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गुरुवार, 10 नवंबर 2022

तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-01

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)


प्रवचन-पहला-(तंत्र का मानचित्र)

दिनांक 01 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

 

सरहा के सूत्र:

          स्त्री और पुरूष एक दूसरे का चुम्बन लेकर

          रस-रूप और स्पर्श का इन्द्रिय सुख

पाने की लालसा के लिए

एक दूसरे को धोखा देकर भ्रमित कर रहे हैं

वे इन्द्रियों के विषय-सुख को ही

प्रमाणिक र्स्वोच्च परमआनंद मान कर

उसे पाने की उच्च घोषणा कर रहे हैं।

वह व्यक्ति उस पुरूष की भांति है,

जो अपने अंदर स्थित स्त्री और पुरूष के मिलन

अपने अंतरस्थ रूपी घर को छोड़कर,

इन्द्रिय रूपी द्वारों पर बाहर खड़ा है।

और बाहर की स्त्री से विषय भोग के आनंद की चर्चा करते हुए

उससे विषय सुख के बारे में आग्रह पूर्वक पूंछ रहा है।

 

जो योगी शून्यता के अंतराल में रहते हुए मन के पर्दे पर

जैविक उर्जाओं से आंदोलित होकर कल्पना में अनेक तरीको से

विकृत सुखों को सृजित करके उनका प्रक्षेपण करते हैं;

ऐसे योगी काल्पनिक वासना से प्रलोभित होकर

अपनी शक्ति खोकरकष्ट भोगते है,

           वे अपने दिव्य स्थान से पतित होते हैं।

जैसे ब्राह्मण जो यज्ञ की अग्नि की लपटों में

अन्न और घी की आहुति देकर

मंत्रो चार आदि का अनुष्ठान करता है

कामना करता है कि वह स्वर्ग में स्थान पा जाएगा

और वह स्वप्न देखते हुए, कल्पना में पुण्य रूपी पात्र को सृजित करता है।

 

लोगों अपनी काम उर्जा की अग्नि को जागृत कर

कंठ तक उसका ऊर्ध्वगमन कर लिया

वे जिह्वा को उल्टाकर विशुद्ध चक्र की उर्जा को छूते है

वहां उठी काम उर्जा का स्पर्श से संभोग का आनंद ले सकें

वह उस उर्जा को विशुद्ध चक्र पर रोक कर

मुक्ति पाने का भ्रम उत्पन्न करते है

क्या ऐसे योगभ्रष्ट अहंकारी लोग अपने को योगी कहेंगे?

 

 

तंत्र एक स्वतंत्रता है—स्वतंत्रता है मन के सभी सृजनों से, मन के सभी खेलों से, मन के बने सभी ढांचों से और वह स्वतंत्रता है दूसरों से भी। तंत्र अस्तित्व में बने रहने के लिए एक अंतराल है। तंत्र एक मुक्ति है।

सामान्य अर्थ में तंत्र कोई धर्म नहीं है। धर्म तो पुन: मन का ही एक खेल है। धर्म तो तुम्हें एक विशिष्ट सांचा अथवा आकार देता है। एक ईसाई के पास एक विशिष्ट आकार होता है। इसी तरह एक हिन्दु या एक मुसलमान के पास भी अपना-अपना एक विशिष्ट सांचा अथवा स्वरूप होता है। धर्म तुम्हें एक विशिष्ट शैली और एक अनुशासन देता है। तंत्र तो तुमसे सभी अनुशासन छीन लेता है, तुम्हें उससे पृथक कर देता हैं।

जब वहां कोई अनुशासन नहीं होता है, जब वहां बलपूर्वक थोपा हुआ कोई शासन नहीं रहता है। तब तुम्हारे अंदर पूर्णरूप से एक अलग तरह का अनुशासन और व्यवस्था उत्पन्न होती है। लाओत्सं उसे ताओ कहते है, उसी को बुद्ध धम्म (धर्म) कहते हैं, वहीं तुम्हारे अंदर उदय होती है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो तुम्हारे द्वारा की जाती है, वह तुम्हारे अंदर घटती है। तंत्र सामान्य रूप से उसके घटने के लिए एक अंतराल सृजित करता है। वह उसे आमंत्रित भी नहीं करता, न उसे फुसलता है और न उसकी प्रतीक्षा ही करता है। वह तो बस सामान्य रूप से एक अंतराल सृजित करता है। और जब वह अंतराल तैयार होता है, अखण्ड अस्तित्व उसमें प्रवाहित होने लग जाता है।

मैंने एक बहुत प्राचीन और बहुत सुंदर कहानी सुनी है.....

एक क्षेत्र में एक लम्बी अवधि तक वर्षा नहीं हुई—प्रत्येक चीज सूख गई। अंत में नागरिकों ने वर्षा करवाने के लिए एक गुणी व्यक्ति को बुलाने का निर्णय लिया। मंडल इस निवेदन के साथ भेजा गया कि वह जितनी अधिक शीध्रता से संभव हो सके आकर उनके सूखे खेतों को लिए वर्षा उत्तपन करे।

वर्षा कराने वाला एक बुद्धिमान वृद्ध था। जिसने इस शर्त पर वर्षा होने का वायदा किया उसे दूर गांव के खुले स्थान पर एकांत में बनी एक झोपड़ी उपलब्ध कराई जाए। जहां वह स्वयं अपने पास तीन दिनों तक बिना भोजन और बिना पानी लिए हुए अपने वापस ला सके। तब वह देखेगा कि वह क्या कर सकता है। उसने निवेदन को स्वीकार कर वैसी ही व्यवस्था कर दी गई।

तीसरे दिन श्याम घनघोर वर्षा हुई। प्रशंसा और कृतज्ञता से भरकर पूरी भीड़ उसकी झोपड़ी को तीर्थ मानकर वहां इकट्ठी हुई और हर्ष से चीखते हुए उससे पूछा—कृपया हमें बताइए, आपने ऐसा चमत्कार कैसे कर दिया।

उसने उत्तर दिया—यह बहुत ही सरल था। इन तीन दिनों में मैंने सब कुछ इतना ही किया कि मैंने स्वयं को व्यवस्थित किया। मैं जानता हूं कि एक बार जब मैं अपने में व्यवस्थित हो जाता हूं तो पूरा विश्व स्वयं व्यवस्थित हो जायेगा। और सूखे के स्थान पर वहाँ वर्षा का उपहार देगी।

तंत्र कहता है कि यदि तुम व्यवस्थित हो तो तुम्हारे लिए पूरा संसार व्यवस्था में है। जब तुम अस्तित्व के साथ लयबद्ध हो, तब पूरा अस्तित्व तुम्हारे लिए लयवद्धित हो जाता है। जब तुम अव्यवस्थित और अशांत हो, तब पूरा संसार अव्यवस्थित और अशांत हो जाता है। परंतु इस बात का ख्याल रखे की यह अनुशासन और व्यवस्था नकली नहीं होनी चाहिए। जब तुम स्वयं अपने ऊपर बलात कोई अनुशासन थोपते हो तो तुम पूरी तरह से विभाजित हो जाते हो, और अंदर गहरे में अव्यवस्था निरंतर बनी ही रहती है।

तुम इसका निरीक्षण कर सकते हो; यदि तुम एक क्रोधी व्यक्ति हो तो तुम अपने क्रोध को विवश करोगे, तुम उसे अपने गहरे अचेतन में दबा सकते हो, लेकिन वह विलुप्त होने नहीं जा रहा है। हो सकता है तुम उसके प्रति पूर्ण रूप से सचेत न हो, लेकिन वह वहां हैं—और तुम भी जानते हो कि वह वहां है। वह नीचे गहराई में, तुम्हारे अस्तित्व के अंधेरे तलघर मैं दबा हुआ है, लेकिन वह वहां है जरूर। उसके शीर्ष पर बैठे हुए तुम मुस्कुरा सकते हो, लेकिन तुम जानते हो कि किसी भी समय उसका विस्फोट हो सकता है। और तुम्हारी मुस्कान बहुत गहरी और प्रामाणिक नहीं हो सकती, और तुम्हारा मुस्कराना केवल एक प्रयास होगा। जो तुम स्वयं अपने विरूद्ध उत्पन्न कर रहे हो। एक व्यक्ति जो बाहर से व्यवस्था और अनुशासन बलात अपने ऊपर आरोपित करता है, वह अव्यवस्थित ही बना रहता है।

तंत्र कहता है कि इस बारे में एक दूसरी तरह की व्यवस्था भी होती है। तुम कोई व्यवस्था और कोई भी अनुशासन अपने ऊपर आरोपित नहीं करते, तुम पूरी तरह से इसके ढांचें को ही छोड़ देते हो और तुम सामान्य रूप से सहज, सरल, स्वाभाविक और स्वयंप्रवर्तित बन जाते हो। यह एक सबसे बड़ा कदम है, जिसे उठाने के लिए एक व्यक्ति से कहा जा सकता है। इसके लिए बहुत बड़े साहस की जरूरत होगी। क्योंकि समाज इसे पसंद नहीं करता है। समाज इसे विरूद्ध अटल बना रहता है। समाज एक विशिष्ट व्यवस्था चाहता है। यदि तुम समाज का अनुसरण करते हो तो समाज तुमसे प्रसन्न रहता है। यदि तुम थोड़े से भी इधर-उधर भटक जाते हो तो समाज बहुत नाराज हो जाता है—और भीड़ पागल हो जाती है।

तंत्र एक विद्रोही है। मैं इसे क्रांतिकारी नहीं कहता, क्योंकि इसके पास इससे कोई राजनीति नहीं है। और मैं इसे क्रांतिकारी नहीं कहता, क्योंकि इसके पास संसार को बदलने की कोई योजना नहीं है। इसके पास राज्य और समाज को बदलाव का कोई दिशानिर्देश नहीं है। हां, ये विद्रोही जरूर है परंतु यह वैयक्तिक विद्रोह है। यह एक वैयक्तिकता के ढ़ांचे से सरक कर बाहर आ जाना है। लेकिन याद रखो जिस समय तुम परमात्मा से सरक कर उससे बाहर आते हो, तुम अपने चारों और एक दूसरी तरह का अस्तित्व का अनुभव करते हो। जिसका इससे पूर्व तुमने कभी अनुभव नहीं किया था। जैसे मानों तुम आंखों पर पट्टी बांधे हुए जी रहे थे। और अचानक जैसे ही वह पट्टी ढीली हुई, तो तुम्हारी आंखें खुल गई और तुम अब एक भिन्न संसार देख सकते हो।

यह आंखों पर बंधी हुई पट्टी असल में और कुछ नहीं तुम्हारा मन ही है। यह तुम्हारे विचार, तुम्हारे पूर्वाग्रह, तुम्हारा ज्ञान और तुम्हारे धर्मशास्त्र है। जो सभी मिलकर एक मोटी पर्त की आंखों पर पट्टी बाँध देते हैं। और वे तुम्हें अंधा बनाकर, मूर्ख...एक मंदबुद्धि और मृतवत बनाकर रख देते है। एक यंत्र की तरह।

तंत्र तुम्हें उसी भांति जीवंत बनाये रखना चाहता है। जितने जीवंत ये वृक्ष हैं। जितने जीवंत ये सरिताएं हैं। और जितने जीवंत ये चाँद-सूरज हैं। यह तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है। इसे खोकर तुम कोई भी चीज नहीं खोते हो, तुम सभी कुछ को प्राप्त करते हो। और यदि इसे प्राप्त करने में प्रत्येक चीज़ खोनी भी पड़े तो समझो की तुम ने कुछ भी नहीं खोया। संतुष्ट करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता का अकेला एक क्षण भी प्रर्याप्त है। एक गुलाम की तरह कोल्हू में जुते हुए एक बैल की तरह सौ वर्ष का एक लम्बा जीवन भी अर्थहीन है।

तंत्र के संसार में बने रहने के लिए एक साहस की आवश्यकता है; यह एक दु:साहस है। अभी तक केवल थोड़े से लोग ही इस मार्ग पर चलने में समर्थ हो सकते हैं। लेकिन भविष्य बहुत आशापूर्ण है, आगे तंत्र अधिक से अधिक महत्वपूर्ण बनता जायेगा। मनुष्य अधिक से अधिक समझदार होता जा रहा है, परतंत्रता क्या होती है और मनुष्य यह भी समझता है कि परतंत्रता क्या होती है और मनुष्य यह भी समझता है कि कोई राजनैतिक-क्रांति एक क्रांति सिद्ध नहीं हुई है। सभी राजनीतिक क्रांतियां अंत में जाकर क्रांति विरोधी बन जाती हैं। क्रांतिकारी एक बार सत्ता में आते हैं, वो खुद ही क्रांति विरोधी हो जाते है। सत्ता और शक्ति कांति विरोधी है। इस बारे में शक्ति और सत्ता की बनावट और कार्य करने का कुछ ऐसा ढंग है कि तुम किसी भी व्यक्ति को सत्ता दो, वह क्रांति विरोधी बन जाता है। शक्ति और सत्ता अपना अलग संसार सृजित करती है। इसलिए विश्व भर में अभी तक जितनी भी क्रांतियां हुई हैं। वे सभी असफल ही नहीं, पूरी तरह से असफल हो गई है। किसी भी क्रांति ने कोई भी सहायता नहीं की। अब मनुष्य इसके प्रति सजग हो रहा है।

