तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-तीसरा-(चार मुद्राओं अर्थात चार
तालों को तोड़ना)
दिनांक 03 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
सूत्र-
वो अपने अंदर जो भी अनुभव करते हैं,
उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,
उसकी ही शिक्षा वे देते हैं,
वे उसकी को मुक्ति कह कर पुकारेंगे,
एक हरे रंग कम मूल्य का कांच का टुकड़ा ही
उसके लिए पन्ने-रत्न जैसा ही होगा।
भ्रम में पड़कर वे यह भी नहीं जानते है
कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चहिए?
सीमित बुद्धि के विचारों के कारण,
वे तांबे को भी स्वर्ण की भांति लेते हैं,
और मन के शूद्र-विचारों को वे अंतिम सत्य की
तरह सोचते हैं।
वे शरीर और मन के सपनों जैसे सुखमय अनुभवों
को ही
सर्वोच्च अनुभव मानकर वहीं बने रहते है,
और नाशवान शरीर और मन के अनुभवों को ही
शाश्वत आनंद कहते है।
‘इवाम’ जैसे
मंत्रों को दोहराते हुए वे सोचते हैं कि वे आत्मोपलब्ध हो रहे हैं।
जब कि विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरने के
लिए चार
मुद्राओं को तोड़ने की जरूरत होती है,
वे अपनी इच्छानुसार सृजित की गई सुरक्षा की
चार दीवारी
तक वे स्वयं तक पहुंच जाना कहते है,
लेकिन यह केवल दर्पण में प्रतिबिम्बों को देखा जैसा है।
जैसे मरूस्थल में भ्रमवश जल समझ कर हिरणों
का झुंड उसके पीछे भागेगा
वैसे ही दर्पण में झूठा प्रतिबिम्ब देखकर वे
मृगतृष्णा के जल की भांति
अपने भ्रम को प्रामाणिक रूप से नहीं
पहचानते।
इसी तरह उनकी नकली प्यास,
प्यास का भ्रम है,
और वे सपनों के झूठे अनुभवों की ज़ंजीरों से
बंधे उनमें ही सुख पाते हैं,
और कह रहे हैं कि यह सब कुछ सर्वोच्च सत्य
है।
तंत्र एक अतिक्रमण है। वह ज्ञानातीत है। वह
न तो उपयोग है और न दमन है। वह सबसे बड़े संतुलन साधने में से यह एक है,
और वह तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा ही है। जितना यह लगता है, उतना यह सरल नहीं है, इसके लिए बहुत अधिक सूक्ष्म
सचेतनता की आवश्यकता होती हैं। यह एक महान लयवदिता है।
मन क लिए किसी गलत क्रियाकलाप में भाग लेना
बहुत सरल है। उसके विरोधी छोर पर जाना अथवा उसका परित्याग कर देना भी बहुत सरल है।
मन के लिए चरम पराकाष्ठा की और गतिशील हो जाना भी सरल है। मध्य में बने रहना,
ठीक मध्य में बने रहना ही मन के लिए सबसे अधिक कठिन चीजों में से एक
है, क्योंकि यह मन के लिए आत्मघात करने जैसा ही है। मध्य में
मन की मृत्यु हो जाती है। और अ-मन की जन्म होता है। इसी कारण बुद्ध अपने मार्ग को ‘मज्झिम निकाये’ अर्थात मध्य मार्ग कहकर पुकारते थे।
सरहा, बुद्ध का एक शिष्य है। और वह समान लीक पर समान समझकर
साथ और वैसी ही सचेतनता के साथ गतिशील है।
इसलिए वह बुनियादी बात समझ लेने जैसी है,
अन्यथा तुम तंत्र समझोगे। यह उस्तरे की धार जैसी तीव्र कगार क्या है?
यह ठीक मध्य में बने रहना क्या है? संसार में
कामनाओं की पूर्ति करने के लिए किसी भी सचेतनता की आवश्यकता नहीं है? सांसारिक कामनाओं का दमन करने के लिए भी पुन: किसी सचेतनता की कोई भी
जरूरत नहीं है। तुम्हारे तथा कथित सांसारिक लोग और तुम्हारे तथा कथित दूसरे संसार
के धार्मिक लोग बहुत अधिक भिन्न नहीं है। हो सकता है कि वे लोग एक दूसरे से पीठ
फेरे खड़े हुए हों, लेकिन वे लोग किसी भी प्रकार से भिन्न
नहीं है, वे लोग ठीक समान चित-वृति के लोग हैं। कोई व्यक्ति
धन की लालसा कर रहा है। और कोई व्यक्ति धन से इतने अधिक विरूद्ध है कि वह करेंसी
नोटों की और देख भी नहीं सकता हैं। ये लोग भिन्न नहीं हैं, दोनों
के लिए ही धन बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। एक व्यक्ति लोभ में है और एक व्यक्ति भयभीत
है, लेकिन दोनों के लिए धन समान रूप से महत्वपूर्ण है,
दोनों ही धन से आवेशित हो जाते है।
एक व्यक्ति निरंतर स्त्री के बारे में सोचते
हुए उसकी ही कल्पना कर रहा है और उसके ही स्वप्न देख रहा है। दूसरा व्यक्ति उससे
इतना अधिक भयभीत है कि केवल स्त्री से बचने के लिए ही वह भागकर हिमालय चला गया है।
लेकिन दोनों ही समान हैं। दोनों के लिए स्त्री महत्वपूर्ण है अथवा पुरूष—लेकिन दूसरा महत्वपूर्ण है। एक व्यक्ति दूसरे को खोजता है, और एक व्यक्ति से बचता है, लेकिन दूसरा उनका केन्द्र
बिंदु बना रहता है।
तंत्र कहता है कि दूसरे का केन्द्र बिंदु
नहीं होना चाहिए, न तो यह मार्ग और न वह
मार्ग। यह केवल महान समझ के द्वारा ही हो सकता है। स्त्री के लिए लालसा को समझना
है, न तो कामना पूर्ति में लगे रहना है और न उससे बचकर रहना
है, बल्कि उसे समझना है। तंत्र बहुत अधिक वैज्ञानिक है।
विज्ञान शब्द का अर्थ है—समझ, विज्ञान शब्द का अर्थ है—जानना।
तंत्र कहता है कि जानना ही मुक्त करता है। लोभ क्या है, यदि
तुम इसे ठीक से जानते हो, तो तुम लोभ से मुक्ति हो जाते हो;
फिर इस बारे में उसका त्याग करने अथवा छोड़ने की कोई भी आवश्यकता
नहीं हैं। उसे छोड़ने की जरूरत केवल इसलिए उत्पन्न होती है, क्योंकि
तुमने अभी यह समझा ही नहीं है, कि लोभ क्या होता है। सेक्स
के विरूद्ध प्रतिज्ञा लेने की जरूरत केवल इसलिए होती है, क्योंकि
तुमने अभी यह समझा ही नहीं है कि सेक्स क्या होता है। और समाज तुम्हें उसे समझने
की अनुमति नहीं देता।
समाज न तो इसे समझने में तुम्हारी सहायता
करता हैं। बीती हुई पिछली सदियों से समाज, सेक्स और
मृत्यु के वास्तविक विषयों से बचता चला आया है। इन विषयों के बारे में न तो विचार
करना हैं, न उन पर ध्यान केन्द्रित करना है, न उनकी चर्चा परिचर्चा ही करनी है। न उनके बारे में शोध करनी है। और न
उनके बारे में कुछ भी लिखना है। उनसे बचते हुए दूर रहना है। इनसे बचने और दूर रहने
के द्वारा इनके बारे में एक बहुत बड़ा अज्ञान विद्यमान हैं, और
यह अज्ञान ही इसका मूल कारण है। तब वहां दो तरह के लोग हैं, जो
उस अज्ञान से बाहर आए हैं: एक वे लोग हैं जो पागलों की तरह इनका उपभोग कर रहे हैं
और एक वे लोग हैं जो इससे बहुत अधिक थककर पलायन कर जाते हैं।
तंत्र कहता है कि कोई एक व्यक्ति जो पागलों
