न कोई है न छौर
है उसका,
केवल एक
गति भर है,
जो एक
सम्मोहन बन
कर छाई है।
हर और
जहां-तहां,
चर-अचर, उस
बिंदू के छोर
तक।
बन कर एक
उदासी
जो
आभा की तरह
चमकती है,
और
एक गहन तमस का
बनती है उन्माद।
ये
कोई प्रलाप के
बादल नहीं है ‘’प्रिय’’,
केवल
मन का छलावा
मात्र है,
जो
न भाषते हुए
भी भाषता है।
फैलने
दो चेतना के
सागर को,
तोड़
दो सारे बंधन,
किसी
नाते या अहम दीवारों
न जकड़ा है
जिन्हें
खूद
अपने होने ही
का नाम है—‘’पूर्णता’’।
एक
आनंद। न होने का।
स्वामी
आनंद प्रसाद ‘मनसा’
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