तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-दूसरा-(स्वतंत्रता
है उच्चतम मूल्य)
दिनांक
02 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न: प्यारे ओशो!
मेरे अंदर प्रेम का होना बाहर के संसार पर
आश्रित है। इसी समय इसके साथ मैं देखता और समझता हूं कि आप, स्वयं तो हमें अंदर पूर्ण रूप से बने रहने के
बारे में भी कहते हैं। ऐसे प्रेम के साथ क्या होता है, यदि वहां पर न कोई भी चीज़ हो और न कोई भी
व्यक्ति हो जो उसे पहचान सके और उसका स्वाद ले सके?
बिना
शिष्यों के आपका क्या अस्तित्व हैं?
पहली बात: इस जगह दो तरह के प्रेम हैं। सी. एस. लेविस ने प्रेम को दो किस्मों में विभाजित किया हैं—‘जरूरत का प्रेम’ और ‘उपहार का प्रेम’। अब्राहम मैसलो भी प्रेम को दो किस्मों में बांटता है। पहले को वह जरूरी प्रेम अथवा कमी अखरने वाला प्रेम कहता है, और दूसरे तरह के प्रेम को ‘आत्मिक प्रेम’ कहता है। यह भेद अर्थपूर्ण है और इसे समझना है। जरूरत का प्रेम और कमी अखरने वाला प्रेम दूसरे पर आश्रित होता है। यह एक अपरिपक्व प्रेम होता है। वास्तव में यह सच्चा प्रेम न होकर एक जरूरत होती है। तुम दूसरे व्यक्ति का प्रयोग करते हो, तुम दूसरे व्यक्ति का एक साधन की भांति प्रयोग करते हो; तुम उसका शोषण करते हो, तुम उसे अपने अधिकार में रखकर उस पर नियंत्रण रखते हो। लेकिन दूसरा व्यक्ति आधीन होता है और लगभग मिट जाता है; और दूसरे के द्वारा भी ठीक ऐसा ही समान व्यवहार किया जाता है। वह भी तुम्हें नियंत्रण में रखते हुए तुम्हें अपने अधिकार में रखना चाहता है और तुम्हारा उपयोग करना चाहता है।
किसी दूसरे मनुष्य को उपयोग करना बहुत ही अप्रेम पूर्ण है। इसलिए वह केवल प्रेम जैसा प्रतीत होता है, लेकिन यह एक नकली सिक्का है। लेकिन ऐसा ही लगभग निन्यानवे प्रतिशत लोगों के साथ होता है, क्योंकि प्रेम का यह प्रथम पाठ तुम अपने बचपन में ही सीखते हो।एक
बच्चा जन्म लेते ही अपनी मां पर आश्रित होता है। उसकी मां के प्रति एक जरूरत का
प्रेम होता है, उसे मां की जरूरत होती है। वह बिना मां
के जीवित नहीं रह सकता है। वह मां से प्रेम करता है, क्योंकि वह उसका जीवन है। वास्तव में वहां कोई प्रेम नहीं हे। वह
किसी भी स्त्री से प्रेम करता, वह
चाहे जो भी होती, जो उसकी सुरक्षा करती, जो उसके जीवित बने रहने में उसका सहायता करती।
और जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती। मां एक तरह का भोजन है, जिसे वह खाता है। यह केवल दूध नहीं है, जो वह मां से प्राप्त करता है, वह प्रेम भी है—और वह भी उसकी एक आवश्यता है।
लाखों
करोड़ों लोग अपने पूरे जीवन भर बच्चे ही बने रहते हैं, वे कभी विकसित ही नहीं होते। उनकी आयु बढ़ जाती
है लेकिन उनके मन कभी विकसित नहीं होते। उनका मनोविज्ञान अपरिपक्व किशोरवस्था वाला
बना रहता है। उन्हें हमेशा प्रेम की जरूरत रहती है और वह उसके लिए भोजन की भांति
लालसा करते है।
मनुष्य
उसी क्षण परिपक्व हो जाता है, जब
वह जरूरत के प्रेम की उपेक्षा वस्तुतः: प्रेम करना प्रारम्भ कर देता है। उसकी
प्रेम अतिरेक से छलकने लगता है। वह उसे लोगों को देना और बांटना शुरू कर देता है।
आग्रहपूर्ण रूप से भिन्न होता है। पहली तरह के प्रेम के साथ बल इस बात पर होता है
कि कैसे अधिक से अधिक प्राप्त किया जाये दूसरे तरह के प्रेम के साथ बन इस बात पर
होता है कि कैसे दिया जाए—कैसे अधिक से अधिक दिया जाये और कैसे
बेशर्त दिया जाए। वह विकास और परिपक्वता होती है, जो तुम तक आती है।
एक
पूर्ण रूप से विकसित व्यक्ति प्रेम देता है। केवल एक पूर्णरूप से विकसित व्यक्ति
ही प्रेम दे सकता है। केवल एक पूर्ण रूप से विकसित व्यक्ति ही प्रेम दे सकता है, क्योंकि केवल उसी के पास प्रेम होता है। तब
प्रेम आश्रित नहीं होता, तुम तब भी पूर्ण हो सकते हो चाहे दूसरा
व्यक्ति हो अथवा न हो। तब प्रेम एक संबंध न होकर एक स्थिति होता है।
यदि
सभी शिष्य विलुप्त हो जाते है तो और केवल मैं ही यहां होता, तो क्या होता? एक घने जंगल में जब एक फूल खिलता है और वहां कोई भी व्यक्ति उसकी
प्रशंसा करने के लिए नहीं होता है, कोई
भी व्यक्ति उसकी सुगंध को नहीं जानता है, कोई
भी व्यक्ति उस पर टिप्पणी नहीं कर सकता है। जो कि उसे ‘सुंदर’ कहे
कोई भी व्यक्ति उसके सौंदर्य का स्वाद लेकर आनंद मनाने वाला और उसे बांटने वाला
नहीं होता है, तो उस फूल का क्या होता? क्या वह मर जाता है? क्या वह दुःखी होता है? क्या वह संत्रस्त होता है? क्या वह आत्मघात कर लेता है? नहीं वह पूरी तरह से खिले चला जाता है। उसे कोई
भी फर्क नहीं पड़ता है—चाहे कोई व्यक्ति उसके निकट से होकर
गुजरे अथवा नहीं, यह बात ही असंभव है। वह अपनी सुवास
हवाओं के द्वारा फैलाये चला जाता है और वह पूरे अस्तित्व को प्रसन्नता की भेंट दिए
चला जाता है।
यदि
मैं अकेला होता हूं, तब भी मैं उतना ही प्रेम पूर्ण रहूंगा
जितना प्रेमपूर्ण मैं तुम्हारे साथ होता हूं। यह तुम नहीं हो, जो मेरे प्रेम को सृजित कर रहे हो। यदि तुम
मेरे प्रेम को सृजित कर रहे हो, तब स्वाभाविक
रूप से जब तुम चले जाते हो,
मेरा प्रेम भी चला जायेगा। तुम मेरे
प्रेम को बाहर नहीं खींच रहे हो, मैं
ही तुम पर अपने प्रेम की वर्षा कर रहा हूं; यह
प्रेम उपहार है, यह आत्मिक प्रेम हैं।
और
मैं वास्तव में सी. एस. लेविस और अब्राहिम मैसलो से सहमत नहीं हूं, क्योंकि पहली तरह के प्रेम को वे लोग ‘प्रेम’ कहते
हैं, जो एक जरूरत है। वह वास्तव में प्रेम
है ही नहीं। एक जरूरत कैसे प्रेम हो सकती है? प्रेम
तो एक सुरुचि सम्मन रूप से रहते हुए परमानंद का अनुभव करना है। वह प्रचुरता से है, तुम्हारे पास इतनी अधिक जीवंतता है। कि तुम
नहीं जानते कि उसके साथ क्या किया जाये, इसलिए
तुम उसे बांटते हो। तुम्हारे हृदय में तुम्हारे पास जितने भी गीत हैं, तुम्हें उन्हें गाना है—चाहे कोई उन्हें सुने अथवा नहीं, जो संग है या नहीं है। यदि उन्हें कोई भी नहीं
सुतना है, तब भी तुम्हें उन्हें तो गाना ही है और
तुम्हें अपना नृत्य नाचना है।
दूसरा
व्यक्ति उसे ग्रहण कर सकता है, दूसरा
व्यक्ति उससे चूक सकता है,
लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, वह प्रवाहित हो रहा है, वह अतिरेक से छलक रहा है। वे तुम्हारी प्यास
बुझाने के लिए प्रवाहित नहीं हो रहे हैं, वे
तुम्हारे प्यासे खेतों के लिए प्रवाहित नहीं हो रहे हैं। वे उस जगह सामान्य रूप से
प्रवाहित हो रहे हैं। तुम इससे अपनी प्यास बुझा सकते हो, तुम चूक भी सकते हो, यह तुम्हारे अपने उपर है। नदी वास्तव में तुम्हारे
लिए नहीं बह रही है। नदी तो बस बह रही है। यह केवल मात्र एक संयोग है। कि तुम उससे
अपने खेतों को सिंच रहे हो। यह तो संयोग है कि तुम जरूरतें पूरी करने लिए पानी
लेते हो।
एक
सद्गुरू एक सरिता की ही भांति ही होता है। और शिष्य एक संयोग है। सद्गुरू प्रवाहित
हो रहा है, तुम उसका कुछ अंश ले सकते हो। तुम
आनंदित हो सकते हो। तुम उसके अस्तित्व में सहभागी बन सकते हो। तुम उसे विह्वल हो
सकते हो, लेकिन वह तुम्हारे लिए विशेष रूप से
प्रवाहित नहीं हो रहा है। वह सामान्य रूप से बहे जा रहा है। इसे सदा याद रखो। और
इसे मैं विकसित प्रेम कहता हूं, यह
सच्चा और प्रामाणिक प्रेम है।
जब
तुम दूसरे पर आश्रित होते हो, वो
वहां हमेशा कष्ट बना रहता है। जिस क्षण तुम आश्रित होते हो, तुम कष्ट का अनुभव करना शुरू कर रहे होते हो।
किसी पर भी आश्रित होना एक परतंत्रता ही तो है। तब तुम सूक्ष्म तरीकों से बदला लेना
शुरू कर देते हो, क्योंकि वह व्यक्ति, जिस पर तुम्हें आश्रित होना पड़ रहा है, तुम पर भारी पड़ जाता है। वह शक्तिशाली बन जाता
है। कोई भी व्यक्ति यह पसंद नहीं करता कि कोई अन्य व्यक्ति उसके ऊपर शक्तिशाली
बने। कोई भी व्यक्ति आश्रित नहीं रहना चाहता, क्योंकि
आश्रित होने से तुम्हारी स्वतंत्रता मर जाती है। और आश्रित होने में प्रेम की
खिलावट नहीं हो सकती। प्रेम स्वतंत्रता का एक पुष्प है जिसे अंतराल की आवश्यकता
होती है। वह परिपूर्ण स्थान चाहता है। दूसरे को उसके साथ हस्तक्षेप नहीं करना
चाहिए। वह बहुत नाजुक होता है।
जब
तुम आश्रित होते हो, तो निश्चित रूप से दूसरा तुम पर हावी
रहेगा ही। और तुम दूसरे पर प्रभुत्व रखने का प्रयास करोगे? यही वह संघर्ष है जो तथाकथित प्रेमियों के मध्य
चलता रहता है। वे निरंतर लड़ते-झगड़ते हुए एक दूसरे के घनिष्ठ शत्रु बने रहते है।
पति और पत्नी क्या कर रहे है? प्रेम
करना बहुत कम होता है और लड़ना झगड़ना एक नियम बन जाता है। और प्रेम करना एक अपवाद
होता है। और प्रत्येक तरह से वे एक दूसरे पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास करते रहते
है। यदि पति-पत्नी से प्रेम मांगता भी है तो वह मना कर देती है कि वह अनिच्छुक है।
वह बहुत कंजूस होती है। वह प्रेम देती भी है तो बहुत अनिच्छा से, वह चाहती है कि तुम उसके चारों और घूमते हुए
अपनी पूंछ हिलाओ। और यही स्थिति पति के साथ होती है। जब पत्नी को जरूरत होती है और
वह पति से प्रेम मांगती है तब पति कहता है कि वह बहुत थका हुआ है। ऑफिस में वहां
आज बहुत काम था—जरूरत से कहीं अधिक कार्य था—और वह तुरंत सोना चाहता है।
मैंने
मुल्ला नसरूद्दीन द्वारा अपनी को लिखा गया एक पत्र पढ़ा। जरा उसे सुनिए।
मेरी
सदा ह्रदय से प्यारी अपनी देवी जी के नाम,
पिछले
वर्ष के दौरान मैंने तुमसे 365 बार प्रेम करने का प्रयास किया, औसतन लगभग प्रत्येक दिन। लेकिन तुमने मुझे
अस्वीकार करने के जो कारण दिए, उनकी
सूची निम्न प्रकार है।
यह
गलत समय है—11बार
बच्चे
जाग जायेगें—7 बार
आज
बहुत अधिक गर्मी है—15 बार
आज
बहुत अधिक सर्दी है—3 बार
आज
बहुत थकी हुई हूं—19 बार
आज
बहुत देर हो चुकी है—16 बार
आज
बहुत अधिक जल्दी है—9 बार
आज
बहुत नींद आ रही है—33 बार
खिड़की
खुली हुई है पड़ोसन सुन सकती है—3
बार
आज
कमर में दर्द है—16 बार
आज
मेरे दांत में दर्द है—2 बार
आज
सर में बहुत दर्द है—6 बार
आज
मूड़ नहीं है—31 बार
बेबी
बैचेन है, नीचे से रो सकता है—18 बार
आज
आखिरी फिल्म शो देख कर आए है—15
बार
चेहरे
पर गीली मिट्टी का लेप किया है—8
बार
आज
चेहरे पर क्रीम लगाई हुई है—4
बार
आज
तुम बहुत नशे में हो—7 बार
आज
केमिस्ट के जाना भूल गई हूं—10
बार
मेहमान
बगल के कमरे में सो रहे है—7 बार
अभी
आज बाल डाई किये है—28 बार
क्या
तुम बस इसी के बारे में सोचते हो—62
बार
प्रियतम
में! क्या तुम्हारे ख्याल से हम अपने पिछले साल के इस रिकार्ड को आने वाले वर्ष
में कुछ सुधार कर सकते है?
