पहला प्रश्न—
मेरी समझ
में कुछ नहीं
आता। कभी लगता
है कि पूछना
क्या है, सब
ठीक है; और
कभी प्रश्न ही
प्रश्न सामने
होते हैं।
समझ की बहुत
बात भी नहीं।
समझने का बहुत
सवाल भी नहीं।
जो समझने में
ही उलझा रहेगा, नासमझ
ही बना रहेगा।
जीवन कुछ
जीने की बात
है, स्वाद लेने
की बात है।
समझ का अर्थ
ही होता है कि
हम बिना स्वाद
लिए समझने की
चेष्टा में
लगे हैं,
बिना
जीए समझने की
चेष्टा में
लगे हैं। बिना
भोजन किए भूख
न मिटेगी।
समझने से कब
किसकी भूख
मिटी? और भूख मिट
जाए तो समझने
की चिंता कौन
करता है!
आदमी ने एक
बड़ी बुनियादी
भूल सीख ली है—वह
है, जीवन को समझ
के द्वारा
भरने का। जीवन
कभी समझ से
भरता नहीं; धोखा
पैदा होता है।
प्रेम करो
तो प्रेम को
जानोगे।
प्रार्थना
करो तो
प्रार्थना को
जानोगे।
अहंकार की
सीढ़िया थोड़ी
उतरो तो
निरहंकार को जानोगे।
लेकिन तुम
कहते हो,
पहले हम
समझेंगे। तुम
कहते हो,
हम पानी
में उतरेंगे न, जब
तक हम तैरना
समझ न लें। अब
तैरने को
समझकर कोई
पानी में
उतरेगा तो कभी
उतर ही न
पाएगा। तैरना
तो तैरकर ही
समझा जाता है।
इसलिए पहली
बार तो बिना
तैरना जाने ही
पानी में
उतरना जरूरी
है। खतरा है।
पर जो खतरा
मोल लेते है
वे ही समझ के
मोतियों को
निकाल लाते
हैं। तुम बिना
खतरा लिए
समझने की
कोशिश कर रहे
हो। तुम चाहते
तो सब हो कि
समझ में आ जाए, हाथ
न जलें। तुम
दूर खड़े रहो, समझ
की संपदा
तुम्हारे पास
आ जाए, तुम्हें
कदम न उठाना
पड़े।
तुम शब्दों—शब्दों
से अपने को भर
लेना चाहते हो—वही
चूक हो रही है।
इसलिए तुम
प्रश्न पूछने
में डरते भी
हो। क्योंकि
प्रश्न पूछने
का अर्थ ही
होता है : उत्तर
की खोज में
जाना होगा।
उत्तर कोई
मुफ्त नहीं
मिलते हैं; मिलते
होते, सभी को मिल
गए होते।
उत्तर ऐसे ही
कहीं किताबों
में बंद नहीं
रखे हैं कि
तुमने खोले और' पा
लिए। उत्तर तो
जीवन की कशमकश
में, जीवन के
संघर्ष में
उत्पन्न होते
हैं। उत्तर
कोई रेडीमेड
नहीं हैं कि
तुम गए और प्राप्त
कर लिए। कोई
दूसरा तो
तुम्हें दे ही
नहीं सकता—तुम्हीं
खोजोगे।
दूसरे से इतना
ही हो जाए कि
तुम्हारे
भीतर यह खयाल
आ जाए कि बिना
खोजे न मिलेगा—तो
काफी। दूसरे
से इतनी प्यास
पैदा हो जाए
कि खोजना पड़ेगा, अपने
को दाव पर
लगाना पड़ेगा—तो
बस..।
बुद्ध
पुरुषों से
प्यास मिलती
है। बुद्ध
पुरुषों से
उत्तर नहीं
मिलते, प्रश्न
करने की
क्षमता मिलती
है। बुद्ध
पुरुषों से
प्रश्नों के
हल नहीं होते, प्रश्नों
को हल करने के
लिए जीवन को
दाव पर लगाने
का अभियान
मिलता है।
इतना बात भर
तुम्हारी समझ
में आ जाए कि
समझने से कुछ
न होगा, तो समझ का
काम पूरा हुआ।
अन्यथा जब
पूछने को
सोचोगे तो कुछ
पूछने जैसा
खयाल में न
आएगा, पूछने को
क्या है?
बुद्धि
कहेगी, सब ठीक है।
सब ठीक से काम
मत चलाना। सब
ठीक भी कुछ
ठीक हुआ?
सब ठीक
तो बड़े बुझे
मन की दशा है।
कुछ भी ठीक
नहीं है। सब
ठीक तो तुम
कहते हो तभी, जब
कुछ भी ठीक
नहीं होता और
उसे तुम देखना
भी नहीं चाहते, लीप—पोत
लेते हो,
ढांक
लेते हो।
जब कोई
तुमसे पूछता है, कैसे
हो? कहते हो, सब
ठीक है। कभी
गौर किया, इस
सब ठीक के
नीचे कितना
गैर—ठीक दबा
है? औपचारिक है।
इसलिए जब तुम
पूछने को
उठोगे, पाओगे, पूछने
को कुछ मालूम
नहीं होता, सब
ठीक है। लेकिन
कुछ भी ठीक
नहीं है। और
हजार—हजार
प्रश्न
तुम्हारे
भीतर पल रहे
हैं।
स्वाभाविक है
कि प्रश्न पले; प्रश्नों
के बिना कौन
जीवन के सागर
में उतरा!
स्वाभाविक है
कि जिज्ञासा
तुम्हारे
भीतर घर बनाए, जिज्ञासा
की पीड़ा जन्मे, जिज्ञासा
तुम्हें
विक्षिप्त
बना दे कि जब
तक तुम सत्य
को पा न लो, संतोष
न करो।
फिर से
तुमसे कहूं :
पूछने में तुम
डरते हो,
क्योंकि
चलना पड़ेगा।
इसे तुम भी
भलीभांति
जानते हो।
लेकिन तुम गजब
के होशियार हो
अपने को धोखा
देने में!
इसलिए पूछते
भी नहीं,
प्रश्न
भी भीतर खड़े
हैं, मिटते भी
नहीं।
मिटेंगे कैसे? कौन
मिटा देगा? जीवन
तुम्हारा है, प्रश्न
तुम्हारे हैं।
उत्तर भी
तुम्हारे
होंगे, समाधान भी
तुम्हारा
होगा। कंठ
तुम्हारा
प्यासा है, मेरे
उत्तर से क्या
होगा हल!
तुम्हें
सरोवर खोजना
पड़ेगा।
ज्यादा से
ज्यादा इतना
कह सकता हूं
इसी राह मैं
भी चला था, घबड़ाना
मत। कितनी ही
प्यास बढ़ जाए, निराश
मत होना—सरोवर
है। इतनी
आस्था
तुम्हें दे
सकता हूं।
जो उत्तर
मैं तुम्हें
दे रहा हूं वे
प्रश्नों के उत्तर
नहीं हैं, सिर्फ
तुम्हारी
कमजोर हिम्मत
न हो जाए,
तुम
हिम्मतपस्त न
हो जाओ। राह
लंबी है,
सरोवर
दूर है; मुफ्त नहीं
मिलता; बड़ा
कंटकाकीर्ण
मार्ग है, भटक
जाने की
ज्यादा
संभावनाएं
हैं पहुंच जाने
की बजाय। करीब—करीब
आ गए लोग भी
भटक गए हैं; पहुंचते—पहुंचते
गलत राह पकड़
ली है; पहुंच ही गए
थे कि पड़ाव
डाल दिया। दो
कदम बाद सरोवर
था कि थक गए और
सोचा कि मंजिल
आ गई; आंख बंद कर
ली और सपने
देखने लगे।
इतना ही तुमसे
कह सकता हूं
कि सरोवर है
और सरोवर को
पाने का
तुम्हारा
जन्म—सिद्ध अधिकार
है। पर खोजे
बिना यह न
होगा।
और खोज से
इतना डर क्यों
लगता है?
क्योंकि
खोज का अर्थ
ही होता है :
अनजाने रास्तों
पर यात्रा
करनी होगी।
खोज का अर्थ
ही होता है :
नक्शे नहीं
हैं हाथ में, नहीं
तो नक्शो के
सहारे चल लेते; राह
पर मील के
पत्थर नहीं
लगे हैं,
नहीं तो
उनके सहारे चल
लेते। खोज
जटिल है इसलिए
कि तुम चलते
हो, तुम्हारे
चलने से ही
रास्ता बनता
है। रास्ता
पहले से तैयार
नहीं है।
राजपथ नहीं है
जिस पर भीड़
चली जाए।
इसलिए
तुमसे कहता
हूं : धर्म
वैयक्तिक है।
संप्रदाय
तुम्हें धोखा
देता है राजपथ
का। हिंदू चले
जा रहे हैं, मुसलमान
चले जा रहे
हैं, तुम भी साथ—संग
हो लिए, बड़ी भीड़ जा
रही है! लेकिन
जो भी पहुंचा
है, अकेला
पहुंचा है; याद
रखना, भीड़ कभी
पहुंची नहीं।
जो भी पहुंचा
है, नितांत एकांत
में पहुंचा है।
जो भी पहुंचा
है, इतना अकेला
पहुंचा है कि
खुद भी अपने
साथ न था उन पहुंचने
के क्षणों में।
इतनी शून्य
एकांत की दशा
में कोई
पहुंचा है कि
खुद भी न था
मौजूद; दूसरे की तो
बात और। दूसरे
की तो जगह ही न
थी, अपने लिए भी
जगह नहीं।
जब खोजते—खोजते
तुम खो जाओगे, तब
खोज पूरी होती
है। जब खोजते—
खोजते तुम भूल
ही जाओगे कि
तुम भी हो, किसी
क्षण में, किसी
ऐसे विराट
क्षण में, जब
तुम भी
तुम्हारे साथ
नहीं होते, उसी
क्षण
परमात्मा बरस
उठता है। फिर
तो नामों के
भेद हैं—परमात्मा
कहो, मोक्ष कहो, निर्वाण
कहो, कैवल्य कहो, या
कुछ भी न कहो।
एक बात लेकिन
सच है और
पक्की है कि
तुम नहीं होते।
सारा काम
मिटने का है।
सारी कला
मिटने की है।
दीप का
जलना, चमकना गेह
का
शलभ का
मरना, नमूना नेह
का
बस दो बात
खयाल रखनी
जरूरी हैं :
दीप का
जलना, चमकना गेह
का
जैसे—जैसे
दीप जलता है, वैसे—वैसे
घर रोशन होता
है। जैसे—जैसे
तुम जलोगे
पीड़ा में, विरह
में, खोज में, वैसे
ही वैसे
तुम्हारा
भीतर का घर
रोशन होने
लगेगा।
तुम्हारी जलन
में ही ज्योति
छिपी है।
ऐसे सुविधा
से बैठे—बैठे, सब
तरफ सुरक्षा
से घिरे—घिरे, कदम
भी न उठाने
पड़े और मंजिल
पास आ जाए—तुम
थोड़ा जरूरत से
ज्यादा मल रहे
हो, तुम
पात्रता के
बिना मांग रहे
हो। मंजिल आती
है जरूर,
सारा
आकाश तुम्हें
घेर लेता है।
परमात्मा तुम
में उतर आता
है जरूर,
लेकिन
तुम खोजो तो।
उतनी पहली
शर्त तो पूरी
करो।
दीप का
जलना, चमकना गेह
का
दीप जलता
है तो घर में
रोशनी होती है, तुम
जलोगे तो
तुम्हारे
भीतर के गृह
में रोशनी
होगी। अहंकार
को ऐसे ही जलाना
है जैसे दीप
की बाती जलती
है।
शलभ का
मरना, नमूना नेह
का
और जब
परवाना मर
जाता है तो
प्रेम का जन्म
होता है। दीप
जलता है तो
प्रकाश;
जब
अहंकार जलता
है, तुम जब जलते
हो, तो रोशनी।
और तुम जब
बिलकुल मिट
जाते हो,
खो जाते
हो, तो प्रेम, प्रभु, परमात्मा!