तंत्र वस्तुओं को एक भिन्न सापेक्ष दृष्टि से देखने का आग्रह करता है। वह क्रांतिकारी न होकर एक विद्रोही है। विद्रोह का अर्थ है वैयक्तिकता तुम अकेले ही विद्रोह कर सकते हो। तुम्हें इसके लिए एक दल संगठित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम स्वयं अकेले ही विद्रोह कर सके हो। स्मरण रहे, कि यह समाज के विरूद्ध कोई युद्ध करना नहीं हैं। यह केवल समाज के पार जाना है। यह न तो असामाजिक है और न समाजविरोधी ही। इसका समाज से कुछ भी लेना देना नहीं है। यह स्वतंत्र बनने को स्वतंत्रता के लिए और यह गुलामी के विरूद्ध नहीं है।

जरा अपने जीवन को और दृष्टिपात करो ! क्या तुम एक स्वतंत्र व्यक्ति हो? तुम नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे चारों और अनेक बंधन हैं। हो सकता है तुम उनकी ओर न देखो, हो सकता है कि तुम उन्हें न पहचानो, क्योंकि इससे चोट लगती है। और बहुत लज्जा का अनुभव होता है। लेकिन इससे स्थिति नहीं बदलती: तुम एक गुलाम हो। तंत्र के आयाम में गतिशील होने के लिए तुम्हें अपनी दास्तां को पहचानना होगा। इसकी जड़ें बहुत गहरे तक गई हैं। तुम्हें इसे छोड़ना है, और इसके प्रति सजग हो जाने से, उसे छोड़ने में सहायता मिलती है।

स्वयं अपने को संतावना मत दिए जाओ, स्वयं अपने को शांत मत किए जाओ और न यह कहते चले जाओ—प्रत्येक चीज़ ठीक है।वह ठीक नहीं है। कोई भी चीज ठीक नहीं है, और तुम्हारा पूरा जीवन यथार्थ में एक दु:ख स्वप्न की भांति है। ज़रा उसे गौर से देखो। इस जगह तुम्हारे लिए न तो कोई कविता है, न कोई गीत है, न कोई नृत्य है, न कोई प्रार्थना है और न ही कोई प्रेम है। वहां न कोई उत्सव और आनंद है—आनंद, तुम्हारे लिए भाषाकोष का केवल एक शब्द मात्र बन कर रह गया है। जिसके बारे में तुमने सुना ज़रूर है, परंतु उसके विषय में कभी कुछ जाना नहीं है। और परमात्मा? वह मंदिरों और पूजागृहों में है। हां, लोग उसके बारे में बातचीज करते हैं। जो लोग उसके बारे में बात करते हैं, वे उसे जानते जरा भी नहीं है। बस सूनी सुनायी बातचीत चलती रहती है। वह जो कुछ भी जीवन में सुंदर है वह अर्थ हीन होता जा रहा है। और जो अर्थहीन है वह अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है।

एक आदमी धन एकत्रित किए चला जाता है और सोचता है कि वह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। मनुष्य की मूर्खता अनंत है। इसके प्रति सावधान रहो, वह तुम्हारा पूरा जीवन नष्ट कर देगी, उसने पिछले युगों में करोड़ो लोगों के जीवन को बरबाद किया है। अपनी सचेतनता का दामन थामे रहो—इस मूर्खता से बाहर निकलने की केवल यही एक संभावना है।

आज इन सूत्रों में हम प्रवेश करें, उसके पूर्व आंतरिक चेतना के तंत्र के मानचित्र के बारे में कुछ बातें समझने जैसी हैं। इस बारे में मैंने तुम्हें कुछ बातें बतलाई हैं। लेकिन कुछ थोड़ी सी बातें और भी बतलानी हैं।

पहली बात: तंत्र कहता है कि कोई भी पुरूष केवल पुरूष नहीं है, और न ही कोई स्त्री केवल पूर्ण स्त्री है। प्रत्येक पुरूष, पुरूष और स्त्री दोनों एक साथ है, और प्रत्येक स्त्री भी स्त्री और पुरूष दोनों एक साथ है। आदम के पास उसके अंदर ईव भी है। और ईव के साथ उसके अंदर आदम भी है। वास्तव में कोई भी व्यक्ति केवल आदम नहीं है और न कोई व्यक्ति केवल ईव है। हम लोग आदम और ईव दोनों ही एक साथ हैं। अभी तक प्राप्त की जाने वाली महानतम अंर्तदृष्टियों में से यह एक है।

आधुनिक मनोविज्ञान गहराई में इसके प्रति सचेत हो गया है और वे इसे द्विलिंगीय होना कहते हैं। लेकिन तंत्र इस बात को कम से कम पांच हजार वर्षों से कहता आ रहा है। और उसने उसकी गहराई को समझा भी है। यह संसार की महानत्म खोजों में एक है। क्योंकि इस समझ के साथ तुम अपने अंदर की दिशा में गतिशील हो सकते हो, अन्यथा तुम अपनी आंतरिक दिशा में गतिशील नही हो सकते हो। एक पुरूष एक स्त्री के साथ प्रेम में क्यों गिरता है, क्योंकि वह अपने अंदर एक स्त्री लिए हुए चल रहा होता है। अन्यथा वह उसके प्रेम में न पड़ा होता। और तुम एक विशिष्ट स्त्री के साथ ही प्रेम क्यों होते हो? इस जगह हजारों स्त्रियां हैं, लेकिन क्यों, अचानक एक विशिष्ट स्त्री ही तुम्हारे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है। जैसे मानों अन्य सभी स्त्रियां विलुप्त हो गई हो। और संसार में केवल वही एक स्त्री रह गई हो? क्यों? क्यों एक विशिष्ट पुरूष ही तुम्हें आकर्षित करता है? प्रथम दृष्टि में ही अचानक क्यों कुछ चीज़े तुम्हारे अंदर सपंदन करती है? तंत्र कहता है कि तुम अपने अंदर एक स्त्री की छवि और स्त्री अपने अंदर एक पुरूष की छवि साथ लिए हुए चल रही होती है। प्रत्येक पुरूष एक स्त्री को और प्रत्येक स्त्री एक पुरूष को अपने अंदर साथ लिए चल रहे होते है। जब बाहर कोई व्यक्ति तुम्हारे अंदर की छवि के अनुरूप होता है, तुम उसके प्रेम में गिर जाते हो—और प्रेम का यही अर्थ होता है।

तुम इसे नहीं समझ पाते हो, तुम सामान्य रूप से अपने कंधे उचका कर कहते हो—बस ऐसा हो गया।लेकिन उसके अंदर वहां एक सूक्ष्म बनावट है। दूसरी स्त्रियों के साथ न होकर ऐसा एक विशिष्ट स्त्री के साथ ही क्यों होता है? किसी ने किसी तरह तुम्हारे अंदर की छवि उसके साथ दृश्य होती है। बाहर की स्त्री एक तरह से इस जैसी लगने लगती है या वह मिल जाती है। मानों तुम्हारी अंदर की छवि पर कोई चोट होती है, और तुम अनुभव करते हो—यही मेरी स्त्री है।अथवा यही मेरा पुरूष है।जो भी प्रेम होता है वह यह अनुभव ही होता है। लेकिन बाहर की स्त्री तुम्हें संतुष्ट करने नही जा रही है, क्योंकि कोई भी बाहर की स्त्री या पुरूषतुम्हारे अंदर की स्त्री की छवि के साथ पूरी तरह से अनुरूप नहीं हो सकती, यह एक कडवी वास्तविकता है। और यह वरदान भी है। किसी भी प्रकार से इस तरह की पूर्ण नहीं होती, वह हो सकता है कुछ-कुछ झलक दे रही होती हे। उसके अनुरूप दिख रही होती है—वहां एक आकर्षण अथवा एक चुम्बकतव हो, लेकिन देर-सवेर बाद में यह भ्रम टूटने लग जाता है। तुम शीध्र ही यह पहचानने लगते हो कि उस स्त्री में अनेक ऐसी चीजे भी है, जिन्हें तुम पसंद नहीं करते हो। लेकिन उन सब को जानने में थोड़ा समय लगता है। तब आपका भ्रम टूटने लग जाता है।

पहले तो तुम्हें उस पर मोहित होकर मूर्ख बनना होगा। पहले तो अनुरूपता बहुत अधिक लगेगी, वह तुम्हें विह्वल कर देगी। लेकिन धीमे-धीमे तुम देखोगे कि जीवन के विस्तार मे वहां अनेक चीजें ऐसी है जो तुम्हारे अनुरूप नहीं हैं। तुम भिन्न स्वभाव के अजनबियों जैसे हो। हां, तुम कभी तुम उसे प्रेम करते हो, लेकिन उस प्रेम मे वैसा सम्मोहन अब नहीं रह जाता है। वह रूपहला आर्कषण कम होता चला जाता है। वह जिसे आप प्रेम समझते थे विलुप्त होनें लग जाता है। और वह भी इस बात को पहचानें लग जाती है कि तुम्हारे अंदर कोई चीज जो आकर्षित करती थी, लेकिन तुम्हारी समग्रता उसे आकर्षित नहीं कर रही है।

इसीलिए प्रत्येक पति, पत्नी बदलाव का और प्रत्येक पत्नी, पति बदलने का प्रयास करती है। वे क्या करने का प्रयास कर रहे हैं? और क्यों?एक पत्नी निरंतर अपना पति बदलने का क्यों प्रयास करती है?किसके लिए?पहले वह एक पुरूष को प्रेम करती थी, तब तुरंत ही वह उसे बदलना शुरू कर देती है?अब वह असमानताओं के प्रति सजग हो गई है। हव उन असमानताओं को छोड़ना चाहती है। वह इस पुरूष के थोड़े से खंड को ही लेना चाहती है। जो उसके पुरूष के विचार के पूरी तरह अनुरूप हो। और पति भी यहीं प्रयास करता है—लेकिन उतने पागलपन से वैसा कठोर प्रयास नहीं करता जैसा कि स्त्री प्रयास करती है, क्योंकि पति बहुत शीघ्र थक जाता है—और स्त्री अधिक समय तक आशा रखती है।

स्त्री सोचती है, ‘आज अथवा कल अथवा परसों किसी दिन वह बदल जायेगा।इस तथ्य को पहचाने में बीस पच्चीस वर्ष लगा जाती हैं, कि तुम दूसरे को नहीं बदल सकते। पचास वर्ष की आयु होने पर जब स्त्री का मासिक धर्म समाप्त हो चुका होता है और पुरूष भी जब वह वास्तव में प्रौढ़ हो चुका होता है, तब वे लोग शनै:-शनै: इस बात के प्रति सजग होते हैं कि जीवन में कुछ भी तो नहीं बदला। बदली तो केवल आशा?उन्होंने प्रत्येक तरह से प्रयास किया, कठोर प्रयास किया, पर स्त्री और पुरूष वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति को नहीं बदल नहीं सकता। यह एक बहुत बड़ा अनुभव है जो एक महान समझ बनती है।

यहीं कारण है कि वृद्ध लोग कहीं अधिक सहनशील बन जाते है; वे जानते है कि अब कुछ भी नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि वृद्ध लोग कहीं अधिक गरिमामय बन जाते हैं। क्योंकि वे जानते है की चीजें जैसी हैं, वैसी ही रहेगी। इसी वजह से वृद्ध लोग कहीं अधिक स्वीकार करने वाले बन जाते है। युवा लोग बहुत क्रोधी और स्वीकार न करने वाले लोग होते है और वे प्रत्येक चीज़ को बदलना चाहते है: वे लोग संसार को जिस तरह से पसंद करते है, उसी तरह का बनाना चाहते है। वे लोग कठोर संघर्ष करते हैं, लेकिन वैसा कभी नहीं होता। वह हो भी नहीं सकता है। ऐसा होना चीजों को स्वभाव ही नहीं है,बाहर का पुरूष तुम्हारे अंदर के पुरूष के कभी भी अनुरूप नहीं हो सकता और बाहर की स्त्री भी कभी भी तुम्हारे अंदर की स्त्री जैसे पूर्ण रूप में नहीं हो सकती है। इसी कारण प्रेम सुख देता है और दु:ख भी देता है। प्रेम प्रसन्नता के साथ अप्रसन्नता भी लाता है। और प्रसन्नता की अपेक्षा अप्रसन्नता अधिक मात्रा में साथ लाता है।

इस बारे में तंत्र का अभिप्राय क्या है?और तब आखिर करना क्या है?तंत्र कहता है कि अपने बाहर के पुरूष या स्त्री के साथ संतुष्ट बने रहने का कोई भी वहां पर मार्ग है ही नहीं। तुम्हारे अपने खुद के अंदर ही गतिशील होना होगा। तुम्हें अपने अंदर की स्त्री और पुरूष को खोजना होगा, तुम्हें अंर्तसंभोग को उपलब्ध होना होगा। यह तंत्र की बहुत गहरी और महान देन है।

यह कैसे हो कसता है? इस मानचित्र को समझने का प्रयास करो। योग-तंत्र शरीर विज्ञान के बारे में बातचीत करते हुए मैंने सात चक्रों के बारे में बतलाया है। पुरूष में मूलाधार चक्र, पुरूष। और स्वाधिष्ठान चक्र स्त्री होता है। स्त्री में मूलाधार चक्र स्त्री और स्वाधिष्ठान चक्र पुरूष होता है। और इसी तरह अन्य चक्रों की भी स्थिति होती है। सात चक्रों में छठवां चक्र तक द्वैत्व बना रहता है। सातवां चक्र द्वैत्व होता है।

तुम्हारे अंदर वहां तीन युग्म होते हैं: मूलाधार-स्वाधिष्ठानचक्रों को विवाह करना होता है। मणिपुर-अनाहत को विवाह करना होता है। और इसी तरह से विशुद्ध-आज्ञाचक्र के माध्यम भी विवाहा होता है।

