सारसूत्र:
गतद्धिनो
विसोकस्स विप्पमुतस्स
सब्बाधिा।
सबगंथप्पहीनस्स
परिलाहो न
बिज्जति
।।81।।
उय्यज्जन्ति
सतीमन्तो न
निकेते रमति
ते।
हंसा' व पल्ललं
हित्वा
ओकमोकं
जहन्ति तो
।।82।।
ये सं
सन्निचयो
नत्थि ये
परिज्जातभोजना
।
सुज्जतो अनिमित्तो
व विमोक्खो
यस्स गोचरो।
आकासे' व
सकुन्तानं
गति तेसं दुरन्नया
।।83।।
यस्सा'सवा
परिक्सीणा
आहारे व
अनिस्सतो ।
सुज्जातो अनिमितो
व विमोक्खो
यस्स गोचरो।
पहला
सूत्र:
जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है, जो
शोक-रहित है और
सर्वथा
विमुक्त है,
और जिसकी सभी ग्रंथियां
प्रहीण हो गई
है। उसे कोई
दू:ख नहीं
होता।
मार्ग क्या
है? जिसे हम
जीवन कहते हैं, वही
मार्ग है।
जीवन के
अतिरिक्त
कहीं और मार्ग
नहीं। जीवन के
अनुभव में जो
पक गया है, उसने
मार्ग पूरा कर
लिया है।
तुमने अगर
जीवन के
अतिरिक्त
कहीं और मार्ग
खोजा तो
भटकोगे। कोई
और मार्ग नहीं
है। यह क्षण—क्षण
बहता जीवन, यह
पल—पल बहता
जीवन, यही मार्ग
है। तुम मार्ग
पर हो।
मनुष्य
भटका है इसलिए
कि उसने जीवन
को तो मार्ग
समझना छोड़ ही
दिया, उसने जीवन
के अतिरिक्त
मार्ग बना लिए
हैं। कभी उन
मार्गों को
धर्म कहता है, कभी
योग कहता है।
अलग—अलग नाम
रख लिए हैं, बड़े
विवाद खड़े कर
लिए हैं।
शब्दों के जाल
में उलझ गया
है।
और
मार्ग आंखों के
सामने है।
मार्ग पैरों
के नीचे है।
तुम जहां खड़े
हो, मार्ग पर ही
हो। क्योंकि
जहां भी तुम
खड़े हो, वहीं से
परमात्मा की
तरफ राह जाती
है। तुम पीठ
किए भी खड़े हो
तो भी तुम राह
पर ही खड़े हो।
तुम आंख बंद
किए खड़े हो तो
भी तुम राह पर
ही खड़े हो।
तुम्हें
समझ हो या न हो, राह
से बाहर जाने
का कोई उपाय
नहीं।
क्योंकि उसकी
राह आकाश जैसी
है। उसकी राह
कोई पटे—पटाए
मार्गों का
नाम नहीं है, राजपथ
नहीं है,
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपनी पगडंडी
खोज लेनी है।
और इस पगडंडी
को अगर ठीक से
समझो तो खोजना
क्या है '
मिली हुई
है; समझना है।
जीवन मार्ग
है। जीवन के
सुख—दुख मार्ग
हैं। जीवन की
सफलताएं—असफलताएं
मार्ग हैं।
भटक— भटककर ही
तो आदमी
पहुंचता है।
गिर—गिरकर ही
तो आदमी उठता
है। चूक—चूककर
ही तो आदमी का
निशाना लगता
है। जब
तुम्हारा तीर
निशाने पर लग
जाए तो क्या
तुम उन भूलों
को धन्यवाद न
दोगे, जब
तुम्हारा तीर
निशाने पर चूक—चूक
गया था? उनके कारण
ही अब निशाने
पर लगा है। जब
तुम खड़े हो
जाओगे तो क्या
गिरने को तुम
धन्यवाद न
दोगे? क्योंकि
अगर गिरते न, तो
कभी खड़े न हो
पाते।
पुण्य
का जब
आविर्भाव
होता है तो
पाप तक को धन्यवाद
का भाव उठता है।
और परमात्मा
की जब प्रतीति
होती है तो
संसार के
प्रति भी
अहोभाव होता
है। अगर निंदा
रह जाए तो
जानना, कहीं चूक हो
गई, कहीं भूल हो
गई। अगर निंदा
रह जाए तो
जानना कि अभी
गिरने की संभावना
बाकी रह गई है, मार्ग
पूरा न हुआ।
जो पहुंचता
है, लौटकर
देखता है तो
पाता है,
सबने
मिलकर
पहुंचाया।
उसमें भूल—चूकों
का भी हाथ है, धूप—छाया
का, सबका हाथ है।
उसमें मित्र
और शत्रुओं का
हाथ है। उसमें
फूल ही सहयोगी
न थे, काटे भी
सहयोगी थे।
जिन्होंने
सहारा दिया था, वे
भी; और जो राह पर
अड़ंगे बन गए
थे, वे भी।
जिसने
लौटकर देखा है, उसने
पाया, आश्चर्य!
कहीं कुछ
विरोधी न था।
विरोध से ही
आदमी विकसित
होता है;
इसलिए
विरोध कुछ भी
नहीं है।
द्वंद्व से ही
आदमी विकसित
होता है।
द्वंद्व में
ही
निर्द्वंद्व
पलता है।
द्वैत में ही
अद्वैत की आभा
उतरती है।
‘जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया।’
कौन है
वह व्यक्ति, जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया? वही, जिसने जीवन
की धूप में
अपने को पका
लिया; जीवन की
गहराइयों और
ऊंचाइयों को
छुआ; बुरे—भले
अनुभव किए; पाप—पुण्य
को चखा; गिरने की
पीड़ा भी जानी, उठने
का अहोभाग्य
भी जाना;
अंधेरी
रातें भी, सूरज
की रोशनी से
दमकते दिन भी; जिसने
सब देखा,
जो सबका
साक्षी बना।
जिसने सब
देखा, जिसने सब को
अपने ऊपर से
गुजर जाने
दिया, लेकिन किसी
के भी साथ
तादात्म्य न
बाधा। जवानी
आई तो जवान न
हुआ; सुख आया तो
अपने को सुखी
न समझा; दुख आया तो
अपने को दुखी
न समझा।
जागरण! जागा
रहा। होश का
दीया जलता रहा।
जो आया, उसे स्वीकार
किया : जरूर
कोई पाठ छिपा
होगा। जीवन
में कुछ भी
आकस्मिक, अकारण
घटता नहीं।
जीवन में जो
भी घटता है, सकारण
है। कहीं कोई
वजह होगी।
अगर आदमी
को बार—बार
मिटाकर बनाया
जाता है तो
कारण यही है
कि जब तक आदमी
बन नहीं पाता, तब
तक बार—बार
मिटाना पड़ता
है।
जैसे मूर्तिकार
मूर्ति गढ़ता
है तो छैनी
चलाता चला जाता
है, जब तक कि
मूर्ति पूरी
नहीं हो जाती।
पीड़ा होती
होगी पत्थर को।
छैनी दुश्मन
मालूम होती
होगी। भाग
जाने का मन
होता होगा।
छैनी को त्याग
देने का मन
होता होगा।
लेकिन तब
पत्थर अनगढ़ा
रह जाएगा। तब
वह भव्य
प्रतिमा
आविर्भूत न
होगी, जो मंदिरों
में विराजमान
हो जाए; जो हजार—हजार
सिरों को
झुकाने में
समर्थ हो जाए।
जीवन की
धूप में पकना
ही मार्ग का
पूरा होना है।
जैसे फल पक
जाता है तो
गिर जाता है, ऐसे
जीवन के मार्ग
को जिसने पूरा
कर लिया,
वह जीवन
से मुक्त हो
जाता है। फल
जब पक जाता है
तो जिस वृक्ष
से पकता है, उसी
से छूट जाता
है। इस
चमत्कार को
रोज, देखते हो, पहचानते
नहीं। फल पक
जाता है तो
जिस वृक्ष ने
पकाया, उसी से
मुक्त हो जाता
है; पकते ही
मुक्त हो जाता
है।
कच्चे
में ही बंधन
है। कच्चे को
बंधन की जरूरत
है। कच्चे को
बंधन का सहारा
है। कच्चा
बिना बंधन के
नहीं हो सकता।
बंधन दुश्मन
नहीं, तुम्हारे
कच्चे होने के
सहारे हैं। जब
तुम पक जाओगे, जब
तुम अपने में
पूरे हो जाओगे, वृक्ष
की कोई जरूरत
नहीं रह जाती, फल
छूट जाता है।
ऐसे ही
संसार से
मुक्ति फलित
होती है,
जब तुम
पक जाते हो।
बुद्ध के
वचनों को बड़ा
गलत समझा गया
है। सभी बुद्ध
पुरुषों के
वचनों को गलत
समझा गया है।
कहा कुछ,
तुम
समझे कुछ। गौर
से सुनना!
'जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है,
जो
शोकरहित और
सर्वथा
विमुक्त है।’
वह लक्षण
है मार्ग पूरे
करने का : कि जो
शोकरहित और
सर्वथा
विमुक्त है।
फल टूट गया
अपने आप। यह
लक्षण है कि
फल पक गया।
लेकिन फल को
तुम कच्चा भी
तोड़ ले सकते
हो। तोड़ा गया
फल पका नहीं
होगा। और तोड़े
गए फल में
पीड़ा का दंश
रह जाएगा, दुख
रह जाएगा। जो
पकने की कमी
रह गई, वह सालती
रहेगी, काटे की तरह
चुभती रहेगी।
और फल जब तुम
कच्चा तोड़ते
हो तो न केवल
फल को पीड़ा
होती है,
वृक्ष
को भी पीड़ा
होती है। अभी
टूटने की घड़ी
न आई थी, अभी मुक्त
होने का क्षण
न आया था,
जल्दबाजी
की, अधैर्य
किया।
तो जिनको
तुम संन्यासी
कहते हो,
उनमें
से अधिक तो
अधैर्य से भरे
हुए लोग हैं।
उन्होंने
परमात्मा को
पूरा मौका न
दिया। रास्ता
पूरा न हों
पाया और वे हट
गए। फल पक न
पाया और
उन्होंने
झटककर अपने को
तोड़ लिया।
इसलिए
मंदिरों में
वे बैठे
रहेंगे,
लेकिन
उनके मन में
बाजार होंगे।
आश्रमों में
वे बैठे
रहेंगे,
लेकिन
उनके मन में
कामना के बीज
होंगे, वासना चलती
ही रहेगी।
कच्चे थे!