प्रश्नों
के उत्तर नहीं
हैं, समाधान हैं।
समाधान का
अर्थ है : तुम
समाधि को
पहुंचोगे तो।
मैं
तुम्हें इतने
उत्तर देता
हूं भूलकर भी
यह मत सोचना
कि कोई उत्तर
तुम्हारे काम
आ जाएगा। तुम
पूछते हो, मैं
देता हूं न
दूं तुम बुरा
मानोगे;
न दूं तो
तुम मेरे पास
रहने का कारण भी
न पाओगे। मैं
यहां चुप बैठा
रहूं तुम विदा
हो जाओगे। मैं
जो उत्तर दे
रहा हूं वे
केवल तुम्हें
थोड़ी देर और
अटकाए रखने को
हैं; थोड़ी देर और
तुम पास बने
रहो; थोड़ी देर और
तुम इन प्रश्न—उत्तर
के खिलौनों से
खेलते रहो।
शायद यह समय
का बीतना ही
तुम्हारे बोध
के जन्म के
लिए कारण बन
जाए। शायद
खिलौनों से
खेलते—खेलते, प्रश्न
पूछते—पूछते, उत्तर
लेते—लेते, तुम्हें
भी दिखाई पड़
जाए कि कितने
प्रश्न पूछे
हैं, कितने
उत्तर पाए हैं, प्रश्न
तो वहीं का
वहीं खड़ा है, उत्तर
तो कोई मिला
नहीं। तो शायद
एक ऐसी घड़ी
बोध की धीरे—धीरे
परिपक्वता
में आ जाए कि
तुम इन प्रश्न—उत्तर
के खिलौनों को
छोड़ दो, आंख खोलो और
जीवन की दिशा
में—बुद्धिमात्र
से नहीं,
अपनी
समग्रता से—अभियान
पर निकल जाओ।
मेरे उत्तर
तुम्हारे काम
नहीं पड़ेंगे, यह
जानकर
तुम्हें
उत्तर दे रहा
हूं। जिस दिन
तुम्हें भी यह
समझ में आ
जाएगा कि किसी
और के उत्तर
किसी दूसरे के
काम नहीं पड़
सकते, उसी दिन
यात्रा शुरू
होगी। यह
प्रश्न—उत्तर
तो यात्रा के
पहले की चर्चा
है। यह तो
तुम्हें
उलझाए रखने के
लिए हैं। यह
तो कि तुम
कहीं उदास न
हो जाओ, कहीं
तुम्हारी
आस्था खो न
जाए! जैसे रात
अंधेरी हो और
हम कहानियां
कहते हैं रात
गुजार देने को।
मुझे पता
है, सुबह करीब
है; तुम कहीं सो
न जाओ, इसलिए
कहानी कह रहा
हूं। तुम जागे
रहो तो सुबह
तुम्हारी आंखों
को भर
देगी। तुम
जागे—जागे एक
बार सुबह को
देख लोगे तो
तुम भी सुबह हो
जाओगे। रात
लंबी है। सो
जाने का खतरा
है। तुम्हें
जगाए रखने की
कोशिश कर रहा
हूं।
ये सारे
प्रश्न—उत्तर, प्रश्न—उत्तर
नहीं हैं।
तुम्हारी तरफ
से तुम प्रश्न
पूछते हो; मैं
जो तुम्हें
उत्तर देता
हूं वह भी तुम
सोच लेते हो, उत्तर
होगा। मेरी
तरफ से :
क्योंकि तुम
तैयार नहीं हो
जीवंत यात्रा
पर जाने के
लिए, तुम अभी बुद्धि
में ही उलझे
हो, इसलिए
बुद्धि को
थोड़ी बात कर
लेता हूं।
मेरे पास
लोग आ जाते
हैं। वे कहते
हैं कि आप जब
बोलते हैं तब
तो बड़ा आनंद आता
है, लेकिन
ध्यान करने
में नहीं आता।
मैं उनसे कहता
हूं फिक्र
छोड़ो ध्यान की, तुम
अभी सुने ही
चलो। और सारी
चेष्टा यह है
कि तुम किसी
दिन ध्यान करो।
लेकिन और थोड़ी
देर सुनो, शायद
सुनते—सुनते
किसी दिन मन
में यह खयाल
आने लगे कि
चलो, ध्यान भी
करके देखें।
मेरे पास
लोग आते हैं।
वे कहते हैं
कि सुनते हैं
आपको, पढ़ते हैं, लेकिन
संन्यास का
कोई भाव नहीं
उठता। मैं
कहता हूं
फिक्र छोड़ो
संन्यास की।
हालांकि
सुनना—समझना
सब इसलिए है
किसी दिन तुम
इतनी गहनता से
यात्रा पर
निकलो कि अपने
पूरे जीवन को
रंग लेने की
तैयारी हो।
यह गैरिक
रंग वस्त्रों
का ही नहीं है।
यह गैरिक रंग
तो प्रतीक है
कि तुम अपने
पूरे, —पूरे
प्राणों कौं
रंगने को
तैयार हो गए
हो; कि तुम पागल
होने को तैयार
हुए हो; कि अब
दुनिया हंसेगी
तो तुम सहने
को तैयार हुए
हो; कि अब लोग
समझेंगे कि
कुछ तुम्हारा
मस्तिष्क गड़बड़
हुआ तो तुम इस
पर भी हंसने
को तैयार हो।
यह तो सिर्फ
इस बात का
सूचक है कि अब
तुम चिंता न
करोगे कि
लोकमत क्या
कहता है,
लोग
क्या कहते हैं।
क्योंकि
जिसने फिक्र
छोडी कि लोग
क्या कहते हैं, वही
केवल रास्ते
पर चला है। और
जिसने चिंता
रखी इस बात की
कि लोग क्या
कहते हैं, वह
लोगों के
हिसाब से ही
चलता रहा।
लोगों के
हिसाब से अगर
सत्य का
रास्ता बनता होता
तो सभी पहुंच
गए होते।
भीड़
निर्णायक
नहीं है;
व्यक्ति
निर्णायक है।
लेकिन मैं
उनसे कहता हूं
र कोई फिक्र
नहीं, छोड़ो
संन्यास की
बात, सुनते चलो।
पास रहते—रहते
शायद बीमारी
लग जाए। सत्य
संक्रामक है।
दूसरा
प्रश्न
समयातीत की
धारा को भगवान
बुद्ध ने
मुहूर्तभर
कहा है और
आपने उसी को
वर्तमान कहा।
यह मेरी समझ
में भी आता है, फिर
भी समझ के
बाहर रह जाता
है। लेकिन इस
अल्प समझ से
ही जो आनंद
आता है, उससे
मैं कृतज्ञता
के भाव से भर
जाता हूं।
भगवान, मैं
आपकी शरण आता
हूं।
जिन्होंने
भी जाना, जो भी जागे, उन
सभी ने एक बात
तो सुनिश्चित
रूप से कही है
कि सत्य समय
की धारा के
बाहर है।
समयतीत है।
कलातीत है।
संसार है समय
के भीतर—या
यूं कहो कि जो
समय के भीतर
है वही संसार
है; जो समय के
बाहर है वही
मोक्ष है।
इसकी तुम
अपने जीवन में
थोड़ी— थोड़ी
झलकें कभी—कभी
जुटा सकते हो।
सोचो : जब दुखी
होते हो तो
समय लंबा
मालूम होता है।
जब कोई पीड़ा
सघन हो जाती
है और प्राण
किसी दुख में
तड़पते हैं, समय
लंबा हो जाता
है। घड़ी की
चाल तो वही
होती है। घड़ी
कोई तुम्हारे
दुख—सुख को
नहीं देखती।
घड़ी को
तुम्हारे दुख—सुख
का कोई पता
नहीं है। घड़ी
तो अपनी चाल
से चलती है, लेकिन
घंटा ऐसे
बीतता है, जैसे
सदियां बीत रही
हैं। जिसने
दुख जाना है
उसने समय की
लंबाई जानी है; समय
बड़ा लंबा होता
जाता है। कोई
मरणासन्न है
प्रियजन और
रात तुम उसकी
खाट के पास
बैठे हो;
रात ऐसी
लंबी हो जाती
है कि कई बार
मन में होने लगता
है : यह रात
समाप्त होगी, न
होगी? सुबह होगी, न
होगी?
फिर तुमने सुख
के क्षण भी
जाने हैं। सुख
के क्षण जल्दी
भागते हैं, उनमें
पंख लग जाते
हैं, वे उड़े—उड़े
जाते हैं। दुख
के क्षण
घसिटते हैं, जैसे
लंगड़ा आदमी
घसिटता है।
सुख के क्षणों
में पंख लग
जाते हैं, भागते
हैं, उड़ते हैं; घड़ी
तेज चलती
मालूम होने
लगती है। कोई
प्रियजन घर में
आ 'गया है, घड़ी ऐसे
बीत जाती है
जैसे पल बीत
गया।
सुख में
समय छोटा हो
जाता है;
दुख में
बड़ा हो जाता
है; आनंद में
शून्य हो जाता
है—होता ही
नहीं। अगर कभी
तुमने आनंद का
क्षण जाना है
या कभी जानोगे, तो
तुम एक बात
पाओगे कि समय
ठहर जाता है, घड़ी
रुक जाती है।
सब ठहर जाता
है। अचानक
सारा
अस्तित्व ठहर
जाता है। इधर
म मन ठहरा कि वहां
समय ठहरा।
मन और समय
एक ही चीज के
दो नाम हैं।
दुख में मन
घसिटता है, इसलिए
समय घसिटता
मालूम होता है।
दुख में मन
बेमन से
जाता है,
जाना
नहीं चाहता।
जैसे कोई कसाई
गाय को बांधकर
कसाई—घर
की तरफ ले
जाता है—घसिटती
है गाय, जाना नहीं
चाहती, अटका—अटका
लेती है पैसे
को, जबरदस्ती
घसिटना पड़ता
है—ऐसे ही दुख
में मन जाना
नहीं चाहता, दुख
से बचना चाहता
है, भाग जाना
चाहता है। दुख
कसाई—घर जैसा
मालूम होता है।
दुख में कहीं
छिपी मौत
मालूम होती है, समय
लंबा हो जाता
है। मन ठिठकता
है, झिझकता है, जाना
नहीं चाहता, रुकता
है, लंगड़ता है, तो
समय भी
लंगड़ाने लगता
है; क्योंकि
समय मन का ही
दूसरा नाम है।
जब तुम सुख
में होते हो, तुम
नाचते चलते हो, गीत
गाते चलते हो, तुम
गुनगुनाते
चलते हो। तुम
दौड़कर चलते हो, समय
भी दौड़ने लगता
है, समय भी पंख
लगा लेता है।
समय यानी
तुम्हारा मन।
और जब तुम
आनंद में होते
हो तो मन
शून्य हो जाता
है। मन होता
ही नहीं,
तभी तुम
आनंद में होते
हो। कोई विचार
की तरंग नहीं
होती, झील बिलकुल
चुप हो जाती
है, कोई लहर आती
न जाती, मन ठहर जाता 'है—जैसे
बुद्ध बैठे
हों बोधिवृक्ष
के नीचे,
ऐसा सब
ठहर जाता है।
उस ठहरेपन में
अचानक तुम
पाते हो,
समय भी
ठहर गया।
और समय की
यह ठहरी दशा
ही समाधि है।
समय की यह
ठहरी दशा ही
सम्यकत्व है।
समय की यह
ठहरी दशा ही
सदबुद्धि का
जन्म है। समय
की इस ठहरी
दशा में ही
शाश्वत
तुम्हारी तरफ
आता है; तुम कहीं
नहीं जाते; तुम
ठहर गए होते
हो; आकाश तुम
में झांकता है; परमात्मा
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देता है।
मुहूर्त का
अर्थ क्या
होता है?
मुहूर्त
का अर्थ होता
है : दो क्षणों
के बीच का अंतराल।
मुहूर्त कोई
समय की धारा
का अंग नहीं
है। समय का एक
क्षण गया, दूसरा
क्षण आ रहा है, इन
दोनों के बीच
में जो बड़ी
पतली संकरी
राह है—मुहूर्त।
शब्द फिर
विकृत हुआ। अब
तो लोग कहते
हैं, उसका उपयोग
ही तभी करते
हैं, जब उन्हें
यात्रा पर
जाना हो,
विवाह
करना हो,
शादी
करनी हो,
तो वे
कहते हैं, शुभ
मुहूर्त। उसे
वे पंडित से
पूछने जाते हैं
कि शुभ
मुहूर्त कौन
सा है। लेकिन
यह शब्द बड़ा
अदभुत है।
शुभ
मुहूर्त का
अर्थ होता है :
कोई भी यात्रा
शुरू करना, कोई
भी यात्रा—वह
विवाह की हो, प्रेम
की हो, काम—धंधे की
हों—शुरू करते
वक्त मन रुक
जाए, ऐसी दशा में
शुरू करना। मन
से शुरू मत
करना, अन्यथा
कष्ट पाओगे, भटक
जाओगे। अ—मन
की अवस्था में
करना, शून्य से
शुरू करना, तो
शुभ ही शुभ
होगा, मंगल ही
मंगल होगा।
क्योंकि
शून्य से जब
तुम शुरू
करोगे, तो तुम शुरू
न करोगे
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर शुरू
करेगा।
शुभ
मुहूर्त का
अर्थ बड़ा
अदभुत है!