जब कामऊर्जा बाहर की और गतिशील होती है, तुम्हें अपने बाहर एक स्त्री की आवश्यकता होती है। तुम्हें एक क्षण के लिए थोड़ी सी मिलती-झूलती झलक भी बहार मिलती है तो अपनी और आकर्षित करती है। परंतु एक वेदना है बाहर की स्त्री के साथ मिलन स्थाई नहीं होता। और न ही हो सकता है। वह केवल एक क्षणिक मात्र ही टिकता है। बस क्षण भर के लिए ही तुम एक दूसरे में खो सकते हो। परंतु इसके बाद तुम स्वयं पर फेंक दिए जाते हो। तुम अपने पर फिर लोट आते हो क्योंकि वह ठहराव नहीं हो सकता, तब तुम बहुत खोया पन महसूस करते हो। मानों तुमसे कुछ छीन लिया गया। इसी कारण प्रत्येक प्रेम करने के बाद वहां पर एक विशेष निराशा होती है। तुम पुन: असफल हो गए और वह उस तरह से न हुआ जिस तरह से तुम चाहते थे। हां, तुम शिखर आनंद तक पहुंचें, लेकिन तुम उसके प्रति सचेत हो पाते, उसके पूर्व ही स्खलन हो गया। और तुम्हारा नीचे गिरना प्रारंभ हो गया। शिखर पर पहुंचने से पूर्व ही तुम घाटी में जा गिरे। तुम्हारा स्त्री अथवा पुरूष से पूर्ण मिलन होता, उसके पूर्व ही तुम पृथक हो गए। विवाह के बाद तलाक इतनी अधिक तेजी से आता है कि वह निराश करता है। सभी प्रेमी निराश लोग हैं। वे बहुत अधिक आशा करते हैं, वे अपने अनुभव के विरूद्ध आशा करते है, वे बार-बार आशा करते है—लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम वास्तविकता के नियमों को नष्ट कर सकते हो। तुम्हें उन नियमों को समझना होगा। बाहर का मिलन केवल क्षणिक ही हो सकता है। लेकिन अंदर का मिलन शाश्वत बन सकता है। और अपने अंदर तुम ऊँचाई तक गतिशील होते हो तो वह उतना अधिक शाश्वत बन सकता है। पुरूष में पहला मूलाधार चक्र पुरूष का होता है। तंत्र कहता है, एक स्त्री से बाहर भी प्रेम करते हुए अंदर का स्मरण रखो बाहर भी प्रेम करो, लेकिन अंदर का स्मरण रखो। अपनी चेतना को अंदर की गतिशील होने दो। बाहर की स्त्री को पूरी तरह से भूल जाओ?अपनी आंखें बंद कर अपने अंदर बने रहो, और उसे एक ध्यान बन जाने दो। जब ऊर्जा उत्तेजित होकर गतिशील हो रही हो, तो उस अवसर से मत चूको। यह वह क्षण है, जब तुम्हारी अंतर्यात्रा से तुम्हारा समर्पक हो सकता है।

सामान्य रूप से अंदर देखना बहुत कठिन है, लेकिन प्रेम के क्षण में वहां कुछ अंतराल होता है, और तुम साधारण नहीं होते हो। प्रेम के क्षण में तुम अधिकतम परिपूर्णता में होते हो। जब संभोग का सर्वोच्च शिखर होता है, तुम्हारे पूरे शरीर की ऊर्जा कम्पित और स्पन्दित होते हुए नृत्य कर रही होती है। तुम्हारा प्रत्येक कोष और प्रत्येक रेशा लयबद्ध होकर नाच रहा होता है। जिसे तुम सामान्य जीवन में नहीं जानते हो। यही वह क्षण है, यह लयबद्धता, जो अंदर जाने के मार्ग की भांति इसका उपयोग किया जा सकता है। तब अंदर एक आनंद बरस रहा होता है, सब और नृत्य जैसा उन्माद छाया होता है। प्रेम की वर्षा हो रही होती है। प्रेम करते हुए ध्यान पूर्ण बन जाओ, और अपने अंदर थिर हो जाओ चले क्षण भर के लिए ही। वह बहुत ही कीमती क्षण होता है।

उस क्षण में एक द्वार खुलता है—यह तंत्र का अनुभव होता है। उस क्षण एक पूर्णता फैली होती है, एक द्वार खुला होता है अंतस का। और तंत्र कहता है, कि तुम केवल प्रसन्नता का अनुभव करते हो, क्योंकि वह, द्वार खुलता है और तुम्हारे आंतरिक परमानंद में सक कुछ चीज तुम तक प्रवाहित होती है। वह आनंद बाहर की स्त्री अथवा बाहर के पुरूष से नहीं आ रही होती। वह तुम्हारे अंतरस्थ केंद्र से आ रही है। बाहर तो केवल एक बहाना मात्र है।

तंत्र यह नहीं कहता कि बाहर स्त्री या पुरूष से प्रेम करना कोई अपराध है, वह सामान्य रूप से यही कहता है कि वह बहुत दूर तक नहीं पहुंचा रहा होता है। वह उसकी निंदा नहीं करता है, वह उसकी स्वाभाविकता को स्वीकार करता हैं। लेकिन वह कहता है कि प्रेम की तरंग का दूर अंदर तक जाने के लिए तुम उसका उपयोग कर सकते हो। उत्तेजना के उस क्षण में फिर चीज़ें पृथ्वी पर नहीं होती और तुम उड़ सकते हो। तुम्हारा तीर लक्ष्य की और कमान का पथ प्रदर्शित कर सकता है। तुम सरहा बन सकते हो।

यदि प्रेम करते हुए तुम ध्यान पूर्ण बन जाते हो, तुम आंखें बंद कर शांत होकर बाहर के पुरूष अथवा स्त्री को भूल जाते हो और अपने अंदर की और देखना शुरू कर देते हो। तब ही वह घटता है। तुम्हारे अंदर तुम्हारा पुरूष मूलाधार चक्र, तुम्हारी स्त्री स्वाधिष्ठान चक्र की और गतिशील होना शुरू कर देती है—और वहां एक अंर्तसंभोग होता है।

कभी-कभी तुम्हारे जाने बिना भी ऐसा होता हैं। बहुत से संन्यासियों ने इस बारे में मुझे पत्र लिखे हैं, लेकिन पूर्व में मैंने कभी कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि उत्तर देना संभव ही नहीं है। अब मैं उत्तर दे सकता हूं, क्योंकि तुम समझने में समर्थ होगे। एक संन्यासी मुझे बार-बार लिखता है और निश्चिंत रूप से उसे आश्चर्य होना ही चाहिए कि मैं उत्तर क्यों नहीं दे रहा हूं। अभी तक वह नक्शा उपलब्ध न था, अब मैं तुम्हें वह मानचित्र दे रहा हूं। मुझे सुनते हुए वह हमेशा अनुभव करता है, जैसे मानों वह संभोग कर शिखर आनंद में जा रहा है। उसका पूरा शरीर कम्पित और स्पंदित होने लगता है, और उसके पास वैसा ही अनुभव होता है। जैसा मानों वह किसी स्त्री से प्रेम कर रहा है। और उस समय वह बहुत ही उलझन पड़ जाता है—और ऐसा होना स्वाभाविक है। जो कुछ वह सुन रहा था, वह उस रास्ते को खो देता है—वह उसे भूल जाता है, और उसे उत्तेजना के साथ इतना अधिक आता है कि वह परेशान हो जाता हैं, कि आखिर यह क्या हो रहा है?उसके अंदर ये सब कुछ क्या घट रहा है?

यह मूलाधार चक्र का स्वाधिष्ठान चक्र के साथ मिलन हो रहा है; तुम्हारे पुरूष चक्र तुम्हारे स्त्री चक्र के साथ मिल रहा है। जब तुम ध्यान में गतिशील होते हो, तब यह आनंद तुम्हें मिलता है, जब तुम प्रार्थना में डूबते हो तो तुम्हारे अंदर उत्सव आनंद घटने का यही साधन होता है। जिस क्षण मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र का मिलन होता हैं, उर्जा मुक्त होती है। ठीक वैसे ही, जब तुम अपनी स्त्री से प्रेम करते हो तो ऊर्जा मुक्त होती है। जब स्वाधिष्ठान और मूलाधार मिलते हैं, तो ऊर्जा मुक्त होती है, और वह ऊर्जा उच्चतम केंद्र मणिपुर पर चोट करती है। 

मणिपुर पुरूष है, अनाहत स्त्री है। एक बार तुम अपने अंदर की स्त्री और पुरूष के प्रथम मिलन के साथ लयबद्ध हो जाते हो, तो एक दिन अचानक दूसरा मिलन भी घटता है। तुम्हें इसके बारे में कोई भी कार्य नहीं करना है; प्रथम मिलन से मुक्त हुई उर्जा ही दूसरे मिलन की सम्भावना सृजित करती है। और जब दूसरे मिलन में उर्जा सृजित होती है तो वह तीसरे मिलन की सम्भावना उत्पन्न करती है।

तीसरा मिलन विशुद्ध और आज्ञा चक्र के मध्य होता है। और जब तीसरा मिलन होता है तब चौथे के लिए ऊर्जा सृजित होती है। जिसे एक मिलन नहीं है, जो एक मिलन न होकर एक योग अथवा ऐक्य होता है। सहस्रार अकेला होता है। वहां पुरूष-स्त्री नहीं होते। आदम और ईव एक दूसरे में पूर्ण रूप से समग्रता से घुलमिल कर विलुप्त हो जाते है। पुरूष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरूष बन जाता है। और सारे विभाजन मिट जाते है। यह परिपूर्ण और शाश्वत मिलन होता है। यह वहीं है, जिसे हिंदू सत्-चित्-आनंद कहते है। यह है वह घटना है जिसे जीसस परमात्मा का राज्यकहकर पुकारते हैं।

वास्तव में सात की संख्या का सभी धर्मों ने प्रयोग किया है। सप्ताह के साथ दिन प्रतीकात्मक हैं, और सातवें दिन अवकाश होता है। छ: दिन परमात्मा ने कार्य किया और सातवें दिन उसने विश्राम किया। तुम्हें छ: चक्रों पर कार्य करना होगा, सातवां है परम विश्राम की स्थिति परिपूर्ण विश्राम—तुम अपने शाश्वत घर में आ जाते हो।

सातवें चक्र के साथ तुम द्वैतता के एक खण्ड़ की भांति मिट जाते हो; सारी ध्रुवताएं और भेद विलुप्त हो जाते है। रात अब और रात नहीं है, दिन अब और दिन नहीं है। गर्मी अब और गर्मी नहीं रही, सर्दी अब और सर्दी नहीं रही। पदार्थ अब और पदार्थ न रहा, मन अब और मन नहीं रहा। तुम इन सभी के पार चले गए। यह सभी के पार शून्यता है, बुद्ध जिसे निर्वाण कहते हैं।

तुम्हारे अंदर ये तीन मिलन होते है, और चौथे की प्राप्ति होती हैं। जिसका एक दूसरा आयाम भी है। मैंने कई बार तुम से इन चार कदमों के बारे में चर्चा की है; निद्रा, स्वप्न, जागृतिऔर तुरीया। तुरीया का अर्थ है—चौथा, जो सभी के पार है। यह सात चक्र और उनके द्वारा कार्य करना उसकी इन चारों स्थितियां के साथ भी एक संगति है।

मूलाधार और स्वाधिष्ठान के मध्य मिलन जैसे एक नींद में होता है। मिलन होता है, लेकिन तुम उसके प्रति बहुत सचेत नहीं हो सकते हो। तुम उसका आनंद लोगे, तुम अपने अंदर एक बड़ी ताजगी सी उठती हुई पाओगे। तुम बहुत विश्राममय होने का अनुभव करोगे, जैसे मानो तुम एक गहरी नींद में हो, लेकिन तुम उसे ठीक-ठीक देखने में समर्थ न हो सकोगे—यह मिलन बहुत अंधकार में घटता है। तुम्हारे अंदर स्त्री और पुरूष मिले हैं, लेकिन वे अचेतन में मिले हैं, वह मिलन दिन के प्रकाश में नहीं हुआ है। वह अंधेरी रात में हुआ है। हां, उसके परिणाम का अनुभव होगा। तुम अपने अंदर अचानक एक नुतन ऊर्जा का, एक चमक और दीपिका अनुभव करोगे। तुम्हारे पास एक आभामंडल होगा। दूसरों को भी उसका अनुभव होना प्रारम्भ हो सकता है कि तुम्हारी उपस्थिति में एक विशिष्ट गुणात्मकता और तरंग है। लेकिन जो कुछ हो रहा है, तुम उसके प्रति ठीक से सजग नहीं होओगे। इस लिए मैं कहा रहा हूं प्रथम मिलन एक नींद कि तरह ही होता है या यूं कहो एक नींद में होता है।

