नहीं लगता
कि गुरूत्वाकर्षण
को कोई प्रभाव
है। तुम नाच
सकते हो,
तुम वस्तुत:
उड़ सकते हो।
एक अर्थ में
शरीर नहीं रहा—लेकिन
सीमित अर्थ
में ही। वही
बात एक गहरे
अर्थ में तब
घटती है। जब
तुम समग्र अस्तित्व
के साथ प्रेम
में होते हो।
प्रेम
में तुम्हें
आनंद मिलता
है। आनंद सुख
नहीं है। स्मरण
रहे, आनंद सुख
नहीं है। सुख
इंद्रियों के
द्वारा मिलता
है। आनंद
इंद्रियगत
नहीं है,
वह अतींद्रिय
अवस्था में
प्राप्त
होता है। सुख
तुम्हें
शरीर से मिलता
है। आनंद तब
मिलता है जब
तुम शरीर नहीं
होते हो। जब
क्षण भर के
लिए शरीर विलीन
हो गया है और
तुम मात्र
चेतना हो तो
तुम्हें
आनंद प्राप्त
होता है। और
जब तुम शरीर
हो तो तुम्हें
केवल सुख मिल
सकता है। वह
सदा शरीर से
मिलता है।
शरीर से दुःख
संभव है,
सुख संभव है, लेकिन आनंद
तभी संभव है
जब तुम शरीर
नहीं हो।
आनंद
कभी-कभी अचानक
और आकस्मिक
रूप से भी
घटित होता है।
तुम संगीत सुन
रहे हो और
अचानक सब कुछ
खो जाता है।
तुम संगीत में
इतने तल्लीन
हो कि तुम्हें
अपने शरीर की
सुख भूल गई।
तुम संगीत में
डूब गए हो;
तुम संगीत के
साथ एक हो गए
हो। तुम इतने
एक हो गये हो
कि कोई
सुननेवाला
बचा ही नहीं; सुनने वाला
और सुना जाने
वाला,
संगीत एक हो
गए है। सिर्फ
संगीत बचा है; तुम नहीं
बचे। तुम विस्तृत
हो गए, फैल
गये। मौन में
विलीन हो रहे
है और तुम भी
उनके साथ मौन
में विलीन हो
रहे हो। शरीर
की सुधि जाती
रही। और जब भी
शरीर की सुधि
नहीं रहती।
शरीर अनजाने
ही, अचेतन
रूप से दूर हट
जाता है। और
तुम्हें
आनंद घटित
होता है।
तंत्र
और योग के
द्वारा तुम
यही चीज
विधिपूर्वक
कर सकते हो।
तब वह आकस्मिक
नहीं है; तब
तुम उसके
मालिक हो। तब
यह चीज तुम्हें
अनजाने नहीं
घटती है;
तब तुम्हारे
हाथ में कुंजी
है और तुम जब
चाहो द्वार खोल
सकते हो—या
तुम चाहो तो
द्वार हमेशा
के लिए खोल
सकते हो और
कुंजी को फेंक
सकते हो।
द्वार को फिर
बंद करने की
जरूरत नहीं रही।
सामान्य
जीवन में भी
आनंद घटती
होता है;
लेकिन वह कैसे
घटता है,
यह तुम्हें
नहीं मालूम।
स्मरण रहे, यह सदा तभी
घटता है जब
तुम शरीर नहीं
होते हो। तो
जब भी तुम्हें
पुन: किसी
आनंद के क्षण
का अनुभव हो
तो सजग होकर
देखना कि उस
क्षण में तुम
शरीर हो या
नहीं। तुम
शरीर नहीं
होगे। जब भी
आनंद है,
शरीर नहीं है।
ऐसा नहीं कि
शरीर नहीं
रहता है। शरीर
तो रहता है, लेकिन तुम
शरीर से आसक्त
नहीं हो। तुम
शरीर से बंधे
नहीं हो। तुम
उससे बाहर
निकल गए हो।
हो सकता है, संगीत के
कारण तुम बाहर
निकल गए,
या खूब सूरत
सूर्योदय को
देखकर बाहर
निकल गए। या
एक बच्चे को
हंसते देखकर
बाहर निकल गए।
या किसी के
प्रेम में
होने के कारण
शरी से बाहर आ
गए—कारण जो भी
हो,मगर तुम
क्षण भर के
लिए बाहर आ
गए। शरीर तो