उसको ज्योतिषी
से पूछने की
जरूरत नहीं है।
ज्योतिषी से
उसका कोई
संबंध नहीं है।
उसका संबंध
अंतर—अवस्था
से है, अंतर—ध्यान
से है। कोई भी
काम करने के
पहले, कामना से न
हो, अत्यंत शांत
मौन अवस्था से
हो, ध्यान से हो।
थोड़ा सोचो
अगर तुम्हारा
प्रेम किसी
स्त्री से है
या किसी पुरुष
से है, ध्यान की
अवस्था से
शुरू हो,
तो
तुम्हारे
जीवन में ऐसे
फूल लगेंगे, तुम्हारा
संग—साथ ऐसा
गहरा होगा, तुम्हारा
संग—साथ ऐसा
हो जाएगा कि
दो न बचेंगे, एक
हो जाओगे।
कामवासना की
उथल—पुथल में
तुम्हारी
प्रेम की
यात्रा शुरू
होती है,
नरक में
बीज पड़ते हैं—और
बड़ा नरक उससे
निकलता है।
प्रेम की
यात्रा भी
ध्यान से शुरू
हो तो शुभ मुहूर्त
में शुरू हुई।
किसी से
मित्रता
मुहूर्त में
हो, शुभ
मुहूर्त में
हो, ध्यान के
क्षण में हो, तो
यह मित्रता
टिकेगी,
यह
पारगामी होगी, यह
परलोक तक
जाएगी। यह
मित्रता
टूटेगी न।
संसार के
झंझावात इसे
मिटा न पाएंगे।
तूफान आकर इसे
और सुदृढ़ कर
जाएंगे,
क्योंकि
इसकी गहराई
इतनी है,
इसकी
जड़ें इतनी
गहरी हैं, ध्यान
से उठी हैं।
तो पूरब के
लोगों ने धीरे—धीरे
यह
रहस्यपूर्ण
राज खोज लिया
था कि अगर तुम
निर्विचार
अवस्था में
कोई काम शुरू
करो तो आशीर्वाद
ही आशीर्वाद
उपलब्ध होते
हैं। वह बात
तो खो गई।
मुहूर्त का
अर्थ ही खो
गया।
मुहूर्त बड़ा अनूठा शब्द
है। समय के दो
क्षणों के बीच
में जो
समयातीत जरा सी
झलक है, वही
मुहूर्त है।
मुहूर्त समय
का कोई नाप—जोख
नहीं है,
समय के
बाहर की झलक
है। जैसे
क्षणभर को
बादल हट गए
हों और
तुम्हें चांद दिखाई
पड़ा, फिर बादल
इकट्ठे हो गए—ऐसे
क्षणभर को
तुम्हारे
विचार हट गए
और तुम स्वयं
को दिखाई पड़े, भीतर
की रोशनी
अनुभव हुई।
उसी रोशनी में
पहला कदम उठे
तो यात्रा शुभ
हुई—वह कोई भी
यात्रा हो—उस
यात्रा में
फिर
दुर्घटनाएं न
होंगी। उस
यात्रा में
दुर्घटनाएं
भी होंगी तो
भी सौभाग्य
सिद्ध होंगी।
उस यात्रा में
अभिशाप भी
मिलेंगे तो
आशीर्वाद बन
जाएंगे;
तुम ठीक—ठीक
क्षण में चले!
लोग बीज
बोते हैं, किसान
खेत में बीज
बोता है,
तो शुभ
मुहूर्त की
प्रतीक्षा
में। अब तो
वैज्ञानिक भी
कहते हैं कि
बीज भी तुम्हारी
भाव—दशा से
अनुप्राणित
होता है।
तुमने ऐसे ही
लापरवाही से
बो दिया तो
तुम्हारी
लापरवाही के
निशान बन
जाएंगे।
तुमने बड़े
प्रेम से बोया
तो तुम्हारे
प्रेम के
निशान बन
जाएंगे। अब तो
वैज्ञानिक भी
कहते हैं कि
प्रेम से बोए गए
बीज जल्दी
पौधे बन जाते
हैं। ऐसे ही
उपेक्षा से
बोए गए बीज
जल्दी पौधे
नहीं बनते :
क्या जल्दी है? किसको
प्रसन्न करना
है? घृणा से बोए
गए बीज अपंग
रह जाते हैं, पौधे
जराजीर्ण
होते हैं।
अहोभाव से बोए
गए बीज अनुभव
करते हैं
तुम्हारे
प्रेम को भी।
और शुभ
मुहूर्त में
बोए गए, अर्थात
ध्यान के क्षण
में बोए गए, तब
यह अन्न भी इन
बीजों से पैदा
होगा तो
ब्रह्म होगा।
धीरे—धीरे
बड़ी प्राचीन
प्रतीतियां
भी वैज्ञानिक
आधार लेती
जाती हैं। अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
भोजन बनाने
वाले व्यक्ति
की मनस दशा पर
भोजन का
गुणधर्म तय
होता है। इस
देश में तो हम
सिर्फ
ब्राह्मण से
भोजन बनवाते
थे। ब्राह्मण
का अर्थ है :
जिसने ध्यान
का रस जाना हो, जिसने
मुहूर्त देखे
हों। उसका कोई
अर्थ ब्राह्मण
घर में पैदा
होने से नहीं
है एक पावनता, एक
पवित्रता से
है। ब्राह्मण
भोजन बनाए, इसका
अर्थ यह है कि
ध्यान से भोजन
का कुछ संबंध
जुड़ जाए,
तो तुम
एक और ही
तृप्ति पाओगे
उस भोजन से। उससे
शरीर ही पुष्ट
न होगा, उससे
तुम्हारी
आत्मा को भी
बल मिलेगा।
प्रेम से कोई
भोजन बनाए, अहोभाव
और आनंद से और
उत्सव से कोई
भोजन बनाए, गृहणी
गीत
गुनगुनाते, भजन
गाते हुए भोजन
बनाए, तो इस भोजन
में हजार
चीजें और बढ़
जाएंगी जो भोजन
की नहीं हैं, जिनका
कोई संबंध भोजन
से नहीं है।
यह तुम्हें
बड़े गहरे तक
एक पोषण देगा।
यह जीवन में
एक गहरी शांति
भी लाएगा, एक
तृप्ति भी
लाएगा।
लेकिन ऐसा
अब होता नहीं
है। गृहणी
गाली देती
रहती है,
क्रोध
से भुनभुनाती
रहती है,
क्रोध
से बर्तन
पटकती रहती है, प्लेटे
टूटती रहती
हैं, उन्हीं के
बीच भोजन बनता
है। यह भोजन
ज्यादा से
ज्यादा शरीर
को भी तृप्ति
दे—दे तो बहुत, उतनी
भी आशा करनी
ठीक नहीं। इस
भोजन के साथ
रोग जा रहा है।
इस भोजन के
साथ क्रोध जा
रहा है। इस
भोजन में
लिपटी हुई गलत
रुग्ण ऊर्जा
जा रही है। यह
भोजन जहर है।
इसने अमृत का
गुणधर्म खो
दिया।
फिर इस तरह
पारस्परिक
उपद्रव बढ़ते
चले जाते हैं।
पति इस भोजन
को करेगा, बेटा
इस भोजन को
करेगा, और ये रोग
उसमें पलेंगे
और वह इन
रोगों को पत्नी
पर, मां पर
फेंकेगा। और
मां और
क्रुद्ध होगी, और
परेशान होगी, और
पत्नी और दुखी
होगी, और पीड़ित
होगी—और यह
सिलसिला दुष्टचक्र
बन जाएगा।
शुभ
मुहूर्त में
सारे काम की
शुरुआत हो।
सुबह जब सोकर
उठे कोई तो
जल्दी न करे, पहले
ध्यान का
सूत्र पकड़े, फिर
पैर बिस्तर के
बाहर निकाले; क्योंकि
बिस्तर के
बाहर पैर
निकालना एक
बड़ी यात्रा है।
अब चौबीस घंटे
फिर एक नया
दिन शुरू हुआ, फिर
नए संबंध बनेंगे, लोगों
से मिलना होगा, हजार
बातें होंगी, हजार
घटनाएं
घटेंगी—एक
क्षण डुबकी
लगा ले ध्यान
में।
इसलिए सारे
धर्मों ने कहा
है कि सुबह
उठते ही प्रार्थना—प्रार्थना
पहला कृत्य हो, ताकि
मुहूर्त सध
जाए—फिर तुम
चलो यात्रा पर, फिर
कोई हर्जा
नहीं।
फिर धर्मों
ने यह भी कहा
है कि दिन में
भी कुछ पड़ाव
बना लो; जैसे
इस्लाम ने कहा
है कि पाच बार, बार—बार
शुभ मुहूर्त
को पकड़— पकड़ लो।
तो ऐसे अगर
कोई दिन में
पाच बार नमाज
पढ़े, सच में ही
पढ़े, ऐसा दोहरा
ही न रहा हो
सिर्फ एक
उपचार को, तो
वह पाएगा
हैरान होकर कि
संसार में
रहते हुए भी
संसार में
नहीं है।
क्योंकि बार—बार
इसके पहले कि
संसार की धूल
जमे, वह फिर नहा
लेगा; इसके पहले
कि संसार का
उपद्रव उसे
घेर ले और रुग्ण
कर जाए, वह फिर ताजा
हो जाएगा, वह
फिर परमात्मा
से शक्ति ले
लेगा, फिर अपने
भीतर छुपकर एक
डुबकी लगा
लेगा, फिर
प्रभामंडित होकर, आनंदमडित
होकर वापस
संसार में लौट
आएगा।
रात सोते
वक्त फिर
ध्यान के क्षण
में ही सोना है।
फिर क्षणभर को
धागा पकड़ लो, दिन
में कई बार खो
गया होगा—उलझने
हैं, चिंताएं
हैं, हजार—हजार
परेशानियां
हैं—कई बार
धागा छूट—छूट
गया होगा, फिर
उसे पकड़ लो।
क्योंकि रात फिर
एक नई यात्रा
शुरू होती है
स्वप्नों की, निद्रा
की। फिर ध्यान
के धागे को
पकड़ लो,
फिर शुभ
मुहूर्त में
सो जाओ., ताकि रात
स्वप्नों में
भी छाया की
तरह मंडराया
रहे ध्यान, ताकि
रात तुम्हारे
अंतस्तल में
एक धारा बहती रहे
सातत्य की, ध्यान
की।
ऐसे हमने दिन
और रात सबको
ध्यान में
अनुस्यूत
किया था।
मुहूर्त
अर्थ होता है :
कुछ भी शुरू
करने के पहले
स्वयं का
स्मरण कर लेना, ताकि
हर कृत्य
आत्मस्मरण की
आधारशिला
बनने लगे। यह
भवन बनाना है
तो एक—एक ईंट
करके रखी
जाएगी। यह कोई
आकस्मिक रूप
से नहीं हो
जाएगा।
प्रभुस्मरण
की एक—एक ईंट, आत्मस्मरण
की एक—एक ईंट
रखनी पड़ेगी, तब
कहीं यह भवन
निर्मित होता
है। हर ईंट
प्रेम में
डूबी हुई हो
और हर ईंट
ध्यान के
स्वभाव में
पगी हो।
निश्चित ही, बुद्ध
ने जिसे
मुहूर्त कहा
है, उसे ही मैं
वर्तेमान कह
रहा हूं। तुम
मुहूर्त को तो
पकड़ ही न
पाओगे अगर वर्तमान
को ही न पकड़
पाए। वर्तमान
में होना ही
निर्विचार
होना है,
क्योंकि
वर्तमान में
विचार हो ही
नहीं सकते।
सोचने का अर्थ
ही होता है या
तो तुम पीछे
का सोचने लगे
या आगे का
सोचने लगे।
यहां और अभी
सोचना कैसा? इसी
क्षण में कैसे
सोचोगे?
क्या
सोचोगे?