दूसरा मिलन जैसे स्वप्न में होता है: जब मणिपुर और अनाहत मिलते हैं, जब तुम्हारा मिलन तुम्हारी अंदर की स्त्री के साथ होता है, तो लगता है, तो ऐसा लगता है मानों तुम एक स्वप्न में मिले हो। हां, तुम उसे थोड़ा सा याद रख सकते हो, ठीक जैसे की सुबह तुम पिछली रात देखे गए सपने का थोड़ा सा भाग यहां का और थोड़ा सा भाग वहां का और उसकी कुछ झलकों का स्मरण रख सकते हो। हो सकता है, पूरा सपना याद न हो, हो सकता है, उसकी कुछ बातें तुम भुल गए हो, लेकिन फिर भी तुम उसे याद रख सकते हो। दूसरा मिलन सपने जैसा होता है। तुम उसके बारे में और अधिक सजग हो जाओगे और तुम अनुभव करने लगोगे कि कुछ चीज़ होने जा रही है। तुम्हें अनुभव होने लगेगा कि तुममें परिवर्तन हो रहा है, कि तुम अब वही पुराने व्यक्ति नहीं हो और एक रूपांतरण अपने मार्ग पर है। और इस दूसरे के साथ तुम सजग होते जाओगे कि बाहर की स्त्री अथवा पुरूष में तुम्हारी दिलचस्पी कम होती जा रही है। और उससे अब तुम उतने उत्तेजित नहीं होते हो, जैसे कि पहले हुआ करते थे।

पहले मिलन के साथ भी वहां परिवर्तन होगा, लेकिन तुम उसके प्रति सजग नहीं बनोगे। पहले के साथ ही तुम यह सोचना शुरू कर सकते हो कि अब तुम अपनी स्त्री में उतनी दिलचस्पी और नहीं रखते हो, लेकिन तुम यह समझने में समर्थ न हो सकोगे कि अब तुम किसी भी स्त्री में जरा भी अभिरुचि नहीं रखते हो। तुम यह सोच सकते हो कि तुम अपनी स्त्री से ऊब चुके हो और तुम किसी दूसरी स्त्री के साथ प्रसन्न रहोगे कोई भी परिवर्तन अच्छा होगा, भिन्न वातावरण और भिन्न गुणों की स्त्री बदलना शुभ होगा। यह केवल एक अनुमान होगा। दूसरे मिलन के साथ तुम यह अनुभव करना शुरू कर दोगे कि तुम अब और किसी स्त्री अथवा पुरूष में अभिरुचि नहीं रखते हो और तुम्हारी दिलचस्पी अपने ही अंदर मुड़ जाने की है। तीसरे मिलन के साथ तुम पूर्ण रूप से एक जागे हुए व्यक्ति की भांति पूर्ण रूप से सजग होते हो। विशुद्ध का मिलन आज्ञा से हो रहा है; तुम पूर्ण रूप से सजग हो जाओगे और यह मिलन भी जिसे दिन के प्रकाश में घटित होता है। अथवा तुम इस तरह से कह सकते हो कि पहला मिलन अंधेरी रात के मध्यम में होता है। दूसरा मिलन रात-दिन की संध्या की तरह से होता है। और तीसरा भरी दोपहरी में होता है, जब तुम पूर्ण रूप से सजग होते हो, और प्रत्येक चीज बिलकुल स्पष्ट होती है। अब तुम भली भांति जानते हो कि बाहर की स्त्री अथवा पुरूष के साथ तुम्हारे संबंध जैसे समाप्त हो चुके है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपनी पत्नी अथवा पति को छोड़ दोगे। इसका सामान्य अर्थ यह है कि उनके प्रति तुम आसक्त और उत्तेजित नहीं होते। तुम करूणा का अनुभव करोगे। निश्चित रूप से जिस स्त्री न एक बहुत बड़ा मित्र बनकर अब तक तुम्हारी सहायता की और वह पुरूष जो एक महान मित्र बनकर तुम्हें इतनी दूर तक ले आया, तुम उसके प्रति कृतज्ञ हो, तुम दोनों एक दूसरे के प्रति अनुगृहित और करूणामय रहोगे।

ऐसा हमेशा होता है: जब समझ उत्पन्न होती है तो वह करूणा लाती है यदि तुम अपनी पत्नी को छोड़कर जंगल चले जाते हो तो इससे सामान्य रूप से यही प्रदर्शित होता है कि तुम निर्दयी और कठोर हो, अभी तुम्हारे अंदर करूणा का जन्म नहीं हुआ है। यह समझ से न होकर केवल न समझी से ही हो सकता है। यदि तुम समझते हो, तो तुम्हारे पास करूणा होगी।

जब बुद्ध बोध को उपलब्ध हुए तो उन्होंने अपने शिष्यों से पहली बात यही कही, मैं अपनी पत्नी यशोधरा के पास जाकर उससे बातचीत करना चाहता हूं। आनंद इस बात से बहुत परेशान हुआ। उसने कहा, ‘अब महल में वापस जाकर अपनी पत्नी से बातचीत करने का आपका क्या अभिप्राय है? आपने उसे छोड़ दिया है। और इस बात को बारह वर्ष गुजर गए।और आनंद थोड़ा सा अव्यवस्थित इस लिए भी था क्योंकि एक बुद्ध अपनी पत्नी के बारे में कैसे सोच सकता है?बुद्धों से हम यह उपेक्षा नहीं करते हैं कि वह इस तरह बात को सोचे?

जब वहां से दूसरे लोग चले गए, तो आनंद ने बुद्ध से कहां—यह अच्छा नहीं है?आखिर लोग इस बारे में क्या सोचेंगे?’

बुद्ध ने कहां—लोग क्या सोचेंगे?मुझे उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना है और मुझे उसने जो भी सहायता दी उसके लिए उसे धन्यवाद देना है। और मुझे उसे से कुछ और भी अभूतपूर्व देना है जो मुझे घटा है। मैं उसका बहुत-बहुत आभारी हूं, ये उसका ऋणी हूं, मुझे जाना ही होगा।

वह वापस लोट कर महल में गए और यशोधरा से भेंट की। यशोधरा पागल जैसी हो गई थी, क्योंकि यह व्यक्ति एक रात बिना उससे कुछ कहे, चुप के से रात के अंधेरे में चला गया था। उसने बुद्ध से कहा—आप मुझ पर विश्वास न कर सके?आपने मुझे कहा तो होता, कि आप जाना चाहते है, तो मैं संसार में अंतिम स्त्री होती जो आपको रोकती। आप मुझ पर इतना भी विश्वास नहीं कर सके?’ बारह वर्षों का एकत्रित क्रोध था, वह रोने और चीखने लगी। और यह व्यक्ति मध्यरात्रि में एक चोर की तरह से बिना उसे एक शब्द भी कहे, बिना कोई आहट किये, बिना किसी संकेत के अचानक घर से भाग गया था।

बुद्ध ने उससे क्षमा मांगी और कहां—वह मेरी नासमझी थी, मैं अज्ञानी था। मैं सचेत नहीं था। लेकिन अब मैं सचेत हूं और मैं इसे जानता हूं इसी कारण मैं वापस लौट कर आया हूं?तुमने मेरी अत्यधिक सहायता की है। अब वे पुरानी बातों को भुल जाओ, अब व्यर्थ का तर्क वितर्क करने या उस विषय में सोचने से कोई लाभ नहीं होगा, केवल आपका दुःख और अधिक गहरा हो जाएगा। तुम एक बार मेरी और देखों—कुछ महान घटना घटित हुई है मुझमें। मैं अपने शाश्वत घर में वापस लोट आया हूं। और मैंने तुम्हारे प्रति अपना पहले कर्तव्य का अनुभव किया कि मैं तुम्हारे पास आकर तुम्हें अपने अनुभव को सम्प्रेषित करते हुए तुम्हें उसमें अपना सहभागी बनाऊं।

यशोधरा का क्रोध चला गया, उसका रोष शांत हो गया। यशोधरा ने अपने आंसुओं को पोंछ कर उन्हें देखा। हां, यह व्यक्ति पूर्ण रूप से बदल गया है, यह वहीं व्यक्ति नहीं है। जिसे वह जानती थी। यह पहले के समान व्यक्ति जरा भी नहीं है। वह एक महान आलोकवान दिखाई देता है। वह उनके चेहरे के चारों और एक आभामंडल जैसे कुछ चीज देख सकती थी। और वह इतना अधिक शांत दिखाई दे रहे थे कि एक गहरा मौन वहां अचानक फैल गया। एक शुन्यता, अस्तित्वहीन हो और उसकी उपस्थिति लगभग अनुपस्थिति जैसी थी। और तब वह स्वयं यह भूल गई कि वह क्या कर रही थी। वह उनके चरणों में गिर पड़ी और दीक्षा मांगने लगी।

जब तुम समझ जाते हो, तो वहां करूणा का होना सुनिश्चित है। इसी कारण मैं अपने संन्यासियों से अपने परिवार छोड़ने के लिए नहीं कहता हूं। वहीं बने रहो।

इस प्रसंग के बारे में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक कविता लिख है जिसका भाव है—जब बुद्ध यशोधरा से मिलने जाते हैं, वो वह उनसे पूछती है—बस मुझे आप एक बात बतालाईये, जो कुछ आपको प्राप्त हुआ है—और मैं देख सकती हूं कि आप को कुछ मिला है, वह जो कुछ भी हो, मैं उसे नहीं जानती कि वह क्या है—पर मुझे केवल इतना बता दीजिए कि वह जो कुछ भी आप को मिला इस घर में इस जगह रहकर नहीं मिल सकता था?’

और तब बुद्ध एक दम चुप रह गए जैसे उनके होठों को किसी ने सी दिया हो, कैसे कहते की यह संभव नहीं था। वह घर में रहते हुए भी उसे प्राप्त कर सकते थे। अब वह जान गए थे कि उनका जंगल में अथवा परिवार या आश्रम के साथ कुछ लेना देना नहीं है।उसका किसी भी स्थान के साथ कुछ लेना-देना नहीं था। कुछ चीज़ें तुम्हें अपने अंतरस्थ केंद्र के साथ ही करना है, जो प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध है।

पहले मिलन में तुम्हें यह अनुभव होना प्रारम्भ करना होगा कि दूसरे व्यक्ति में तुम्हारी अभिरुचि शिथिल होती जा रही है। वह अंधेरे में घटने वाली एक धुंधली सी घटना होगी, जैसे तुम एक काले शीशे के द्वारा देख रहे हो, जैसे तुम एक बहुत कोहरे युक्त सुबह के द्वारा देख रहे हो। दूसरे मिलन में चीजें सपने जैसे थोड़ी स्पष्ट होने लगती हैं, अब कोहरा या धुंध कुछ कम हुई उतनी अधिक नहीं रह गई है। यह अनुभव एक स्वप्न वत जैसा लगेगा। तीसरे मिलन में तुम पूरी तरह जग जाते हो—अंदर की स्त्री से अंदर के पुरूष के मिलन की घटना घट जाती है। तब वहां दो ध्रुव या छोर नहीं रह जाते और अचानक तुम एक हो जाते हो। फिर विचारों, भावों और कार्यों से तारतम्य न होने वाली मानसिक रूग्णता विलुप्त हो जाती है और तुम खंडित नहीं होते हो।

इस एकता के साथ तुम एक वैयक्तिकता बन जाते हो। इससे पूर्व तुम एक व्यक्तिगत इकाई थे। तुम एक भीड़ और एक जन समूह थे। तुममें अनेक लोग थे और तुम बहु-चित वादी थे। अचानक तुम व्यवस्थित हो जाते हो। इसी वजह से यह प्राचीन कहानी कही जाती है।

वर्षा बुलाने वाले ने तीन दिनों का समय मांगा था—यदि कभी तुम इन छोटी-छोटी कहानियों के अंदर ध्यान से देखो तो विस्मय से व्याकुल हो जाओगे, क्योंकि उनके संकेत और प्रतीक बहुत अर्थपूर्ण हैं। उस मनुष्य ने शांत होकर बैठने के लिए तीन दिन का समय मांगा था। तीन ही दिनों का क्यों? उनके तीन उद्देश्य थे, निंद्रा में, स्वप्न में और जागृति में वह स्वयं अपने को व्यवस्थित रखना चाहता था। पहले वह निंद्रा में घटता है, फिर वह स्वप्न की तरह घटता है, और तीसरी बार वह जागृति में घटता है। और जब तुम व्यवस्थित हो जाते हो तो पूरा अस्तित्व व्यवस्था में आ जाता हैं। जब तुम्हारा विभाजन और खंडित होना मिट जाता है तो तुम एक साथ प्रत्येक चीज के मध्य एक सेतु द्वारा जुड़ जाते हो तब तुम्हारे अंदर एक वैयक्तिकता घटती है।

यह बहुत विरोधाभासी लगेगा लेकिन यह कहना ही होगा कि वैयक्तिकता सार्वभौमिक अथवा व्यापक है। जब तुम एक वैयक्तिकता बन जाते हो अचानक तुम देखते हो कि तुम सर्वव्यापक हो गए हो। अभी तक तुम सोचते रहे थे कि तुम अस्तित्व से पृथक हो, पर अब तुम ऐसा नहीं सोच सकते। आदम और ईव एक दूसरे में घुलकर विलुप्त हो गए हैं। यही वह लक्ष्य है जो प्रत्येक व्यक्ति इस तरह से या उस तरह खोजने का प्रयास कर रहा है। इसे प्राप्त करने के लिए, जो एक लक्ष्य है, तंत्र निःसंदेह रूप से विज्ञान हैं।

थोड़ी सी और भी चीज़ें है: मैंने तुमसे कहा था कि मूलाधार चक्र को विश्राममय होना होगा, केवल तभी तुम्हारे अंदर ऊर्जा ऊपर की और गतिशील हो सकती है। अंतरस्थ और ऊपर की और ऊर्ध्वगामी होने का समान अर्थ है। और बाहर और नीचे की और का भी समान अर्थ है। जब मूलाधार विश्राममय होता है, ऊर्जा अंदर तभी ऊर्ध्वगामी हो सकती है। इस लिए पहली बात यह है कि मूलाधार चक्र को विश्राममय करना है।