है, लेकिन
दूर हो गए।
तुम उससे आसक्त
नही हो। तुमने
एक उड़ान ली।
इस
विधि के
द्वारा तुम जानते
हो कि जो
सर्वत्र है वह
दुखी नहीं हो
सकता; वह
आनंदित है। वह
आनंद है। तो
स्मरण रहे, तुम जितने
सीमित होगे
उतने ही दुःखी
होगे। फैलो, अपनी
सीमाओं को दूर
हटाओं। और जब
भी संभव हो, शरीर को अलग
हटा दो। तुम
आकाश को देखो, बादल तैर
रहे है, उन
बादलों के साथ
तेरो, शरीर
को जमीन पर ही
रहने दो। और
आकाश में चाँद
है, चाँद
के साथ यात्रा
करो। जब भी
तुम शरीर को
भूल सको,
उस अवसर को मत
चूको,
यात्रा पर
निकल पड़ो। और
तुम धीरे-धीरे
परिचित हो
जाओगे कि शरीर
से बाहर होने
का क्या मतलब
है।
और
यह सिर्फ
अवधान की बात
है। आसक्ति
अवधान देने की
बात है। अगर
तुम शरीर को
अवधान देते हो
तो तुम उससे
आसक्त हो।
अगर अवधान हटा
लिया जाए तो
तुम आसक्त
नहीं रहे।
उदाहरण
के लिए तुम
खेल के मैदान
में खेल रहे हो।
तुम हाकी या
बाली-बाल खेल
रहे हो। या
कोई और खेल
रहे हो। तुम
खेल में इतने
तल्लीन हो कि
तुम्हारा
अवधान शरीर पर
नहीं है। तुम्हारे
पैर पर चोट लग
गई है और खून
बह रहा है;
लेकिन तुम्हें
उसका पता नहीं
है। दर्द भी
है, लेकिन
तुम वहां नही
हो। खून बह
रहा है। लेकिन
तुम शरीर के
बाहर हो। तुम्हारी
चेतना,
तुम्हारा
अवधान गेंद के
साथ दौड़ रहा
है। गेंद के साथ
भाग रहा है।
तुम्हारा
अवधान कहीं और
है। लेकिन
जैसे ही खेल
समाप्ति होता
है। तुम अचानक
शरीर में लौट
आते हो और
देखते हो कि
खून बह रहा
है। पीड़ा हो
रही है। और
तुम्हें आश्चर्य
होता है कि यह
कैसे हुआ। कब हुआ
और कैसे तुम्हें
इसका बोध नहीं
हुआ।
शरीर
में रहने के
लिए तुम्हें
अवधान की
जरूरत है। यह
स्मरण रहे,जहां
भी तुम्हारा
अवधान है तुम
वही हो। अगर
तुम्हारा
अवधान फूल में
है तो तुम फूल
में हो। और अगर
तुम्हारा
अवधान धन में
हो तो तुम धन
में हो। तुम्हारा
अवधान ही तुम्हारा
होना है। और
अगर तुम्हारा
अवधान कहीं
नहीं है तो
तुम सब कहीं
हो।
ध्यान
की पूरी
प्रक्रिया
चेतना की उस
अवस्था में
होना है जहां
तुम्हारा
अवधान कहीं
नहीं हो, जहां
तुम्हारे
अवधान का कोई
विषय न हो,
कोई लक्ष्य न
हो। जब कोई
विषय नहीं है।
कोई शरीर नहीं
है। तुम्हारा
अवधान ही शरीर
का निर्माण करता
है। तुम्हारा
अवधान ही तुम्हारा
शरीर है। और
जब अवधान कहीं
नहीं है तो तुम
सब कहीं हो।
और तब तुम्हें
आनंद घटित
होता है। वह
कहना भी ठीक
नहीं है कि
तुम्हें
आनंद घटित
होता है। तुम
ही आनंद हो।
अब यह तुमसे
अलग नहीं हो
सकता। यह तुम्हारा
प्राण ही बन
गया है।
स्वतंत्रता
आनंद है।
इसीलिए स्वतंत्रता
की इतनी अभीप्सा
है, इतनी खोज
है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-चार
प्रवचन-57
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