की तरह कामनाओं की पूर्ति कर रहा हैं। सेक्स को कभी नहीं समझेगा। क्योंकि वह पूरी
तरह से एक आदत को दोहराए चला जाता है। वह मूल कारण को आदत में झांककर कभी नहीं
देखेगा। वह कभी भी कार्य-कारण के संबंध में नहीं देखेगा। और वह जितना अधिक उपभोग
करता है वह उतना ही अधिक यांत्रिक बनता चला जाता है।
क्या तुमने इसका निरीक्षण नहीं किया है?तुम्हारे प्रथम प्रेम में सर्वश्रेष्ठ जैसी कोई चीज थी। दूसरा अनुभव उतना अधिक
श्रेष्ठ नहीं था, तीसरा अनुभव और भी अधिक सामान्य था और चौथा
अनुभव तो केवल तुच्छ सांसारिक भर रह गया। हुआ क्या?प्रथम
प्रेम की इतनी अधिक प्रशंसा महिमा क्यों गई जाती है। लोग हमेशा यह क्यों कहते हैं
कि प्रेम केवल कभी एक बार ही होता है। क्यों?क्योंकि पहली
बार वह यंत्रवत नहीं हुआ था, इसलिए तुम उस बारे में थोड़ा सा
सचेत थे। अगली बार तुम उसकी आशा कर रहे थे और तुम इतने अधिक सचेत नहीं थे। तीसरी
बार तो तुम सोचते थे कि तुम उस बारे में जान गए थे, इसलिए
वहां उसमें कोई खोज नहीं थी। चौथी बार वह केवल एक तुच्छ कृत्य भर रह गया था।
क्योंकि तुम एक यांत्रिक आदत में व्यवस्थित हो गए थे।
उपभोग के द्वारा सेक्स एक आदत बन जाता है।
हां,
वह थोड़ा सा हल्का या मुक्त करता है—ठीक एक
छींक की तरह, लेकिन उससे अधिक कुछ भी नहीं है। यह ऊर्जा की
एक भौतिक मुक्ति होती है। जब तुम उर्जा के साथ बहुत अधिक बोझिल हो जाते हो,
तो तुम्हें ऊर्जा को बाहर फेंकना होता है। भोजन के द्वारा, व्यायाम के द्वारा, सूरज के प्रकाश के द्वारा,
तुम फिर से उस ऊर्जा को दुबारा फेंकने के लिए इक्कठा करते हो। फिर
फेंक देते हो। और फिर इकट्ठा करते हो। यह वहीं व्यक्ति करता है जो कामनाएं किये
चले जा रहा है। वह बहुत अधिक ऊर्जा सृजित करता है, तब बिना
किसी अर्थ और बिना किसी अभिप्राय वह उसे पुन: बाहर फेंक देता है। उसे पास रखते हुए
उसके तनाव से वह बोझिल, दुःखी हो जाता है। उसे बाहर फेंककर
फिर उसकी कमजोरी से दुःखी होता है। वह पूरी तरह से दुःखी ही रहता है।
यह कभी मत सोचो कि एक व्यक्ति जो कामनाएं
कर उनका उपभोग करता है,
एक प्रसन्न व्यक्ति होता है—कभी नहीं। वह
संसार का सबसे अधिक दुःखी व्यक्ति होता है। वह कैसे प्रसन्न हो सकता है?वह आशा करता है, वह प्रसन्नता पाने की कामना करता है,
लेकिन वह उसे कभी भी प्राप्त नहीं करता है।
लेकिन स्मरण रहे,
इन चीजों के कहने से तंत्र का यह अभिप्राय नहीं है कि दूसरी
पराकाष्ठा की और गतिशील हो जाओ। तंत्र यह नहीं कह रहा है कि तुम्हें कामनाओं और
उपभोग के संसार से पलायन कर जाना चाहिए। पलायन करना फिर एक यांत्रिक आदत बन जाएगा।
एक गुफा में बैठे हुए स्त्री तो उपलब्ध नहीं होगी, लेकिन
इससे कुछ अधिक अंतर नहीं पड़ता है। यदि किसी समय स्त्री उपलब्ध हो जाती है,
तो वह व्यक्ति जिसने सभी का परित्याग कर दिया था। कहीं अधिक अधोमुख
होकर नीचे गिर जाएगा। जिसका भी तुम दमन करते हो, वह तुम्हारे
अंदर कहीं अधिक शक्ति शाली बन जाता है।
मैंने सुना है....
वहां एक आग बुझाने वाला कर्मचारी रहता था जो
भयानक रूप से अपनी पत्नी और अपने किराये दार दोनों के प्रति घृणा और द्वेष का भाव
रखता था। एक रात वह खाने के लिए पनीर से बनी श्रेष्ठतम कचौड़ी अपने घर पर लेकर
आया। और रात के भोजन में उसने आधी कचौड़ियां खाई। और बाकी बची आधी छिपा कर रख दी।
उसकी पत्नी और पेइंग गेस्ट ने सूखी डबलरोटी खाकर ही गुजारा करना पड़ा। और सब सोने
के लिए चले गए।
मध्यरात्रि में फायर ब्रिगेड की घंटियां
बजने लगी जिसे सुनते ही मकान मालिक को भाग कर बहार जाना पड़ा। उसकी पत्नी ने जो
पूर्ण रूप से नग्न थी, किराये दार के कमरे में
प्रवेश कर उसे हिलाकर जगाते हुए कहा—‘वह बाहर चला गया है।
जल्दी करो, अब तुम्हारे लिए अच्छा अवसर है।’
किराये दार ने जांच पड़ताल करते हुए पूछा—‘क्या तुम निश्चित हो की सभी कुछ ठीक है?’--‘निश्चित
रूप से, तुम जल्दी करो अब समय बर्बाद मत करो।’
किराये दार तत्काल उठा और सीढ़ियां उतर कर
नीचे गया और रात की बची हुई सारी कचौड़ियां तुरंत खानी शुरू कर दी।
अब अनिवार्य रूप से यही उसकी दमित कामना रही
होगी—कचौड़ी वह अनिवार्य रूप से उसके बारे में सोचता हुआ उसकी कल्पना करते हुए
उसका सपना देख रहा होगा। पूर्ण रूप से नग्न स्त्री में भी उसका कोई आकर्षण नहीं
था। लेकिन पनीर की बनी कचौड़ी..... ?
स्मरण रहे, तुम
किसी भी तरह का दमन करोगे, वही तुम्हारा आकर्षण बन जाएगा,
वह तुम्हें चुम्बक की तरह अपनी और खींचेगा। दमन ही शक्तिशाली बन
जाता है। वह सभी अंशों से बड़े परिमाण में शक्ति प्राप्त करता है।
जरा इस घटना को सूना:
एक सुंदर वनस्थली के एक पार्क में दो प्रेमियों की कांस्य प्रतिमाएं खड़ी
हुई थी, उनमें एक लड़का और एक लड़की प्रेम और आलिंगन की
भावमुद्रा में खड़े थे। वे दोनों इसी तरह से तीन सौ वर्षों से अपनी भुजाएं फैलाए
एक दूसरे के प्रति दृढ़ भावपूर्ण कामना प्रदर्शित करते हुए खड़े थे। यद्यपि वे एक
दूसरे को स्पर्श नहीं कर रहे थे।
एक दिन एक जादूगर उधर से गुजरा और उस मूर्ति
को देखकर करूणा वश उसने कहा—‘मेरे पास इन मूर्तियों
को जीवन देने की पर्याप्त शक्ति है, इसलिए में यह चमत्कार
करने जा रहा हूं। एक घंटे के लिए वे एक दूसरे को स्पर्श करने, चुम्बन करने और आलिंगन में लेकर प्रेम करने में समर्थ हो सकेंगे।’
इसलिए जादूगर ने अपनी जादू की छड़ी घुमाई और
तुरंत ही वे मूर्तियां अपने चबूतरे से उछलकर हाथों में हाथ लिए एक वृक्षों के छोटे
से झुरमुट की और भागे।
वहां उपस्थित दर्शकों में बहुत बड़ी खल-बलि
मच गई,
वे व्यग्रता से चीखने चिल्लाने और जोर-जोर से तालियां बजाने लगे।
अनिवार्य उत्सुकता के साथ जादूगर ने एड़ियों के बल खड़े होकर उस झुरमुट की
पत्तियों में झांका। लड़का एक पक्षी को पकड़कर नीचे झुका हुआ था और उसके ऊपर लड़की
पालथी मारे हुए बैठी थी। अचानक लड़के ने उछलते हुए घोषणा की-‘अब इस पक्षी को पकड़ने की तुम्हारी बारी है, जब तक
कि मैं इस पर मल त्याग न कर दूं।’
तीन सौ वर्षों से पक्षी ऊपर बैठते हुए मल
त्याग करते रहे थे। तब प्रेम करने के बारे में कौन फिक्र करता हैं?