अगर इसी
क्षण में
मौजूद हो गए
तो सिर्फ
मौजूदगी रह
जाएगी, सोचना न
रहेगा। सोचने
की तरंग तो या
तो पीछे की
तरफ जाती है
या आगे की तरफ
जाती है। अभी
और यहीं सोचने
की कोई तरंग
नहीं होती।
इसलिए
वर्तमान का
अर्थ है :
ध्यान।
चौबीस घंटे
में जितनी बार
हो सके, वापस लौट—लौटकर
अपनी मौजूदगी
को छू लेना।
और यह काम
कहीं भी हो
सकता है,
राह
चलते हो सकता
है। राह चलते
पकड़ लेना अपनी
मौजूदगी को, सोच—विचार
को झिटक देना, झटका
दे देना एक; जैसे
कोई धूल झाडू
दे राह से
चलता यात्री, ऐसे
झड़क देना मन
को थोड़ी देर
को। एक क्षण
को ही सही, लेकिन
उस एक क्षण में
ही तुम्हारे
भीतर नित—नूतन
और चिर—सनातन
ऊर्जा का
आविर्भाव हो
जाएगा। वह सदा
वहां है,
तुम
झांकते ही
नहीं।
तेरा कंदील
है तेरा दिल
तू आप है
अपनी रोशनाई
तुम
चिल्लाए चले
जाते हो,
बहुत
अंधेरा है; और
मैं देखता हूं
कि तुम्हारी
कंदील जल रही
है तुम्हारे
भीतर। मैं
देखता हूं कि
भला—चंगा
तुम्हारा
प्रकाश
तुम्हारे
भीतर मौजूद है; और
तुम चिल्लाए
चले जाते हो, अंधेरा
है। तुम भीतर
देखते ही नहीं।
क्योंकि भीतर
देखने की पहली
शर्त ही तुम
पूरी नहीं
करते। वह शर्त
है : वर्तमान
में होना। दो
क्षणों के बीच
जो अंतराल है।
क्योंकि एक
क्षण जो जा
चुका, अतीत हो गया; एक
क्षण जो अभी
आया नहीं, भविष्य
है, और दोनों के
बीच में जो
अंतराल है, वही
वर्तमान है।
और अंतराल बड़ा
संकरा है। अगर
तुम बहुत
सूक्ष्मता से
न देखोगे तो
चूक जाओगे; जैसे
तुम्हारे
चैतन्य को
खुर्दबीन
बनाना पड़ेगा; जैसे
कोई खुर्दबीन
से देखता है
तो छोटी—छोटी
चीजें भी
दिखाई पड़ती
हैं, खाली आंख से
दिखाई नहीं
पड़ती।
ध्यान के
सब प्रयोग
तुम्हारी
चेतना को
खुर्दबीन
बनाने के
प्रयोग हैं, ताकि
तुम गौर से
देख सको और
छोटी से छोटी
चीज भी दिखाई
पड़ सके।
वैज्ञानिक
अणु पर पहुंच
गए, परमाणु पर
पहुंच गए।
जैसे
वैज्ञानिक ने
सारी खोज की
है पदार्थ की और
परमाणु पर आ
गया, वैसे ही
संतों ने, योगियों
ने, रहस्य के
खोजियों ने, जिन्होंने
अंतरतम की खोज
की है, चैतन्य की
खोज की है, वे
मुहूर्त पर आ
गए, वे दो पलों
के बीच में जो
छोटा सा
अंतराल है उस पर
आ गए।
इसे
समझो। वितान
की सारी खोज
पदार्थ की खोज
है। पदार्थ
यानी स्पेस।
पदार्थ यानी
फैलाव, विस्तार, क्षेत्र।
धार्मिकों ने
सारी खोज समय
की-की है : टाइम।
समय बाहर नहीं
है, समय भीतर है।
जो बाहर है वह
क्षेत्र है।
दोनों एक हैं।
इसलिए
अल्वर्ट
आइंस्टीन ने
दोनों के लिए
एक ही शब्द
बना लिया :
स्पेसियोटाइम, समयाकाश।
दो नहीं माना।
दो हैं भी
नहीं वे।
जिसने आकाश की
तरफ से पकड़ने
की कोशिश की, वह
विज्ञान है; और
जिसने समय की
तरफ से पकड़ने
की कोशिश की, वही
योग है, वही धर्म है।
विज्ञान
खोजते—खोजते
सूक्ष्म होता
चला जाता है, परमाणु
पर आ जाता है।
धर्म खोजते—खोजते
सूक्ष्म होता
चला जाता है
और दो पलों के
बीच में जो
अंतराल है—मुहूर्त, उस
पर आ जाता है।
मुहूर्त
परमाणु का ही
पहलू है 1
परमाणु
मुहूर्त का ही
पहलू है। और
ध्यान यानी
अंतर की
खुर्दबीन।
जैसे वितान
खुर्दबीन को
बढ़ाता गया है, बनाता
गया है और
सूक्ष्म से
सूक्ष्म को
देखने की
क्षमता पैदा
करता गया है, वैसे
ही ध्यान भी, योग
भी सूक्ष्म से
सूक्ष्म को
पाने की खोज
में तल्लीन
रहा है।
'समयातीत की
धारा को भगवान
बुद्ध ने
मुहूर्त कहा
है और आपने
उसी को
वर्तमान। यह
मेरी समझ में
भी आता है, फिर
भी समझ से
बाहर रह जाता
है।'
ठीक कह रहे
हैं। उचित कह
रहे हैं। ऐसा
ही होगा।
क्योंकि यह
बात एकदम समझ
में आ जाने की
नहीं है। यह
समझ में आ
जाती है और यह
भी समझ में आ
जाता है कि
बहुत कुछ समझ
के पार रह गया।
यह बात
तुम्हारी समझ
से बड़ी है।
इसका एक कोना
ही तुम्हारी
समझ में आ जाए
तो बस काफी है।
तुम्हारी समझ
इसका स्पर्श
कर ले—स्पर्श
मात्र—तो बस
काफी है।
क्योंकि समझ
बड़ी छोटी है, बुद्धि
बड़ी छोटी है, सत्य
विराट है। यही
सौभाग्य है कि
इतना सा भी
तुम्हारी पकड़
में आता है।
अगर इतना
भी पकड़ में आ
जाता है कि
समझ में आता सा
लगता है तो
कदम
उठ गया। अब तुम
चिंता न करो, जो
समझ में नहीं
आता उसकी, वह
भी धीरे—धीरे
आ जाएगा। अब
तुम अपनी समझ
को फैलाओ। अब
तुम अपनी समझ
को बड़ा करो।
तुम्हारे आंगन
में भी आकाश
उतरा है,
अब तुम आंगन
के चारों तरफ
की दीवाल को
गिराओ। थोड़ा
सा उतरा है
आकाश, आंगन छोटा
है, आकाश का
कसूर क्या? आंगन
का भी क्या
कसूर? इतना उतर
आया, यह भी कुछ कम
चमत्कार है? आकाश
जैसी विराट
घटना
तुम्हारे
छोटे से आंगन
को भी छूती है।
अब तुम अपने आंगन
की दीवालों को
गिराने में लग
जाओ।
समझदार
इतना समझते ही
कि थोड़ी सी
बात मेरी समझ
में आ गई,
उसको
पकड़ लेता है, उसी
के सहारे लंबी
यात्रा हो
जाती है।
लाओत्सु ने
कहा है एक—एक
कदम से दस
हजार मील की
यात्रा पूरी
हो जाती है।
ज्यादा जरूरत
भी क्या है? आदमी
एक बार में एक
ही कदम चलता
है।
छोटा सा
दीया चार कदम
रोशनी फैलाता
है, उतने से
आदमी सारे
संसार के
अंधेरे को पार
कर जाता है, आगे
बढ़े, चार कदम आगे
रोशनी पड़ने
लगती है। चार
कदम दिखने
लगें, बहुत है।
'यह मेरी समझ
में भी आता है, फिर
भी समझ के
बाहर रह जाता
है।
जब भी समझ
में आता है तो
ऐसा भी समझ
में आएगा। यह
समझ का ही
अनिवार्य अंग
है कि समझ में
आता भी है—कुछ
एक पहलू एक
झलक—और समझ के
पार भी रह
जाता है। छोटा
बच्चा जैसे
अपने बाप का
हाथ पकड़े हो, अब
हाथ जरा सा
हाथ में है, पूरा
पिता तो हाथ
में नहीं है, उतना
काफी है।
मेरा थोड़ा
सा हाथ भी
तुम्हारे हाथ
में आ जाए, उतना
काफी है। जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं उसमें
से थोड़ी सी
बात भी
तुम्हारे हाथ
में आ जाए तो
बस काफी है।
उसी के सहारे
तुम धीरे—धीरे
अपनी समझ को
बड़ा करते
जाओगे।
यहीं
यात्रियों
में फर्क पड़
जाते हैं। कुछ
हैं, जो कहते हैं
कि हम पूरा न
समझ लेंगे, तब
तक हम कदम न
उठाएंगे।
धीरे—धीरे वे
पाएंगे : जो
समझ में आया
था वह भी खो
गया, अब वह भी समझ
में नहीं आता।
दूसरे वे
हैं, जो कहते हैं
कि इतना समझ
में आ गया, इसका
उपयोग करेंगे, इसको
सीढ़ी बनाएंगे, इसकी
नाव ढालेंगे, इसमें
यात्रा
करेंगे। जब
इतना समझ में
आ गया तो शेष
भी आ ही जाएगा।
ऐसे यात्री
यात्रा पर
निकल जाते हैं।
तो जो कल तक
समझ में नहीं
आता था, धीरे—धीरे
वह भी समझ में
आने लगता है।
जैसे—जैसे
तुम्हारी समझ
बड़ी होती है, वैसे—वैसे
समझ में आने
लगता है। और
अंततः जिस दिन
तुम्हारी समझ
की कोई सीमा नहीं
रह जाती,
उसी दिन
असीम समझ में
आएगा। जिस दिन
तुम आंगन की
सब दीवालें
तोड़ दोगे, गिरा
दोगे।
ध्यान रखना, गलत
पर ध्यान मत
देना। ध्यान
रखना, अभाव पर
ध्यान मत देना।
ध्यान रखना, निषेध
पर ध्यान मत
देना। जो समझ
में आ जाए
उसके लिए प्रफुल्लित
होना। जो समझ
में न आए उसके
लिए
प्रतीक्षा
करना। उलटा मत
कर लेना कि जो
समझ में नहीं
आया उसको बोझ
बना लो और जो
समझ में आए
उसे कोने में
रख दो, तो तुम कहीं
जा न पाओगे।
धीरे—धीरे तुम
पाओगे जो एक
दिन समझ में
आता मालूम पड़ता
था, वह भी जंग खा
गया, अब वह भी काम
का नहीं रहा।
ठीक दिशा में
ध्यान रखना।
यह पतझर पथ
मधुमासों का
यह संशय अथ
विश्वासों का
यह धरती रथ
आकाशों का
जब पतझर
दिखाई पड़े, तब
भी तुम मधुमास
ही देखना।
क्योंकि
मधुमास आ रहा
है।
यह पतझर पथ
मधुमासों का
जो ठीक से
देखता है, सम्यक
दृष्टि जिसे
उपलब्ध हुई है, वह
पतझर से भी
पीड़ित नहीं
होता। वह कहता
है, मधुमास आता
ही होगा।
यह पतझर पथ
मधुमासों का
एक द्वार
बंद होता है
तो वह जानता
है कि दूसरा खुलता
ही होगा।
यह संशय अथ
विश्वासों का
वह संशय
में भी छिपी
हुई विश्वास
की खोज को पकड़
लेता है।
असम्यक—दृष्टि
विश्वास से भी
संशय ही पैदा
करता है।
सम्यक—दृष्टि
संशय में भी
विश्वास के
किनारे को पकड़
लेता है।
इसे थोड़ा
समझने की
कोशिश करो। यह
तुम पर निर्भर
है। तुम खड़े
हो सकते हो
गुलाब की झाड़ी
के पास और
काटे गिन सकते
हो—काटे वहां
हैं। और अगर
तुम काटो में
बहुत उलझ जाओ, हाथ—पैर
लहूलुहान हो
जाएं, तो तुम फूल
को देख ही न
पाओगे।
क्योंकि उस
दुखद अवस्था
में कैसा फूल? फूल
सिर्फ एक
रंगीन धब्बा
मालूम पड़ेगा।
शायद उस
गुलाबी फूल
में भी
तुम्हें रक्त
का ही दर्शन
हो। क्योंकि
तुम्हारे हाथ
खून से भर गए
होंगे, और
तुम्हारी आंखें
क्रोध से भर
गई होंगी, और
तुम्हारे मन
में एक
नाराजगी होगी
कि इतने कांटे
बनाने की
जरूरत क्या
थी! और जब इतने
काटे हैं तो
तुम कैसे
भरोसा करो कि
फूल होगा।
काटो में कहीं
फूल हो सकता
है? फूल तो
फूलों में
होते है,
काटो
में कैसे
होंगे? और जिसने
इतने काटे
बनाए उसने फूल
बनाया ही न होगा।
फिर दूसरा
कोई व्यक्ति
है जो फूल को
देखता है, फूल
को छूता है; नासापुटों
को भरता है
फूल की गंध से।
और फूल में
अदृश्य के उसे
दर्शन होते हैं, झलक
मिलती उसकी, जिसको
पकड़ पाना
मुश्किल है।
एक अनूठा
सौंदर्य फूल
में उतरा है!
ऐसे व्यक्ति
को यह भरोसा
करना मुश्किल
होगा कि ऐसी
गुलाब की झाड़ी
में जहा इतने
अनूठे फूल
लगते, काटे हो
कैसे सकते
हैं! और अगर
काटे होंगे, और अगर
काटे हैं, तो
वह सोचेगा कि
जरूर वे इस
फूल की रक्षा
के लिए होंगे, जरूर
इस फूल के हित
में होंगे, उनकी
कोई जरूरत
होगी। कीटों
से भी उसकी
दुश्मनी चली
जाती है जो
फूल को देखने
लगता है;
जो काटो
को देखने लगता
है, फूल से भी
उसकी दोस्ती
हट जाती है।
देखने पर बहुत
कुछ निर्भर है।
सब कुछ निर्भर
है। दृष्टि
अर्थात
सृष्टि। तुम
कैसे देखते
हो!