तुम्हारा
सदा से पति
मुल्ला
नसरूद्दीन
दूसरे
को भूखा मारकर—उसे अधिक से अधिक भूखा रखकर जिससे वह
अधिक से अधिक आश्रित बन जाए। उस नियंत्रण रखने के ये ही उपाय हैं। इस बारे में स्वाभाविक
रूप से स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक कूटनीतिज्ञ होती है। क्योंकि पुरूष
पहले ही से शक्तिशाली है। उसे अधिक शक्तिशाली बनने से रोकने के लिए ऐसे सूक्ष्म और
चालाकी से भरे उपाय खोजने की आवश्यकता ही काम आती है। क्योंकि वह शक्तिशाली है। वह
धन की व्यवस्था करता है—वह उसकी शक्ति है। शारीरिक दृष्टि से
भी वह शक्तिशाली होता है। पिछली सदियों से उसने स्त्रियों के मन को इस भांति ‘कंडीर्शड’ कर
दिया हैं कि वह कहीं अधिक शक्तिशाली है और स्त्री शक्तिशाली नहीं है। उसने हमेशा
से प्रत्येक तरह से ऐसी स्त्रियां खोजने का प्रयास किया है जो प्रत्येक तरह से
उसकी अपेक्षा कम शक्तिशाली हो। एक पुरूष एक ऐसी स्त्री से विवाह नहीं करना चाहता
जो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक शिक्षित हो क्योंकि तब शक्ति दांव पर लगी होगी। वह एक
ऐसी स्त्री के साथ विवाह नहीं करना चाहता जो कद में उससे अधिक लम्बी हो क्योंकि एक
लम्बी स्त्री अधिक श्रेष्ठ दिखाई देती है। एक पुरूष एक ऐसी स्त्री के साथ भी विवाह
नहीं करना चाहता है जो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान हो। क्योंकि ऐसी स्त्री
तर्क-वितर्क अधिक करती है। और तर्क वितर्क उसकी शक्ति को नष्ट करता है। एक पुरूष
ऐसी स्त्री के साथ भी विवाह नहीं करना चाहेगा जो अधिक प्रसिद्ध हो। क्योंकि तब वह
उसकी अपेक्षा मध्यम दर्जे का बन जाता है। और पिछली सदियों से एक पुरूष आयु में
अपने से कम आयु की स्त्री की मांग करता आया है। क्यों? पत्नी तुमसे अधिक आयु की क्यों नहीं हो सकती? इसमें गलत क्या है? लेकिन अधिक आयु की स्त्री कहीं अधिक अनुभवी
होती है, जो उसकी शक्ति को नष्ट कर देती है।
इसलिए
पुरूष ने हमेशा से एक ऐसी स्त्री को मांगा जो हर तरह से उसके कम हो। यहीं कारण है
कि स्त्रियों ने अपनी लम्बाई खो दी। इस तरह से अगर देखे तो और कोई कारण नजर ही
नहीं आता उनके छोटे कद के होने का। कोई अन्य कारण हो ही नहीं सकता। उन्होंने अपना
कद केवल इसीलिए खो दिया क्योंकि छोटे कद की स्त्रियां हमेशा ही पुरुषों द्वारा
चुनी जाती है। धीमे-धीमे ये बात उनके मानो में इतनी अधिक गहराई से प्रविष्ट हो गई
कि उन्होंने अपनी लम्बाई खो दी। उन्होंने अपनी बुद्धिमता को भी खो दिया। कारण
क्योंकि बुद्धिमत्ता स्त्री की आवश्यकता ही नहीं थी। एक बुद्धिमान स्त्री एक
विलक्षण और असाधारण स्त्री समझी जाती थी।
तुम्हें
यह जानकर आश्चर्य जरूर होगा कि केवल इस सदी में ही उनकी लम्बाई फिर से बढ़ रही है।
तुम्हें यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि उनकी हड्डियां और हड्डियों का पूरा ढांचा
पिछली महिलाओं की अपेक्षा अधिक बड़ा हो रहा है। और बुद्धि के साथ-साथ उनका मन भी
विकसित हो रहा है। और जितना बड़ा वह हुआ करता था, उससे अधिक बड़ा होता जा रहा है। उनकी खोपड़ी भी बड़ी हो रही है।
स्वतंत्रता के विचार के साथ ही पुरानी गहरी कंडीशनिंग भी नष्ट होती जा रही है।
पुरूष
के पास पहले से ही वह शक्ति है, इसलिए
उसे बहुत चालाक होने की जरूरत नहीं है। उसे बहुत अप्रत्यक्ष रूप से कार्य करने की
जरूरत नहीं हैं। स्त्रियों के पास शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे पास शक्ति नहीं होती
तब तुम्हें अधिक कूटनीतिज्ञ होना होगा। वह एक प्रति स्थापन है। वो शक्तिशाली होने
का अनुभव कर सकें। इसका केवल उपाय यही है कि पुरुषों को उनकी जरूरत बनी रहे। पुरूष
निरंतर उनकी जरूरत महसूस करता रहे। यह प्रेम नहीं है यह एक सौदा है। और वे कीमत के
उपर निरंतर वाद-विवाद कर रहे है, यह
एक निरंतर चले जाने वाला संघर्ष है।
सी.
एस. लेविस और अब्राहम मैसलो ने प्रेम को दो भागों में विभाजित किया है। मैं इसे दो
में विभाजित नहीं करता। मैं कहता हूं कि पहली तरह का प्रेम केवल एक नाम है, केवल एक खोटा सिक्का है, और वह सत्य नहीं है। केवल दूसरी तरह का प्रेम
ही प्रेम है।
प्रेम
केवल तभी होता है जब तुम विकसित होते हो, तुम
प्रेम के लिए केवल तभी समर्थ बनते हो जब तुम विकसित हो जाते हो। जब तुम यह जानते
हो कि प्रेम एक जरूरत नहीं है बल्कि एक बाढ़ है। वह उसका उमड़ उठना है। वह प्रेम
में होना अथवा प्रेम का उपहार की भांति देना होता है। और तुम बिना कोई शर्त उसे
देते हो।
पहली
तरह का तथाकथित प्रेम, जो एक व्यक्ति की दूसरे के लिए गहरी
जरूरत के रूप में उत्पन्न होता है। जब कि उपहार-प्रेम अथवा आत्मिक प्रेम एक विकसित
व्यक्ति से दूसरे की और प्रचुरता से होने के कारण उमड़ता है अथवा बाढ़ की तरह बहता
है। कोई भी उसके साथ उमड़ उठता है, वह
तुम्हारे पास होता है और वह तुम्हारे चारों और गतिशील होना शुरू हो जाता है, ठीक वैसे ही जब तुम एक दीये को जलाते हो तो
उसकी किरणें अंधकार में फैलना शुरू हो जाती है। प्रेम, आत्मा का एक बाई प्रोड़क्ट है। जब तुम होते हो, तो तुम्हारे चारों और प्रेम का एक आभामंडल होता
है, और जब तुम नहीं होते हो तो तुम्हारे
चारों और वह आभामंडल नहीं होता है। और जब तुम्हारे पास चारों और वह आभामंडल नहीं
होता है तो तुम दूसरों से प्रेम देने के लिए कहते हो।
मुझे
इसे फिर से दोहराने दो; जब तुम्हारे पास प्रेम नहीं होता, तुम दूसरे से उसे देने के लिए कहते हो, तुम एक भिखारी होते हो, और दूसरा भी उसे तुमसे देने के लिए कहता है। अब
वे दो भिखारी होते है। जो एक दूसरे के सामने अपने हाथ फैलाए हुए खड़े हुए हैं, और दोनों ही यह आशा कर रहे हैं कि दूसरे के पास
वह है। स्वाभाविक रूप से दोनों ही अंतिम रूप से पराजित होने का और ठगे जाने का
अनुभव करते है।
तुम
किसी भी पति और पत्नी से पूछ सकते हो, तुम
किन्हीं भी प्रेमियों से पूछ सकते हो, वे
दोनों ठगे जाने का अनुभव करते हैं। यह तुम्हारी विस्तारित अपेक्षा थी कि वह दूसरे
के पास है। यदि तुम्हारे पास एक गलत तरह की विस्तारित उपेक्षाएं हैं, तो दूसरा व्यक्ति इस बारे में क्या कर सकता है? तुम्हारी बढ़ी हुई उपेक्षाएं टूट गई हैं।
तुम्हारी विस्तारित उपेक्षाओं के अनुसार दूसरे लोग खरे सिद्ध नहीं हुए। लेकिन
दूसरे के पास तुम्हारी उपेक्षाओं के अनुसार अपने होने को सिद्ध करने का कोई भी
दायित्व नहीं है।
और
दूसरे का भी यह अनुभव है,
कि तुमने उसे धोखा दिया है क्योंकि दूसरा
भी तुमसे यह आशा कर रहा था कि तुमसे प्रेम प्रवाहित हो रहा होगा। तुम दोनों ही यह
आशा कर रहे थे कि प्रेम दूसरे से प्रवाहित हो रहा होगा और दोनों ही खाली थे। प्रेम
कैसे हो सकता है? अधिक से अधिक तुम एक दूसरे को दुःखी कर
सकते हो। पहिले तुम अकेले ही पृथक होकर दुःखी हुआ करते थे, अब तुम एक साथ दुःखी हो सकते हो। और स्मरण रहे
कि जब कभी दो व्यक्ति एक साथ दुःखी होते है, यह
सामान्य जोड़ न होकर एक गुणन क्रिया होती है।
तुम
अकेले ही निराशा का अनुभव कर रहे थे, अब
तुम दोनों एक निराशा का अनुभव करते हो। इस बारे में एक चीज़ अच्छी है, अब तुम जिम्मेदारी दूसरे पर फेंक सकते हो, कि दूसरा व्यक्ति तुम्हें दुःखी कर रहा है। यह
एक अच्छी स्थिति है। तुम चैन का अनुभव कर सकते हो; मेरे साथ गलत कुछ भी नहीं है, दूसरा
ही.....। अब ऐसी पत्नी को लेकर क्या किया जाए जो दुष्ट प्रकृति और झगड़ालू है? एक को तो दुःखी होना ही है। अब ऐसे पति के साथ
क्या किया जा सकता है जो नासमझ और कंजूस है। अब तुम जिम्मेदारी दूसरे पर फेंक सकते
हो। तुमने एक बलि का बकरा खोज लिया है। लेकिन दुःख बना ही रहता है, वह कई गुना अधिक हो जाता है।
अब
यह एक विरोधाभास है: जो लोग किसी के प्रेम में पड़ते हैं, उनके पास कोई प्रेम होता ही नहीं, इसी कारण वे प्रेम में गिरते है। क्योंकि उनके
पास कोई प्रेम होता ही नहीं, वे
उसे दे भी नहीं सकते। और एक चीज़ और भी है: अविकसित व्यक्ति ही हमेशा प्रेम में
दूसरे अविकसित व्यक्ति के साथ प्रेम में गिरता है। क्योंकि केवल वे लोग ही एक
दूसरे की भाषा समझ सकते है। एक विकसित और परिपक्व व्यक्ति एक विकसित व्यक्ति के
साथ प्रेम करता है। और दूसरी और एक
अविकसित व्यक्ति, एक अविकसित व्यक्ति से ही प्रेम करता
है।
तुम
अनेक बार अपने पति अथवा पत्नी को बदले चले जा सकते हो, लेकिन तुम उसी तरह की स्त्री और उसी तरह के
दुःख को फिर खोज लोगे-तुम उसे भिन्न रूपों में दोहराओगे, लेकिन उन्हीं दुखों को फिर दोहराओगे। वह लगभग
समान होता है। तुम अपनी पत्नी बदल सकते हो लेकिन तुम नहीं बदलते हो। अब नई पत्नी
को कौन चुनने जा रहा है? तुम ही उसे चुनोगे। वह चुनाव फिर
तुम्हारी अपरिपकता से ही तो आयेगा। और तुम उसी तरह की दूसरी स्त्री या पुरूष को
चुन लोगे।
प्रेम
की मौलिक समस्या है पहिले विकसित और परिपक्व बनना, तब तुम एक विकसित साझीदार खोज लोगे और तब अविकसित लोग तुम्हें ज़रा
भी आकर्षित नहीं करेंगे। यह ठीक उसी तरह होगा जैसे यदि तुम पच्चीस वर्ष की आयु के
हो तो तुम एक दो वर्ष की बेबी के प्रेम नहीं पड़ोगे ठीक इसी तरह से जब तुम
मनोवैज्ञानिक रूप से और धार्मिक रूप से एक परिपक्व व्यक्ति हो—तुम एक छोटी बच्ची के साथ प्रेम में नहीं
पड़ोगे ऐसा कभी नहीं होता और न ऐसा हो सकता है। तुम देख सकते हो कि यह अर्थ हीन
होने जा रही है।
वास्तव
में एक विकसित और परिपक्व व्यक्ति प्रेम में गिरता ही नहीं है, वह प्रेम में उपर उठता है। वह प्रेम में गिरना
शब्द ही ठीक नहीं है। केवल अविकसित लोग ही प्रेम में गिरते हैं। वे टकराते हैं और
प्रेम में गिर जाते है। वे लोग किसी तरह व्यवस्था बनाकर खड़े हुए थे, लेकिन अब वे न तो व्यवस्था कर सकते हैं, और नहीं खड़े हो सकते है-वे एक स्त्री खोजते
हैं, अथवा वे एक पुरूष खोजती हैं, और उसके पीछे लग जाते हैं। वे लोग हमेशा से
पहिले ही जमीन पर गिरने को और रेंगने को तैयार होते है। उसके पास कोई रीढ़ की
हड्डी नहीं होती है, और उनके पास अकेले खड़े होने की
स्थिरता नहीं होती है।
एक
विकसित और परिपक्व व्यक्ति के पास अकेले खड़े होने की सत्यनिष्ठा होती है। और जब
एक विकसित व्यक्ति प्रेम देता है; तो
वह कृतज्ञता का अनुभव करता है कि तुम ने उसका प्रेम स्वीकार किया। वह तुमसे इसके
विपरीत इसके लिए ज़रा भी धन्यवादी होने की अपेक्षा नहीं करता। उसे तुम्हारे
धन्यवाद की भी जरूरत नहीं होती। वह अपना प्रेम स्वीकार करने के लिए तुम्हें
धन्यवाद देता है।
जब
दो विकसित और परिपक्व व्यक्ति प्रेम में होते हैं, जीवन के सबसे बड़े विरोधाभासों में से एक घटती है, एक सबसे अधिक सुंदर घटना घटती है। वे लोग एक
साथ होते है और फिर अत्यधिक अकेले भी होते है। वे इतने अधिक एक साथ होते हैं कि वे
लगभग एक होते है। लेकिन उनका एकत्व उनकी वैयक्तिकता को नष्ट नहीं करता। वास्तव में
वह उसे बढ़ाता है। वे और अधिक वैयक्तिक होते जाते है। दो विकसित और परिपक्व
व्यक्ति प्रेम में स्वतंत्र होने के लिए एक दूसरे की सहायता करते हैं। न वहां कोई
भी राजनीति, न कोई भी कूटनीति और न प्रभुत्व जमाने
का कोई प्रयास ही संयुक्त होता है। जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो, तुम उस पर कैसे प्रभुत्व जमा सकते हो?जरा इस पर विचार करो।
प्रभुत्व
स्थापित करना एक तरह की घृणा की तरह का क्रोध और शत्रुता है। जिस व्यक्ति से तुम
प्रेम करते हो, तुम उस पर प्रभुत्व स्थापित करने की
बात भी कैसे सोच सकते हो?
