‘भाव
करो कि मैं
किसी ऐसी चीज
की चिंतना
करता हूं जो
दृष्टि के
परे है, जो
पकड़ के परे
है। जो अनस्तित्व
के, न होने
के परे है—मैं।’
‘’भाव करो
कि मैं किसी
ऐसी चीज कीं
चिंतना करता
हूं जो दृष्टि
के परे है।‘’
जिसे देखा
नहीं जा सकता।
लेकिन क्या
तुम किसी ऐसी
चीज की कल्पना
कर सकते हो जो
देखी न जा
सके। कल्पना
तो सदा उसकी
होती है जो
देखी जा सके।
तुम उसकी कल्पना
कैसे कर सकते
हो, उसका
अनुमान कैसे
कर सकते हो।
जो देखी ही न
जा सके। तुम
उसकी ही कल्पना
कर सकते हो
जिसे तुम देख
सकते हो। तुम
उस चीज का स्वप्न
भी नहीं देख
सकते जो दृश्य
न हो। जो देखी
न जा सके। यही
कारण है कि
तुम्हारे
सपने भी वास्तविकता
की छायाएं है।
तुम्हारी
कल्पना भी
शुद्ध कल्पना
नहीं है; क्योंकि
तुम जो भी कल्पना
करते हो उसे
उस संयोजन के
सभी तत्व
परिचित होंगे,
जाने-माने
होंगे।
तुम कल्पना
कर सकते हो कि
एक सोने का
पहाड़ आकाश
में बादलों की
भांति उड़ा जा
रहा है। तुमने
कभी ऐसी चीज
नहीं देखी है।
लेकिन तुमने
बादल देखा है;
तुमने पहाड़
देखा है; तुमने सोना
देखा है। ये
तीन तत्व
इकट्ठे किए जा
सकते है। तो
कल्पना कभी
मौलिक नहीं
होती; वह सदा ही
उनका जोड़
होती है जिन्हें
तुमने देखा
है।
यह विधि
कहती है: ‘भाव
करो कि मैं
किसी ऐसी चीज
की चिंतना
करता हूं जो
दृष्टि के
परे है।’
यह असंभव
है। लेकिन
इसीलिए यह
प्रयोग करने
लायक है। क्योंकि
इसे करने में ही
तुम्हें कुछ
घटित हो
जाएगा। ऐसा
नहीं कि तुम
देखने में
सक्षम हो
जाओगे। लेकिन
अगर तुम उसे
देखने की चेष्टा
करोगे जो देखी
न जा सके तो
सारा दर्शन खो
जाएगा। ऐसी
चीज के देखने
के प्रयत्न
में तुमने जो
भी देखा है वह
सब विलीन हो
जाएगा।
अगर तुम इस
प्रयत्न में धैर्यपूर्वक
लगे रहे तो
अनेक चित्र,
अनेक बिंब
तुम्हारे
सामने प्रकट
होंगे। तुम्हें
उन
प्रतिबिंबों
को इनकार कर
देना है, क्योंकि
तुम जानते हो
कि तुमने उन्हें
देखा है। वे
देखे जा सकते
है। हो सकता
है कि तुमने
उन्हें
बिलकुल वैसे
ही न देखा हो
जैसे वे है;
लेकिन यदि तुम
उनकी कल्पना
कर सकते हो तो
वे देखे भी जा
सकते है। उन्हें
अलग हटा दो।
और इसी तरह
अलग करते चलो।
यह विधि कहती है
कि जो नहीं देखा
जा सकता उसे
देखने के
प्रयत्न में
लगे रहो।
यदि तुम मन
में उभरने
वाले प्रतिबिंबों
को हटाते गए
तो क्या होगा? यह कठिन होगा
क्योंकि
अनेक चित्र
उभर कर सामने आएँगे।
तुम्हारा मन
अनेक चित्र,
अनेक बिंब,
अनेक सपने
सामने ले
आएगा। अनेक
धारणाएं आएँगी।
अनेक प्रतीक
पैदा होंगे।
तुम्हारा मन
नए-नए दृश्य
निर्मित
करेगा। लेकिन
उन्हें हटाते
चलो, जब तक कि
तुम्हें वह न
घटित हो जो
अदृश्य है।
क्या है वह?