यह पतझर पथ
मधुमासों का
पतझड़ में
मधुमास को
देखना। पतझड़
में वसंत के
पैरों की
पगध्वनि
सुनना। गौर से
सुनोगे,
बराबर
सुनाई पड़ेगी, क्योंकि
आ रहा वसंत।
यह पतझड़ तो
तैयारी है। यह
तो पुरानी धूल—धवांस
को झाड़ना है।
यह तो मरे—गले पत्तों
को वापस
पृथ्वी में
भेजना है। यह
तो नए पत्तों
के लिए स्थान
बनाना है।
जहा एक
पुराना पत्ता
गिर रहा है, अगर
गौर से देखोगे
तो नए को
उमगते पाओगे।
वृक्ष फिर से
नए हो रहे हैं, फिर
से हरे होने
की तैयारी कर
रहे हैं। जैसे
सांप केंचुली
से सरककर निकल
जाता है,
ऐसे
वृक्ष पुरानी
केंचुली को
छोड़ रहे हैं—उसे
तुम पतझड़ कहते
हो। वह नए
होने का
उपक्रम है।
मगर ऐसे
नासमझ भी हैं
जो वसंत में
पतझर की पगध्वनि
सुन लेते हैं।
तब वसंत का
सौंदर्य भी खो
जाता है। तब
वसंत में भी
वे रोते हैं, क्योंकि
पतझर आता होगा।
तब फूल भी
उन्हें हंसा
नहीं सकते, और
आंसुओ से भर
जाते हैं।
यह संशय अथ
विश्वासों का
तुमने जिसे
विश्वास जाना
है अब तक,
तुमने
कभी गौर किया, कहीं
तुम उसके भीतर
संशय को तो
नहीं छिपाए हो? तुम
मानते हो, ईश्वर
है—सच में
माना है,
या केवल
एक संशय था और
संशय को तुमने
छिपा दिया है?
संशय पीड़ा
देता है,
चुभता
है, खलता है।
संशय बेचैन
करता है। संशय
के साथ जीना
कठिन है। संशय
के साथ उसी
बिस्तर पर
सोना कठिन है
जिस पर तुम
सोते हो। संशय
डगमगाएगा।
संशय रात की
नींद छीन लेगा।
तो तुम कहते
हो, ईश्वर है।
लेकिन
तुम्हारे
ईश्वर है के
नीचे संशय तो
नहीं छिपा है?
जहां तक
मैं देखता हूं
अधिक
विश्वासियों
के विश्वास के
नीचे संशय की
राख है, संशय ही
संशय के ढेर
लगे हैं। उनको
उन्होंने
छिपा लिया है
विश्वास की
पर्त में।
क्योंकि इतना
साहस नहीं कि
उनका
साक्षात्कार
कर सकें और
इतना साहस
नहीं कि संशय
को जी सकें, हिम्मत
नहीं है।
इसलिए जवान
आदमी विश्वास
नहीं करता, थोड़ी
हिम्मत होती
है। का आदमी
विश्वास करने
लगता है। मौत
करीब आने लगी, अब
संशय को
ढांकने का
वक्त आ गया; अब
तो मानना ही
पड़ेगा कि
परमात्मा है।
क्योंकि मौत
करीब आती है; हो
या न हो, मान लेना
हितकर है, लाभपूर्ण
है। बूढ़ा
हिसाब लगाने
लगता है।
इसलिए मंदिर—मस्जिद
को से भरे हैं।
वहां कोई जाता
ही नहीं,
जब तक
बूढ़ा नहीं हो
जाता। वहा अगर
तुम जवान को
भी पाओगे तो
तुम गौर से देखना
वह किसी कारण
बूढ़ा हो गया
होगा, इसलिए वहा
है। अन्यथा
जवान किसलिए
वहा होंगे?
हम तो संशय
को ढांकने के
लिए ही
विश्वास का
उपयोग करते
हैं। लेकिन
सम्यक—दृष्टि
व्यक्ति अपने
संशय में भी
विश्वास को ही
खोजता हैं।
अगर
तुम्हारे
भीतर संशय
उठता है कि
ईश्वर नहीं है—यह
इसी बात का
सबूत है कि
तुम ईश्वर में
उत्सुक हो। यह
इसी बात का
सबूत है कि
तुम जानना
चाहते हो कि
ईश्वर है या
नहीं। यह इसी
बात का सबूत
है कि
तुम्हारे
भीतर खोज के
अंकुर फूट रहे
हैं।
तुम्हारा
संशय
तुम्हारे
विश्वास की
खोज है। तुम
विश्वास की
खोज कर रहे हो।
तो जो समझदार
है, वह अपने
संशय में भी
विश्वास की
पहली पगध्वनियां
सुनता है, पतझर
में भी मधुमास
का आगमन अनुभव
करता है। जो
नासमझ है, वह
अपने विश्वास
में भी संशय
को छिपाए बैठा
रहता है। उसके
मंदिर में भी
धोखे हैं; उसकी
नमाज, उसकी
प्रार्थना, इबादत
के भीतर सिवाय
भय के और कुछ
भी नहीं है।
वह लोगों से
कहता है : भय
बिन होय न
प्रीति। वह
समझाता है कि
यह तो भय से ही
हो रहा है सब।
उसका
परमात्मा भी
भय का ही
साकार रूप है।
यह धरती रथ
आकाशों का
जो ठीक—ठीक
देखने की कला
सीख लेता है, वह
संसार के
विरोध में
नहीं है—हों
नहीं सकता।
संसार में भी
जगह—जगह वह
परमात्मा के
हस्ताक्षर
पाता है। इधर
फूल खिला, उधर
उसके भीतर कोई
परमात्मा की
गंध आई। इधर
एक बच्चा
जन्मा, उधर उसके
भीतर कुछ
चैतन्य का
जन्म हुआ! इधर
एक व्यक्ति
मरा, कि उसके
भीतर यह बोध
आया कि यह सब
जो बाहर दिखाई
पड़ता है
क्षणभंगुर है!
इधर एक सम्राट
गिरा, उधर उसकी
महत्नाकांक्षा
गिरी! इस
पृथ्वी को वह
आकाश का रथ
बना लेता है।
यह धरती रथ
आकाशों का
इस पृथ्वी
के प्रति वह
ऐसा अनुभव
नहीं करता कि
निंदा, पाप, नरक, घृणा। इस
पृथ्वी पर भी
वह अनुभव करता
है कि आकाश की
यात्रा चल रही
है। निश्चित
ही पृथ्वी
आकाश में घूम
रही है।
महायान है यह।
इससे तेज यान
अभी हम नहीं
बना पाए हैं, शायद
कभी बना भी न
पाएंगे। चौबीस
घंटे सतत
अनवरत
अहर्निश यह—यान
चल रहा है, आकाश
की परिक्रमा
चल रही है।
संसार
निर्वाण की
खोज है।
पृथ्वी आकाश
की तलाश है।
पदार्थ भी
चैतन्य होने
की यात्रा पर
है। चट्टान को
भी नमस्कार
करना। कभी तुम
चट्टान थे, कभी
चट्टान भी तुम
जैसी हो जाएगी।
समय का फासला
होगा। यात्रा—पथ
वही है।
चट्टान भी उसी
क्यू में खड़ी
है जहा तुम
खड़े हो—बहुत
पीछे खड़ी
होगी...।
जीवन सतत
विकास है।
यहां विरोध
किसी चीज में
नहीं है।
दुकान भी
मंदिर
के रास्ते
पर पड़ती है।
और कामवासना
में भी प्रेम
के बीज छिपे
हैं। और प्रेम
में
प्रार्थना के
बीज छिपे हैं।
और प्रार्थना
में परमात्मा
के बीज छिपे
हैं।
स्मरण रहे
कि जीवन को एक
श्रृंखलाबद्ध
विकास की तरह
देखना है। तो
तुम्हें अगर
समझ में आ रहा
है कुछ, तो उस कुछ
में और बहुत
कुछ समझने की
संभावना छिपी
है। जो समझ
में नहीं आ
रहा, उसकी फिक्र
मत करना,
क्योंकि
वह बहुत बड़ा
है जो समझ में
नहीं आ रहा है।
अगर उसकी
तुमने चिंता
की तो तुम
घबड़ाकर बैठ जाओगे।
रास्ता दस
हजार मील का
है, तुम एक कदम
चले हो—अगर
तुमने दस हजार
मील का हिसाब
रखा, हिसाब ही
तुम्हें घबड़ा
देगा। तुम
डगमगा जाओगे।
दस हजार मील
और ये छोटे
कदम और यह
छोटी सी क्षीण
ऊर्जा! इतना
भयंकर अंधकार
और यह छोटा सा
ध्यान का
दीया! तुम
घबड़ा जाओगे।
तुम्हारी
घबड़ाहट में यह
छोटा सा दीया
भी बुझ जाएगा, तुम
बैठ ही जाओगे।
तुम फिर उठ ही
न पाओगे। यही
जड़ता है।
अगर गलत को
देख लिया तो
आदमी जड़ हो
जाता है। अगर
ठीक पर नजर
रखी, एक कदम उठा
लिया, तो उसमें
तुमने दस हजार
मील पार कर ही
लिए।
महावीर ने
कहा है : जो चल
पड़ा, वह पहुंच ही
गया।
अब यह बडी
महत्वपूर्ण
बात थी, लेकिन एक
तार्किक
विवादी
महावीर के
विरोध में खड़ा
हो गया। उसने
कहा, यह बात गलत
है।
कुछ बातें
हैं जो तर्क
के बड़े आगे
हैं, गलत—सही के
बड़े आगे हैं।
जिसने यह
विवाद किया वह
महावीर का
दामाद था खुद।
वह महावीर के
पांच सौ
संन्यासियों
को लेकर अलग
हो गया। पाच
सौ लोगों को
अलग कर सका, तो
थोड़ी तो तर्क
की प्रतिभा
रही होगी।
महावीर से तोड़
सका! और अगर
तुम भी सोचोगे
तो तुम पाओगे
कि दामाद ठीक
मालूम पड़ता है।
क्योंकि उसने
यह कहा कि तुम
कहते हो,
जो चल
पड़ा वह पहुंच
गया—यह बात
जंचती नहीं, क्योंकि
चलकर भी कोई
रुक सकता है।
चलकर भी कोई
रुक सकता है, इसलिए
पहुंचने का
क्या पक्का है? चलकर
फिर बैठ जाए।
बीज बो दिया, इससे
वृक्ष हो गया, यह
कोई पक्का
थोड़े ही है।
हो सकता है, न
भी हो।
लेकिन
महावीर कुछ और
ही बात कह रहे
थे; वे किसी
काव्य का
वक्तव्य दे
रहे थे; वे कोई तथ्य
की बात नहीं
कह रहे थे; वे
किसी बड़ी
दूरगामी दिशा
की ओर इशारा
कर रहे थे। वे
कह रहे थे, जो
चल पड़ा वह
पहुंच ही गया।
वे यह कह रहे
थे कि जिसने
एक कदम उठा
लिया, अब उसको दस
हजार मील पार
करने की
कठिनाई कहां? न
करे, उसकी मर्जी; मगर
मंजिल मिल गई।
अब यह मत कहना
कि मंजिल नहीं
मिली; बात हो गई।
तुमने एक कदम
उठा लिया तो
एक—एक कदम
उठकर तो कितनी
ही दूरी पूरी
हो जाती है।
अब तुम्हारी
मर्जी—तुम न
उठाओ, तुम बैठ जाओ, तुम
रास्ते के
पड़ाव को मंजिल
समझ लो—यह
तुम्हारी मौज।
लेकिन यह मत
कहना कि तुम
पहुंचने में
असमर्थ हो।
एक छोटी सी
बूंद में पूरा
सागर छिपा है।
एक कदम में
पूरी यात्रा
छिपी है।
तीसरा
प्रश्न—
आप अक्सर
असुरक्षा की
बात करते हैं
और मैं
सुरक्षा
ढूंढता फिरता
हूं। कृपया अपनी
असुरक्षा की
बात हमें
अच्छी तरह
समझाएं।
असुरक्षा का
इतना ही अर्थ
है कि जहा तुम
हो, वही
तुम्हारे
होने की नियति
न बन जाए। जो
तुम हो, उससे तुम
तृप्त मत हो
जाना। बहुत
आगे जाना है।
बहुत होना है।
बहुत कुछ होना
है! कहीं ऐसा न
हो कि जो तुम
हो गए हो,
तुम यह
मान लो कि यह
होने की
इतिश्री है।
मन की यह
आदत है। मन
कहता है,
पहुंच
गए! मन जैसे
मानकर ही चलता
है कि पहुंच गए।
जरा एक कदम
चलता है और
बैठ जाने की
आकांक्षा करता
है। मन बड़ा
आलसी है।
असुरक्षा
का यही अर्थ
है कि तुम
निरंतर नई जोखिम
लेते रहना, मन
को बैठने मत
देना। आकाश
बहुत बड़ा है।
तुमने जो
घोंसले बना
लिए हैं,
उनको
तुम आखिरी बात
मत समझ लेना।
बहुत दूर जाना
है। अगर तुम
ठीक से समझो
तो इस यात्रा
की कोई मंजिल
नहीं है,
यह
यात्रा ही
मंजिल है। यह
चलते जाना ही
जीवन है। ठहर
सुरक्षा यानी कब। कब से
ज्यादा
सुरक्षित तुम
कोई जगह पा
सकते हो?