तुम उस व्यक्ति को पूर्ण रूप से
स्वतंत्र देखने से प्रेम होगा। और तुम उसे और-और अधिक वैयक्तिकता देना चाहोगे। इसी
कारण मैं इसे सबसे अधिक विरोधाभास मानता हूं। वे दोनों इतने अधिक एक साथ हैं कि वे
लगभग एक हो गए हैं, लेकिन अपने एकत्व में वे फिर भी
वैयक्तिक है। उनकी वैयक्तिकता नष्ट नहीं होती। वे और अधिक बढ़ती जाती है। जहां तक
उनकी स्वतंत्रता का संबंध है दूसरे ने उसे और अधिक समृद्ध बना दिया है।
प्रेम
में अविकसित और अपरिपक्व लोग प्रेम में गिरकर एक दूसरे की स्वतंत्रता को नष्ट कर
देते है, वे एक बंधन सृजित करते है और उसे एक
कारागार बना देते है। विकसित लोग प्रेम में एक दूसरे को स्वतंत्र होने में सहायता
करते हैं। और जब प्रेम स्वतंत्रता से प्रवाहित होता है तो वहां एक सौंदर्य होता
है। जब प्रेम आश्रित होने के साथ प्रवाहित होता है तो उसमें एक तरह की कुरूपता आ
जाती है।
स्मरण
रहे, प्रेम की अपेक्षा स्वतंत्रता का कहीं
अधिक उच्च मूल्य होता है,
इसी कारण भारत में हम मोक्ष को
सर्वोच्च अथवा अंतिम कहते हैं। मोक्ष का अर्थ है स्वतंत्रता। प्रेम की अपेक्षा
स्वतंत्रता कहीं अधिक मूल्यवान है। इसलिए यदि प्रेम स्वतंत्रता को नष्ट कर रहा है, तो वह किसी मूल्य का नहीं है। स्वतंत्रता को
बचाने के लिए प्रेम को छोड़ा जा सकता है। स्वतंत्रता कहीं अधिक मूल्यवान है। और
बिना स्वतंत्रता के तुम कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकते, यह सम्भव है ही नहीं। स्वतंत्रता पूर्ण
स्वतंत्रता, परिपूर्ण स्वतंत्रता, प्रत्येक पुरूष और प्रत्येक स्त्री की अंतर्निहित
कामना होती है।
इसलिए
कोई भी व्यक्ति किसी चीज़ को घृणा करना शुरू कर देता है, तो वह स्वतंत्रता के लिए विनाशकारी बन जाता है।
जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो, क्या
तुम उससे घृणा नहीं करते?
क्या तुम उस स्त्री से घृणा नहीं करते, जिससे तुम प्रेम करते हो? तुम घृणा करते हो: लेकिन किसी व्यक्ति के साथ
बने रहने के लिए यह एक आवश्यक बुराई की भांति है, जिसे तुम्हें सहना ही होगा। तुम किसी व्यक्ति के साथ रहने की ही होगी, क्योंकि तुम अकेले नहीं रह सकते, और तुम दूसरे व्यक्ति की मांगो के अनुसार समायोजन
करना ही होगा।
प्रेम
को वास्तविकता प्रेम होना है, उसे
आत्मिक प्रेम और उपहार-प्रेम होना है। प्रेम में बने रहने का अर्थ है—प्रेम की एक स्थिति होना। जब तुम अपने शाश्वत
घर पहुंच गए हो, जब तुमने यह जान लिया है कि तुम कौन हो? तब तुम्हारी आत्मा अथवा अस्तित्व में एक प्रेम
उत्पन्न होता है। तब उसकी सुवास फैलने लगती है और तुम उसे दूसरों को दे सकते हो।
तुम
कोई भी चीज़ कैसे दे सकते हो, जो
तुम्हारे पास है ही नहीं?
उसे देने के लिए पहली मौलिक आवश्यकता
हैं, उसका अपने पास होना।
तुम
कहते हो—‘मेरे अंदर का प्रेम, बाहर के संसार पर आश्रित है।’ तब यह प्रेम नहीं है, अथवा यदि तुम सी.एल.लेविस और ए.एच.मसेलो की
भांति शब्दों के साथ खेलना चाहते हो, तब
उसे जरूरत का प्रेम कमी को पूरा करने वाला प्रेम कहकर पुकार सकते हो। यह एक रोग को
स्वास्थ्य बीमारी कहकर पुकारने जैसा है—यह
अर्थहीन हैं, यह शब्द व्यवहार का एक विरोधाभास है।
कमी को पूरा करने वाला प्रेम; शब्द
व्यवहार में एक विरोधाभास है। लेकिन यदि तुम प्रेम ‘शब्द’ के साथ बहुत अधिक आसक्त हो, तब यह ठीक हैं, तुम उसे जरूरत का प्रेम अथवा कमी को पूरा करने वाला प्रेम कहकर पुकार
सकते हो।
तब तुम
कहते हो—‘इसी के साथ मैं देखता हूं कि तुम जो
कुछ कहते हो वह अपने अंदर पूर्ण बने रहने के बारे में हैं।’ नहीं, तुम
अभी तक उसे देख भी सकते हो। तुम मुझे सुनते हो, तुम
बुद्धि गत रूप से उसे समझते हो, लेकिन
तुम तब भी उसे देख नहीं सकते। वास्तव में, मैं
एक भाषा में बोल रहा हूं और तुम एक भिन्न भाषा में समझते हो। मैं एक तल से बोल रहा
हूं और तुम एक भिन्न तल से उसे सुन रहे हो। हां, मैं उन्हीं शब्दों का प्रयोग कर रहा हूं, जिन का प्रयोग तुम करते हो, लेकिन मैं तुम्हारे जैसा नहीं हूं, इसलिए मैं उन्हीं शब्दों को वे अर्थ कैसे दे सकता
हूं, जैसा अर्थ तुम उन्हें देते हो? तुम बुद्धि गत रूप से तो समझ सकते हो और वह एक
गलतफहमी होगी। एक बुद्धि गत समझ एक नासमझी अथवा एक गलतफहमी होती है। सभी बुद्धि गत
समझें गलत फहमियां होती है।
मैं
इस बारे में तुम्हें थोड़ी सी घटनाएं बताना चाहता हूं.......
फ्रांस
का एक व्यक्ति जो आयरलैंड का भ्रमण कर रहा था, उसने
रेलगाड़ी के एक डिब्बे में प्रवेश किया, जिसमें
आयरलैंड के दो व्यवसाय से संबंधित यात्री बैठे हुए बातचीत कर रहे थे।
उनमें
एक ने दूसरे यात्री से पूंछा—‘और
इतनी देर तक आप कहां रहे?’
उसे
उत्तर मिला—‘निश्चित ही मैं बस ‘किलमेरी’ गया
था और वहां का कार्य समाप्त कर अब में किलपेट्रिक जा रहा हूं। और स्वयं आपके बारे
में क्या स्थिति है?’
इस
पर पहले ने उत्तर दिया—‘मैं ‘किलकेनी’ और ‘किलमाइकेल’ में रहा और अब कार्य समाप्त कर में ‘किलमोर’ जा
रहा हूं।’
फ्रांस
का यह पर्यटक उन नामों को आश्चर्य से सुनता हुआ बुदबुदाया—‘यह सभी हत्या करने वाले दुष्ट लोग है।’ उसने सोचा की वह अगले स्टेशन पर उतर जायेगा।
अब
यह नाम सुनते हुए—‘किल-मेरी’, ‘किलपेट्रिक’, ‘किल-केनी, ‘किल-माइकेल’ और ‘किल-मोर’ का
अर्थ होता है—और अधिक लोगों की हत्या करना है, जब कि यह सभी विभिन्न स्थानों के नाम
है।.....वह फ्रेंच भयभीत हो गया और उसने समझा – ये
लोग दुष्ट हत्यारे हैं।
ठीक
इसी तरह की कुछ चीजें निरंतर घटती रहती हैं। मैं कुछ और चीज़ कहता हूं, तुम कुछ अन्य बात समझते हो। लेकिन यह स्वाभाविक
है, मैं इसकी निंदा नहीं कर रहा हूं, मैं सामान्य रूप से तुम्हें इसके प्रति सचेत
बना रहा हूं।
वहां
तीन लड़के थे—एक का नाम मुसीबत दूसरे का नाम
शिष्टाचार और तीसरे का नाम था—‘अपने
काम की और ध्यान दो’—अर्थात अपना काम करो था। उनका पिता एक
दार्शनिक था, इसलिए उसने इन लोगों को बहुत अर्थपूर्ण
नाम दिए थे। अब लोगों को अर्थपूर्ण नाम देना बहुत खतरनाक है।
एक
दिन छोटा बच्चा जिसका नाम ‘मुसीबत’ था वह कहीं खो गया। इसलिए ‘शिष्टाचार’ और ‘अपने
काम पर ध्यान दो’ अपने भाई के खो जाने की रिपोर्ट पुलिस
स्टेशन लिखवाने के लिए गए।
‘अपने काम की और ध्यान दो’ ने ‘शिष्टाचार’ से कहा— ‘अब
तुम यहां बाहर ही प्रतीक्षा करो। मैं अभी आता हूं। और वह अंदर रिपोर्ट लिखवाने के
लिए चला गया।’
अंदर
जाकर उसने डेस्क पर बैठे कांस्टेबल से कहां—‘मेरा
छोटा भाई खो गया है।’
कांस्टेबल
ने पूछा—‘तुम्हारा नाम क्या है?’
उसने
कहा—‘अपने काम की और ध्यान दो।’
कांस्टेबल
ने कहां—‘तुम्हारा शिष्टाचार कहां चला गया?’
उसने
उत्तर दिया—‘वह दरवाजे के बाहर है।’
कांस्टेबल
ने कहा—‘क्यों! क्या तुम मुसीबत खोज रहे हो?’
उसने
कहा—‘हां, क्या आपने उसे कहीं देखा है?’