वही उनका दमन था।
तुम एक गुफा में जाकर एक मूर्ति बनकर बैठ
सकते हो,
लेकिन जिस चीज का भी तुमने दमन किया हैं, वही
तुम्हारे चारों और घूमती रहेगा। केवल वही चीज होगी जिसके बारे में तुम किसी भी समय
सोचोगे।
तब मार्ग कहां है?तंत्र कहता है—सचेतनता ही मार्ग है। कामना और उपभोग
करना यंत्रवत है, दमन करना भी यंत्रवत ही हैं, दोनों ही यंत्र चलित मशीन जैसी चीजें हैं। इन यंत्रवत चीजों से बाहर
निकलने का एक ही मार्ग है सजग और सचेत बनना। हिमालय मत जाओ, हिमालय
जैसी शांति अपने ही अंदर लाओ। भागों मत, अधिक जागृत बनो।
चीजों के अंदर गहराई में बिना किसी भय के देखो। तथाकथित धार्मिक लोग जो भी शिक्षा
दिए चले जाते हैं, उसे मत सुनो वे तुम्हें भयभीत बनाते हैं;
वे तुम्हें सेक्स में देखने की अनुमति नहीं देते, वे तुम्हें मृत्यु में भी देखने की अनुमति नहीं देते—उन्होंने तुम्हारे भयों का अत्यधिक शोषण किया है।
एक व्यक्ति को शोषण करने का केवल एक ही
मार्ग हैं, पहले उसे भयभीत बनाओ। एक बार तुम भयभीत
हो जाते हो, तो तुम शोषण कराने को तैयार हो। आधार भय है।
पहले उसे सृजित करना होता है। तुम भयभीत बना दिए गए हो। सेक्स करना पाप है,
इसीलिए वहां भय है। जब तुम अपनी पत्नी अथवा पति के साथ प्रेम कर रहे
होते हो, तुम उसमें प्रत्यक्ष रूप से कभी नहीं देखते,
प्रेम करते हुए भी तुम उसे बचते हो। तुम प्रेम कर रहे हो और तुम
उससे बच भी रहे हो अथवा उसकी उपेक्षा कर रहे हो। तुम उसकी वास्तविकता नहीं देखना
चाहते कि वह आखिर है क्या?वह क्यों सम्मोहित और उत्तेजित
करता है, तुम्हारे लिए उसमें इतना चुम्बकीय आकर्षण क्यों है?वह ठीक-ठाक है क्या?वह कैसे उठ कर तनाव से भरता है।
वह कैसे तुम्हें अपने नियंत्रण में ले लेता है। वह क्या देता है और वह कहां ले
जाता है? उसके अंदर क्या होता है और उसके बाहर क्या होता है?प्रेम करते हुए बार-बार तुम कहां पहुंचते हो?क्या
तुम कहीं भी पहुंचते हो?इन चीजों का आमना-सामना करना है।
जीवन की वास्तविकता के साथ तंत्र एक मुठभेड़
है। और आधारभूत है सेक्स और इसी तरह मृत्यु भी आधारभूत है। यह दो सबसे अधिक
प्राथमिक और आधारभूत चक्र हैं—मूलाधार और
स्वाधिष्ठान। उनको समझने से तीसरा चक्र खुलता है। तीसरे चक्र को समझने से चौथा
खुलता है और इसी तरह क्रमानुसार होता चला जाता है। जब तुम छ: चक्रों को समझ जाते
हो तो वह प्रामाणिक समझ ही सातवें चक्र पर चोट करती है और वह एक हजार पंखड़ियों
वाला कमल खिल जाता है। वह दिन परम गौरव गरिमा का दिन होता है। उस दिन तुम्हारे पास
धार्मिकता आती है, उस दिन तुम अस्तित्व के आमने-सामने आते
हो। वह दिन मिलन का दिन होता है। वह दिन ब्रह्मांडीय -सर्वोच्च परमानंद का दिन
होता है। उस दिन तुम दिव्यता को आलिंगन बद्ध करते हो और दिव्यता तुम्हें अपने
बाहुपाश में लेती है। उस दिन नदी सदा-सदा के लिए सागर में विलुप्त हो जाती है। तब
वहां से वापस लौटना नहीं होता है।
लेकिन तुम्हारे मन की प्रत्येक स्थिति से
समझ प्राप्त होती है। तुम जहां कहीं हो डरो मत। तंत्र का यही संदेश है: तुम जहां
कहीं भी हो, भयभीत मत हो। केवल एक ही चीज़ छोड़ना
है: और वह है भय। केवल एक ही चीज़ भयभीत बनाती है और वह भय, निर्भय
होकर महान साहस के साथ, जो कुछ भी वास्तिविकता हो, उसमें देखना है। यदि तुम एक चोर हो, तब उसके अंदर
कही देखों, यदि एक क्रोधी हो तो उसके अंदर देखो। यदि तुम
लालची हो, तो उसके अंदर देखो। तुम जहां कहीं भी हो, उसके ही अंदर झांको, उसे देखो उसे समझो। भागों
मत-केवल जागो। उसके अंदर देखते हुए उससे गुजरो। निरीक्षण करते हुए उससे होकर
गुज़रो। यदि तुम खुली आंखों से लालच में, सेक्स में, क्रोध में, ईर्ष्या में, उसके
पथ पर चल सकते हो, तो तुम उससे मुक्त हो जाओगे।
यह तंत्र का वायदा है: सत्य ही मुक्त करता
है। जानना ही मुक्त करता है। जानना ही स्वतंत्रता है। अन्यथा,
चाहे तुम दमन करो अथवा तुम कामनाओं का उपभोग करो अंत समान ही है।
एक बार ऐसा हुआ.....
वहां एक व्यक्ति रहता था। उसके पास सर्वाधिक
सुंदर और आकर्षक पत्नी थी। लेकिन वह उस पर संदेह करने लगा। यह स्वाभाविक है:
तुम्हारे पास जितनी अधिक सुंदर पत्नी होगी, संदेह भी
उस पर उतना ही अधिक होगा।
मुल्ला नसरूद्दीन ने सबसे अधिक कुरूप
स्त्रियों में से एक कुरूप स्त्री के साथ विवाह किया। मैंने उससे पूछा: ‘क्यों मुल्ला?’ गलत क्या हो गया?तुम्हें किस चीज ने अपने अधिकार में ले लिया?
उसने कहा—‘कुछ
भी नहीं, केवल समझ।’
मैंने पूंछा—‘यह
किस तरह की समझ हुई आपकी?’
उसने कहा—‘अब
मैं कभी भी ईर्ष्यालु नहीं बनूंगा, और मैं अपनी पत्नी पर कभी
भी संदेह ही नहीं करूंगा। क्योंकि मैं यह कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई भी
व्यक्ति उसके साथ प्रेम करें।’
सुंदर पत्नी रखने वाला वह व्यक्ति भी अपनी
पत्नी पर संदेह करता था अंत में वह अधिक समय तक अपने को स्थिर न रख सका। रात में
घर से बाहर जाने पर उसने अपने प्रधान कर्मचारी से किसी को भी आने देने के लिए कहा
और सुबह दो बजे ही अपने घर जा पहुंचा। जैसे कि उसे भय था उसने अपने सर्वश्रेष्ठ
मित्र की कार बाहर खड़ी पाई। और वह धीरे-धीरे रेंगते हुए तेजी से अपनी पत्नी के
शयनकक्ष की और चला। बिस्तरे के ऊपर वह पूर्ण नग्न लेटे हुए धूम्रपान करती हुए एक
पुस्तक पढ़ रही थी।
बहुत उग्र होकर वह बिस्तरे के नीचे गया,
उसने अलमारियां खोलकर देखी, कबर्ड बोर्ड के
पीछे झांका, लेकिन वह कहीं भी किसी पुरूष को न खोज सका। वह
जैसे पागल हो गया और शयन कक्ष में चीजों को तोड़ने लगा। तब उसने लिविंग रूप से
शुरू आत की, टी. वी. को उठाकर खिड़की के बाहर फेंक दिया।
आराम कुर्सियों को तोड़ दिया। मेज और साइड़ बोर्ड उलट दिये। तब उसका ध्यान रसोई घर
की और गया। जहां उसने पूरी की पूरी क्रॉकरी को तोड़ दिया। और फ्रीज को लुढ़का कर
खिड़की के बाहर फेंक दिया। तब उसने स्वयं को गोली मारकर आत्म हत्या कर ली।
जब उसकी आंखें खुली तो उसने अपने आप को
स्वर्ग के द्वार पर पाया। और देखा की वह उसका सर्वश्रेष्ठ मित्र भी प्रवेश करने के
लिए वहां प्रतीक्षा कर रहा था। उसने उससे पूछा—‘तुम यहां
क्या कर रहे हो?’
तोड़-फोड़ और नुकसान करने वाले पति ने सारी
स्थिति के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा—‘मैंने,
क्रोध में अपना संतुलन खो दिया था ओर तब उससे पूछा, ‘परंतु तुम यहां कैसे आए, यह सब कैसे हुआ?’
उसने कहा—‘अरे
आह, मैं तो फ्रीज के अंदर था।’
दोनों का ही अंत समान ढंग से होता है—चाहे तुम हिमालय की गुफा में हो, अथवा संसार में,
इससे कुछ अधिक अंतर नहीं पड़ता। कामनाओं और उपभोग का जीवन और दमन का
जीवन, दोनों के ही अंत एक समान ही है। क्योंकि उनकी बनावट
भिन्न नहीं है। उनकी आकृति भिन्न है लेकिन उनका आंतरिक गुण एक ही समान है।
सचेतनता जीवन में एक भिन्न गुणव्यक्तिा लाती
है। सचेतनता के साथ चीजें बदलना शुरू हो जाती हैं। वे अत्यधिक बदलती है। ऐसा नहीं
है कि तुम उन्हें बदलते हो, नहीं जरा भी नहीं। चेतना से
भरा हुआ व्यक्ति कोई भी चीज़ नहीं बदलता और एक बिना चेतना का व्यक्ति निरंतर
प्रत्येक चीज़ को बदलने का प्रयास करता है। लेकिन ऐसा व्यक्ति कभी भी किसी भी चीज़
को बदलने में सफल नहीं होता है। और चेतना से भरा हुआ व्यक्ति सामान्य रूप से परिवर्तन
को होते हुए पता है—अत्यधिक परिवर्तन स्वतः: होते है।
प्रयास नहीं, यह
सचेतनता ही है जो परिवर्तन लाती है। यह सचेतनता के द्वारा क्यों होता है—क्योंकि सचेतनता तुम्हें बदलती है। और जब तुम भिन्न हो जाते हो, तो सारा संसार भिन्न हो जाता है। सह प्रश्न कोई भिन्न संसार सृजित करने का
नहीं है। यह प्रश्न केवल तुम्हें भिन्न बनाने का है। तुम्हारा अपना संसार है,
इसलिए यदि तुम बदलते हो तो संसार बदल जाता है। यदि तुम नहीं बदलते
तुम पूरे संसार को बदले चले जा सकते हो,
पर कुछ भी नहीं बदलता। तुम उसी संसार को बार-बार सृजित किए चले
जाओगे। तुम अपना संसार सृजित करते हो। यह तुम ही हो जिससे तुम्हारा संसार
प्रक्षेपित होता है।
तंत्र कहता है कि सचेतनता ही वह कुंजी है,
सभी तालों को खोलने वाली कुंजी है, जो जीवन के
सभी द्वारों को खोलती है। इसलिए स्मरण रहे, यह बहुत सूक्ष्म
हैं—यदि मैं दमन करने की मूर्खता के बारे में बात करता हूं
तो तुम कामनाओं और उपभोग करने के बारे में सोचना शुरू कर देते हो, और यदि मैं कामनाओं की मूर्खता के बारे में बात करना शुरू करता हूं तो तुम
दमन करने के बारे में सोचना शुरू कर देते हो। ऐसा प्रत्येक दिन होता है—तुम तुरंत विरोधी दिशा में गतिशील हो जाते हो, और
पूरा अभिप्राय यही है कि विरोधी की और जाने का लालच न हो। उससे प्रलोभित होना
शैतान से प्रलोभित होने जैसा है।
तंत्र की पद्धति में शैतान वही है जो विरोधी
छोर से प्रलोभित होता है। इस बारे में कोई दूसरा शैतान नहीं है,
केवल शैतान है वह मन, जो तुम्हारे साथ चालाकी
भरा खेल खेलकर तुम्हें विरोधी छोर पर जाने का सुझाव दे सकता है।
तुम कामनाओं और उपयोग के विरूद्ध हो,
मन कहता है—‘बहुत आसान है। अब दमन करो। मत
पड़ो कामनाओं के उपभोग में, वहां से पलायन कर जाओ इस पूरे
संसार को ही छोड़ दो। इस बारे में सभी कुछ भूल जाओ।’ लेकिन
तुम इस बारे में सभी कुछ कैसे भूल सकते हो? इस बारे में सभी
कुछ भूल जाना क्या इतना अधिक आसान है?तब फिर भाग कर तुम दूर
क्यों जा रहे हो?तब तुम भयभीत क्यों हो?यदि तुम इस बारे में सभी कुछ इतनी अधिक आसानी से भूल सकते हो, तब यहीं बने रहो, और इस बारे में सभी कुछ भूल जाओ।
लेकिन तुम यहां भी नहीं बने रह सकते—तुम जानते हो कि संसार
तुम्हें प्रलोभन न देगा। और यह क्षणिक समझ यह नकली समझ जिसे तुम सोचते हो कि तुमने
प्राप्त की है, अधिक उपयोग की नहीं होगी। जब प्रलोभन कामनाओं
से आता है, तो तुम जानते हो कि तुम उसके शिकार बनोगे। वह हो,
उससे पूर्व ही तुम उससे पीछा छुड़ाकर तेजी से भाग जाना चाहते हो।
तुम उस अवसर से पलायन करना चाहते हो। क्यों?तुम उस अवसर से
पलायन क्यों करना चाहते हो?