यदि तुम
हटाते ही गए
तो बाहर से
तुम्हें कुछ
घटित नहीं
होगा। सिर्फ
मन का पर्दा
खाली हो
जाएगा। उस पर
कोई चित्र कोई
प्रतीक कोई बिंब,
कोई सपने नहीं
होंगे। उस
क्षण में
रूपांतरण घटित
होता है। जब
खाली पर्दा
रहता है, उस पर कोई
चित्र नहीं
रहता, उस क्षण में
तुम्हें
अपना बोध होता
है। सारी
चेतना पीछे
लौट कर देखने
लगती है। स्वमुखी
हो जाती है।
जब तुम्हें
देखने को कुछ
नहीं होता है
तब तुम्हें
पहली बार स्वयं
का बोध होता
है। तब तुम स्वयं
को देखते हो।
यह सूत्र
कहता है: ‘भाव
करो कि मैं
किसी ऐसी चीज
की चिंतना
करता हूं जो
दृष्टि के
परे है, जो
पकड़ के परे
है। जो अनस्तित्व
के, अन
होने के परे
है—मैं।’
तब
तुम स्वयं को
उपलब्ध होते
हो। स्वयं
होते हो। तब
तुम पहली दफा
उसे जानते हो।
जो देखता है।
जो समझता है, जो
जानता है।
लेकिन यह
जानने वाला
सदा विषयों मैं
छिपा होता है।
तुम चीजों को
तो जानते हो,
लेकिन तुम कभी
जानने वाले को
नहीं जानते
हो। ज्ञाता
ज्ञान में
खोया रहता है।
मैं तुम्हें
देखता हूं और
फिर किसी
दूसरे को
देखता हूं,और यह
जुलूस चलता
रहता है। जन्म
से मृत्यु तक
मैं हजार-हजार
चीजें देखता
हूं। और जो दृष्टा
है, जो इस जुलूस
को देखता है, वह भूल गया
है। वह भीड़
में खो गया
है। भीड़ विषयों
की और द्रष्टा
उसमें खो गया
है।
यह
सूत्र कहता है
कि अगर किसी
ऐसी चीज की
चिंतना करने
की चेष्टा
करते हो जो
दृष्टि के
परे है। पकड़
के परे है।
जिसे तुम मन
से नहीं पकड़
सकते—और जो
अनस्तित्व
के, न होने के भी
परे है। तो
तुरंत मन
कहेगा कि अगर कोई
चीज देखी नहीं
जा सकती और
पकड़ी नहीं जा
सकती तो वह
चीज है ही
नहीं। मन
तुरंत
प्रतिक्रिया
करेगा कि अगर
कोई चीज अदृष्य
और अग्राह्य
है तो वह नहीं
है। मन कहेगा
कि वह नहीं है, असंभव है।
इस
मन की बातों
में मत पड़ो।
यह सूत्र कहता
है: ‘दृष्टि के
परे, पकड़
के परे,
अनस्तित्व
के परे।‘
मन कहेगा कि
ऐसा
कुछ नहीं है।
ऐसा हो ही नहीं
सकता। यह
असंभव है।
सूत्र कहता है
कि इस मन का
विश्वास मत
करो। कुछ हो
जो अनस्तित्व
के परे अस्तित्ववान
है, जो है
और फिरा भी
देखा नहीं जा
सकता,
पकड़ा नहीं जा
सकता। वह तुम
हो।
तुम
अपने को नहीं
देख सकते हो।
या देख सकते
हो? क्या तुम
किसी एक ऐसी
स्थिति की
कल्पना कर
सकते हो।
जिसमें तुम
अपना
साक्षात्कार
कर सको।
जिसमें तुम
अपने को जान
सको? तुम
आत्म ज्ञान
शब्द को दोहराते
रह सकते हो।
लेकिन वह एक
अर्थ हीन शब्द
है। क्योंकि
तुम स्वयं को,
अपने
को नहीं जान
सकते हो। आत्मा
सदा ज्ञाता
है। उसे ज्ञान
का विषय नहीं
बनाया जा सकता
है।
उदाहरण
के लिए, अगर
तुम सोचते हो
कि मैं आत्मा
को जान सकता
हूं तो जिस
आत्मा को तुम
जानोंगे वह
तुम्हारी
आत्मा नहीं
होगी। आत्मा
तो वह होगी जो
इस आत्मा को
जान रही है।
तुम सदा
ज्ञाता
रहोगे। तुम सदा ही
पीछे रहोगे।
तुम जो भी जानोंगे
वह तुम नहीं
