कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-09

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision(सरहा के गीत)-भाग-पहला


नौवां—प्रवचन—(अपने में थिर निष्कलंक मन)

दिनांक-29 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना)  

 सुत्र:

जब (शिशिर में) छेड़ता है निश्चल जल को समीर

बन हिम ग्रहण कर लेता है वह

आकृति और बनावट किसी चट्टान सी

जब होता मन व्यथित है व्याख्यात्म विचारों से

जो अभी तक था एक अनाकृत सौम्य सा

बन वही जाता है कितना ठोस और कठोर।

 

अपने में थिर निष्कलंक मन कभी नहीं होगा दूषित

संसार या निर्वाण की अपवित्रताओं से भी

कीचड़ में पड़ा एक कीमती रतन ज्यों

चमकेगा नही यद्यपि है उसमें कांति।

 

ज्ञान चमकता नहीं है अंधकार में,

पर अंधकार जब होता है प्रकाशित,

पीड़ा अदृश्य हो जाती है(तुरंत)

शाखाएं-प्रशाखएं उग आती है बीज से

पुष्प पल्वित होते नुतपात शाखाओं से।

 

जो कोई भी सोचता-विचारा है

मन को एक या अनेक, फेंक देता है

वह प्रकाश को और प्रवेश करता है संसार में

जो चलता है (प्रचण्ड) अग्नि मे खुुली आंख

तब किस और होगी करूण की आवश्यकता अधिक।

 

आह, अस्तित्व का सौंदर्य, इसका शुद्ध आनंद, उल्लास, गीत और नृत्य! पर हम तो यहां है नहीं। हम हैं ऐसा दिखाई तो पड़ता है पर हम लगभग हैं अस्तित्व-हीन-क्योंकि अस्तित्व के साथ संपर्क हमने खो दिया है। इसमे अपनी जड़ों को हमनें खो दिया है। हम उस वृक्ष की भांति है, जिसकी जड़ें उखड़ गई हों। अब जीवन सत्व उसमें नहीं बहता, उसका रस सूख गया है। अब उसमें फूल या फल लगेंगे नहीं। अब तो पक्षी भी हममें शरण लेने के लिए नहीं आते।

हम मुर्दा हैं। क्योंकि हम अभी तक पैदा ही नहीं हुए हैं। हमने भौतिक जन्म को ही अपना जन्म मान लिया है। वह हमारा जन्म नहीं है। हम अभी तक मात्र संभावनाएं हैं। हम वास्तविक अभी नहीं हुए हैं। इसीलिए यह संताप है। वास्तविक तो आनंदपूर्ण है, संभावना दुखद है। ऐसा क्यों है? क्योंकि विश्रांति में नहीं हो सकता। संभाव्य तो निरंतर बेचैन है—इसे बेचैन होना ही है। कोई चीज होने को है! वह अधर में लटकी है। यह विस्मृति में है।

यह एक बीज की भांति है—बीज कैसे निश्चल हो सकता है, कैसे विश्रांति में हो सकता है? निश्चलता और विश्रांति तो केवल फूलों के द्वारा जानी जा सकती है। बीज को तो गहन संताप में होना ही है, बीज को तो निरंतर कंपना ही है। कंपकपाहट यह है: क्या वह वास्तविक हो जाने में समर्थ हो सकेगा? अथवा क्या वह मर जाएगा बिना पैदा हुए ही? बीज भीतर कंपता रहता है। बीज को चिंता है, संताप है। बीज सो नहीं सकता; बीज अनिन्द्रा से पीड़ित रहता है।

संभाव्य महत्वाकांक्षी है; संभाव्य भविष्य की लालसा करता है। क्या तुमने अपने स्वयं के अस्तित्व में इसका अवलोकन नहीं किया है? कि तुम निरंतर किसी बात के घटने की लालसा करते रहते हो और यह घटती नहीं, कि तुम निरंतर उत्कंठा, आशा, इच्छा करते रहते हो, स्वप्न देखते रहते हो, और यह घटती नहीं! और जीवन गुजरता जाता है। जीवन तुम्हारे हाथों से फिसलता चला जाता है। और मृत्यु समीप आ जाती है और तुम अभी तक वास्तविक नहीं हुए होते। कौन जानता है? कौन पहले आएगा?—वास्तवीकरण, अनुभूति, स्फुटन, या हो सकता है मृत्यु? कौन जानता है? इसीलिए भय है, संताप है, कंपन है।

सोरेन किरेकगाड ने कहा है कि मनुष्य एक कंपन है। हां, मनुष्य एक कंपन है क्योंकि मनुष्य एक बीज है। फ्रैडरिक नीत्से ने कहा है कि मनुष्य एक सेतु है। एकदम सहीं! मनुष्य को कोई विश्रांत करने की जगह नहीं है। यह तो एक सेतु है जिसे पार किया जाना है। मनुष्य एक द्वार है जिसमें से होकर गुजरना है। तुम मनुष्य होने में विश्राम नहीं कर सकते हो। मनुष्य कोई प्राणी नहीं है: मनुष्य तो रास्ते का एक तीर है, दो शाश्वतताओं के बीच खिंची एक रस्सी है। मनुष्य एक तनाव है। सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही है जो चिंता से पीड़ित है। वह पृथ्वी पर एक मात्र पशु है। जो एक पीड़ित प्राणी है। इसका क्या कारण हो सकता है?

यह केवल मनुष्य ही है जिसका अस्तित्व एक संभावयता के रूप में होता है। एक कुत्ता वास्तविक है, उसे कुछ और नहीं होता है। एक भैंस वास्तविक है, वह कुछ अधिक नहीं हो सकती है। उसके साथ जो घटना था वह पहले से ही घट चुका है। जो कुछ भी हो सकता था, वह हो चुका है। तुम एक भैस से यह नहीं कह सकते की, तुम अभी तक भैंस नहीं हो।’—यह बड़ी ही मूढ़तापूर्ण होगा। पर एक आदमी से तुम यह कह सकते हो, ‘तुम अभी तक आदमी नहीं हए हो।एक आदमी से तुम यह कह सकते हो, ‘तुम अधुरे हो।तुम एक कुत्ते से यह नहीं कह सकते, ‘तुम अधूरे हो।यह कहना कितना भद्दा और मुढ़ता पूर्ण लगेगा। सब पशु-पक्षी पूर्ण है।

मनुष्य की एक संभावना है, एक भविष्य है। मनुष्य एक अंतराल है। इसीलिए निरंतर भय भी है: हम यह कर पाऐंगे अथवा नहीं? क्या इस बार हम सफल हो पाएंगे अथवा नहीं? पहले भी हम निरंतर बार चूके हैं? क्या हम इस बार भी चूक जाएंगे? यही कारण है कि हम आनंदित नहीं है। अस्तित्व तो उत्सव मनाता ही जाता है। वहां बड़े गीत है, वहां आनंद है, वहाँ बड़ा हर्षोन्माद है, सारा अस्तित्व सदा आनंद में है। यह एक कार्निवाल है। सारा अस्तित्व प्रत्येक क्षण एक परम आनंद में है। बस मनुष्य ही किसी तरह एक अजनबी बन गया है।

मनुष्य निर्दोषपन की भाषा ही भूल गया है। मनुष्य भूल गया है कि अस्तित्व से कैसे संबंधित हुआ जाए। मनुष्य शायद भूल गया है कि स्वयं से कैसे संबंधित हुआ जाए। मनुष्य भूल गया एक बात की स्वयं से संबंध होने का अर्थ है ध्यान। अस्तित्व से संबंधित होने का अर्थ है प्रार्थना। मनुष्य वह भाषा ही भूल गया हे। यही कारण है कि हम अजनबी से जान पड़ते हे। अपने घर में ही अजनबी। स्वयं से ही अजनबी। हम नहीं जानते कि हम कौन हैं, हम नहीं जानते कि हम क्या हैं, और शायद हम नहीं जानते कि हम क्यों यहां जिए चले जा रहे है। यह एक अनंत प्रतीक्षा जान पड़ती है...गोडोत की प्रतीक्षा।  

कोई नहीं जानता कि गोडोत को कभी आना है भी अथवा नहीं। सच में तो यह गोडोत है कौन, कोई यह भी नहीं जानता—पर आदमी को किसी न किसी की प्रतीक्षा तो करना ही होती है। इसलिए किसी विचार को रच ही लेता है और फिर उसी की प्रतीक्षा किए चला जाता है। ईश्वर वही विचार है। स्वर्ग भी वहीं एक विचार है। निर्वाण भी वही विचार है। आदमी को प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है। क्योंकि किसी न किसी तरह वह अपने अस्तित्व को भरना चाहता है, वरना तो वह बड़ा खालीपन महसूस करता है। प्रतीक्षा से एक प्रयोजन का, एक दिशा का भान होता है। तुम अच्छा महसूस कर सकते हो। कम से कम तुम प्रतीक्षा तो कर रहे हो। अभी तक यह घटा नहीं है। परंतु किसी न किसी दिन तो यह घटना ही है। यह क्या है जिसे कि घटना है?

हमने तो कभी सही प्रश्न ही नहीं उठाया है। सही उत्तर का तो कहना ही क्या? हमने तो सही प्रश्न क्यों नहीं पूछा कभी? और इसे याद रखना, एक बार सही प्रश्न पूछ लिया जाए, तो सही उत्तर बहुत दूर नहीं होता। यह बस कोने में ही है। सच तो यह है कि यह सही प्रश्न में ही छिपा है। यदि तुम सही प्रश्न पूछते ही जाओ, तुम उस प्रश्न पूछने में ही सही उत्तर को पा लेते हो।

इसलिए पहली बात जो मैं आज तुमसे कहना चाहूंगा वह यह है कि हम चूक रहे हैं, हम निरंतर चूक रहे हैं क्योंकि हमने अस्तित्व से संबंधित होने के लिए मन को ही भाषा के रूप में ले लिया है। और मन तरकीब है तुम्हें अस्तित्व से काट कर अलग कर देने की। यह तुम्हें बंद कर देने की विधि है, यह तुम्हें खुला रखने की विधि नहीं है। सोच-विचार ही तो बाधा है। विचार तो तुम्हारे चारों और चीन की दीवार की भांति हैं, और तुम विचारों में ही टटोलते रहते हो। तुम सचाई को स्पर्श न कर पाओगे। ऐसा नहीं है कि सचाई तुमसे बहुत दूर है। परमात्मा अति समीप ही है—बस ज्यादा से ज्यादा एक प्रार्थना भर की दूरी है।

परंतु यदि तुम सोचविचार, चिंतन-मनन, विश्लेषण, व्याख्याकरण, दर्शनीकारण जैसी कोई चीज कर रहे होते हो, तब तुम सच्चाई से कौसो दूर जा रहे होते हो। बहुत परे, परे और परे हटते ही जाते हो। क्योंकि जितने ही अधिक विचार तुम्हारे पास होते है उनके अंदर से देख पाना उतना ही अति कठिन होता है। वे एक बड़ा कुहासा खड़ा कर देते है। वे अंधापन पैदा कर देते हैं।

तंत्र के आधारों में से एक यह है कि सोच-विचार करने वाला मन चूकने वाला मन है, कि सोचना-विचारना सचाई से संबंधित होने की भाषा नहीं है। तब सचाई से संबंधित होने की भाषा क्या है? अ-विचार। सचाई के साथ शब्द अर्थहीन हैं। मौन अर्थपूर्ण है। मौन सारगर्भित है, शब्द तो बस मृत हैं। आदमी को मौन की भाषा सीखनी होती है।

और फिर कोई ठीक इस तरह की घटना घटती है: तुम अपनी मां के गर्भ में थे—तुम इस विषय में पूरी तरह से भूल चुके हो पर नौ महा तक तुम एक शब्द भी नहीं बोले थे...पर तुम साथ-साथ थे, गहन मौन में। तुम अपनी मां के साथ एक थे; तुम्हारे और तुम्हारी मां के बीच में कोई बाधा न थी। एक अलग प्राणी के रूप में तुम्हारा अस्तित्व न था। उस गहन मौन में तुम्हारी मां और तुम एक थे। वहां गहन एकांत था। पर एक मिलन न था, यह एकत्व था। तुम दो न थे, इसलिए यह एक मिलन न था—यह बस एकत्व था। तुम दो न थे।