यह
निरंतर इसी तरह चलता जाता है। मैं तुमसे कहता हूं कि जब तक तुम पूर्ण रूप से स्वयं
में नहीं होते, तुमसे प्रेम प्रवाहित नहीं होगा।
निश्चित रूप से तुम शब्दों को समझते हो, लेकिन
तुम उन शब्दों के अपने अर्थ देते हो। जब मैं कहता हूं—‘जब तक पूर्ण रूप से स्वयं अपने अंदर नहीं हो’……मैं एक सिद्धांत प्रस्तावित नहीं कर रहा हूं, मैं इसकी किसी भी प्रकार से कोई दार्शनिक
व्याख्या नहीं कर रहा हूं,
मैं सामान्य रूप से जीवन के एक तथ्य की
और संकलित कर रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं: ‘तुम कैसे दे सकते हो यदि वह तुम्हारे पास जो है
ही नहीं ! तुम बाढ़ की तरह कैसे उमड़ सकते हो, जब
तुम खाली हो?’ प्रेम एक बाढ़ की तरह उमड़ता है। जितना तुम्हें जरूरत है, उसकी अपेक्षा जब तुम्हारे पास कहीं अधिक होता
है। केवल तभी तुम उसे दे सकते हो; इसीलिए
यह प्रेमो उपहार है।
तुम
कैसे उपहार दे सकते हो, जब तुम्हारे पास कोई भी प्रेम है ही
नहीं? तुम इसे सुनते हो और समझते हो, लेकिन तब समस्या उठती है, क्योंकि समझ बुद्धिगत है। यदि वह तुम्हारे
अस्तित्व में प्रविष्ट हो गई है। यदि तुमने उसकी तथ्यात्मकता देख ली है। तब प्रश्न
ही खड़ा नहीं होगा। तब तुम अपने सभी आश्रित संबंधों को भूल जाओगे, तब तुम अपनी व्यक्तिगत से कार्य करना प्रारंभ
करोगे। तब तुम सफाई और शोधन करते हुए, अपने
अंतरस्थ केन्द्र को कहीं अधिक सजग और सचेत बनाते हुए उस तरह से कार्य करना शुरू
करोगे। और जितना अधिक तुम यह अनुभव करना प्रारंभ करोगे कि तुम एक विशिष्ट पूर्णता
तब आ रहे हो तो उसके साथ ही तुम उतना ही अधिक पाओगे कि प्रेम एक प्रतिरूप, की भांति विकसित हो रहा है।
प्रेम
पूर्ण बनना भी एक कार्य है—‘तब यह प्रश्न ही वहां नहीं होगा लेकिन
प्रश्न वहां हैं, इसलिए तुमने इस तथ्य को देखा ही नहीं
हैं। तुमने उसे एक सिद्धांत की भांति ही इसे सुना है और तुमने उसके तर्क-वितर्क को
समझा हैं।’ लेकिन तर्क-वितर्क समझना ही पर्याप्त
नहीं है। तुम्हें उसका स्वाद भी लेना होगा।
मेरे
अंदर का प्रेम बाहर के संसार पर आश्रित है।’ इसी
समय मैं यह भी देखता हूं कि तुम अपने अंदर उसके पूर्ण होने के बारे में क्या कहते
हो। यदि वहां कुछ भी नहीं है और न कोई व्यक्ति उसे पहचानने और उसका स्वाद लेने के
लिए है, तो ऐसे प्रेम के साथ क्या होता है? उसे पहचानने की जरूरत नहीं है, उसके लिए भी कोई पहचान जरूरी नहीं है। उसके लिए
कोई प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है, उसका
स्वाद लेने के लिए किसी भी व्यक्ति की ज़रूरत नहीं हैं। दूसरे की पहचान संयोगवश है, वह प्रेम के लिए आवश्यक नहीं है, प्रेम बहता ही चला जायेगा। यदि कोई भी व्यक्ति
उसका स्वाद नहीं लेता है,
यदि कोई भी उसे नहीं पहचानता है, यदि कोई भी व्यक्ति प्रसन्न और आनंदित नहीं
होता है, परंतु प्रेम बहता चला जायेगा, इसलिए उसके वास्तविक प्रवाह में ही तुम अत्यधिक
पर आनंद का अनुभव करते हो। जब तुम्हारी ऊर्जा प्रवाहित हो रही है, तुम अत्यधिक प्रसन्न होते हो। तुम एक खाली कमरे
में बैठे हुए हो और उर्जा प्रवाहित होती हुए तुम्हारे प्रेम से खाली कमरे को भर
रही हैं। वहां कोई भी नहीं हैं, दीवारें
यह नहीं कहेगी—‘धन्यवाद’—न तो वहां कोई भी परिचित-पहचाने को है। और न कोई भी वहां उसका स्वाद
लेने को है। लेकिन इससे किसी भी प्रकार का कोई अंतर पड़ता है। तुम्हारी उर्जा
मुक्त हो रही हैं, प्रवाहित हो रही है—तुम प्रसन्नता का अनुभव करोगे। फूल प्रसन्न होते
है जब उसकी सुवास हवाओं के द्वारा चारों और फैला दी जाती है। चाहे हवाएं उसे बारे
में जानती हो या न जानती हो। इस बात का कोई मूल्य नहीं रह जाता फूल के लिए।
और
तुम पूछते हो: ‘बिना अपने शिष्यों के आपका क्या महत्व
है?’ मैं हूं, वह मैं हूं,
चाहे शिष्य वहां हो अथवा न हों, यह बात कोई महत्व नहीं लगती, एक प्रकार से ये सब मेरे लिए असंगत है। मैं तुम
पर आश्रित नहीं हूं। और यहां मेरा पूरा प्रयास ही यही है कि तुम भी मुझसे स्वतंत्र
हो सको।
मैं
यहां तुम्हें स्वतंत्रता देने के लिए ही हूं। मैं तुम पर कोई भी चीज़ थोपना नहीं
चाहता हूं, और न मैं किसी भी भांति तुम्हें अपंग
बनाना ही चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम केवल स्वयं अपने में ही बने रहो। और जिस
दिन ऐसा होता है कि तुम मुझसे स्वतंत्र हो जाते हो, तभी तुम वास्तव में मुझसे प्रेम करने में समर्थ होगे—उसे पूर्व तुम समर्थ न हो सकोगे।
मैं
तुमसे प्रेम करता हूं। मैं इसमें सहायता नहीं कर सकता। प्रश्न यह नहीं हैं कि
प्रत्येक स्थिति में मैं तुमसे प्रेम कर सकता हूं अथवा नहीं—मैं पूर्ण रूप से तुमसे प्रेम करता हूं। यदि
तुम यहां नहीं होते हो तो यह च्वांगत्सू सभागार मेरे प्रेम से भरा हुआ होगा, और उससे कोई भी अंतर नहीं पड़ेगा। ये वृक्ष तब
भी मेरा प्रेम पाते रहेंगे,
ये पक्षी भी उसी प्राप्त किये जाते रहेंगे।
और यदि सभी वृक्ष और सभी पक्षी भी विलुप्त हो जायें, तो उससे भी कोई भी अंतर नहीं पड़ेगा और मेरा प्रेम तब भी प्रवाहित
होता रहेगा। प्रेम है, इसीलिए प्रेम प्रवाहित होता है।
प्रेम
एक सक्रिय-ऊर्जा है, वह स्थिर और प्रवाहहीन नहीं हो सकता।
यदि कोई भी व्यक्ति उसमें सहभागी बनता है तो अच्छा है। यदि कोई भी व्यक्ति उसमें
सहभागी नहीं बनता हैं, तो वह भी अच्छा है। क्या तुम्हें याद
है कि परमात्मा ने मोज़ेज से क्या कहां था?
जब
मोज़ेज एक सच्चे यहूदी थे,
इसलिए उन्होंने उनसे पूछा—‘श्रीमान! लेकिन आप मुझे अपना नाम तो बताइये, वे लोग पूछेंगे—ये संदेश आपको किस ने दिया?’ वे
लोग परमात्मा का ना पूछेंगे—‘इसलिए
कृपा करके अपना नाम तो बतलाइयेगा?’
और
परमात्मा ने कहा—‘मैं वहीं हूं जो मैं हूं। अपने लोगों
के पास जाओ और उनसे कहो—‘मैं वहीं हूं जो मैं हूं।’ यहीं मेरा संदेश है।’
यह
बहुत मूर्खतापूर्ण लगता है लेकिन यह कथन अत्यधिक अर्थपूर्ण है: ‘मैं वही हूं जो में हूं।’ परमात्मा के पास कोई भी नाम नहीं है, न कोई परिभाषा है, केवल उसका होना ही पर्याप्त है।
दूसरा
प्रश्न:
प्यारे
ओशो! मैं कहीं भी नहीं जाती हूं। फिर मेरे लिए मानचित्र की आवश्यकता क्या है? क्या अभी और यहीं, बने रहना ही पर्याप्त नहीं है?
हां, इस जगह न कोई लक्ष्य है, और न कहीं भी जाना है। और मानचित्र अथवा नक्शे
की भी कोई जरूरत नहीं है। यदि तुमने मुझे समझ लिया है। लेकिन अगर तुमने मुझे नहीं
समझा है। इसीलिए मानचित्र जरूरी होती है। मानचित्र की आवश्यकता इसलिए नहीं होती, क्योंकि वहां कोई लक्ष्य है, इस बारे में कहीं भी जाने की कोई जरूरत नहीं
है। मान चित्र इसलिए जरूरी हैं, क्योंकि
तुम कहीं और चले गए हो। और तुम्हें यहीं और अभी में वापस लौट कर आना है। इस बारे
में कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है। लेकिन तुमने सपना देखा है, कि तुम कहीं और चले गए हो! नक्शे की जरूरत घर
वापस लौटने के लिए है। तुम अपनी कल्पना में गतिशील होकर भटक गए हो, तुम अपनी कामना में तुम अपनी महत्वाकांक्षा में
कहीं और चले गए हो और तुम स्वयं अपनी ही और नहीं देख रहे हो। और तुम बहुत तेजी से
आगे बढ़े ही चले जा रहे हो। नक्शे की जरूरत पीछे देखने के लिए है, तुम्हें अपनी आत्मा से मिलने के लिए और स्वयं
अपना साक्षात्कार करने के लिए है।
लेकिन
यदि तुम मुझे समझ रहे हो—कि जो कुछ है वह सभी यहीं और अभी ही है—तो तुम मानचित्र को जला सकते हो, तुम उस नक्शे को फेंक सकते हो, तब तुम्हारे लिए एक नक्शे की कोई भी जरूरत नहीं
है। उस व्यक्ति के लिए जो अपने घर पहुंच गया हैं। मानचित्र की कोई जरूरत नहीं रह
जाती। लेकिन जब तक तुम अपने शाश्वत घर न पहुंच जाओ, नक्शे को जलाना मत।
इस
बारे में एक ज़ेन सद्गुरू का एक प्रसिद्ध चित्र है, जिसमें वह बौद्ध धर्म शास्त्रों को आग में जला रहा है। कोई व्यक्ति
उनसे पूछता है—‘सतगुरु! आप ये क्या कर रहे है? आपने हमेशा इन्हीं धर्मशास्त्रों से हमें
शिक्षा दी है और आप हमेशा व्याख्या करते हुए इन धर्म शास्त्रों पर प्रकाश डालते
हरे है। आप आखिर उन्हें जला क्यों रहे है?’
और
सदगुरू अट्ठहास करता है और कहता है—‘क्योंकि
अब मैं अपने घर पहुंच गया हूं, इसीलिए
अब नक्शे की कोई जरूरत नहीं है?’
लेकिन
तुम्हें उन्हें तब तक नहीं जलाना चाहिए, जब
तक कि तुम अपने घर तक पहुंच ही जाते हो। जब तुम अपने घर से दूर हो, तो एक नक्शा साथ लेकर चलो, जो बहुत अर्थ पूर्ण है। जब तुम घर पहुंच जाओ तो
नक्शे को फेंक देना। यदि तुम उसे पहुंचने से पूर्व फेंक देते हो तो तुम खतरे में
भी पड़ सकते हो।
हां, यहीं और अभी पर्याप्त से भी अधिक है—पर्याप्त ही नहीं, पर्याप्त से भी कहीं अधिक है। जो कुछ वहां है, वह सभी कुछ है। लेकिन तुम अभी यहीं और अभी में
नहीं नहीं हो, इसलिए ये सारे मानचित्र तुम्हें घर
वापस लाने के लिए जरूरी हैं। वास्तव में तुम कहीं भी नहीं गए हो, लेकिन तुम सपना देख रहे हो कि तुम कहीं चले गए
हो। ये मानचित्र भी सपने के मानचित्र हैं।। स्मरण हरे ये नक्शे, स्वप्न में देखे जाने वाले नक्शे हैं, ये नक्शे उतने ही मिथ्या हैं, जैसे तुम्हारा संसार और जैसा तुम्हारा समसारा।
अति
अथवा सर्वोच्च धर्मग्रंथ के अंदर कोई भी शब्द नहीं होते। सूफियों के पास एक पुस्तक
है, उसका नाम है—‘सभी किताबों की किताब’(The Book Of Book) वह पूरी तरह कोरी है। उसमें एक शब्द भी
नहीं लिख है। पिछली कई सदियों से वह एक सद्गुरू से दूसरे को दी जाती रही है। वह एक
गुरु द्वारा अपने शिष्य को हस्तांतरित की जाती रही है। और उसे अत्यधिक सम्मान के
साथ रखा जाता है। वह सभी धर्मग्रंथों में सर्वोच्च है। वेद भी इतने अधिक सुंदर
नहीं है, बाइबिल भी इतनी अधिक सुंदर नहीं है, गीता भी इतनी सुंदर नहीं है, न ही कुरान, क्योंकि
उनमें वहां कुछ लिख हुआ है। परंतु ‘किताबों
की किताब’में अति सुंदर अलिखा है। वास्तव में वह
अधिक मूल्यवान है। लेकिन क्या तुम उसे पढ़ने में समर्थ होगे? असंभव, जब
पश्चिम में पहली बार सूफियों ने उसे प्रकाशित कराना चाहा तो कोई भी प्रकाशक उसके
लिए तैयार नहीं हुआ। उसमें है ही क्या? वहां
प्रकाशित करने को कुछ है ही नहीं, वे
लोग कहते है—‘यह तो केवल एक कोरी और खाली होगी, किसलिए और क्यों तुम इसे प्रकाशित करना चाहते
हो?’