हो सकते। इसका
यह अर्थ है कि
तुम स्वयं को
नहीं जान सकते
हो। तुम स्वयं
को उस भांति
नहीं जान सकते
हो जिस भांति
अन्य चीजों
को जानते हो।
मैं
अपने को उस
भांति नही देख
सता जिस भांति
मैं तुम्हें
देखता हूं।
देखेगा कौन? क्योंकि
ज्ञान, दृष्टि
दर्शन का अर्थ
है कि वहां कम
से कम दो है:
जानने वाला और
जाना जाने
वाला। इस अर्थ
में आत्मज्ञान
संभव नहीं है; क्योंकि
वहां एक ही है।
वहां ज्ञाता
और ज्ञेय एक
है; वहां द्रष्टा
और दृश्य एक
है। तुम अपने
को विषय नहीं
बना सकते हो।
इसलिए आत्मज्ञान
शब्द गलत है।
लेकिन यह कुछ
कहता है। कुछ
इशारा करता
है। जो कि सच
है। तुम अपने
को जान सकते
हो, लेकिन यह
जानना उस
जानने से भिन्न
होगा। बिलकुल
भिन्न होगा।
जब सभी विषय
खो जाते है, जब
जो भी देखा और
ग्रहण किया जा
सकता है वह
विदा हो जाता
है। जब तुम
सबको अलग कर
देते हो, तब तुम्हें
अचानक स्वयं
का बोध होता
है। और यह बोध
द्वंद्वात्मक
नहीं है।
इसमें दो नहीं
है। इसमें आब्जेक्ट्स
ओर सब्जैक्ट
नहीं है। यह
अद्वैत है,
अखंड है।
यह बोध एक
भिन्न ही
भांति का
जानना है। यह
बोध तुम्हें
अस्तित्व
का एक भिन्न
ही आयाम देता
है। तुम दो
में नहीं बंटे
हो; तुम स्वयं
के प्रति
बोधपूर्ण हो।
तुम उसे देख
नहीं रहे,
तुम उसे पकड़
नहीं सकते हो; और बावजूद
वह है—पूरी तरह
है।
इसे इस तरह
समझो, हमारे पास
ऊर्जा है; वह
ऊर्जा विषयों
की तरफ बही जा
रही है। ऊर्जा
गतिहीन नहीं हो
सकती है। कहीं
ठहरी हुई नहीं
है। स्मरण
रहे, अस्तित्व
के परम नियम
में एक नियम
यह है कि
ऊर्जा गतिहीन
नहीं हो सकती, वह
गत्यात्मक
है। दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
उसे सतत
गतिमान रहना
है। गत्यात्मकता
उसका स्वभाव
है। ऊर्जा सतत
गतिमान है।
तो जब मैं
तुम्हें
देखता हूं तब
मेरी ऊर्जा
तुम्हारी
तरफ बहती है।
जब मैं तुम्हें
देखता हूं तो
एक वर्तुल बन
जाता है। मेरी
ऊर्जा तुम्हारी
तरफ बहती है।
और फिर मेरी
तरफ बहती है।
इस तरह एक
वर्तुल
निर्मित होता
है। यदि मेरी
ऊर्जा तुम्हारी
तरफ जाए, लेकिन मेरी
तरफ वापस न आए
तो मैं नहीं
जान पाऊंगा।
एक वर्तुल
जरूरी है।
ऊर्जा को जाना
चाहिए और फिर
लौट कर आना
चाहिए।
ज्ञान का
अर्थ है ऊर्जा
ने एक वर्तुल
बनाया है।
उसने भीतर से
बाहर की तरफ
गति की; और फिर वह
वापस मूल स्त्रोत
पर लौट आई।
अगर मैं इसी
भांति जीता रहूँ,
दूसरों के साथ
वर्तुल बनाता रहूँ, तो
मैं कभी स्वयं
को नहीं जान
पाऊंगा। क्योंकि
मेरी ऊर्जा
दूसरों की
ऊर्जा से भरी
है। वह दूसरों
के प्रभा,
दूसरों के
प्रतिबिंब
मुझे देती
जाती है। इसी
भांति तो तुम
ज्ञान इकट्ठा
करते हो।
यह विधि
कहती है कि
विषय को विलीन
हो जाने दो अपनी
ऊर्जा को रिक्तता
में,शून्य
में गति करने
दो। वह तुम्हारी
और से चलती तो
है, लेकिन कोई
विषय वहां
नहीं है। जिसे
वह पकड़ या
जिसे देखे। तो
वह शून्यता
से गुजर कर