लोग
जिंदा—जिंदा
अपनी कब बना
लेते हैं, सब
तरफ से
सुरक्षित कर
लेते है—न कोई
सूरज की किरण, न
कोई हवा का
झोंका, न कोई जीवन
का कष्ट,
न कोई
चुनौती,
न कोई
संघर्ष—तुम मर
गए! मरने को भी
अब क्या बचा? मौत
भी आएगी तो
पछताएगी कि इस
आदमी के पास
नाहक आना हुआ, यह
तो पहले ही मर
चुका था।
जीवंत होने
का अर्थ है :
चुनौती ताजी
रहे, रोज नए की
खोज जारी रहे।
क्योंकि नए की
खोज में ही
तुम अपने भीतर
जो छिपे हैं
स्वर, उन्हें
मुक्त कर
पाओगे। नए की
खोज में ही
तुम नए हो
पाओगे। जैसे
ही नए की खोज
बंद होती है
कि तुम पुराने
हो गए, जराजीर्ण
हो गए, खंडहर हो गए।
एक क्षण को
रुकती है नदी
की धार और
गंदी होनी शुरू
हो जाती है।
पवित्रता तो
सदा बहते रहने
का नाम है।
तभी तक धार
पवित्र और
निर्मल रहती
है जब तक बहती
रहती है। बहती
धार रहना।
पर बहती
धार में
असुरक्षा है।
नए किनारे पता
नहीं कैसे हों; नए
स्थान, पता नहीं
वृक्षों की
छाया होगी कि
न होगी; नए लोग, नई
स्थितियां, अपरिचित
हैं, अजनबी हैं, पता
नहीं उनसे हम
जीत पाएं न
जीत पाएं। यह
पुराने
दुश्मनों से
ही लड़े जाना
अच्छा है, इनसे
हम जीतने के
आदी हो चुके
हैं, अभ्यस्त हो
चुके हैं। यह
पुराने दुखों
को ही झेलते रहना
अच्छा है, इनसे
हमने पहचान
बना ली है, इनसे
अब पीड़ा भी
नहीं होती। यह
पुरानी जगह
में ही कैद
बने रहना
अच्छा है, क्योंकि
सब जाना—माना
है, डर कुछ भी
नहीं।
अनजान से
डर लगता है।
अपरिचित से भय
लगता है।
लेकिन सारी
गति अपरिचित
में है। सारी
गति अनजान में
है। वह अनजान
का नाम ही
ईश्वर है। जो
सदा अनजाना
रहेगा, जिसे तुम
जान—जानकर भी
चुका न पाओगे, जिसे
तुम जितना
जानोगे उतना
ही जानोगे कि
कुछ भी न जाना—वही
ईश्वर है।
ईश्वर कोई
व्यक्ति नहीं
है, कहीं बैठा
नहीं है। अब
तक मर गया
होता; कितना समय
हुआ बैठे—बैठे!
ईश्वर अगर कोई
व्यक्ति होता
तो कभी का मर
गया होता।
व्यक्ति तो
मरेंगे ही। थक
गया होता, ऊब
गया होता।
थोड़ा सोचो भी
उसकी
मुसीबतें।
तुम तो सोच
लेते हो,
व्यक्ति
है, आकाश में
बैठा है,
दुनिया
चला रहा है।
एक दुकान
चलाते—चलाते
तुम ऊब जाते
हो! पागल हो
गया होता।
थोड़ा सोचो, इतना
सारा उपद्रव
चलता है,
चलता ही
रहता है,
सबकी
जिम्मेवारी
उसी की!
नहीं,
ईश्वर
कोई व्यक्ति
नहीं है।
ईश्वर उस अनंत
संभावना का
नाम है जो कभी
चुकती नहीं।
ईश्वर केवल
यात्रा का नाम
है। इसलिए जो
ठहरा, वह
अधार्मिक हुआ; जो
चलता रहा, वही
धार्मिक।
बुद्ध ने
कहा है :
चरैवेति!
चरैवेति! चलते
रहो! चलते रहो! रुकना
नहीं।
सितारों से
आगे जहां और
भी हैं
अभी इश्क
के इप्तिहां
और भी हैं
कनाअत न कर
आलमे—रंगो—बू
पर
चमन और भी, आशियां
और भी हैं
जो थोड़ी सी
सुगंध फूलों
की मिली है, उस
पर संतुष्ट मत
हो जाना!
कनाअत न कर—संतोष
मत कर लेना।
आलमे—रंगो—बू
पर—इस संसार
में जो थोड़ी
सी गंध मिल गई, इसको
काफी मत समझ
लेना। यह तो
केवल संदेश है
कि और गधे
छिपी हैं। यह
तो केवल पहली
खबर है। यह तो
पहला द्वार है।
अभी तो पूरा
महल बाकी है।
और यह महल ऐसा
है, जो कभी
चुकता नहीं है।
चमन और भी, आशियां
और भी हैं
अगर खो गया
एक नशेमन तो
क्या गम
मकामाते—आहो—फुगा
और भी हैं
अगर एक घर
खो गया तो
घबड़ाना मत, बहुत
और घर हैं।
अगर एक घोंसला
गिर गया तो
घबड़ाना मत, बेचैन
मत हो जाना।
तही जिंदगी
से नहीं ये
फजाएं
ये आकाश और—और
जिंदगियों से
भरे हैं,
खाली
नहीं हैं।
तही जिंदगी
से नहीं ये
फजाएं
यहां
सैकड़ों
कारवां और भी
हैं
इस एक
यात्रा—पथ को
सब मत समझ
लेना, इस यात्री—दल
को सब मत समझ
लेना। यहां और
बहुत यात्री—दल
हैं, अनंत—अनंत
रूपों में
यात्रा चल रही
है।
तू शाही है, परवाज
है काम तेरा
तेरे सामने
आसमां और भी
हैं
तू दूर तक
उड़ जाने वाला
पक्षी है, घोंसले
बनाकर रुक मत
जाना।
तेरे सामने
आसमां और भी
हैं
इसी रोजो—शब
में उलझकर न
रह जा
इसी रात—दिन
के चक्कर में
उलझकर समाप्त
मत हो जाना।
कि तेरे
जमां—ओ—मका और
भी हैं
और बहुत
खोज बाकी है।
सितारों से
आगे जहां और
भी हैं
अभी इश्क
के इन्तिहां
और भी हैं
मैं जो
तुमसे कहता
हूं असुरक्षा
के लिए, उसका कुल
इतना प्रयोजन
है कि मन की
आदत है सुरक्षा
को बनाकर उसी
आशियां में, उसी
घर में छिप
रहने की,
सुरक्षा
की कब बना
लेने की। नए
से मन डरता है, अपरिचित
से भयभीत होता
है, अनजान से
बचता है।
इसलिए तुम
हिंदू हो तो
तुम रोज मंदिर
चले जाते हो—कभी
मस्जिद भी
जाया करो!
मस्जिद में भी
कुछ घट रहा है—एक
दूसरा यात्री—दल!
मुसलमान हो, मस्जिद
में ही मत
अटके रह जाना; मंदिर
में भी कुछ घट
रहा है—कोई और
यात्री—दल!
जीवन जितने
द्वार खोलता है, तुम
किसी एक ही
द्वार का
आग्रह मत करना।
तुम अपने
हाथों
संकीर्ण
क्यों हुए
जाते हो?
तुम
क्यों कहते हो, मैं
हिंदू हूं? क्यों
कहते हो,
मैं
मुसलमान हूं, ईसाई
हूं जैन हूं? क्यों
घर बांधते हो? खुला
आकाश तुम्हें
रास नहीं आता? खुला
आकाश तुम्हें
घबड़ाता है? तुम
बिना सीमा
खींचे अपने
चारों तरफ
बेचैनी अनुभव
करते हो?
तो
गुलामी की
तुम्हें आदत
हो गई है;
तो
कारागृह
तुम्हारी आदत
हो गई है;
तो
कारागृह
तुम्हारा नशा
हो गया है।
बड़ी दूर की
यात्रा है।
यहां कोई भी
घर मत बनाना।
मैं यह नहीं
कह रहा हूँ कि
रात विश्राम
के लिए तुम
कहीं मत रुकना।
बस रात
विश्राम के
लिए ठीक है।
लेकिन ध्यान
रखना, सभी घर सराय
हैं; सुबह हुई, उठना
है, आगे बढ़ जाना
है। न तो मन की
कोई धारणाएं, न
शास्त्र, न
संप्रदाय—कोई
भी तुम्हारे
लिए घर न बने; तुम
सदा मुक्त रहो
जाने को;
तुम्हारे
पैर सदा तत्पर
रहें यात्रा
के लिए; तुम
खानाबदोश रहो!
यह शब्द
बड़ा अच्छा है।
इसका मतलब
होता है :
जिसका घर अपने
कंधे पर है।
खानाबदोश—दोश
यानी कंधा, खाना
यानी घर।
खानाबदोश
यानी जिसका घर
अपने कंधे पर
है। आदमी का
होना, आदमी का
असली होना, उसकी
खानाबदोशी पर
निर्भर है। इस
जगत को
उन्होंने ही
अधिक गहराई से
जाना, पहचाना, परखा
और जीया है, जिन्होंने
कहीं अपने को
बांधा नहीं है।
इसका यह
अर्थ नहीं कि
कभी धूप में
वे किसी वृक्ष
के नीचे
विश्राम को
नहीं रुके।
इसका यह अर्थ
नहीं कि
उन्होंने घर—गृहस्थियां
नहीं बनायीं।
पर इतना
उन्हें सदा
स्मरण रहा कि
सब सरायें हैं, धर्मशालाएं
हैं, रुकना है और
आगे बढ़ जाना
है। मंजिल
कहीं भी नहीं
है, सब पड़ाव हैं।
खेमा गाड़ा है
आज रात, कल सुबह
उखाड़ लेना है।
तभी तुम पाओगे
कि धीरे—धीरे
वे जो सितारों
के आगे जहा और
भी हैं, तुम्हारे
लिए उपलब्ध
होने लगे।
तुम अपने
ही हाथ से
अपनी गर्दन नीचे
करके जमीन पर
सरक रहे हो।
तुम उड़ने के
लिए बने हो।
तुम पंखों का
उपयोग ही नहीं
करते।
असुरक्षा
से और कुछ
अर्थ नहीं है।
असुरक्षा का
अर्थ यह है. नए
की जोखिम
उठाने की सदा
तैयारी रखना।
मेरे साथ
भी जो लोग
चलते हैं, वे
भी एक नई तरह
की सुरक्षा
बांध लेते हैं।
कभी—कभी मेरे
पास आ जाते
हैं कि आपने
कल कुछ और कहा था, आज
आपने कुछ और।
कल को जाने
भी दो—सराय है।
मैं नहीं कल
पर रुका,
तुम
क्यों रुक गए
हो? मेरे साथ
चलना हो तो
रुकना संभव
नहीं है।
इसीलिए
कठिनाई होती
है।
बुद्ध जब
जिंदा थे तो
लोगों को
कठिनाई थी साथ
चलने में।
क्योंकि यह
आदमी पारे की
तरह है :
मुट्ठी बांधो, बंधता
नहीं, बिखर जाता
है। मर गए, फिर
संप्रदाय बन
गया। अब कोई
झंझट न रही, बात
खतम हो गई।
इति आ गई!
पूर्ण विराम आ
गया। अब तो
बुद्ध गड़बड़ न
कर सकेंगे। अब
तो हमारी
मुट्ठी में
हैं। अब
शास्त्र बन
सकता है।
बुद्धत्व एक
यात्रा है।
बुद्ध के मरते
ही तुम
शास्त्र बना
लेते हो,
संप्रदाय
बना लेते हो।
बुद्धों के
साथ चलना कठिन, लेकिन
उनकी पूजा
करना आसान।
उनके साथ होना
कठिन, उनके पैर
में पैर
मिलाकर चलना
कठिन; क्योंकि
तुम्हारी आदत
घर बनाने की
और उनकी आदत
घर बिगाड़ने
की!