पश्चिम
का मन सफेद कागज़ पर फैले काली स्याही के अक्षरों को समझ सकता है, वह प्रत्येक रूप से सफेद पृष्ठों को नहीं देख
सकता। पश्चिम मन के लिए सफेद पृष्ठों का नहीं, केवल
काली स्याही का ही अस्तित्व है। पश्चिम मन के लिए आकाश का नहीं केवल बादलों का ही
आस्तित्व है। पश्चिम मन के लिए चेतना का नहीं केवल मन का ही अस्तित्व है। उनके लिए
विषय सामग्री ही अस्तित्व में है। लेकिन वे उस विषय सामग्री को रखने वाला पात्र
अथवा खोल के बारे में पूर्ण रूप भुला बैठे है।
सफेद
काग़ज पर विचार केवल काली स्याही मात्र के धब्बे भर है। विचार केवल लिखे हुए संदेश
जैसे हैं। जब विचार विलुप्त हो जाते है, तुम
खाली, सभी किताबों की किताब बन जाओगे। लेकिन
अस्तित्व की यहीं आवाज़ है।
तुम
कहते हो—‘मैं कहीं भी नहीं जा रही हूं, फिर मुझे नक्शे की जरूरत क्या है? क्या यहीं और अभी में बने रहना ही पर्याप्त
नहीं है?’ क्योंकि तुम यह प्रश्न पूंछ रहे हो, इसीलिए तुम्हें अभी भी नक्शे की जरूरत होगी, नक्श के लिए एक प्रश्न का होना बहुत जरूरी है।
यदि तुमने मुझे समझ लिया है, तो
वहां कोई भी प्रश्न बनता ही नहीं चहिए। तब वहां पूछने के लिए क्या रह जाता है? यहीं और अभी ही पर्याप्त हैं, फिर इस बारे में पूछने को है ही क्या? तुम ‘यहीं
और अभी’ के बारे में क्या पूंछ सकते हो?सभी पूछना अन्य कहीं और के लक्ष्य के बारे में
ही तो है, तब और वहां के बारे में ही पूछना होता
है।
तीसरा
प्रश्न:
प्यारे ओशो!
मेरा विवाह हुए पहले से ही बीस वर्ष हो चुके
हैं, और ‘वह मुझे क्यों नहीं समझ सकती?’ —जबकि वहां अनुभूति भी है। कभी लगता है—मैं हनीमून के मध्य में हूं, और दूसरे ही क्षण ऐसा लगता है जैसे मैंने अपने
जीवन में उसे कभी देखा ही नहीं। जाना ही नहीं....मेरा मन क्रोध से पागल हुआ जा रहा
है?
मन
हमेशा क्रोध से पागल बना रहता है—मन
का यही तरीका है। मन बातों का एक अनवरत प्रवाह है और निरंतर उसमें परिवर्तन हो रहा
है। कोई भी दो लगातार क्षणों में भी वह समान नहीं रहता है। वह प्रत्येक क्षण भिन्न
होता है। हां, एक क्षण तुम यह अनुभव करते हो कि तुमने
अपनी पत्नी को अपने पूरे जीवन में नहीं देखा है, तुम अभी तक उससे मिले भी नहीं हो। यद्यपि तुम उसके साथ बीस वर्षों से
रहते चले आ रहे हो। दूसरे ही क्षण तुम स्वयं अपने को हनीमून के ठीक मध्य में पाते
हो: तुमने उसके सौंदर्य को देखा है, उसके
अनुग्रह, उसकी प्रसन्नता और उसके अंतरस्थ केंद्र
को देखा हैं। और तब वह दृश्य चला जाता है और बदल जाता है।
मन
बहुत अधिक फिसलने वाला है,
वह फिसलता चला जाता है, वह किसी भी स्थान पर कहीं भी ठहर नहीं सकता है।
उसके पास स्थिर खड़े होने की सामर्थ्य ही नहीं है, वह निरंतर प्रवाहमान रहता है। मन के साथ प्रत्येक चीज़ कुछ इस तरह से
होती है: एक क्षण तुम प्रसन्न हो, दूसरे
ही क्षण तुम अप्रसन्न हो। एक क्षण तुम इतने अधिक आनंदित हो, फिर दूसरे ही क्षण तुम बहुत उदास हो, मन का चक्र निरंतर घूमता ही चला जाता है। एक
क्षण उसके पहिए की तरह तान शीर्ष पर होती हैं, दूसरे
ही क्षण दूसरी तान शीर्ष पर पहुंच जाती है। और वह इसी तरह से लगातार घूमता ही चला
जाता है। इसी कारण हम पूर्व में उसे समसारा अथवा चक्र कहकर पुकारते हैं। यह संसार
एक चक्र की भांति हैं, और यह चक्र बार-बार निरंतर घूमता ही
चला जा रहा है। और वह एक क्षण के लिए भी थिर नहीं होता है।
वह
एक फिल्म के समान है: यदि फिल्म एक क्षण के लिए भी रूक जाती है, तो तुम पर्दे को देखने में समर्थ हो सकोगे।
लेकिन फिल्म घूमती ही चली जाती हैं, और
वह इतनी अधिक तेजी से घूमती है कि तुम उसमें इतने अधिक तल्लीन हो जाते हो, तुम उसके साथ इतने अधिक व्यस्त हो जाते हो कि
तुम पर्दे को नहीं देख सकते हो। और पर्दा ही एक वास्तविकता है। उस पर प्रक्षेपित
किये जाने वाले चित्र ठीक सपनों की भांति हैं। मन प्रक्षेपण किए चले जाते है।
मैंने
सुना है.......
एक
करोड़पति व्यक्ति ने डाकखाने में प्रवेश किया और उसने एक बुर्जुग जोड़े को काउंटर
से अपनी वृद्धावस्था की पेंशन को निकालते हुए देखा। वह एक बहुत अच्छे मूड़ में था।
और उसने वृद्ध दम्पति के लिए खेद प्रकट करते हुए सोचा कि इन लोगों को जीवन के
सौंदर्य और आनंद को जानने के लिए सप्ताह का अवकाश बिताने का अवसर दिया जाना चहिए।
उसका मूड़ उस समय बहुत उदार और दयालुता से भरा हुआ था। इसलिए उनके पास जाकर उसने
उन लोगों से कहां—‘क्या आप लोग मेरे निवासस्थान पर एक
सप्ताह गुजारना पसंद करेंगे? मैं
आप दोनों को एक विलक्षण और अदभुत समय गुजारने का अवसर दूंगा।
उस
वृद्ध जोड़े ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। और इसलिए वह करोड़पति उन्हें अपने
विशाल आलीशान पूर्ण आराम पूर्ण निवासस्थान
पर ले गया। और जैसा कि उसने वायदा किया था, उसने
वास्तव में उन्हें एक अच्छा अवकाश बिताने के लिए शानदार स्वादिष्ट भोजन, रंगीन टेलीविजन और अनेक विलासिता पूर्ण साधन
उपलब्ध कराने की व्यवस्था की, जिसके
लिए उन लोगों ने कभी सपना तक नहीं देखा था कि वे सुविधाएं उन्हें कभी जीवन में
प्राप्त हो सकेगी। और आज वह सब उनके लिए उपलब्ध थी।
सप्ताह
के अंत में वह टहलता हुआ अपने पुस्तकालय में गया जहां वृद्ध महाशय शराब के गिलास
के साथ सिगार पीने का वह सज्जन आनंद उठा रहे थे। उस करोड़पति ने उनसे पूछा—‘क्या आपने अवकाश का भरपूर आनंद लिया?’
वृद्ध
सज्जन ने उत्तर दिया—‘वास्तव में समय बहुत ही शानदार गुजरा? लेकिन क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूंछ सकता हूं?’
करोड़पति
ने कहा—‘निश्चित रूप से...क्यों नहीं?’
वृद्ध
सज्जन ने पूंछा—‘वह वृद्ध महिला कौन हैं जिसके साथ मैं
पूरे सप्ताह सोता रहा हूं?’
जो
लोग अपनी पत्नी के साथ अथवा अपने पतियों के साथ अपने पूरे समय रहे हैं, यही स्थिति उन लोगों की भी होगी। वह स्त्री कौन
है, जिसके साथ तुम बीस वर्षों से सोते हो? वहां कुछ क्षण ऐसे होते हैं, जब तुम अनुभव करते हो कि तुम जानते हो। वहां
कुछ क्षण ऐसे होते हैं, जब अचानक वहां एक फलित और अंधकार मय
चीज की दीवार खड़ी हो जाती हैं, जिसके
पार तुम कोई भी चीज़ नहीं देख सकते हो, और
तुम यह भी नहीं जानते कि यहां यह अजनबी कौन है?
हमारा
सभी जानना इतना अधिक उथला है कि हम आपस में अजनबी बने रहते हैं। तुम एक स्त्री के
साथ बीस वर्षों तक सो सकते हाँ—उससे
कुछ भी नहीं पड़ता और तुम अजनबी ही बने रहते हो। और कारण केवल इतना सा है कि तुम
अभी अपने को नहीं जानते हो। जब तुम अपने को ही नहीं जानते हो तो फिर दूसरे को कैसे
जान सकते हो? यह असंभव ही है, तुम असंभव के लिए आशा कर रहे हो। तुम स्वयं
अपने को ही नहीं जानते। तुम उस व्यक्ति को नहीं जानते, जो तुम हो, और
तुम इस अस्तित्व में यहां शाश्वतता से रहते चले आए हो। तुम यहां लाखों जन्मों से
रहते आये हो। और तुम अभी तक यह नहीं जानते कि तुम कौन हो?तब इन बीस वर्षों के लिए क्या कहा जाए?
और
तुम उस दूसरी स्त्री के बारे में कैसे जान सकते हो, जो तुमसे इतनी अधिक दूर है? तुम
उसके सपनों में प्रवेश नहीं कर सकते, तुम
उसके विचारों में प्रवेश नहीं कर सकते, तुम
उसकी कामनाओं में प्रवेश नहीं कर सकते। फिर तुम उसकी आत्मा में कैसे प्रवेश कर
सकते हो। तुम उसके सपनों को भी नहीं जान सकते। हो सकता है, तुम उसी बिस्तरे पर उसी स्त्री के साथ बीस
वर्षों से सोते रहे हो, लेकिन वह अपने सपने देखती है और
तुम्हारे स्वप्न तुम्हारे स्वप्न हैं तुम्हारी वैयक्तिकता में अनेक संसारों की
दूरी बनी ही रहती है।
जब
भी तुम एक स्त्री की बाहो को अपनी बांहों में लिए हुए उससे प्रेम कर रहे हो, तो क्या वास्तव में तुम उसी स्त्री को वास्तव
में पकड़े हुए हो। अथवा तुम केवल एक कल्पना की अथवा उसकी ऊंचाई की एक छाया को
पकड़े हुए? क्या सच ही तुम उस ही स्त्री को वास्तविक
में अपनी बांहों में पकड़े हुए हो? या
कल्पना कहीं और तुम्हारा यहां होना एक छाया मात्र है। जिस स्त्री के साथ तुम मौजूद
हो, क्या तुम इसी स्त्री को प्रेम करते हो? अथवा क्या तुम्हारे पास कि तुम उससे प्रेम करते
हो इस बारे में कुछ विशिष्ट विचार हैं और तुम पाते हो कि वे विचार इस स्त्री में
प्रतिबिम्बित हो रहे है? जब बिस्तरे में वहां दो व्यक्ति होते
हैं तो मेरी यह अनुभूति है कि वहां हमेशा चार व्यक्ति होते हैं, उन दो के मध्य दो प्रेत-छायाएं भी लेटी होती
हैं, वे पत्नी द्वारा पति की, और पति द्वारा पत्नी की प्रक्षेपित छायाएं होती
हैं।
यह
संयोग नहीं है कि पति किसी आदर्श के अनुसार पत्नी को बदलने का प्रयास किये चले
जाता है और पत्नी भी उसके कुछ आदर्श के अनुसार कम से कम पति को बदलने का प्रयास
किये चले जाती है। वे दो प्रेम छायाएं होती हैं। तुम स्त्री को जैसी वह है, स्वीकार नहीं कर सकते, अथवा कर सके हो? तुम्हारे पास करने के लिए कई सुधार और कई परिवर्तन हैं। और यदि सभी
परिवर्तन वास्तव में संभव हुए होते यदि परमात्मा संसार में आया होता और लोगों से
कहता—‘ठीक है, अब सभी पत्नियों को अनुमति है कि वे अपना जैसा पति चाहें बदल सकती
हैं—अथवा सभी पतियों को भी अनुमति है कि वे
अपनी जैसी भी पत्नी चाहे बदल सकते है।’ तो
क्या तुम जानते हो, तब क्या हुआ होता?संसार पूरी तरह से पागल हो गया होता। यदि
स्त्रियों को अपने पति बदलने की अनुमति दी जाती तो तुम एक ऐसा व्यक्ति न पाते जिसे
तुम पहचान सकते। सभी पुराने लोग चले गये होते। यदि पतियों को अपनी पत्नियां बदलने
की अनुमति दी गई होती, तो यहां एक भी ऐसी स्त्री न रह जाती
जैसी वह पहले थे। और क्या तुम सोचते हो कि तुम प्रसन्न हुए होते? तुम प्रसन्न न हुए होते, क्योंकि तब तुमने जो भी स्त्री अपने आदर्शों के
अनुसार बदली होती, उसने तुम्हें आकर्षित न किया होता, क्योंकि उसके पास उसके अंदर तब कोई भी रहस्य न
होता।
मन
की मांगें और उसकी मूर्खताएं देखो सभी आत्मघाती मांगें हैं। यदि तुम अपने पति को
बदलने में समर्थ होती और वास्तव में उसे पूर्ण रूप से बदलने में तुम वास्तव में
पर्याप्त शक्तिशाली बन गई होती: तो क्या तुम उस पुरूष से प्रेम कर पाती? वह तुम्हारे द्वारा कुछ वस्तुएं एक साथ रख देने
जैसा होता। उसमें कोई रहस्य न होता, उसके
पास कोई आत्मा न होती, उसके पास स्वयं की अपनी कोई सत्यनिष्ठा
और उससे ऊब गई होती; वह केवल ‘घर का बना एक कठपुतली मात्र होता।’ उसमें कैसी दिलचस्पी होती? दिलचस्पी केवल तब उत्पन्न होती है, जब वहां कोई अनजानी चीज अथवा एक रहस्य खोजने के
लिए होता है। और एक आह्वान तुम्हें अपरिचित में चुनौती देता हुआ उसमें गतिशील करता
हैं।
पहली
बात यह: तुमने स्वयं अपने को ही नहीं जाना है इसलिए तुम अपनी पत्नी को कैसे जान
सकते हो?यह सम्भव ही नहीं है। स्वयं को जानने
से शुरूआत करो। और यही इसका सौंदर्य है: कि जिस दिन तुम स्वयं को जान लेते हो, तुम सभी को जान लोगे। न केवल अपनी पत्नी को, तुम पूरे अस्तित्व को जान लोगे। न केवल
मनुष्यों को, बल्कि तुम वृक्षों, पक्षियों, जानवरों
और चट्टानों व नदियों तथा पर्वतों दूर चांद सितारों को। तुम सभी को जान लोगे, क्योंकि तुम सभी को धारण करते हो और तुममें सभी
हैं, तुम स्वयं एक बहुत छोटा सा ब्रह्माण्ड
समाया है।
और
एक दूसरी सौंदर्य एक दूसरा आश्चर्य जनक अनुभव उस क्षण होता है, जब स्वयं अपने को जानते हो और रहस्य अभी समाप्त
नहीं होता। वास्तव में पहली बार ही रहस्य और अधिक बढ़ जाता है। तुम जानते हो, और तो भी तुम जानते हो कि अभी भी वहां बहुत कुछ
जानने को है। तुम जानते हो,
और तुम यह भी जानते हो की यह ज्ञान कुछ
भी नहीं है। तुम जानते हो और सभी सीमा रेखा दूर है। तुम केवल ज्ञान के सागर में प्रवेश
करते हो—और कभी भी दूसरे किनारे तक नहीं
पहुंचते हो।
उस
क्षण में पूरा अस्तित्व रहस्यमय लगता है: तुम्हारी पत्नी तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे मित्र। और तुम्हारा ज्ञान, जीवन के काव्य का और इस जादू को नष्ट करने वाला
न होकर, यह ज्ञान, काव्य को, उस
जादू भरे चमत्कार को और उस रहस्य को बढ़ाता ही है।
‘मुझे विवाह किये हुए पहले ही बीस वर्ष
हो चुके हैं, और वह फिर भी नहीं समझती, जब कि वहां अनुभव भी है।’
क्या
तुम स्वयं अपने समझते हो?
क्या तुम ऐसे कार्य नहीं कर रहे हो, जिसके लिए तुम बाद में पश्चाताप करते हो। और
तुम कहते हो कि तुमने उसे अपने स्वयं के होने बावजूद नहीं देखा है। क्या तुम स्वयं
अपने को समझते हो? जब कोई भी व्यक्ति तुम पर चोट करता हैं, तुम क्रोधित हो जाते हो, क्या तुम समझ के साथ क्रोधित हुए हो—अथवा केवल उसने तुम्हारा बटन दबा दिया था।
तुम्हारी
स्वयं अपने बारे में जानकारी बहुत उथली ही है। वह ठीक कार के ड्राइवर की भांति है।
हां, वह कार के बारे में थोड़ी सी चीजें
जानता है: वह स्टेरिंग व्हील को व्यवस्थित कर सकता है। वह एक्सीलेटर और कल्च को
व्यवस्थित कर संभाल सकता है। वह गेयर बाक्स और ब्रेक को संचालित कर सकता है। वह
सभी कुछ इतना ही कर सकता है। क्या तुम सोचते हो कि वह कार के बारे में सभी कुछ
जानता है?जो कुछ बोनेट के नीचे छिपा हुआ है, वह उनके बारे में जरा भी नहीं जानता है। और यही
असली कार है। जहां से पूरा कार्य संचालित होता है। यहीं स्थान है जहां से वास्तविक
घटना घट रही है। वह जो कुछ भी खींच रहा है और संचालित कर रहा है। वे केवल बटन हैं।
देर या सवेर ये चीजें कार से विलुप्त होने जा रही है। उन्हें विलुप्त ही हो जाना
चाहिए, क्योंकि वह स्टीयरिंग व्हील यह
एक्सीलेटर और यह ब्रेक यी चीजें बहुत अधिक पुरानी हो चुकी है। उन्हें लुप्त हो जाना
चाहिए, वे जरूरी नहीं है। और एक कम्पयूटर सभी
कुछ कार्य कर सकता है। और तब छोटे बच्चे भी कार को चला सकते हैं—और तब इस बारे में वास्तव में लाइसेंस लेने की
भी जरूरत नहीं रह जायेगी।
लेकिन
क्या तुम समझते हो कि कार के अंदर क्या कुछ हो रहा है! जब तुम एक बटन को दबाते हो
तो बिजली की रोशनी हो जाती है। क्या तुम बिजली को समझते हो? तुम सामान्य रूप से यहीं जानते हो कि बटन को
कैसे दबाया जाए, बस तुम सभी कुछ इतनी ही जानते हो।
मैंने
एक कहानी सुनी है.......
जब बियाना
शहर में पहली बार बिजली आई तो सिंगमंडफ्रायड का एक मित्र देहात से उससे भेट करने
आया हुआ था। उसने पहले तो कभी बिजली देखी नहीं थी। फ्रायड ने रात में आराम करने के
लिए उसे उसके कमरे में छोड़ दिया। वह मित्र बहुत अधिक परेशान था, उसने बिजली कभी भी देखी नहीं थी और वह यह भी
नहीं जानता था की रोशनी बुझाने के लिए उसे क्या करना चाहिए। उसने अपनी तरफ से सभी
प्रयास किए फिर भी वह उसे बुझाने का कोई रास्ता खोज नहीं पाया। और वह फ्रायड के
पास वापस जाकर पुछने से भी घबरा रहा था कि उसका दोस्त उसे महामूर्ख समझेगा—‘कि वे लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे? कि तुम इतना साधारण सा काम भी नहीं जानते।’ तब तो वह बहुत ही अज्ञानी सिद्ध होगा। कि सच ही
वह एक छोटे गांव से आया है। वे लोग बाद में उसका मजाक बनायेंगे। उस पर हंसेंगे।
इसलिए उसने बिजली के बल्ब को एक तौलिए से ढक दिया और सोने चला गया
वह
ठीक से सो न सका, बार-बार वह इसके बारे में ही सोचता:
वहां अनिवार्य रूप से कुछ तरीका तो होना ही चाहिए—वह खड़ हुआ और बार-बार उसने प्रयास किया—और रोशनी फिर भी वहां जल रही थी और उसके लिए
सोना बहुत मुश्किल था। और रोशनी की अपेक्षा भी खराब चीज़ यह थी कि यह बात उसे
निरंतर चुभ रही थी कि वह एक इतनी छोटी सी भी बात भी नहीं जानता।
सुबह
जब फ्रायड ने उससे पूंछा—‘तुम्हें नींद तो अच्छे से आई या नहीं?’
उसके
दोस्त ने उत्तर दिया—‘प्रत्येक चीज तो ठीक थी। केवल मैं, एक ही बात पूछना चाहता हूं कि इस रोशनी को कैसे
बंद किया जाता है?’
और
फ्रायड ने कहा—‘ऐसा प्रतीत होता है कि तुम बिजली के
बारे में बिलकुल भी नहीं जानते। यहां आओ दीवार पर यह जो स्विच लगा है, उस स्विच को दबा दो और रोशनी बुझ जायेगी।’
तब
उस देहाती मित्र ने कहा—‘अरे इतना आसान?’ अब में जान गया की बिजली क्या है?’
लेकिन
क्या तुम जानते हो कि बिजली क्या होती है? क्या
तुम जानते हो कि क्रोध क्या होता है? क्या
तुम जानते हो कि प्रेम क्या होता है? क्या
तुम जानते हो कि प्रसन्नता क्या होती है? और
आनंद क्या होता है? और सच में ही क्या तुम जानते हो कि
उदासी क्या होती है? तुम कुछ भी नहीं जानते हो। तुम स्वयं
अपने को नहीं जानते। तुम अपने मन को नहीं जानते। तुम अपने आंतरिक अस्तित्व को नहीं
जानते। तुम यह भी नहीं जानते कि यह पूरा जीवन संयोग से कैसे घटता है और कहां से? यह क्रोध कहां से आता है? यह प्रसन्नता कहां से आती है? एक क्षण में तुम उत्सव आनंद मना रहे हो और
दूसरे ही क्षण तुम आत्मघात करने को तैयार हो जाते हो। यह विचार कहां से आता है?
मेरी
यह अनुभूति—‘यह क्यों नहीं समझती?’….अपनी पत्नी के बारे में तुम्हारा यह अनुभव
स्वाभाविक है। तुम उसे कैसे समझ सकते हो? तुमने
अपने मन तक को अभी नहीं समझा है? जिस
दिन तुम अपने मन और अपनी आत्मा को समझ लेते हो, तुम
सभी मानो और सभी आत्माओं को समझ लेते हो। तुमने सभी मन-और आत्माओं को समझ लिया।
क्योंकि आधारभूत नियम तो एक ही है। यदि तुम सागर की एक बूंद को समझ सकते हो, तो तुम इस पृथ्वी के और अन्य ग्रहों के भूत काल, वर्तमान और भविष्य के सभी सागरों को समझ लिया
है। क्योंकि एक बार तुमने समझ लिया कि उसमें दो अणु हाइड्रोजन और एक अणु आक्सीजन
का और वह एच.टू.ओ(H2O) हैं।
तो तुमने पानी को समझ लिया है। जहां कहीं भी पानी अस्तित्व में है, वह एच.टू.ओ ही होगा एक बार तुमने अपने क्रोध को
समझ लिया, तो तुमने भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल के सभी मनुष्यों के
क्रोध को जान लिया। यदि तुम अपनी कामवासना को समझ सके जान सके तो तुमने सारे
आस्तित्व के सेक्स को जान लिया।
कृपया
दूसरे व्यक्ति को समझने का प्रयास मत करो, वह
कोई ठीक ढंग नहीं है। स्वयं अपने को ही समझने का प्रयास करो—यही एक ठीक ढंग है। तुम एक लघुब्रह्माड़ हो।
तुम्हारे अंदर ही आस्तित्व का पूरा मानचित्र हैं।
चौथा
प्रश्न:
मैं
अपने पति से प्रेम करती हूं, लेकिन मैं सेक्स से घृणा करती हूं। और इससे संघर्ष उत्पन्न होता है।
क्या सेक्स जानवरों जैसा कु-कृत्य नहीं है?
हां, वह जानवरों जैसा कृत्य ही हैं। लेकिन मनुष्य एक
जानवर ही तो है—वह उतना अधिक ही एक जानवर है जैसा की
हमको दूसरे जानवर दिखाई देते है। वह अन्य जानवरों से जरा सा भी भिन्न नहीं है। जब
मैं कहता हूं कि मनुष्य एक पशु हैं, तो
मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य पशुत्व के साथ ही समाप्त हो जाता है, वह एक पशु से भी अधिक हो सकता है। और उससे कम
भी हो सकता हैं। यही मनुष्य की गौरव और गरिमा है। यही उसकी स्वतंत्रता है, और यह एक खतरा भी है, वेदना भी है और परमानंद भी है। एक मनुष्य पशुओ
की तुलना में उनसे भी निम्न तल पर जा सकता है। और दूसरी और चाहे तो वही मनुष्य
देवताओं से भी कहीं अधिक उच्च हो सकता है। मनुष्य के पास छिपी हुई संभावित शक्ति
अनंत है। एक कुत्ता, एक कुत्ता ही होता है और वह एक कुत्ता
ही बना रहता है। वह एक पाश में हैं, इस लिए उसे पशु कहां है...वह एक बंधन में जन्म
लेता है और उसी बंधन में ही मर जाता है। एक मनुष्य एक बुद्ध भी बन सकता है और एक
एडोल्फ हिटलर भी बन सकता है। इसलिए एक मनुष्य के दोनों छोर पूर्णता से खुले है वह
पूर्ण स्वतंत्र है—पीछे लौटकर उसका पतन भी हो सकता है।
मनुष्य की अपेक्षा क्या तुम कोई भी अधिक खतरनाक और कहीं अधिक पागल जानवर खोज सकते
हो?