भारत में तथाकथित संत गृहस्थ परिवार के साथ
नहीं ठहरते हैं। क्यों?यह भय क्या हैं? भारत में तथाकथित संत एक स्त्री का स्पर्श नहीं करेंगे वे उसकी और देखेंगे
भी नहीं। क्यों?भय क्या है? यह भय कहां
से आता है? केवल अवसर से बचने का..... लेकिन अवसर से बचना
अथवा दूर हट जाना एक बड़ी उपलब्धि नहीं है। और अवसर से बचकर दूर हटने से यदि तुम
एक विशिष्ट ब्रह्मचर्य प्राप्त करते हो तो वह ब्रह्मचर्य केवल नकली या झूठा
ब्रह्मचर्य है।
मैंने सुना हैं......
एक शासकीय अधिकारी लंदन के एक शराबखाने में
अपने कुत्ते के साथ गया। उसने एक क्वार्टर का आर्डर दिया और कुत्ते ने व्हिस्की का
आर्डर दिया। बार मैन ने कहा—‘कितना अजीव और नर्क
जैसा काम है यह?’
उसके मालिक ने कहा—‘हां! यह पश्चिमी प्रदेश के सबसे अधिक बुद्धिमान कुत्तों में से एक है। मैं
उसे नगर के दृश्य दिखलाने के लिए लाया हूं।’
बार मैन ने पूछा-‘यदि मैं उसे पांच सेंट देता हूं तो क्या वह मेरे लिए समाचार पत्र ला
सकेगा। क्योंकि आज मैं समाचार पत्र को लाना भूल गया हूं।’
कुत्ते ने धीमे से कहा—‘निश्चित रूप से मैं ला सकूंगा।’ उसने धन प्राप्त
किया मालिक ने कहा—‘टा - टा लेकिन शीघ्र वापस लौटना।’
कुत्ता वापस नहीं लौटा,
इसलिए एक घंटे बाद मालिक को फिक्र हुई और वह उसकी खोज में बाहर गया।
अंत में उसने उसे पीछे की तंगगली में एक कुतिया के साथ प्रेम करते हुए पाया।
मालिक ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा—‘तुम ऐसा तो पहले कभी नहीं किया करते थे।’
कुत्ते ने कहा—‘नहीं! पहले मेरे पास कभी धन भी तो नहीं होता था?’
केवल अवसर से बचकर दूर हट जाने का अधिक
उपयोग नहीं हैं। वह केवल एक नकली वाहियात आकृति है। तुम उसमें विश्वास कर सकते हो,
लेकिन तुम अस्तित्व को धोखा नहीं दे सकते। वास्तव में तुम स्वयं
अपने को कभी धोखा नहीं दे सकते। जो कुछ दमन के रूप में तुमने पीछे छोड़ दिया है।
वह तुम्हारे सपनों के बार-बार विस्फोट करता रहेगा। वह तुम्हें पागल बना देगा।
तुम्हारे तथाकथित संत भली भांति नींद लेने में भी समर्थ नहीं हैं—वे सोने से डरते हैं। क्योंकि नींद में वह संसार जिसका उन्होंने दमन किया
है, सपनों में स्वयं ही बार-बार दृढ़ता से अपना दावा करता
है। अचेतन संबंध जोड़ना शुरू कर देता हैं, वह कहता है: ‘तुम यहां क्या कर रहे हो?तुम एक मूर्ख हो।’अचेतन अपना जाल फिर से फैलाता है।
जब तक तुम जागे हुए हो,
तुम दमन कर सकते हो। लेकिन तुम कैसे दमन कर सकते हो, जब तुम सोये हुए हो?तुम सारा नियंत्रण खोदते हो।
चेतन दमन करता हैं, लेकिन चेतन ही सोने जाता है। इसी कारण
पुरानी परम्परा के सभी संत हमेशा, सोने से भयभीत रहते थे। वे
अपनी नींद को काट कर आठ घंटों से सात घंटे, सात से छ:,छ: से पांच, पाँच से चार फिर इसी तरह से तीन के बाद
दो घंटे करते चले जाते है। और वे मूर्ख लोग सोचते हैं कि यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि
है। वे सोचते हैं, यह संत एक महज संत है। यह केवल दो घंटे ही
सोता है। वास्तव में यह पूरी तरह से एक ही चीज़ प्रदर्शित कर रहा हैं—कि वह अपने अचेतन से भयभीत है। वह अचेतन को संबंध जोड़ने के लिए समय ही
नहीं देता।
जब तुम केवल दो घंटे सोते हो,
तो अचेतन संबंध नहीं जोड़ सकता, क्योंकि वे दो
घंटे शरीर को विश्राम देने के लिए जरूरी होते हैं। शरीर की नींद पूरी होने के बाद
तुम सपने देखते हो, अच्छे और सुंदर सपने देखते हो—इसी कारण भोर के समय ही तुम बेहतर स्वप्न देखते हो। पहिले तो शरीर की
आवश्यकता पूरी होनी है। क्योंकि शरीर को विश्राम की आवश्यकता होती है। एक बार जब
शरीर विश्राम कर चुका होता है तो मन को विश्राम करने की आवश्यकता होती है। वह
दूसरे क्रम की आवश्यकता है।
एक चीज यह है कि जब मन को विश्राम की
आवश्यकता होती है, तब अचेतन जिसकी चितवृति
विश्रामपूर्ण होती है, अपनी कामनाओं को मुक्त करता है,
और स्वप्न उत्पन्न होते हैं। तो वहां स्वप्न तो हो सकते हैं लेकिन
तुम उनको याद रखने में समर्थ न हो सकोगे। यही कारण है कि तुम केवल भोर के समय देखे
गये सपनों को ही याद रख सकते हो। तुम पूरी रात देखे गए अन्य दूसरे सपनों को भूल
जाते हो, क्योंकि तुम इतनी अधिक गहरी नींद में होते हो कि
तुम उन्हीं याद नहीं रख सकते। इसीलिए संत सोचता है कि उसने सेक्स के बार में कोई स्वप्न
नहीं देखा हैं। उसने धन के बारे में कोई स्वप्न नहीं देखा है और न उसने शक्ति
सत्ता, प्रतिष्ठा और सम्मान पाने के बारे में कोई सपना देखा
है। यदि वह केवल दो ही घंटे सोता है, तो वह शरीर के लिए एक
ऐसी आवश्यकता होती है कि नींद इतनी अधिक गहरी होती है कि वह लगभग –‘कोमा’ अर्थात मूर्च्छा के समान होती है, और इसीलिए वह सपनों को याद नहीं रख सकता। तुम केवल उन्हीं सपनों को स्मरण
रख सकते हो, जब तुम आधे जागे हुए और आधे सोये होते हो। तब
सपनों का स्मरण रख जा सकता है, क्योंकि अर्द्ध जागृत और
अर्द्ध सुप्ति की स्थिति चेतना के निकट होती है। और सपनों का कुछ भाग चेतना में
छनकर, चेतना में गतिशील हो जाता है। सुबह होने पर तुम उसके
थोड़े से भाग का स्मरण कर सकते हो। इसी कारण तुम्हें आश्चर्य होगा कि यदि तुम जाकर
एक मजदूर से पूछो जो दिन भर कठोर परिश्रम करता है कि क्या तुम स्वप्न देखते हो—‘तो वह कहेगा नहीं।’
लोग कहते हैं कि आदिम जाति के लोग सपने नहीं
देखते। यह सत्य बात नहीं है कि वे लोग सपने नहीं देखते—पूरी बात इतनी सी ही है कि वे उनको याद नहीं रख सकते। सभी लोग सपने देखते
हैं, लेकिन वह उन्हें याद नहीं रख सकते। दिन भर लकड़ी काटने,
खाई खोदने अथवा पत्थर तोड़ने जैसा आठ घंटो तक कठोर परिश्रम करने के
बाद जब तुम सोते हो तो तुम लगभग पूरी तरह से मूर्च्छित होते हो। सपने आते हैं,
लेकिन तुम उन्हें याद नहीं रख सकते, तुम
स्मृति में कैद नहीं कर सकते।
तुम्हारे तथा कथित संत हमेशा नींद से भयभीत
बने रहते है।
एक बार एक युवक मेरे पास लाया गया। वह पागल
होने जा रहा था। वह ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद का अनुयाई था। मैंने उससे पूछा
तुम्हारे साथ आखिर क्या बात हुई?
उसने कहा—‘बात
कुछ भी नहीं है। मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं। लोग सोचते हैं कि मैं पागल होने जा
रहा हूं।’
मैंने उसके माता-पिता से पूछताछ की-वे लोग
बहुत चिंतित थे,मैं उसके विस्तार में गया। उसका पूरा ब्यौरा
यह था—कि वह स्वामी शिवानंद के पास गया था और शिवानंद ने
उससे कहा था—तुम बहुत अधिक सोते हो। यह तुम्हारे अध्यात्मिक स्वास्थ्य
के लिए ठीक नहीं है। और तुम्हें कम सोना चाहिए। इसलिए उसने अपनी आठ घंटो की नींद
को काटकर तीन घंटे कर दिया था।
अब स्वाभाविक रूप से उसको पूरे दिन नींद आने
जैसा अनुभव करना शुरू कर दिया। इसलिए शिवानंद ने उससे कहा—‘तुम तामसिक वृति के हो और तुम्हारे पास बहुत निम्न स्तर की बंदी उर्जा है।
तुम अपना आहार बदल दो। तुम अनिवार्य रूप से ऐसा भोजन कर रहे हो जो तुम्हें
भारमुक्त कर नींद लाता है’ इसलिए उसने केवल दूध लेना शुरू कर
दिया। अब उसको निर्बलता का अनुभव करना शुरू कर दिया। और अब वह ऐसी स्थिति में था
कि वह किसी भी समय लुढ़क कर नीचे गिर सकता था।
बिना भोजन किए तुम्हारे लिए गहरी नींद में
जाना,
यहां तक कि तीन घंटे के लिए भी और अधिक कठिन हो जाता है। एक अच्छी
नींद के लिए भोजन करना अनिवार्य है। जब पेट के पास पचाने के लिए कुछ भी नहीं होता
है, तो पूरी ऊर्जा सिर की और गतिशील हो जाती है। इसी कारण
उपवास के दिन तुम ठीक से सो नहीं सकते। अब ऊर्जा पेट में नहीं है। तो सिर उसे नहीं
ले सकता है क्योंकि उदर प्राथमिक है और सिर का क्रम उसके बाद दूसरा हैं।
इस बारे में शरीर में एक विशिष्ट नियंत्रण
और शासन होता है: प्राथमिक चीजों को पहली वरीयता देना उदर ही आधारभूत हैं। बिना
सिर के उदर अस्तित्व में बना रह सकता है। लेकिन बिना उदर के सिर अस्तित्व में नहीं
बना रह सकता। इसलिए उदर ही प्राथमिक और आधारभूत हैं; जब
उदर को ऊर्जा की आवश्यकता होती है, वह प्रत्येक स्थानीय
ऊर्जा खींचता है।
अब वह तीन घंटे के लिए भी नहीं सो सकता था।
उसकी आंखें मर्दों जैसी निस्तेज हो गई थी। उसके शरीर ने सभी जीवंतता और दीप्ति खो
दी थी और वहां एक सूक्ष्म कम्पन था। उसके हाथ को पकड़कर मैं उसके पूरे शरीर के
कम्पन को अनुभव कर सका। उसके शरीर ने महीनों से विश्राम नहीं किया था। और अब वह
सोच रहा था कि वह आध्यात्मिक बनता जा रहा है।
सम्मान पाने के लिए इस तरह की मूर्खता काफी
लम्बें समय से निरंतर बनी रही है। जब एक चीज लम्बी अवधि तक जारी रहती है,
तो वह सम्माननीय बन जाती है, क्योंकि वह इतनी
अधिक लम्बी अवधि से चली आ रही हैं।
इसलिए अपने शरीर की और शरीर की आवश्यकताओं
की बात सुनो अपने मन की और उसकी आवश्यकताओं की बात सुनो। उसकी उपेक्षामत करो।
प्रेम के साथ देखभाल करते हुए उन आवश्यकताओं की खोज करो और उनके अंदर जाकर उन्हें
जानो। यदि एक दिन तुम उनके पार जाना चाहते हो तो अपने शरीर और अपने मन को अपना
मित्र बनाओ। उन्हें मित्र बनाना बहुत जरूरी है। तंत्र की जीवन के प्रति यही
अंर्तदृष्टि है कि जीवन की ऊर्जाओं को अपना मित्र बनाओ। उनके विरोधी मत बनो।
अब यह सूत्र! यह सूत्र बहुत अधिक अर्थपूर्ण
हैं। सरहा राजा से कहता है:
वो अपने अंदर जो भी अनुभव करते हैं,
उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,
उसकी ही शिक्षा वे देते हैं,
वे उसकी को मुक्ति कह कर पुकारेंगे,
एक हरे रंग कम मूल्य का कांच का टुकड़ा ही
उसके लिए पन्ने-रत्न जैसा ही होगा।
भ्रम में पड कर वे यह भी नहीं जानते है
कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चहिए?
वह ठीक उसी तरह से इन तथाकथित महात्माओं और
योगियों के बारे में बता रहा है, जिस तरह से मैं
बार-बार इन तथाकथित संतों के बारे में बताता हूं। सरहा कह रहा है: वो अपने अंदर जो
भी अनुभव करते हैं,
उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,
उसकी ही शिक्षा वे देते हैं।
अब यह एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है। इसमें छिपे
हुए गूढ़ अर्थ को समझना है। पहली बात सत्य का अंतिम अनुभव एक अनुभव की भांति किसी
भी प्रकार नहीं होता, क्योंकि जब तुम कसी चीज़ का
अनुभव करते हो तो वहां हमेशा अनुभव कर्ता और जो अनुभव किया गया कि द्वैतता बनी रहती है। इसलिए इस अर्थ में कि
तुम स्वयं ही अनुभव कर रहे हो। वहां काई भी सर्वोच्च अर्थात अंतिम अनुभव हो ही
नहीं सकता—नहीं हो सकता। तुम स्वयं अपने को ही कैसे अनुभव कर
सकते हो? तब तुम दो में विभाजित हो जाओगे, तब वहां कर्ता और वस्तु की द्वैतता आ जायेगी।
तंत्र कहता है कि तुम जो कुछ भी जानते हो,
यह जानना कि तुम वह नहीं हो। यह एक बहुत गहरे तक अंदर प्रविष्ट हो जताने
वाली अंर्तदृष्टि और बहुत महत्वपूर्ण वक्तव्य है। यदि तुम किसी भी वस्तु को देखते
हो, तो यह भली भांति जानना कि तुम वह वस्तु नहीं हो और तुम
केवल दृष्टा मात्र हो। तुम कभी भी नहीं देखे जा सकते हो। तुम घट कर एक वस्तु नहीं
बन सकते हो। तुम कभी भी घटने या कम होने वाली वैयक्तिकता न होकर एक विशुद्ध
वैयक्तिकता और चेतना हो। और स्वयं तुम्हें एक वस्तु में बदलने का वहां कोई भी उपाय
नहीं है। तुम स्वयं को, स्वयं अपने ही सपने नहीं रख सकते हो
अथवा, क्या तुम रख सकते हो? तुम स्वयं
को स्वयं अपने ही सामने खड़ा नहीं कर सकते, एक वह होगा,
जिसके सामने वह वस्तु रखी है।
सरहा कहता है कि सत्य एक अनुभव नहीं है,
हो भी नहीं सकता। सत्य एक अनुभव न होकर एक अनुभूति का होना है। वह
ज्ञान न होकर मात्र जानना भर हे। अंतर बहुत अधिक बड़ा है। तुम एक वस्तु का अनुभव
तभी करते हो, जब वह तुमसे पृथक होती है। इसी तरह से तुम
स्वयं अपना अनुभव नहीं कर सकते। इसलिए तंत्र ने एक निम्न शब्द का अविष्कार किया है—अर्थात अनुभूति का होना। संस्कृत में हमारे पास दो शब्द है: अनुभव और
अनुभूति। अनुभव का अर्थ होता है—तजुरबा और अनुभूति का अर्थ
होता है—उस अनुभव से होकर गुजरना। इस बारे में अनुभव करने के
लिए कुछ नहीं नहीं है। वहां तुम्हारे सामने कुछ भी नहीं है। वहां केवल खालीपन
अर्थात शून्यता है+ लेकिन तुम वहां हो, पूरी तरह से वहां हो,
और तुम्हें रोकने को वहां कुछ भी नहीं है। वहां कोई भी वस्तु अथवा
विषय नहीं है। वहां विशुद्ध वैयक्तिकता हैं।
आत्म चेतना है,
केवल वहां बाहरी खोल है, और कोई भी विषय समानुभूति
नहीं है। फिल्म चलना बंद हो गई है, केवल वहां कोरा सफेद
पर्दा है—लेकिन इस श्वेत पर्दे को वहां कोई देखने वाला भी