तुम आशियाँ—परस्त
हो, तुम मकान
बना लेते हो, फिर
छोड़ने में
तुम्हें डर
लगता है। तुम
कहते हो,
कल आपने
यह कहा था। कल
गया! गंगा का
कितना जल बह
गया! गंगा से
नहीं कहते कि
कल कुछ बात और
थी, आज कुछ बात
और है! सूरज से
नहीं कहते कि
कल कुछ और तरह
के बादल घिरे
थे तुम्हारे
पास, आज कुछ और
हैं! चांद से
नहीं कहते कि
कल तेरी रंग—रौनक
और थी, आज कुछ और
है!
प्रतिपल जो
वस्तुत: जीता
है, तुम उसे
बदलता हुआ
पाओगे। पत्थर
पड़े रह जाते
हैं अपनी जगह, वृक्ष
तो न पड़े रह
जाएंगे—उठते
हैं! वृक्ष
खड़े रह जाते
हैं अपनी जगह, पशु—पक्षी
तो न रह
जाएंगे।
मैंने सुना
है कि एक
शेखचिल्ली ने
एक दुकान से
मिठाई खरीदी।
रुपया दिया, आठ
आने वापस
चाहिए थे, लेकिन
फुटकर न थे।
तो दुकानदार
ने कहा, कल सुबह ले
लेना। उस
शेखचिल्ली ने
चारों तरफ
देखा और उसने
कहा, पक्का कर
लेना जरूरी है, कहीं
बदल जाए! कोई
फिर चीज खोज
लेनी चाहिए।
उसने खोज ली।
दूसरे दिन
सुबह आया और
दुकानदार से
कहा कि मुझे
पहले ही पता
था! आठ आने के
पीछे गजब कर
दिया तुमने।
उस आदमी ने
पूछा, क्या मामला
है?
उसने कहा, आठ
आने वापस
लौटाओ। रात
मिठाई खरीदी
थी।
उसने कहा, तुम
होश में हो? यह
नाईबाड़ा है, यहां
मिठाई कैसी?
उसने कहा, मुझे
रात ही शक था।
मगर आठ आने के
पीछे यह मैंने
न सोचा था कि
तुम धंधा ही
बदल दोगे। मगर
मैं भी
होशियार हूं।
देखा नहीं, सांड
जहां बैठा है
वहीं का वहीं
बैठा है! रात
ही मैंने खयाल
कर लिया था कि
कोई चीज देख
लो जिसको तुम
धोखा न दे पाओ।
यह सांड यहीं
बैठा था। मैं
देख गया था।
सांड वहीं
बैठा है। रात
में सांड हट
गया। सांड
जीवित है।
जो रुक गए
हैं—जैन होकर, बौद्ध
होकर, ईसाई होकर—उन्हें
पता नहीं कि
जिस दुकान से
मिठाई मिली थी, वह
दुकान अब वहां
नहीं है,
नाईबाड़ा
है। मुर्दा
शब्दों में
अटके रह गए
हैं। जहां
बुद्ध पुरुष
थे अब वहां
सिर्फ उनकी
अस्थियां पड़ी
हैं; अब वहां कुछ
भी नहीं है।
अब तुम राख की
पूजा करते रहो।
मैं जानता
हूं तुम्हारी
तकलीफ : तुम
आशियां परस्त
हो। तुम चाहते
हो, मैं
तुम्हें कुछ
बंधी हुई
धारणा दे दूं
और तुम झंझट
से छूटो और
तुम अपना घर
बना लो और तुम
मजे से फिर
उसमें रहो।
कहानियां
होती हैं न, पुरानी
कहानियां—ऐसा
कहीं होता तो
नहीं—लेकिन
कहानियों में
लिखा होता है
कि राजकुमार
ने राजकुमारी
से शादी कर ली, फिर
दोनों सदा सुख
से रहे। ऐसा
कहीं होता—करता
नहीं है। मगर
इसके आगे कोई
कहानी नहीं
जाती, क्योंकि
फिर खतरा है।
फिल्में भी
यहीं खतम हो
जाती हैं।
शहनाई वगैरह
बजी, बाजे वगैरह
बजे—इसके बाद
अंधेरा। असली
जिंदगी वहीं
शुरू होती है।
तुम तो
चाहते हो, कहीं
तुम घर बना लो, फिर
सदा सुख से
रहें। सदा सुख
से रहने का
मतलब होता है :
मरना। जीवन
में तो रोज
संघर्ष होंगे, चुनौतियां
होंगी। जीवन
तो रोज की
विजय—यात्रा
है। रोज—रोज
कुरुक्षेत्र
है जीवन का।
और जिसने इसे
समझ लिया, फिर
उसे कोई दुखी
नहीं कर पाता; फिर
हर दुख को वह
अपने सुख में
बदल लेता है
और हर राह के
पत्थर को सीढ़ी
बना लेता है।
एक बात सदा
ध्यान रहे कि
तुम रोज नए
होते चले जाओ।
एक बात सदा
ध्यान रहे कि
तुम्हारे ऊपर
जंग इकट्ठी न
हो, विचारों की
धूल न जमे, शास्त्र
तुम्हारे ऊपर
बोझिल न हों, तुम
मुक्त रहो।
जो मुक्त
है वही मोक्ष
पा सकेगा। और
मुक्त होने का
अर्थ सब
दिशाओं में
मुक्त होना है।
तुम सोचते हो
कि मोक्ष मिल
जाएगा अगर हम
जीवन को
व्यवस्था दे
दें, तो तुम गलती
में हो।
तुम्हारी
व्यवस्था
तुम्हारा
कारागृह बनेगी; सुरक्षित
रहोगे तुम, लेकिन
मर चुके होओगे।
तो जिसे
चुनना हो, चुनाव
सुरक्षा—असुरक्षा
के बीच नहीं
है, चुनाव
सुरक्षा और
जीवन के बीच
है। सुरक्षा
चुनी तो मौत
चुनी। अगर
जीवन को चुनना
हो तो
असुरक्षा
चुननी पड़ेगी।
असुरक्षा
का अर्थ है : हम
रोज तैयार हैं।
पता नहीं क्या
होगा, पता नहीं
कहां होंगे, पता
नहीं कैसे
होंगे! लेकिन
अभी से फिक्र
भी क्या करें!
जब वह घड़ी
आएगी, तब हम —होंगे
और हम अपने
पूरे जीवन से
उस घड़ी का
मुकाबला
करेंगे;
अपने
पूरे जीवन से, अपने
पूरे होश से
उस घड़ी को
सुलझाने की
चेष्टा
करेंगे,
उस घड़ी
के पार होने
की चेष्टा
करेंगे,
अतिक्रमण
जारी रहेगा।
तब तुम एक दिन
पाओगे कि यह
सातत्य नए
होने का,
यही
चिरजीवन है, यही
शाश्वत जीवन
है। एस धम्मो
सनंतनो!
फजा नीली—नीली
हवा में सुरूर
ठहरते नहीं
आशियां में
तयूर
जब आकाश
नीला—नीला हो—
फजा नीली—नीली
हवा में सुरूर
और हवाओं
में मस्ती हो
और निमंत्रण
हो—
ठहरते नहीं
आशियां में
तयूर
तब घोंसलों
में नहीं
टिकते पक्षी
जिनके पास पंख
हैं।
अस्पतालों
की छोड़ दो, अगर
तुम्हारा घर
अस्पताल नहीं
है।
कारागृहों की
छोड़ दो, अगर
तुम्हारा घर
कारागृह नहीं
है।
ठहरते नहीं
आशियां में
तयूर
जिसके पास
पंख हैं,
वह
पंखों को
तौलता है आकाश
में।
पंख और
आकाश के बीच
एक महत आकर्षण
है। और ध्यान
रखना, तुम ही नहीं
हो कि जब तुम
पंखों को
खोलते हो तो प्रसन्न
होते हो,
आकाश भी
प्रसन्न होता
है। जिस दिन
आकाश में कोई
पक्षी नहीं
उड़ते, उस दिन आकाश
की उदासी
देखो! जिस दिन
बगुलों की कतारें
आकाश को चीर
जाती हैं रजत—धार
की भांति, उस
दिन आकाश की
प्रसन्नता
देखो! जिस दिन
पक्षी नहीं
गाते, उस दिन आकाश
की पीड़ा देखो!
जिस दिन पक्षी
गाते हैं, उस
दिन आकाश का
नृत्य देखो!
एक संवाद
चल रहा है—व्यक्ति
में और समष्टि
में, अणु में और
विराट में, बूंद
में और सागर
में। एक
निरंतर संवाद
चल रहा है।
पंख दिए, आकाश
न दोगे
व्यर्थ
मृत्यु जीवन
की रेखा
निष्फल है
कटु मधु का
लेखा
केवल कपट, अगर
कोयल को
कंठ दिए, मधुमास
न दोगे
पंख दिए, आकाश
न दोगे
जहां से
पंख आ रहे हैं, वहीं
से आकाश भी आ
रहा है। वे
साथ ही साथ आ
रहे हैं,
जोड़े
में आ रहे हैं।
पंख दिए, आकाश
न दोगे
तो पंख
किसलिए होंगे? तुम्हारे
भीतर अभियान
की इतनी आकांक्षा
दी है।
तुम्हारे
भीतर इतनी प्यास
दी है नए—नए
शिखरों को
छूने की।
तुम्हारे
भीतर कैलाशों
को पार कर
जाने की इतनी
गहन अभीप्सा
दी है, तो निश्चित
ही कहीं कोई
कैलाश
तुम्हारे
पैरों के लिए
पीड़ित होंगे, प्यासे
होंगे, बुलाते
होंगे!
पंख दिए, आकाश
न दोगे
तब तो बात
बड़ी गड़बड़ हो
जाएगी।
इसी का अर्थ
ईश्वर है कि
अस्तित्व में
एक संवाद है।
यहां कुछ भी
व्यर्थ नहीं।
अगर पंख हैं
तो आकाश है।
पंखों के होने
के पहले आकाश
है। भूख के
पहले भोजन है।
प्यास के पहले
जल है।
पंख दिए, आकाश
न दोगे
व्यर्थ
मृत्यु जीवन
की रेखा
निष्फल है
कटु मधु का
लेखा
केवल कपट—
तब तो जीवन
एक कपट होगा!
केवल कपट, अगर
कोयल को
कंठ दिए, मधुमास
न दोगे
जब कोयल को
कंठ दिया तो
वसंत भी आता
ही होगा,
कहीं
छिपा ही होगा।
अन्यथा कोयल
गाएगी कहां, गाएगी
किसलिए?
तो तुम
घबड़ाना मत।
अपनी अभीप्सा
को पहचानना।
अगर तुम्हारी
अभीप्सा दूर
जाने की है, आकाश
में उठ जाने
की, तो सारी
सुरक्षाओं के
मोह छोड़ देना।
घबड़ाना मत, जोखिम
उठाना। जोखिम
जीवन है।
पंख समझते
हैं अंबर के
मौन अधर की
भाषा
पंख समझते
हैं अंबर के
मौन
अधर की भाषा
तृषित
न केवल कंठ
नीर
भी है उतना ही
प्यासा
तुम्हारा
कंठ ही प्यासा
नहीं पानी के
लिए, पानी भी
तुम्हारे कंठ
के लिए इतना
ही प्यासा है।
इस संवाद का
नाम ईश्वर है।
अणु—विराट के
बीच गुफ्तगू
चल रही है।
बूंद—सागर के
बीच संवाद चल
रहा है।
इसलिए
अपनी अभीप्सा
को पहचानना।
मन की मत
सुनना। मन तो
मुर्दा है।
भीतर के
प्राणों की
सुनना—प्राण क्या
कहते हैं? प्राण
तुम्हें रोज
कहते हैं कि
तुम्हारी जो जिंदगी
तुमने बना ली
है, ऊब से भरी है, थोथी
है, कपट है। न तो
तुम खुलकर गा
रहे हो, क्योंकि
तुम डर रहे हो; न
तुम खुलकर उड़
रहे हो, क्योंकि
तुम घबड़ा रहे
हो; न तुम खुलकर
जी रहे हो, क्योंकि
डर है कहीं
हाथ में जो है
वह छूट न जाए।
अगर
तुम्हें और
विराट को पाना
है तो हाथ में
जो है वह
छूटेगा ही।
हाथ खाली करने
होंगे, प्राण खाली
करने होंगे।
अगर तुम्हें
आगे जाना है
तो जिस जमीन
पर तुम खड़े हो, उस
जमीन को छोड़ना
ही होगा,
नहीं तो
आगे कैसे
जाओगे? अगर एक सीढ़ी
चढ़ना है तो उस
सीढ़ी से पैर
उठा ही लेना
होगा। माना कि
जिस सीढ़ी पर
तुम खड़े थे
ज्यादा सुरक्षा
थी, पता था कि
सीढ़ी है,
दूसरी
सीढ़ी पता नहीं
हो या न हो।
अभीप्सा
का भरोसा करना।
अगर उठने की
आकांक्षा पैर
में है तो
सीढ़ी होगी। इस
पैर की उठने
की आकांक्षा और
सीढ़ी का होना
सुनिश्चित है, नहीं
तो पैर उठना
ही न चाहता।
इस सुनिश्चय
का नाम धर्म
है। जिसने इस
बात को समझ
लिया, फिर भयभीत
नहीं होता। और
जब तुम दो— चार—दस
प्रयोग करके
देखोगे तो तुम
पाओगे : अरे!