मैं तुमसे
कहता हूं कभी
भागना मत।
पलायन से कभी
कोई मुक्त
नहीं हुआ है।
भगोड़ों के लिए
नहीं है भगवान।
कहीं भागने से
कुछ मिला है? भागना
तो सबूत है भय
का। कच्चे टूट
जाना सबूत है
जल्दबाजी का, अधैर्य
का।
और जिसके
पास धैर्य ही
नहीं है,
अनंत
प्रतीक्षा
नहीं है,
वह इस
परम फल को उपलब्ध
न हो सकेगा, जिसे
हम परमात्मा
कहते हैं।
'जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है।’
अर्थात
जिसने जीवन को
पूरा मौका
दिया है,
सब
रंगों में, सब
रूपों में।
डरे—डरे मत
जीना, तूफानों से
छिपकर मत जीना।
आंधिया आएं तो
घरों में मत
छिप जाना। आधी
भी अकारण नहीं
आती, कुछ धूल—धवांस
झाडू जाती है।
आधी भी अकारण
नहीं आती, कोई
चुनौती जगा
जाती है;
कोई
भीतर सोए हुए
तारों को छेड़
जाती है। एक
बात तो सदा ही
स्मरण रखना कि
इस संसार में
अकारण कुछ भी
नहीं होता—तुम
चाहे पहचानो, चाहे
न पहचानो। देर—अबेर
कभी न कभी
जागोगे तो
समझोगे। जो
अंगुलियां तुम्हें
शत्रु जैसी
मालूम पड़े, एक
दिन तुम पाओगे
कि उन्होंने
भी तुम्हारे
हृदय की वीणा
को जगाया।
अंगुलियों
की कृपा ही
झंकार है
अन्यथा
नीरव निरर्थक
बीन है
वीणा
अगर डर जाए और
छिप जाए,
अंगुलियों
को छेड़ने न दे
स्वयं के
तारों को, तो
वीणा मृत रह
जाएगी। संगीत
सोया रह जाएगा।
जैसे वृक्ष
बीज में दबा
रह गया। जैसे
आवाज कंठ में
अटकी रह गई।
जैसे प्रेम
हृदय में बंद
रह गया। जैसे
सुगंध खिलने
को थी, खिल न पाई।
कली खिली ही न, सुगंध
बिखरी ही न।
एक ही दुख
है संसार में—एक
ही मात्र—और
वह दुख है कि
तुम जो होने
को हो, वह न हो पाओ।
जो तुम्हारी
नियति थी, वह
पूरी न हो।
कहीं तुम चूक
जाओ और
तुम्हारी
वीणा पर स्वर
न गंजे।
हिम्मत
रखनी होगी। आंधियों
की अंगुलियां
आएं, तो उन्हें
भी छेड़ने देना
अपनी बीन को।
'जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है।’
भगोड़ा
कभी मार्ग
पूरा नहीं
करता। भगोड़ा
तो पूरा होने
के पहले भाग
खड़ा होता है।
भगोड़ा तो
मार्ग की
लंबाई से ही
डर गया है; वह
मुफ्त मंजिल
चाहता है।
पकना तो चाहता
है, लेकिन पकने
की पीड़ा नहीं
झेलना चाहता।
उस स्त्री
जैसा है,
जो मां
तो बनना चाहती
है, लेकिन गर्भ
की पीड़ा नहीं
झेलना चाहती।
नौ
महीने ढोना
होगा उस पीड़ा
को। और अगर
मां बनना है, अगर
मां बनने की
उस अपूर्व
अनुभूति को
पाना है—कि
मुझ से भी
जीवन का जन्म
हुआ; अकारथ नहीं
हूं बांझ नहीं
हूं; मुझ से भी
जीवन की गंगा
बही; मैं भी
गंगोत्री बनी—अगर
उस अपूर्व
अनुभव को, उस
अपूर्व
धन्यभाग को
लाना है,
तो नौ
महीने की पीड़ा
झेलनी पड़ेगी।
प्रसव की पीड़ा
झेलनी पड़ेगी। आंख
से आंसू
बहेंगे,
चीत्कार
निकलेगा।
लेकिन उन्हीं
चीत्कारों और
आंसुओ के पीछे
मां का अपूर्व
रूप प्रगट
होता है।
स्त्री
सिर्फ स्त्री
है, जब तक मां न
बन जाए।
स्त्री तब तक
सिर्फ साधारण
स्त्री है, जब
तक मां न बन
जाए। मां बनते
ही वीणा को
छेड़ दिया गया।
मां बने बिना
कोई भी स्त्री
ठीक अर्थों
में सुंदर
नहीं हो पाती।
स्रष्टा बने
बिना सौंदर्य
कहां? किसी को
जन्म दिए बिना
अहोभाग्य कहा?
तुमने
भी देखा होगा, छोटी
सी चीज भी तुम
बना लेते हो
तो खुशी तुम्हें
घेर लेती है।
एक मूर्ति बना
लेते हो,
एक चित्र
बना लेते हो, एक
गीत बना लेते
हो, मग्न हो—हो
जाते हो। कुछ
भीतर नाचने
लगता है। तुम
व्यर्थ नहीं
हो, तुम भी
सार्थक हो।
तुमसे भी कुछ
हुआ।
परमात्मा ने
तुमसे भी कोई
काम लिया। तुम
भी उसके हाथ
बने।
तुम्हारे
कदमों से वह
भी दो कदम चला।
तुम्हारी
सांसों से
उसने भी एक
गीत
गुनगुनाया।
जब तक ऐसा न
हो जाए तब तक
जीवन रिक्त, खाली
मालूम होगा।
भगोडों का
जीवन खाली
होता है।
इस देश
में एक बहुत
बड़ा
दुर्भाग्य
घटित हुआ है।
और वह
दुर्भाग्य है
कि इस देश में
संन्यास भगोड़ों
का हो गया।
उसके कारण
संन्यासी
बांझ हो गए।
तुम जरा सोचो, पांच
हजार साल के
लंबे इतिहास
में कितनी
करोड़—करोड़
प्रतिभाएं
ऐसी ही बांझ
होकर खो गयीं!
न उन्होंने
गीत गाए,
न वे
नाचे, न उन्होंने
कुछ निर्माण
किया, न उन्होंने
बगीचे लगाए, न
उनकी
अंगुलियों ने
वीणा बजाई; वे
सिर्फ भाग गए, जिंदगी
से सिकुड़ गए।
जैसे
शुतुर्मुर्ग
छिपा लेता है
अपने को रेत
में सिर को
डालकर, ऐसे जिंदगी
से डरकर,
कंपकर
गुफाओं में
छिप गए।
इन छिपे
आदमियों की
पूजा बहुत हो
चुकी। इस पूजा
से सुबह का
सूयोंदय न आया।
इस पूजा से
रात और गहरी
अंधेरी होती
गई, अमावस बनती
गई। इतनी
प्रतिभा ऐसे
ही बांझ चली
गई। इतने
उर्वर खेत ऐसे
ही रेगिस्तान
पड़े रह गए।
मरूद्यान बन
सकते थे जहा, वहां
केवल मरुस्थल
बना।
नहीं, बुद्ध
पुरुषों ने यह
कहा ही नहीं।
और अगर
तुम्हें
बुद्ध
पुरुषों के
जीवन में सृजन
न दिखाई पड़े, तो
उसका केवल
इतना ही अर्थ
होता है कि
बुद्ध पुरुषों
का सृजन बड़ा
सूक्ष्म है।
कोई गीत बनाता
है, कोई मूर्ति
बनाता है, बुद्ध
पुरुष स्वयं
को बनाते हैं।
तुमने किसी और
को जन्म दिया
होगा, बुद्ध
पुरुष स्वयं
को जन्म देते
हैं।
दूसरे
को जन्म देने
की पीड़ा
तुम्हें पता
है, तुम्हें
अभी उस पीड़ा
का कहा पता है
जो स्वयं को
जन्म देने में
होती है?
दूसरे
की मा बनना हो
तो नौ महीने
में चुकतारा
हो जाता है, स्वयं
की मां बनना
हो तो जन्म—जन्म
लग जाते हैं।
जन्म—जन्मों
तक गर्भ को
ढोना पड़ता है।
बुद्ध
पुरुषों ने
स्वयं को
जन्माया।
इसलिए हमने
उन्हें द्विज
कहा है :
दुबारा जो जन्मे।
मां—बाप ने जो
जन्म दिया था, उस
पर ही जो राजी
न हुए; जिन्होंने
अपने को फिर
जन्माया जो
खुद के मा—बाप
बने। इससे
कठिन और कोई
प्रक्रिया
नहीं है—स्वयं
को जन्म देना।
लेकिन
दिखाई न पड़ेगा, क्योंकि
उनका काव्य
बड़ा सूक्ष्म
है। गीत
उन्होंने —गाए, पर
बड़े निःशब्द
हैं। मुखरित
वे हुए, लेकिन उनके
वक्तव्य को, उनकी
अभिव्यक्ति
को जानने के
लिए तुम्हें
बड़ी पात्रता
चाहिए पड़ेगी।
मूर्तियां
उन्होंने भी
गढ़ी हैं,
लेकिन
वे मूर्तियां
चैतन्य की हैं; चिन्मय
हैं, मृण्मय
नहीं हैं, मिट्टी
की नहीं हैं, पत्थर
की नहीं हैं, पाषाण
की नहीं हैं।
लेकिन
उनकी बातों को
गलत समझकर न
मालूम कितने लोग
भागे। बुद्ध
को कितने
लोगों ने अपने
पलायन का आधार
बना लिया।
कितने लोग
चुपचाप जीवन
से सरक गए।
'जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है।’
किसने
मार्ग पूरा कर
लिया है?
उसने ही, जिसने
जीवन को उसकी
सारी
झंझावातों
में जीया है।
करता है
जुनूने—शौक
मेरा महराबे—तलातुम
में सजदे
तूफां
ये अकीदा रखता
है, साहिल के
परिस्तारों
में नहीं
मैं
प्रार्थना
करता हूं
तूफानों में!
करता है
जुनूने—शौक
मेरा महराबे—तलातुम
में सजदे
मेरा
उन्माद ऐसा है, मेरे
उत्साह का
उन्माद ऐसा है
कि मैं तूफान
में
प्रार्थनाएं
करता हूं।
सूफी ये
अकीदा रखता है
तूफान
में यह गुण है
कि प्रार्थना
का जन्म हो सकता
है।
तूफा ये
अकीदा रखता है, साहिल
के
परिस्तारों
में नहीं
किनारों
की ओट में जो
छिपकर बैठ गए
हैं, वहां
प्रार्थनाएं
पैदा नहीं
होतीं। वहा
तुम्हारा
जीवन उधार हो
जाता है,
नगद
नहीं रह जाता।
वहा तुम्हारा
जीवन बासा हो
जाता है,
ताजा
नहीं रह जाता।
सुबह की ताजगी
खो जाती है।
फिर ऐसे
ही, जैसे कोई
किसी को गोद
लेकर मां बन
जाती है,
ऐसे तुम
धार्मिक बन
जाते हो—किसी
और के शब्दों
को गोद लेकर।
गर्भ की कमी
गोद से पूरी न
हो सकेगी।
गर्भ चूक गए
तो गोद भरकर
धोखा अपने को
देने की कोशिश
भला कर लो, यह
धोखा महंगा है।
तो लोग
गीता रखे हैं
गोद में—गोद
ली हुई गीता।
कुरान रखे हैं
गोद में—गोद
ली हुई कुरान।
इस कुरान का
अपने गर्भ से
कोई जन्म नहीं
हुआ। इसे
चैतन्य की
गहराइयों में
गढ़ा नहीं गया।
इसके लिए
उन्होंने कोई
पीड़ा नहीं
उठाई।
मोहम्मद
से पूछो,
कैसी पीड़ा
में कुरान का
जन्म होता है!
जिस दिन पहली
दफा मोहम्मद
पर कुरान की
पहली आयत उतरी
तो कैप गए; जैसे
एक तूफान में
वृक्ष कैप
जाता है। जड़ें
हिल गयीं; घबड़ा
गए। बूंद में
सागर उतरे तो
घबड़ाहट तो
होगी ही। इतने
घबड़ा गए कि
बुखार चढ़ आया।
घर आने की
हिम्मत न पड़ी।
समझे कि पागल
हो गया हूं।
मुझको और
परमात्मा की
ऐसी कृपा उतर
सकती है?
मुझ ना—कुछ
को इतना बडा
प्रसाद मिले? हो
नहीं सकता।
जरूर मैं पागल
हो गया हूं।
यह मैंने अपनी
ही बात सुन ली
है। यह मेरे
मन का ही खयाल
है। यह मैंने
कल्पना कर ली
है। रोए,
चीखे, चिल्लाए
पहाड़ पर;
फिर चुपचाप
रात के अंधेरे
में घर आकर
बिस्तर में
छिप गए।
पत्नी
ने पूछा,
तुम्हें
हुआ क्या है? हाथ
पर हाथ रखा तो
आग की तरह जल
रहे थे। हुआ
क्या है?
सुबह
भले—चंगे गए
थे।
उन्होंने
कहा, तू अभी मत
पूछ। अभी मुझे
ही पक्का नहीं
है कि क्या
हुआ है! जरूर
कुछ पागलपन
हुआ है। मैं या
तो पागल हो
गया हूं या
किसी भ्रम में
खो गया हूं।
लेकिन तू तो
अपनी है,
तुझसे
मैं कहे देता
हूं क्या हुआ
है। इस—इस तरह
की वाणी
मुझमें आकाश
से उतरी है।
किसी और को
कहना मत;
बदनामी
होगी।
पत्नी
ने निश्चित
मोहम्मद को
प्रेम किया
होगा। वह उनके
चरणों में झुक
गई; उसने कहा, तुम
घबड़ाओ मत। यह
बुखार नहीं है, तुम
किसी बड़ी लपट
के करीब आ गए
हो। तुम्हारे
चारों तरफ मैं
एक आभामंडल
देखती हूं जो
मैंने कभी
नहीं देखा था।
तुम्हारे
चारों तरफ एक
रोशनी का
वातावरण है।
तुम घबड़ाओ मत, परमात्मा
उतरा है।
पत्नी
समझाती है कि
उतरा है और
मोहम्मद कहते
हैं कि नहीं, किसी
और को कहना मत; मैं
पागल हो गया
हूं।
बड़ी
पीड़ा से एक—एक
आयत उतरी
वर्षों के
अंतराल में; जैसे
एक—एक बच्चे
को जन्म दिया
हो।
फिर तुम
हो कि कुरान
को गोद में
रखकर बैठे हो; यह
कुरान तुम पर
उतरी नहीं। जो
कुरान तुम पर
नहीं उतरी, वह
कुरान नहीं।
जो बेटा तुमसे
पैदा हुआ नहीं, तुम
किसे धोखा दे
रहे हो उसे
बेटा कहकर? अपने
को समझा लो
भला! गोद भर
लेने से कुछ
भी न होगा, गर्भ
पहले भरना
पड़ेगा, तभी गोद
भरती है;
वह
दूसरा कदम है।
पहला कदम चूक
गया तो दूसरा
कदम सिर्फ
धोखा है।
जीवन सभी
को भर सकता है, सभी
की गोद भर
सकता है। जीवन
है इसलिए। दो तरह
की भूलें संभव
हैं : या तो तुम
जीवन में 'सोए—सोए
रहो—एक भूल; जिसको
हम गृहस्थ की
भूल कहें। फिर
दूसरी भूल कि
कोई जगाने
वाला मिल जाए
तो तुम जीवन
से भाग खड़े
होओ; जिसको हम
संन्यासी की
भूल कहें।
ठीक—ठीक, सम्यक
राह क्या है? सम्यक
राह है, जहां हो
वहीं रहो, जागकर
रहो। अब तक जो
अनुभव
तुम्हारे
चारों तरफ
गुजरे, तुमने नींद
में गुजर जाने
दिए; उनसे तुम जो
ले सकते थे
सार, नहीं ले पाए।
अगर तुमने
सार लिया होता, क्रोध
करुणा बन गई
होती; क्योंकि
क्रोध में
करुणा छिपी है।
क्रोध करुणा
का ही बीज है।
अगर तुमने
जीवन का अनुभव
लिया होता तो
काम प्रेम बन
गया होता; प्रेम
प्रार्थना बन
गई होती। काम
प्रेम का बीज
है।
प्रार्थना
छिपी है प्रेम
में।
काम में
छिपा है प्रेम; प्रार्थना
छिपी प्रेम
में; परमात्मा
छिपा
प्रार्थना
में।
अगर तुम एक—एक
सीढ़ी चढ़े होते...।
तो कुछ तो
लोग हैं,
जो
कामवासना में
डूबे हैं
अंधों की तरह।
और फिर कुछ
लोग हैं,
जो किसी
जागने वाले की
आवाज सुनकर
घबड़ा उठते हैं, भयभीत
हो जाते हैं
कि हम क्या कर
रहे हैं?
पाप! पाप!!
पश्चात्ताप
से भर जाते
हैं। भाग खड़े
होते हैं।
उनका काम का
बीज कभी
ब्रह्मचर्य
नहीं बन पाता।
भागकर कहां
जाओगे? भागोगे
किससे? रोग भीतर है।
यह तो ऐसे ही
है, जैसे
तुम्हें
बुखार चढ़ा है
और तुम भाग
चले जंगल की
तरफ। भागोगे
कहां? बुखार
तुम्हारे
भीतर है।
सारी
बीमारी
तुम्हारे
भीतर है। जीवन
को मौका दो कि
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है, उसे जला
डाले। जो कचरा
है, जल जाए; जो सोना
है, बच जाए।
जीवन को मौका
दो कि तुम्हें
कुंदन बना दे।
जीवन ही
मार्ग है 'जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है।
जिसने भी
मार्ग जीवन का
पूरा किया, उसे
दिखाई पड़ जाता
है — जीवन एक
ख्वाब है, एक
सपना है।
हस्ती
अपनी हुबाब की
सी है
बुलबुले
जैसी।
यह
नुमाइश सराब
की सी है
मृगतृष्णा
जैसी।
जिसने
भी जीवन के
मार्ग को पूरा
कर लिया है, उसे
दिखाई पड़ता है
कि जैसे एक
स्वप्न देखा।
जैसे रात
जिसने ठीक से
गुजार ली है, भोर
की ताजी हवाओं
में उठकर खयाल
आता है कि रात
कितने सपने
देखे! जीवन जब
तुम्हें सपना
जैसा दिखाई
पड़ने लगे, तब
समझना, मार्ग पूरा
हुआ है।
मेरी
बात सुनकर तुम
मान सकते हो
कि जीवन सपना है; इससे
कुछ हल न होगा।
यह तुम्हारा
अनुभव होना
चाहिए; मेरे कहे
क्या होगा? मैं
भोजन करूं, तुम्हारा
पेट नहीं भरता।
मैं नाचूं
इससे
तुम्हारे
प्राणों में
कोई सुरभि पैदा
न होगी। मेरी
वीणा बजे, इससे
तुम्हारी
वीणा के सोए
हुए तार न
जगेंगे।
तुम
भोजन करोगे तो
तृप्त होओगे।
जल की धार
तुम्हारे कंठ
से गुजरेगी तो
तुम्हारी
प्यास
संतृप्ति में
रूपांतरित
होगी।
जीवन से
जल्दी भाग मत
जाना। पहली तो
भूल कि सोए—सोए
जी रहे हो; अब
दूसरी भूल मत
कर लेना कि
सोए—सोए भाग
खड़े हो जाओ।
जागकर खड़े
होना है। जो
जागता है, वह
पकता है। और
परिपक्वता सब
कुछ है।
अब भी
क्रोध होगा, लेकिन
जागकर होने
देना। अब भी
कामवासना
आएगी, लेकिन जागे
रहना। भीतर
कोई जागा ही
रहे; कामवासना
आए—जाए, तुम जागे
रहना। तुम
देखते रहना, तुम
साक्षी रहना।
और तुम चकित
होओगे कि वह
प्रगाढ़ आधी
कामवासना की, आधी
जैसी नहीं है
अब, हल्की हवा
का झोंका है।
जैसे—जैसे तुम
जागते हो, वैसे—वैसे
उसकी शक्ति कम
होती चली जाती
है।
जिस दिन
तुम्हारी जाग
पूरी होती है, उसी
दिन काम से
प्रेम का जन्म
हो जाता है।
फिर तो द्वार
पर द्वार
खुलते चले
जाते हैं।
पहला द्वार ही
कठिन है। एक
बार महल में
प्रमुख द्वार
से प्रवेश हो
गया, फिर तो
द्वार पर
द्वार खुलते
चले जाते हैं।
क्योंकि
कुंजी कुछ ऐसी
है कि एक बार
हाथ आ गई तो
सभी तालों को
खोल लेती है।
'जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है।’
जिसको
दिखाई पड़ गया
है कि जीवन
स्वप्न है।
अगर ऐसा दिखाई
न पड़ा, तुम भाग गए, तो
तुम किसी और
जीवन का सपना
देखने लगोगे
पहाड़ों पर
बैठकर, जंगलों में
बैठकर, बियाबानों
में बैठकर—मोक्ष, स्वर्ग, अप्सराएं, हे!
तुम कोई और
जीवन का सपना
देखने लगोगे।
वह सपना यहीं
का अधूरा सपना
है, जो तुम पूरा
नहीं देख पाए।
नींद पूरी
नहीं हो पाई।
जाग बीच में
हो गई; स्वस्थ
नहीं जागे
अलसाए—अलसाए
जागे। फिर सो
जाने का मन है।
शास्त्रों
में देखो, वे
भगोड़ों ने
लिखे होंगे।
अधिक शास्त्र
उन्होंने
लिखे हैं।
स्वर्ग की
कैसी रोचक
तस्वीरें
खींची हैं! यह वासना
की खबर है।
अधूरे भाग गए
होंगे ये। यहौ
तो स्त्रियां
बूढ़ी भी हो
जाती हैं, रुग्ण
भी हो जाती
हैं, एक न एक दिन
हड्डी—मांस—मज्जा
की खबर मिलनी
शुरू हो जाती
है, एक न एक दिन
कुरूपता आ
जाती है। इन
भगोड़ों ने
लिखा है कि
इनके स्वर्ग
में अप्सराएं
सोलह साल पर
ठहर जाती हैं; वहा
से आगे उनकी
उम्र नहीं
बढ़ती। ये जरूर
वासनाग्रस्त
लोगों की
कल्पना होगी।
यहां का सपना
ही नहीं टूटा, वहां
तक सपना फैला
रहे हैं।
मरने की
दुआएं क्यों
मांगूं जीने
की तमन्ना कौन
करे
ये
दुनिया हो या
वो दुनिया अब
ख्वाहिशे—दुनिया
कौन करे
जिसको
समझ आ गई कि कामना
ही स्वप्नवत
है; इस दुनिया
की बात हो या
उस दुनिया की—ख्वाहिशे—दुनिया
कौन करे! वह मांगेगा
क्यो? जीने की तो
बात दूर,
वह मरने
की भी आकांक्षा
नहीं करता।
मरने की आकांक्षा
भी जीने की आकांक्षा
से पीड़ित लोग
करते हैं।
जिनको
तुम
आत्महत्या
करते देखते हो, यह
मत समझना कि
ये जीवन से
मुक्त हो गए।
इनकी जीवन की आकांक्षा
बड़ी प्रगाढ़ थी।
इतना प्रगाढ़
थी कि जीवन
उसे पूरा न कर
पाया। ये बड़े
लोभी थे,
लोभ भर न
सका। इनकी
झोली बड़ी थी, खाली
रह गई।
इन्होंने जो
स्त्री मांगी, न
मिली; जो पद मांगा, न
मिला? जो धन मांगा, न
मिला। ये अपनी
शर्तों पर
जीना चाहते थे।
निराशा में, उदासी
में, हारे हुए, ये
मृत्यु की
आकांक्षा
करते हैं। यह
वही संन्यासी
की भूल है।
कुछ
हिम्मतवर
एकदम से
आत्महत्या कर
लेते हैं, कुछ
कमजोर धीरे—धीरे
क्रमश:
आत्महत्या
करते हैं।
जिसको तुमने
अब तक त्याग
कहा है, वह धीमी—धीमी
आत्महत्या है—एक—एक
कदम अपने को
मारते जाओ।
स्वप्न
से भागने की
जरूरत नहीं है।
अगर जाग आ गई
हो, स्वप्न खुद
ही भाग जाता
है; तुम्हें
नहीं भागना
पड़ता। जब तक
तुम्हें
भागना पड़े, समझना
कि स्वप्न
अभी सत्य है।
जब स्वप्न ही
असत्य हो गया
तो भागना कहां
है?
राह पर
रस्सी पड़ी हो
और तुम सांप
समझ लो तो
भागते हो; फिर
कोई दीया लेकर
आ जाए और दिखा
दे कि रस्सी है, फिर
तो नहीं भागते।
बात ही खतम हो
गई। भागना
किससे है? सांप
ही न रहा।
संसार
जब तक सत्य
मालूम होता है, तब
तक तुम अभी
पके नहीं; अभी
बचकानापन
कायम है। अभी
वासना प्रौढ़
नहीं हुई, पकी
नहीं; अन्यथा गिर
जाती। लोग
कीटों से बच
के चलते हैं
मैंने
फूलों से जख्म
खाए हैं
जो देखेगा
उसे यही दिखाई
पड़ेगा कि फूल
तो काटे की
छिपने की
तरकीबभर है।
लोग दुखों से
बचकर चलते हैं, तब
तक समझना कि
अभी परिपक्व
नहीं हुए। जब
सुख को भी समझ
लें कि व्यर्थ, तब
समझना कि बोध
आया। क्योंकि
सुख दुख के
छिपने की
तरकीब से
ज्यादा नहीं
है। सुख तो
ओढ़नी है,
जो दुख
ओढ़े हुए है।
सूख तो
प्रलोभन है, जो
दुख ने
तुम्हें दिया
है। नर्क के
दरवाजे पर
स्वर्ग की
तख्ती लगी है।
नहीं तो कोई
नर्क में
प्रवेश ही न
करेगा। लोग
दरवाजे से ही
भाग खड़े होंगे।
एक
फकीर
मरने के करीब
था; सोया था, रात
नींद में उसने
देखा कि वह
परमात्मा के
सामने खड़ा है।
तो उसने कहा
कि मरने के
पहले एक मेरी आकांक्षा
है।
मुझे तुम
दोनों देख
लेने दो—स्वर्ग
और नर्क;
ताकि
मैं चुनाव कर
लूं। इतना तो
कम से कम करो; जिंदगीभर
तुम्हारी
प्रार्थना की
है। लोग कहते
हैं, नर्क बड़ा
बुरा, स्वर्ग बड़ा
भला। मैं अपनी
आंख से देख
लूं।
उसे
सुविधा दी गई।
स्वर्ग ले
जाया गया।
उसने स्वर्ग
देखा, लेकिन बड़ा
बेरौनक था—होगा
भी! अगर
तुम्हारे
तथाकथित सब
संन्यासी वहां
पहुंच गए हैं
तो बेरौनक
होगा ही। बैठे
होंगे अपने—अपने
झाडू के नीचे
सिर धुनते।
क्या करेंगे? न
कहीं गीत होगा, न
कहीं नाच होगा।
वृक्षों में
फूल भी
शर्माते
होंगे खिलने
से। स्वर्ग
में फूलों का
खिलना मना है।
ये बातें—कोई
रौनक तो नहीं
हो सकती,
जड़ता
छाई होगी, धूल
जम गई होगी।
अगर सभी
परमहंस वहीं
हैं तो तुम
कूड़ा—करकट का
सोचो, कि कितना
इकट्ठा नहीं
हो गया होगा!
गंदगी भर गई
होगी।
वह घबड़ा
गया; उसने कहा कि
यह स्वर्ग है? अच्छा
हुआ, पहले ही देख
लिया, अब नर्क
दिखला दें। वह
नर्क गया, देखकर
चकित हुआ; बड़ा
हैरान हुआ।
इतना सुंदर
था! फूल खिल
रहे थे, गीत गाए जा
रहे थे, बाजे बज रहे
थे, चहल—पहल थी, रौनक
थी। वह बड़ा
हैरान हुआ।
उसने
शैतान से पूछा
कि यह नर्क और
वह स्वर्ग? दुनिया
में बड़ी गलत
खबरें फैला
रखी हैं।
शैतान
ने कहा, हम करें
क्या? हमें कोई
मौका ही नहीं
प्रचार का।
एकतरफा
प्रचार है। सब
मंदिर भगवान
के हैं, सब मस्जिद
भगवान की हैं।
हमारे साथ बड़ी
ज्यादती हुई
है। यह अपनी आंख
से देख लो।
हमें मौका ही
नहीं। हमें
नाहक बदनाम
किया गया है।
उसने
कहा, तो फिर मैं
नर्क ही
चुनूंगा। आंख
खुल गई। फिर
वह मरा तो
उसने चुना
नर्क। जब वह
नर्क गया तो
चकित हुआ।
दुष्ट एकदम
उसके ऊपर टूट
पड़े। वह दृश्य
दिखाई ही न
पड़ा, जो पहले
दिखाई पड़ा था—रौनक, गीत—गान!
कड़ाहे जल रहे
और तेल उबाला
जा रहा और लोग
फेंके जा रहे...।
उसने
कहा, यह मामला
क्या है?
अभी दो
दिन पहले ही
मैं आया था।
शैतान
ने कहा, भई, वह तो जो
दर्शक आते हैं, उनके
लिए नर्क का
एक कोना
बना रखा है
दिखाने के लिए; यह
असली नर्क है।
तब तुम एक
विजिटर की तरह
आए थे, अब निवासी
की तरह आए। अब
तुम्हें मजा
मिलेगा।
नर्क के
द्वार पर भी
स्वर्ग की
तख्ती लगी है।
तख्तियों के
धोखे में मत आ
जाना। लोग
काटो से बच के
चलते हैं
मैंने
फूलों से जख्म
खाए 'हैं
असल में
काटे भी
होशियार हो गए
हैं; फूलों की ओट
में छिपे हैं।
काटो से तो सब
बचते हैं, फूलों
को सब तोड़ना
चाहते हैं।
जैसे तुम
मछलियों को
पकड़ने जाते हो
तो काटे पर
आटा लगा देते
हो। मछली कोई
काटे को थोड़े
ही पकड़ने आती
है, मछली आटा
पकड़ने आती है, फंसती
काटे से है।
अगर तुम
जीवन की इस
सारी प्रक्रिया
को जागकर
देखोगे तो तुम
पाओगे, जहां—जहां
तुमने दुख
पाया, जहा—जहां
काटे मिले, वहां—वहां
तुम गए तो सुख
की आशा में थे।
अभिलाषा तो
फूल की थी, काटा
मिला यह बात
और।
लेकिन
कब जागोगे? कितनी
बार यह
पुनरुक्त हुआ
है कि जब—जब
तुमने सुख
चाहा, तब—तब दुख
पाया इससे अपवाद
कभी हुआ ही
नहीं। जब—जब
फूल मांगे, तब—तब
काटे मिले।
मछलियां भी
होशियार हो गई
हैं, तुम कब तक
रुके रहोगे? मछलियां
भी सजग होकर
चलने लगी हैं।
आदमी फिर—फिर
सुख की आकांक्षा
करता
है।
परिपक्व
मनुष्य की यही
दशा है कि वह
देख लेता है, हर
काटे ने अपना
घूंघट बनाया
है फूल से।
जिसने
मार्ग पूरा कर
लिया है वह
शोकरहित हो ही
जाएगा, क्योंकि वह
सुख की आकांक्षा
नहीं
करता। उसने
फूल ही त्याग
दिए, फूल ही छोड़
दिए; अब काटे उसे
धोखा नहीं दे
सकते। अब आटे
की ही आकांक्षा
नहीं करता, अब
काटे कैसे
उसकी गर्दन को
उलझा लेंगे?
'जो शोकरहित
और सर्वथा
विमुक्त है।’
यही अर्थ
है सर्वथा
विमुक्त होने
का। अगर तुम
अभी भी सुख की आकांक्षा
कर रहे
हो, अगर तुम
धर्म की तरफ
भी सुख की आकांक्षा
से ही
गए हो, तो
तुम्हारा
संसार अभी
पूरा नहीं हुआ।
तुम्हारा
धर्म भी
तुम्हारे
संसार का ही
हिस्सा है।
धर्म की तरफ तो
वही जा सकता
है, जिसने जान
लिया कि सब
सुख दुख ले
आते हैं।
जिसने यह इतनी
गहनता से जान
लिया, समझ लिया कि
इसका अपवाद
होता ही नहीं।
सभी सफलताएं
असफलता ले आती
हैं। सभी
सम्मान अपमान
को बुलावा दे
आते हैं। सभी
प्रशंसाओं के
पीछे निंदा
छिपी है। जन्म
के पीछे मौत
खड़ी है, जिसने ऐसा
देख लिया
निरपवाद रूप
से, वही सर्वथा
विमुक्त है।
जीवन की
राह पर जो पक
गए, वे सर्वथा
विमुक्त हो
जाते हैं।
'और जिसकी
सभी ग्रथियां
क्षीण हो गई
हैं।’
ग्रथियां
क्या हैं? यह
शब्द समझने
जैसा है। यह
बुद्धों के
मनोविज्ञान
का बड़ा
बहुमूल्य शब्द
है। पश्चिम
में अभी—अभी
मनोविज्ञान
ने इसके
समानांतर
शब्द गढ़ा है
कांपलेक्स; उसका
अर्थ भी
ग्रंथि है।
लेकिन भारत
में यह शब्द
पांच हजार साल
पुराना है। और
जो लोग मुका
हो गए हैं, उनको
हमने कहा है
निर्ग्रंथ, जिनकी
ग्रंथि छट गई, जिनके
कांपलेक्स
समाप्त हो गए।
ग्रंथि
क्या है?
ग्रंथि
का सीधा अर्थ
होता है. गांठ।
गांठ का मतलब
क्या होता है? गांठ
का मतलब होता
है. गहरी आदत।
इतनी गहरी आदत
कि तुम खोलो
भी तो गांठ
अपने से बंध
जाती है र
वापस—वापस बंध
जाती है। तुम
इधर खोलकर छोड़
भी नहीं पाते..?।
जैसे कि
कहावत है कि
कुत्ते की
पूंछ को कोई
बारह वर्ष भी
पोंगरी में
रखे तो भी वह
तिरछी की
तिरछी! वह
बारह वर्ष के
बाद जब तुम
पोंगरा अलग
करोगे, वह तत्क्षण
तिरछी हो
जाएगी—ग्रंथि!
आदत बड़ी गहन
है उस पूंछ की।
तुमने
कभी इसका अपने
जीवन में
विचार किया कि
तुम कितनी बार
नहीं जाग गए
हो, कितनी बार
नहीं समझ गए हो
कि क्रोध कहर
है! कुत्ते की
पूंछ हो गई है।
हजार बार समझ
लेते हो,
लेकिन
जब फिर मौका
आता है, फिर तिरछी
की तिरछी; फिर
क्रोध हो जाता
है।
इस
ग्रंथि को
खोलना पड़े।
खोलने से ही
काम न चलेगा, क्योंकि
तुम फिर—फिर
बांध लेते हो।
तुम भूल ही गए
हो कि तुमने
कहां—कहां अपने
भीतर
ग्रंथियां
बांधी। दोष
तुम दूसरे को
देते हो;
तुम
कहते हो,
इस आदमी
ने कुछ ऐसी
बात कही कि
क्रोध आ गया।
क्रोध किसी
आदमी से नहीं
आता, अपनी गांठ
से आता है।
तुम कहते हो, किसी
आदमी ने गाली
दे दी इसलिए
मैं क्रोधित
हो गया। लेकिन
गाली गांठ से
टकराए तो ही
क्रोध आता है।
अगर भीतर गांठ
न हो, गाली आर—पार
निकल जाती है; कहीं
टकराती नहीं।
जिसे हम
अभी जीवन कहते
हैं, वह
ग्रंथियों का
जीवन है।
उसमें सब गाठ
से चल रहा है
काम। करीब—करीब
तुम्हारे
संबंध में
भविष्यवाणी
की जा सकती है
कि तुम कल
क्या करोगे।
क्योंकि
तुमने जो आज
किया है,
वही तुम
कल करोगे।
इसलिए तो
ज्योतिषी
तुम्हें धोखा
देने में समर्थ
हो जाते हैं।
तुम्हारी
जीवन की
व्यवस्था ऐसी
है—कोल्हू के
बैल जैसी, गोल
चक्कर में
घूमती है। अब
यह भी कोई बड़ी
कठिनाई की बात
है कि कोल्हू
के बैल को कोई
कह दे कि अब
फिर तेरा कदम
फलां जगह
पड़ेगा? पड़ने ही
वाला है,
वहीं
पड़ता रहा है।
ज्योतिषी
तुम्हारे
संबंध में सच
हो जाता है, क्योंकि
जानता है तुम
कोल्हू के
बैल हो। तुम
जो अब तक करते
रहे हो, वही तुम
करते रहोगे; वही
तुम दोहराए
चले जाओगे।
कुछ बातें
ज्योतिषी
तुमसे नियमित
रूप से कह देता
है, जिसमें कोई
भूल—चूक नहीं
होती। जैसे वह
हर आदमी से कह
देता है,
रुपया
हाथ में आता
है लेकिन
टिकता नहीं।
किसके टिकता
है? और जिनके
टिक भी जाता
है, वे भी मानते
नहीं कि टिकता
है। कृपण से
कृपण आदमी भी
यही मानता है
कि उससे ज्यादा
फिजूल—खर्च और
कोई भी नहीं।
कृपण से कृपण
भी यही कहेगा
कि ठीक कहा; रुपया
हाथ में आता
है, टिकता नहीं।
ज्योतिषी जान
रहा है
तुम्हारी लोभ
की दशा को; वह
सार्वजनिक है।
हां, किसी
बुद्ध का हाथ
देखेगा तो
गलती में पड़
जाएगा। मगर यह
कभी—कभी होता
है। बुद्ध के
हाथ सदा
उपलब्ध नहीं
हैं। जिन के
हाथ उपलब्ध
हैं, वे सोए हुए लोग
हैं। वह तुमसे
कहता है कि
जिनको तुम
अपना मानते हो, वही
तुम्हें धोखा
दे जाते हैं।
बात उसने पते
की कह दी।
जंचती है।
जिनको तुम
अपना मानते हो, वही
धोखा दे जाता
है। सभी आदमी
के संबंध में
सच है—गांठ है
इसकी।
सच है, ऐसा
नहीं; बात कुछ ऐसी
है कि तुम
किसी को अपना मानते
कहां, पहली बात।
और जिनको तुम
अपना मानते हो
तुम खुद ही
उनको धोखा दे
रहे हो, वे तुम्हें
कैसे न देंगे? तुम्हारी
इच्छा यह है
कि तुम तो
उन्हें'
धोखा दो
और वे
तुम्हारे बने
रहें, यह नहीं
होता। तुम भी
उन्हें धोखा
दे रहे हो, वे
भी तुम्हें
धोखा दे रहे
हैं। धोखे की
ही सब दोस्ती
है यहां।
ज्योतिषी
जिसको भी मिले, उससे
ही कह देता है
कि जिनको तुम
अपना मानते हो, वे
धोखा दे जाते
हैं।
ज्योतिषी
कहता है,
तुम
जिनके साथ
नेकी करते हो, वे
तुम्हारे साथ
बदी करते है।
यह बड़े मजे की
बात है। सबको
जंचती है।
तुमको भी खयाल
है कि तुमने
बड़ी नेकिया की
हैं। की वगैरह
नहीं हैं, खयाल
है; अहंकार की
आदत है, गांठ है कि
मुझ जैसा नेक
आदमी! मैं तो
वही उसूल मानता
हूं : नेकी कर
कुएं में डाल।
करता जाता हूं
र डालता जाता
हूं कभी
धन्यवाद की भी
आकांक्षा नहीं
रखी।
हर आदमी
को यही खयाल
है कि मैं
कितना कल्याण
कर रहा हूं
संसार का! और—लोग
कैसे हैं कि
इनको समझ में
नहीं आ रहा।
कोई पूजा के
थाल नहीं
सजाता, कोई आरती
नहीं उतारता।
मैं कल्याण
किए जा रहा
हूं और लोग
बदी किए जा रहे
हैं। उनसे
पूछो तो वे भी
यही सोच रहे
हैं कि वे
कल्याण कर रहे
हैं और लोग
उनके साथ बदी
कर रहे हैं।
तुम्हारी
गांठें..
गांठों का
अर्थ होता है :
यांत्रिक
जीवन। होश हो
तो तुम्हारे
संबंध में
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
क्योंकि फिर
तुम्हारा कल
नया होगा, आज
की पुनरुक्ति
नहीं। फिर
तुम्हारा हर
कल नया होगा, फिर
तुम्हारा हर
पल नया होगा।
नया होना
तुम्हारा ढंग
होगा। दूसरों
की तो छोड़ दो, तुम
भी अपने संबंध
में
भविष्यवाणी न
कर सकोगे। तुम
भी कंधे
बिचकाकर रह
जाओगे कि कल
का तो कुछ पता
नहीं। कल जब
आएगा तब
देखेंगे। कल
जब आएगा तभी
देख सकेंगे।
गांठ खोलनी ही
पड़े। लेकिन
गांठ भी तभी
खुलेगी,
जब तुम
जागकर जीवन की
पीड़ा को अनुभव
करोगे। गांठ
पीड़ा दे रही
है।
मेरे पास
रोज लोग आते
हैं; वे कहते हैं, बड़ा
दुख है। इस
ढंग से कहते
हैं, जैसे
उन्हें कोई और
दुख दे रहा है।
मानते भी वे
यही हैं कि
सारा ससार
उन्हें दुख दे
रहा है। पति
आता है, वह कहता है, पत्नी
दुख दे रही है।
पत्नी आती है, वह
कहती है,
पति दुख
दे रहा है।
बच्चे आते हैं, वे
कहते हैं, मां—बाप
मारे डाल रहे
हैं। मां—बाप
कहते हैं कि
बच्चे गले की
फांसी हो गए
हैं। दूसरे
दुख दे रहे
हैं।
इसका
अर्थ हुआ कि
तुमने अभी
जीवन की
परिपक्वता का
कोई भी अनुभव
नहीं पाया।
जैसे ही तुम.
जरा सा भी
अनुभव पाओगे, तुम
पाओगे, मैं अपने को
दुख दे रहा
हूं। और अगर
दूसरे भी मुझे
दुख देते हैं
तो इसीलिए दुख
देते हैं कि
मैं चाहता हूं
कि वे मुझे
दुख दें। मैं
रास्ते
निकालता हूं
मैं उपाय करता
हूं मैं पूरी
व्यवस्था जमा
देता हूं। अगर
वे न दें तो भी
मुसीबत।
मेरे एक
मित्र थे। मेरे
साथ ही
युनिवर्सिटी
में प्रोफेसर
थे, सदा रोना
रोते थे कि घर
जाता हूं तो
पांव रुकने
लगते हैं भीतर
जाने से।
पत्नी जैसी
होनी चाहिए, वैसी
पत्नी है। बड़ी
खतरनाक है।
छाती धड़कने
लगती है। सीधे—सादे
आदमी हैं।
तो
मैंने उनसे
कहा, तुम एक दिन
ऐसा करो,
कुछ
जरूर तुममें भी
कारण होंगे।
पहले तो तुमने
प्रेम—विवाह
किया इस
स्त्री से, तुमने
इसे चुना।
जरूर
तुम्हारे
भीतर कोई दुख
पाना चाहता
होगा इस
स्त्री से, इसलिए
चुना, नहीं तो
क्यों? इस स्त्री
को दूर से ही
देखकर कोई कह
सकता है,
जिसको
थोड़ा ही होश
है, कि इससे
सावधान रहना।
तुम फंसे कैसे? तुम
अपने आप गए? इस
स्त्री ने
तुमसे कहा था
कि हम तुम्हें
प्रेम करते
हैं? बोले,
नहीं।
मैंने ही अपने
हाथ से फांसी
लगाई।
स्त्रियां
यह काम करती
ही नहीं। तुम
किसी स्त्री
को कभी दोषी न
ठहरा सकोगे।
वह शुरुआत
करती नहीं। वह
खड़ी रहती है।
वह देखती रहती
है, करो शुरुआत।
रफ्ता—रफ्ता
करीब आओ। कभी
कोई स्त्री से
कोई पति यह
नहीं कह सकता
कि तूने मुझे
उलझाया। वह
उलझाती नहीं।
उलझाती है, खड़ी
रहती है।
तो
मैंने उनसे
कहा, तुम ऐसा करो; तुममें
ही कुछ कारण
होंगे जरूर।
पहले तुमने
इसे चुना, जाहिर
है कि तुम इस
दुख की
आकांक्षा
करते थे। जन्म—जन्म
से तुम इसी की
प्रतीक्षा
करते थे। अब
वह मिल गई तो
परेशान हो रहे
हो। और मैं
तुमसे कहता
हूं अगर यह
स्त्री छूट
जाए, तुम फिर ऐसी
ही स्त्री चुन
लोगे।
तुम्हीं
चुनोगे न! तुम
ऐसा करो,
तुम
बदलने की
कोशिश करो, बजाय
इसकी फिक्र
करने के। आज
तुम घर जाओ, फूल
ले जाओ, आइसक्रीम
ले जाओ, साड़ी
खरीदकर ले जाओ।
तुमने कभी यह
किया? उन्होंने
कहा कि नहीं
किया।
मैंने
कहा, तुम यह करो।
और घर में कुछ
काम भी करो।
पत्नी दिन—रात
काम करती है, उसके
प्लेट भी
धुलवाओ,
किचन भी
साफ करवाओ।
उन्होंने
कहा, क्या मतलब!
यह मैं करूं?
मैंने
कहा, करो। आज तो
कम से कम करो।
देखें, क्या फर्क
आता है!
वे गए; उन्होंने
यह किया।
दूसरे दिन
मुझे बताया कि
और झंझट खड़ी
हो गई। पत्नी
एकदम रोने—चिल्लाने
लगी कि तुम
क्या शराब
पीकर आए हो? तुमको
हो क्या गया
है? तुम्हें
होश है कि तुम
क्या कर रहे
हो? कभी जिंदगी
में आइसक्रीम
न लाए थे!
जो भी
तुम करोगे, इससे
बहुत फर्क न
पड़ेगा, क्योंकि
तुम वही हो।
तुम जो भी
करोगे, वह
तुम्हारी
गांठों से ही
निकलेगा। वह
रस तुम्हारी
गांठों से ही
रिस रहा है।
वह मवाद
तुम्हारी
गांठों में
भरी है।
परिणाम वही
होंगे। कुछ भी
करो, दुख हाथ आता
है।
लेकिन
फिर भी तुम यह
नहीं देखते कि
कहीं दुख मैं
ही तो पैदा
नहीं कर रहा
हूं! सभी दुख
देने को तत्पर
हैं तुम्हें!
आखिर सभी को
ऐसी क्या पड़ी
है। सभी इतने
दीवाने क्यों
हैं कि
तुम्हें दुख
दें? लेकिन
अहंकार यह
मानने को राजी
नहीं होना चाहता
कि मैं अपने
दुख का कारण
हो सकता हूं।
जिस दिन तुम
युहू समझ
जाओगे, उसी दिन से
जिंदगी में
क्रांति शुरू
होती है। उस
दिन से फिर हम
दूसरों को
बदलने नहीं
जाते। तुम
अपनी
ग्रंथियों को
बदलना शुरू
करते हो।
तुमने
जो पत्नी चुनी
है, तुमने चुनी
है। तुम्हारे
भीतर कोई गलती
होगी। पत्नी
ने पति को
चुना है,
उसने
चुना है;
उसके
भीतर कोई गलती
होगी।
दूसरे
के दोष देखते—देखते
तो तुमने
कितने जन्म
गुजारे;
कहीं न
पहुंचे। अब तो
जागो और अपना
दोष देखना
शुरू करो।
वहीं से
परिवर्तन
शुरू होता है।
तुम फिर एक
दूसरी ही
दुनिया में
रहने लगते हो, क्योंकि
तुम दूसरे हो
गए होते हो।
तुम बदले कि
दुनिया बदली।
'जिसकी सभी
ग्रंथियां
क्षीण हो गयीं, उसे
कोई दुख नहीं
होता।’
भीतर से
अहंकार हटाओ, तुम
पाओगे, अब
तुम्हारा कोई
अपमान नहीं कर
सकता—असंभव!
सारी दुनिया
भी मिलकर
तुम्हें
अपमानित करना
चाहे तो नहीं
कर सकती।
एक सूफी
फकीर एक गांव
में गया। लोगों
ने उसका अपमान
करने के लिए
जूतों की माला
बनाकर पहना दी।
वह बड़ा
प्रसन्न हुआ, उसने
माला को बड़े
आनंद से
सम्हाल लिया।
लोग बड़े हैरान
हुए। क्योंकि
वे आशा कर रहे
थे कि वह
नाराज होगा, गाली
देगा, झगड़ा खड़ा
करेगा। इच्छा
ही यह थी कि
झगड़ा खड़ा हो
जाए। बड़े झुक—झुककर
उसने नमस्कार
किया; और जैसे कि
फूलों की माला
हो, गुलाब
पहनाए हों।
आखिर एक आदमी
से न रहा गया।
उसने पूछा, मामला
क्या है?
तुम्हें
होश है? यह जूतों की
माला है। उसने
कहा, माला है, यही
क्या कम है? जूतों
की फिक्र तुम
करो, हम माला की
फिक्र कर रहे
हैं। और
चमारों का गांव
है, करोगे भी
क्या तुम? फूल
तुम लाओगे
कहां से?
यह कोई
मालियों की
बस्ती तो है
नहीं; चमारों की
बस्ती है।
पहचान गए हम
कि चमारों की
बस्ती है। मगर
धन्यभाग कि
तुम माला तो
लाए! इसे
सम्हालकर
रखूंगा।
फूलों की तो
बहुत मालाएं
देखीं, यह अनूठी है।
तुमने अपने
संबंध में सब
कुछ कह दिया।
तुम अगर
भीतर अहंकार
से भरे नहीं
हो, अहंकार की
ग्रंथि भीतर
नहीं, तो
तुम्हारा कोई
अपमान नहीं
किया जा सकता।
जूतों की माला
में भी माला
दिखाई पड़ने
लगेगी। अभी तो
फूलों की माला
में भी फूल
दिखाई नहीं पड़ते।
एक
राजनेता की
सभा थी, वह बड़ा
नाराज हो रहा
था, बड़ा दुखी हो
रहा था। बाद
में मैनेजर को
बहुत डांटने
लगा। उसने कहा
कि मामला क्या
है? नाराज आप
किसलिए हैं? उसने
कहा, सिर्फ
ग्यारह माला!
उसने कहा, ग्यारह
कोई कम हैं? उसने
कहा, बारह के
पैसे चुकाए थे।
अपनी
माला भी.. —खुद
ही पैसे
चुकाने पड़ते
हैं और गिनती
रखनी पड़ती है।
फूल भी तब फूल
नहीं रह जाता।
अहंकार पर चढ़े
फूल भी काटे
हो जाते हैं।
भीतर की
ग्रंथि के
बदलने की बात
है।
पर यह
जीवन की
परिपक्वता से
ही संभव है और
कोई उपाय नहीं
है। जीवन के
अतिरिक्त कोई
मार्ग नहीं।
जीवन ही पथ है— ।
'स्मृतिवान
पुरुष उद्योग
करते हैं, वे
गृह में नहीं
रमते। हंस जिस
प्रकार डबरे
छोड़ देते हैं, उसी
प्रकार वे सभी
घर छोड़ देते
हैं।’
फिर भूल
न हो जाए।
देखना, बुद्ध के
वचन में बड़ी
बारीक बात है।
जो विरोध
बुद्ध के वचन
में है, वह उद्योग
और गृह में है।
बुद्ध
कहते हैं, 'स्मृतिवान
पुरुष उद्योग
करते हैं, वे
गृह में नहीं
रमते।’
बड़ी बात
उलटी सी लगती
है। कहना
चाहिए कि वे
आश्रम में
रहते हैं, घर
में नहीं रहते; समझ
में आता। जंगल
में रहते हैं, घर
में नहीं रहते; समझ
में आता।
लेकिन बुद्ध
जो विरोध साध
रहे हैं,
वह बड़ा
अनूठा है।
वे कहते
हैं, 'स्मृतिवान
पुरुष उद्योग करते
हैं, गृह में
नहीं रमते।’
उद्योग
से घर का क्या
विरोध? उद्योग से
घर का लेन—देन
क्या?
वहीं
सारा रहस्य
छिपा है। घर
तुम इसीलिए
बनाते हो कि
कल उद्योग न
करना पड़े। कल
की सुरक्षा के
लिए आज तुम घर
बनाते हो। कल
की सुरक्षा के
लिए आज बैंक
बैलेंस बनाते
हो। कल की सुरक्षा
के लिए, अगले परलोक
की सुरक्षा के
लिए पुण्य
करते हो।
अगर तुम
गौर से देखो
तो तुम्हारे
घर बनाने की सभी
चेष्टा
उद्योग 'से बचने की
चेष्टा है।
धनी तुम
किसलिए होना
चाहते हो? ताकि
उद्योग न करना
पड़े। तुम
उद्योग भी
करते हो तो
उद्योग से
बचने की ही आकांक्षा
में
करते हो।
स्मृतिवान
पुरुष—स्मृतिवान
अर्थात जागे
हुए; जिन्हें
होश आ गया, जिन्हें
अपनी याद आ गई—वे
उद्योग करते
हैं, घर में नहीं
रमते।
अब इस
सूत्र का अर्थ
बौद्ध
भिक्षुओं ने
समझा कि घर से
भागो। इस
सूत्र का
अर्थ है :
उद्योग करो और
सुरक्षा के घर
मत बनाओ।
इतना सीधा
अर्थ भी चूक
जाता है। इसको
भी बताना पड़ता
है। यह तो
बिलकुल साफ है, इसमें
किसको बताना!
लेकिन धम्मपद
पर जितनी भी व्याख्याएं
की गई हैं, वे
सभी
व्याख्याएं
यही कहती हैं, घर
को छोड़ दो।
पच्चीस सौ साल
का गलत—सलत
प्रचार न
मालूम कितने
लोगों को भटका
गया है।
बुद्ध यह
कह रहे हैं, 'स्मृतिवान
पुरुष उद्योग
करते हैं।’
इसका
क्या अर्थ हुआ? इसका
अर्थ हुआ, वे
कल के लिए कोई
भी सुरक्षा
आयोजित नहीं
करते। कल जब
आएगा, कल की
चुनौती को कल
ही निपटेंगे।
आज अगर हम जी
सके तो कल भी
जी लेंगे। और
आज जिस
प्रज्ञा के
आधार पर,
जिस होश
के आधार पर
जीवन को
सुलझाया, उसी होश
के आधार पर कल
भी सुलझा
लेंगे। आज हम
कल के लिए घर
क्यों बनाएं? भविष्य
के लिए आज हम
चिंता क्यों
करें?
जीसस का
वचन है.
लोमड़ियों के
लिए भी घर 'हैं
सिर छिपाने को, लेकिन
परमात्मा के
बेटे के लिए
कोई स्थान नहीं, जहा
वह सिर छिपा
ले।
वही
मतलब है। जीसस
ने अपने
शिष्यों से
कहा, देखो लिली
के फूलों को
जो खेत में
लगे हैं;
इन्हें
कल की कोई भी
चिंता नहीं।
ये आज खिले
हैं; इन्हें कल
की कोई भी
फिक्र नहीं।
इसलिए इनके
माथे पर चिंता
की कोई रेखा
नहीं। सम्राट
सोलोमन भी
इतना सुंदर न
था अपने महलों
में, जितने ये
फूल निश्चित
परम सौंदर्य
को उपलब्ध हुए
हैं।
अगर
संन्यास
सच्चा हो तो
संन्यास से
बड़े सौंदर्य
की और कोई
घटना नहीं।
क्योंकि इसका
अर्थ होता है
कि संन्यासी
के मन पर
भविष्य का कोई
बोझ नहीं।
इसका दूसरा
अर्थ होता है
कि संन्यासी
के मन पर अतीत
का भी कोई बोझ
नहीं। जो
भविष्य के लिए
घर नहीं बनाता, वह
अतीत के घरों
को क्यों ढोका? जो
कल घर बनाए थे, वे
कल काम आ गए।
जो कल काम में
आएंगे, कल बना
लेंगे; आज
पर्याप्त है।
यह संन्यास की
दशा है।
सारे
चमन को मैं तो
समझता हूं
अपना घर
तू
आशियां—परस्त
है, जा आशियां
बना
संन्यासी
का अर्थ यह
नहीं है कि
उसने घर छोड़
दिया।
संन्यासी का
अर्थ है,
उसने
सारे
अस्तित्व को
अपना घर मान
लिया; अलग से घर
बनाने की
जरूरत न रही।
संन्यासी का
अर्थ यह है कि
यह पूरा
अस्तित्व, यह
आकाश, यह पृथ्वी
अपनी है। यह
जीवन अपना है; ये
चांद—तारे
अपने हैं। यह
सारा विस्तार
घर है। अब और
अलग घर बनाने
की क्या जरूरत?
ही, जिनकी
आकाश से
दुश्मनी है, जिनको
चांद—तारों से
भय है, जिन्हें
अपनी सुरक्षा
अलग से करनी
है, यह पूरे
परिपूर्ण की
सुरक्षा
जिनके लिए ना
काफी मालूम
होती है, जिन्हें
परमात्मा
काफी नहीं है, वे
अपने लिए घर
बनाते हैं।
परमात्मा
काफी है,
काफी से
ज्यादा है
पर्याप्त ही
नहीं है,
पर्याप्त
से बहुत
ज्यादा है।
जिसको ऐसी समझ
आनी शुरू हो
गई, वह उद्योग
करता है,
श्रम
करता है,
जूझता
है, लेकिन
सुरक्षा नहीं
खोजता। और
जीवन के रहस्य
उसी को पता
चलते हैं, जो
असुरक्षा में
जीने की कला
जानता है।
प्रेम
करना, विवाह नहीं।
विवाह
सुरक्षा है, प्रेम
असुरक्षा है।
लेकिन दो व्यक्ति
प्रेम में
पड़ते हैं कि
तत्क्षण
चिंता में पड़
जाते हैं कि
विवाह करें।
क्योंकि अगर
विवाह न किया, फिर
कल क्या होगा? वृक्ष
जी रहे हैं, पशु—पक्षी
जी रहे हैं, कुछ
भी नहीं हुआ।
कितने कल गुजर
गए। सिर्फ
आदमी को कल की
फिक्र है।
तुम्हें
अपने प्रेम पर
भरोसा नहीं है, इसीलिए
तुम सुरक्षा
खोजते हो
कानून की।
प्रेम पर
भरोसा हो तो
कानून की क्या
सुरक्षा! आज
अगर प्रेम है
तो कल भी
रहेगा। कल तो
और बढ़ जाएगा।
इतना समय बीत
चुका होगा, गंगा
और थोड़ी बड़ी
हो जाएगी, जीवन
के झरने उसे
और थोड़ा भर
देंगे।
लेकिन
तुम्हें आज ही
कहो भरोसा है
कि प्रेम है? आज
ही गंगा
सिकुड़ी—सिकुड़ी
है। आज ही
गंगा सूखी—सूखी
है। आज ही ऐसा
लगता है कि कब
गंगा उड़ी! कब
गई! इसके पहले
कि गंगा उड़
जाए और रेत का
रेगिस्तान रह
जाए, कानून की
गंगा बना लो।
इसके पहले कि
गंगा उड़ जाए, कानून
के नल लगा लो, कानून
की टोंटी लगा
लो; उससे थोड़ा
जल तो मिलता
रहेगा। लेकिन
गंगा को खोकर
नल की टोंटी
को पा लेना बड़ा
महंगा सौदा है।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि विवाह
मत करना;
मैं यह
कह रहा हूं कि
विवाह प्रेम
का परिपूरक न
बन जाए। सामाजिक
व्यवस्था है, ठीक; लेकिन
तुम्हारी
आतरिक
सुरक्षा न हो।
तुम विवाह पर
निर्भर मत
रहना, तुम प्रेम
पर निर्भर
रहना, तो तुम
संन्यस्त हो; तो
तुम घर नहीं
बना रहे;
तो तुम
कानून में
सुरक्षा नहीं
खोज रहे;
तो तुम
खुले हो;
तो तुम
कहते हो,
कल जो
होगा, देखेंगे; कल
जो दिखाएगा, देखेंगे, कल
के लिए आज से
इंतजाम नहीं
किया है।
अब एक
रात अगर कम
जीए तो कम ही
सही
यही
बहुत है कि हम
मशअलें जला के
जीए
क्या
फर्क पड़ता है, एक
दिन कम जीए? —जीए!