नहीं है। वह कोरा श्वेत स्क्रीन या पर्दा तुम हो, इसीलिए एक
नया शब्द ‘अनुभूति’ है, जो अनुभव से होकर गुजर रहा है।
अंग्रेजी भाषा में इस बारे में कोई पृथक
शब्द नहीं है। इसलिए इस अंतर को प्रदर्शित करने के लिए मुझे (Experiencing)
अर्थात अनुभूति शब्द का प्रयोग करना पड़ रहा है। अनुभव एक विषय
वस्तु बन जाता है, जब कि अनुभूति एक वस्तु या विषय न होकर एक
प्रक्रिया है। ज्ञान या जानकारी एक विषय है और जानना एक प्रक्रिया है। प्रेम एक
विषय या वस्तु है पर प्रेम करना एक प्रक्रिया है।
तंत्र कहता है कि तुम्हारे अंतरस्थ केंद्र,
वस्तुओं से नहीं कार्य करने की विधियों और प्रक्रियाओं से बना होता
है। वहां जानना है, ज्ञान नहीं है। वहां प्रेम में होना है,
प्रेम नहीं। वहां संज्ञाओ का नहीं केवल क्रियाओं का अस्तित्व है।
सत्य के अंदर यह एक गूढ़ अंतदृष्टि है केवल क्रियाएं। जब तुम कहते हो ‘यह एक वृक्ष है’, तो तुम बहुत गलत बात करते हो: यह वृक्ष बड़ा हो रहा हैं, यह केवल एक वृक्ष नहीं हैं, यह कोई स्थिर वस्तु नहीं
है, क्योंकि यह विकसित हो रहा है। जब तुम कहते हो, ‘यह एक नदी है’ ज़रा देखो कि तुम क्या कह रहे हो—तुम मूर्खतापूर्ण बात कह रहे हो। यह नदी बह रही है। यह गतिशील और
प्रवाहमान है। एक क्षण के लिए वह वैसी ही समान नहीं होती है। इसलिए तुम उसे ‘नदी’ क्यों कहते हो? एक चट्टान
भी एक चट्टान नहीं है, वह भी एक प्रक्रिया से गुज़र रही है।
अस्तित्व वस्तुओं से न बना होकर घटनाओं से
बना हुआ है। एक स्त्री से ये मत कहो—‘मैं तुम
से प्रेम करता हूं।’ केवल उससे कहो—‘मैं
तुमसे प्रेम करने की स्थिति से होकर गुजर रहा हूं।’ प्रेम एक
वस्तु नहीं है। तुम केवल प्रेम करने की स्थिति में हो सकते हो, तुम प्रेम नहीं कर सकते।
इस बारे में बौद्धों की भाषाएं हैं जिससे
प्रत्येक चीज़ एक प्रक्रिया की भांति विद्यमान है ज1ब
कुछ विशिष्ट बौद्ध देशों-बर्मा और थाईलैंड़ में बाइबिल का पहली बार उनकी भाषाओं
में अनुवाद किया गया तो ईसाई मिशनरीज़ किंकर्तव्य विमूढ़ हो गए, क्योंकि वे परमात्मा के लिए कोई शब्द ही न खोज सके। यदि तुम कहते हो—कि एक नदी हो रही है, और एक वृक्ष-वृक्ष हो रहा है।
एक पुरूष-पुरूष हो रहा है। एक स्त्री-स्त्री हो रही है। तो यह कहना ठीक है। लेकिन
परमात्मा के बारे में—वह है। परमात्मा में वहां कुछ भी नहीं
हो रहा है। पर बर्मीज़ भाषा में सभी शब्द वास्तव में क्रियाएं हैं। प्रत्येक
क्रिया प्रदर्शित करती है कि—हो रहा हैं। लेकिन परमात्मा के
लिए यह कहना कि वह हो रहा है। वह एक प्रक्रिया में है। ईसाइयों के लिए यह कहना
बहुत कठिन था। परमात्मा हमेशा समान बना रहता है, वह शाश्वत
रूप से वैसा ही है। परमात्मा के साथ कभी भी कुछ नहीं होता हैं।
बौद्ध कहते हैं कि यदि परमात्मा को कभी भी
कुछ भी नहीं होता हैं, तब वह मृत हैं। तब वह जीवित
कैसे रह सकता हैं? जहां चीजें घट रही हैं, वहीं तो जीवन है, जीवन एक घटना है। और अंतिम सत्य के
अनुभव के बारे में.....इस तुच्छ सांसारिक वास्तविकता के बारे में तो यह कहना ठीक
है—तुम कह सकते हो—‘यह एक कुर्सी है,’
और इस बारे में वहां अधिक फिक्र करने की कोई भी जरूरत नहीं है। यह
बात बहुत सरल है। अब प्रत्येक चीज़ के बारे में यह कहना कि ‘यह
कुर्सी हो रही है, और यह वृक्ष हो रहा है,’ अभिव्यक्ति में कठिनाई उत्पन्न करेगा। लेकिन अंतिम सत्य के बारे में एक
व्यक्ति को बहुत सजग होना चाहिए। कम से कम इस बारे में तो प्रत्येक व्यक्ति को सजग
होना ही चाहिए।
सरहा कहता हैं:
वो अपने अंदर जो भी अनुभव करते हैं,
उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,
उसकी ही शिक्षा वे देते हैं,
वे उसकी को मुक्ति कह कर पुकारेंगे,
एक हरे रंग कम मूल्य का कांच का टुकड़ा ही
उसके लिए पन्ने-रत्न जैसा ही होगा।
भ्रम में पड कर वे यह भी नहीं जानते है
कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चहिए?
अब अगर तुम गोपी कृष्ण की पुस्तकों को पढ़ा
है जिनमें वह कहते हैं कि कुण्डलिनी ही सर्वोच्च अनुभव है। ऐसा नहीं हो सकता। सरहा
इससे सहमत नहीं होगे। और वह पंडित गोपीकृष्ण पर हंसेगा।
यदि तुम एक विशिष्ट ऊर्जा को अपनी रीढ़ में
उठता हुआ अनुभव करते हो, तो वह तुम ही हो, जो उसे देख रहे हो। रीढ़ अलग है उसमें जो कुंडलिनी ऊपर की और उठ रही है,
वह भी पृथक है। तुम वह कैसे हो सकते हो? मैं
अपने हाथ को देख सकता हूं: केवल अपने हाथ को देखने से मैं उससे पृथक हो गया हूं।
मैं हाथ नहीं होता। मैं उसका प्रयोग कर रहा हूं। लेकिन मैं उससे पृथक हूं। हो सकता
है कि मैं हाथ के अंदर हूं, लेकिन मैं हाथ नहीं हो सकता।
कुण्डलिनी एक आध्यात्मिक अनुभव नहीं है। एक
आध्यात्मिक अनुभव का पूरी तरह से यही अर्थ होता है कि उस क्षण जब वहां अनुभव करने
के लिए कुछ भी न हो। सारे अनुभव विलुप्त हो जाते हैं,
और तुम अपनी निर्मलता में अकेले बैठे रहते हो। तुम इसे एक अनुभव
नहीं कह सकते।
इसीलिए सरहा कहता है कि ये तथाकथित योगी और
संत यह कहे चले जाते हैं कि वे सर्वोच्च सचेतनता की स्थिति को उपलब्ध हो गए हैं—लेकिन उनकी उपलब्धियां क्या हैं? किसी व्यक्ति की
कुंडलिनी जागृत हो गई है, किसी व्यक्ति ने अपने अंदर नीले
प्रकाश को देख है और वह इसी के समान चीजें बतलाते हैं। किसी व्यक्ति ने अपने अंदर
कुछ दृश्य अथवा छवियां देखी हैं: किसी व्यक्ति ने कृष्ण के, किसी
व्यक्ति ने मुहम्मद के, किसी व्यक्ति ने महावीर के, और किसी व्यक्ति ने मां काली के दर्शन किए हैं—लेकिन
ये सभी कल्पनाएं हैं।
सभी अनुभव मात्र कल्पनाएं हैं।
यह शब्द (imaginaon) अर्थात कल्पना बहुत सुंदर शब्द है, यह (image)
छवि से आता है। सभी अनुभव और कुछ भी नहीं हैं, बल्कि तुम्हारी चेतना में तैरती हुई छवियां हैं। जब तुम्हारी चेतना में
कुछ नहीं तैरता हैं—स्मरण रहे, जब
तुम्हारी चेतना में कुछ भी नहीं तैरता है, जब तुम्हारी चेतना
पूर्ण रूप से वहां बिना किसी विषय-सामग्री के होती हैं, उस
विषय-सामग्री विहीन विशुद्धता और निर्मलता को तंत्र प्रामाणिक अनुभव कहता है। तुम
उसे अनुभव भी नहीं कह सकते, अपनी प्रामाणिक प्रकृति से ही वह
है ही नहीं। जब तुम उस प्रमाण के साक्षी होते हो तो तुम उसे साक्षी होना कैसे कह
सकते हो? जब तुम ज्ञाता को जानते हो तो तुम उसे ज्ञान कैसे
कह सकते हो।
इसलिए पहली बात वह कहता है:
वो अपने अंदर जो भी अनुभव करते हैं,
उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,
उसकी ही शिक्षा वे देते हैं।
और दूसरी बात भी स्मरण रखने की है: पुन:
अंदर और बाहर के मध्य अंतर मिथ्या हैं। एक विशिष्ट तल पर यह ठीक हैं—तुम बाहर रह रहे हो इसलिए तुमसे अंदर जाने के लिए कहना होगा। लेकिन बाहर
और अंदर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक दिन तुमसे दोनों को छोड़ने के लिए कहना
होगा, जैसे तुमने बाहर को छोड़ दिया हैं, अब अंदर को भी छोड़ दो। सभी का अतिक्रमण कर जाओ—न
बाहर रहे और न अंदर।
अंदर उतना ही अधिक बाहर है,
जैसा कि बाहर है; यही तंत्र की अंतदृष्टि है।
अंदर क्या है?जो कुछ भी मैं देख सकता हूं, वह मेरे बाहर है, वह मेरे अंदर नहीं हो सकता। तब मैं
एक नीला प्रकाश देखता हूं, जो बाहर है। वास्तव में मैं उसे
बंद आंखों से देख रहा हूं। वह मेरे बहुत निकट है। लेकिन फिर भी घर के बारह है। मैं
तुम्हें खुली हुई आंखों से देख रहा हूं, तुम बाहर हो। राम
में मैं एक सपना देखता हूं, और तुम मेरे सपने में आते हो-तब
क्या तुम अंदर हो?तुम बाहर ही हो, यद्यपि
मेरी आंखें बंद है। लेकिन मैं तुम्हें ठीक वैसे ही देख रहा हूं जैसे कि अब तुम्हें
देख रहा हूं। जो कुछ भी देखा जाता है, वह बाहर है। दृष्टा न
तो बाहर है और न अंदर है।
इसलिए सरहा कहता है कि ये लोग पहले तो अपने
बारह के अनुभवों के बारे में बात किए चले जाते है और तब वे अपने अंदर के अनुभवों
के बारे में बात करना प्रारम्भ कर देते है।
केवल एक दिन पूर्व ही हमने इसकी चर्चा की
थी: तुम एक स्त्री से प्रेम कर रहे हो—यह स्त्री
बाहर है। अब यदि तुम्हारी काम ऊर्जा की अग्नि तुम्हारे अंदर ऊपर उठते हुए तुम्हारे
कंठ अथवा विशुद्ध चक्र तक आती है और वहां तुम अपनी जीभ कंठ के अंदर घुमाकर कृत्रिम
मैथुन करना प्रारम्भ कर देते हो, क्या तुम इसे अंदर होना
कहोगे?यह बाहर ही है। यह उतना अधिक ही बाहर है, जैसा कि जब तुम एक स्त्री के साथ प्रेम कर रहे होते थे।
तंत्र एक ऐसी ही महान अंर्तदृष्टि है,
वह ऐसी ही एक गूढ़ अंर्तदृष्टि हैं, जो यह
कहती है कि एक व्यक्ति को एक ऐसी स्थिति में रहना है जो कह सकता हो—‘मैं न तो बाहर हूं और न मैं अंदर ही हूं, न तो मैं बहिर्मुखी
हूं और न मैं अंतर्मुखी ही हूं, न मैं एक पुरूष हूं और न मैं
एक स्त्री हूं, न तो मैं शरीर हूं और न मैं मन हूं।’ एक व्यक्ति को उस स्थिति तक आना है जहां वह कह सके कि मैं न तो मैं हूं
समसारा अर्थात संसार में हूं और न मैं निर्वाण हूं। सभी द्वैवताओं के ठीक मध्य में
वही वह स्थान है, जहां सारी द्वैवताओं से द्वार आते है।
जो (मन के प्रक्षेपित अनुभव)उन्हें बेड़ियों
में जकड़ते हैं, वे उसी को मुक्ति कहकर पुकारेंगे। अब यह
नई तरह की बेड़ी होगी। हो सकता है, यह बाहर की बेड़ियों अथवा
श्रृंखलाओं से कहीं अधिक सुंदर हो, हो सकता है कि बाहर की
बेड़ियां लोहे की बनी हो और यह बेड़ी स्वर्ण से बनी हो—लेकिन
एक बेड़ी तो आखिर एक बेड़ी होती है। चाहे वह लोहे से बनी हो अथवा सोने से, उससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता: तुम
बेड़ियों में जकड़े हो।
अब यह नई बेड़ी तुम्हारा बंधन बन जायेगी।
कुंडलिनी का जागृत होना, काल्पनिक दृश्य और वस्तुएं
देखना, आध्यात्मिक और सृष्टि संबंधी काल्पनिक दृश्य देखना—अब ये तुम्हारी बेड़ियां बन जाएगी। अब तुम उनके लिए भटकते हुए उनकी कामना
करोगे। पहले तुमने घन की कामना की थी। अब तुम इन तथा कथित आध्यात्मिक अनुभवों की
कामना करोगे। पहले तुमने शक्ति और सत्ता की कामना की थी अब तुम सिद्धियों और
आध्यात्मिक शक्तियों को पाने की कामना करोगे—लेकिन इस बारे
में कामनाएं बनी ही रहती हैं और कामना ही एक बेड़ी है। केवल कामना ने करने में ही
वहां मुक्ति है।
एक हरे रंग कम मूल्य का कांच का टुकड़ा ही
उसके लिए पन्ने-रत्न जैसा ही होगा।
भ्रम में पड कर वे यह भी नहीं जानते है
कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चाहिए?
यदि तुम नहीं जानते,
यदि तुम सजग और सचेत नहीं हो, तो तुम धोखा खा
सकते हो। एक कम मूल्य का हरे रंग का चमकता कांच हो....., और
तुम सोच सकते हो कि यह पन्ना अथवा मरकत है। हां, रंग एक समान
हैं, आकृति भी समान हो सकती है, उसका
भार भी समान हो सकता है। लेकिन तो भी मूल्य भिन्न ही होगा—और
मूल्य ही असली चीज है।
हां, बाहर के
संसार के लोगों के पास शक्ति और सत्ता है। एक राष्ट्रपति और एक प्रधानमंत्री के
पास कुछ शक्तियां होती हैं, और तब एक योगी और एक महात्मा के
पास आंतरिक संसार की कुछ दूसरी शक्तियां होती है। लेकिन असली पन्ना की तुलना में
वह कुछ भी नहीं हैं। बाहर का कांच एक वस्तु थी और अंदर भी उसी भार और उसी आकृति का
कम मूल्य का हरे रंग का चमकता हुआ कांच है, जैसे मानो वह एक
अध्यात्मिक चीज थी, जो वह नहीं हैं।
धार्मिकता तो बिना बादलों के र्निमल आकाश की
भांति होती है। इसलिए एक प्रामाणिक धार्मिक व्यक्ति किन्हीं भी आध्यात्मिक अनुभवों
का दावा नहीं कर सकता। क्योंकि सभी आध्यात्मिक अनुभव सस्ते हरे रंग के चमकते कांच
के टुकड़े के ही तो जैसे है। वे पन्ना अथवा मरकत मणि नहीं है।
इसी कारण बुद्ध मौन बने रहे। जब लोग उनसे पूछते—क्या आपने सत्य का अनुभव कर लिया है? वह मौन बन
रहते। जब लोग उनसे पूछते—‘क्या आप परमात्मा को जानते है?’
तो वह कुछ भी नहीं कहते, वे मुस्करा देते अथवा
उसे हंसी में उड़ा देते। क्यों?वह क्यों उसे टाल देते थे?मूर्ख लोग सोचेंगे कि वह इसलिए उसे टाल देते थे, क्योंकि
उन्होंने उसे नहीं जाना था। वह इसलिए बचते थे क्योंकि उन्होंने उसका अनुभव नहीं
किया था। वह इसलिए टाल देते थे क्योंकि उन्होंने उसकी अनुभूति की थी। वह इसलिए टाल
देते थे क्योंकि वह जानते थे कि इस बारे में बात करना ठीक नहीं है। वह एक अधार्मिक
कार्य हो, अर्ध सत्य बन जाएगा उसे कहते ही।
सत्य के बारे में कहा नहीं जा सकता। हम उसके
मार्ग के बारे में बातचीत तो कर सकते हैं, लेकिन हम
सत्य के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते। हम इस बारे में बात कर सकते हैं कि उसे
कैसे प्राप्त किया जाए लेकिन हम यह नहीं बता सकते कि वह क्या है और हम कब उसे
प्राप्त करेंगे। सरहा कह रहा है कि वे लोग जो उसके अनुभव होने का दावा करते हैं वे
सभी मिथ्या हैं।
भ्रम में पड़कर वे यह भी नहीं जानते है
कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चहिए?