तुम अपने सेक्स केंद्र को बहुत कसकर अपने अधिकार में रखते हो। समाज ने तुम्हें अपने सेक्स केंद्र के प्रति बहुत अधिक सचेत बना दिया है, उसने उसके साथ तुम्हें बहुत पागल बना दिया हैं, और इसीलिए तुम उसे सख्ती से अपने अधिकार में रखते हो। तुम सामान्य रूप से इसका निरीक्षण कर सकते हो। तुम हमेशा अपनी जननेन्द्रियों को बहुत कसकर अपने नियंत्रण में रखते हो। जैसे मानों तुम्हें भय हो कि तुम उन्हें विश्राममय स्थिति में रखते हो तो जैसे तुम कोई अनुचित कार्य कर रहे हो। एक अपराध भाव...। तुम्हें घेरे रहता है। तुम्हारी पूरी कोशिश होती है उसे कसकर नियंत्रण में बनाये रखने की। उसे शिथिल करो और उसे स्वयं अपने पर छोड़ दो। भयभीत मत हो—भय से तनाव उत्पन्न होता है। भय को छोड़ो सेक्स सुंदर है, वह कोई अपराध या पाप न होकर एक अच्छाई समेटे है अपने आप में, अथवा एक गुणात्मक सौंदर्य। एक बार तुम उसे एक गुण अथवा अच्छाई के होने की भांति सोचते हो तो तुम उसे शिथिल करने में समर्थ हो सकोगे।

मैंने इस बारे में पहले भी बताया था कि मूलाधार चक्र को कैसे शिथिल बनाया जा सकता है। मैंने इस बारे में भी बताया था कि स्वाधिष्ठान चक्र को कैसे शिथिल किया जाए। क्योंकि यह मृत्यु का चक्र है। मृत्यु से भयभीत मत हो। यह दो सबसे बड़े भय हैं जो मनुष्य को नियंत्रित करते रहे है। मृत्यु का भय और सेक्स का भय। ये दोनों ही भय खतरनाक हैं। इन्होंने तुम्हें विकसित होने की अनुमित नहीं दी है। दानों भयों को छोड़ दो।

तीसरा चक्र मणिपुर है; जो नकारात्मक भावों से बोझल हैं। इसीकारण जब तुम भावनात्मक रूप से परेशान होते हो, तुम्हारा पेट अव्यवस्थित और खराब हो जाता है। मणिपुर तुरंत ही प्रभावित होता है। विश्व की सभी भाषाओं में हमारे पास इसी तरह की अभिव्यक्तियां है। मैं इसे पचा नहीं सकता, मैं इसे सहन नहीं कर सकता। शाब्दिक रूप से यह सत्य है। कभी-कभी जब तुम एक विशिष्ट चीज को हज़म नहीं कर पाते अथवा उसे सहन नहीं कर सकते, तुम्हारा जी मिचलाने लगता है। तुम्हें वमन करने जैसा लगता है। वास्तव में कभी ऐसा ही होता है—यह एक मनोवैज्ञानिक उलटी करने जैसा होता है। किसी व्यक्ति ने कुछ बात कही और तुम उसे पचा नहीं सके अथवा सहन नहीं कर सके कि अचानक तुम्हें चक्कर आने लगते हैं, तुम्हें उलटी करने जैसा लगता है, और उलटी कर देने के बाद तुम बहुत आराम का अनुभव करते हो।

योग में इसके लिए अनेक विधियां हैं। योगी को सुबह के समय बड़ी मात्रा में, नमक मिला हुआ बाल्टी भर गुन-गुना पानी पीना होता है और तब उसे वमन करना होता है। इससे मणिपुर को शिथिल होने में सहायता मिलती है। यह अंदर की सफाई करना बहुत बड़ी प्रक्रिया है।

तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि अब कई आधुनिक उपचार उलटी करने के प्रति सचेत हुए हैं। की इससे बहुत सहायता मिलती है। यह कार्य करने का विश्लेषण इस तथ्य के प्रति सचेत करना है कि उलटी करने से सहायता मिलती है। प्राइमल थेरेपी इस तथ्य के प्रति सचेत है कि उलटी करने से सहायता मिलती है। यह मणिपुर को मुक्त करना है। तंत्र और योग हमेशा इसके प्रति सचेत रहे है।

नकारात्मक भाव, जैसे क्रोध घृणा, ईर्ष्या और इसी तरह के अन्य सभी भाव बहुत अधिक दमित हैं। तुम्हारा मणिपुर पर इन सभी का बहुत अधिक भार है। यह दमित भाव एक चट्टान की तरह ऊर्जा को ऊर्ध्वगमन करने की अनुमति नहीं देते और तुम्हारा मार्ग उनसे अवरूध हो जाता है। एनकांउटर या गेस्टाल्ट थेरेपी के समान अन्य उपचार अनजाने में ही मणिपुर के ऊपर ही कार्य करते हैं। वे तुम्हारे क्रोध को उकसाते हैं, वे तुम्हारी ईर्ष्या और लालच को उत्तेजित करने का प्रयास करते हैं, वे तुम्हारे आक्रामकता और हिंसा को उभारते हैं, इसीलिए वह बुलबुलों की तरह सतह पर आ जाते हैं। समाज ने एक कार्य किया हैं, उसने तुम्हें जो सभी कुछ नकारात्मक है उसे दबाने की और जो सभी कुछ विधायक है, उसका झूठा दावा करने की शिक्षा दी है। अब यह दोनों ही खतरनाक हैं। विधायक भाव का बहाना बनाना एक झूठ और दम्भ है और नकारात्मक का दमन करना खतरनाक और विषैला है, वह तुम्हारी शारीरिक व्यवस्था को विष देने जैसा है।

तंत्र कहता है कि नकारात्मक और विधायक को अभिव्यक्त होने की अनुमति दो। यदि क्रोध आता है। तो उसे दबाओ मत, यदि आक्रामकता आती है तो उसका दमन मत करा। तंत्र यह नहीं कहता है कि जाओ और एक व्यक्ति की हत्या कर दो—लेकिन तंत्र कहता है कि दमित भावों को अभिव्यक्त करने के वहां अनेक उपाय है। तुम किसी बाग़ में जाकर लकड़ी काट सकते हो। क्या तुमने कभी लकड़हारों का कभी निरीक्षण किया है?वे किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक शांत दिखाई देते है। क्या कभी तुमने शिकारियों का निरीक्षण किया है?शिकारी लोग बहुत भले लोग होते हैं। वे बहुत गंदा कार्य करते हैं, लेकिन वे अच्छे लोग होते है। जब वे शिकार कर रहे हैं तो उन्हें कुछ चीज घटती है। जानवरों को मारते हुए उनका क्रोध और उनकी आक्रामकता धुल जाती है। तथाकथित अहिंसक लोग संसार में सबसे अधिक कुरूप व्यक्ति होते है। वे लोग भले नहीं होते क्योंकि वे अपने अंदर एक ज्वालामुखी दबाए रखते हैं। तुम्हें उनके साथ रहते हुए आराम और शांति का अनुभव नहीं हो सकता, वहां जैसे कि एक खतरनाक चीज की उपस्थिति बनी ही रहती है। और तुम उसका अनुभव कर सकते हो, तुम उसे स्पर्श भी कर सकते हो, वह सब उनके आस पास से बह रहा होता है। उनकी तरंगों के माध्यम से।

तुम बस जंगल के अंदर जाकर चीख सकते हो। अट्ठहास कर सकते हो। प्राइमल थेरेपी केवल चीखने चिलाने के द्वारा हल्के हो जाने का उपचार है और आवेश, क्रोध तथा चिड़चिडाहट निकालने के लिए एक थेरेपी है। और मणिपुर को विश्राम में ले जाने के लिए एनकांउटर प्राइमल और गेस्टाल्ट थेरेपी से अत्यधिक सहायता मिलती है।

एक बार मणिपुर शिथिल हो जाए, विश्राममय हो जाए तो ऋणात्मक और घनात्मक के मध्य एक संतुलन उत्पन्न होता है। और जब नकारात्मक और विधायक संतुलित हो जाते हैं तो मार्ग खुल जाता है, और जब ऊर्जा की और गतिशील हो सकती है। मणिपुर पुरूष है। यदि मणिपुर अवरूद्ध होता है तो ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन नहीं हो सकता है। उसे शिथिल बनाना ही है।

ध्रुवीय संतुलन से नकारात्मक और विधायक के मध्य संतुलन लाने के बारे में बहुत बड़ी सहायता मिल सकती है। इसी कारण मैं इस आश्रम में संसार भर की सभी विधियों को करने की अनुमति देता हूं। कोई भी चीज जो सहायक हो सकती है, उसका प्रयोग करना है, क्योंकि मनुष्य को इतनी अधिक हानि पहुंच चुकी है कि सहायता के सभी स्रोतों को उपलब्ध बनाया जाना चाहिए। हो सकता है कि तुम यह समझने में समर्थ न हो सको कि में तुम्हें योग, तंत्र, ताओ, सूफी, गेस्टाल्ट, साइकोड्रामा, एनकाउंटर, प्राइमल थेरेपी, दो ध्रुवों के मध्य संतुलन साधना सभी पूरी संरचना का एकीकृत करते हुए एक नई रचना में सहयोग देती है।

और उसके साथ जैनों, बौद्धों और हिन्‍दूओं की सभी विधियों और ये सभी विधियां तुम्हें में उपलब्ध क्यों करा रहा हूं? तुमने कभी भी यह सुना तक न होगा कि पूरब में कहीं भी किसीभी आश्रम में ये सब करवाई जा रही हैं। इसके लिए वहां एक कारण है; कि मनुष्य को इतनी अधिक हानि पहुंचाई जा चुकी है कि सभी स्रोतों से रस और सार लेना चाहिए। प्रत्येक सम्भव स्रोत से सहायता लेने ही चाहिए। केवल तभी यहां कुछ आशा हैं। अन्यथा मनुष्य का विनाश सुनिश्चित है।

चौथा चक्र अनाहत है। इस चक्र के साथ समस्या है संदेह की। यदि तुम एक संदेहशील व्यक्ति हो तो तुम्हारा चौथा चक्र बिना खुला ही बना रहता है। इसलिए कोई भी बीज़ जो संदेह उत्पन्न करती है, वह तुम्हारे हृदय को उजाड़ देती है, उसे ध्वस्त कर देती है। अनाहत है हृदय-चक्र। तर्क वितर्क करना, व्यर्थ की हुज्जत और वाद-विवाद करना तुम्हारे अंदर अरस्तू जैसी बहुत अधिक विचार शक्ति और किसी चीज को तर्क से सिद्ध करने का प्रयास, अनाहत चक्र को ध्वस्त कर देता है। तत्व ज्ञान तथा आलोचनात्मक प्रवृत्ति  अनाहत को ध्वस्त कर देती है।

यदि तुम अनाहत को खोलना चाहते हो तो तुम्हें और अधिक आस्थावान बनना होगा। तत्व ज्ञान की अपेक्षा काव्य कहीं अधिक सहायक हो सकता है। तर्क और विचारों की अपेक्षा अंतर्दृष्टि कहीं अधिक सहायक है, सोच-विचार करने की अपेक्षा अनुभूति कहीं अधिक सहायक है। इसलिए तुम्हें संदेह से विश्वास और आस्था की और जाना होगा, केवल तभी तुम्हारा अनाहत खुलता है, तभी तुम्हारा अनाहत, मणिपुर से आती हुई पुरूष-ऊर्जा को ग्रहण करने में योग्य बनता है। अनाहत स्त्री है, वह संदेह के साथ ही बद हो जाता है। वह संदेह के साथ ही प्राणहीन बन जाता है, वह संदेह के साथ ही शुष्क और रूखा हो जाता है—और वह पुरूष ऊर्जा को ग्रहण नहीं कर सकता। वह आस्था और श्रद्धा के साथ खुलता है जिसके साथ कुछ नमी अथवा रस, उस चक्र से मुक्त होता है। और वह पुरूष ऊर्जा को प्रवेश की अनुमति दे सकता है।

अब पाँचवाँ है, विशुद्ध चक्र, सृजनात्मकता तोते और बंदर की भांति अनुकरण करने की प्रवृति—इस चक्र के विकास में बहुत बाधा पहुंचाते वाली है।

बस हाल ही में मैं एक छोटा सा प्रसंग पढ़ रहा था.......

स्कूल में एक बच्चे से शिक्षक ने पूंछा—एक मुंडेर पर दस नकलची बैठे हुए हैं। उनमें से एक नीचे कूदा और भाग गया। अब बताओ वहां कितने बचे?’