जिस दिन तुम पुन: मौन हो जाते हो, वही घटना घटती है, फिर से तुम अस्तित्व के गर्भ में गिर जाते हो; फिर से तुम संबंधित होते हो—तुम एक बिलकुल ही नए ढंग से संबंधित हो जाते हो। ठीक-ठीक कहें तो बिलकुल नए ढंग से तो नहीं, क्योंकि अपनी मां के गर्भ में तो तुमने इसे जाना था, पर तुम इसे भूल गए हो। यही मेरा तात्पर्या है जब मैं कहता हूं कि आदमी संबंधित होने की भाषा भूल गया है। यही तो उसका ढंग है: जैसे कि अपनी मां के गर्भ में तुम उससे संबंधित थे—हर स्पंदन तुम्हारी मां को संप्रेषित हो जाता था, मां का हर स्पंदन तुम्हें संप्रेषित हो जाता था। वहां बस एक संगति थी; तुम और तुम्हारी मां के बीच कोई असंगति न थी। असंगति तो केवल तभी आती है जब विचार बीच में आ जाते है।

बिना विचार के तुम कैसे किसी को गलत समझ सकते हो? क्या तुम ऐसा कर सकते हो? क्या तुम मुझे गलत समझ सकते हो यदि तुम मेरे बारे में विचार न करो? तुम गलत समझ कैसे सकते हो? और तुम मुझे ठीक भी कैसे समझ सकते हो यदि तुम सोचते होओ? असंभव है। जिस क्षण तुम सोचते हो, तुमने व्याख्या करनी शुरू कर दी है। जिस क्षण तुम सोचते हो, तुम मेरी और देख नहीं रहे होते हो। तुम मुझसे बच रहे होते हो। तुम अपने विचारों के पीछे छिप जाते हो। तुम्हारे विचार आते है तुम्हारे अतीत से। मैं यहां मोजूद हूं। मैं एक वक्तव्य हूं यहां-अभी और तुम अपने अतीत को लेकर आते हो।

तुम अष्टपाद के विषय में जानना चाहिए। जब अष्टपाद छिपना चाहता है, यह अपने चारों तरफ काली स्याही छोड़ता है, काली स्याही का एक बादल। तब कोई अष्टपाद को नहीं देख सकता। यह अपने ही द्वारा निर्मित काली स्याही के बादल में खो जाता है, यह एक सुरक्षा का उपाय है। ठीक यही घटना घटती है जब तुम अपने चारों और विचारों का एक बादल छोड़ देते हो—तुम इसी में खो जाते हो। जब न तुम किसी से संबंधित हो सकते हो, न कोई तुमसे संबंधित हो सकता है। किसी मन के साथ संबंधित हो पाना असंभव है, तुम केवल एक चेतना के साथ संबंधित हो सकते हो।

चेतना का कोई अतीत नहीं होता। मन तो बस अतीत है और कुछ भी नहीं। इसलिए पहली बात जो तंत्र कहता है। वह यह है कि तुम्हें रति-आनंद की भाषा सीखनी होगी। पुन: जब तुम एक स्त्री से या पुरूष से संभोग करते होते हो तो क्या घटता है? कुछ क्षणों के लिए—यह बड़ा दुर्लभ है; यह दुर्लभ से दुर्लभतर होता जा रहा है। जैसे-जैसे आदमी सभ्य से सभ्यतर होता जा रहा है—पुन: कुछ क्षणों के लिए तुम मन में नहीं होते। एक झटके के साथ तुम मन से अलग हो जाते हो। एक छलांग में तुम मन से बाहर आ जाते हो। रति-आनंद के उन कुछ क्षणों के लिए जबकि तुम मन से बाहर होते हो, तुम पुन: संबंधित हो जाते हो। फिर से तुम गर्भ में वापस होते हो...अपनी स्त्री के गर्भ में, या अपने पुरूष के गर्भ में। तुम अब अलग नहीं होते। फिर से वहां एकत्व होता है—मिलन नहीं।

जब तुम एक स्त्री या पुरूष से संभोग करना शुरू करते हो, मिलन की शुरूआत होती है। पर जब रतिक्षण आता है। तब वहां मिलन नहीं होता—वहां एकत्व होता है; द्वैत खो जाता है। उस गहन, चोटी के अनुभव में क्या होता है?

तंत्र तुम्हें बार-बार याद दिलाता है कि उस चोटी के क्षण में जो घटता है वही वह भाषा है जिससे कि अस्तित्व से संबंधित हुआ जा सकता है। यह भाषा है रहस्यों की सहास की, यह भाषा है तुम्हारे होने की। इसलिए चाहे तो इस तरह से सोचो कि तुम अपनी मां के गर्भ में थे, अपना चाहे स्वयं को फिर से अपनी प्रेमिका के गर्भ में खो जाने की तरह से सोचो। और कुछ क्षणों के लिए मन बस काम नहीं करता।

अ-मन की ये कुछ झलके है तुम्हारी समाधि की, झलकें है सतोरी की, झलकें है परमात्मा की। उस भाषा को हम भूल गए हैं और वह भाषा फिर से सीखी जानी है। प्रेम वह भाषा है।

प्रेम की भाषा मौन है। दो प्रेमी जब सच ही में गहन लयवद्धता में होते हैं, जिसे कि कार्ल गुस्तक जुंग समक्रमिकता कहता है। जब उनके स्पंदन एक दूसरे मे बस समस्वर हो रहे होते हैं, जब वे दोनों एक ही तरंग दैर्घ्य मे तरंगित हो रहे होते हैं, तब वे मौन होते हैं, तब वे बातचीत करना पसंद नहीं करते। ये तो केवल पति-पत्नी ही है जो केवल बात-चीत किए चले जा रहे है। प्रेमी तो मौन हो जाते है।

सच तो यह है कि पति और पत्नी मौन नहीं रह सकते क्योंकि भाषा दूसरे से बचने की तरकीब है। यदि तुम दूसरे से बच नहीं रहे हो, यदि तुम बातचीत नहीं कर रहे हो यह (स्थिति) बड़ी असमंजस में डाल देने वाली होती है। यह दूसरे उपस्थिति है। पति और पत्नी तुरंत अपनी स्याही छोड़ने लग जाते हैं। कुछ भी बातचीत काम करेगी, पर वे अपने चारों और स्याही छोड़ने लगते हैं, उस बादल में वे खो जाते हैं, फिर कोई समस्या नहीं रह जाती।

 भाषा संबंधित होने की विधि नही है—अधिक या कम, यह (दूसरे से) बचने की विधि है। जब तुम गहन प्रेम में होते हो, तुम शायद अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़े रहो, पर तुम मौन होओगे...पूर्णत: मौन, एक लहर भी नहीं। तुम्हारी चेतना की उस लहरहीन झील में कोई चीज संप्रेषित हो जाती है, संदेश दे दिया गया होता है। यह एक शब्दहीन संदेश होता है।

तंत्र कहता है कि मनुष्य को सीखनी है भाषा प्रेम की, भाषा मौन की, भाषा एक दूसरे की उपस्थिति की, भाषा ह्रदय की भाषा अस्तित्व की।

हमने एक भाषा सीख ली है जो कि अस्तित्वगत नहीं है। हमने एक परदेशी की भाषा सीख ली है। उपयोग इसका निश्चिय होता है। निश्चय ही एक प्रयोजन विशेष की पूर्ति भी यह करती है, पर जहां तक चेतना के उच्च-अन्वेषण का संबंध है, यह एक बाधा है। नीचे के स्तर पर तो यह ठीक-ठाक है—हाट-बजार में तो निश्चय ही तुम्हें एक भाषा की आवश्यकता होती है। वहां तो मौन से काम नहीं चलेगा। पर जैसे-जैसे तुम गहरे में, और गहरे में उतरते हो, भाषा से काम न चलेगा। वहां भाषा होती ही नहीं।

अभी उस दिन ही मैं चक्रों की बात कर रहा था, मैं ने दो चक्रों की बात की: मूलाधार चक्र और स्वाधिस्थान चक्र की। मुलाधार का अर्थ होता है जड़े, आधार।ये काम का केंद्र है या तुम इसे जीवन-केंद्र, जन्म-केंद्र भी कह सकते हो। यह मूलाधार ही है जिससे कि तुम जन्म लेते हो। ये तुम्हारी मां का मूलाधार और तुम्हारे पिता का मूलधार ही हैं जिनसे कि तुमने अपना शरीर प्राप्त किया है। अगला चक्र है स्वाधिस्थान: इसका अर्थ होता है, स्व: का निवासस्थान—यह मृत्यु का चक्र होता है। यह बड़ा ही अदभुत नाम है: स्व: का निवासस्थान, स्वाधिस्थान—जहां तुम सच में रहते हो। मृत्यु में?...हां!

जब तुम मरते हो, तुम अपने विशुद्ध असतित्व पर आते हो—क्योंकि मरता केवल वही है जो तुम नहीं हो, शरीर मरता है, शरीर ही उत्पन्न होता है। मूलाधार से। जब तुम मरते हो, शरीर तो अदृश्य हो जाता है, पर तुम..न कुछ हो। क्योंकि मूलाधार ने जो कुछ दिया था वह स्वाधिस्थान द्वारा वापस ले लिया जाता है। तुम्हारी मां-पिता ने तुम्हें एक यंत्र विशेष दिया था, ये शरीर, वह मृत्यु ने तुमसे ले लिया। परंतु तुम...? तुम्हारा अस्तित्व तो जब तुम्हारे माता-पिता ने एक दूसरे को जाना था उससे भी पहले से था; तुम तो सदा ही रहे हो।

जीसस कहते हैं—कोई उनसे अब्राहम के बारे में पूछता है कि पैगाम्बर अब्राहम के बारे में वह क्या सोचते है। तब वह कहता हैं: अब्राहम? अब्राहम कभी था उससे पहले मैं हूं।

अब्राहम जीसस से लगभग दो हजारा, तीन हजार वर्ष पहले हुआ था। और वह कहते है: अब्राहम था उससे पहले में हूं।

वह क्या बात कह रहे थे? जहां तक शरीर को संबंध है, वह अब्राहम से पहले कैसे हो सकते हैं? वह शरीर के विषय में बात ही नही कर रहे। वह बात कर रहे है मैं—हूं—अपनेपन के विषय में, अपने शुद्ध, अस्तित्व के विषय में...।

यह नाम, स्वाधिस्थान, सुंदर नाम है। यह ठीक वहीं केंद्र है जिसे जापान मे हाराके नाम से जाना जाता है। इसलिए जापान में आत्महत्या को हाराकीरी कहते हैं—हारा केंद्र पर मर जाना या स्वयं को मार लेना। स्वाधिस्थान केवल उसी को ले लेता है जो मूलाधार द्वारा दिया गया होता है, लेकिन जो शश्वतता से आ रहा है होता है। तुम्हारी चैतन्य को नहीं लिया जा सकता। हिंदू चैतन्य के महान अन्वेषक रहे है। उन्होंने इसे स्वाधिस्थान कहा क्योंकि जब तुम मरते हो तब तुम जानते हो कि तुम कौन हो। प्रेम में मरो और तुम जान लोगे कि तुम कौन हो। ध्यान में मरो और तुम जान लोगे कि तुम कौन हो। अतीत के प्रति मर जाओ और तुम जान लोगे कि तुम कौन हो। मन के प्रति मर जाओ और तुम जान लोगे कि तुम कौन हो। मृत्यु उपाय है उसे जानने का।

प्राचीन काल में गुरू को मृत्यु कहा जाता था। क्योंकि तुम्हें गुरू से मरना होता है, शिष्य को गुरू में मरना होता है... केवल तभी वह जान पाता है कि वह कौन है।

इन दोनों केंद्रों को समाज ने बहुत जहरीला बना दिया है। यह दो केंद्र समाज को सरलता से उपलब्ध हो जाते है। इनके अतिरिक्त पांच और केंद्र भी हैं। तीसरा, मणिपुर, चौथा है अनाहत, पांचवा है-विशुद्ध, छटा है-आज्ञा चक्र, और सातवां हैं सह्त्रासार।

तीसरा केंद्र मणिपुर, तुम्हारे समस्त संवेगों, भावनाओं का केंद्र है। हम अपनी समस्त भवनाओं को मणिपुर में दमित किए जाते हैं। इसका अर्थ है मणि—जीवन मूल्यवान है संवेगों, भावनाओं, हास्य, रूदन, आंसु और मुस्कानों के कारण। जीवन मूल्यवान है इन्हें सब चीजों के कारण। ये सब जीवन के गौरव हैं—इसलिए इस चक्र को मणिपुर कहते है। मणिपुरचक्र।

केवल मनुष्य ही इस कीमती मणि को रख पाने मे समर्थ है। पशु हंस नहीं सकते, स्वभावत: वे रो भी नहीं सकते। आंसुओं का सौंदर्य, हंसी का सौंदर्य, ये केवल मनुष्य को उपलब्ध है। इस महान उपलब्धी को केवल मनुष्य ने ही प्राप्त किया है। इसका आनंद मनुष्य ही ले सकता है। बाकी के सभी पशु केवल दो चक्रों के साथ जीते है। मूलाधार और स्वाधिस्थान। वे पैदा होते हैं, और मर जाते है। इन दोनों के बीच अधिक कुछ नहीं होता। यदि तुम भी अगर पैदा हुए और मर गए तो तुम भी पशु ही हो...। तुम अभी मनुष्य नहीं हुए हो। और बहुत से, लाखों लोग बस इन्हीं दो चक्रों के साथ जीते है, वो कभी इनके पार नहीं जाते।

हमें भावनाओं का दमन करना सिखाया गया है। हमें भावुकता को दबाने के लिए कहा जाता है, भावुकता एक रोग है, तुम्हें भावुक नहीं होना है। हमें सिखाया गया है कि भावुकता से कुछ लाभ नहीं है—व्यवाहारिक बनो, कठोर बनो, कोमल मत बनो, मेद्य मत बनो वर्ना तुम्हारा शोषण कर लिया जाएगा। कठोर होओ! कम से कम दिखाओ तो यही कि तुम बहुत कठोर हो, कम से कम दिखावा तो यही करो कि तुम बहुत खतरनाक हो। कि तुम कोई कोमल प्राणी नहीं हो। अपने चारो और एक भय का माहोल पैदा करो। हंसो मत, क्योंकि यदि तुम हंसोगे, तुम अपने चारों तरफ भैया पैदा नहीं कर सकोगे। रोओ मत—यदि तुम रोते हो तो तुम दर्शते हो कि तुम स्वयं ही भयभीत हो। अपनी मानवीय सीमाएं दिखाओं मत। ऐसा दिखाव करो कि तुम पूर्ण हो।

तीसरे केंद्र का दमन करो और तुम सिपाही बन जाते हो, इंसान नहीं बल्कि सिपाही—एक फौजी की तरह, एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह। एक मशीन, निर्मित कर दी जाती है तुम्हारे चारो और।

तंत्र ने इस तीसरे केंद्र को विश्रांत करने के लिए बहुत सा कार्य किया है। भावनाओं को मुक्त करना है, विश्रांत करना है। जब तुम्हें रोने जैसा लगे, तुम्हें रोना है; जब तुम्हें हंसने जैसा लगे तुम्हें हंसना है। दमन की इस बकवास को तुम्हें छोड़ना होगा, तुम्हें अभिव्यक्ति सीखनी है—क्योंकि अपने संवेगों के द्वारा ही, अपनी भावनाओं के द्वारा ही, अपनी संवेदन शीलता के द्वारा ही तुम उस स्पंदन तक पहुंचते हो जिसके द्वारा संप्रेषण संभव है।

क्या तुमने देखा है? तुम जितना चाहे कह दो और कुछ कहा नहीं जाता; पर एक आंसू तुम्हारे गाल पर लुड़क आता है और सब कुछ कह दिया जाता है। एक आंसू बहुत ही किमती है। कहने के लिए। तुम घंटो बात करते रहेा और उससे काम नहीं चलता, और एक आंसू सब कुछ कह देता है। तुम कहते रह सकते हो, ‘मैं बहुत आनंदित हूं, यह और वह...पर तुम्हारा चेहरा बिलकुल विपरीत ही प्रदर्शित करेगा। थोड़ी सी हंसी एक सच्ची, प्रामाणिकता बिखेर देती है। एक प्रामाणिक हंसी, और तुम कुछ कहतने की आवश्यकता नहीं रह जाती—हंसी सब कुछ कह देती है।जब तुम अपने मित्र को देखते हो तुम्हारा चेहरा चमक उठता है, आनंद से दमकने लगता है।

तीसरे केंद्र को अधिक, और अधिक उपलब्ध किया जाना है। यह विचार को विरोधी है, इसलिए जब तुम तीसरे केंद्र को अनुमति दोगे, तुम अपने तनावग्रस्त मन में अधिक सरलता से विश्रांत हो सकोगे। प्रामाणिक होओ, संवदनशील होओ, अधिक स्पर्श करो, अधिक महसूस करो, अधिक हंसो, अधिक रोओ। और समरण रखना, तुम जितना आवश्यक है उससे अधिक कर भी नहीं सकते; तुम अतिश्योक्ति कर ही नहीं सकते। तुम जितना आवश्यक हो उससे एक आंसू भी अधिक ला नहीं सकते हो, और जितना आवश्यक हो उससे अधिक तुम हंस भी नहीं सकते हो। इस लिए न तो तुम भयभीत ही हाओ और न ही कंजूसी करो।

तंत्र जीवन को इसके समस्त संवेगों की अनुमति देता है। ये तीन निचले केंद्र हैं—निचले, किसी मूल्यांकन के अर्थ में नहीं कह रहा हूं, ये तीन नीचे वाले केंद्र हैं, सीड़ी के नीचे वाले तीन डण्डे।

फिर आता है चौथा केंद्र, हृदय केंद्र, जो अनाहत कहलाता है। यह शब्द बहुत सूंदर है। अनाहतका अर्थ है बिना आहत की घ्वनि-इसका ठीक वहीं अर्थ है जो कि झेन लोगों का अर्थ सुनते है?’—बिना आहत की ध्वनि हृदय ठीक बीचों-बीच है: तीन केंद्र इसके नीचे और तीन केंद्र इसके ऊपर। और हृदय निम्न से उच्च का या उच्च से निम्न का द्वार है। हृदय एक चौराहे की भांति है।

और हृदय को पूरी तरह से छोड़ ही दिया गया है। तुम हृदय पूर्ण होना सिखाया ही नहीं गया है। तुम हृदय के क्षेत्र में जाने तक की अनुमति नहीं दी गई है। क्योंकि यह बहुत खतरनाक है। यह केंद्र है ध्वनि रहित ध्वनि का; यह गैर-भाषीय केंद्र है—अनाहत ध्वनि। भाषा आहत ध्वनि हे; हमें इसे अपने स्वर-तंतुओं से निर्मित करनी होती है; यह आहत (ध्वनि) है—यह दो हाथों की ताली हैं। हृदय एक हाथ की ताली है। हृदय में कोई शब्द नहीं है। यह नि:शब्द है।

हम हृदय से पूरी तरह से बचे हैं, हम इसे छोड़कर ही गुजर गऐ है। हम अपने होने में इस भांति गति करते हैं मानों कि हृदय हो ही नहीं—अथवा, अधिक से अधिक मानों कि यह बस एक श्वासन यंत्र हो, बस इतना ही। ऐसा पर है नहीं। फेफड़े हृदय नहीं है। हृदय तो फेफड़ों के पीछे गहराई में कहीं छिपा होता है। और न ही यह भौतिक है। यह तो वह जगह है जहां से प्रेम उठता है। यही कारण है कि प्रेम भावनात्मक नहीं है। भावनात्मक प्रेम तो तीसरे केंद्र से संबंधित होता है, चौथा से नहीं।

प्रेम केवल भावनात्मकत ही नहीं है। प्रेम में भावनाओं से अधिक गहराई है, प्रेम में भावनाओं से अधिक प्रामाणिकता है। भावनाएं तो क्षणिक होती हैं। अधिक या कम, प्रेम का संवेग ही प्रेम के अनुभव की तरह से गलत समझ लिया गया है। एक दिन तुम किसी स्त्री या किसी पुरूष के प्रेम में पड़ते हो और अगले दिन यह चला गया होता है—और तुम इसे ही प्रेम देते हो। यह प्रेम नहीं है। यह एक संवेग है: तुमने स्त्री को पसंद किया—पसंद किया, याद रखो, प्रेम किया नहीं—यह एक पसंद थी। ठीक ऐसे ही जैसे तुम आईसक्रीम को पसंद कर लेते हो। पसंद तो आती है जाती है। पसंद क्षणिक होती है, वे देर तक नहीं ठहर सकती; उसमें देर तक ठहर सकने का साम्थर्य नहीं होता। तुम एक स्त्री को पसंद करते हो, तुमने उसे प्रेम किया, और बात खत्म! पसंद खत्म हो गई। यह ठीक ऐसे ही है जैसे तुमने आईसक्रीम को पसंद किया और उसे खा लिया। अब तुम आईसक्रीम की और देखते तक नहीं। और यदि कोई तुम्हें और अधिक आईसक्रीम दिए चला जाए तो, तुम कहोगे, ‘अब यह वमन पैदा करने वाली है। जरा रूको, अब मैं और नहीं खा सकता हूं।

पसंद प्रेम नहीं है। पसंद को प्रेम समझने की भूल मत करना, वरना अपना सारा जीवन तुम एक पानी पर बहती लकड़ी रहोगे... एक व्यक्ति से तुम दूसरे तक जाते रहोगे। न कभी गहराई और न ही कभी घनिष्टता को तुम महसूस कर सकोगे।

चौथा केंद्र, अनाहत बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हृदय में ही है जब कि तुम पहली बार अपनी मां से संबंधित हुए थे। यह हृदय ही था। सिर नहीं, जिसके द्वारा तुम अपनी मां से जुड़े थे। गहन प्रेम में, गहन रति-आनंद में तुम फिर से हृदय से संबंधित होते हो, सिर से नहीं।

ध्यान में, प्रार्थना में, भी तुम इसी घटना को घटते हुए पाते हो। तुम अस्तित्व से हृदय के द्वारा जुड़ते हो—हृदय से हृदय का संबंध। हां यह एक वार्तालाप है हृदय से हृदय की। सिर से सिर की नहीं। यह गैर-भाषीए है। अ-शब्द है।

और हृदय केंद्र ही वह केंद्र है जहां से ध्वनि-रहित ध्वनि उत्पन्न होती है। यदि तुम हृदय केंद्र में विश्रांत हो जाओ, तुम ओंकार, औम की ध्वनि सुनोगें। यह एक महान खोज है। जिन लोगों ने भी हृदय में प्रवेश किया है। वे अपने हृदय में निरंतर एक धुन सुनते हैं जो कि ओम जैसी सुनाई देती है। कभी तुमने एक धुन जैसी कोई चीज सुनी है जो स्वत: ही होती रहती हो—ऐसा नहीं कि तुम उसे कहते हो। या उसे करते हो।

यही कारण है कि मैं मंत्रों के पक्ष में नहीं हूं। तुम ओम..ओम..ओम की धुन लगातार गा सकते हो, तब एक कंपन गुंजयमा होता है, एक प्रकार गुंजन...वह ओम की ध्वनि नहीं है। तुम हृदय का एक मानसिक परिपूरक निर्मित कर सकते हो। परंतु याद रखो इससे तुम्हें सहायता नहीं मिलेगी। यह एक प्रकार का धोख ही होगा। और तुम वर्षों तक यह धुन दोहराए जा सकते हो, और तुम अपने भीतर एक झूटी ध्वनि निर्मित कर ले सकते हो जिैसे कि तुम्हारा हृदय बोल रहा हो—यह बोल रहा नहीं होता। हृदय के अनाहत नाद को जानने के लिए तुम्हें ओम का जाप नहीं करना होता—तुम्हें बस मौन होना होता है। एक दिन, अचानक, मंत्र वहां होता है। एक दिन जब तुम मौन होते हो, अचानक तुम सुनते हो कि वह ध्वनि आ रही है किसी स्थान से नहीं। यह तुम में से उठ रही है। तुम्हारे अंतरतम केंद्र से उठ रही हे। यह तुम्हारे आंतरिक मौन की ध्वनि होती है। जैसे कि एक मौन रात्रि में, एक विशिष्ठ ध्वनि होती है। मौन की ध्वनि ठीक वैसे ही एक गहरे, बहुत गहरे स्तर पर तुम्हारे भीतर भी एक ध्वनि उठती है।

यह स्वत: उठती है—मुझे इस बात को तुम्हें बार-बार स्मरण कराने दो—ऐसा नहीं है कि तुम इसे भीतर लाते हो, ऐसा नहीं है कि तुम ओम-ओम दोहराते हो। न, तुम एक शब्द भी नहीं कहते। तुम बस चुप होते हो। तुम बस मौन होते हो। और यह एक झरने की भांति फूट पड़ता है...अचानक यह प्रवाहित होना प्रारंभ हो जाती है। यह वहां होती है। तुम केवल इसे सुनते हो-बोलते नहीं। ये अंतरतम की ध्वनि है, शाश्वत की ध्वनि है केंद्र की ध्वनि है।

यह अर्थ है जब मुसलमान कहते है कि मौहम्मद ने कुरान सुनी—उसका यही अर्थ है। यह ठीक वही घटना है जो तुम्हारे हृदय के अंतरम केंद्र पर घटती है। ऐसा नहीं है तुम इसे दोहरा रहे होते हो। मौहम्मद ने कुरान को सुना—उन्होंने इसे अपने भीतर घटते सुना। वह सच में हैरान रह गए थे। ऐसा कोई चीज उन्होंने इससे पहले नहीं सुनी थी। यह इतनी अजनबी, अनजानी थी, यह इतनी अपरिचित थी। कथा कहती है कि वह बीमार हो गए। यह इतनी विलक्षण घटना थी। जब एक दिन, अपने कमरे में बैठ-बैठे, अचानक अपने भीतर तुम ओम-ओम या कुछ और सुनने लग जाओ, तुम भी महसूस करने लगोगे, ‘क्या में पागल तो नहीं हो गया हूं?’ वहीं कहीं से बहकर आ रही होती है, तुम इसे दोहरा नहीं होते, तुम्हारे होट इसे बुदबुदा नहीं होते...कोई इस कर नहीं रहा होता। क्या तुम पागल हो रहे हो?

मोहम्मद एक पहाड़ी की चोटी पर बैठे हुए थे जब उन्होंने इसे सुना। वह घर वापस आए, कंपकंपाते हुए, पसीने-पसीने होते हुए, उन्हें तेज बुखार भी हो गया था। वह सच में ही परेशान हो गए थे। ये अनुभव होता ही इतना सजीव है। उन्होंने अपनी पत्नी को कहा, ‘सारे कंबल ले आओ और मेरे उपर डाल दो! मुझे न जाने क्या हो गया है, ऐसी कंपकपाहट पहले कभी नहीं हुई, मुझे बुखार भी चढ़ गया है। तब उनकी पत्नी ने उन्हें देखा की उनका चेहरा एक आभा से दमक रहा था। यह किस तरह का बुखार है? उनकी आंखें एक अप्रतितम सौंदर्य से लवरेज थी। उनके आस पास एक प्रसाद झर रहा था।पूरा घर एक आलोकिक सूंगध से भर गया था। एक आभा हर और छाई थी। एक महान मौन सार घर में फैला हुआ था। उनकी पत्नी बहुत समझदार ओैर संवेदनशील थी। वह भी उसे महसूस करने लगी। उसे भी वह सुनाई देने लगा। उसने मोहम्मद सहीब को कहा: मैं नहीं सोचती की यह एक साधारण बुखार है, मैं तो समझती हूं कि परमात्मा ही उतर आया है आप में, उनका आशीर्वाद झर रहा है आपके आस-पास, मैं उसे सघनता से महसूस कर रही हूं, यह अति शुभ है, आप डरो मत। ये अति शुभ है। हुआ क्या है तुम्हें मुझे बताओ?’

मोहम्मद सहीब की पत्नी पहली मुसलमान थी। खादिजा उसका नाम था। वह पहली धर्मान्तरित व्यक्ति थी। उसने कहां की मैं देख सकती हूं परमात्मा तुम में घट रहा है। कुछ तुम से बह रहा है, तुम्हारा हृदय एक विशाल झरना बन गया है। तुम कांतिमय हो गए हो। ऐसा रूप तुम्हारा पहले मैंने कभी नहीं देखा। ये कोई साधारण घटना नहीं है। तुम चिंता मत करो मुझे बताओ...तुम जरा भी चिंतित मत हो। क्यों तुम इतने कांप रहे हो। कुछ तुम में घट रहा है वह अति शुभ है। उसे उतरने दो। डरो मत।

तब कहते है मोहम्मद न उन्हें सारी बात बतलाई, बहुत ही डरते-डरते हुए। वह डर रहे थे कि वह क्या सोचेगी, पर वह तो धर्मान्तरित हो गई—वह पहली मुसलमान थी।

ऐसा ही सदा हुआ है। हिंदु कहते है कि वेदों के वचन स्वयं ईश्वर द्वारा उतरे है। इसका सीधा आवहन हुआ है। वह बस सुने गये है। भारत में पवित्र ग्रंथो के लिए हमारे पास एक शब्द है, वह शब्द है, श्रुति--श्रुति का अर्थ है वह जो कि सुना गया हो।

हृदय के इस केंद्र पर, अनाहत चक्र पर, तुम सुनते हो। पर तुमने तो अपने भीतर कुछ सुना ही नहीं है—न कोई ध्वनि, न ओंकार, न मंत्र ही। इसका सरल सा अर्थ बस यह है कि तुम हृदय से बच गए हो। झरना है और बहते हुए जल की ध्वनि भी है—पर तुम इससे बच गए हो। तुम इससे बच कर गुजर गए हो, तुमने कोई दूसरा रास्ता चुन लिया है। तुम किसी लधु-मार्ग से चले गए हो। यह लधु मार्ग चौथे केंद्र को बचाता हुआ तीसरे केंद्र से गुजरता है। चौथा सबसे जयादा खतरनाक केन्द्र है। क्योंकि यही वह केन्द्र है जिससे कि भरोसा पैदा होता है, श्रृध्या पैदा होती है। और मन को इससे बचना है। यदि मन इससे नहीं बचेगा, तब संदेह की संभावना न रहेगी। मन जीता है संदेह से।

यह चौथा केन्द्र है। और तंत्र कहता है कि प्रेम के द्वारा तुम इस चौथे केन्द्र को जान सकोगे।

पाँचवाँ केन्द्र विशुद्धिकहलता है। विशुद्धि का अर्थ है पवित्रता। निश्चय ही, प्रेम जब घट गया होता है उसके उपरांत ही पवित्रता और निर्दोषता घटती है—उससे पहले कभी नहीं। केवल प्रेम ही शुद्ध करता है, और केवल प्रेम—और कोई चीज शुद्ध नहीं करती। कुरूपतम व्यक्ति भी प्रेम में सुंदर बन जाता है। प्रेम अमृत है। यह सभी विषो का साफ कर देता है। इसलिए पाँचवाँ चक्र विशुद्धि कहलाता है। विशुद्धि का अर्थ शुद्धि पूर्ण शुद्धि। यह कंठ केंद्र है।

और तंत्र कहता है: केवल तभी बोलो जब तुम चौथे केन्द्र से होते हुए पांचवे केन्द्र तक पहुंच गए हो—केवल प्रेम से बोलो अन्यथा बोलो ही मत। केवल करूणा से बोला अन्यथा बोला ही मत। बोलने का अर्थ क्या है? यदि तुम हृदय चक्र से होकर आए हो, और यदि तुमने ईश्वर को वहां बोलते सुना है या ईश्वर को एक झरने के समान वहां दौडते सुना है, यदि तुमने ईश्वर की घ्वनि को सुना है, एक हाथ की ताली को सुना है, तब ही तुम्हें अनुमति है बोलने की, तब तुम्हारा कंठ केन्द्र संदेश को प्रेषित कर सकता है। तब तो शब्दों में भी कोई चीज उडेली जा सकती है। जब तुम्हारे पास यह हो, तो इसे शब्दों में उडेला जा सकता है।

बहुत थोड़े से लोग ही पांचवे केन्द्र पर पहुंचते है, बहुत ही थोड़े—क्योंकि वे चौथे तक ही नहीं पहुंच पाते, तो पांचवे तक तो वे कैसे पहुंच सकते है। यह बड़ी दुलर्भ बात है। कभी कोई क्राइस्ट, कोई बुद्ध, कोई सरहा जैसे लोग ही पांचवे पर पहुंचते है। उनके शब्दों का सौन्दर्य तक महान है—उनके मौन का तो कहना ही क्या? उनके शब्दों तक मैं मौन समाया होता है। वे बोलते हैं और फिर भी वे बोलते नहीं है। वह कहते हैं और वे उसे भी कह देते हैं जिसे कि कहा नहीं जा सकता, जो कि अनिर्वचनीय है, अनाभिव्यक्त है।

तुम भी कंठ का उपयोग तो करते ही हो पर वह विशुद्धि वहां नहीं है। वह चक्र तो पूरी तरह से मृत ही है। जब वह चक्र प्रारंभ होता है, तुम्हारे शब्दों में मधु होता है। तब तुम्हारे शब्दों में एक सुंगध होती है। तब तुम्हारे शब्दों में एक संगीत होता है। एक नृत्य होता है, तब जो भी कुछ तुम कहते हो वह एक काव्य बन जाता है। जो कुछ भी तुम उच्चारित करते हो, वह आनंद का मंत्र बन जाता है।

और छटा चक्र है आज्ञा चक्र, आज्ञा का अर्थ है व्यवस्था। छट्ठे चक्र के साथ ही तुम व्यवस्थित होते हो, उससे पहले कभी नहीं। छट्ठे चक्र के साथ ही तुम मालिक होते हो, उससे पहले कभी नहीं। उससे पहले तो तुम एक गुलाम थे। छट्ठे चक्र के साथ, जो कुछ भी तुम कहोगे वही हो जाएगा। जो भी तुम्हारी इच्छा होगी, पूरी हो जाएगी। छट्ठे चक्र के साथ ही तुम्हारे पास संकल्प होता है। और इसमें जीवन है उससे पहले कभी नहीं। उससे पहले संकल्प होता ही नहीं। पर इसमें एक असंगति है।  

चौथे चक्र में अहंकार विलीन हो जाता है। पांचवे चक्र में सब अशुद्धियां विलीन हो जाती है। और तब तुम्हारे पास संकल्प होता है—अंत: इस संकल्प से तुम किसी को हानि नहीं पहुंचा सकते। सच तो यह है कि अब यह तुम्हारा संकल्प है ही नहीं; यह परमात्मा का ही संकल्प बन जाता है। क्योंकि अहंकार विलीन हो गया है। चौथे चक्र पर जाकर सब अशुद्धियां विलीन हो जाती है। पांचवे पर अब तुम एक शुद्धत्म अस्तित्व हो। बस एक वाहन हो, एक उपकरण हो, एक संदेशवाहक हो। अब तुम्हारे पास संकल्प है क्योंकि तुम हो ही नहीं। अब केवल परमात्मा की इच्छा ही तुम्हारी इच्छा बन जाती है।

बहुत ही कभी कोई व्यक्ति इस छट्ठे चक्र तक पहुंचते हैं। क्योंकि, एक तरह से तो यह, अंतिम ही है। संसार में तो यह आखिरी है। इसके बाद सातवां चक्र भी है पर तब तो तुम एक पूर्णत: भिन्न जगत में, एक अलग ही सच्चाई में प्रवेश कर जाते हो। छट्ठा अंतिम सीमा रेखा है, सीमा चौकी है।

सातवां है सहस्त्रार का अर्थ है एक हजार पंखुडियों-वाला कमल का फूल। जब तुम्हारी ऊर्जा सातवें पर पहुंचती है। तुम एक कमल हो जाते हो। अब तुम्हें मधु के लिए किसी दूसरे कमल पर जाने की आवश्यकता नहीं होती—अब तुम खुद मधु से लवरेज होते हो। अब दूसरी मधुमक्खियां तुम्हारे पास आने लग जाती है। अब तुम सारी पृथ्वी से मधुमक्खियों को आकर्षित करने लगते हो बल्कि कभी-कभी तो दूसरे ग्रहों से मधुमक्खियां तुम्हारे पास आने लग जाती है। तुम्हारा सहस्त्रार खूल गया है। तुम्हारा कमल पूरी खिलावट में है। यह कमल निर्वाण है।

सबसे निचला (चक्र) है मूलाधार। सबसे से जीवन पैदा होता है—देह और इंदियों वाला जीवन। सातवें से भी जीवन पैदा होता है—शाश्वत जीवन, देह का नहीं, इन्दियों का नहीं। यह तंत्र का शरीर-शास्त्र है। यह चिकित्सा की किताबों का शरीर शास्त्र नहीं है। कृपा करके चिकित्साशास्त्रों में इसे मत खोजना—यह वहां नहीं मिलेगा। यह तो एक रूपक है—बोलने का एक ढंग है। यह तो एक नक्शा है चीजों को समझने योग्य बनाने का। यदि तुम इस रास्ते पर चलो, तुम विचारों के बादलों में कभी नहीं धिरोगे। यदि तुम चौथे चक्र से बचते हो, तब तुम सिर में चले जाते हो। अब सिर में होने का अर्थ है प्रेम में न होतना, विचारों में होना, अब श्रद्धा तुम से चूक गई है। वह मार्ग भिन्न आयाम में चला गया है। तुम उससे बंचित हो गए हो। सोचते रहने का अर्थ है न देखना। विचार एक बादल बन गए है।

अब हम सूत्रों में प्रवेश करेंगे:

 

जब (शिशिर में) छेड़ता है निश्चल जल को समीर

बन हिम ग्रहण कर लेता है वह

आकृति और बनावट किसी चट्टान सी

जब होता मन व्यथित है व्याख्यात्म विचारों से

जो अभी तक था एक अनाकृत सौम्य सा

बन वही जाता है कितना ठोस और कठोर.....

सरहा कहता है शिशिर हे शिशिर में—हर शब्द को सुनो, ध्यान में डूबों तभी तुम उतर सकोगे सरहा के शब्दों में गहरे...

शिशिर में छेड़ता है निश्चल जल को समीर

बन कर हिम ग्रहण कर लेता है यह

आकृति और बनावट चट्टान की...

एक निश्चल झील बिना किन्हीं लहरों के एक रूपक है चेतना के लिए—एक स्थिर झील बिना तरंगों के, बिना लहरों के, न कोई हचचल होती है, न हवा ही वहां बहती है—यह एक रूपक है, चेतना के लिए—एक स्थिर झील बिना तरंगों के, बिना लहरों के, न कोई हलचल होती है, न हवा बहती है—यह एक लक्षण है, चेतना के लिए। झील द्रव है, बहती हुई है, मौन है, यह कठोर नहीं है, यह चट्टान जैसी नहीं है। यह गुलाब के फूलों जैसी कोमल है, भेद्य है। यह किसी भी दिशा में प्रवाहित हो सकती है यह रूकी हुई नहीं है। इसमें प्रवाह है। और इसमें जीवन है और इसमें गत्यात्मकता है, लेकिन व्यग्रता किसी चीज में नहीं है—झील निश्चल है, शांत है। यह दशा है चेतना की।

शिशिरका अर्थ है जब आकांक्षाएं उठ खड़ी हो गई हों। उन्हें शिशिर क्यों कहना? जब इच्छाएं उठती हैं, तुम एक शीतल रेगिस्तान में होते हो, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं होती। इच्छाएं तो रेगिस्तान हैं। वे तुम्हें धोखा देती हैं, उनमें कोई तृप्ति नहीं होती। वे कभी किसी फल को प्राप्त नहीं होती—यह एक रेगिस्तान है, और बहुत शीतल, मौत की भांति शीतल इच्छाओं में कोई जीवन नहीं बहता। इच्छाएं जीवन में बाधा पहुंचाती है, वे जीवन को सहायता नहीं पहंचाती।

इसलिए सराह कहता है: जब शिशिर में जब आकांक्षएं तुममें उत्पन्न हो गई हों, वही शिशिर का मौसम है...छेड़ता है निश्चल जल को समीर और विचार आते हैं, हजरों विचार हर तरफ से आते हैं, यह संकेत है हवा का। हवाएं आ रही होती हैं, तुफानी हवाएं आ रही होती हैं। तुम आकांक्षा की एक अवस्था में होते हो, लालसा से भरे, महत्वकांक्षी, कुछ बनने को आतुर, और विचार उठते होते है।

 सच तो यह है, आकांक्षएं ही विचारों को आमंत्रित करती हैं। जब तक कि तुम आकांक्षा न करो, विचार आ नहीं सकते। एक आकांक्षा को जरा प्रारंभ तो करो और तुरंत तुम पाओगे कि विचार आने प्रारंभ हो गए। अभी एक क्षण पहले, एक भी विचार न था। और फिर एक कार समीप से गुजरती है और एक आकांक्षा उठ आती है; तुम्होरे पास भी ऐसी ही कार होनी चाहिए। अब हजार विचार, तुरंत वहां आ जाते हैं। आकांक्षा विचारों को आमन्त्रित करती है। इसलिए जब कभी भी कोई आकांक्षा होगी, विचार हर दिशा से आऐंगे ही, चेतना की झील पर हवाएं चलने लगेंगी। और आकांक्षा होती है शीतल, और विचार झील को मथता रहता है।

बन हिम ग्रहण कर लेता है वह

आकृति और बनावट किसी चट्टान सी.....

...तब झील जमना शुरू हो जाती है। यह ठोस, चट्टान सद्दश होने लग जाती है। यह तरलता खो देती है। यह जम जाती है। यही तो वह बात है जिसे तंत्र में मन कहते हैं। इसके ऊपर ध्यान करो। मन और चेतना दो चीजें नहीं हैं। बल्कि दो अवस्थाएं हैं। एक ही घटना के दो पहलू हैं। चेतना तरल है, प्रवाहमान है; मन चट्टान जैसा है, बर्फ की तरह। चेतना जल की भांति है। चेतना जल जैसी है, मन हिम जैसा है—यह वही चीज है। वही जल बर्फ बन जाता है और बर्फ को फिर से पिघलाया जा सकता है। जा सकता है। और यह फिर से जल बन जाएगी।

और तीसरी अवस्था है जब जल वाष्पीकृत हो जाता है,वह अदृश्य हो जाता है, विलीन हो जाता है—यह निर्वाण है, समाप्त हो जाना है। अब तुम इसे देख भी नहीं सकते हो। जल तरल है पर इसे तुम देख सकते हो; जब यह वाष्प बन जाता है, यह अदृश्य हो जाता है। यह तीन अवस्थाएं हैं जल की, और मन की भी यही तीन अवस्थाएं हैं। मन का अर्थ बर्फ, चेतना का अर्थ है तरल जल, और निर्वाण का अर्थ है वाष्प बन जाना।

जब भ्रमित होते व्यथित हैं व्याख्यात्म विचारों से

जो अभी तक था अनाकृत

जो वही जाता है कितना ठोस और कठोर....

झील अनाकृत है। तुम जल को किसी भी पात्र में डाल ले सकते हो, यह उसी की आकृति ग्रहण कर लेगा। पर बर्फ को तुम किसी भी पात्र में नहीं डाल ले सकते हो। यह प्रतिरोध करेगी, यह लड़ेग।

दो तरह के लोग मेरे पास आते है: एक वह जो जल की भांति होते है। उसका समर्पण सरल होता है। बहुत निर्दोष, एक बच्चे की भांति; वह प्रतिरोध नहीं करता। कार्य तुरंत शुरू हो जाता है। समय बर्बाद करने की आवश्यकता नहीं होती। फिर कोई आता है बड़े प्रतिरोध के साथ, बड़े भय के साथ; वह स्वयं को सुरक्षित कर रहा होता है, स्वयं को कवच पहना रहा होता है। तब वह हम की भांति होता है। उसे तरलता दे पाना बहुत कठिन होता है। उसे तरल बनाने के सारे प्रयासों से वह लड़ता रहता है। वह डरता है कि कहीं वह अपनी पहचान खो न दे। वह ठोस-पन ही तो उसकी पहचान है, वह तो खोएगा-यह तो सच ही है। परंतु पहचान नहीं। हां वह उस पहचान को तो खोएगा ही जो कि ठोस-पन ला रहा होता है, पर वह ठोसपन सिवाय संताप के और क्या ला रहा है।

जब तुम ठोस होते हो, तुम एक मृत चट्टान की भांति होते हो। न तुममें कुछ पुष्पित हो सकता है, न तुम प्रवाहित हो सकते हो। जब तुम प्रवाहित हो रहे होते हो, तुममें रस होता है। जब तुम प्रवाहित हो रहे होते हो तुम्हारे पास ऊर्जा होती है। जब तुम प्रवाहित हो रहे होते हो, तुम्हारे पास एक गत्यात्मकता होती है। जब तुम प्रवाहित हो रहे होते हो, तुम सृजनशील होते हो। जब तुम प्रवाहित हो रहे होते हो, तुम परमात्मा के अंग होते हो। जब तुम जम गए होते हो, तुम फिर इस महान प्रवाह के अंग नहीं रहे होते। तुम इस महासागर के हिस्से नहीं रहे होते, तुम अब कट चूके होते हो। तुम एक छोटा सा द्वीव हो गए होते हो, जमा हुआ मृत।

जब होता मन व्यथित है व्याख्यात्म विचारों से

जो अभी तक था एक अनाकृत सौम्य सा

बन वही जाता है कितना ठोस और कठोर....

ध्यान रखो। इस अनाकृति की गैर-ढांचेपनिए अवस्था में अधिक से अधिक रहो। बिना चरित्र के रहो—यही तो तंत्र कहता है। यह बात समझनी भी अत्यंत कठिन है, क्योंकि सदियों से हमें चरित्रवान होना ही तो सिखाया गया है। चरित्र का अर्थ है एक अशिथिल ढांचा रखना। चरित्र का अर्थ है अतीत; चरित्र का अर्थ है एक विशिष्ट वाधित अनुशासन। चरित्र का अर्थ है अब तुम स्वतंत्र नहीं हो—तुम बस विशिष्ट नियमों का पालन भर करते हो, तुम उन नियमों के पार कभी नहीं जाते। तुममें एक ठोस-पन होता है। चरित्र वान व्यक्ति एक ठोस व्यक्ति होता है। तंत्र कहता है: चरित्र छोड़ो, तरह बनो, अधिक प्रवाहमान बनो, क्षण-क्षण जिओ। इसका अर्थ गैर-जिम्मेदारी नहीं है। इसका अर्थ है और अधिक जिम्मेदारी के साथ, क्योंकि इसका अर्थ है अधिक जागरूकता। जब तुम एक चरित्र के द्वारा जीते हो, तुम्हें जागरूक रहने की आवश्यकता नहीं होती-चरित्र स्वयं ही चिंता लेता है। जब तुम चरित्र के द्वारा जीते हो, तुम आसानी से निंद्रा में गिर सकते हो। जागरूक रहने की तब कोई आवश्यकता नहीं होती। चरित्र एक यंत्रिक रूप में जारी रहेगा। परंतु जब तुम्हारे पास कोई चरित्र नहीं होता, जब तुम्हारे इर्द-गिर्द कोई कठोर ढांचा नहीं होता, तब तुम्हें हर क्षण सजग रहना होता है। हर क्षण तुम्हें यह देखना होता है कि तुम क्या कर रहे हो। हर क्षण तुम्हें नई स्थिति के प्रति प्रतिवार करना होता हे।

चरित्रवान व्यक्ति मृत होता है। उसका अतीत तो होता है परंतु भविष्य नहीं होता। जिस व्यक्ति के पास चरित्र नहीं है—और मैं यह शब्द उसी अर्थ में उपयोग नहीं कर रहा हूं जिस अर्थ में कि तुम इसका उपयोग किसी व्यकति के बारे में करते हो। कि वह चरित्रहीन है। जब तुम चरित्रहीनशब्द का उपयोग करते हो, तुम इसका सही उपयोग नहीं कर रहे होते हो क्योंकि जिस किसी को भी तुम चरित्रहीन कहते हो उसे पास चरित्र होता ही नहीं है। शायद वह समाज के विपरीत हो, पर चरित्र तो उसके पास हैं; तुम उस पर भी निर्भर कर सकते तो हो।

संत के पास चरित्र होता है, वैसे ही पापी के पास भी चरित्र होता है—चरित्र उन दोनों के पास हैं। तुम पापी को चरित्रहीन कहते हो। क्योंकि तुम उसके चरित्र की निंदा करना चाहते हो; वरना चरित्र तो उसके पास भी है। तुम उस पर निर्भर कर सकते हो; उसे अवसर दो और वह चोरी करेगा—उसके पास एक चरित्र है। उसे अवसर दो और वह जरूर उस चरित्र का उपयोग करेगा। तुम उसे अवसर दोगें तो वह जरूर ही गलत काम करेगा ही। उसके पास बस यही चरित्र है। जिस क्षण वह कारागृह से बाहर आता है, वह सोचने लगात है, ‘अब क्या किया जाए? परंतु फिर से वह जेल में फेंक दिया जाता है, फिर से वह बाहर आ जाता है...किसी कारागृह न आज तक किसी को नहीं सुधारा है। सच तो यह है कि किसी व्यक्ति को जेल में बंद करना,किसी को कारागृह में डाल देना उसे और अधिक चालाक बना देना है—बस इतना ही। शायद अगली बार तुम उसे इतनी आसानी से न पकड़ सकोगे, बस और कुछ नहीं। तुम उसे बस ज्यादा चालाकी दे देते हो। परंतु चरित्र उसके पास वही का वही रहता है।

क्या तुम देख नहीं सकते?—एक शराबी का अपना चरित्र होता है, और बहुत-बहुत हठी चरित्र। हजार बार वह फिर शराब न पीने की सोचता है, और फिर-फिर उसका वही पुरान चरित्र जीत जाता है। वह हर बार लगभग हार जाता है।

पापी के पास भी चरित्र होता है। वैसे ही संत के पास भी चरित्र होता है। चरित्रहीनता से तंत्र का जो तात्पर्य है वह है चरित्र से मुक्ति—संत का चरित्र और पापी का चरित्र, दोनों तुम्हें चट्टान जैसा, हिम जैसा कठोर बनाते है। तुम्हारे पास कोई स्वतंत्रता नहीं होती, तुम सरलता से गति नहीं कर सकते। यदि एक नयी स्थिति उठ खड़ी हो, तुम एक नए ढंग से प्रतिवाद नहीं कर सकते—तुम्हारे पास तो एक चरित्र है, तुम नए ढंग से प्रतिवाद कैसे कर सकते हो? तुम्हें पुराने ढंग से ही प्रतिवाद करना होगा। पुराना, भली-भांति जाना हुआ, भली भांति अभ्यास में लाया गया—उसमें तो तुम कुशल हो गए होते हो।

चरित्र तो एक अन्यत्रता बन जाता है। तुम्हें जीने की आवश्यकता ही नहीं होती।

तंत्र कहता है: चरित्र विहीन बनो; बिना चरित्र बाले बनो। चरित्र विहीनता स्वतंत्रता हे।

सराह राजा से कहता रहा है: हे राजन, मैं चरित्र विहीन हूं। आप मुझे दरबार में एक विद्वान होने की, एक पंडित होने की ठोसता में वापस रखना चाहते हैं? आप मुझे मेरे अतीत में वापस रखना चाहते हैं? मैं इससे बाहर निकल आया हूं। मैं एक चरित्रहीन व्यक्ति हूं। मेरी और देखिए! अब मैं किन्हीं नियमों को पालन नहीं करता—मैं अपनी जागरूकता का पालन करता हूं। मेरे और देखिए...मेरे पास कोई अनुशासन नहीं है। मेरे पास केवल मेरी चेतना है। मेरा एक मात्र आश्रयस्थ्ल मेरी चेतना है। मैं इसी से जीता हूं। मेरे पास कोई अंतकरण कोई धारणा नहीं बची। मेरी चेतना ही मेरा शरण-स्थल बन गई है।

अंत:करण चरित्र है अंत:करण एक तरकीब है समाज की। समाज तुम्हारे भीतर एक अंत:करण निर्मित कर देता है। ताकि तुम्हें चेतना की आवश्यकता ही न पड़े। यह तुम्हें पंगु बना दता है। यह तुम्हें कुछ विशिष्ट नियमों बाँध देता है, उनका पालन करने के लिए लम्बा अभ्यास करता है। यह तुम्हें पुरस्कार देता है, तुम्हारा सम्मान करता है। फिर यदि तुम उन नियमों का पालन नहीं कर रहे होते हो तो, यह तुम्हें एक यंत्र-मानव बना देता है। एक बार जब यह अंत:करण का यंत्र तुम्हारे भीतर स्थापित हो जाता है, यह तुमसे मुक्त हो सकता है—फिर तुम्हारा भरोसा किया जा सकता है; फिर तुम अपना सारा जीवन गुलाम बने रहोगे। इसने एक अंत:करण ठीक वैसे ही तुम्हारे  भीतर रख दिया है जैसे कि डेलगाडो ने इलेक्ट्रोड तुम्हारे भीतर रख दिया हो, यह (अंत:करण) एक सूक्ष्म इलेक्ट्रोड ही तो है। पर इसने तुम्हें मार डाला है। तुम अब एक प्रवाह न रहे हो, तुम अब एक गत्यात्मकता न रहे हो। तुम जम गए हो, एक शीला की तरह। ठोस आकार बन गया है।

सराह राजा से कहता है: हे राजन, मैं अनाकृत हूं, मैंने सब ढांचे छोड़ दिए है। अब मेरी कोई पहचान नहीं रही है। मैं केवल क्षण में जीता हूं।

अपने में थिर निष्कलंक मन कभी नहीं...

होगा दूषित संसार या निर्वाण की अपवित्रताओं से भी

कीचड़ में पड़ा एक कीमती रतन ज्यों

चमकेगा नही यद्यपि है उसमें कांति....

कहता है सराह: निष्कलंक मन...जब मन में कोई विचार नहीं होते—यानि कि जब मन शुद्ध चेतना होता है, सही मायने में वहां मन होता ही नहीं। जब मन एक मौन झील होता है, जिसमे कोई लहर नहीं उठती नहीं होती, व्याख्यात्मक विचार नहीं, कोई विश्लेषणत्मक विचार नहीं, जब मन दर्शनीकरण नहीं कर रहा होता, परंतु बस होता है...अपनी पूर्णता में...

तंत्र कहता है: चलते हुए, बस चलो;बैठते हुए बस बैठो;होते हुए बस हो जाओ, बिना विचार के जिओ। जीवन को अपने भीतर से बहने दो, बिना किसी अवरोध के एक विचार शुन्यता के। उसे मात्र प्रवाहित होने दो किसी भय के। डरने को कुछ है ही नहीं। खोने को तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं। भय भीत होने की कोई बात नहीं है क्योंकि मृत्यु तुमसे केवल वही ले लेती है जो कि जन्म ने तुम्हें दिया हो। और उसे यह लेगी ही। इसलिए डरने की कोई बात ही नहीं है। जीवन को स्वयं के भीतर से प्रवाहित होने दो।

अपने में थिर निष्कलंक मन कभी नहीं

होगा दूषित संसार या निर्वाण की अपवित्रताओं से...

और सराह कहता है: हे राजन, तुम सोचते हो कि मैं अशुद्ध हो गया हूं, इसलिए तुम मेरी सहायता करने और मुझे शुद्ध कर के शुद्ध लोगों के संसार में वापस ले जाने के लिए आये हो। आप मेरी और देखों मैं तो अब मन की एक निष्कलंक अवस्था में हूं। मैं अब ठोस हित नहीं रहा हूं। अब मुझे कोई चीज दूषित नहीं कर सकती। क्योंकि कोई विचार अब मेरे भीतर कोई तरंग पैदा नहीं कर सकता है—मेरे भीतर कोई आकांक्ष उपेक्षा बची ही नहीं है। मैं तो अब हूं ही नहीं न कुछ।

इसलिए—एक महान व्यक्तव्य—यह कहता है:...होगा दूषित संसार या निर्वाण की अपवित्रताओं से नहीं। यह संभव नहीं है। निर्वाण भी अब मुझे दूषित नहीं कर सकता। संसार को तो कहना ही क्या? हे, राजन आप समझते हो कि यह तीर बनाने वाली स्त्री मुझे दुषित कर रही है। न आपका यह श्मशान मुझे दूषित कर सकता है। न ही मेरी पागल सी दिखने वाली गतिविधिया मुझे दूषित कर सकती है। अब मुझे कुछ भी दूषित नहीं कर सकता। मैं इन सब के पास, प्रत्येक दृश्य और अदृश के पार हो गया हूं, मुझे अब कोई भी वस्तु दूषित नहीं कर सकती। मेरी अवस्था को देखो, मैं उस अवस्था के पार हो गया हूं जहां कोई दूषित हो सकता है। मैं उसके पास चला गया हूं। आपका निर्वाण तक मुझे दूषित नहीं कर सकता।

उसका क्या तात्पर्या है जब वह कहता है, ‘निर्वाण भी, निर्वाण की अशुद्धियां भी?’ सराह कह रहा है: मुझे संसार की आकांक्षा नहीं है, मुझे निर्वाण तक की आकांक्षा नहीं रही है।

आकांक्ष करना अशुद्ध होना है। आकांक्षा ही अशुद्ध है—तुम किसकी आकांक्षा करते हो, यह बात ही असंगत है। तुम धन की आकांक्षा करते हो, यह अशुद्धि है। तुम शक्ति की आकांक्षा कर सकते हो, यह भी अशुद्धि है। तुम परमात्मा की आकांक्षा कर सकते हो, यह भी अशुद्धि ही है। तुम निर्वाण की आकांक्षा कर सकते हो, यह भी अशुद्धि ही है। आकांक्षा मात्र अशुद्धि है—उसकी विषय वस्तु क्या है इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। तुम किस चीज की आकांक्षा करते हो, यह अर्थहीन है...आकांक्षा।

जिस क्षण आकांक्षा आती है, विचार भी आते हें। एक बार जब शिशिर की ऋतु होती है, आकांक्षा की, जब हवाएं चलने लग जाती हैं। यदि तुम सोचना प्रारंभ कर दो कि निर्वाण को कैसे प्राप्त किया जाए, सम्बुद्ध कैसे हुआ जाए, तुम विचारों को आमंत्रित कर रहे होगे। तुम्हारी झील क्षुब्घ हो उठेगी। फिर से तुम टुकड़ो-टुकड़ो में जमने लगोगे; तुम हो जाओगे ठोस चट्टान, सदृश्य मृत। तुम प्रवाह को खो दोगे—और प्रवाह जीवन है, प्रवाह परमात्मा है, प्रवाह ही निर्वाण है। इसलिए सराह कहता है: मुझे कुछ भी दूषित नहीं कर सकता। मेरे बारे में चिंता मत करो। मैं उस बिंदु तक आ गया हूं, मैंने उस बिंदु को प्राप्त कर लिया है जहां अशुद्धि संभव नहीं है।

कीचड़ में पड़ा एक कीमती रतन ज्यों

चमकेगा नही यद्यपि है उसमें कांति...

तुम मुझे कीचड़ में फेंक दे सकते हो, गंदी मिट्टी में पर अब गंदी मिट्टी भी मुझे गंदा नहीं कर सकती। मैंने उस बहुमूल्य रत्नता को प्राप्त कर लिया हे। मैं अब एक कीमतली रत्नी हो गया हूं। मैं समझ गया हूं कि मैं कौन हूं। अब तुम इस रत्न को किसी भी कीचड़ में, धूल में फैंक सकते हो, शायद यह चमके न पर यह अपनी बहुमूल्यता खो नहीं सकता है। इसकी क्रांति को अब छीना नहीं जा सकता। उसकी कांति उसकी अस्तित्व बन गई है। यह फिर भी वही बहुमूल्य रत्न रहेगा।

एक क्षण आता है जब तुम स्वयं में झांकते हो और तुम अपनी भावातीत चेतना को देखते हो, फिर कोई भी चीज तुम्हें प्रदूषित नहीं कर सकती।

सत्य एक अनुभव नहीं है। सत्य अनुभव करने की प्रक्रिया (अनुभवीकरण) है। सत्य जागरूकता की कोई विषय वस्तु नहीं है। सत्य जागरूकता है। सत्य बाहर नहीं है, सत्य तुम्हारी आंतरिकता है। सौरेन किर्कगार्ड कहता है: सत्य आत्मचेतनता है। यदि सत्य किसी बस्तु की भांति हो, तुम इसे पा सकते हो और खो सकते हो; पर यदि सत्य ही होओ, तुम इसे खो कैसे सकते हो। एक बार तुमने जान लिया, तुमने जान लिया; फिर कोई वापस जाना नहीं होता। यदि सत्य कोई अनुभव हो, यह दूषित हो सकता है। पर सत्य तो अनुभवीकरण है, यह तो तुम्हारी अंतरम चेतना है। यह तुम ही हो, यह तुम्हारा होना है।

ज्ञान चमकता नहीं है अंधकार में,

पर अंधकार जब होता है प्रकाशित

सराह कहता है: हे राजन, ज्ञान चमकता नहीं है अधंकार मेंअंधकार मन का, अंधकार आकृत अस्तित्व का,अधंकार अहंकार का, अंधकार विचारों काहजार-हजार, अधंकार जो तुम एक अष्ठपदी की भांति अपने चारों और निर्मित किए जाते हो। उस अंधकार, जिसे कि तुम निर्मित करते चले जाते हो, के कारण तुम्हारे अंतर का रत्न चमकता नहीं, वर्ना तो यह प्रकाश का एक दिया है। एक बार तुम अपने चारों और यह सियाही, यह काला बादल निर्मित करना बंद कर दो, तब वहां प्रकाश हो जाता है।

और पीड़ा अदृश्य हो जाती है, तुरंत यह तंत्र का संदेश है, एक महान मुक्तिदायी संदेश। बाकी धर्म कहते हैं, तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी। ईसाइयत कहती है, इस्लाम कहता है, यहूदी धर्म कहता है, तुम्हें अंतिम निर्णय दिवस की प्रतीक्ष करनी होगी जब हर चीज का हिसाब किया जाएगा—तुमने क्या-क्या किया है, भला किया है, तुमने क्या बुरा किया है—और फिर तुम्हें उसी के अनुसार प्ररस्कृत किया जाएगा या दंडित किया जाएगा। तुम्हें भविष्य की, उस निर्णय दिवस की प्रतीक्षा करनी होती है।

परंतु हिन्दु, जैन और अन्य धर्म यह कहते हैं कि तुम्हें अपने बुरे कृत्यों को अपने भले कृत्यों से संतुलित करना होगा; बुरे कर्मों को त्यागना होगा और अच्छे कर्मों में वृद्धि करनी होगी। उसके लिए भी तुम्हें प्रतीक्षा तो करनी ही होगी। इसमें भी  समय तो लगेगा ही। लाखों जीवनों में तुम लाखों कृत्य करते आए हो, अच्छे भी बुरे भी। अब तुम्हें उन्हें सुलझाना होगा। उन्हें संतुलित करना होगा। यह एक असंभव काम होगा।

ईसाई, यहूदी और मुस्लिम निर्णय-दिवस सरल है: कम से कम तुम्हें जो कुछ भी तुमने किया है उसका हिसाब-किताब नहीं करना होगा। ईश्वर चिंता लेगा, वह निर्णय करेगा—वहीं तो उसका काम है। लेकिन जैनधर्म और हिंदु तो कहते हे कि तुम्हें अपने बुरे कर्मों को देखना होगा। उन्हें खुद ही भले कर्मों में बदलना होगा। उन्हें छोड़ना होगा, अच्छे कर्मों में स्थांतरित करना होगा। इस सब में भी, ऐसा लगता है, लाखों जनम लग जाऐंगे।

तंत्र तो एक दम मुक्ति दायी है। तंत्र कहता है:

जिस क्षण तुम स्वयं में झांकते हो, आंतरिक दृष्टि का वह अकेला क्षण और पीड़ा अदृश्य हो जाती है—क्योंकि वास्तव में पीड़ा का अस्तित्व कभी था ही नहीं। यह एक दुखस्वप्न था। ऐसा नहीं है कि तुमने बुरे कर्म किए हैं, इसलिए तुम पीड़ित हो रहे हो। तंत्र कहता है कि तुम पीड़ित हो रहे हो। तंत्र कहता है कि तुम पीड़ित हो रहे हो क्योंकि तुम स्वप्न देख रहे थे। तुमने किया कुछ भी नहीं था यह मात्र एक नींद्रा थी, न कुछ शुभ है न ही अशुभ।

यह बड़ी सुंदर बात है। तंत्र कहता है: तुमने किया कुछ भी नहीं था, करने वाला तो परमत्मा है। समस्त है कर्ता—तुम कैसे हो सकते हो? यदि तुम एक संत रहे हो, यह उसी की इच्छा थी, यदि तुम एक चोर या पापी रहे हो तो भी तो उसी की मर्जी ही थी। तुम जब कर्ता हो ही नहीं तब तुम कर ही कैसे सकते हो। तुमने कुछ किया ही नहीं। तुम कर भी नहीं सकते हो? तुम उस अस्तित्व से अलग कहां हो, तुम्हारी कोई अलग इच्छा ही नही है—यह उसी की इच्छा है, यह सार्वलौकिक इच्छा है।

इसलिए तंत्र कहता है कि तुमनेकुछ अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं किया होता है। इसे बस देखना है, बस इतना ही। तुम्हें अपनी अंतरतम चेतना को देखना है—यह शुद्ध है, शाश्वत रूप से शुद्ध है, संसार या निर्वाण से अदूषित नहीं हो सकती। एक बार तुमने अपनी शुद्ध चेतना की वह दृष्टि देख ली, सब पीड़ा समाप्त हो जाती है—तुरंत उसी समय। इसमें एक क्षण की भी देरी नहीं होती।

शाखाएं-प्रशाखएं उग आती है बीज से

पुष्प पल्वित होते नुतपात शाखाओं से...

और तब, चीजें बदलनी शुरू हो जाती हैं। फिर बीज टूट जाता है। बंद बीज, तंत्र कहता है, अहंकार है; शून्यता है। तुम बीज को धरती में दबा देते हो, यह तब तक उग नहीं सकता जब तक कि यह बिलीन न हो जाए, जब तक कि यह टूट ही न जाए, मर ही न जाए। मिट ही न जाए। अहंकार एक अंडे के समान हे, इसके पीछे वृद्धि की संभावना छिपी होती है।

बीज एक बार टूट जाए तो, अहंकार शून्यता बन जाता है फिर शाखाएं निकलती हैं—शाखाएं है अ-विचार, अनकांक्षएं, अ-मन। फिर पत्तियां आती हैं—पत्तियां है ज्ञान, अनुभवीकरण, प्रकाश, सतोरी, समाधि। फिर फूल आते है—फूल है सच्चिदानंद: सत्-चित्-आनंद। और फिर फल-फूल है निर्वाण, अस्तित्व में पूर्णता: विलीन हो जाना। एक बार बीज टूट जाए, फिर हर चीज उसके पीछे-पीछे चली आती है। एक मात्र कार्य जो किया जाना है वह बीज को भूमि में डालना, इसे अदृश्य होने देना है। गुरू है भूमि और शिष्य है बीज।

अंतिम सूत्र:

जो कोई भी सोचता-विचारा है

मन को एक या अनेक, फेंक देता है

वह प्रकाश को और प्रवेश करता है संसार में

जो चलता है (प्रचण्ड) अग्नि मे खुली आंख

तब किस और होगी करूण की आवश्यकता अधिक...

 

जो कोई भी सोचता-विचारता है मन को एक

या अनेक...

सोचना-विचारना सदा विभाजक है, यह विभाजित करता है। सोचना विचारना एक प्रिज्म की भांति है, हां, मन एक प्रिज्म जैसा ही तो है। एक शुद्ध श्वेत किरण प्रिज्म में प्रवेश करती है और सात रंगों में विभाजित हो जाती है—एक इंद्रधनुष पैदा हो जाता है। संसार एक इंद्रधनुष है। मन से होकर, मन के प्रिज्म से होकर, सत्य की एक किरण गुजरती है और एक इंद्रधनुष, एक मिथ्या वस्तु बन जाती है। संसार एक मिथ्या वस्तु है।

मन विभाजित करता है। मन द्वैतवादी है। या, मन द्वंदात्मक है: यह वादी-प्रतिवादी के रूप में सोचता है। जिस क्षण तुम प्रेम की बात करते हो, घृणा उपस्थित होती है। जिस क्षण तुम करूणा की बात करते हो, क्रोध उपस्थित होता है। जिस क्षण तुम क्षण तुम लालच की बात करते हो, उसके विपरीत मौजूद होता है, दान मौजूद होता है। दान की बात करते हो और लालचमौजूद होता है—वे दोनों साथ-साथ रहते है। वे एक ही गठरी में बंधे है, वे अलग-अलग नहीं है। पर मन निरंतर ऐसा सृजन करता रहता है।

तुम कहते हो सुंदरऔर तुमने करूपभी कह दिया। कैसे तुम सुंदर कह सकते हो यदि तुम जानते ही न हो कि कुरूपता क्या है? तुमने विभाजन कर दिया। कहो दिव्यताऔर तुमने अपवित्रताभी कहा दिया। कहो ईश्वरऔर तुमने एक शैतान की प्रस्तावना भी कर दी। कैसे तुम ईश्वर कह सकते हो जब तक कि वहां एक शैतान भी न हो। वे साथ-साथ होते है।

मन विभाजन करता है और सचाई एक है, अविभाज्य रूप से एक। तब क्या किया जाए? मन को उठाकर अलग रखना होगा। प्रिज्म के द्वारा मत देखो। प्रिज्म के अलग खिसका के रख दो और श्वेत प्रकाश को, अस्तित्व के एकत्व को, अपने अस्तित्व को बींधने दो।

जो कोई भी सोचता-विचारा है

मन को एक या अनेक, फेंक देता है

वह प्रकाश को और प्रवेश करता है संसार में

जो चलता है (प्रचण्ड) अग्नि मे खुली आंख

तब किस और होगी करूण की आवश्यकता अधिक...

यदि तुम एक या अनेक की सोचते हो, द्वैत या अद्वैत की सोचते हो, यदि तुम धारणाओं में सोचते हो, तुमने संसार में प्रवेश कर लिया तुमने प्रकाश को फेंक दिया। यह तुम्हारा चुनाव है।

एक व्यक्ति एक बार रामकृष्ण के पास आया और वह रामकृष्ण की बड़ी प्रशंसा कर रहा था और वह बार-बार रामकृष्ण के चरण छू रहा था, और वह कह रहा था, ‘आप तो बस महान हैं—आपने तो संसार को त्याग दिया। आप इतने महान व्यक्ति हैं। आपने कितना त्याग किया है?’

रामकृष्ण उसकी बात सुनते रहे और हंसे फिर बोले, ‘रूको! अब तुम बहुत दूर जा रहे हो—सचाई तो ठीक उलटी है।

उस व्यक्ति ने कहा: आपका क्या तात्पर्य है?’

राम कृष्ण ने कहा: मैंने तो कुछ भी त्याग नहीं किया है—त्याग तो तुमने किया है। तुम एक महान आदमी हो।

उस आदमी ने कहा, ‘मैंने त्याग किया है?’ आप भी मजाक कर रहे है। मैं तो एक सांसारिक आदमी हूं—मैं चीजों में लिप्त हूं, हजार लालच मेरे मन में है। मैं बड़ा ही महत्वकांक्षी आदमी हूं। मैं बहुत धन-उन्मुख हूं। मैं कैसे महान कहा जा सकता हूं? नहीं, नहीं—आप मजाक कर रहे हैं?’

और रामकृष्ण ने कहा: नहीं, मेरे सामने भी दो संभावनाएं थी और तुम्हारे सामने भी दो संभावनाएं थी। तुमने संसार को चुन लिया और मैंने ईश्वर को चुन लिया। तुमने ईश्वर को त्याग दिया और मैं संसार को त्याग दिया। असली त्यागी कौन सा है? मैं या आप। तुमने तो अधिक त्याग किया है। अधिक मूल्यवान त्याग किया है, अर्थहीन को चुना लिया। और मैंने अर्थहीन को त्याग दिया और मूल्यवान को चुन लिया। यदि कोई बड़ा हीरा और पत्थर हो, तो तुमने तो पत्थर को चुन लिया और हीरे को त्याग दिया। मैंने तो फिर भी हीरे को चुन लिया है। और पत्थर को त्याग दिया है। भला आप ही बतलाओं की अब बड़ा त्यागी आप है या मैं किसने बड़ा त्याग किया है। तुम तो मुझसे बहुत ही महान त्यागी हो? एक महान त्यागी? क्या तुम पागल हो गए हो? मैं ईश्वर में लिप्त हूं। मैंने जो बहुमूल्य है उसे चुन लिया है। 

हां, मैं भी रामकृष्ण से सहमत हूं। महावीर, बुद्ध, जीसस, मौहम्मद, सराह...इन्होंने त्याग नहीं किया है। वे लिप्त हुए है, वे सच में ही भोग-लिप्त हुए है। उन्होंने सच में ही आनंद उठाया है—उन्होंने अस्तित्व का उतसव मनाया है। हम जो साधारण पत्थरों के पीछे दौड़ रहे हैं, महान त्यागी ही हो सकते है।

केवल दो ही संभावनाएं हैं: या तो मन को त्याग दो और प्रकाश को चुन लो या प्रकाश को त्याग दो और मन को चुन लो—यह तुम्हारे ऊपर है।  

जो कोई भी सोचता-विचारा है

मन को एक या अनेक, फेंक देता है

वह प्रकाश को और प्रवेश करता है संसार में

जो चलता है (प्रचण्ड) अग्नि मे खुली आंख

तब किस और होगी करूण की आवश्यकता अधिक...

सराह कहता है: हे राजन, तुम मेरी सहायता करने यहां आए हो। तुम सोचते हो तुम मेरे प्रति करूणावान हो। निश्चय ही तुम्हारा सारा राज्य भी यही सोचता है—कि राजा श्मशान भूमि में गया है: सराह के लिए उसमें कितनी करूणा है। तुम सोचते हो कि तुम करूणा के कारण यहां आए हो? लोग मुझ पर हंसते है...सच तो यह है कि यह मैं हूं जो तुम्हारे लिए करूणा अनुभव कर रहा हूं, तुम नहीं। यह मैं हूं जो तुम्हारे लिए खेदपूर्ण अनुभव कर रहा हूं—तुम मुर्ख हो।

प्रचण्ड अग्नि में वह चलता है खुली आँख...

तुम्हारी आंखें खुली हुई जान पड़ती है, पर खुली वे है नहीं। तुम अंधे हो! तुम्हें पता नहीं कि तुम क्या कर रहे हो...संसार में रहकर, क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंद मना रहे हो? तुम बस जलती हुई प्रचंड अग्नि में हो।

ठीक यही बात हुई जब बुद्ध ने अपना राजमहल छोड़ा, और अपने राज्य की सीमाएं छोडी, उन्होंने अपने सारथी से कहा, ‘अब तुम वापस जाओ—मैं जंगल में जा रहा हूं। मैंने सब त्याग दिया है।

बूढ़े सारथी ने कहा: श्री मान, मैं बूढा हो गया हूं, मैं आयु में आपके पिता से भी बड़ा हूं—मेरी सलाह सुनिए। आप एकदम मूढतापूर्ण काम कर रहे हैं। इस सुंदर राज्य, इस महल, एक सुंदर स्त्री, वे सब वैभव जिनकी हर मनुष्य लालसा करता है। आप इस सब को छोड़ कर कहां जा रहे है, और किसलिए?’

बुद्ध ने मुड़कर उस संगमरमर के राजमहल को देखा और कहां: मैं तो वहां केवल अग्नि देखता हूं और कुछ भी नहीं, एक धधकती हुई अग्नि। सारा संसार जल रहा है। आप सोच रहे है कि मैं इस त्याग रहा हूं, मैं इसे त्याग नहीं रहा हूं। क्योंकि इसमें त्यागने को कुछ है ही नहीं। मैं तो बस अग्नि से बचने की चेष्टा कर रहा हूं। न तो मुझे वहां कोई महल दिखाई दे रहा है, और न ही वहाँ पर कोई सुख या आनंद देख पा रहा हूं।

सराह राजा को कहते है:

जो चलता है (प्रचण्ड) अग्नि मे खुली आंख

तब किस और होगी करूण की आवश्यकता अधिक...

तुम सोचते हो, हे राजन! तुम करूणावश मेरीसहायता करने के लिए यहां आए हो? नहीं, स्थिति ठीक इसके विवरीत है। मैं तुम्हारे लिए करूणा अनुभव कर रहा हूं। तुम एक प्रचंड अग्नि में जी रहे हो। सावधान रहो। सजग रहो। जागरूक रहो। और जितना जल्दी हो सके, इस (अग्नि) से दूर निकल जाओ क्यों जो कुछ भी सुंदर है, जो कुछ भी सत्य है, जो कुछ भी शुभ है, वह सब केवल अ-मन द्वारा ही जाना और अनुभव किया जा सकता है।

तंत्र तुम्हारे भीतर अ-मन निर्मित करने की एक प्रक्रिया है। अ-मन द्वार है निर्वाण का।

 

आज इतना ही।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

   

 

 

 

  

 

 

 

    gkdgkds

जबxतंत्र कहता है मनुष्य को सीखनी है भाषा प्रेम की, मौन की, भाषा एक दूसरे की उपस्थिति की, ह्रदय की अस्तित्व की। मां के गर्भ की भाषा।

 

   

 

 

 

 

 

 

 

 

34 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं

  2. interactive-flat-panel

    Adopt full aluminium alloy panel structure, anodized surface process, ultra-narrow frame, rounded corner design, fashion and beautiful appearance
    4mm tempered glass with anti glare 3.Advanced IR 20 touching technology.
    The OPS host module adopts plug structure design, internal Inter standard 80pin interface, without any external power line and signal line, which is convenient for
    inspection, maintenance and upgrade, and achieves the aesthetic effect of the machine

    जवाब देंहटाएं
  3. Vastu Expert 



    Astroindusoot is a well-known name in the field of Vastu Shashtra. We have many years of experience in this field. Now we are ready to fulfil your every desire and help you attain your desired goals. We have a great team of Vastu Expert who gives you the best Suggestion for your Future, and Goals.

    https://astroindusoot.com/vastu
     

    जवाब देंहटाएं
  4. Many thanks for always keeping your content up to date. Your level of dedication
    is clearly visible through this blog!

    जवाब देंहटाएं
  5. Thanks for giving me grateful information. I think this is very important to me. Your post is quite different.
    If you want to earn money in your free time, please visit Gigolomania.com

    जवाब देंहटाएं
  6. Thank you for the most engaging and wonderful content.

    Apply for callboy registration at Gigolomania
    Join Free Callboy Jobs at Gigolomania
    Apply for your dream job at Gigolomania

    जवाब देंहटाएं
  7. We really appreciate this great post you provided us. I guarantee that this will be useful for most people.

    जवाब देंहटाएं

  8. Thank you for letting me know the valuable information.
    The opportunity to work as a playboy can be a great opportunity to earn a good amount of money.
    Complete security and privacy laws make it even safer to win huge amounts of money every day.

    जवाब देंहटाएं
  9. I am very enthusiastic when I read your articles. Please keep sharing more and more wonderful articles.

    जवाब देंहटाएं
  10. After reading the entire article, it was very helpful to me. I sincerely appreciate your efforts and thank you. For quality work, please look at the link below.

    जवाब देंहटाएं
  11. Great blog thanks and visit below sites.
    Gear up your career as a playboy and earn money.
    You can rich by spending time with high profile ladies in your locality.
    Playboy
    Gigolo
    Callboy

    जवाब देंहटाएं
  12. Thanks for giving me great information, such a wonderful article and really inspiring. Very well written. For more details about it you can also visit our site.
    https://myastron.com/

    जवाब देंहटाएं
  13. Thanks for this informative content, such a wonderful article and really inspiring. Very well written. For more details about it you can also visit our site.
    https://myastron.com/

    जवाब देंहटाएं
  14. Thanks for this post, such a knowledgeable article and really inspiring. Very well written. For more details about it you can also visit our site.
    https://myastron.com/

    जवाब देंहटाएं
  15. Thanks for this post! It is very useful information and keeps sharing this type of blog. For information about it you can also visit our site.
    https://myastron.com/

    जवाब देंहटाएं
  16. Thanks for this blog! It is very useful information about human life and keeps sharing this type of blog. For information about it you can also visit our site.
    https://myastron.com/

    जवाब देंहटाएं
  17. Thanks for this post! This content is really informative and useful for us, keep sharing this type of content. For information about it you can also visit our site.
    https://myastron.com/

    जवाब देंहटाएं
  18. Thanks for this useful post! I'm particularly satisfied with the items you have referenced. This blog was very nicely arranged. I needed to thank you again for this great article. For information about it you can also visit our site.
    https://myastron.com/

    जवाब देंहटाएं
  19. Myastron is one of the best astrology prediction site. Here, you can get all types of free services like online puja service, online palm reading, gemstones and all. Also you can consult with our expert astrologer with free of cost and get solution of any kind of problems like love problem, marriage problem solution.
    www.myastron.com

    जवाब देंहटाएं
  20. Thanks for sharing!
    This is a useful and very good information learned a lot of thing from this. Also it will help people. Keep sharing this type of blog. To know more details about it you can visit our given website www.hookerspage.com

    जवाब देंहटाएं