तुम्हारे
पास लौट आती
है। वहां कोई
विषय नहीं है।
वह तुम्हारे
लिए कोई
जानकारी नहीं
लाती है। वह
खाली रिक्त
और शुद्ध लौट
आती है। वह
अपने साथ कुछ
नहीं लाती है।
वह कुंवारी की
कुंवारी है; कुछ भी उससे
प्रविष्ट
नहीं हुआ है।
वह विशुद्ध
है।
यही
ध्यान की
पूरी प्रक्रिया
है। तुम शांत
बैठे हो और
तुम्हारी
ऊर्जा गति कर
रही है। वहां
कोई विषय नहीं
है, जिससे वह
दूषित हो सके।
जिससे वह
आबद्ध हो सके, जिससे वह
प्रभावित हो
सके। जिसके
साथ वह एक हो
सके। तब तुम
उसे अपने पर
लौटा लेते हो।
वहां कोई विषय
नहीं है। कोई
विचार नहीं
है। कोई
प्रतिबिंब
नहीं है।
ऊर्जा गति
करती है। उसकी
गति शुद्ध है।
और वह शुद्ध ओर
कुंवारी ही
तुम्हारे
पास लौट आती
है। जिस अवस्था
में वह तुमसे गई
थी उसी अवस्था
में वह लौट
आती है। अपने साथ
कुछ भी नहीं
लाती है। वह
सिर्फ अपने को
अपने साथ लाती
है। और शुद्ध
ऊर्जा के उस
प्रवेश में
तुम स्वयं के
प्रति बोध से
भर जाते हो।
यदि
ऊर्जा अपने
साथ कोई
जानकारी लाए
तो तुम उस चीज
के प्रति हो
बोधपूर्ण
होगे। तुम एक
फूल को देखते
हो। तुम्हारी
ऊर्जा फूल पर
जाली है। और
उस फूल को फूल,
फूल के
प्रतिबिंब को, फूल के रंग
को, फूल की
गंध को अपने
साथ ले आती
है। ऊर्जा फूल
को तुम्हारे
पास ल रही है।
वह तुम्हें
फूल की
जानकारी देती
है। ऊर्जा फूल
से आच्छादित
है। तुम कभी
उस शुद्ध
ऊर्जा से
परिचित नही हो
सकते। तुम
दूसरों की तरफ
जाते हो और स्त्रोत
पर लौट आते
हो।
अगर
इस ऊर्जा को
कुछ भी
प्रभावित न
करे, अगर वह
अप्रभावित संस्कारित, अस्पर्शित
लौट जाए,
अगर वह वैसी
की वैसी लौट
आए जैसी गई
थी। अगर वह
शुद्ध लौट आये
तो कुछ साथ न
लाए। तो तुम स्वयं
को जानते हो।
यह ऊर्जा का
शुद्ध वर्तुल
है। अब ऊर्जा
कहीं बाहर न
जाकर तुम्हारे
भीतर ही गति
करती है। तुम्हारे
भीतर ही
वर्तुल बनाती
है। अब कोई
दूसरा नहीं
है। तुम स्वयं
अपने में गति
करते हो। यह
गति ही आत्म-प्रकाश
बन जाती है।
आत्मज्ञान, आत्मबोध
बन जाती है।
बुनियादी तौर
से सब ध्यान
विधियां इसी
के अलग-अलग
प्रकार है।
‘भाव
करो कि मैं
किसी ऐसी चीज
की चिंतना
करता हूं जो
दृष्टि के
परे है। जो
पकड़ के परे
है। जो अनस्तित्व
के, न होने
के परे है—मैं।’
अगर
यह हो सके तो
तुम पहली दफा
स्वय को जानोंगे।
स्वयं के अस्तित्व
को अस्तित्व
को जानोंगे।
जानने वाले को,
आत्मा को जानोंगे।
ज्ञान
दो प्रकार का
है: विषयगत
ज्ञान और आत्मगत
ज्ञान। एक तो
विषय का ज्ञान
है और दूसरा
स्वयं का
ज्ञान है। और
कोई आदमी चाहे
लाखों चीजें
जान ले। चाहे
वह पूरे जगत
को जान ले।
लेकिन अगर वह
स्वयं को
नहीं जानता है
तो वह अज्ञानी
है। वह जानकार
हो सकता है।
पंडित हो सकता
है। लेकिन वह प्रज्ञावान
नहीं है। संभव
है कि वह बहुत
जानकारी
इकट्ठी कर ले।
बहुत ज्ञान
इकट्ठा कर ले,
लेकिन उसके
पास उस
बुनियादी चीज
का अभाव है जो
किसी को