मैं नाहक ही
बंधा बैठा था, और—और
सीढियां थीं।
सितारों
के आगे जहां
और भी हैं
अभी
इश्क के
इस्तिहां और
भी है
पंख
समझते हैं
अंबर के
मौन
अधर की भाषा
तृषित
न केवल कंठ
नीर
भी है उतना ही
प्यासा
आखिरी
प्रश्न :
क्या यह
सच नहीं है कि
जब तक मनुष्य
अधूरा, अपूर्ण
है, तब तक जीवन
के छंद—राग
उसका पीछा
नहीं छोड़ेंगे? प्रश्न
यह है कि वह
पूर्ण कैसे हो?
यह सच है कि जब
तक मनुष्य
अपूर्ण है, तब
तक जीवन के
रंग—राग उसका
पीछा न
छोड़ेंगे। और
यह भी सच है—अब
जरा कठिनाई
होगी समझने मे—कि
जब तक रंग—राग
पीछा न छोड़
दें, तब तक
मनुष्य पूर्ण
न होगा।
विरोधाभासी
हो गई बात।
मगर मजबूरी है, तथ्य
ऐसा ही है।
असल बात
ऐसी है कि तुम
जैसे पूछो कि
अंडा पहले या
मुर्गी पहले।
अगर मैं कहूं
अंडा, तो बात वहीं
गलत हो गई, क्योंकि
अंडा बिना
मुर्गी के
आएगा कैसे? कोई
मुर्गी रखेगी, तभी
तो अंडा होगा।
अगर मैं कहूं
मुर्गी,
तो भी
बात गलत हो गई, क्योंकि
मुर्गी आएगी
कैसे, जब तक कोई
अंडा न फूटेगा, मुर्गी
प्रगट कैसे
होगी?
दार्शनिक
सदियों से
विचारते रहे
हैं : अंडा पहले
या मुर्गी? अभी
भी विचारते
हैं। कोई
सिद्ध करता है, मुर्गी; कोई
सिद्ध करता है, अंडा।
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं कि अंडा—मुर्गी
दो हैं, इस मान्यता
में ही
भ्रांति है।
इसलिए उलटा
उलझा हुआ
प्रश्न खड़ा हो
गया। प्रश्न
को देखने में
ही भूल हो गई।
अंडा और
मुर्गी दो
नहीं है—एक ही
चीज के दो कदम
हैं। अंडा वह
मुर्गी है, जो
होने के
रास्ते पर है।
मुर्गी वह
अंडा है,
जो हो
गया। अंडा और
मुर्गी एक ही
जीवन—ऊर्जा के
दो पड़ाव हैं।
इसलिए जब तुम
उनको बांटकर
पूछते हो कि
कौन पहले, तब
मुश्किल खड़ी
हो जाती है।
कौन पहले है?
अगर जीवन
का छंद—राग न
छूटे तो तुम
पूर्ण न होओगे।
अगर जीवन
पूर्ण न हो तो
छंद—राग न
छूटेगा। फिर
करना क्या है? छंद—राग
को समझो। अंडे—मुर्गी
की व्यर्थ
चिंता में मत
पड़ो—छंद—रहा
को समझो। जैसे—जैसे
तुम्हारी समझ
जीवन के छंद
और राग की, जीवन
के भोग की
गहरी होगी, वैसे—वैसे
छंद—राग
छूटेगा;
वैसे—वैसे
साथ ही साथ
युगपत
तुम्हारी
पूर्णता उभरेगी।
इधर छंद—राग
छूटेगा,
उधर
पूर्णता
उभरेगी। ये एक
ही घटना के दो
पहलू हैं।
जैसे तुमने
पानी को गरम
किया, इधर पानी गरम
होने लगा, उधर
पानी भाप बनने
लगता है। पहले
पानी गरम होता
है सौ डिग्री
तक, तब भाप बनता
है? या पहले भाप
बन जाता है तब
सौ डिग्री तक
गरम होता है? नहीं, सौ
डिग्री तक गरम
होते ही दोनों
घटनाएं एक साथ
घटती हैं : इधर
पानी गरम, उधर
भाप।
जैसे ही
तुम्हारे
जीवन के राग—रंग
की समझ गहरी
होगी—समझ ही, कुछ
और करना नहीं
है। तुम जो भी
कर रहे हो, ठीक
ही कर रहे हो
तुम्हारी दशा
में। निंदा
में मत पड़
जाना। निंदा
इसलिए खड़ी हो
जाती है कि
तुमसे बड़ी दशा
के लोग उसे
व्यर्थ कहते
हैं।
यह ऐसा ही
है जैसे छोटा
बच्चा
खिलौनों से
खेल रहा है।
तुम पहुँच गए
और तुमने कहा, क्या
बेवकूफी कर
रहा है? बंद कर!
खिलौनों में
क्या सार है? लेकिन
तुम ठीक बात
नहीं कह रहे।
तुम्हारी
अवस्था में
खिलौनों में
कोई सार न रहा, लेकिन
बच्चे की
अवस्था में
सार है। और
अगर बच्चे से
जबरदस्ती
खिलौने छीन
लिए गए तो वह
कभी इतना प्रौढ़
न हो पाएगा, जब
कि खिलौने
व्यर्थ हो
जाएं। अगर
बच्चे से
खिलौने समय के
पहले छीन लिए
गए तो खिलौनों
की आकांक्षा
भीतर बनी रह
जाएगी; वह नए—नए
रूपों में
प्रगट होती
रहेगी।
सोचो! छोटा
बच्चा एक कार
रखे बैठा है
और खेल रहा है, वह
बड़ा हो जाएगा, फिर
भी कार से ही खेलेगा।
अब कार बड़ी ले
आएगा माना, मगर
खेल जारी
रहेगा। अब भी
कार के प्रति
वही पागलपन
रहेगा जो छोटे
बच्चे का
खिलौने वाली
कार के प्रति
था, कोई भेद न
पड़ेगा।
छोटे बच्चे
गुड्डा—गुड्डियों
का शादी—विवाह
करवा रहे हैं, मत
रोको, करवा लेने
दो; नहीं तो राम—सीता
की बारात
निकालेंगे, वे
मानेंगे नहीं।
राम—सीता जरा
बड़े साइज के
गुड्डा—गुड्डी
हैं। खेल जारी
रहेगा।
ज्यादा
खतरनाक हो गया
यह मामला। जो
जिस स्थिति
में है, उस स्थिति
में जो भी
किया जा रहा
है, ठीक है।
तुलना तब पैदा
होती है जब
तुम दूसरी
स्थिति के
लोगों की बात
सुन लेते हो, तो
झंझट खड़ी हो
जाती है।
बुद्ध ने कह
दिया, सब व्यर्थ
है राग—रंग, तुमइंऐ
मुश्किल में
पड़े! तुम अभी
बुद्ध नहीं हो।
अभी राग—रंग
सार्थक था, इसलिए
तुम उसमें थे।
अब यह बुद्ध
ने एक अड़चन
खड़ी कर दी। अब
तुम्हारे
सामने सवाल
उठता है कि
राग—रंग छोड़े!
मैं तुमसे
कहता हूं
छोड़ने की
जल्दी मत करना।
वहीं त्यागी
भूल कर लेता
है। समझने की
कोशिश करना।
बुद्ध कहते
हैं तो ठीक ही
कहते होंगे।
ठीक मान मत
लेना। बुद्ध
कहते हैं, ठीक
ही कहते होंगे; गलत
कहने का कोई
कारण नहीं है।
क्योंकि
बुद्ध
तुम्हारी
अवस्था से
गुजर चुके हैं, तुमसे
आगे जा चुके
हैं, इन खेल—खिलौनों
में खुद भी
रहे थे। इसलिए
जो कहते हैं, ठीक
ही कहते होंगे।
लेकिन यह
बुद्ध का
वक्तव्य है, तुम्हारा
मत बना लेना।
तुम तो समझने
की कोशिश करना
इस खेल को। इस
खेल की समझ
में ही
तुम्हें धीरे—
धीरे दिखाई
पड़ेगा कि
बुद्ध ठीक
कहते हैं। यह
ठीक होना
तुम्हारा
अनुभव भी बन
जाएगा। अचानक
तुम पाओगे.
खेल—खिलौने
छूटने लगे, पड़े
रह गए एक कोने
में। एक दिन
हर बच्चे के
खेल—खिलौने
कोने में पड़े
रह जाते हैं।
इसके पहले सो
भी नहीं सकता
था उनके बिना, रात
भी छाती से
लगाकर सोता था; फिर
एक दिन कोने
में पड़े रह
जाते है,
फिर
कचरे—घर में
चले जाते हैं, फिर
याद भी नहीं
आती। वर्षों
बीत जाते हैं, याद
भी नहीं आती
कि क्या हुआ
उन खिलौनों का, जिनके
बिना सोना भी
मुश्किल था।
जरूर तुम
भी आगे बढ़
जाओगे। लेकिन
जल्दी मत करना।
जीवन में कोई
जल्दबाजी
नहीं हो सकती।
जीवन धीरे—धीरे
पकता है। राग—रंग
हैं, ठीक है।
तुम्हारी
अवस्था में जो
जरूरी है, वह
तुम्हें मिला
है। हर आदमी
को जो जरूरी
है जिस अवस्था
में, मिलता है।
यही तो जीवन
का संगीत है।
समझ को
बढ़ाना। समझ के
बढ़ते ही तुम
जैसे समझ में
ऊंचे उठोगे, तुम
तू आप है अपनी
रोशनाई पाओगे
: जो जरूरी
नहीं था,
वह
छूटने लगा, और
अब जो जरूरी
है वह मिलने
लगा। जीवन सदा
तुम्हारी
जरूरत पूरा
करने को आतुर
है। कंठ ही
नहीं प्यासा
है, जल भी
प्यासा है।
एक ही बात
ध्यान में
रखने की है कि
तुम जहां हो, उस
स्थिति को
जितना सजग
होकर जी सको
उतना शुभ है।
पूर्णता भी
आएगी, राग—रंग भी
छूट जाएंगे।
राग—रंग भी
छूटेंगे, पूर्णता
भी गई आएगी।
वह एक ही साथ
घटता जाएगा।
उसकी तुम
चिंता ही मत
रखो। उसका
हिसाब भी मत
रखो। तुम इतना
ही कर पाओ तो
बस कि तुम जहा
हो, जैसे हो, जो
कर रहे हो, बिना
निंदा के, बिना
निर्णय के, बिना
न्यायाधीश
बने, बिना
जल्दबाजी किए, चुपचाप
समझने की
कोशिश करते
जाना। हर
अनुभव
तुम्हारी समझ
को गहरा जाए।
हर अनुभव—दुख
का, सुख का, हार का, जीत
का, धन का,
निर्धनता
का, महल का, भीख का—हर
अनुभव
तुम्हारी समझ
को गहराता जाए, बस।
ऐसा न हो कि
अनुभव तो गुजर
जाए और समझ
वहीं की वहीं
रह जाए, तब तुम अटक
गए।
एक ही चीज
को मैं पाप
कहता हूं—और
वह यह कि
अनुभव आए, चला
जाए, और समझ वहीं
की वहीं रह
जाए। बस एक
पाप है। फिर
इस पाप से
सारे पाप पैदा
होते हैं। एक
भूल है—एकमात्र
भूल!
क्रोध
तुम करो,
इससे
मैं इनकार
नहीं करता—करोगे
ही। क्या कर
सकते हो तुम? जहा
तुम हो वहां
जरूरी है।
लेकिन हर
क्रोध
तुम्हें
समझदार बनाता
जाए; हर क्रोध के
बाद तुम्हारी
सजगता बढ़ती
जाए; हर क्रोध से
गुजरते समय
तुम क्रोध की
पहचान से भरते
जाओ।
धीरे—धीरे
तुम पाओगे कि
क्रोध के
द्वारा ही
तुमने जो समझ
का इत्र
निचोड़ा;
वही
तुम्हें
क्रोध से
मुक्त करा
जाता है।
क्रोध में ही
क्रोध से मुका
होने के आधार
छिपे हैं।
कामवासना
है, कोई फिक्र न
करना; लेकिन
बोधपूर्वक
कामवासना में
उतरना, होशपूर्वक
उतरना।
कामवासना
से ही धीरे—धीरे
ब्रह्मचर्य
का इत्र निचुड़
आता है, जैसे कीचड़
से कमल उग आते
हैं, ऐसे ही जीवन
के कलमष से, अंधेरे
से, जीवन के
सौंदर्य का
जन्म होता है।
बस, जरा जागकर
चलना।
आज इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं