पहला
प्रश्न :
मेरे
व्यक्तित्व
के दो हिस्से
हैं; एक प्रतिदिन
जमीन पर लेटकर
आपको साष्टांग
प्रणाम करता
है और उससे
सुखी होता है; और
दूसरा प्राय:
प्रतिदिन ही
पूछ बैठता है
कि तुम्हें
क्या पता कि
ये भगवान ही
हैं! क्या दोनों
मेरे अहंकार
के हिस्से हैं
और क्या श्रद्धा
निर—अहंकार
में ही जन्म
लेती है?
मन जहां तक है, वहां
तक द्वंद्व भी
रहेगा। मन
बिना द्वंद्व
के ठहर भी नही
सकता; पलभर भी
नहीं ठहर सकता।
मन के होने का
ढंग ही
द्वंद्व है।
वह उसके होने
की बुनियादी
शर्त है।
अगर
तुम्हारे मन
में प्रेम
होगा तो साथ
ही साथ कदम
मिलाती घृणा
भी होगी। जिस
दिन घृणा विदा
हो जाएगी, उसी
दिन प्रेम भी
विदा हो जाएगा।
इसलिए
तो बुद्ध
पुरुषों का
प्रेम बड़ा
शीतल मालूम
पड़ता है। वह
उष्णता प्रेम
की, जो हम सोचते
हैं, दिखाई नहीं
देती। वैसा
प्रेम गया। वह
ज्वार, वह ज्वर गया।
इसलिए तो
बुद्ध
पुरुषों के
प्रेम को हमने
प्रेम भी नहीं
कहा, करुणा कहा
है, प्रार्थना
कहा है। प्रेम
कहना ठीक नहीं
मालूम पड़ता।
प्रेम का पैशन, त्वरा, तूफान, वहां
कुछ भी नहीं
है।
ऐसा ही
समझो कि सागर
में लहरें उठी
हैं, बड़ी आधी आई, बड़ा
तूफान आया है, फिर
लहरें शांत हो
गईं। तो क्या
तुम यह कहोगे—जब
सागर में कोई
तूफान न होगा—कि
अब तूफान है
लेकिन शांत है? तूफान
बचा ही नहीं।
अब यह कहना कि
तूफान है और शांत
है, व्यर्थ की
बात हुई। शांत
होने को अर्थ
ही है कि
तूफान न रहा।
और जब सागर
में तूफान
उठता है तो
अकेले सागर से
नहीं उठता, हवाओं
के थपेड़े भी
चाहिए, आंधिया
चाहिए। अकेले
से कहीं तूफान
उठे हैं! दो
चाहिए, द्वंद्व
चाहिए, संघर्ष
चाहिए।
मन का
सारा गुबार, मन
की धूल के
बवंडर
द्वंद्व से
उठते हैं। एक
तरफ प्रेम—पैर
मिलाती चलती
घृणा भी साथ
है। ही, तुम भूल
जाते हो। जब
तुम प्रेम से
भरते हो,
तुम
घृणा को भूल
जाते हो। जब
तुम घृणा से
भरते हो,
तुम
प्रेम को भूल
जाते हो। क्योंकि
दोनों को एक
साथ देखना
तुम्हारी
सामर्थ्य के
बाहर है। जिस
दिन दोनों को
साथ देख लोगे, दोनों
से मुका हो
जाओगे।
एक तरफ
श्रद्धा करते
हो, दूसरी तरफ
अश्रद्धा भी
पलती है।
जिसके भीतर
श्रद्धा है, उसी
के भीतर
अश्रद्धा हो
सकती है।
इसे
समझने की
कोशिश करना।
अगर कोई मेरे
संबंध में
अश्रद्धा से
भरा है तो जान
लेना कि कहीं
पैर मिलाती
श्रद्धा भी
चलती होगी, उसने
अभी देखी नहीं।
इसलिए मेरे
दुश्मनों को
मेरे दुश्मन
मत मान लेना, उनमें
मेरे मित्र भी
छिपे हैं, मौजूद
हैं। आज नहीं
कल प्रगट हो
जाएंगे। जो
मेरी निंदा
करने का कष्ट
उठाता है, उसके
भीतर कहीं
प्रशंसा छिपी
है। अन्यथा
निंदा भी
व्यर्थ हो
जाएगी। कौन
निंदा की
चिंता करेगा? जरूर
कुछ राग है।
जरूर मुझसे
कुछ जोड़ है, कोई
सेतु है।
दुश्मन
के भीतर
मित्रता छिपी
है, मित्र के
भीतर दुश्मनी
छिपी है।
इसलिए तुम
किसी को
दुश्मन न बना
सकोगे अगर तुमने
मित्र न बनाया।
मित्र बनाकर
ही दुश्मन बना
सकते हो।
मित्रता पहला
कदम है।
तो तुम
जब आदर से सिर
झुकाते हो, तभी
तुम्हारे
भीतर अनादर भी
सिर उठा रहा
है। यह साथ ही
साथ घट रहा है।
इसे तुम जिस
दिन समझने
लगोगे, उस दिन तुम
समझोगे,
न तो
श्रद्धा है
मेरी, न अश्रद्धा
है मेरी। उसी
दिन तुम दोनों
से मुका हो
जाओगे।
और उन दोनों
से मुका हो
जाने पर जो
घटना घटती है, वही
समर्पण है। उस
समर्पण की
ऊंचाई
श्रद्धा से
बहुत ऊंची है, क्योंकि
उस समर्पण में
श्रद्धा भी
पार हो जाती
है अश्रद्धा
के साथ ही, दोनों
के क्षेत्र
पीछे छूट जाते
हैं।
इसे हम
कुछ और तरह से
समझें। तुम
मुझसे कहते हो, मन
अशांत है, शांत
होना है। जहां
अशांति है, वहां
शांत होने की आकांक्षा
मौजूद हो जाती
है। तुम अशांत
होते हो तो शांत
होने की आकांक्षा
साथ—साथ बढ़ने
लगी। जब तुम
बहुत अशांत हो
जाते हो तो
तुम शांति की
तलाश करते हो।
शांति की तलाश
अशांत लोग ही
करते हैं।
जिस दिन
तुम शांत हो
जाओगे, उस दिन एक नई
बात तुम्हें
समझ में आएगी
और वह यह होगी
कि अब तुम अशांति
से बहुत भयभीत
हो जाओगे।
पहले तुम कभी
भयभीत न थे। शांत
होते से ही
तुम पाओगे, अशांति
पास में खड़ी
है और कभी भी
दुर्घटना हो
सकती है। फिर
तुम अशांत कभी
भी हो सकते हो।
जितने तुम शांत
होने लगोगे, उतने
ही तुम
घबडाओगे कि यह
अशांति तो
करीब ही खड़ी
है। यह कहीं
से भी द्वार—दरवाजे
खोलकर भीतर आ
सकती है। तुम
उतने ही भयभीत, कंपित
होने लगोगे।
यह शांति भी
कोई शांति हुई, जिसके
पास अशांति
खड़ी है!
इसलिए
फिर एक और
शांति है, जहां
शांति भी नहीं
होती और अशांति
भी नहीं होती; उसको
ही बुद्ध ने
शून्य कहा है।
शून्य शब्द
बड़ा प्यारा है, बड़ा
बहुमूल्य है।
इससे
बहुमूल्य कोई
दूसरा शब्द
नहीं है।
ब्रह्म भी
इससे एक कदम
पहले ही छूट
जाता है।
शून्य
का अर्थ है.
द्वंद्व न बचा।
प्रेम और घृणा
ने एक—दूसरे
को नकार दिया।
शांति अशांति
ने एक—दूसरे
को नकार दिया।
दोनों की
ऊर्जा टकरा गई
और एक—दूसरे
की ऊर्जा को
काट गई। तुम
बचे अकेले, जहा
कोई द्वंद्व न
रहा, निर्द्वंद्व
दशा रही। उस
निर्द्वंद्व
दशा में सत्य
का
साक्षात्कार
है।
एकदम से
तुम उसे साध
भी न सकोगे, यह
मैं जानता हूं।
पहले तुम्हें
श्रद्धा
साधनी होगी, अश्रद्धा
से छूटना होगा।
इतना ही सही
कि अश्रद्धा
तुमसे थोड़ी
दूर हो जाए।
अश्रद्धा का
पैर जरा दूर—दूर
पड़ने लगे, श्रद्धा
का पैर करीब
पड़ने लगे, तो
तुमने पहला
कदम उठाया। अब
जल्दी ही
तुम्हें समझ
आएगी कि
श्रद्धा भी
छोड़नी है।
ऐसा ही
समझो कि पैर
मैं एक काटा
लगा है, तुम दूसरा
काटा उठा लेते
हो इस काटे को
निकालने को।
जब दोनों काटे
निकल आते हैं
तो तुम क्या
करते हो?
जिस
काटे से तुमने
काटा निकाला, उसे
सम्हालकर रख
लेते हो?
उसकी
पूजा करते हो? उसका
गुणगान करते
हो? उसके
शास्त्र
बनाते हो, स्तुति
गाते हो?
तुम उसे
भी उसी कांटे
के साथ फेंक
देते हो,
जो गड़ा
था, जो चुभा था।
जिसने पीड़ा दी
थी, उसी के साथ
तुम उस कांटे
को भी फेंक
देते हो,
जिसने
पीड़ा छीन ली।
तुम दोनों ही
कीटों से
मुक्त हो जाते
हो।
अश्रद्धा
का कांटा तुम्हारे
मन में है, श्रद्धा
के कांटे से
निकालना है।
इससे ज्यादा
श्रद्धा का
कोई उपयोग
नहीं है।
संदेह का कांटा
तुम्हारे मन
में है, श्रद्धा के
कांटे से
निकालना है; हिंसा
का कांटा
तुम्हारे मन
में है, अहिंसा के
कांटे से
निकालना है; फिर
दोनों ही फेंक
देने हैं।
कहीं
हिंसा का कांटा
निकालकर
अहिंसक होकर
मत बैठ जाना।
नहीं तो कांटे
की पूजा शुरू
हो गई। अब तुम
उलझे। एक से
क्या छूटे, दूसरे
से उलझे। कुएं
से बचे, खाई में
गिरे। और
दूसरा काटा
खतरनाक है
पहले से भी
ज्यादा।
थोड़ी
अड़चन होगी
समझने में
क्योंकि
तुम्हें इस
दूसरे कांटे का
कोई अनुभव
नहीं है। पहले
ने पीड़ा दी थी, दूसरे
ने पीड़ा छीनी
है। लेकिन अगर
तुमने इसे
सम्हालकर रख
लिया, इसे अगर
तुमने बहुत
आदर दिया, तो
आज नहीं कल यह
चुभेगा। पहला
तो शायद पैर
में चुभा था, दूसरा
हृदय में
चुभेगा। इसे
तुमने बहुत
सम्हालकर रख
लिया; इसे तुमने
हृदय के बहुत
करीब ले लिया
र यह तुम्हें
भयंकर पीड़ा
देगा।
उपयोग
श्रद्धा का
जरूरी है, श्रद्धा
की पूजा जरूरी
नहीं। तो तुम
अगर साष्टांग
झुकते हो, शुभ
है; इससे भी
घबड़ाने की कोई
जरूरत नहीं है
कि भीतर संदेह
खड़ा है। जब
झुकते हो तब
और भी स्पष्ट
खड़ा हो जाता
है। तब तुम्हारे
भीतर का
द्वंद्व साफ
हो जाता है : एक
साष्टांग
पृथ्वी पर
लेटा हुआ है
और एक अकड़कर
खड़ा हुआ है और
देख रहा है कि
यह लेटना, यह
साष्टांग
दंडवत्रु यह
सब व्यर्थ है।
पता भी है, यह
व्यक्ति
भगवान है या
नहीं?
यह
व्यक्ति
भगवान है या
नहीं, इससे कुछ
लेना—देना भी
नहीं है। यह
बात असली
मुद्दे की है
भी नहीं। इससे
तुम्हारा
क्या प्रयोजन? इसे
तुम जान भी
कैसे पाओगे? इसका
उपाय भी क्या
है जानने का? इसके
लिए प्रमाण
कहो खोजोगे? कोई
उपाय नहीं है
तुम्हारे पास।
उपाय की जरूरत
भी नहीं है।
यह
व्यक्ति तो
बहाना है, ताकि
दूसरा काटा
हाथ में आ जाए।
यह व्यक्ति तो
निमित्त है।
यह न भी हो
भगवान तो भी
समझदार इसका
उपयोग कर लेंगे।
और यह भगवान
भी हो तो भी
नासमझ चूक
जाएंगे। इससे
प्रयोजन ही
नहीं है।
पत्थर की
मूर्ति भी काम
दे सकती है।
असली सवाल
श्रद्धा के
शिक्षण का है।
तुम अगर खाली
आकाश के सामने
सिर झुका सके।
तो खाली आकाश
भी पर्याप्त
है। पत्थर की
मूर्ति की भी
कोई जरूरत
नहीं।
लेकिन
कठिनाई होगी।
खाली आकाश के
सामने सिर
झुकाओगे, पागलपन
मालूम पड़ेगा; वहां
कोई भी तो
नहीं है। यहां
कम से कम इतना
तो है—कोई है।
शक—शुबहा ही
सही, संदेह ही
सही, संदेह के
योग्य भी कोई
है, इतना भी
बहुत है।
क्योंकि जिस
पर संदेह हो
सकता है,
उस पर
श्रद्धा भी आ
सकती है। जहां
संदेह आ गया, श्रद्धा
बहुत दूर नहीं।
जहां श्रद्धा
आ गई, संदेह बहुत
दूर नहीं।
भूल
कहां हो जाती
है? अगर तुम इस
उलझन में पड़
गए कि यह
व्यक्ति भगवान
है या नहीं? यह
पत्थर की
मूर्ति वस्तुत:
भगवान की
मूर्ति है या
नहीं? अगर तुम इस
चिंता में पड़
गए तो धीरे—धीरे
तुम पाओगे, तुमने
श्रद्धा का
हाथ छोड़ दिया; तुमने
संदेह का हाथ
पकड़ लिया।
संदेह
भी तुम्हारे
भीतर, श्रद्धा भी
तुम्हारे
भीतर, हाथ तुम
श्रद्धा का
पकड़ना, संदेह का
बहुत पकड़कर चल
लिए हो। और
ध्यान रखना कि
श्रद्धा का
हाथ भी ऐसा नहीं
पकड़ लेना है
कि कारागृह हो
जाए। गांठ
नहीं बांध
लेनी है,
भांवर
नहीं पाड़
लेनी है। ऐसा
मत कर लेना कि
यह भी एक बंधन
हो जाए, फिर छूटे न
छुटाए बने।
इसे भी कल छोड़
ही देना है।
देर—अबेर इसे
भी छोड़ देना
है।
और अगर
तुम्हें यह
खयाल में रहे
कि देर—अबेर
यह भी छूट ही
जाएगा; जब संदेह ही
चला जाता है
तो श्रद्धा का
फिर करोगे
क्या? संदेह के
रोग के लिए
श्रद्धा की
औषधि थी। अब
इन बोतलों को
छाती से लगाए
घूमते रहोगे, जब
बीमारी ही न
रही? ध्यान रखना, कभी—कभी
बोतलें
बीमारी से भी
महंगी हो जाती
हैं। बीमारी
तो छूट जाती
है, फिर बोतलें
पकड़ जाती हैं।
अब बोतलों को
लिए घूमते हो।
बुद्ध
ने कहा है, कुछ
पागल नाव से
नदी पार कर
लेते हैं, फिर
नाव को सिर पर
रखकर बाजार
में घूमते हैं।
अब इन्हें कोई
समझाए कि यह
तुम क्या कर
रहे हो! तो वे
बड़ा तर्क देते
हैं। वे कहते
हैं, इस नाव ने ही
नदी पार करवाई; अब
इस नाव को हम
कैसे छोड़ सकते
हैं? इस नाव का
इतना उपकार है
हमारे ऊपर कि
हम तो इसे सिर
पर लेकर
चलेंगे।
इससे तो
बेहतर था कि
वे नदी ही पार
न करते। कम से
कम बोझ से तो
मुक्त थे। उस
पार ही रहते, कम
से कम चलने—फिरने
की तो स्वतंत्रता
थी। अब तो
चलने—फिरने की
स्वतंत्रता
भी गई.. यह बोझ
नाव का!
लेकिन
नाव का इसमें
कुछ कसूर नहीं।
तुम्हारी
पकड़ने की आदत
पड़ गई है।
पकड़ने की
आदतभर छोड़नी
है और कुछ
छोड़ने जैसा नहीं
है। पकड़ने की
आदतभर छोड़नी
है और कुछ
त्याग करने जैसा
नहीं है। वही
नहीं छूटती।
पाप छूट
जाता है,
पुण्य
पकड़ जाता है।
संदेह छूटता
है, श्रद्धा
पकड़ जाती है।
निराशा छूटती
है, आशा पकड़
जाती है।
संसार छूटता
है, मोक्ष पकड़
जाता है।
लेकिन पकड़
जारी रहती है।
पकड़ ही संसार
है। छोड़ दो। छोड़कर
जीयो।
कुछ बिना पकड़े
जीयो।
जो
जानते हैं, वे
तो नदी में भी
नाव का उपयोग
नहीं करते। जो
नहीं जानते, वे
बाजारों में
नाव लेकर सिर
पर चलते हैं।
जो जानते हैं, वे
तैरकर ही पार
हो जाते हैं, नाव
की कोई जरूरत
नहीं है। उनके
लिए इशारे
काफी होते हैं, बुद्ध
पुरुषों की
अंगुलियां
काफी होती हैं।
उन इशारों से
वे नाव बना
लेते हैं। उन इशारों
की ही नाव बन
जाती है। कोई
स्थूल नाव की
जरूरत नहीं है।
संप्रदाय
बनाने की
जरूरत नहीं है, धर्म
काफी है।
धर्म और
संप्रदाय का
यही फर्क है।
धर्म है मात्र
इशारा, इंगित; संप्रदाय
है बड़ी ठोस
नाव—नाव भी
लकड़ी की नहीं, पत्थर
की; डुबाएगी।
पार इससे तुम
न हो सकोगे।
तो
घबड़ाओ मत, द्वंद्व
बिलकुल
स्वाभाविक है।
उदास मत हो
जाओ। यह
द्वंद्व
बिलकुल ही
जैसा मन का
स्वभाव है; होगा।
इससे कुछ थक
जाने की,
इससे
कुछ
बेचैन हो
जाने की जरूरत
नहीं है,
इसे समझ
लो। समझ काफी
है।
नुजूम
बुझते रहें
तीली उमड़ती
रहे
मगर
यकीने—सहर है
जिन्हें, उदास
नहीं
तारे
बुझते रहें, अंधेरा
बढ़ता रहे, लेकिन
जिन्हें सुबह
का भरोसा है, उदास
नहीं हैं।
नुजूम
बुझते रहें
तीली उमड़ती
रहे
मगर
यकीने—सहर है
जिन्हें, उदास
नहीं
उफुक
धड़क तो रहा है, सुझाई
दे कि न दे
क्षितिज
लाल होने लगा, सुर्ख
होने लगा—सुझाई
दे कि न दे।
शुफुक उबल
तो रही है, दिखाई
दे कि न दे
लाली
उमड़ तो रही है, सुबह
करीब आती ही
है—दिखाई दे
कि न दे।
सुना है
दो कदम आगे
महक रहे हैं
चमन
सुना है—अभी
तुमने सुना है।
अभी मैंने कहा
'है, 'अभी
तुमने देखा
नहीं।
स्वाभाविक है, संदेह
उठेगा। सुनी
बात, समझी बात तो
नहीं हो सकती।
सुनी बात, जानी
बात तो नहीं
हो सकती। कान, आंख
तो नहीं है।
सुना है
दो कदम आगे
महक रहे हैं
चमन
वसंत
आया है, फूल खिले
हैं, बगीचे लहरा
गए हैं—दो कदम
आगे। दो के
आगे एक का
वसंत मौजूद है।
सुना है
दो कदम आगे
महक रहे हैं
चमन
इसीलिए
तो हवाओं में
है लतीफ चुभन
जब तुम बगीचे
के करीब
पहुंचने लगते
हो तो हवाएं
ठंडी होने
लगती हैं। एक
मनमोहक गंध
नासापुटों को
छूने लगती है।
शीतलता शरीर
का स्पर्श
करने लगती है।
हवा का
गुणधर्म बदल
जाता है।
मेरे
पास अगर
तुम्हें हवा
का गुणधर्म
बदलता मालूम
पड़ता हो,
बस काफी
है। मैं भगवान
हूं या नहीं, इसकी
फिक्र छोड़ो; करना
क्या है?
दो कौड़ी
की बात है।
इससे तुम्हें
लेना—देना
क्या? इतना काफी
है, अगर मेरे
पास तुम्हें
किसी हवा की
थोड़ी सी भी गंध
मिल जाती हो, जिससे
भरोसा आता हो
कि बगीचे पास
हो सकते हैं।
सुना है
दो कदम आगे
महक रहे है
चमन
इसीलिए
तो हवाओं में
है लतीफ चुभन
इसीलिए
तो अंधेरे में
पड़ रही है
शिकन
अगर
मेरे पास
तुम्हें सूरज
का दर्शन न हो, न
हो; अगर अंधेरे
में पड़ती एक
प्रकाश की
रेखा का भी पता
चलता हो तो
काफी है।
तुम्हारे
भरोसे के लिए
पर्याप्त।
तुम्हें कोई
सारी नदी को
थोड़े ही सेतु
बनाना है!
तुम्हें कोई
सारी पृथ्वी
को थोड़े ही
चमड़े से ढंक
देना है! अपने
पैर को ढंकने
लायक चमड़ा मिल
जाए, जूता बन जाए, काफी
है। तुम्हें
मेरे भगवान
होने से क्या
लेना—देना?
इसीलिए
तो अंधेरे में
पड़ रही है
शिकन
अगर
अंधेरे में
जरा सी प्रकाश
की सिलवट भी
दिखाई पड़ती हो, काफी
है इतने से
काम हो जाएगा।
तुम उसी को
पकड़ लो। तुम
इसकी चिंता ही
छोड़ो कि मुझसे
पूरी पृथ्वी
ढंक सकेगी? मैं
भगवान हूं या
नहीं, मैं सूरज
हूं या नहीं
हूं क्या
करोगे? अगर जरा सा
टिमटिमाता
दीया भी
तुम्हारे हाथ
में पकड़ जाता
हो, काफी है।
तुम्हारी रात
कट जाएगी।
तुम्हारी
सुबह करीब आ
जाएगी।
सुना है
दो कदम आगे
महक रहे हैं
चमन
इतना ही
अगर तुम्हें
मेरे पास
सुनाई पड़ जाए—इतना
ही सुनाई पड़
जाए कि बगीचे
हैं, और उनकी महक
तुम्हे आने
लगे। इतना ही
तुम्हें समझ
में आ जाए कि
प्रकाश है, जरा
सी झलक आ जाए; तो
फिर कोई फिक्र
नहीं।
नुजूम
बुझते रहें
तीली उमड़ती
रहे
मगर
यकीने—सहर है
जिन्हें, उदास
नहीं
फिर
क्या चिंता? तारे
बुझते रहें, रात
बढ़ती रहे।
वस्तुत:
जैसे ही रात
और गहरी
अंधेरी होती
है, वैसे ही
सुबह करीब आने
लगती है। जैसे—जैसे
सुबह करीब आती
है, रात और
गहराने लगती
है, अंधेरी
होने लगता है।
तुम्हारी
श्रद्धा बढ़ेगी
जैसे—जैसे, वैसे—वैसे
तुम्हारी
अश्रद्धा भी
बढ़ेगी। इसे
अगर तुम न
समझे तो तुम
अकारण बड़े
कष्ट में पड़
जाओगे। तुम
बड़े रोओगे, जार—जार
होओगे। छाती
पीटोगे भीतर
कि यह क्या हो
रहा है? मैं तो
श्रद्धा
बढ़ाना चाहता
हूं अश्रद्धा
भी बढ़ रही है—बढ़ेगी
ही। श्रद्धा
के साथ अश्रद्धा
बढ़ती है।
जैसे
पहाड़ ऊपर उठता
है तो नीचे की
खाई बड़ी होती
चली जाती है।
वृक्ष को आकाश
की तरफ जाना
हो तो जड़ें
पाताल की तरफ
जाने लगती हैं।
दोनों तरफ एक
साथ गति होती
है। मन
द्वंद्व है।
तुम्हें
लेकिन
निर्द्वंद्व
की थोड़ी सी
झलक मेरे पास
मिल जाए,
काफी है, तुम
फिक्र छोड़ो; भगवान
होने न होने
से क्या लेना—देना? तुम
व्यर्थ की
बातों में मत
उलझों। जिनको
कोई और काम
नहीं, उन्हें यह
काम करने दो।
अभी तुम
पहचान भी कैसे
पाओगे? जब तक तुमने
भगवान को भीतर
नहीं देखा, तुम
बाहर कैसे देख
पाओगे? तुम्हारी
मजबूरी मेरी
समझ में आती
है। जब तक
तुमने स्वयं
को नहीं जाना, तुम
मुझे कैसे जान
पाओगे? तुम्हारे
अंधेपन के
प्रति मुझे
पूरी—पूरी
करुणा है, लेकिन
व्यर्थ की
उलझनें न बनाओ, वैसे
ही जिंदगी बड़ी
उलझी हुई है।
व्यर्थ के
तर्क—जालों
में मत पड़ो।
इतना ही काफी
है कि तुम्हें
मेरे पास से
भविष्य की थोड़ी
सी झलक मिल
जाए—इतना ही
काफी है।
मैं
कहता हूं,
इतना भी काफी
है कि तुम्हें
अपने पर संदेह
आ जाए। मुझ पर
श्रद्धा न भी
आई तो चलेगा; तुम्हें
अपने पर संदेह
आ जाए, इतना ही
काफी है,
इतने से
काम हो जाएगा।
कोई
तलवार की
जरूरत नहीं है।
जहां सुई से
काम चल जाए, वहां
तलवार का
करोगे भी क्या? मैं
सुई ही सही, छोड़ो
तलवार, लेकिन इतने
से काम हो
जाने वाला है।
और जब काम हो
जाएगा तब
तलवार भी
दिखाई पड़नी शुरू
हो जाएगी।
मुझे
पता है, तुम मुझे
तभी समझ पाओगे, जब
तुमने स्वयं
को समझ लिया
होगा। मैं
तुम्हारा
स्वयं होना
हूं।
भगवान
का और कोई
अर्थ नहीं
होता; भगवान का
कुल इतना ही
अर्थ होता है :
जिसने उसे जान
लिया, जो सबके
भीतर है।
जिसने यह जान
लिया कि मैं
नहीं हूं वही
है। जो मिट
गया, वही भगवान
है। जो है, वह
भगवान नहीं है।
मैं एक
अनुपस्थिति
हूं एक शून्य!
उस शून्य से अगर
तुम थोड़ा सा
राग बना लो—श्रद्धा—तो
उस शून्य के
पार देखने की
क्षमता
तुम्हे आ
जाएगी। वह
शून्य
तुम्हारी लिए
खिड़की बन सकता
है।
आम
चूसने की
फिक्र करो, गुठलियां
क्यों गिनते
हो? कहीं ऐसा न
हो कि ऋतु
निकल जाए, तुम
गुठलियां
गिनते बैठे
रहो, फिर पीछे
बहुत पछताओगे।
कहीं ऐसा न हो
कि मेहमान जा
चुके, तब
तुम्हारी समझ
में आए; तब पीछे
बहुत पछताओगे।
लेकिन मन की
हालत ही यही
है कि वह पीछे
पछताता है, रोता
है। मौजूद को
खोता है। जा
चुका, उसके लिए
रोता है। जो
है, उसे देखने
मे असमर्थ : जो
नहीं हो जाता
है, उसकी याद
में—उसकी याद
में बड़े मजार
बनाता है, चिराग
जलाता है।
तुम्हारे सब
मंदिर
तुम्हारे मन
की इस मुर्दा आदत
के सबूत हैं।
तुम्हारे
काबा, तुम्हारे
शिवालय,
तुम्हारे
मरे हुए मन की
आदत के सबूत
हैं।
ऐसी भूल
में न पड़ो।
ऐसी भूल तुम
पहले भी कर
चुके हो।
जरूरी नहीं कि
यह भूल तुम
पहली दफा कर
रहे हो। यह
संसार बड़ा
लंबा चल रहा
है। तुम बहुत
पुराने
यात्री हो। इस
रास्ते पर तुम
नए नहीं हो।
अनेक ऐसे वक्त
आए, जब तुम
बुद्धों के
पास से गुजरे
हो, लेकिन यही
सवाल!
गलत
सवाल मत पूछो।
इससे क्या
लेना कि बुद्ध
भगवान हैं या
नहीं? बुद्ध से भी
लोग यही पूछते
हैं, महावीर से
भी यही पूछते
हैं, क्राइस्ट
से भी यही
पूछते हैं।
तुम यह पूछो
मत। इससे होगा
क्या? इससे पूछने
से सार क्या? और
कौन तुम्हें
प्रमाण दे
सकता है?
स्वयं
भगवान भी
तुम्हारे
सामने खड़ा हो
तो भी यह
संदेह तो
रहेगा ही कि
पता नहीं!
प्रमाण क्या देगा? भगवान
भी प्रमाण
क्या देगा?
शायद
इसीलिए तो तुम्हारे
सामने खड़ा
होने से डरता
है, छिपा—छिपा
रहता है।
कितने घूंघट
डाल रखे हैं
उसने? सीधा सामने
नहीं आता; क्योंकि
सामने आया कि
तुम यही
पूछोगे,
आप
भगवान हैं, इसका
प्रमाण क्या? कैसे
मानें?
जरूरत
ही क्या है? मानने
का कोई सवाल
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर एक काटा
है
संदेह
का, उसे देखो।
इसे निकालने
के लिए जहां
भी तुम्हारी
श्रद्धा को
आश्रय—स्थल
मिल जाए,
शरण मिल
जाए, उसका उपयोग
कर लो।
दूसरा
प्रश्न
आपके कल के
प्रवचन ने
मुझे बहुत
गहराई तक छू लिया।
यह वचन : कि
मछलियां भी
आटे में छिपे
कांटे को समझ
गई हैं, पर
मनुष्य नहीं
समझा,
मुझे
झकझोर गया।
उसने सोचने को
मजबूर किया कि
मैं एक व्यर्थ
जीवन जी रहा
हूं और कोल्हू
के बैल की
भांति चक्कर
लगा रहा हूं।
इस एहसास के
लिए मेरे
प्रणाम लें और
आशीष दें कि
मैं
होशपूर्वक जी
सकूं।
एक—एक बूंद
जुड़कर सागर बन
जाता है। एक—एक
ज्योति जुड़कर
महासूर्यों
का जन्म होता
है। ऐसी ही
छोटी—छोटी समझ, छोटी—छोटी
अंतर्दृष्टि
को इकट्ठी
करते जाओ, राशिभूत
इकट्ठी करते
जाओ। यही
तुम्हारे
भीतर परम
प्रकाश की
शुरुआत है।
कोई
महान विस्फोट
के लिए
प्रतीक्षा मत
करो, छोटी—छोटी
चिनगारियों
को इकट्ठा कर
लो। जिंदगी
छोटी—छोटी बातों
से बनी है।
जिंदगी बहुत
बड़ी बातों का
नाम नहीं है।
बड़ी बातों की आकांक्षा
भी अहंकार की
आकांक्षा है।
लोग
प्रतीक्षा
करते हैं, कुछ
बड़ा घटे;
वहीं
चूक जाते हैं।
शुभ हुआ।
अगर होश
से मुझे
सुनोगे तो
धीरे—धीरे ऐसी
अंतर्दृष्टि
रोज—रोज
इकट्ठी होने
लगेगी, सघन होने लगेगी।
ऐसे ही कोई
समाधि की तरफ
गतिमान होता
है।
यह जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं यह
तुम्हारे
मनोरंजन के
लिए नहीं है।
यह जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं तुम्हारे
बुद्धि के
संग्रह के लिए
नहीं है। यह
जो मैं तुमसे
कह रहा हूं
तुम बड़े
ज्ञानी हो जाओ, पंडित
हो जाओ, इसके लिए
नहीं है। तुम
रूपांतरित हो
सको!
लेकिन
उतनी बात मेरे
कहने से ही
नहीं होगी, तुम्हारे
समझने से भी
होगी। मेरा
कहना आधा है।
एक हाथ मैं
बढ़ाता हूं एक
हाथ तुम भी
बढ़ाओ तो मिलन
हो जाए। मैं
कहे चला जाऊं
और तुम्हारे
भीतर कुछ भी
अंतर्दृष्टि
न जगे तो
तुम्हारा हाथ
तो बढ़ता नहीं, मेरा
हाथ बढ़ा रहेगा; उससे
कुछ मेल नहीं
होने वाला है।
तुम भी उठो और
थोड़े जगो। और
ऐसा ही थोड़ी—
थोड़ी करवटें, ऐसा
ही थोड़ी— थोड़ी आंख
का खुलना, ऐसा
ही थोड़ी— थोड़ी
झलक का आना
मार्ग बन जाता
है।
शुभ हुआ।
अगर इतना भी
खयाल में आ
जाए कि मैं जो
जीवन जीता रहा
हूं अब तक, वह
व्यर्थ है, तो
बड़ी क्रांति
घट गई।
और है
क्या जानने को? यही
जानना है कि
जो मैं जी रहा
हूं वह व्यर्थ
है। जैसे ही
तुम्हें यह
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाए कि
तुम जो जी रहे
हो, वह व्यर्थ
है, वैसे ही
तुम्हारे पैर
ठिठक जाएंगे।
यह यात्रा बंद
हुई, क्योंकि
व्यर्थ को कोई
जानकर तो कर
नहीं सकता।
व्यर्थ भी
होता है इसी
मान्यता में
कि सार्थक है।
गलत भी चलता
है इसीलिए कि
ठीक दिखाई
पड़ता है।
मालूम तो होता
है कि ठीक है।
किसी
आदमी ने गलत
को गलत जानकर
कभी नहीं किया।
व्यर्थ को
व्यर्थ जानकर
कोई कभी भटका
नहीं। जैसे ही
तुम्हें पता
चल जाए कि यह
रास्ता तो
कहीं ले जाता
नहीं, फिर भी तुम
चलते रहोगे? तुम
तत्क्षण ठहर
जाओगे। तुम
कहोगे, अब चाहे ठीक
रास्ता न भी
पता हो, तो इतना तो
पता हो गया कि
यह गलत है, इस
पर न चलें। कम
से कम बैठकर
विश्राम ही कर
लें। जब ठीक
मिलेगा तब चल
लेंगे लेकिन
गलत पर तो और न
चलें।
क्योंकि
जितने गलत परे
'चलते
जाएंगे,
उतना ही
पीछे लौटना
पड़ेगा।
तुम्हारे
जीवन में एक
ठिठकने की
घटना घट जाए, आधी
क्रांति हो गई।
और
समझना इसको :
जिसको समझ में
आ गया, गलत क्या है, ज्यादा
देर न लगेगी
उसे समझने में
कि ठीक क्या
है! गलत को गलत
जानने में भी ठीक
की झलक तो आ गई।
गलत को गलत
पहचानने में
सार्थक का
मापदंड कहीं
तुम्हारे
भीतर सक्रिय
हो गया।
अंधेरे को
जिसने अंधेरा
जान लिया, उसे
प्रकाश से
थोड़ी न थोड़ी
संगति बैठ गई, एक
झलक मिल गई।
एक किरण मिली
हो भला, पर मिली।
बिना एक किरण
मिले अँधेरा-अंधेरा
मालूम न पड़ेगा।
शुभ हुआ
कि लगा, 'मैं एक
व्यर्थ जीवन
जी रहा हूं; कोल्हू
के बैल की
भांति चक्कर
लगा रहा हूं।’
यही है
दशा। वर्तुल
में घूमते हैं
हम; वहीं—वही आ
जाते हैं, फिर—फिर
वहीं—वहीं आ
जाते हैं।
कोल्हू के
बैल के जैसी
ही हमारी दशा
है। कोल्हू का
बैल चलता तो
दिनभर है, पहुंचता
कहीं भी नहीं।
तुम भी
सुबह से शाम
तक चलते हो, पहुंचते
कहां हो?
हाथ में
कभी कुछ लगता
है? मंजिल कहीं
पास आती मालूम
पड़ती है?
जन्म के
वक्त तुम जहां
थे, अभी भी वहीं
हो, या कहीं आगे
बढ़े? कैसा मजा चल
रहा है! कैसा
तिलिस्म है!
कैसा जादू है!
कैसा भ्रम है
कि दौड़ रहे, दौड़
रहे—पहुंचते
कहीं नहीं।
बच्चों
की किताब है, एलिस
इन वंडरलैंड, एलिस
परियों के देश
में। एलिस जब
परियों के देश
में पहुंची तो
थक गई; बड़ी थक गई इस
जमीन से
परियों के देश
तक आते—आते।
भूख भी लगी है, थक
भी गई है,
प्यास
भी लगी है, और
उसने पास ही
एक बड़े वृक्ष
की घनी छाया
में परियों की
रानी को खड़े
देखा।
मिष्ठानों के थाल
उसके चारों
तरफ लगे हैं, फलों
के थाल सजे
हैं। और जैसे
ही एलिस की
नजर पड़ी
परियों की
रानी के ऊपर, परियों
की रानी ने
इशारा किया कि
आ। पास ही
मालूम पड़ता है
वृक्ष, वह दौड़ी।
वह
दौड़ती रही..
दौड़ती रही..
दौड़ती रही, फिर
ठिठककर खड़ी हो
गई। बड़ी
हैरानी मालूम
पड़ी, वृक्ष और
उसके बीच का
फासला कम नहीं
होता; उतना ही है।
सुबह से दौड़ती
है, दोपहर आ गई, सूरज
सिर पर आ गया, छाया
सिकुड़कर बड़ी
छोटी हो गई, भूख
और भी बढ़ गई इस
दौड़ने से, घटी
न, और फासला
उतना का उतना
है!
वह फिर चिल्लाकर
पूछती है कि
यह मामला क्या
है? मैं पागल हो
गई हूं या
किसी पागल
मुल्क में आ गई
हूं? यह क्या हो
रहा है? ये कैसे
नियम हैं?
ज्यादा
दूर नहीं है
रानी, क्योंकि
उसकी आवाज उस
तक पहुंच जाती
है। और रानी
कहती है,
घबड़ा मत, तू
जरा ठीक से
नहीं दौड़ रही
है। जरा तेजी
से दौड़; इतनी ही
जरूरत है।
वह तेज
दौड़ती है, बहुत
तेज दौड़ती है, पसीने
से लथपथ होकर
गिर पड़ती है।
सांझ होने के
करीब आ गई, सूरज
उतरने लगा है; देखती
है, फासला उतना
का उतना है।
थरथरा जाती है, घबड़ा
जाती है कि
क्या हो रहा
है! जैसे एक
दुख—स्वंम
देखा हो। वह
चिल्लाकर
पूछती है, यह
मुल्क कैसा है? क्या
यहां चलने से
रास्ते पार
नहीं होते?
वह रानी
हंसती है; वह
कहती है,
जहां से
तू आती है, उस
पृथ्वी पर भी
नियम यही है।
वहां भी चलने
से कोई रास्ते
पार नहीं होते।
यहां भी नहीं
पार होते, वहां
भी पार नहीं
होते। चलने से
कभी कोई रास्ते
पार हुए पागल?
यह
कहानी तो
बच्चों की है, लेकिन
को के समझने
योग्य है। जिस
देश में तुम
रह रहे हो, यह
परियों का देश
है। यह झूठा
है, जादू से भरा
है। कोई
तिलिस्म है, कोई
अंधापन है।
तुम दौड़े चले
जाते हो—तुम्हें
कभी कुछ मिला? तुम
कभी पहुंचे? भूख
बढ़ती जाती है, महत्वाकांक्षा
बढ़ती जाती है, भिक्षा
का पात्र बड़ा
होता जाता है, भरता
कुछ भी नहीं
है। दौड़ते—दौड़ते
दोपहर आ जाती
है, जवानी आ
जाती है,
फिर साझ
भी होने लगती
है, बुढ़ापा आ
जाता है;
फिर हाथ—पैर
थक जाते हैं, फिर
तुम गिर जाते
हो जमीन पर—कब्र
बन गई। पहुंचे
कहीं? कोल्हू के
बैल जैसा चलना
है।
अगर यह
दिखाई पड़ जाए
तो तुम ठिठक
जाओगे। तुम
कहोगे, बहुत दौड़
लिए, अब दौड़ेंगे
न। अब बैठकर
सोच लें—उसी
को हम ध्यान
कहते है—कि अब
बैठकर फिर से
पुनर्निरीक्षण
कर लें; अब पूरे
जीवन का फिर
से मनन कर लें; अब
पूरे जीवन पर
फिर से
दृष्टिपात कर
लें, फिर से
निरीक्षण कर
लें कि जो अब
तक किया,
इसमें
कुछ सार है? अगर
यह सब असार की
तरह खो गया है, रेत
पर बनाए गए
घरों की तरह
गिर गया,
पानी पर
खींची गई
लकीरों की तरह
मिट गया—उसी
दिन खोज शुरू
हो जाती है
उसकी, जो शाश्वत
है : एस धम्मो
सनंतनो। उस
शाश्वत की तरफ
यात्रा शुरू
होती है,
जब जीवन
की
क्षणभंगुरता
और व्यर्थता
दिखाई पड़ती है।
शुभ हुआ, घबड़ाना
मत; क्योंकि इस
घड़ी में
घबड़ाहट
पकड़ेगी। जब
सारा जीवन
व्यर्थ मालूम
पड़ता है,
सब सोच—समझ
विक्षिप्तता
मालूम होती है, किया—धरा
सब मिट्टी हो
गया होता है, इतना
श्रम किया, इतने
भवन बनाए, सब
गिर गए होते
हैं, तो अचानक एक
घबड़ाहट पकड़ती
है।
उस
घबड़ाहट में
बहुत से लोग
और तेजी से
दौड़ने लगते
हैं, यह सोचकर कि
शायद हम ठीक
से दौड़ नहीं
रहे हैं।
दूसरे तो
पहुंच रहे हैं—कोई
सिकंदर हो गया, कोई
नेपोलियन हो
गया—दूसरे तो
पहुंच रहे हैं, एक
मैं ही नहीं
पहुंच पा रहा
हूं जरूर दौड़
की कुछ कमी है।
तो कुछ
तो घबड़ाकर और
तेजी से दौड़ने
लगते हैं। ऐसी
गलती मत करना!
क्योंकि तेज
दौड़ने से कोई.
दौड़ने से कोई
संबंध ही नहीं
है पहुंचने का।
धीमे दौड़ो कि
तेज दौड़ो, दौड़ने
से कुछ लेना—देना
नहीं है
पहुंचने का।
पहुंच तुम
नहीं सकते, क्योंकि
पहुंचने की
जगह भीतर है।
दौड़कर तुम
कैसे भीतर
पहुंच सकते हो? भीतर
तो कोई रुककर
पहुंचता है, दौड़कर
कैसे
पहुंचेगा?
सोचकर
तुम थोड़े ही
भीतर पहुंच
सकते हो!
सोचना यानी मन
का दौड़ना। सोच
रुक जाता है
तो तुम भीतर
पहुंचोगे।
सोच का रुक
जाना यानी
ध्यान।
महत्वाकांक्षाओं
से तुम कैसे
पहुंचोगे? निर्वासना
से कोई
पहुंचता है।
सार की
बात इतनी है
कि ठहरकर कोई
पहुंचता है; तेज
दौड़ने का कोई
संबंध नहीं है।
तेज दौड़कर तुम
जल्दी थक
जाओगे। तेज
दौड़कर कब्र
जल्दी करीब आ
जाएगी। तेज
दौड़कर तुम
हजार तरह के
रोग इकट्ठे कर
लोगे, पहुंचोगे
नहीं।
घबड़ाना
मत; जब अचानक
ऐसी समझ आती
है कि सब
व्यर्थ है, एक
झंझावात घेर
लेता है,
एक आधी
पकड़ लेती है, घबड़ाहट
होती है—सब
व्यर्थ! अब तक
का किया—धरा
सब व्यर्थ।
अहंकार
डांवाडोल हो
जाता है। नाव
जैसे डूबने
लगी! इस नाव को
डूब ही जाने
देना है। इस
नाव के न
डूबने के कारण
ही तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
हुआ जा रहा है।
इसलिए
इसको बचाने
में मत लग
जाना। और
बचाने में
लगने की आकांक्षा
बिलकुल
स्वाभाविक है।
इस स्वाभाविक
आकांक्षा से
ऊपर उठना होगा।
घबड़ाना मत; अंधेरा
घेर लेगा, आधी
घेर लेगी, लेकिन
तुम बैठ रह
जाना।
शब के
पहलू में कहीं
फूट रही है पौ
भी
कभी
दुनिया में
अंधेरे न
जहांगीर हुए
अंधेरा
कभी दुनिया
में जीत नहीं
पाया है। कभी
अंधेरा
जहांगीर नहीं
हुआ है कि
सारी दुनिया
का मालिक हो
गया हो।
अंधेरे के
भीतर ही सुबह
छिपी है और
फूटने
के करीब है—फूट
रही है।
अंधेरा सुबह
का गर्भ है।
अंधेरी रात
सुबह की मां
है।
शब के पहलू
में कहीं फूट
रही है पौ भी
घबड़ाओ
मत; यह जो
अंधेरा
तुम्हें घेर
लेगा
व्यर्थता के बोध
में, इसी के भीतर
छिपी कहीं
सुबह तैयार हो
रही है। ताजी
सुबह आने के
करीब है।
कभी
दुनिया में
अंधेरे न
जहांगीर हुए
अंधेरा
आता है, जाता है; घबड़ाना
मत। और बड़ा
अंधेरा घेर
लेता है,
जब जीवन
की व्यर्थता
मालूम होती है।
इस घड़ी में
सदगुरु की
जरूरत है, जो
तुम्हें कहे, घबड़ाओ
मत; सुबह करीब
है। जो
तुम्हें कहे—
कभी
दुनिया में
अंधेरे न जहांगीर
हुए
क्योंकि
बहुत लोग इस
घड़ी में और भी
पागलपन से दौड़ने
लगते हैं, सोचकर
कि शायद दौड़ने
में कमी रह गई
है; सोचकर कि
शायद तर्क
करने में कमी
रह गई है,
और तर्क
करने लगते हैं; सोचकर
कि यह कैसे हो
सकता है कि
मैं और सदा से
व्यर्थ?
और भी
अपनी सुरक्षा
में लग जाते
हैं। और भी
अपने चारों
तरफ तर्क—जाल
खड़ा कर लेते
हैं। और कहते
हैं, नहीं,
यही ठीक
है।
बहुत
लोगों को मैं
जानता हूं जो
मेरे पास आने से
डरते हैं।
क्योंकि
उन्हें भी
दिखाई तो पड़ता
है, कहीं से खबर
तो आती लगती
है कि जैसा चल
रहे हैं,
वह
व्यर्थ है।
लेकिन मानने
की हिम्मत
नहीं; कमजोर हैं, कायर
हैं। और कायर
मानता नहीं कि
कायर है। तो
वह दूर रहने
के कारण
जुटाता है। वह
कहता है,
वहां
कुछ भी नहीं
है, जाने से सार
क्या? ऐसा करके
अपने का
भुलावा देता
है, ताकि इस
मान्यता में
जी सके कि
मैंने जो किया
है, व्यर्थ ही
नहीं है,
सार्थक
है।
अहंकार
विपरीत है
व्यर्थता के
बोध के, क्योंकि
व्यर्थता अगर
जीवन में है
तो अहंकार गया, गिरा।
अहंकार के लिए
सहारा चाहिए
कि हम जो कर
रहे हैं,
बड़ा
सार्थक है।
अहंकार को न
केवल यह सहारा
चाहिए कि हम
जो कर रहे हैं, सार्थक
है; यह भी सहारा
चाहिए कि वह
परम अर्थों
में सार्थक है; आत्यंतिक
अर्थों में
सार्थक है।
एक आदमी
धन कमाता है, इकट्ठा
करता है धन, कभी
न कभी उसे
दिखाई पड़ता है
कि यह तो सब
व्यर्थ हो गया।
ये ठीकरे
मैंने इकट्ठे
कर लिए, इनका कोई
मूल्य नहीं है।
तो घबड़ाकर दान
करने लगता है, पुण्य
करने लगता है।
जिन ठीकरों से
यहां कुछ न
मिला, अब सोचता है, परलोक
में कुछ मिल
जाए; मगर ठीकरे
वही हैं। अब
तुम थोड़ा सोचो।
जो यहीं
व्यर्थ सिद्ध
हुए, वे वहां
कैसे सार्थक
हो जाएंगे? जो
यहां तक
सार्थक सिद्ध
न हुए, वे परलोक
में कैसे
सार्थक हो
जाएंगे?
संसार
में भी जिनके
द्वारा धोखा
हुआ, अब तुम
परमात्मा में
भी उन्हीं के
द्वारा धोखा
खाना चाहते हो?
ध्यान
रखना, घबड़ा मत
जाना। जिस दिन
समझ में आता
है, सब व्यर्थ
है, उस
दिन जिंदगी
एक दुख—स्वप्न
की भांति टूट
जाती है—जैसे
अचानक वीणा के
तार टूट गए; एक
झनझनाहट रह
जाती है,
संगीत
खो जाता है।
धीरे—धीरे
झनझनाहट भी खो
जाती है। तुम
बिलकुल शून्य
में थिर रह
जाते हो।
शून्य घबड़ाता
है। कुछ करने
का मन होता है—कुछ
भी कर लो।
हाय
ख्वाबों की
खियाबा
साजियां
आंख
क्या खोली, चमन
मुरझा गए
तुमने
अब तक जो भी
बगीचे देखे, फूल
देखे, सब सपनों के
थे। और तुमने
जो क्यारियां
लगाने की
कल्पनाएं और योजनाएं
बनाई थीं, वे
सब स्वप्न में
थीं।
हाय
ख्वाबों की
खियाबा
साजियां
वे जो
क्यारियां
लगाने की
तुमने बड़ी
योजनाएं बना
रखी थीं,
महल
बनाए थे,
बगीचे
लगाए थे,
वे सब
स्वप्न में थे।
आंख
क्या खोली, चमन
मुरझा गए
आंख
खुलते ही पता
चलता है कि
चमन खोने लगे, 'बगीचे कहीं
दूर अंधेरे
में डूबने लगे, कहीं
दूर हटे जाते
हैं।
किस
तजल्ली का
दिया हमको
फरेब
और ऐसा लगता
था कि हम जो कर
रहे हैं,
उससे
प्रकाश के
करीब आ रहे
हैं। किस
तजल्ली का
दिया हमको
फरेब
किस
धुंधलके हमको
पहुंचा गए
सपनों ने
कैसा धोखा
दिया! आशा
बंधाई
प्रकाशों की
और अंधेरों
में पहुंचा गए।
किस तजल्ली का
दिया हमको
फरेब
किस
धुंधलके हमको
पहुंचा गए
घबड़ाहट
पकड़ेगी,
हाथ—पैर
कंप जाएंगे, प्राण
कंप जाएंगे।
पश्चिम में, डेनमार्क
में एक बहुत
प्रसिद्ध
विचारक हुआ : सोरेन
कीर्कगार्ड।
उसने कहा है, इसी
घड़ी में
मनुष्य—जीवन
की सबसे बड़ी
चिंता पैदा
होती है।
और चिंताएं
तो सब साधारण
हैं। पत्नी
बीमार है, चिंता
होती है।
बच्चा बीमार
है, चिंता होती
है। दुकान
डूबी जाती है, दिवाला
निकलता है, चिंता
होती है। खुद
का बुढ़ापा आता
है, चिंता होती
है।
माना
चिंताएं हैं
हजार, लेकिन
सोरेन
कीर्कगार्ड
ने कहा है, वे
चिंताएं हैं, चिंता
नहीं; असली चिंता
तो तब पकड़ती
है, जब तुम्हें
अचानक लगता है
कि पैर के
नीचे से जमीन
खिसक गई।
हाय
ख्वाबों की
खियाबां
साजियां
आंख क्या
खोली, चमन मुरझा
गए
किस तजल्ली
का दिया हमको
फरेब
किस
धुंधलके हमको
पहुंचा गए
तब चिंता
पकड़ती है। यही
चिंता या तो
पागलपन बन
सकती है या
बुद्धत्व का
जन्म। यह
चिंता चौराहा
है। इस चिंता
से एक राह तो
पागलपन की तरफ
जाती है,
कि तुम
इतने घबड़ा
जाओ.. कि तुम
इतने घबड़ा जाओ
कि सम्हल न
सको, कि तुम टूट
जाओ, बिखर जाओ, कि
अहंकार के
गिरने के कारण, टूटने
के कारण,
तुम फिर
अपने को वापस
खड़ा न कर पाओ।
बहुत लोग पागल
हो जाते हैं।
इसलिए
सदगुरु का—जिसको
बुद्ध ने
कल्याण मित्र
कहा है—बड़ा
अर्थ है। ऐसी
घड़ी में,
जब तुम
गिरने के करीब
आ जाओगे,
किसी का
हाथ चाहिए जो
तुम्हें
सम्हाल ले।
किसी का हाथ
चाहिए, जो तुमसे
कहे, घबड़ाओ मत; जो
था, वह व्यर्थ
हुआ, इससे यह मत
सोचो कि सभी
व्यर्थ है।
सार्थक मौजूद
है। और यह शुभ
घड़ी है, मंगल घड़ी है।
शुभाशीष समझो, कृतज्ञ
होओ कि
परमात्मा ने
आधी मंजिल तो
पूरी कर दी; दिखा
दिया व्यर्थ
क्या है! अब एक
पर्दा और उठने
को है, और सार्थक
भी प्रगट हो
जाएगा।
अन्यथा
आदमी पागल हो
जाता है। बहुत
से धार्मिक
व्यक्ति पागल
हो जाते हैं।
बिना कल्याण
मित्र के
रास्ते पर
चलना खतरनाक
हो सकता है।
तुम पता नहीं
सम्हल पाओ, न
सम्हल पाओ।
और
ध्यान रखना, यह
शुरुआत है, यह
रास्ते का
प्रारंभ है—जीवन
की व्यर्थता
का दिखाई पड़
जाना। यह
यात्रा कुछ
ऐसी है कि
शुरू तो होती
है, अंत कभी
नहीं होती फिर।
जीवन की
व्यर्थता
दिखाई पड़ती है, इसके
बाद उस जीवन
का अनुभव होना
शुरू होता है, जो
परम सार्थक है।
लेकिन
वह जीवन
विस्तीर्ण है, विशाल
है; उसका कोई ओर—छोर
नहीं। तुम
उसमें डूबोगे, खो
जाओगे, अंत न पाओगे।
तुम उसमें
मिटोगे,
शून्य
हो जाओगे। तुम
उसे जानोगे तो, लेकिन
पूरा—पूरा कभी
न जान पाओगे।
जैसे पक्षी
क्या पंखों से
आकाश की
परिभाषा कर
सकेगा? उड़ तो लेता
है, जान तो लेता
है, लेकिन पंख
क्या परिभाषा
कर सकेंगे
आकाश की?
और यह
यात्रा
अंतहीन है; इसीलिए
तो हम
परमात्मा को
अनंत कहते हैं।
संसार की सीमा
है, क्योंकि एक
न एक दिन
व्यर्थ का
अनुभव समझ में
आ जाता है, उसी
दिन सीमा आ
जाती है।
परमात्मा की
कोई सीमा नहीं
है; उसकी
सार्थकता का
कोई अंत नहीं
है : सार्थकता—और
सार्थकता—और
सार्थकता—शिखर
पर शिखर खुलते
चले जाते हैं।
कितनी
दिलचस्पो—पुरसुकूं
है ये
रहगुजर, जिसकी
इंतिहा ही
नहीं
अपूर्व
है यह रास्ता।
अदभुत है यह
मार्ग। अनंत
आनंदों से भरा
है यह मार्ग।
बडी शांति से, शांति
के मेघों से
ढंका है यह
मार्ग।
कितनी
दिलचस्पो—पुरसुकूं
है ये
कितना
मनमोहक! कितना
आल्हादकारी
और कितना शांतिदायी!
रहगुजर, जिसकी
इंतिहा ही
नहीं
ऐसी राह, जो
शुरू तो होती
है, लेकिन
समाप्त नहीं।
शुभ हुआ।
एक छोटी सी
अंतर्दृष्टि
हाथ लगी। इस
चिराग को पकड़ो, इस
ज्योति को
सम्हालो। यही
ज्योति कल
सूरज बन जाएगी।
तीसरा
प्रश्न—
क्या
अभिव्यक्ति
मात्र
मर्यादा नहीं
थी?
निश्चित
ही, अभिव्यक्ति
मात्र
मर्यादा है।
जो प्रगट होता
है। उसकी सीमा
है; प्रगट होते
ही सीमित हो
जाता है। जो
अप्रगट रह
जाता है, वहीं असीम
है।
सृष्टि की
सीमा है, स्त्रष्टा
की नहीं।
कविता की
सीमा है,
कवि की
नहीं।
चित्र की
सीमा है,
फ्रेम
है, चित्रकार
की नहीं।
क्योंकि जो
अप्रगट है, वह
बहुत है उससे, जो
प्रगट हुआ। वह
अनंत गुना है
उससे, जो प्रगट
हुआ।
मैंने
तुमसे जो कहा, उसकी
सीमा है। जो
मैं तुमसे कभी
न कह पाऊंगा, उसकी
कोई सीमा नहीं
है।
बुद्ध एक
जंगल से
गुजरते हैं; पतझड़
के दिन हैं, सूखे
पत्तों से
सारा वन—प्रांत
भरा है, हवाएं उन
सूखे पत्तों
को जगह—जगह
उड़ाए फिरती
हैं; बड़ा शोरगुल
है। आनंद ने
पूछा, भगवान! एक
बात पूछनी है।
आज निजी एकांत
मिल गया है, कोई
और नहीं है।
मैं पूछता हूं
कि आप जो
जानते हैं, वह
सभी मुझसे कह
दिया है?
बुद्ध ने
अपनी मुट्ठी
में सूखे
पत्ते भर लिए
और कहा, जो मैंने
तुमसे कहा है, वह
इस मुट्ठी में
बंद पत्तों की
भांति है; और
जो नहीं कहा, वह
इन सारे सूखे
पत्तों की
भांति है, जिनसे
पूरी पृथ्वी
भरी है।
स्वभावत:, जो
कहा जाता है, उसकी
सीमा हो जाती
है। भाषा सीमा
बनाती है।
भाषा परिभाषा
बनती है। जो
नहीं कहा जाता, जो
अभिव्यक्त
नहीं होता, जो
अभिव्यक्ति
के पार रह
जाता है,
वही
असीम है।
मौन
असीम है,
मुखरता
की सीमा है।
इसलिए
तो बोलता हूं
तुमसे; लेकिन
बोलता इसीलिए
हूं ताकि तुम
अबोल में जा सको।
कहता हूं
तुमसे इतना, सिर्फ
इसीलिए कि तुम
मौन की तलाश
कर सको। मेरे
बोलने से अगर
तुम्हें मौन
का थोड़ा सा
स्वाद आ जाए, मेरे
बोलने से अगर
तुम्हें
शून्य का थोड़ा
सा रस लग जाए, बस
प्रयोजन पूरा
हो गया।
यह
अंगुली उठाता
हूं आकाश की
तरफ, यह अंगुली
आकाश नहीं है; यह
अंगुली तो बड़ी
सीमित है।
अंगुली को तो
भूल जाना, आकाश
की यात्रा पर
निकल जाना।
लेकिन फिर भी
जब अंगुली
उठाता हूं तो
अंगुली आकाश
की तरफ इशारा
तो करती है।
मैं चुप भी हो
जाऊं, चुप बैठ
जाऊं, तो तुम समझ न
पाओगे। तब
अंगुली भी
आकाश की तरफ न
उठेगी। बोल—बोलकर
भी तुम नहीं
समझ पाते हो; कह—कहकर
भी तुम्हें
पहुंच नहीं
पाता; बिना बोले
तो तुम्हारे
लिए बात
बिलकुल ही अबूझ
हो जाएगी, बेबूझ
हो जाएगी।
बोलता
हूं? ताकि
तुम्हारी समझ
से थोड़ा सेतु
बन सके। लेकिन
सेतु बनते ही
सारी चेष्टा
यही है कि तुम्हें
समझ के पार ले
जाना है। तुम
पर निर्भर है।
मैं जो कह रहा
हूं जो शब्द
मैं तुमसे कह
रहा हूं अगर
तुम समझ लो तो
वे शब्द इशारे
बन जाएंगे; अगर
तुम न समझो तो
वे शब्द
कब्रों की तरह
हो जाएंगे; उन
में कोई सत्य
मर गया। अगर
तुम समझ लो तो
उन्हीं
शब्दों से
अंकुर निकल
आएंगे शून्य
के, मौन के
तुम्हारे
भीतर। अगर न
समझो तो
सूचनाएं
इकट्ठी हो
जाएंगी।
इन्हीं
अलफाज में
मदफन हैं
शाहों के जमीर
इन्हीं
अलफाज में
मलफूफ है मजहब
का खुदा
जिन्होंने
जाना, जो अपने
मालिक बने, उनके
वक्तव्य
इन्हीं
शब्दों में
दफन हैं।
इन्हीं अलफाज
में मदफन हैं
शाहों के जमीर
इन्हीं
अलफाज में
मलफूफ है मजहब
का खुदा
और
इन्हीं
शब्दों में
धर्मों का
परमात्मा बंद
है।
तुम पर
निर्भर है।
अगर तुम इन
शब्दों का सार
समझ लो—सार
शून्य है, सार
मौन है। बड़ी
विपरीत बात है; शब्द
से निःशब्द को
कहना पड़ता है।
बड़ी
विरोधाभासी
बात है, बड़ी उलटी
बात है। चालीस
साल बुद्ध
बोलते हैं, सिर्फ
इसलिए कि लोग
चुप हो जाएं।
मैं रोज
बोले चला जाता
हूं र ताकि
लोग चुप हो जाएं।
बात बड़े
पागलपन की
लगती है कि
अगर लोगों को
यही समझाना है
कि चुप हो जाओ, तो
आप चुप बैठें।
बात सीधी होगी, लोग
समझ जाएंगे; चुप
होना है।
लेकिन मामला
कुछ ऐसा है कि
सफेद लकीर अगर
तुम्हें
दिखानी हो तो
काले तख्ते पर
खींचनी पड़ती है।
सफेद दीवाल पर
भी खींची जा
सकती है;
खिंच तो
जाएगी, दिखाई न
पड़ेगी। स्कूल
का मास्टर भी
जानता है कि
काला तख्ता रखना
पड़ता है। सफेद
दीवाल भी काम
दे सकती है, लिख
सकता है,
लेकिन
लिखा हुआ
पढ़ेगा कौन? लिख
तो जाएगा, पढ़ना
संभव न होगा।
सफेद लकीर को
दिखाने के लिए
काली
पृष्ठभूमि चाहिए।
मौन
समझाने के लिए
शब्दों का
उपयोग करना
पड़ता है। शब्द
काली
पृष्ठभूमि है।
तो जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं, वह शब्दों
के बीच में है।
जो मैं तुमसे
कह रहा हूं? वह
लकीरों के
अंतराल में है।
तुमसे जो मैं
कह रहा हूं
उसमें नहीं है, जो
मैं कहना
चाहता हूं—आसपास
है, शब्दों के
आसपास है।
शब्द को
सीधा मत पकड़
लेना, वहीं भूल हो
जाएगी। शब्द
को झपटकर मत
पकड़ लेना; अन्यथा
कब्र बन जाएगी।
शब्द को
आहिस्ते से, बड़े
आहिस्ते से, बड़े
परोक्ष ढंग से
सुनना। शब्द
की धुन को
पकड़ना, शब्द के गीत
को पकड़ना, शब्द
के भीतर पड़े
संगीत को
पकड़ना, शब्द तो खोल
की तरह छोड़
देना।
शब्द के
भीतर शून्य को
डालकर भेजा है।
शब्द तो कैप्सूल
है, औषधि भीतर
है। तुम पर सब
निर्भर करेगा।
ऐसा मत करना
कि कैप्सूल
की खोल तो चबा
जाओ : और भीतर
जो है, उसे फेंक दो।
ऐसा ही होता
रहा है।
इक हर्फ
इक तवील
हिकायत से कम
नहीं
एक छोटे
से अक्षर में
सब कुछ समाया
हो सकता है, एक
लंबी बात कही
गई हो सकती है।
इक हर्फ
इक तवील
हिकायत से कम
नहीं
इक बूंद
इक बहर की
वुसअत से कम
नहीं
एक छोटी
सी बूंद में
पूरा सागर
छिपा है,
सागर की
पूरी विशालता
छिपी है। अगर तुमने
बूंद को जान
लिया तो सागर
को जान लोगे।
बूंद को जानने
के बाद सागर
में जानने को
बचता क्या है? जो
बूंद में बड़े
छोटे रूप में
है, वही सागर
में बड़े रूप
में है।
निकले
खुलूस दिल से
अगर वक्ते—नीमशब
इक आह इक
सदी की इबादत
से कम नहीं
एक आह इक
सदी की इबादत
से कम नहीं
ठीक, सम्यक ढंग
से, एकात में, मौन
में, आधी अंधेरी
रात में—
निकले
खुलूस दिल से
अगर वक्ते—नीमशब
जब सारा
जगत सोया हो, किसी
को पता भी न
चले।
क्योंकि
आदमी बड़ी
प्रदर्शनवादी
है।
प्रार्थना भी
करता है,
दूसरों
को दिखाने के
लिए करता है।
मंदिर में
देखो, लोग
प्रार्थना
करते हैं, जैसे
भीड़ बढ़ती है, प्रार्थना
का शोर बढ़ने
लगता है। कोई
नहीं रह जाता, सन्नाटा
हो जाता है।
लोग देख लेते
हैं, अब कोई नहीं, सार
क्या?
प्रार्थना
परमात्मा से
नहीं हो रही, भीड़
सुन ले। लोगों
को पता चल जाए
कि प्रार्थना
करने वाला कितना
धार्मिक है!
आधी रात
में! सूफी
फकीर कहते रहे
हैं, जब किसी को
पता न चले।
चुपचाप,
एक आह भी—
इक आह इक सदी
की इबादत से
कम नहीं
सौ साल की
गई
प्रार्थनाएं एक
छोटी सी आह
में समा सकती
हैं।
अमरीका से
एक सत्य का
खोजी भारत आया
था। वह एक
सूफी फकीर की
तलाश कर रहा
था। कहीं से
सुराग मिल गया
था। लेकिन
सूफियो का पता
लगाना जरा
कठिन होता है।
ढाका के आसपास
कहीं फकीर है, ऐसा
सुनकर वह ढाका
पहुंचा।
टैक्सी की, टैक्सी
वाले से पूछा
कि इस फकीर को
जानते हो?
उसने
कहा, कुछ—कुछ।
पहुंचा
दोगे उसके पास?
उस
टैक्सी वाले
ने कहा, बहुत कुछ
तुम पर निर्भर
करता है,
मुझ पर
नहीं। यह थोड़ा
चौंका। बात
बड़ी सूफियाना
मालूम पड़ी।
पहले तो कहा
कुछ—कुछ,
फिर कहा
कि तुम पर
निर्भर करता
है, मेरी तरफ से
पूरी कोशिश
करूंगा।
टैक्सी
में बैठा। यह
आदमी कुछ अजीब
सा मालूम पड़ा।
रास्ते में
इसने पूछा कि
क्या तुम भी
किसी सूफी के
शिष्य हो? तुम्हारे
पास हवा में
थोड़ी इबादत है।
उस टैक्सी
वाले ने वहीं
गाड़ी रोक दी
और परमात्मा
से प्रार्थना
की, कि क्षमा कर!
यह आदमी
बहुत हैरान
हुआ कि मामला
क्या है! उसने
पूछा कि बात
क्या है?
मैने
कुछ चोट
पहुंचा दी? क्योंकि
वह रोने लगा।
उसने
कहा कि
प्रार्थना का
पता चल जाए
दूसरे को तो
प्रार्थना
खराब हो गई।
मेरे गुरु ने
यही सिखाया है
: भीतर
गुनगुनाना।
तुम्हें कैसे
पता चल गया?
लेकिन
जब कोई
प्रार्थना
भीतर
गुनगुनाता है
तो उसके आसपास
की हवा बदल
जाती है। जब
कोई परमात्मा
की याद से
भीतर भरा होता
है तो उसके
आसपास की हवा
में गंध होती
है—एक सुवास, एक
ताजगी, जैसे कमल
खिल रहे हों
भीतर! दिखाई
तो नहीं पड़ते
दूसरे को, लेकिन
अगर दूसरे ने
भी प्रार्थना
की हो, थोड़ी भी
प्रार्थना की
रस्म भी अदा
की हो, बहुत गहरे न
भी गया हो, उपचार
भी पूरा किया
हो, थोड़ा बाहर—बाहर
से भी पहचान
बनाई हो,
तो भी
उसकी समझ में
आ जाएगा। उसने
कहा—ड्राइवर
ने—कि भूल हो
गई, आपको पता चल
गया; जरूर कहीं न
कहीं छिपा हुआ
अहंकार होगा।
निकले
खुलूस दिल से
अगर वक्ते—नीमशब
आधी रात
अगर हृदय से
भरी हुई आह—
इक आह इक
सदी की इबादत
से कम नहीं
जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं छोटे—छोटे
शब्द हैं। जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं, उसकी
सीमा है।
लेकिन जो मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं? उसकी
कोई सीमा नहीं।
तुम मेरे
शब्दों को
बहुत जोर से
मत पकड़ लेना, अन्यथा
उनके प्राण
निकल जाएंगे।
तुम उन्हें
अपने भीतर तो
उतरने देना, मुट्ठी
मत बाधना, क्योंकि
शब्द मर जाते
हैं बड़े जल्दी।
शब्द बड़े कोमल
हैं, बड़े नाजुक
हैं, बहुत
हिफाजत करना।
तुम्हारे
विचारों की
भीड़ में मेरे
शब्द न खो जाएं, अन्यथा
तुम्हारे
विचार, इसके पहले
कि वे तुम तक
पहुंचें, उन्हें
नष्ट कर देंगे।
तुम्हारे
तर्क से मेरे
विचार न टकरा
जाएं, अन्यथा
तुम्हारा
तर्क उन्हें
खंड—खंड कर
देगा।
तुम जरा
मुझे जगह दो।
तुम जरा हटकर
खड़े हो जाओ।
तुम जरा तुमसे
ही हटकर खड़े
हो जाओ, ताकि मैं
सीधा—सीधा, चुपचाप
तुम्हारे
भीतर आ जाऊं।
माना ये
शब्द बड़े छोटे
हैं—जैसे छोटे—छोटे
बीज! और अगर
तुमने इनको
भूमि दे दी, थोड़ी
नम, आंसुओ से
गीली जगह दे
दी, तो मुझे
पक्का पता है, तुम
एक बड़ी उपजाऊ
जमीन अपने
भीतर लिए चल
रहे हो। बड़ी
संभावनाएं
हैं।
परमात्मा
तुम्हारी
संभावना है, अब
और बड़ी
संभावना क्या
होगी?
ठीक है, अभिव्यक्ति
की तो मर्यादा
है—होगी ही।
शब्दों का
उपयोग करना
पड़ेगा, धारणाओं का
उपयोग करना
पड़ेगा, भाषा का
उपयोग करना
पड़ेगा। ये सब
मर्यादाएं लग
जाएंगी। अब
समझदारी
इसमें है
सुनने वाले की, कि
मर्यादाओं पर
ध्यान न दे; वह
जो अमर्याद
मर्यादा के
भीतर से बहने की
चेष्टा कर रहा
है, उस पर ध्यान
दे।
नदी को
देखना, किनारों को
मत देखना।
किनारों में
तो सीमाएं हैं, नदी
असीम की तरफ
बही जा रही है।
नदी हमेशा
सागर की तरफ उन्मुख
है; किनारों
में बंधी कहां
है? किनारों के
बीच है माना, किनारों
में बंधी कहां
है?
जो मैं
कह रहा हूं—शब्द
किनारे हैं।
उनके सहारे के
बिना नदी सागर
तक भी न पहुंच
पाएगी, उनका सहारा
चाहिए। तुम तक
न पहुंचा
सकूंगा
अन्यथा।
इसलिए बोले
चला जाता हूं।
आज चूकोगे, कल
चूकोगे,
परसों
चूकोगे,
कभी तो
ऐसी घड़ी आएगी, कभी
तो ऐसा होगा
कि तुम बीच
में न खड़े
होओगे और मैं
पहुंच जाऊंगा।
एक भी बीज
पहुंच जाए, बस
पर्याप्त है।
एक बार
तुम्हारे
भीतर अंकुरण
होने लगे। बीज
तुम्हारे
भीतर टूटे, सब
हो जाएगा।
इक
सफीना है तेरी
यादगार
इक
समंदर है मेरी
तनहाई
जब तक
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा की
याद नहीं उठी
है, तब तक तुम एक
सागर हो—रिक्तता
के, एकाकीपन के, अकेले।
इक
सफीना है तेरी
यादगार
इक
समंदर है मेरी
तनहाई
और जैसे
ही तुम्हारे
भीतर
परमात्मा की
याद कानी शुरू
होगी—एक बीज
भी टूटा,
स्मरण
आया—नाव बनी।
उसकी याद है
नाव। उसकी याद
फिर पार ले
जाती है।
सत्संग
का कुल इतना
ही अर्थ है : आओ
जिक्रे—यार
करें। उसकी
याद करें, बहाने
खोजें, उसकी बात
करें। कुछ
निमित्त
बनाएं, उसकी
स्मृति को
जगाएं।
धम्मपद
एक बहाना है, गीता
एक बहाना है, कुरान
एक बहाना है, किसी
बहाने
सही! आओ
जिक्रे—यार
करें। उस
प्यारे की याद
करें।
पर लोग
बड़े पागल हैं।
अगर मैं
महावीर के
वचनों पर
बोलता हूं जैन
सुनने आ जाते
हैं। जिक्रे—यार
से कुछ लेना—देना
नहीं। अगर
बुद्ध—वचनों
पर बोलता हूं? वे
नदारद हो जाते
हैं। अगर
क्राइस्ट पर
बोलता हूं र
क्रिश्चियन
उत्सुक हो
जाता है। नानक
पर बोला,
कुछ
सरदार दिखाई
पड़ने लगे थे; फिर
नहीं दिखाई
पड़ते—बस,
एक
हमारे सरदार
गुरुदयाल को छोड़कर
!
नहीं, जिक्रे—यार
से कुछ मतलब
नहीं है।
अन्यथा ये तो
बहाने हैं।
उसी की याद कर
रहे हैं बहुत—बहुत
बहानों से।
पता नहीं, कौन
सा बहाना ठीक
पड़ जाए। किस
मौके पर घटना
घट जाए, बीज उतर जाए।
चौथा पश्न—
आप कहते है
कि कामना
बहिर्गामी है,
फिर क्या है
जो अंतर्यात्रा
पर ले जाता है?
संसार में हार
जाना; वासना में
हार जाना; तृष्णा
की असफलता
परमात्मा में
ले जाती है, अंतर्गमन
में ले जाती
है। जीवन जैसा
तुम जी रहे हो, व्यर्थ
है, इसकी
प्रगाढ़ चोट
जगा जाती है।
फिर बाहर के
जीवन में
उत्सुकता
नहीं रह जाती।
इसे
थोड़ा समझो।
क्योंकि मैं
देखता हूं
बहुत से लोग
अंतर्जीवन
में उत्सुक
होते हैं, लेकिन
चोट नहीं पड़ी
है। बाहर का
जीवन असफल
नहीं हुआ है।
और भीतर के
जीवन में
उत्सुक हो रहे
हैं। तो उनका
भीतर का जीवन
भी बाहर के
जीवन का ही एक हिस्सा
होता है;
भीतर का
जीवन नहीं
होता। उनका
मंदिर भी
दुकान का ही
एक कोना होता
है। उनकी
प्रार्थना भी
उनके बही—खातों
का प्रारंभ
होती है—श्री
गणेशाय नम:।
बही—खाते का
प्रारंभ
भगवान से। ठीक
से चले दुकान
तो परमात्मा
का स्मरण कर
लेते हैं।
परमात्मा का
स्मरण करके
नर्क की
व्यवस्था करते
हैं।
जहां तक
मुझे पता है, इन
दुकानदारों
ने नर्क के
दरवाजे पर भी
लिख दिया होगा—श्री
गणेशाय नम:।
उनकी यात्रा..
तुमने चोरों
को देखा?
चोर भी
जाते हैं चोरी
को तो भगवान
का नाम लेकर जाते
हैं। मेरे पास
आ जाते हैं
ऐसे कुछ लोग।
वे कहते हैं, आशीर्वाद
दे दें, इच्छा पूरी
हो जाए।
तुम
इच्छा तो बताओ!
अब आप तो
सब जानते ही
हैं।
किसी को
मुकदमा जीतना
है.. तुम्हारी
इच्छाएं व्यर्थ
नहीं हो गई
हैं जब तक,
तब तक
अंतर्यात्रा
शुरू न होगी।
तुम मंदिर में
फूल चढ़ा आओगे, वह
भी तरकीब होगी
संसार में सफल
हो जाने की।
भगवान को भी
राजी कर लो, कौन
जाने कोई बीच
में अड़ंगा डाल
दे!
गणेश का
नाम इसीलिए
शुरू में लिखा
जाता है। कहते
हैं, गणेश
उपद्रवी थे।
जो प्रारंभिक
कथा है, वह बड़ी
मजेदार है।
गणेश उपद्रवी
थे और दूसरों
के कार्यों
में विग्न—बाधा
डालते थे।
इसलिए उनका
नाम लोग शुरू
में ही लेने
लगे कि उनको
पहले ही राजी
कर लो। फिर तो
धीरे—धीरे लोग
भूल ही गए कि
असली बात क्या
थी! असली बात
सिर्फ यही थी
कि उनके
उपद्रव के डर
से लोग कुछ भी
काम करते—शादी—विवाह
करते, दुकान
खोलते, मकान बनाते—उनका
नाम पहले ले
लेते कि तुम
राजी रहना। हम
तुम्हारे ही
हैं, हमारी तरफ
खयाल रखना।
धीरे—धीरे बात
बदल गई। अब तो गणेश
जो हैं, वे मंगल के
देवता हो गए
हैं। धीरे—धीरे
लोग भूल ही गए
कि उनकी याद
करते थे,
उनके
विध्न—उपद्रव
की प्रवृत्ति
के कारण। शब्द
ने एक करवट ले
ली, नया अर्थ ले
लिया।
लोग
मंदिर में फूल
चढ़ा आते हैं, मजार
पर हो आते हैं
फकीर की,
ताबीज
बांध लेते हैं
धर्म का,
लेकिन
संसार के लिए।
पूछा है, 'आप
कहते हैं, कामना
बहिर्गामी है।’
समस्त
कामनाएं
बहिर्गामी
हैं; कामना
मात्र
बहिर्गामी है।
भीतर ले जाने
वाली कोई भी
कामना नहीं है।
कामना ले ही
जाती बाहर है।
तो
स्वभावत:
प्रश्न उठता
है, फिर हम भीतर
कैसे जाएं? क्योंकि
जब कोई कामना
ही भीतर जाने
की न होगी तो
हम भीतर जाने
का प्रयास
क्यों करेंगे!
बड़ा
महत्वपूर्ण
प्रश्न है, 'फिर
क्या है जो
अंतर्यात्रा
पर ले जाता है?
वासना
की असफलता, कामना
की विफलता, संसार
की पराजय।
भीतर जाने की
कोई वासना
नहीं है,
जब सभी
वासनाएं हार
जाती हैं, तुम
अचानक भीतर
सरकने लगते हो।
जब सभी
वासनाएं हार
जाती हैं, तुम
बाहर नहीं
जाते; बाहर जाना
व्यर्थ हो गया।
और तब अचानक
तुम भीतर
खींचे जाते हो।
इस फर्क
को समझ लेना :
भीतर कोई नहीं
जाता। तुम
बाहर जाते हो, बाहर
जा सकते हो, भीतर
खींचे जाते हो; इसलिए
भीतर पहुंचना
प्रसादरूप हैं।
बाहर भर मत
जाओ, भीतर खींच
लिए जाओगे।
तुम बाहर पकड़े
हो जोर से
किनारों को, इसलिए
भीतर की धार
तुम्हें खींच
नहीं पाती।
तुमने नाव को
किनारे की
खूंटियों से
बांध दिया है, अन्यथा
नदी समर्थ है
इसको ले जाने
में बड़ी दूर
की यात्रा पर।
वासना
नहीं है भीतर
जाने की कोई।
मोक्ष की
कामना कोई भी
नहीं होती। जब
कोई कामना
नहीं होती, तब
उस दशा का नाम
मोक्ष है।
मेरी
शिकस्त मेरी
फतह का रसूल
बनी
मेरी
शिकस्त ही तो
इदराक का उसूल
बनी
मेरी
शिकस्त! मेरी
हार, मेरी पराजय, मेरा
संसार में
व्यर्थ हो
जाना, मेरी गहन
निष्फलता—
मेरी
शिकस्त मेरी
फतह का रसूल
बनी
वही
मेरी विजय का
पैगंबर बन गई—अंतर्विजय
का।
मेरी
शिकस्त ही तो
इदराक का उसूल
बनी
और बाहर
का हार जाना
ही तो भीतर के
ज्ञान का आधार
बना, सार—सूत्र
बना, उसूल बना।
इसीलिए
मैं तुमसे
कहता हूं बाहर
से भागने की जल्दी
मत करना;
हार ही
जाओ। एक बार हार
ही लो, एक बार बुरी
तरह पराजित हो
जाओ, एक बार इस
तरह हारो कि
आशा जरा भी न
बचे। आशा का
जरा सा भी
सूत्र बच जाए
तो तुम भीतर न
जा सकोगे। तुम
एक खूंटे को
बाहर पकड़े ही
रहोगे। तुम
कहोगे, अभी शायद
कुछ और हो
सकता है। शायद
कल... आज नही हुआ, कल..
परसों; थोड़ा और प्रयास
कर लें, थोड़ी और
चेष्टा कर लें; जल्दी
क्या है?
जब सभी
आशा अस्त हो
जाती है—अब यह
जरा समझना
होगा—जब सभी
आशा अस्त हो
जाती है तो
तुम्हारे मन
में खयाल
उठेगा, तब तो बड़ी
निराशा हो
जाएगी। बारीक
बात है! जब सभी
आशा अस्त हो
जाती है तो तुम
निराश नहीं
होते, क्योंकि निराशा
तो आशा के
कारण ही होती
है। जितनी तुम
आशा बांधते हो, जितनी
तुम आस बांधते
हो, उतने ही
निराश होते हो।
जब—जब आशा
हारती है, तब—तब
निराश होते हो।
जब आशा
इस भांति हार
जाती है कि
जीतना संभव ही
नहीं है,
होता ही
नहीं। जब तुम
इस सत्य को
समझ लेते हो
कि आशा हारेगी
ही; तुम्हारी
आशा हारती है, ऐसा
नहीं; आशा का
हारना स्वभाव
है; आशा धोखा है; तब
तुम निराश
नहीं होते। न
आशा बचती है, न
निराशा बचती
है। आशा के
साथ ही निराशा
भी चली जाती
है। सफलता के
साथ ही विफलता
भी चली जाती
है। अचानक तुम
खाली हो जाते
हो आशा—निराशा
दोनों से। रात—दिन
दोनों गए।
अगर
निराशा बची
रही तो इसका
मतलब है,
अभी आशा
मौजूद है कहीं।
अभी 'भी
तुम निराश हो, इसका
मतलब, अभी भी तुम
सोच रहे हो, कोई
उपाय हो सकता
था। अभी भी
तुम सोच रहे
हो, आशा सफल हो
सकती थी। यह
मेरी आशा हार
गई, इसका यह
अर्थ नहीं कि
आशा हारती है।
यह आशा हार गई, इसका
यह अर्थ नहीं
कि सभी आशाएं
हारती हैं।
मैं थोड़े और
उपाय करूं, ठीक
से करूं,
थोड़ी और
व्यवस्था से
करूं, तो जीत
जाऊंगा।
इसलिए निराश
हो। अगर आशा
मात्र का
स्वभाव
विफलता है तो
निराशा का कोई
कारण न रहा।
बुद्ध
को बहुत लोगों
ने
निराशावादी
समझा है। क्योंकि
वे कहते हैं, संसार
दुख है जीवन
दुख है, जन्म दुख है, मरण
दुख है, सब दुख है।
लोग सोचते हैं, बुद्ध
निराशावादी
हैं।
नहीं, बुद्ध
तो केवल सत्य
कह रहे हैं; जैसा
है, वैसा कह रहे
हैं; निराशावादी
नहीं। बुद्ध
के चेहरे पर
निराशा की
छाया भी नहीं
है। आशा की
रुग्ण चमक भी
नहीं है,
निराशा
की अंधेरी
छाया भी नहीं
है। बुद्ध
बिलकुल शांत
हैं; न आशा है, न
निराशा है। इस
घड़ी में ही
अंतर्यात्रा
शुरू होती है।
मेरी
शिकस्त मेरी
फतह का रसूल
बनी
मेरी
शिकस्त ही तो
इदराक का उसूल
बनी
आखिरी
प्रश्न
कल आपने कहा
कि आदतों को
ही ग्रंथि कहा
गया है, जो
जीवन को जकड़
लेती हैं; क्या
आदत और आदत
में भेद नहीं? वैसे
तो चलने से
लेकर लिखने तक
आदतें ही हैं, फिर
क्या सभी
आदतें जड़ता
लाती हैं? और
क्या संभव है
कि सबसे मुक्त
हुआ जाए?
आदत जड़ता
नहीं लाती, आदत
तुम्हारी
मालिक हो जाए
तो जड़ता लाती
है। आदत को
छोड़ना नहीं है, आदत
के ऊपर उठना
है, अतिक्रमण
करना है। तुम
जो करो, उसमें
मालकियत
तुम्हारी रहे।
आदत का उपयोग
करो, खूब करो, करना
ही पड़ेगा। आदत
उपकरण है, साधन
है।
तो पहली
तो बात यह
खयाल में ले
लेना, बोलोगे तो
आदत है, उठोगे तो
आदत है, चलोगे तो
आदत है, लेकिन यह
ध्यान रहे कि
मालिक कौन है? अगर
चलने की आदत
के कारण चल
रहे हो और
तुम्हें चलना
नहीं है। तुम
कहते हो,
हे
भगवान! बचा, चलना
नहीं है,
लेकिन
आदत है तो चले; क्या
करें? धूम्रपान
करना नहीं है, लेकिन
कर रहे हैं, क्या
करें? आदत है! बचाओ।
आदत
मालिक हो—बस, तो
जड़ता लाती है।
तुम आदत के
मालिक होओ, फिर
कोई हर्जा
नहीं; फिर कोई बात
ही नहीं। फिर
तुम्हें
धूम्रपान
करना हो तो
मजे से करो। न
करना हो,
न करो।
इतना ही ध्यान
रहे कि तुम
मालिक हो।
मैं
नहीं कहता कि
धूम्रपान
छोड़ो; बात ही
फिजूल है।
धूम्रपान से
कुछ नहीं
मिलता, छोड़कर क्या
मिलेगा?
अगर छोड़कर
कुछ मिल सकता
है तो पीकर भी
कुछ मिल ही
रहा होगा। तब
तो धूम्रपान
बड़ा मूल्यवान
है। कुछ लोगों
ने तो ऐसा बना
रखा है कि
धूम्रपान छोड़
दोगे तो भगवान
मिल जाएगा।
काश, इतना सस्ता
होता मामला!
जो नहीं कर
रहे है धूम्रपान, उनको
क्या मिल गया
है?
कोई आदत महत्वपूर्ण
नहीं है,
महत्वपूर्ण
बन जाती है, अगर
मालिक हो जाए; खतरनाक
हो जाती है।
और मजा यह है
कि अगर तुम
अपनी आदत के
मालिक हो तो
बहुत सी आदतें
अपने आप छूट
जाएंगी।
छोड़ना न पड़ेगी।
क्योंकि वे
व्यर्थ हैं।
धूम्रपान पाप
नहीं है,
मूढ़तापूर्ण
है। पाप मैं
नहीं कहता। पाप
क्या है उसमें? एक
आदमी धुएं को
भीतर ले जाता
है, बाहर लाता
है, इसमें पाप
है? थोड़ा सोचो
भी तो! धुएं की
माला फेर रहा
है, इसमें पाप
कहा हो सकता
है? छूता समझ
में आती है कि
मूढ़ है। नाहक
ही फेफड़ों को
खराब कर रहा
है। इतनी
स्वच्छ हवाएं
मौजूद हैं...।
और जब तक
मौजूद हैं, ले
लो; जल्दी ही
धुआ ही धुआ हो
जाने वाला है।
इतनी ताजी
हवाएं मौजूद
हैं, अगर फेफड़ों
का ही ज्यादा
अभ्यास करना
है, प्राणायाम
करो, स्वच्छ
हवाओं को भीतर
ले जाओ; सुवासित
हवाओं को भीतर
ले जाओ, उनकी माला
जपो; रोग भीतर ले
जा रहे हो! पाप
कुछ भी नहीं
है, मूढ़ता है।
पाप कहना बहुत
बड़ा शब्द हो
गया। इतनी
छोटी बात के
लिए पाप नहीं
कहना चाहिए।
और ऐसी छोटी—छोटी
बात के लिए
लोग नर्क में
सडाए जाएं, यह
बात जरा जंचता
नहीं। पहले इन
ने गलती की, अब
भगवान कर रहा
है। पहले ये
धुएं में पड़े
रहे, अब भगवान
इनको धुएं में
डाल रहा है, आग
में उतार रहा
है। यह कुछ
जरा जरूरत से
ज्यादा मामला
हो गया। बड़ी
निर्दोष सी
मूढ़तापूर्ण
बात है। पकड़
उसकी इसमें है
कि तुम उससे
छूट नही पाते, मालिक
नहीं हो।
और तब
मैं तुमसे
कहता हूं कि
अगर तुम बुरी
आदतों के
मालिक नहीं हो
तो वे तो बुरी
हैं ही; अच्छी
आदतों के भी
अगर तुम मालिक
नहीं हो तो वे
भी बुरी हैं।
अगर ऐसा है कि
तुम्हें रोज
प्रार्थना
करनी ही पड़ेगी; कि
तलफ लगती है, कि
न की
प्रार्थना, तो
दिनभर ऐसा
लगता है,
कुछ चूक
गए, कुछ खाली हो
गए। बार—बार
याद आती है कि
करो। तो यह
प्रार्थना भी
धूम्रपान हो
गई। यह आदत
जरा बड़ी हो गई, तुम
से बड़ी हो गई।
कोई आदत
तुम से बड़ी न
हो। मजे से
प्रार्थना
करो, लेकिन
मालिक तुम ही
रहो। किसी दिन
न करनी हो तो
ऐसा न हो कि
आदत करवाए; कि
करना पड़ेगी।
बस, आदत तुम्हारी
मालकियत न
अपने हाथ में
ले-ले; फिर कोई
चिंता नहीं।
मजे की बात यह
है कि जैसे ही
तुम मालिक हुए, व्यर्थ
आदतें अपने आप
छूट जाएंगी।
क्योंकि उनको
करने का कोई
अर्थ ही न रहा।
वे तुम इसीलिए
करते थे कि
तुम मालिक न
थे और आदत
तुम्हें
मजबूर करती थी
कि करो और
तुम्हें करनी
पड़ती थी।
तलफ का
मतलब क्या
होता है?
मजबूरी!
एक बेतहाशा
जोर उठता है
भीतर कि पीओ सिगरेट!
न पीओ तो
मुसीबत,
पीओ तो
मुसीबत। पीओ
तो पाप कर रहे
हो, न पीओ तो यह
बेचैनी पकड़ती
है, सारा शरीर
जकड़ता है। कुछ
मन नहीं लगता, कुछ
करने में मन
नहीं लगता। एक
झंझट खड़ी हो
गई है।
झंझट
धूम्रपान की
नहीं है,
न माला
जपने की है, झंझट
इसकी है कि
तुम आदत को
मालिक बन जाने
देते हो।
अगर
आदतें ही
तुम्हारी
छाती पर मालिक
हो जाएं,
पत्थर
की तरह छाती
से लटक जाएं
और तुम डूबते
चले जाओ तो
जड़ता आ जाती
है, ग्रंथि बन
जाती है।
निर्ग्रंथ
होने का अर्थ
है : कोई आदत
नहीं।
कोई आदत
नहीं होने का
यह मतलब नहीं
है कि तुम चलोगे
कैसे फिर, बोलोगे
कैसे फिर, भोजन
कैसे करोगे, स्नान
कैसे करोगे? कोई
आदत न होने का
मतलब यह है, किसी
आदत की कोई
मालकियत नहीं।
जब जरूरत होती
है, उपयोग कर
लेते हैं; जब
जरूरत नहीं
होती तो उठाकर
अलग रख देते
हैं।
मैं
किसी आदत को न
तो बुरा कहता
हूं न भला।
आदत न कोई
बुरी होती है, न
भली। आदत बुरी
हो जाती है, मालिक
हो जाए तो।
आदत भली हो
जाती है,
अगर तुम
मालिक हो जाओ।
और यह भी
तरकीब समझ
लेना, यह बड़ी
तरकीब गहरी है।
लोग बुरी
चीजों को भी
अच्छे नाम दे
देते हैं। अब
बहुत सी आदतों
को तुमने अपनी
मालकियत सौंप
दी है और उनको
तुम अच्छी आदत
कहते हो।
अच्छी कहकर
तुमने पीड़ा
अलग कर ली; अब
छूटने की कोई
जरूरत न रही।
एक आदमी
कहता है,
हम रोज
प्रार्थना
करते हैं। जिस
दिन नहीं करते
हैं, उस दिन बड़ी
बेचैनी मालूम
होती है। कोई
न कहेगा इससे
कि यह आदत
बुरी है। ही, मैं
कहूंगा कि यह
आदत बुरी है, इसे
छोडो। अन्यथा
कोई न कहेगा; क्योंकि
यह तो धार्मिक
आदत, अच्छी आदत
है। इसको थोड़े
ही छोड़ना है!
लोग कहेंगे कि
यह तो बहुत ही
अच्छा है कि
प्रार्थना की
तलफ लगती है।
ये तो बड़े
तुम्हारे
सौभाग्य हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं सिगरेट की
तलफ लगे कि
प्रार्थना की, बराबर
है। तलफ का
मतलब है,
कोई चीज
तुमसे बड़ी हो
गई। कोई चीज
तुम्हारे
चैतन्य से बड़ी
हो गई। किसी
चीज ने
तुम्हारी
गर्दन को दबा
लिया। अगर
तुम्हें आज
नहीं करनी है
तो न नहीं कर
सकते हो। अगर
आज प्रार्थना
नहीं करनी है
तो भी करनी पड़ेगी, मजबूर
हो, तो सिगरेट
में और इसमें
फर्क क्या रहा? कोई
फर्क न रहा।
और सिगरेट के
खिलाफ तो और
भी तरह के
कारण हैं, इस
प्रार्थना के
खिलाफ तो कोई
भी कारण नहीं
है। डाक्टर कह
नहीं सकते कि
कैंसर होता है, टी
बी. होती है, फला—ढिका।
प्रार्थना? इसमें
न टी बी. होती
है, न कैंसर
होता है। यह
आदत तो बड़ी
साफ—सुथरी है।
और इसलिए और
भी खतरनाक है।
ध्यान
रखना, कोई आदत
अच्छी नहीं, न
बुरी। नाम
देने की
तरकीबें मत
लगाओ। तुम
बुरी चीजों को
अच्छे नाम
लगाकर चिपका
देते हो;
अच्छे
लेबल लगा देते
हो। फिर बड़ी
उलझन होती है
जीवन में।
मेरा
हिसाब बहुत
सीधा—सादा है।
तुम मालिक तो
अच्छा; फिर चाहे
आदत
शराब पीने की
ही क्यों न हो, तुम
मालिक, अच्छा। तुम
निर्णायक हो।
अगर तुम यही
निर्णय करते
हो कि जहर
पीना है,
जहर पीओ।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है।
लेकिन
बस, इतना खयाल
रखना कि
बेईमानी न हो, यह
तुम्हारी
स्वतंत्रता
हो। ऐसा न हो
कि तुम हो तो
मजबूर, और कहो कि
नहीं, स्वतंत्रता
से पीते हैं।
और हो —मजबूर, बिना
पीए नहीं रहा
जाता। धोखा मत
देना, क्योंकि
धोखा तुम अपने
को देते हो, किसी
और को नहीं।
और मैं
तुमसे यह भी
कहता हूं र
अगर
प्रार्थना और
इबादत की आदत
भी तुम्हारी
मजबूरी बन गई
हो तो बुरी।
नाम बदलने से
कुछ भी नहीं
होता। पर नाम
बदलने का काम
चलता है।
भारतीय
पार्लियामेंट
में. हिमालय
में पाई जाने
वाली नील गाय
को मारने का
सवाल था। वह
गाय जैसी होती
है और खेतों
को नुकसान कर
रही थी और
संख्या उसकी
बहुत बढ़ गई थी—उन्नीस
सौ बावन के
करीब।
तो अब
गाय को कैसे
मारना? नील गाय—उसका
नाम गाय जैसा
है; वह गाय है
नहीं, गाय जैसी है।
झंझट खड़ी हो
जाएगी, मूढ़ों का
उपद्रव मच
जाएगा। साधु—संन्यासी
दिल्ली पर
हमला कर देंगे
कि गाय को मार
रहे हो? यह तो
महापाप हुआ जा
रहा है। हजार
ब्राह्मणों
को मारने के
बराबर पाप
लगता है एक
गाय को मारना।
यह तो तूफान आ
जाएगा।
तो
राजनीतिज्ञों
ने होशियारी
की। पहले
उन्होंने
उसका नाम. बदल
दिया—नील घोड़ा।
बात खतम! अब
मजे से मारो।
कोई न उठा—न
कोई
शंकराचार्य, न
कोई साधु—संन्यासी—कोई
दिल्ली की तरफ
न गया। बात ही
खतम हो गई।
नील घोड़ा है, इसको
मारने में
क्या हर्ज है? लेकिन
मर वही गाय
रही है।
बादे—सरसर
को अगर तुमने
कहा मौजे—नसीम
अगर आधी—अंधड़
को तुमने सुबह
की ताजी हवा
कहा, धूल—धवांस
से भरे हुए, गुबार
से भरे हुए
अंधड़ को—
बादे—सरसर
को अगर तुमने
कहा मौजे—नसीम
इससे
मौसम में कोई
फर्क नहीं
आएगा
क्या
फर्क पड़ेगा? तुम
आधी को, अंधड़ को, धूल—धवांस
से भरे हुए
उपद्रव को मलय—समीर
कहो, मलयानिल से
आती सुबह की
ताजी हवा कहो।
इससे
मौसम में कोई
फर्क नहीं
आएगा
नामों
में बहुत मत
उलझो। नाम बड़ा
धोखा देते हैं।
नामों के कारण
हमने कई तरह
की तरकीबें
लगा ली हैं।
अच्छी आदत—कोई
उसके खिलाफ
नहीं; मैं हूं
उसके खिलाफ।
बुरी आदत—सब
उसके खिलाफ
हैं; मैं उसके
खिलाफ नहीं
हूं।
बुरी और
अच्छी की मेरी
परिभाषा
सिर्फ इतनी है
और सीधी साफ
है; आदतों से
इसका कोई
संबंध नहीं है, मालकियत
से संबंध है।
जो आदत
तुम्हारी
मालिक हो गई, जिसकी
कैद तुम्हारे
ऊपर ठहर गई, जो
तुम्हारे हाथ
में जंजीर बन
गई, वह सोने की
भी हो, हीरे—जवाहरात
भी जड़े हों, तो
भी बुरी।
जिसके तुम
मालिक हो, वह
आदत भली।
तुम्हारी
मालकियत
मापदंड है।
तुम्हारा
स्वामित्व, तुम्हारी
परम
स्वतंत्रता
एकमात्र
कसौटी है।
आज इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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