लेकिन लोग ऐसे
हैं कि वे
कहते हैं, एक
दिन ज्यादा जी
लें; चाहे जीएं
या न जीएं।
लोग कहते हैं, जिंदगी
लंबी हो। यह
पूछते ही नहीं
कि जिंदगी की
लंबाई से जिंदगी
का क्या लेना—देना? जीवन
की सुरक्षा से
जीवन की गहराई
का क्या संबंध? लोग
जीवन में
परिमाण खोजते
हैं, गुण नहीं।
जो गुण
खोजता है, वही
संन्यस्त; जो
मात्रा खोजता
है, गृहस्थ। जो
कहता है,
जितनी
ज्यादा देर जी
लें। इसकी
फिक्र ही भूल
जाता है कि
ज्यादा देर
जीने में कहीं
ऐसा न हो कि
हम जी ही न
पाएं। ज्यादा
देर की चिंता
कहीं जीवन को
ही नष्ट न कर
दे।
अब एक
रात अगर कम
जीए तो कम ही
सही
यही
बहुत है कि हम
मशअलें जला के
जीए
मशाले
जलाकर जीए, रोशनी
में जीए। एक
क्षण भी अगर
कोई मशालें
जलाकर जी ले
तो हजारों
जन्मों से
ज्यादा है। और
तुम हजारों
जन्म घसिटते
रहो, घसिटते रहो, जीने
का मौका ही न
आए—आता ही
नहीं, क्योंकि आज
तुम कल की
तैयारी करते
हो। आज गंवाया।
और आज ही
सब कुछ है, एकमात्र
संपदा है। कल
तुम परसों की
तैयारी करोगे, क्योंकि
कल फिर आज
होकर आएगा। और
आज तो तुम
जीते नहीं। आज
तुम सदा कल पर
न्यौछावर
करते हो। फिर
तुम जीओगे कब? एक
दिन मौत आ
जाएगी और कल
की सारी
संभावना छीन लेगी।
तुम कोरे के
कोरे रह जाओगे।
जन्मते बहुत
लोग हैं,
जीते
उतने बहुत लोग
नहीं। जन्मते' करोड़ों
हैं, जीता कोई एकाध।
जीता वही है, जो
आज जीता है।
जीने को
गंवाने का
सबसे सुगम
तरीका है—रामबाण—कि
तुम कल की आकांक्षा
, कल
का हिसाब, कल
की सुरक्षा
में जीते रहो।
इंतजाम करो, जीओ
मत। व्यवस्था
करो कि जब
व्यवस्था
पूरी हो जाएगी, तब
जीएंगे।
व्यवस्था कभी
पूरी न होगी, तुम
पूरे हो जाओगे।
आंख
पड़ती है कहीं
पांव कहीं
पड़ता है
सबकी है
तुम को खबर
अपनी खबर कुछ
भी नहीं
सब
हिसाब लगा रहे
हो—बच्चों का, पत्नी
का, मा—बाप का, परिवार
का, समाज का, दुनिया
का; इजरायल में
क्या हो रहा
है, कंबोडिया
में क्या हो
रहा है, वियतनाम
में क्या हो
रहा है
आंख
पड़ती है कहीं
पांव कहीं
पड़ता है
सबकी है
तुमको खबर
अपनी खबर कुछ
भी नहीं
ऐसे ही
बेहोशी में
चलते—चलते
कब्र में गिर
जाओगे।
मशालें जलाकर
जीयो। थोड़ी
रोशनी करो।
छोड़ो फिक्र और
सब। यह जीवन
बड़ा बहुमूल्य
है, इसे ऐसे मत
गंवा दो। इसे
रूपांतरित
करो, इसे
गुणवत्ता दो, इसे
भगवत्ता दो।
'स्मृतिवान
पुरुष उद्योग
करते हैं, वे
गृह में नहीं
रमते।’
नदी की
धार हैं वे, बहते
हैं; बंधे तालाब
नहीं।
'हंस जिस
प्रकार डबरे
छोड़ देते हैं, उसी
प्रकार वे सभी
घर छोड़ देते
हैं।’
घरों से
मतलब नहीं है।
बुद्ध पुरुष
क्षुद्र
बातें करते ही
नहीं।
क्षुद्र घरों की
क्या बात
करेंगे?
बुद्ध
पुरुष की बात
साफ है। हंस
जिस प्रकार
डबरे छोड़ देते
हैं, मानसरोवर
की तलाश करते
हैं, वैसे ही
स्मृतिवान
पुरुष असीम की
खोज में लगते
हैं, सीमाएं छोड़
देते हैं।
घर यानी
सीमा। सरोवर
नहीं बनते, सागर
की तलाश पर
निकलते हैं।
सागर की तलाश
में ही तो
सरोवर सरिता
बन जाता है।
सागर की तलाश
न हो तो डबरा
बन जाता है।
धीरे—धीरे
सूखता है और
सड़ता है और
दुर्गंध उठती
है बस। डबरे
का कसूर क्या
है? सड़ क्यों
जाता है?
जहां
सीमा है,
वहीं
सड़ाध आ जाती
है। डबरे ने
घर बना लिया, बहने
से डरा, अनजान से
घबड़ाया। पता
नहीं, आगे क्या हो!
यहीं ठहर गया, घर
बना लिया।
नदी
बढ़ती चली जाती
है। आज बड़ा
सुंदर किनारा
है माना,
लेकिन
फिर भी पकड़कर
रुक जाना नहीं।
क्योंकि
सौंदर्य को भी
अगर पकड़कर रुक
जाओ तो सौंदर्य
भी सड़ जाता है।
आज माना कि सब
ठीक है, लेकिन अगर
इसे तुमने जोर
से मुट्ठी में
बांध लिया और
छोड़ने में
घबड़ा गए तो यह
भी राख हो जाएगा।
यह सुंदर है
तुम्हारे
बहने में। तुम
बहते रहो, नदी
स्वच्छ बनी
रहती है,
कुंआरी
बनी रहती है।
बहती रहती है।
नदी के
कुंआरेपन को
कोई छीन नहीं
सकता, क्योंकि
बहनेपन में कुंआरापन
है।
संन्यास
कुंआरापन है।
संन्यास यानी सदा
बहते रहना।
निराले
हैं अंदाज
दुनिया से
अपने
कि
तकलीद को
खुदकुशी
जानते हैं
संन्यास
एक निराला
अंदाज है। भीड़
के पीछे चलने
को संन्यासी
आत्मघात
समझता है।
निराले
हैं अंदाज
दुनिया से
अपने
कि
तकलीद को
खुदकशी जानते
हैं
तकलीद
यानी भीड़। सभी
घर बनाए बैठे
हैं, तुम भी घर
बनाने लगे।
सभी विवाह
रचाए बैठे हैं, तुम
भी विवाह
रचाने लगे।
सभी बैंक में
धन इकट्ठा कर
रहे हैं,
तुम भी
करने लगै। सभी
जो कर रहे हैं, वही
तुम भी करने
लगे। तुम ने
यह पूछा ही
नहीं कि यही
करने को मैं
यहां आया हूं? लेकिन
सभी जो कर रहे
हैं! तुम्हें
होश है, तुम क्या कर
रहे हो? तुम अनुकरण
में पड़े हो।
यह तो पूछो कि
तुम्हें करना
है? अगर यही
तुम्हारा
कृत्य है तो
करो; लेकिन
दूसरे कर रहे
हैं...।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
साथ मैं एक
दिन उसकी गाड़ी
में बैठकर आ
रहा था। भरी
धूप, गर्मी के
दिन, और वह काच न
उतारे
खिड़कियों के।
मैंने उससे
पूछा कि मार
डालोगे?
वह कहने
लगा, मर जाना ठीक
है, लेकिन
मोहल्ले
वालों को यह
पता चल जाए कि
गाड़ी
एयरकंडीशंड
नहीं, यह बरदाश्त
के बाहर है।
दूसरों
के पास
एयरकंडीशंड
गाड़ी है। हवा
के झोंके बाहर
हैं, लेकिन वह
दरवाजे—खिड़कियां
बंद किए बैठा
है। पसीने से
तरबतर है, लेकिन
बरदाश्त करना
ही होगा।
दूसरों का
अनुकरण!
तुमने
कभी गौर किया
कि तुम कितनी
चीजें दूसरों
के पीछे चलने
लगते हो,
करने
लगते हो। किसी
ने नया मकान
बना लिया, तुम
बनाने लगे। यह
भी तो पूछो, जरूरत
थी? कोई नए कपड़े
बना लाया, तुम
बनाने लगे।
किसी की नई
साड़ी देख ली, तुम
चले। तुम्हें
जरूरत थी? अपनी
जरूरत से चलो, अपने
भीतर से चलो, अन्यथा
तुम आत्मघात
कर रहे हो।
ऐसे दूसरों के
पीछे अगर
दौड़ते रहे तो
दौड़ोगे बहुत, पहुंचोगे
कहीं भी नहीं।
'हंस जिस
प्रकार डबरे
छोड़ देते हैं..।’
सबने
डबरे बना रखे
हैं अपने—अपने।
घबड़ा गए हैं
बहने से.
हिम्मत खो दी
है। और जहां
हिम्मत गई, वहीं
आत्मा गई।
बहो; मिट
तो जाना ही है।
लेकिन नदी के
मिटने में एक
ज्ञान है।
डबरे के मिटने
में एक गरीबी
है, दीनता है, दरिद्रता
है। डबरा भी
सूख जाएगा।
सूरज की धूप
उसको भी उड़ा
देगी, वह भी
मिटेगा,
लेकिन
बड़ा तड़फता
हुआ मिटेगा।
झिझकता हुआ
मिटेगा।
पकड़ता हुआ—जमीन
को पकड़े रखेगा, जोर
से पैर गड़ाकर
रुका रहेगा।
जबरदस्ती
उसकी मौत
घटेगी, स्वेच्छा
से न मर सकेगा।
सरलता से न बह
सकेगा। मौत
उसकी बड़ी
दुखदायी होगी, बड़ी
पीड़ादायी
होगी।
नदी भी
मरेगी, नाचती हुई
मरेगी, समाधिस्थ
होकर मरेगी।
नदी की
गुनगुनाहट
देखी, जब सागर में
गिरती है? नाच
देखा, जब सागर में
गिरती है? नदी
में उठती
लहरों की
तरंगें देखीं, जब
सागर में
गिरती है? मिट
वह भी रही है।
डबरे का जल भी
वहीं पहुंच
जाएगा सागर
में, जरा कठिनाई
से पहुंचेगा, जद्दोजहद
से पहुंचेगा।
नदी स्वेच्छा
से जा रही है, अपनी
मौज से जा रही
है।
अगर तुम
मरना सीख जाओ
अपनी मौज से
तो मौत भी बड़ी
सुंदर है।
संन्यासी
भी मरता है, पर
उसकी मौत बड़ी
नाचती हुई है; वह
मौत के पीछे
खड़े परमात्मा
को देखता है।
वह मौत को
अपने मिटने की
तरह नहीं
देखता, सागर होने
की तरह देखता
है कि मैं अब सागर
हुआ! अब सागर
हुआ!
डबरा
देखता है, मैं
मरा! मैं मरा!
उसे सागर
दिखाई नहीं
पड़ता—है भी
बहुत दूर। वह
कभी बहा नहीं
है, नहीं तो
सागर के करीब
पहुंच जाता।
बीच में बड़ी
बादलों की
कतारें होंगी, तब
कहीं सागर
आएगा।
सभी
मरते हैं।
गृहस्थ भी
मरता है,
संन्यासी
भी मरता है।
पर मृत्यु का
भी गुणधर्म
बदल जाता है।
अगर तुम जीए
ठीक से तो तुम
मरोगे भी ठीक
से। अगर तुम
नाचते जीए तो
नाचते मरोगे।
तुम्हारे
जीवन की शैली
ही तुम्हारी
मृत्यु की
शैली होगी। और
मृत्यु सील
लगा जाएगी
तुम्हारे
अस्तित्व पर; कह
जाएगी कि तुम
कौन थे! कह
जाएगी, तुम क्या थे!