और बच्चे ने उत्तर दिया—एक भी नहीं।

शिक्षक ने कहा—एक भी कैसे नहीं?केवल एक ने ही तो वह स्थान छोड़ा है।

बच्चे ने उत्तर दिया—सर वे लोग नकलची हैं। जब एक नीचे कूदेगा, तो सभी के सभी एक साथ नीचे कूद जाएगे।

विशुद्ध, अनुकरण करने से नष्ट हो जाता है। केवल एक कार्बन-कापी अथवा एक अनुकरण कर्त्ता मतबनोबुद्ध अथवा क्राइस्ट बनने का प्रयास मत करो। थामस ए केम्पिस की पुस्तक (क्राईस्ट का अनुकरण अनुसरण करना) जैसी पुस्तकों से सावधान रहो। सावधान रहो, अनुकरण करने से कोई सहायता मिलने नहीं जा रही हैं। अनुकरण करने और असृजनात्मकता से विशुद्ध चक्र ध्वस्त हो जाता है। तुम्हें अपनी जीवन-शैली खोजने में सृजनात्मकता और अभिव्यक्ति से सहायता मिलती है। प्रर्याप्त साहसी बनने से तुम अपने कार्य स्वयं अपने ढंग से करते हो। कला, गीत-संगीत, नृत्य आविष्कार करने की प्रवृति ये सभी सहायक होती हैं। लेकिन खोजी अथवा आविष्कार कर्ता बनने में—तुम जो कुछ भी करो, उसे एक नए ढंग से करने का प्रयास करो। उसमें कुछ व्यैक्तिकता लाने का प्रयास करो, उसमें अपने कुछ प्रमाणिक हस्ताक्षर लाने का प्रयास करो। फर्श को साफ करना भी, तुम उसे अपने ढंग से कर सकते हो, भोजन पकाना भी उसे तुम अपनी शैली से पका सकते हो। तुम जो कुछ भी करते हो, प्रत्येक चीज में तुम सृजनात्मकता और मौलिकता ला सकते हो। और वह लाना ही चाहिए। तुम जितने अधिक सृजनात्मक बनोगे, विशुद्धचक्र खुलेगा। और जब विशुद्ध खुलता है, केवल तभी ऊर्जा आज्ञा चक्रमें छठवें त्रिनेत्र के केंद्र में गतिशील हो सकती है।

यही प्रक्रिया है। पहले प्रत्येक चक्र को साफ कर उसे विशुद्ध बनाओ, उन बातों से सावधान रहो, जो उन्हें हानि पहुंचाती है। अथवा जो उन्हें स्वाभाविक रूप से कार्य करने में सहायता बनाती हैं। अवरोधों को हटा दो जिससे ऊर्जा तेजी से गति शील हो सके।

छठवे चक्र के पार है सहस्त्रार, तुरीया एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल। तुम्हारी खिलावट हो। हां, ठीक-ठीक यह वहीं है। मनुष्य एक वृक्ष है; मूलाधार उसकी जड़े हैं, और सहस्त्रारहै उसकी खिलावट का होना। पुष्प खिल चुका है वह तुम्हारी सुवास हवा में चारों और फैला देता है—केवल यही प्रार्थना है, दिवयता के चरणों में केवल उसको ही भेंट करना हैद्य नकली उधार लिए हुए फूलों से कार्य नहीं चलेगा, वृक्षों से तोड़करचुराए गए फूलों से भी काम नहीं चलेगा, तुम्हें स्वयं खिलकर फूल बनना होगा। और अपने पुष्प ही उसे भेट करने होंगे।

और अब सूत्र लेते है, पहला सूत्र है:

स्त्री और पुरूष एक दूसरे का चुम्बन लेकर अर्थात रूप, रस और स्पर्श का इन्द्रियजनित सुख पाने की लालसा के लिए एक दूसरे को धोखा दे रहे हैं। वे इन्द्रियों के विषय सुखों को ही प्रामाणिक सर्वोच्च परमानंद कहकर उसे पाने की घोषण कर रहे हैं। यह व्यक्ति उस पुरूष की भांति है, जो अपने अंदर स्थित स्त्री और पुरूष के मिलन और अपने अवव्यस्थित घर को छोड़कर, इन्द्रिय के द्वारों पर बाहर खड़ा हुआ है।

और बाहर की स्त्री से विषय भोग को आनंद की चर्चा करते हुए उससे प्राप्त सुख के बारे में आग्रहपूर्वक पूंछ रहा है।

चुम्बन प्रतीकात्मक हैं—यह यिन और यांग के मध्य, पुरूष और स्त्री के मध्य, शिव और शक्ति के मध्य होने वाले किसी भी मिलन को प्रतीक है। चाहे तुम एक स्त्री के हाथों को पकड़ रहे हो—यह एक चुम्बन ही है, हाथ एक दूसरे को चुम्बन ले रहे हैं—अथवा तुम अपने होठों से होठों का स्पर्श करते हो अथवा तुम दोनों अपनी जननेंन्द्रियों से स्पर्श करते हो, वह भी एक चुम्बन ही है। इसलिए तंत्र में दो विरोधी ध्रुवों का मिलन, प्रतीकात्मक रूप में एक चुम्बन ही है। कभी-कभी तुम केवल एक स्त्री को देखते हुए ही आंखों से उसका चुम्बन ले सकते हो। यदि तुम्हारे नेत्र एक दूसरे से मिलते हैं, और एक दूसरे को दूर से ही स्पर्श करते हैं। तो वह भी एक चुम्बन है, क्योंकि मिलन की घटना घट चुकी है।

 

स्त्री और पुरूष एक दूसरे का चुम्बन लेकर अर्थात रूप, रस और स्पर्श का इन्द्रियजनित सुख पाने की लालसा के लिए एक दूसरे को धोखा दे रहे हैं। वे इन्द्रियों के विषय सुखों को ही प्रामाणिक सर्वोच्च परमानंद कहकर उसे पाने की घोषण कर रहे हैं।

                               

सरहा कहता है कि वे लोग जो कुछ भी यह कर रहे हैं। वे उसके प्रति जरा भी सजग नहीं हैं। और लालसा के कारण ही पुरूष स्त्री से और स्त्री पुरूष से चूकते ही जा रहे हैं। वे दोनों एक दूसरे से मिलने के लिए निरंतर व्यग्र रहते हैं—और मिलन कभी होता नहीं हैं। इसकी मूर्खता यह है कि तुम लालसा और लालसा करते हो, मिलन की कामना और कामना करते हो और केवल निराशा ही मिलती है। सरहा कहता है कि अंतिम रूप से यह असती सर्वोच्च मिलन नहीं है। अंतिम रूप से सर्वोच्च तथा असली मिलन सहस्त्रार में होता है। एक बार वह मिलन घट जाता है तो वह हमेशा के लिए हो जाता है। वह असली मिलन है। जो मिलन बाहर होता है, वह नकली, सांसारिक और क्षणिक एक घोखा सा होता है।

 

यह व्यक्ति उस पुरूष की भांति है, जो अपने अंदर स्थित स्त्री और पुरूष के मिलन और अपने अवव्यस्थित घर को छोड़कर, इन्द्रिय के द्वारों पर बाहर खड़ा हुआ है। और बाहर की स्त्री से विषय भोग के आनंद की चर्चा करते हुए उससे विषय सुख के लिए और इस बारें में आग्रहपूर्वक पूंछ रहा है।

 

सरहा कहता है: एक सुंदर मुस्कान के साथ पुरूष बाहर खड़ी स्त्री का हाथ थाम रहा है। जब कि तुम्हारे अंदर की स्त्री तुम्हारी और हमेशा की लिए तुम्हारी बनने के लिए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।

 

यह व्यक्ति उस पुरूष की भांति है, जो अपने अंदर स्थित स्त्री और पुरूष के मिलन और अपने अवव्यस्थित घर को छोड़कर, इन्द्रिय के द्वारों पर बाहर खड़ा हुआ है। और बाहर की स्त्री से विषय भोग के आनंद की चर्चा करते हुए उससे विषय सुख के लिए और इस बारें में आग्रहपूर्वक पूंछ रहा है।

 

पहली बात—अपना घर छोड़ता हैं—तुम बाहर एक स्त्री की खोज में अपने अंतरस्थ केंद्र को अपने शाश्वत घर को छोड़ रहे हो—और वह स्त्री तुम्हारे ही अंदर है; तुम जहां कहीं भी जाओ, तुम उससे चूक जाओगे। तुम पूरी पृथ्वी भर पर चारों और दौड़ कर जा सकते हो, और सभी तरह की स्त्रियों और पुरूषों का पीछा सकते हो। यह एक मृगतृष्णा है, यह एक इन्द्रधनुष को पकड़ने की चाह है। लेकिन तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं आता है। स्त्री तुम्हारे अंदर ही है, और तुम बाहर की स्त्री की चाह में अपना शाश्वत घर छोड़ रहे हो।

और तन.....द्वार पर खड़े होकर...(यह भी प्रतीकात्मक है) तुम हमेशा अपनी इन्द्रियों के द्वार पर ही खड़े रहते हो—वे तुम्हारे ही द्वार हैं। आंखें द्वार हैं, हाथ द्वार हैं, जाननेन्द्रियों द्वार हैं, कान द्वार हैं—सभी इन्द्रियां द्वार हैं। हम हमेशा द्वार पर ही खड़े रहते हैं। एक पुरूष निरंतर आंखों के द्वारा देखते हुए, कान के द्वारा सुनते हुए, हाथों के द्वारा स्पर्श करने का प्रयास करते हुए, द्वारों पर ही खड़ा रहता है। और यह भूल जाता हैं कि वह अपने घर के आंद कैसे जाए। और तब उसकी मूर्खता देखो—तुम नहीं जानते कि प्रेम क्या होता है। और तुम एक स्त्री से विषय सुखों के अनुभव के बारे में और उसके आनंद के बारे में पूंछते हो। तुम सोचते हो कि तुम उसके अनुभव को सुनने के द्वारा ही परम आनंदित हो जाओंगे। यह भोजन करने के लिए भोजन सामग्री की सूची को देखने जैसा है।

सरहा कहता है कि पहले तुम स्वयं अपने बाहर जाते हो—फिर द्वार पर खड़े होते हो—और तब तुम दूसरों से पूंछते हो कि विषय सुख का आनंद क्या होता हैं, यह जीवन क्या है, और उसमें प्रसन्नता क्या है और परमात्मा क्या है? और परमात्मा पूरे समय ही तुम्हारे अंदर ही तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। और क्या तुम सोचते हो कि उन लोगों से सुनकर तुम किसी समझ तक पहुंच सकोगे?

जो योगी शून्यता के अंतराल में रहते हुए मन के पर्दे पर

जैविक उर्जाओं से आंदोलित होकर कल्पना में अनेक तरीको से

विकृत सुखों को सृजित करके उनका प्रक्षेपण करते हैं;

ऐसे योगी काल्पनिक वासना से प्रलोभित होकर

अपनी शक्ति खोकरकष्ट भोगते है,

वे अपने दिव्य स्थान से पतित होते हैं।

पहली बात: सेक्स ही सर्वोच्च आनंद नहीं है, वह तो केवल प्रारम्भ है, यह यूनानी भाषा का प्रथम वर्ण है और वह उसका अंतिम वर्ण नहीं है। सेक्स का सुख अंतिम रूप से वास्तविक नहीं है। वह परमानंद नहीं है, बल्कि केवल उसकी एक प्रतिध्वनि है, और वहां से सहस्त्रार बहुत है। जब तुम्हारा सेक्स केंन्द्र थोड़ा सी प्रसन्नता का अनुभव करता है, वह केवल सहस्त्रार की दूर से आती हुई प्रतिध्वनि होती है। तुम सहस्त्रार के जितने अधिक निकट आते हो, तुम उतने अधिक आनंद का अनुभव करते हो।

जब तुम मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान की और गति शील होते हो, तुम प्रसन्नता का अनुभव करते हो—मूलाधार और स्वाधिष्ठान के प्रथम मिलन में महान आनंद होता है। तब दूसरे मिलने में और अधिक आनंद होता है। तब तीसरे मिलन में और अधिक अधिक विश्वास नहीं कर सकते कि इतना अधिक आनंद भी संभव हो सकता है। लेकिन अभी भी और अधिक आनंद संभव है, क्योंकि तुम उससे अभी भी दूर-हो, बहुत अधिक दूर नहीं बल्कि फिर भी सहस्त्रार से कुछ फासला है। सहस्त्रार केवल अविश्वासनिय है, और वहां आनंद इतना अधिक है कि तुम बचते ही नहीं केवल परमात्मा ही बचता है। परमानदं इतना अधिक होता है कि तुम यह कह ही नहीं सकते—मैं आनंदित हूं,’ तुम पूरी तरह से यह जानते हो कि तुम ही आनंद हो।

सातवें पर तुम आनंद की केवल मात्र एक थर-थराहट अथवा एक कंपन बन जाते हो—और ऐसा होना स्वाभाविक है। सहस्त्रार में जो आनंद घटता है, तब उसे छ: पर्तो में से होकर गुजरना होता है। बहुत अधिक खो जाता है। केवल एक अनुगूंज भर रह जाती है। सावधान रहना, अनगूंज को वास्तविक मत समझ लेना। पर अनुगूंज में भी सत्य का वहां थोड़ा सा अंश रहता है। उसमें से सत्य का धागा खोज लेना। धागे को पकड़ कर अपने ही अंदर गतिशील होना शुरू हो जाना।

जो योगी शून्यता के अंतराल में रहते हुए

मन के पर्दे परजैविक उर्जाओं से आंदोलित होकर

कल्पना में अनेक तरीको से

विकृत सुखों को सृजित करके उनका प्रक्षेपण करते हैं;

और चूंकि इस धोखे के कारण कि सेक्स ही सर्वोच्च आनंद है, बहुत सी कृत्रिम चीजें भी बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है। धन बहुत अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है, क्योंकि धन से तुम किसी भी चीज को खरीद सकते हो; तुम सेक्स सुख खरीद सकते हो। शक्ति और सत्ता भी महत्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि इसके द्वारा तुम जितना अधिक सेक्स सुख चाहते हो, पासकते हो। एक निर्धन व्यक्ति वह खर्च नहीं कर सकता। राजा लोग अपने पास हजारों पत्नियां रख सकते थे—बीसवी सदी में निजाम हैदरावाद के पास पाँच सौ पत्नियां थी। स्वाभाविक है कि कोई भी व्यक्ति जिसके पास शक्ति और सत्ता है, वह जितना भी चाहे उतना ही अधिक सेक्स सुख पा सकता हैं। इस धोखे अथवा भ्रम के कारण ही कि सेक्स का सुख ही सर्वोच्च सत्य है। धन, शक्ति, सत्ता और प्रतिष्ठा आदि की अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

शून्यता के घर में जैविक ऊर्जाओं से आंदोलित होकर.....