ज़रा
एक दृश्य के बारे में सोचो: पचास हजार बंदर एक स्टेडियम में बैठे हुए अपने
छोटे-छोटे बच्चों की हत्या कर उन्हें आग में झोंक रहे है। उनके बारे में तुम क्या सोचोगे? हजारों बच्चे आग में फेंके जा रहे हैं, और स्टेडियम के मध्य में एक बहुत बड़ी आग जल
रही है और पचास हजार बंदर अपने ही बच्चों को आग में फेंक कर आनंद मनाते हुए नृत्य
कर रहे है। तुम इन बंदरों के बारे में क्या सोचोगे? क्या तुम यह नहीं सोचोगे कि वे बंदर पागल हो गये होंगे। लेकिन मनुष्य
के इतिहास में ऐसा ही घटना घटी ‘कार्थेज’ में ऐसा ही हुआ, वहां हजार मनुष्यों ने अपने ही बच्चे जला दिए।
उन्होंने एक बार में ही अपने तीन सौ बच्चों को अपने देवताओं की भेंट करते हुए उनका
बलिदान कर दिया।
लेकिन
कार्थेज के बारे में भूल जाओ, वह
अतीत में बहुत पहले हुई घटना है। इसी बीसवीं सदी में एडोल्फ़ हिटलर ने क्या किया? निश्चित रूप से यह कहीं अधिक उन्नतिशील सदी हैं, इसलिए एडोल्फ़ हिटलर, जो भी कुछ कार्थेज में किया गया था, उसकी अपेक्षा कहीं अधिक बड़ी चीजें करने में समर्थ था। उसने लाखों
यहूदियों को जिंदा जला दिया एक बार में हजारों यहूदियों को बलपूर्वक गैस चेम्बर
में ठूंस दिया जाता था। और सैकड़ों लोग बाहर खड़े हुए एक और प्रतिबिम्बित करने
वाले दर्पणों के द्वारा निरीक्षण करते। इन लोगों के बारे में तुम क्या सोचोगे? यह किस तरह के लोग हैं? लोगों को गैस चेम्बर में भूना जा रहा हैं, उनके शरीर भांप बनकर उड़ रहे हैं, और दूसरी और लोग बाहर खड़े होकर उसका निरीक्षण
कर रहे हैं? क्या तुम जानवरों के द्वारा ऐसे कार्य
करने के बारे में सोच भी सकते हो?
तीन
हजार वर्षों में मनुष्य ने पांच हजार से अधिक युद्धों से होकर गुज़रा है। हत्याएं, हत्याएं...और केवल हत्याएं। और तुम पशुवत सेक्स
करने की बात कर रही हो पशुओं ने कोई भी चीज मनुष्य की अपेक्षा इतनी अधिक पशुवत
बनकर नहीं की हैं।
मनुष्य
एक पशु है। और यह विचार कि मनुष्य एक पशु नहीं है, तुम्हारे विकास के लिए होने वाले अवरोधो में से एक है। इसलिए जब तुम
यह मानकर चलती हो कि तुम पशु नहीं हो, तब
तुम्हारा विकास होना रुक जाता है। पहली मान्यता यह होनी चाहिए—‘मैं एक पशु हूं और मुझे सचेत बने रहना है तथा
उसके पास जाना है।’
एक
बार ऐसा हुआ.....
एक
व्यक्ति ने आयरलैंड के एक नगर में स्थित होटल को पत्र लिखकर पूछा कि क्या वहां
उसके कुत्ते को भी ठहरने की अनुमति मिलेगी? उसे
वहां से निम्न उत्तर प्राप्त हुआ।
प्रिय
महोदय!
मैं
होटल के व्यवसाय में तीस वर्षों से भी अधिक से हूं। मुझे अभी तक कभी भी सुबह होते
ही किसी भी अव्यवस्थित कुत्ते को होटल से निकालने के लिए पुलिस को नहीं बुलाना
पड़ा। किसी भी कुत्ते ने कभी भी गलत चेक देकर भाग जाने का प्रयास नहीं किया। न कभी
भी एक कुत्ते ने धूम्रपान के द्वारा बिस्तरे की चादर को जलाया। मैंने कभी भी होटल
के तौलिए को कुत्ते के सूटकेस में नहीं पाया। आपके कुत्ते का होटल में स्वागत है।
पुनश्च—यदि वह आपके लिए सत्यापन कर सकता है तो आप भी आ
सकते हैं।
पशु
बहुत आकर्षित होते हैं, वे जैसे भी हैं वे यथार्थ में निर्दोष
हैं। मनुष्य बहुत चालबाजी,
बहुत नपा-तुला और बहुत कुरूप हैं।
पशुओं की अपेक्षा मनुष्य बहुत नीचे तल पर भी गिर सकता है, क्योंकि मनुष्य ही एक मनुष्य से भी ऊँचा उठकर
देवताओं से भी उच्च हो सकता है।
मनुष्य
के पास छिपी हुई अनंत संभावित शक्ति है, वह
निम्नतम भी बन सकता है और वह उच्चतम भी हो सकता है। उसके अस्तित्व में उसके पास
पहले डंडे से लेकर आखिरी डंडे तक पूरी सीढ़ी हैं।
इसलिए
पहली चीज़ जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि सेक्स को केवल पशुवत मत कहो, क्योंकि सेक्स केवल पाशविक भी हो सकता है। वैसा
होना सम्भव हैं—लेकिन वैसा होने की जरूरत नहीं है। वह
उच्चतम तल पर उठ प्रेम भी बन सकता हैं और वह प्रार्थना भी बन सकता है?यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है। सेक्स स्वयं
अपने आप में एक स्थित सत्ता जैसा कुछ भी नहीं है, वह केवल एक सम्भावना हैं। तुम उसे जैसा भी बनाना पसंद करती हो, तुम वैसा ही बना सकती हो।
तंत्र
का पूरा संदेश ही यहीं हैं: सेक्स, समाधि
बन सकती है। तंत्र की यही अंतदृष्टि भी हैं: सेक्स समाधि बन सकता है, और सेक्स द्वारा सर्वोच्च परमानंद तुम्हारे
अंदर प्रवेश कर सकता है।
सेक्स
तुम्हारे और सर्वोच्च परमानंद के मध्य एक सेतु बन सकता है।
तुम
कहती हो: मैं पति से प्रेम करती हूं, लेकिन
मैं सेक्स से घृणा करती हूं और इससे संघर्ष उत्पन्न हो जाता हैं। तुम सेक्स से
घृणा करते हुए अपने पति से प्रेम कैसे कर सकती हो? तुम अनिवार्य रूप से शब्दों के साथ खेल-खेल रही हो। तुम कैसे अपने
पति से प्रेम और सेक्स से घृणा कर सकती हो?जरा
इसे समझने का प्रयास करें। जब तुम एक पुरूष से प्रेम करती हो, तो तुम उसका हाथ भी पकड़ना चाहती होगी। जब तुम
एक पुरूष से प्रेम करती होगी तो कभी-कभी तुम उसे आलिंगन में भी लेती होगी। जब तुम
एक पुरूष से प्रेम करती हो,
तो तुम केवल उसे सुनना ही पसंद नहीं
करोगी, तुम उसका चेहरा भी देखना चाहती होगी।
जब तुम केवल अपने प्रेमी की आवाज़ सुनती हो, और
प्रेमी बहुत अधिक दूर हो,
तो ध्वनि सुनना ही प्रर्याप्त नहीं
होता; जब तुम उसे देखती भी हो, तब तुम कहीं अधिक संतुष्ट होती हो। जब तुम उसका
स्पर्श करती हो निश्चित रूप से तुम कहीं अधिक संतुष्ट होती हो। जब तुम चुम्बन के
द्वारा उसका स्वाद लेती हो,
निश्चित ही तुम और भी अधिक संतुष्ट
होती हो। सेक्स क्या होता है?गहन-ऊर्जाओं
का मिलन होता है।
तुम
अनिवार्य रूप से अपने मन में कुछ निषेध, अवरोध
अथवा वर्जनाएं साथ लेकर चल रही हो। और सेक्स क्या होता है? केवल दो व्यक्तियों का चरम सीमा तक एक दूसरे के
अंगों के साथ मिलन होता है—जिसमें न केवल दोनों एक दूसरे का हाथ
पकड़ते हैं, न केवल वे एक दूसरे के शरीरों को
आलिंगन में आबद्ध करते हैं,
बल्कि एक दूसरे की ऊर्जा क्षेत्रों में
प्रवेश भी करते हैं। तुम सेक्स से घृणा क्यों करनी चाहिए?तुम्हारा मन निश्चित ही रूप से तथाकथित
महात्माओं और धार्मिक व्यक्तियों द्वारा कंडीशंड बना दिया गया है। जिन्होंने पूरी
मनुष्य को विषैला बना दिया हैं। तथा जिन्होंने तुम्हारे विकास के स्रोत को भी
ज़हरीला बना दिया हैं।
तुम
उससे घृणा क्यों करना चाहिए?यदि
तुम अपने पति से प्रेम करती हो तो तुम्हें उसके साथ अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को
सहभागी बनाना पसंद करना चाहिए। इस बारे में सेक्स से घृणा करने की कोई जरूरत नहीं
है। और यदि तुम सेक्स से घृणा करती हो तो तुम क्या कह रही हो?तुम पूरी तरह से यह कह रही हो कि तुम उस पुरूष
को चाहती हो जो आर्थिक रूप से तुम्हारी देखभाल करें, जो तुम्हारे घर की देखभाल करें और तुम्हारे लिए जो एक कार और एक
फरकोट खरीद सके। तुम उस पुरूष का उपयोग करना चाहती हो। और तुम उसे प्रेम कहती हो? और तुम उसके किसी भी कार्य में सहभागिनी नहीं
बनना चाहती हो।
जब
तुम प्रेम करती हो तो अपना सभी उसे बांटो। जब तुम प्रेम करती हो तो तुम्हारे पास
कोई रहस्य नहीं होना चाहिए। जब तुम प्रेम करती हो, तो तुम्हारा ह्रदय पूरी तरह खुला हुआ होना चाहिए। जब तुम प्रेम करती
हो, तो तुम उसके लिए उपलब्ध बनी रहो। जब
तुम उससे प्रेम करती हो तो यदि वह नर्क में जा रहा हैं। तो तुम उसके साथ नर्क में
जाने के लिए भी पहले से ही तैयार रहो।
लेकिन
ऐसा ही होता है। हम शब्दों के साथ बहुत बड़े विशेषज्ञ बन गए है। हम यह भी नहीं
कहना चाहते कि हम तुमसे प्रेम नहीं करते, इसलिए
हम ऐसा रूप बनाते हैं जिससे यह दिखाई दे जैसे मानो हम प्रेम करते हैं। परंतु हम
सेक्स से घृणा करते है। सेक्स ही पूरा प्रेम नहीं है, वह बात एक दम से सच है। सेक्स की अपेक्षा प्रेम
हीं अधिक भी है, वह बात भी सत्य है—लेकिन सेक्स उसकी प्रामाणिक बुनियाद तो है ही।
हां, सेक्स एक दिन विसर्जित हो जाता हैं, लेकिन उससे घृणा करना, उसके विलुप्त करने का मार्ग नहीं है। उससे घृणा
करना तो उसके दमन करने का मार्ग है और जो कुछ दबाया जाता है, वह एक तरह से अथवा दूसरी तरह से वह बाहर आयेगा
ही।
कृपया
एक भिक्षुणी अथवा एक नन बनने का प्रयास मत करो।
अब
इस बात पर एक कहानी सुनो.....
कुछ
नन एक अनाथालय चला रही थी और एक दिन मदर सुपीरियर ने तीन सुंदर स्वस्थ और हंसमुख
ननों को जो उस स्थान को छोड़ कर जा रही थी। उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया और उनसे
कहा—‘अब तुम बाहर के विशाल पापपूर्ण संसार
में भेजी जा रही हो और मैं अनिवार्य रूप से तुम्हें कुछ विशिष्ट किस्म के पुरुषों
के विरूद्ध चेतावनी देना चाहती हूं। वहां पर ऐसे लोग हैं जो तुम्हें शराब खरीद कर
पिलायेंगे तुम्हें एक कमरे में ले जायेंगे और तुम्हारे वस्त्र उतार कर तुम्हारे
साथ न कहने योग्य कार्य करेंगे। तब वे तुम्हें दो अथवा तीन पाउंड देंगे और तुम्हें
वहां से रवाना कर देंगे।’
सबसे
अधिक साहसी लड़की ने कहां—‘क्षमा कीजिए श्रद्धेमदर! क्या, आपके कहने का अर्थ यह है कि वे बदमाश लोग हमारे
साथ कुछ ऐसा-वैसा करेंगे और हमें तीन पाउंड भी देंगे?’
मदर
ने कहा—‘हां, मेरी प्यारी बच्ची! तुम यह क्यों पूंछ रही हो?’
उस
नन ने उत्तर दिया—‘वह तो ठीक हैं, लेकिन ऐसा करके पादरी तो हमें खाने के लिए
सिर्फ सेव ही देते हैं।’
स्मरण
रहे, सेक्स प्राकृतिक और स्वाभाविक है। कोई
भी उसके पार भी जा सकता है,
लेकिन दमन के द्वारा नहीं। और यदि तुम
उसका दमन करते हो तो देर अथवा सवेर तुम उसे अभिव्यक्त करने का कोई दूसरा मार्ग खोज
लोगे, कुछ विकृति का प्रविष्ट हो जाना सुनिश्चित
हैं; तुम्हें कुछ प्रतिरूप खोजना होगा। और
प्रतिरूप सहायक नहीं होते,
उनसे किसी भी प्रकार की कोई सहायता
नहीं मिलती, और वे सहायता कर भी नहीं सकते हैं। एक
बार एक सहज स्वाभाविक समस्या इस तरह से घुमा दी जाती है कि तुम उसके बारे में पूरी
तरह से भूल जाते हो तो वह एक प्रतिरूप की भांति अन्य किसी स्थान पर बुलबुलों के
रूप में सतह पर आ जाती हैं,
और तुम उस प्रतिरूप के साथ लड़े चले
जाते हो, लेकिन वह सहायता करने नहीं जा रही है।
मैंने
सुना हैं........