अगर तुम तड़फते
मरे तो तुम
खबर दे गए कि
तुम ठीक से
जीए न, चूक गए।
अधूरे गए, कच्चे
गए।
जिंदगानी
है फकत गर्मिए—रफ्तार
का नाम
मंजिलें
साथ लिए राह
पे चलते रहना
जीवन तो
रफ्तार का नाम
है, गति का।
जीवन की कोई
मंजिल नहीं है।
बहुत मंजिलें
आती हैं,
मंजिल नहीं
आती। सब
मंजिलें पड़ाव
हैं, ठहरना और
आगे बढ़ जाना।
जिंदगानी
है फकत गर्मिए—रफ्तार
का नाम
वह जो
उष्णता है गति
की, वही जिंदगी
है।
मंजिलें
साथ लिए राह
पे चलते रहना
मंजिलों
को आगे मत
रखना—साथ लिए।
मंजिलों को
भविष्य में मत
रखना—आज लिए।
मंजिलों को कल
पर मत टालना।
मंजिलें
साथ लिए राह
पे चलते रहना
तो तुम
डबरों की
बतखें न हो
जाओगे, तुम
मानसरोवर के
हंस हो जाओगे।
इसी अर्थ में
हमने
संन्यासियों
को हंस और परमहंस
कहा है।
मानसरोवर की
खोज पर जो
निकले हैं, दूर
असीम से मिल
जाने की जिनकी
तड़फ है,
मिट
जाने की जिनकी
तडूफ है,
खो जाने
की जिनकी तड़फ
है, बचने का
जिन्हें अब
मोह नहीं। जो
बचने के मोही
हैं, वे घर बनाते
हैं। जो अपने
को खो देने को
तैयार हैं, वे
कोई घर नहीं
बनाते। और मजा
यह है कि जो
बचाते हैं, वे
मिट जाते हैं।
जो खो देते
हैं, वे कभी भी
नहीं मिटते।
'जिनका कोई
संग्रह नहीं
है, जो भोजन में
संयत हैं, शून्य
और अनिमित्त
विमोक्ष
जिनका गोचर है, उनकी
गति आकाश में
पक्षियों की
गति की भांति
दुरनुसरणीय
है। 'जिसके
आसव क्षीण हो
गए हैं, जो आहार में
आसक्त नहीं है, और
शून्य तथा
अनिमित्त
विमोक्ष
जिसका गोचर है, उसका
पद आकाश में
पक्षियों की
गति की भांति
दुरनुसरणीय
हो गया है।’
'जिनका कोई
संग्रह नहीं
है।’
संग्रह
करता है
अहंकार।
क्योंकि
जितना तुम कह
सको मेरा, उतना
ही तुम्हारा
मैं बड़ा हो
जाता है।
जितना
तुम्हारा
मेरा बड़ा होता
है, उतना ही मैं
बड़ा हो जाता
है। जितना
मेरा छोटा
होता है,
उतना मै
छोटा हो जाता
है। बड़ा धन है, बड़ा
पद है, बड़ा राज्य
है, तो जो
तुम्हारे
राज्य की सीमा
है, वही
तुम्हारे मैं
की सीमा है।
राज्य
सिकुड़ने लगे, तुम्हारा
मैं भी
सिकुड़ने लगा।
लोग धन
के लिए थोड़े
ही धन को
चाहते हैं। पद
के लिए थोड़े
ही पद को
चाहते हैं। यश
के लिए थोड़े
ही यश को
चाहते हैं। यह
सारी आकांक्षा
अहंकार
को भरने की आकांक्षा
है—मैं
कुछ हूं ना—कुछ
नहीं।
जिसने
यह समझा कि यह
मैं ही सारे
दुखों का कारण
है, वह ना—कुछ
होने को तैयार
हो जाता है।
संग्रह की
वृत्ति उसकी
खो जाती है, परिग्रह
का भाव विलीन
हो जाता है, पकड़ता
नहीं।
'जिनका कोई
संग्रह नहीं
है, जो भोजन में
संयत हैं।’
बुद्ध
का बहुत जोर
संयम पर है।
संयम का अर्थ
समझ लेना; ज्यादा
खाओ तो असंयम, उपवास
करो तो असंयम।
संयम का अर्थ
होता है. जो
मध्य में संयत
है, संतुलित है; न
ज्यादा भोजन, न
कम भोजन।
ज्यादा
खाने वाले लोग
हैं, असंयत हैं, असंयमी
हैं। उनको तो
तुम असंयमी
कहते हो। फिर
ये ही कभी
मंदिरों में
बैठ जाते हैं, मुनि
हो जाते हैं, उपवास
करने लगते हैं; तब
तुम इनको
संयमी कहते हो।
ये भी
असंयत हैं। ये
वही लोग हैं, जो
ज्यादा खाने
से परेशान थे, अब
कम खाने से
अपने को
परेशान कर रहे
हैं। गांठ
मौजूद है, दुख
पा रहे हैं।
पहले ज्यादा
खाकर पाया, अब
कम खाकर पा
रहे हैं।
यही तो
मैंने कहा कि
गांठ बदलनी
जरूरी है, नहीं
तो तुम कुछ भी
करो, दुख ही
पाओगे। अब मजे
की बात है, ज्यादा
खाकर भी दुख
पाया, उपवास करके
भी दुख पा रहे
हैं। जैसे दुख
पाने के लिए
इन्होंने कसम
खा रखी हैं; जैसे
दुख पाएंगे ही।
संयत का अर्थ
है : सम्यक; उतना
ही, जितना
जरूरी है।
जितना शरीर को
जरूरी है, उतना
भोजन। जितना
शरीर को जरूरी
है, उतना श्रम।
जितना शरीर को
जरूरी है, उतना
विश्राम।
जितना आवश्यक
है उससे
ज्यादा नहीं, उससे
कम भी नहीं।
ऐसा जो
संतुलित है, उसके
जीवन में
संगीत का उदय
होता है। उसके
जीवन में बड़े
संतुलन की शांति
छा जाती है।
वह संगीत और शांति
में जीता है।
'शून्य और
अनिमित्त
विमोक्ष
जिनका गोचर है।’
बुद्ध
कहते हैं, जीवन
को ऐसे परम
स्वीकार भाव
से जीना चाहिए
कि जो जरूरी
है, वह मिल ही
जाएगा।
यही
मैंने तुमसे
पीछे कहा कि
प्यास है तो
जल पहले होगा
ही। श्वास की
जरूरत है तो
हवाएं चारों
तरफ मौजूद होंगी
ही। ये दोनों
साथ—साथ ही
पैदा होते हैं।
इसलिए तुम
अपने निमित्त
बहुत चेष्टा
मत करो।
चेष्टा
करो श्रम के
निमित्त, करना
जरूरी है, करना
आनंदपूर्ण है; लेकिन
अपने निमित्त?. यह
मत सोचो कि
मैं न करूंगा
तो क्या होगा? मैं
इकट्ठा न
करूंगा तो मर
जाऊंगा,
भूखा मर
जाऊंगा। मैं
अगर महल न
बनाऊंगा तो
साया न मिलेगा।
मैं अगर धन न
इकट्ठा
करूंगा तो
क्या होगा?
न, तुम अपने को
निमित्त मत
मानो। तुम इस
तरह मत सोचो
कि तुम्हारे
किए ही होगा।
क्योंकि इससे
भी अहंकार
निर्मित होता
है। तुम इस
तरह चलो कि जो
हो रहा है, हो
रहा है; जो होना है, होगा।
इसका यह
अर्थ नहीं है
कि तुम सुस्त
हो जाओ, तुम आलसी हो
जाओ; तुम करो, लेकिन
तुम कर्ता मत
बनो।
'उनकी गति
आकाश में
पक्षियों की
भांति है।’
इसलिए
बुद्ध
पुरुषों का
अनुसरण नहीं
किया जा सकता।
पक्षियों के
पदचिह्न नहीं
बनते आकाश में।
रास्ते पर कोई
चलता हो,
पदचिह्न
बनते हैं; तुम
पीछे—पीछे
पैरों में पैर
रखकर चल सकते
हो। इसलिए तो
बुद्ध
पुरुषों का
कोई मार्ग
निर्मित नहीं
होता। आकाश
में पक्षी
उड़ते हैं, चिह्न
तो छूटते नहीं, पक्षी
उड़ जाता है, आकाश
खाली का खाली
रह जाता है।
ऐसा ही
चैतन्य के
आकाश में भी
है। इसलिए
बुद्धों से
समझना, अनुकरण मत
करना। मार्ग
तो तुम्हें
अपना ही खोजना
पड़ेगा। हर
पक्षी को अपना
ही आकाश खोजना
पड़ेगा। कोई
बंधे—बंधाए
रास्ते नहीं
हैं।
इसीलिए
तो बुद्धों के
पीछे जाना
इतना
दुरनुसरणीय
है, इतना कठिन
है। रास्ता
होता तो हम सब
चल लेते।
रास्ता अगर
होता तो हमने
अब तक तो मील
के सब पत्थर
लगा लिए होते।
रास्ता अगर
होता तो चलते
क्यों हम? यान
चला देते, बसें
दौड़ा देते।
परमात्मा की
तख्ती लगी हुई
बसें सीधी
परमात्मा के
घर में प्रवेश
कर जातीं।
रास्ता
नहीं है।
बुद्ध चलते
हैं, पहुंच भी
जाते हैं, रास्ता
खो—खो जाता है।
रास्ता बनता
ही नहीं।
इसलिए जिनको
तुमने रास्ता
समझा है,
कहीं
गलती कर रहे
होओगे। हिंदू
मुसलमान, ईसाई, जैन, इनको
लोग रास्ता
समझे हैं।
बुद्ध पुरुष
पीछे रास्ता
छोड़ते ही नहीं।
महावीर चले, पहुंचे; लेकिन
जैन धर्म ऐसा
कोई रास्ता
नहीं बनता।
बुद्ध चले, पहुंचे; लेकिन
बुद्ध धर्म
ऐसा कोई
रास्ता नहीं
बनता।
बुद्ध
पुरुषों की
सुगंध लो, बुद्ध
पुरुषों की
समझ लो, बुद्ध
पुरुषों का
सान्निध्य लो, सत्संग
लो; चलना
तुम्हें अपने
ही रास्ते पर
पड़ेगा, खोजना अपना
ही रास्ता
पड़ेगा।
और बड़ी
कठिनाई यह है
कि यह रास्ता
जैसे तुम चलते
हो, वैसे ही
बनता है। जैसे
कोई घने जंगल
में जाता है, कोई
रास्ता पहले
से नहीं है।
तुम चलते जाते
हो, घास हटता
जाता है,
पगडंडी
बनती जाती है।
जितना तुम
चलते हो,
उतना ही
रास्ता बनता
है। तुमसे आगे
रास्ता तैयार
नहीं है,
रेडीमेड
नहीं है।
पर यह
अच्छा है।
अच्छा है कि
परमात्मा की
तरफ बसें नहीं
जातीं; अन्यथा
जाने का मजा
ही चला गया
होता; अन्यथा भीड़
पहुंच गई होती।
जो पहुंचने की
क्षमता वाले
लोग थे वे
कहीं और जाते; फिर
परमात्मा की
तरफ न जाते।
वह बात ही
व्यर्थ हो
जाती।
निराले
हैं अंदाज
दुनिया से
अपने
कि
तकलीद को
खुदकुशी
जानते हैं
फिर
बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर
वहां न जाते।
फिर क्राइस्ट, मोहम्मद
वहां न जाते।
उनके अंदाज और
हैं। उसी
अंदाज से असली
परमात्मा
पैदा होता है—उसी
तुम्हारी
निजता से, तुम्हारी
खूबी से,
तुम्हारी
विशिष्टता से, अपने
रास्ते को
खोजने के साहस
से।
कमजोर
दूसरे के
रास्ते पर
चलता है।
साहसी अपना
रास्ता खोजता
है; खोजता नहीं, बनाता
है; उसी से
आत्मा का जन्म
होता है।
'जिनका कोई
संग्रह नहीं
है, भोजन में
संयत, जिनके आसव
क्षीण हुए, जो
आहार में
आसक्त नहीं, शून्य
तथा अनिमित्त
विमोक्ष
जिनका गोचर है, उनका
पद आकाश में
पक्षियों की
भांति है।
बुद्ध
पुरुषों के
कोई कारागृह
नहीं हैं; खुला
आकाश है उनका।
जहां—जहा हमने
मंदिर—मस्जिद
खड़े किए हैं, वहीं—वहीं
कारागृह खड़े
हो गए हैं।
यह भी
जिंदा वह भी
जिंदा
क्या है
मस्जिद,
क्या है
शिवालय
सब
कारागृह हैं।
बुद्ध
पुरुषों का तो
आकाश है। अगर
असली मंदिर
खोजना हो, आकाश
में खोजना।
जमीन पर तो जो
बनाए गए हैं
वे आदमी के
हैं; होए हुए
आदमी के हैं।
वहा तो जो चल
रहा है, वे शामक
दवाएं हैं। जो
घंटनाद चल रहा
है, जो पूजा—पाठ
चल रहा है, वे
सब ठीक से
सोने की
व्यवस्थाएं
हैं।
बुद्ध
पुरुषों का
मंदिर देखना
हो तो आकाश
में देखना, ऊपर
की तरफ देखना, जहा
कोई सीमा नहीं।
आकाश यानी
शून्य। और जब
तुम बाहर के
आकाश को देखने
में समर्थ हो जाओगे, बाहर
के शून्य को
तुम्हारी आंखें
पात्र हो
जाएंगी,
बाहर के
आकाश के साथ
संलग्न हो
जाएंगी,
तो तुम
भीतर के आकाश
को भी देखने
में समर्थ होने
लगोगे। बाहर
का शून्य
तुम्हें भीतर
के शून्य की
ही याद
दिलाएगा।
बाहर का शून्य
तुम्हारे
भीतर के शून्य
को सुगबुगाएगा।
बाहर का शून्य
तुम्हारे
भीतर के शून्य
को जगाएगा।
और जिस
दिन बाहर का
शून्य और भीतर
का शून्य
मिलता है, उसी
घड़ी का नाम
निर्वाण है।
उसे तुम
परमात्मा कहो, मोक्ष
कहो, या कोई और
नाम दो। सभी
नाम एक से हैं, क्योंकि
उसका कोई नाम
नहीं है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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