यह केवल मात्र कल्पना है, केवल कल्पना में ही तुम यह सोच रहे हो कि यह आनंद है। यह आत्म सम्मोहन है, स्वयं अपने को दिए जाने वाले सुझाव हैं। और एक बार तुम स्वयं अपने को सुझाव देने लगते हो, तो वह आनंद जैसा ही लगते हैं। केवल सोचो; एक सुंदर स्त्री का हाथ पकड़ने पर तुम्हें कितने अधिक आनंद का अनुभव होता है। यह केवल आत्म सम्मोहन है। यह केवल मन में उठने वाला एक विचार है।

जैविक ऊर्जाओं से आंदोलित होकर.....मन में

इस विचार के कारण, तुम्हारी जैविक ऊर्जा आंदोलित हो उठती है। यह कभी नग्न स्त्रियों या पुरूषों के चित्रों को देखकर भी आंदोलित हो उठती है, वहां कोई भी व्यक्ति नहीं है, केवल रेखाएं, आकृतियां और रंग मात्र है। और तुम्हारी ऊर्जा आंदोलित हो सकती है। कभी-कभी मन में केवल इस बात का विचार आ जाये और ऊर्जा आंदोलित हो सकती है। ऊर्जा कल्पना का अनुसरण करती है।

शून्यता के घर में जैविक ऊजाओं से आंदोलित होकर.....

तुम स्वप्न सृजित कर सकते हो, तुम शून्यता के पर्दे पर सपनों को प्रक्षेपित कर सकते हो—

कृत्रिम तरीकों से कल्पना में अनेक विकृत

सुखों को सृजित करके उनका प्रक्षेपण करते हो।

यदि तुम मनुष्य के रोग विज्ञान का निरीक्षण करो तो तुम्हें आश्चर्य होगा; लोगों के पास ऐसे विचार होते हैं कि तुम यह विश्वास ही नहीं कर सकते कि यह क्या हो रहा है। कुछ पुरूष अपनी स्त्री के साथ तब तक प्रेम कर ही नहीं सकते, जब तक पहले वह नग्न स्त्री और पुरूष के संभोगरत चित्र न देख लें। नकली की अपेक्षा, असली कम असली दिखाई देता है, केवल नकली चित्रों के द्वारा ही वे उत्तेजित हो पाते हैं। क्या तुमने अपने जीवन में इसे बार-बार नहीं देखा है—कि नकली की अपेक्षा वास्तविक कम उत्तेजना पूर्ण प्रतीत होती है?

रूउमा इस क्षण इसी जगह बैठी हुई है। वह नेरोबी से आई है। हाल ही में उसने मुझसेकहां—ओशो! में नेरोबी में आपके लिए अत्यधिक व्यग्र रहती थी। मैं आपके बारे में सपने देखती थी। मैं कल्पना में आपके अनेक चित्र बनाती थी। और मैं आपसे मिलने के लिए ही इतनी अधिक दूर से आई हूं। लेकिन अब मेरे हृदय में उस तरह की व्यग्रता नहीं है। आखिर यह हुआ क्या?’ कुछ भी नहीं हुआ; यह केवल इतना ही है कि वास्तविक व्यक्ति की तुलना में हम काल्पनिक व्यक्ति के साथ अधिक प्रेम पूर्ण होते है। अवास्तविक, कहीं अधिक वास्तविक बन जाता है। इसलिए नेराबी में तेरे पास तेरे ओशोथे। वह तेरी कल्पना थी। वह तेरा अपना विचार था, मेरा उसके उसके साथ कुछ भी लेना देना नहीं है। लेकिन जब तू मेरे पास आ गई है, और मैं यहां हूं, तब अचानक तेरे काल्पनिक विचार अब और अधिक संगत नहीं रह गए हैं। तू अपने मन में एक सपना लेकर आई है, और मेरी वास्तविकता उस सपने को नष्ट कर देगी।

स्मरण रहे, तुम अपनी चेतना को काल्पनिक से वास्तविकता में बदलना है। हमेशा जो प्रामाणिक और वास्तविक है, उसी का बात सुनो। जब तक तुम बहुत सजग नहीं हो तुम काल्पनिक के जाल में ही फंसे रहोगे।

कई कारणों से काल्पनिक छवि बहुत अधिक संतुष्ट करने वाल प्रतीत होती है। वह तुम्हारे नियंत्रण में होती है। तुम्हारे पास ओशो की नाक उतनी अधिक लम्बी हो सकती है, जितनी की तुम कल्पना में चाहते हो। तुम जो कुछ भी सोचना चाहो, सोच सकते हो। कोई भी व्यक्ति उसमें अवरोध नहीं बन सकता, कोई भी व्यक्ति तुम्हारी कल्पना में प्रवेश नहीं कर सकता है। तुम पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हो। तुम अपनी अपेक्षा के अनुसार मेरी कल्पना कर सकते हो। तुम जैसा भी चाहों मुझे चित्रित कर सकते हो, तुम मुझे जो कुछ जैसा भी बनाना चाहो बना सकते हो। तुम पूर्ण स्वतंत्र हो, अहंकार को बहुत अच्छा होने का अनुभव होता है।

इसी कारण जब एक सद्गुरु मर जाता है, तो जब वह जीवित था, उसकी अपेक्षा वह कहीं अधिक शिष्य पा लेता है। एक मृत सद्गुरू के साथ, शिष्य पूर्ण रूप से सुविधापूर्ण होते हैं, जब कि एक जीवित सद्गुरू के साथ वे कठिनाई में रहते हैं। बुद्ध के पास कभी भी उतने शिष्य नहीं थे जितने की अब पच्चीस शताब्दियों के बाद उनके पास हैं। जीसस के पास केवल बारह शिष्य थे; अब देखों आधी पृथ्वी इसाई बन गई है।

एक अनुपस्थित सद्गुरू के अध्यात्म को तुम यथार्थ में देखो, अब जीसस तुम्हारे हाथों में हैं, तुम उनके साथ जो कुछ भी करना चाहो कर सकते हो। वह अब और अधिक जीविंत नहीं हैं। वह तुम्हारे सपनों और कल्पनाओं को नष्ट नहीं कर सकते हैं। यदि तथाकथित ईसाइयों ने असली जीसस को देखा होता तो उनके हृदयों की धड़कन तुरंत बंद हो जाती। क्यों? क्योंकि वे विश्वास ही नहीं करते। उनके पास जीसस के बारे में जो काल्पनिक चीजें हैं, और जीसस एक वास्तविक मनुष्य हैं। यदि तुम उन्हें शराबखाने में मित्रों के साथ शराब पीते और गप्पें मारते देख सकते, तो वह तुम्हें केवल परमात्मा द्वारा उत्पन्न किये गए पुत्र। जैसे न दिखाई देते। वह बहुत सामान्य प्रतीत होते। वह हो सकता है तुम्हें जोसफ नाक के बढ़ई के एक पुत्र की भांति दिखाई देते। लेकिन एक बार जीसस चले गए, वह तुम्हारी कल्पना में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। तब तुम जैसी चाहों उनकी छवि सृजित कर उसका चित्र बना सकते हो।

बहुत दूर होने से वह आसान हो जाता है क्योंकि कल्पना के पास पूरी शक्ति होती है। तुम जितने अधिक निकट आते हो, तुम्हारे पास तुम्हारी कल्पना की शक्ति कम से कम होती जायेगी। और तुम जब तक अपनी कल्पना न छोड़ दो, तब तक तुम मुझे देखने में कभी भीसमर्थ न हो सकोगे। ऐसी ही स्थिति अन्य सभी दूसरे सुखों के भी साथ है।

जो योगी शून्यता के अंतराल में रहते हुए मन के पर्दे पर

जैविक उर्जाओं से आंदोलित होकर कल्पना में अनेक तरीको से

विकृत सुखों को सृजित करके उनका प्रक्षेपण करते हैं;

ऐसे योगी काल्पनिक वासना से प्रलोभित होकर

अपनी शक्ति खोकर कष्ट भोगते है,

वे अपने दिव्य स्थान से पतित होते हैं।

यदि तुम बहुत अधिक कल्पना करते हो तो तुम अपने दिव्य स्थान को अर्थात स्वर्ग जैसे स्थान को खो दोगे।  कल्पना ही समासारा है, कल्पना ही तुम्हारा सपना है। यदि तुम सपने बहुत अधिक देखते हो तो तुम अपनी शून्यता की दिव्य स्थिति को खो दोगे और तब तुम एक चैतन्य प्राणी नहीं बन सकोगे। कल्पना तुम्हारे ऊपर बहुत अधिक बोझ लाद देगी। तुम किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा कल्पना में अपने को बहुत महान समझने लगोगे और अपनी सनक में खो जाओगे। तुम अपनी सनक अथवा झक में मूर्च्छित भी हो सकते हो, और तुम सोच सकते हो कि यह समाधि है। इस बारे में ऐसे लोग हैं जो मूच्छित हो जाते हैं। और तब वे सोचने लग जाते है कि वे समाधि में चले गये थे। बुद्ध ऐसी समाधियों को अधर्मपूर्ण और अशुद्ध समाधि कहते थे। इसीलिए सरहा कहता है कि यह अशुद्ध और अधर्मपूर्ण समाधि हैं। परमात्मा के बारे में कल्पना करना, अपनी कल्पना में आगे बढ़ते ही जाना है, अपनी कल्पना को अधिक से अधिक भोजन देना और अपनी सनक में अधिक से अधिक डूबते जाना, तुम निश्चित रूप से अपनी चेतना को खो दोगे और मुर्च्छित हो जाओगे और अपने द्वारा सृजित किए गए सुंदर सपने देखने लगोगे।

लेकिन यह अपनी दिव्य शून्यता की स्थिति और स्थान से पतित हो जाता है। सरहा कहता है कि अपनी सचेतनता की शुद्धता से नीचते गिर जाना ही अधर्म अथवा पाप है। अर्थात दिव्य शून्यता की स्थिति से उसका क्या अर्थ है; बिना किन्हीं सपनों का शून्य अंतराल स्वप्न देखना ही संसार में बने रहना है और बिना सपनों के ही तुम निर्वाण में हो।

जैसे ब्राह्मण जो यज्ञ की अग्नि की लपटों में

अन्न और घी की आहुति देकर

मंत्रो चार आदि का अनुष्ठान करता है

कामना करता है कि वह स्वर्ग में स्थान पा जाएगा

और वह स्वप्न देखते हुए,

कल्पना में पुण्य रूपी पात्र को सृजित करता है।

भारत में ब्राह्मण यज्ञ करते रहे हैं। वे लोग अग्नि में चावल आदि अन्न और घी की आहुति देते हैं और यह कल्पना करते हैं कि यह भेंट परमात्मा तक पहुंच रही है। कई दिनों तक उपवास करते हुए अग्नि के चारों और बैठकर विशिष्ट शास्त्रों से विशिष्ट मंत्रोच्चार दोहराते हुए तुम विशिष्ट अनुष्ठान करते हुए एक आत्म सम्मोहन की स्थिति सृजित कर सकते हो। इससे तुम स्वयं अपने को मूर्ख बना सकते हो और तुम सोच सकते हो कि तुम परमात्मा के निकट पहुंच रहे हो।

सरहा कहता है कि जो लोग वास्तव में दिव्यता में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें अपने अंदर ही अग्नि उत्पन्न करनी होगी और बाहर की अग्नि से कुछ भी नहीं होगा। उन्हें स्वयं अपनी कामनाओं के ही अन्य सभी रूप जला देने होंगे। चावलों की अग्नि में आहुति देने से कुछ भी नहीं होगा। और वे लोग जो वास्तव में सत्य को उपलब्ध होना चाहते हैं, उन्हें अपने अहंकार को जलाकर नष्ट कर देना होगा, घी की आहुति देने से कुछ भी नहीं होने वाला। घी, दूध का सबसे अधिक सारभूत भाग है, वह दूध का सबसे अधिक विशुद्ध रूप है। इसी तरह अहंकार भी सबसे अधिक विशुद्ध सपना है, जो ठीक घी की ही भांति है। अग्नि को घी की भेंट करके कोई भी सहायता मिलने वाली नहीं है। तुम्हें अपनी अंतराग्नि प्रज्वलित करनी होगी।

और ऊर्ध्वगमन होती हुई कामऊर्जा एक अग्नि शिखा बन जाती है। वह एक अग्नि मय ऊर्जा है। जब बाहर की और भी गतिशील होती हैं, वह जीवन को जन्म देती है। काम ऊर्जा सबसे अधिक विलक्षण चीज़ है। काम ऊर्जा के द्वारा ही जीवन का जन्म होता है। जीवन एक अग्नि है, उसका कार्य अग्नि जैसा ही है, बिना अग्नि के जीवन अस्तित्व में नहीं रह सकता। बिना सूर्य की ऊष्मा और प्रकाश के वहां न तो वृक्ष होंगे, न पक्षी जानवर, और मनुष्य ही होंगे। वह रूपांतरित अग्नि ही है जो जीवन बन जाती है।