प्रज्ञावान
बनाता है। वह
स्वयं को
नहीं जानता
है।
उपनिषदों
में एक कथा
है। एक युवक,
श्वेतकेतु, अपने गुरु
के आश्रम से
शिक्षा
प्राप्त कर
के घर आता है।
उसने सभी परीक्षाए
उत्तीर्ण कर
ली थी। और
उसने उनमें
विशिष्टता
हासिल की थी।
गुरु जो भी
उसे दे सके, उसने सब
संजो कर रख
लिया था। और
वह बहुत अंहकार
से भर गया था।
जब
वह अपने पिता
के घर पहुंचा
तो पहली बात
जो पिता ने
पूछी वह यह थी: ‘तुम
ज्ञान से बहुत
भरे हुए मालूम
पड़ते हो और
तुम्हारे
ज्ञान ने तुम्हें
बहुत अहंकारी
बना दिया है।
यह तुम्हारे
चलने के ढंग
से—जिस ढंग से
तुमने घर में
प्रवेश किया—प्रकट
होता है। मुझे
तुमसे एक ही
प्रश्न
पूछना है,
क्या तुमने
उसे जान लिया
है जिस के
जानने से सब जाना
लिया जाता है।
तुम स्वय को
जान गये हो।’
श्वेतकेतु
ने कहा: ‘लेकिन
हमारे
विद्यापीठ के
पाठय क्रम में
यह नहीं था।
हमारे गुरु ने
इसकी कोई
चर्चा नहीं
की। मैंने सब
जान लिया है
जो जाना जा
सकता है। आप
मुझ कुछ भी पूछे
और मैं उत्तर
दूँगा। लेकिन
यह जो आप पूछ
रहे है। यह तो
कभी बताया ही
नहीं गया।’
पिता ने
कहा: ‘फिर तुम
वापस जाओ। और
जब तक उसे नह
जान लो जिसे
जानकर सब जान
लिया जाता है।
और जिसे जाने
बिना कुछ भी
नहीं जाना
जाता। तब तक
घर मत लौटना।
पहले स्वयं
को जानो।’
श्वेतकेतु
वापस गया।
उसने गुरू से
कहा: ‘मेरे
पिता ने कहा कि
तुम्हें घर
में नहीं आने
दिया जाएगा, इस घर में
तुम्हारा स्वागत
नहीं होगा;
क्योंकि
हमारे कुल में
हम जन्म से
ही ब्राह्मण
नहीं है। हम
ब्रह्म को
जानकर
ब्राह्मण है।
हम ब्राह्मण
जन्म से ही
नहीं है,
प्रामाणिक
ज्ञान को
प्राप्त
करके हम
ब्राह्मण है।
तो जब तक तुम
सच्चे
ब्राह्मण न हो
जाओ—जो जन्म
से नहीं बह्म
को जानकर हुआ
जाता है। तब
तक इस घर में
प्रवेश मत
करना। तुम
हमारे योग्य
नहीं हो।
इसलिए अब आप
मुझे वह ज्ञान
सिखाएं।’
गुरु
ने कहा: ‘जो भी
सिखाया जा
सकता है। वह
सब मैंने तुम्हें
सिखा दिया है।
और तुम जिसकी बात
कर रहे हो वह
सिखाया नहीं
जा सकता है।
तो तुम एक काम
करो; तुम
बस इसके प्रति
उपलब्ध रहो, इसके प्रति
खुल रहो। यह
ज्ञान
सीधे-सीधे
नहीं सिखाया
जा सकता है।
तुम सिर्फ
खुले रहो। और
किसी दिन घटना
घट जाएगी। तुम
आश्रम की
गायों को ले
जाओ।’
आश्रम में
बहुत गायें
थी। कहते चार
सौ गाये थी—गुरु
ने श्वेतकेतु
से कहा: ‘तुम
गायों को जंगल
ले जाओ और गायों
के साथ रहो। विचार
करना बंद कर दो।
शब्दों को छोड़ो; पहले गाय बनो।
गायों के साथ रहो, उन्हें प्रेम
करो, और वैसे
ही मौन हो जाओ।
जैसे गायें मौन
है। जब गायें के
साथ रहो, उन्हें
प्रेम करो,
और वैसे ही मौन
हो जाओ जैसे गायें
मौन है। और जब गायें
एक हजार हो जाएं
तब वापस आ जाना।’
श्वेतकेतु
चार सौ गायों को
लेकर जंगल चला
गया। वहां सोचविचार
का कोई उपयोग नहीं
था। वहां कोई नहीं
था। जिसके साथ
बातचीत की जा सके।
उसका चित धीरे-धीरे