एक
अजनबी उप नगरीय रेलवे के एक डिब्बे में चढ़ा, जहां
पहले से ही दो व्यक्ति बैठे हुए थे। उनमें से एक व्यक्ति एक विशिष्ट ढंग से
व्यवहार कर रहा था। वह अपनी कोहनी को बार-बार फैलाता था। उसकी कोहनी के बार-बार
फैलाने को झेलता हुआ वह अजनबी उस समय लगभग पागल हो गया था, जब तक उसका स्टेशन नहीं आ गया।
उसने
उस व्यक्ति के साथ बैठे दूसरे व्यक्ति से कहा—‘तुम्हारे
मित्र ने मुझे गम्भीर रूप से दुःखी कर दिया।’
--‘हां, वास्तव
में बवासीर की उसने एक तगड़ी डोज़ ली थी।’
--‘मैं बवासीर के बारे में बात नहीं कर रहा हूं, मैं उसके बार-बार कोहनी फैलाने की बात कर रहा
हूं, जो उसने ठीक अभी फैलाई हैं।’
--‘हां, वह
तो ठीक हैं, पर बवासीर—आप देख रहे हैं कि वह बहुत धार्मिक व्यक्ति है
और एक सरकारी कर्मचारी भी है, और
उसका कोहनी फैलाना बवासीर का एक प्रतिरूप है।’
लेकिन
प्रतिरूप कभी-भी सहायता नहीं करते। वे केवल विकृतियां और पागलपन ही उत्पन्न करते
है। यदि किसी दिन तुम प्रकृति के पार जाना चाहते हो, तो सहज स्वाभाविक बनो। पहले जरूरत इसी बात की है कि सहज स्वाभाविक
बनो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वहां प्रकृति की उपेक्षा कोई भी चीज़ अधिक बड़ी नहीं
है। वहां एक उच्चतम प्रकृति भी है—और
यही तंत्र का पूरा संदेश हैं। यदि तुम वास्तव में ऊंचा उठना चाहत हो तो बहुत अधिक
सांसारिक बनो।
क्या
तुम इन वृक्षों को नहीं देख सकते? पृथ्वी
के अंदर वे अपनी जड़े जमाये हुए हैं, और
उनकी जड़े जितनी अधिक गहराई तक जाती हैं, वे
उतना ही अधिक ऊँचाई तक जाते हैं। वे जितनी अधिक ऊँचाई तक जाना चाहते हैं, उन्हें पृथ्वी में उतनी ही अधिक गहराई तक जाना
होगा। यदि वृक्ष सितारों को छूना चाहता हैं तो वृक्ष को वास्तविक पाताल में जाकर
वहां के नर्क का स्पर्श करना होगा—इसका
केवल यही उपाय हैं।
यदि
तुम आत्मा बनना चाहते हो तो अपने शरीर में अपना आधार बनाए रखो। यदि तुम वास्तव में
एक प्रेम बनना चाहते हो तो सेक्स को अपना आधार बनाये रखो। जितनी ऊर्जा प्रेम में
बदलेगी सेक्स की कम से कम जरूरत होगी। लेकिन तुम उससे घृणा नहीं कर सकते।
घृणा
का किसी भी चीज़ के साथ ठीक रिश्ता है ही नहीं। घृणा से पूरी तरह यही प्रदर्शित
होता है कि तुम भयभीत हो,
घृणा से सामान्य रूप से यही प्रदर्शित
होता है कि तुम्हारे अंदर वहां बहुत बड़ा भय है। घृणा से सामान्य रूप से यहीं
प्रदर्शित होता है कि अपनी गहराई में तुम अब भी उससे आकर्षित हो। यदि तुम सेक्स से
घृणा करते हो तब तुम्हारी ऊर्जा किसी अन्य स्थान पर गतिशील होना प्रारम्भ हो
जायेगी।
मनुष्य
यदि सेक्स का दमन करता है,
तो वह कहीं अधिक महत्वाकांक्षी बन जाता
है। यदि तुम वास्तव में महत्वाकांक्षी बनना चाहती हो, तो तुम्हें सेक्स का दमन करना होगा। केवल तभी
महत्वाकांक्षा के पास ऊर्जा हो सकती है। अन्यथा तुम्हारे पास ऊर्जा होगी ही नहीं।
एक राजनीतिज्ञ को सेक्स का दमन करना होता हैं—केवल
तभी वह दिल्ली की और तेजी से भाग सकता है। इसके लिए दमित सेक्स उर्जा और अत्यधिक
क्रोध की आवश्यकता होती है। जब कभी भी तुम सेक्स ऊर्जा का दमन करते हो, तुम पूरे संसार भर से नाराज रहते हो, तुम एक महान क्रांतिकारी बन सकते हो। सभी
क्रांतिकारियों का सेक्स दमित होना सुनिश्चित हैं।
जब
एक बेहतर संसार में, सेक्स, सरल और स्वाभाविक होगा, बिना
किसी निषेध और बिना किसी अवरोध के होगा तो राजनीति विलुप्त हो जायेगी। और वहां कोई
भी क्रांतिकारी नहीं होगा। इस जगह उसकी उनकी कोई जरूरत भी नहीं होगी। जब एक
व्यक्ति सेक्स का दमन करता हैं, वह
धन के प्रति बहुत अधिक आसक्त हो जाता है। उसे अपनी सेक्स उर्जा कहीं और लगानी होती
है। क्या तुमने लोगों को सौ रूपये का नोट पकड़े हुए नहीं देखा हैं, जैसे मानो वे अपनी प्रेमिका का स्पर्श कर रहे
हो। क्या तुम उनकी आंखों में समान लालसा नहीं देख सकते हो?लेकिन यह एक कुरूपता है। एक स्त्री को गहन
प्रेम के साथ संभाले रखना सुंदर है, और
लालसा के साथ सौ रूपये के नोट को पकड़े रखना केवल एक कुरूपता है?यह एक प्रतिरूप है।
तुम
जानवरों को धोखा नहीं दे सकते।
एक
व्यक्ति अपने लड़के को चिड़ियाघर ले गया। क्योंकि वहाँ उसे बंदरों को दिखाना चाहता
था। उसके पुत्र को बंदरों में बहुत ही दिलचस्पी थी। और उसने बंदरों को कभी देखा भी
नहीं था। वे वहां गए, लेकिन वहां कोई भी बंदर नहीं था। इसलिए
उसने चिड़ियाघर की देखभाल करने वाले व्यक्ति से पूंछा—‘सभी बंदर कहां है? उनका आखिर क्या हुआ?’
उसने
कहा—‘यह उनके प्रेम करने का ऋतु हैं, इसलिए वे सभी झोंपड़ी के अंदर चले गए हैं।’
वह
व्यक्ति बहुत अधिक निराश हुआ, महीने
भर से वह व्यक्ति अपने लड़के को लाने का प्रयास करता रहा था और वे लोग लम्बा सफर
करके आये थे। बहुत ही दूखी महसूस कर रहा था। इसलिए उसने पूंछा—‘यदि हम अखरोट के दाने फेंकें तो क्या वे बाहर
नहीं आयेंगे?’
चिड़ियाघर
की देखभाल करने वाले ने कहा—‘आप
करके देखिये।’
लेकिन
मैं सोचता हूं कि यदि हम अखरोट फेंके तो मनुष्य तो बाहर आ सकता है। परंतु जानवर
असंभव है। चिड़ियाघर की देखभाल करने वाला गलत नहीं हैं। बंदर बाहर नहीं आयेंगे, यह बात सुनिश्चित है यदि तुम उन्हें धन भी दो, तब भी वे बाहर नहीं आने वाले। वे कहेंगे—‘तुम अपना धन अपने पास रखो, अभी हमारे प्रेम करने का मौसम चल रहा है।’ और यदि तुम उनसे कहो—‘हम तुम्हें भारत का राष्ट्रपति बना सकते हैं।’ तो वे कहेंगे—‘तुम अपने राष्ट्रपति का पद अपने पास ही रखो, अभी हमारे प्रेम करने की ऋतु चल रहीं है।’
लेकिन
मनुष्य? यदि तुम उसे राष्ट्रपति बनाओ तो वह
अपनी प्रेमिका तक की हत्या कर सकता है। यदि दांव पर यही चीज़ लगी हो तो वह उसे भी
कर सकता है। यह सभी प्रतिरूप अर्थात सब्सीट्यूट हैं। तुम जानवरों को बेवकूफ नहीं
बना सकते हो
मैंने
सूना है......
एक
अविवाहित प्रौढ़ महिला के पास तोता था जो एक ही दिशा में टें..टें..टैं....करते
हुए रट लगाये हुए था—‘मैं प्रेम करना चाहता हूं, मैं प्रेम करना चाहता हूं।’ इससे वह थोड़ी सी चिढ़ गई और उसे क्रोध भी आया, जब तक कि एक विवाहित मित्र ने उसे स्पष्ट न कर
दिया कि वह आखिर क्या चाहता है? तब
वह बहुत भयभीत हो गई और सोचने लगी—‘मैं
इस पक्षी से प्रेम तो करती हूं, लेकिन
मुझे इससे छुटकारा पाना ही होगा, अथवा
वह पादी उससे कभी भी भेंट नहीं करेगा।’
लेकिन
उसके कहीं अधिक अनुभवी मित्र ने उससे कहा—‘यदि
इस पक्षी से वास्तव में प्रेम करती हो, तो
जो कुछ वह चाहता हैं, तुम उसे वह ला सकती हो। वह एक मादा
तोता चाहता हैं, फिर वह इस बारे में हर समय खामोश बना
रहेगा।’
वह
अविवाहित प्रौढ़ महिला उसे खरीदने पक्षियों की दुकान पर गई, लेकिन दुकानदार ने कहा—‘नहीं, मैं
ठीक अभी तो कुछ भी नहीं कर सकता। पूरे सीजन में कोई भी मादा तोता आया ही नहीं, लेकिन कुमारी जी मैं आपको एक मादा उल्लू पक्षी
बहुत कम कीमत पर आप को बेच सकता हूं।’
कुछ
भी न होने से कुछ चीज बेहतर थी इसलिए उसने उस मादा उल्लू को खरीद कर तोते के
पिंजरे में झट से खोल कर उसमें धकेल दिया और आशा और उत्तेजना से प्रतीक्षा करने
लगी।
ताता
तो वैसे ही चिल्लाता रहा—‘मैं प्रेम करना चाहता हूं, मैं प्रेम करना चाहता हूं।’
मादा
उल्लू ने...आऊँ...आऊं...करते हुए उसे आमंत्रित किया।
तोते
ने कहा—‘तू नहीं, आंखों पर रंगीन चश्मा लगाने वाले पागल तु नहीं। मैं एक ऐसी मादा के
आगे खड़ा नहीं हो सकता, जो चश्मा पहने हुए हो।’
प्रतिरूप
कार्य नहीं करते। मनुष्य प्रतिरूपों के साथ जी रहा है। सेक्स स्वाभाविक हैं, और घन अस्वाभाविक है। सेक्स प्राकृतिक हैं। यदि
तुम वास्तव में किसी चीज से घृणा करना चाहती हो तो घन से घृणा करो, शक्ति और सत्ता से घृणा करो। पर और प्रतिष्ठा
से घृणा करो। प्रेम से घृणा क्यों करती हो?
सेक्स, संसार में सर्वाधिक सुंदरतम चीजों में से एक
है। निश्चित रूप से वह सबसे अधिक निम्न है—यह
बात सत्य भी है; लेकिन निम्न तल के द्वारा उच्चतम की और
यात्रा होती है; कमल कीचड़ से ही उगता है। कीचड़ से
घृणा मत करो, अन्यथा कमल को मुक्त करने के लिए तुम
कीचड़ की कैसे सहायता करोगे? कीचड़
की सहायता करो, कीचड़ की देखभाल करो, जिससे उसमें से कमल खिल सके। निश्चित रूप से
कमल, कीचड़ से बहुत अधिक दूर है। और तुम
उनके मध्य किसी संबंध होने की बात सोच भी नहीं सकते। यदि तुम एक कमल को देखो तो तुम
यह विश्वास भी नहीं सकते हो की यह उसी गंदे कीचड़ से आया है। लेकिन यही होता हैं, वह गंदी कीचड़ की ही एक अभिव्यक्ति हैं।
शरीर
से आत्मा मुक्त होती है, सेक्स से प्रेम मुक्त होता है। सेक्स
है शारीरिक चीज़ और प्रेम है एक आत्मिक चीज़। सेक्स कीचड़ के समान है और प्रेम कमल
के फूल के समान है। लेकिन बिना कीचड़ के कमल का खिलना सम्भव नहीं है। इसलिए कीचड़
से घृणा मत करो।
तंत्र
का पूरा संदेश बहुत सहज और सरल हैं, यह
बहुत वैज्ञानिक है और यह बहुत अधिक स्वाभाविक हैं उसका संदेश हैं कि यदि तुम
वास्तव में इस संसार के पास जाना चाहते हो, तो
संसार में बहुत गहराई तक,
पूर्ण रूप से सजग और सचेत होकर जाओ
और
अब अंतिम प्रश्न:
प्यारे ओशो!
मेरे पास अनेक प्रश्न हैं, लेकिन प्रत्येक समय मेरे अंदर से एक स्वर यह
कहता हैं—‘पूछो मत, स्वयं अपने अंदर ही खोजो।’ लेकिन अब यह बहुत अधिक हो गया है। क्योंकि मैं
नहीं जानती कि यह आवाज़ कहां से आ रही है?
यह प्रश्न है—धर्म चेतना का। क्या तुम मेरी आवाज़ को नहीं पहचान सकती हो?
आज
इतना ही
thank you guruji
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