एक स्त्री से प्रेम करते हुए, कामाग्नि बाहर की और जाती है। जब वह अंदर की और गतिशील हो रही है तो अग्नि अंदर जा रही है। और जब तुम इस अग्नि में अपनी कामनाओं के बीज, विचारों के बीज, महत्वाकांक्षा और लोभ के बीज फेंकते हो तो वे जल जाते हैं। और तब अंतिम रूप से तुम अहंकार को जो स्वप्न का सबसे अधिक शुद्धतम रूप है अग्नि में घी की आहुति की भांति फेंक देते हो, तो वह भी जल जाता है। यही असली यज्ञ असली अनुष्ठान और वास्तविक बलिदान है।

जैसे ब्राह्मण जो यज्ञ की अग्नि की लपटों में

अन्न और घी की आहुति देकर

मंत्रो चार आदि का अनुष्ठान करता है

कामना करता है कि वह स्वर्ग में स्थान पा जाएगा

और वह स्वप्न देखते हुए,

कल्पना में पुण्य रूपी पात्र को सृजित करता है।

और वह सोचता है कि कामनापूर्ण विचार से किया गया कृत्य ही अंतिम या सर्वोच्च है। वह पुरूष जो एक स्त्री से प्रेम कर रहा है और सोचता है कि ठीक यज्ञ की भांति ही बाहर की अग्नि में बीज और वीर्य रूप घृत फेंकना ही सर्वोच्च कृत्य है, वह कुछ चीज़ बाहर ही उड़ेल रहा है। और इसी तरह एक स्त्री, जो सोचती है कि वह प्रेम करते हुए आंनद और अनुग्रह के महान अंतराल की और गतिशील हो रही है और एक पुरूष से प्रेम करते हुए वह केवल अपनी अग्नि को बाहर फेंक रही है।

अग्नि को अंदर की और गतिशील होना है तभी वह तुम्हें पुनर्जन्म देती है। तुम्हें फिर से युवा और जीवंत बनाती है।

जो लोग अपनी काम उर्जा की अग्नि को जागृत कर

कंठ तक उसका ऊर्ध्वगमन कर लिया

वे जिह्वा को उल्टा कर विशुद्ध चक्र की उर्जा को छूते है

वहां उठी काम उर्जा का स्पर्श से संभोग का आनंद ले सकें

वह उस उर्जा को विशुद्ध चक्र पर रोक कर

मुक्ति पाने का भ्रम उत्पन्न करते है

क्या ऐसे योग भ्रष्ट अहंकारी लोग अपने को योगी कहेंगे?

और एक बहुत महत्वपूर्ण चीज है; जैसा कि मैंने तंत्र के मानचित्र को स्पष्ट किया है, तुम्हें यह स्मरण रखना होगा कि विशुद्ध जो पांचवां चक्र है, कंठ में होता है, विशुद्ध अर्थात कंठ-चक्र वह अंतिम बिंदु है जहां से तुम्हारी उर्ध्वगामी काम ऊर्जा फिर से नीचे गिर सकती है। उस बिंदु तक उर्ध्वगामी ऊर्जा के नीचे गिर जाने की संभावना बनी ही रहती है। छठवें चक्र त्रिनेत्र पर ऊर्जा के पहुंच जाने पर फिर उसके नीचे गिरने की वहां से कोई भी सम्भावना नहीं रहती है। तुम उस बिंदु के पार चले गए हो, जहां से कोई वापस लौट सकता है। त्रिनेत्र ही वह स्थान है, जहां से फिर वापस लौटना नहीं होता। यदि तुम तीसरी आँख के केंद्र तक पहुंच कर मर जाते हो तो जब तुम्हारा नया जन्म होगा, तब भी तुम तीसरी आँख के केंद्र पर ही होगे। यदि तुम सहस्त्रार पर पहुंचने के बाद मरते हो, तो फिर तुम्हारा जन्म न होगा। लेकिन यदि तुम विशुद्ध चक्र पर होते हुए मर जाते हो तो तुम फिसल कर पहले मूलाधार चक्र पर वापस फैंक दिए जाते हो। अगले जन्म में तुम्हें यात्रा फिर से मूलाधार से ही शुरू करनी होगी।

इसलिए एक बात का ध्यान रखें की पांचवें चक्र यानि की विशुद्ध चक्र तक कोई भी सुनिश्चिता नहीं है। वहां रूकने का स्थान नहीं है, वहां ठहराव की कोई सुनिश्चिता नहीं है, पांचवें तक से आप नीचे लोट कर आ सकते हो। आप नीचें गिरने की संभावान से बच नहीं सकते हो। भारत में बहुत से लोगों के साथ यही होता आ रहा है। यहीं कारण है कि यह सूत्र कहता है:

लोगों अपनी काम उर्जा की अग्नि को जागृत कर

कंठ तक उसका ऊर्ध्वगमन कर लिया.......... 

तुम आंतरिक ऊष्मा सृजित कर सकते हो—तुम्हारी अग्नि लपट का ऊर्ध्वागमन होना प्रारंभ हो जाता है और वह कंठ तक आ जाती है, तब वहां जीभ के द्वारा कंठ को स्पर्श कर गुदगुदाने की तीव्र कामना उत्पन्न होती है। इस से सावधान रहो। भारत में उन्होंने जीभ के साथ कंठ को स्पर्श कर गुदगुदाने की महान विधियां और उपाय खोजे हैं। उन्होंने जीभ की जड़ो को काट दिया गया है जिससे जीभ लम्बी हो जाए और सरलता से पीछे की और गतिशील हो सके। तुम अनेक योगियों को ऐसा करता हुआ पा लोगे। जीभ पीछे की और लोट सकती है। और वह पांचवें चक्र का स्पर्श करते हुए उसे गुद-गुदा सकती है। यह गुद-गुदाना हस्तमैथुन करने की भांति है, क्योंकि कामऊर्जा वहां तक आ गई है।

जैसे मैंने तुमसे कहा कि पांचवां विशुद्ध चक्र पुरूष होता है। जब पुरूष ऊर्जा कंठ तक आ जाती है, तो तुम्हारा कंठ लगभग जननेन्द्रिय जैसा बन जाता है। और जननेन्द्रिय की अपेक्षा उसमें कहीं अधिक श्रेष्ठता और कहीं अधिक कौशल होता है। जीभ के साथ उसे थोड़ा सा गुदगुदाने से ही तुम बहुत बड़ा सुख और मज़ा पाते हो। लेकिन यह हस्त मैथुन जैसा ही है। और एक बार तुम इसे करना शुरू कर देते हो.....तब तुम्हें वहां बहुत-बहुत बड़ा आनंद मिलने लगता है, सेक्स आनंद इसकी तुलना में कुछ भी नहीं है। स्मरण रहे: इसके मुकाबले सेक्स यथार्थ में कुछ भी नहीं है। अपनी जीभ के साथ उसे गुद-गुदाने अथव स्पर्श करने तुम उसमें बहुत बड़ा आनंद प्राप्त कर सकते हो। इसलिए योग में इस बारे में कई विधियां हैं।

सरहा स्पष्ट करते हुए कह रहा है कि किसी भी तांत्रिक को ऐसा नहीं करना चाहिए, यह एक धोखा और बहुत बड़ी असफलता है कि ऊर्जा पांचवें चक्र तक आ गई है, और अब उसे सहलाने अथवा गुदगुदाने मात्र से कामना उठती है। यह अंतिम कामना होती है। यदि तुम अपने को सजग बनाये रख सकते हो, तो तुम इस कामना के पार जा सकते हो और तब तुम छठवें केंद्र आज्ञाचक्र पर पहुंचोगे, अन्यथा तुम फिर वापस नीचे गिरना शुरू हो जाओगे। यह आखिरी प्रलोभन होता है। वास्तव में तंत्र में यक कुछ उसी तरह का प्रलोभन है जिसके बारे में तुम कह सकते हो कि यह जीसस को भी दिया गया था। जब शैतान उनके पास आया और उसने उन्हें प्रलोभन दिया था अथवा यह बुद्ध को दिया गया था जब कामदेव ने उन्हें प्रलोभन दिया था। यह आखिरी प्रलोभन है। कामनायुक्त मन का यह अंतिम प्रयास है, तुम्हारे स्वप्न-संसार का यह अंतिम प्रयास है। अपने पूरी तरह से नष्ट होने से पूर्व अहंकार की यह आखिरी कोशिश है। तुम्हारे प्रलोभित करने का अंतिम अवसर उसके पास है। उसका ये अंतिम हथियार है। और वास्तव में यह बहुत बड़ा प्रलोभन है; और इसकी उपेक्षा करना बहुत कठिन होता है। यह इतना अधिक आनंददायक होता है कि यह सेक्स के आनंद की अपेक्षा अनंत गुण अधिक होता है।

जब लोग सोचते हैं कि संभोग का आनंद ही सर्वोच्च है, तब इस जीभ से स्पर्श करने के आनंद के बारे में क्या कहा जाये? सबसे मजे की बात यह है की इसमें कोई ऊर्जा भी नहीं खोती है। सेक्स करने में तुम्हें अपनी ऊर्जा खोनी होती है, उसके बाद तुम थकावट, कमजोरी और निराशा से घिरा हुआ अनुभव करते हो। लेकिन यदि तुम अपनी काम ऊर्जा को जब वह कंठ तक आ जाती है, अपनी जीभ से गुद-गुदाते हो तो उस स्थान पर तुम कोई ऊर्जा नहीं खोते हो। तुम उस सुख को पूरा दिन प्राप्त कर सकते हो। बिना किसी प्रकार की हीनता के। क्योंकि आपकी इस क्रिया को कोई देख ही नहीं रहा होता है। तुम डेलगाडो के यंत्र की भांति उसका उपयोग कर सकते हो।

जो लोग अपनी काम उर्जा की अग्नि को जागृत कर

कंठ तक उसका ऊर्ध्वगमन कर लिया

वे जिह्वा को उल्टाकर विशुद्ध चक्र की उर्जा को छूते है

वहां उठी काम उर्जा का स्पर्श से संभोग का आनंद ले सकें

वह उस उर्जा को विशुद्ध चक्र पर रोक कर

मुक्ति पाने का भ्रम उत्पन्न करते है

क्या ऐसे योग भ्रष्ट अहंकारी लोग अपने को योगी कहेंगे?

यह फिर समासार ही है—समासार में वापस लौटकर गिर जाना ही है।

क्या ऐसे योग भ्रष्ट अहंकारी लोग अपने को योगी कहेंगे?.....

लेकिन वे सच्चे योगी नहीं है। वे उससे चूक रहे है, वास्विकता से बचने का एक उपाय है, वास्तव में उनके लिए ठीक शब्द योगभ्रष्ट ही है, ऐसे लोग जो इस महान ऊँचाई तक पहूंच कर फिर पतित हो जाते है।

पांचवां केंद्र सबसे अधिक खतरनाक केंद्र है। तुम किसी अन्य केंद्र को स्पर्श कर उसे नहीं गुद-गदा सकते हो—यही इस केंद्र का खतरा है। तुम स्वाधिष्ठान चक्र को नहीं गुद-गुदा सकते हो। तुम मणिपूर को नहीं गुद-गदा सकते हो, तुम अनहत केंन्द्र को नहीं गुद-गुदा सकते हो। वे सब तुम्हारी पहूंच के पार है। उन तक पहुंचने का और उन्हें गुद-गदाने का कोई भी उपाय तुम्हारे पास नहीं है। तुम त्रिनेत्र को स्पर्श कर उसे नहीं गुद-गुदा सकते हो। केवल एक मात्र वह केंद्र है विशुद्ध चक्र जिसे तुम विकृत कर सकते हो। जिसे तुम गुद-गुदा सकते हो। जिसे गुद-गुदाया जा सकता है। क्योंकि वह इस कार्य के लिए उपलब्ध होता है। मुख को खोलो और वह उपलब्ध है और अपनी जीभ को पीछे लौटाकर अथवा उल्टाकर कंठ को गुद-गुदाने का उपाय है। योग की पुस्तकों में तुम इसका वर्णन पाओगे जैसे यह कोई बहुत महान चीज हो, जो है असल में है नहीं। इसके प्रति साधक को सावधान रहना होगा।

तंत्र के रसायन को यह अंदर का मानचित्र है ऊर्जा का गतिशील होना किसी भी समय प्रारंभ हो सकता है, तुम्हें केवल अपने प्रेम करने में थोड़ा ध्यान लाना होगा, थोड़ी सी अंदर की और जाने की प्रवृति लानी होगी। स्मरण रहे: तंत्र प्रेम करने के विरोध में नहीं है, मैं इस बात को बार-बार दोहरना चाहता हूं, यह सभी कुछ इसके ही लिए है; लेकिन केवल इसके ही लिए नहीं है; वह सात डंडों की सीढ़ी में उसका पहला डंडा है।

मनुष्य ही वह सीढ़ी है। पहला डंड़ा है—सेक्स और सातवां डंडा है सहस्त्रार-समाधि। पहला डंडा तुम्हें समासार से जोड़ता है, संसार से जोड़ता है और सातवां डंडा तुम्हें निर्वाण से अर्थात उस पार से जोड़ता है, पहले डंडे के साथ तुम जन्म-मरण के दुष्चक्र में बार-बार पड़ते जाते हो। उसे दोहराते रहते हो। सातवें डंडे के साथ तुम जन्म और मृत्यु के पार जा ते हो। शाश्वत जीवन तुम्हारा ही है—और तुम्हारे लिए ही परमात्मा का राज्य है।

आज इतना ही।

 

 

 

 

 

                                         

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

          

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