गाय जैसा हो गया।
वह वृक्षों के
नीचे मौन बैठा
रहता था। और ऐसे
वर्षो बीत गए, क्योंकि
वह तभी वापस जा
सकता था। जब गाएं
एक हजार हो जाएं। धीरे-धीरे
उसके मन से भाषा
विलीन हो गई। धीरे-धीरे
समाज उसके मन से
विदा हो गया। धीरे-धीरे
वह मनुष्य भी
नहीं रहा;उसकी
आंखें गायों की
आंखों जैसी हो
गई। वह गायों जैसा
ही हो गया।
और
कहानी बहुत सुंदर
है। कहानी कहती
है कि श्वेतकेतु
गिनना भूल गया।
क्योंकि अगर भाषा
विलीन हो जाए, शब्द
जाल खो जाए तो गिनना
कैसा। वह भूल गया
कि कैसे गिनती
की जाती है। वह
यह भी भूल गया कि
वापस जाना है।
और आगे की कहानी
तो और भी सुंदर
है। तब गायों ने
कि: ‘श्वेतकेतु,अब हम हजार हो
गई है। अब हम गुरु
के घर लौट चलें।
गुरु हमारी प्रतीक्षा
करते होंगे।’
श्वेतकेतु
वापस आया। और गुरु
ने दूसरे शिष्यों
से कहा: ‘गायों
की गिनती करो।’ गायों की गिनती
की गई। और शिष्यों
ने गुरु से कहा:
‘’एक हजार गाएं
है।‘’ गुरु ने
कहा: ‘एक हजार
नहीं, एक हजार
एक गाए है—वह एक
श्वेतकेतु है।’
श्वेतकेतु
गायों के बीच खड़ा
था—मौन,शांत; न कोई विचार था, न मन था; वह
बिलकुल गाय की
भांति शुद्ध और
सरल और निर्दोष
हो गया था। और गुरू
ने उससे कहा: ‘तुम्हें यहां
आने की जरूरत नहीं
है, तुम अपने
पिता के घर वापस
चले जाओ। तुमने
जान लिया; घटना
घट गई। तुम अब मेरे
पास क्यों आए
हो?’
घटना
घटती है—जब चित
में जानने के लिए
कोई विषय नहीं
रहता तो तुम जानने
वाले को जानते
हो। जब मन विचारों
से खाली है, जब
एक भी लहर नहीं
है, एक भी कंपन
नहीं है, तब
तुम अकेले हो, स्वयं हो। तब
तुम्हारे अतिरिक्त
कुछ भी नहीं हो।
एक आत्म–प्रकाश
घटित होता है।
आत्मबोध घटित
होता है।
यह
सूत्र आधार भूत
सूत्रों में एक
है। इसे प्रयोग
करो। प्रयोग कठिन
है। क्योंकि विचार
करने की आदत, विषयों
से चिपकने की आदत, देखे जा सकने
वाले और पकड़े
जा सकने वाले विषयों
की आदत इतनी गहरी
है कि उससे मुक्त
होने के लिए, विषयों में विचारों
में फिर ग्रस्त
न होकर मात्र साक्षी हो
जाने के लिए, नेति-नेति कह
कर सब को हटा देने
के लिए बहुत समय
और सतत श्रम की
जरूरत होगी।
उपनिषदों
की समस्त विधि
का सार निचोड़
इन दो शब्दों
में निहित है: ‘नेति-नेति।
यह भी नहीं, यह भी नहीं। जो
भी मन के सामने
आए उसे कहो। यह
भी नहीं। यह कहते
जाओ और मन के सारे
फर्नीचर को बाहर
फेंकते जाओ। हटाते
जाओ। कमरे को खाली
कर देना है। बिलकुल
खाली कर देना है।
उसी खालीपन में
घटना घटती है।’
अगर
कुछ भी रह जाएगा
तो तुम उससे प्रभावित
होते रहोगे। और
तब तुम अपने को
नहीं जान सकोगे।
तुम्हारी निर्दोषता
विषयों में खो
जाती है। विचारों
से भरा मन बाहर
भटकता रहता है।
तब तुम स्वयं
से नहीं जुड़ सकते।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-चार
प्रवचन-59
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