सीमित बुद्धि के विचारों के कारण,
वे तांबे को भी स्वर्ण की भांति लेते हैं,
और मन के शूद्र-विचारों को वे अंतिम सत्य की
तरह सोचते हैं।
वे शरीर और मन के सपनों जैसे सुखमय अनुभवों
को ही
सर्वोच्च अनुभव मानकर वहीं बने रहते है,
और नाशवान शरीर और मन के अनुभवों को ही शाश्वत
आनंद कहते है।
वे तांबे को भी स्वर्ण की भांति लेते
है........।
औपचारिक वस्तुगत को वे सोचते हैं कि वह
आत्मचेतना है। ज्ञाता अभी तक ज्ञान नहीं है। उन्होंने किसी अन्य चीज़ को ही जाना
है और उन्होंने उसे गलत समझा है। और वे सोचते हैं कि उन्होंने ज्ञाता को जान लिया
है। हो सकता है उन्होंने कुंडलिनी को जाना हो, हो सकता
है उन्होंने कुछ काल्पनिक आध्यात्मिक वस्तुओं के दृश्य देखे हों, कविता के बहुत सुंदर काल्पनिक दृश्य देखे हों, हो
सकता हैं, उन्होंने अद्भुत और उच्चता के महत्वपूर्ण और तितली
के पंखों जैसे बहुरंगी सुंदर दृश्य देखें हो।
लेकिन वे तांबे को स्वर्ण की भांति लेते हैं
और सीमित बुद्धिगत विचारों के कारण वे सोचते
हैं कि वे
विचार ही सर्वोच्च सत्य हैं।
और ये तथाकथित संत और महात्मा तर्क वितर्क
तक सीमित हैं। बुद्धिगत विचारों में सीमित होकर.....वे तर्क-वितर्क किये चले जाते
हैं और वह यह भी सिद्ध करने का प्रयास किए चले जाते हैं कि परमात्मा का अस्तित्व
हैं।
ईसाइयत में, परमात्मा
का अस्तित्व सिद्ध करने में उन्होंने दो हज़ार वर्ष व्यर्थ ही नष्ट कर दिए। तुम
परमात्मा के होने को कैसे सिद्ध कर सकते हो? यदि यह सिद्ध
किया जा सकता है, तो इसे असिद्ध भी किया जा सकता है।
तर्क-वितर्क एक दुधारी तलवार हैं, तर्क एक वेश्या कि भांति
है। यदि यह सिद्ध किया जा सकता है कि परमात्मा है तो यह भी सिद्ध किया जा सकता है
परमात्मा है ही नहीं। और वास्तव में इसका सौंदर्य ही यहीं है: जिस तर्क से सिद्ध
किया जा सकता है कि परमात्मा है, उसी समान तर्क से यह भी
सिद्ध किया जा सकता है कि परमात्मा नहीं है।
अब यह तथाकथित संत इस संसार का सबसे बड़ा
तर्क यह देते रहे हैं कि संसार को एक सृष्टा की आवश्यकता है—क्योंकि बिना सृष्टा के संसार की सृष्टि कैसे हो सकती है? बचकाने और अविकसित मन वाले लोगों को अब यह तर्क आकर्षित करता प्रतीत होता
है। हां, इतना अधिक विराट अस्तित्व वह बिना सृष्टा के इस जगह
कैसे हो सकता है?वहां कोई व्यक्ति तो अनिवार्य रूप से होना
ही चहिए, जिसने इसका सृजन किया है। और इस तर्क के गुब्बारे
में केवल एक छोटी सी सुई की नोक चुभो दो और तर्क का एक गुबार फूट जाता है। काई
व्यक्ति पूछता है—‘तब सृष्टा को किसने सृजित किया?’ यह वही तर्क है। यदि तुम कहते हो कि इस संसार को एक सृष्टा की जरूरत है,
तब पुन: तुम्हारे सृष्टा को एक सृजन हार की जरूरत होगी और इसी तरह
यह क्रम चलता चला जाता हैं। वे बार-बार उसी तर्क को दोहरती चले जाते हैं जब तक की
तुम ऊब ही न जाओ।
तुम कह सकते हो कि नंबर एक ने यह संसार
बनाया और नंबर दो ने नंबर एक का सृजन किया, तथा नंबर
तीन नंबर को बनाया और इसी तरह तुम आगे बढ़े चले जा सकते हो। लेकिन अंतिम प्रश्न
ज्यों का त्यों बना ही रहेगा कि किसने प्रथम या मौलिक को बनाया?
यदि तुम यह स्वीकार करते हो कि मौलिक अर्थात
प्रथम का सृजन नहीं किया गया था, तब इस बारे में यह
सारा हंगामा क्यों हैं? तब यह क्यों नहीं कहते कि संसार का
सृजन किसी ने नहीं किया? यदि परमात्मा असृजित हो सकता है तो
यह कहना पूरी तरह से गलत क्यों हैं कि यह संसार किसी भी व्यक्ति द्वारा सृजित किये
बिना यहां हैं? वस्तुतः: इस मुखर्तापूर्ण तर्क में जाने की
अपेक्षा जो कहीं भी नहीं ले जाता उस बात का कहना कहीं अधिक तर्क युक्त होता।
उन तर्कों को देखा जो परमात्मा के होने के
बारे में दिए जाते रहे है। वे सभी मूर्खतापूर्ण और बेवकूफी से भरे हुए है इसी कारण
तुम अपने परमात्मा के बारे में एक भी नास्तिक को कायल नहीं कर सकते। वे लोग पहले
ही से कायल हैं—हां, वे लोग कायल
हैं, उस और मैं संकेत नहीं कर रहा हूं। तुम परमात्मा पर
संदेह करने वाले एक भी मन को कायल नहीं कर सकते—तुम्हारे
तर्क सहायता नहीं करेंगे। वास्तव में तुम्हारे लिए कठिनाई खड़े करेंगे।
सरहा क्या कहा रहा है! सराह कह रहा है कि एक
व्यक्ति जिसने अपने अंदर सत्य को जान लिया है, वह जानता
है कि उसकी अनुभूति करने की अपेक्षा से अधिक इस बारे में अन्य कोई प्रमाण नहीं है।
वह बुद्धिपूर्वक विचारों में विश्वास ही नहीं करता। वह इसके लिए कोई तर्क भी नहीं
देता—यह अतर्क पूर्ण और विचार शक्ति के पार है। वह ऐसा ही है
तुम उसका अनुभव कर सकते हो अथवा तुम उसे छोड़ सकते हो। लेकिन इस बारे में उसे
सिद्ध अथवा असिद्ध करने का कोई भी उपाय नहीं है। आस्तिकता और नास्तिकता दोनों ही
अर्थहीन हैं। धर्म का उनके साथ कुछ भी लेना देना नहीं है। वह जो कुछ भी है धर्म
उसकी एक अनुभूति है। तुम उसे जिस किसी भी नाम से पुकारना चाहो, पुकारने के लिए नाच चुन सकते हो; उसे परमात्मा कहो,
उसे निर्वाण कहो, उस ‘अ’
व ‘ब’ कह सकते हो। लेकिन
कुछ भी कहो, इससे फर्क नहीं पड़ता—लेकिन
उसकी अनुभूति करो। तंत्र उसकी अनुभूति करने में विश्वास करता है। तंत्र मस्तिष्क
सम्बंधी विशेषता न होकर अस्तित्वगत है।
वे तांबे को भी स्वर्ण की भांति लेते हैं,
और इस परमात्मा को तर्कों द्वारा सिद्ध कर
वे सोचते हैं कि यह उनका परमात्मा हैं। तब वे परमात्मा की कल्पित छवियां बनाते
हैं। और तब वे पूजा और आराधना करते हैं। तब वे अपने ही तर्कों द्वारा निरूपित
परमात्मा की पूजा कर रहे हैं। तुम्हारे मंदिरों, मस्जिदों
और गिरजाघरों में क्या हैं? वहां कुछ भी न होकर एक प्रकार की
तर्क प्रणाली है, जिसमें तीसरे व्यक्तित्व को सत्य सिद्ध
करने के लिए दो वक्तव्यों का प्रयोग किया जाता है। संसार का सृजन करने के लिए एक
सृष्टा की जरूरत हैं, इसलिए तुम एक सृष्टि कर्ता में विश्वास
करने के लिए कहते हो। यह एक विश्वास है और सभी विश्वास झूठे होते है। विश्वास एक स्वयं
निर्मित चीज़ है। हां, वह सांत्वना देता है। वह तुम्हें एक
विशिष्ट सुविधा और सुरक्षा देता है। यह विश्वास करना सुविधाजनक हैं। कि कोई
व्यक्ति संसार की देखभाल कर रहा है। अन्यथा कोई भी व्यक्ति यह सोचकर कि यदि कोई भी
व्यक्ति देखभाल नहीं कर रहा है तो किसी भी क्षण कुछ भी गलत हो सकता है, भयभीत हो जाता है।
यह ठीक उसी तरह है;
कि जब तुम हवाई जहाज में होते हो और तुम जानते हो कि वहां पाइलेट्स
मौजूद है और वह सभी चीजों की देखभाल कर रहा है। और अचानक तुम चालक कक्ष की और जाते
हो और देखते हो कि वहां कोई भी नहीं है। अब होगा क्या? ठीक
एक क्षण पूर्व ही तुम चाय की चुस्कियां लेते हुए बातें कर रहे थे और तुम उस स्त्री
में दिलचस्पी ले रहे थे जो तुम्हारे बगल में बैठी हुई थी और तुम उसके शरीर को
स्पर्श करने का प्रयास कर रहे थे, और प्रत्येक चीज़.....अब
प्रत्येक चीज़ चली गई—क्योंकि पाइलेट्स वहां नहीं है। अभी तक
प्रत्येक चीज़ सुविधामय थी अब तुम घबराओगे, तुम कांपना शुरू
कर दोगे, सभी स्त्रियों और पुरुषों में और खाने-पीने में भी
तुम अपनी सारी दिलचस्पी खो दोगे और अब प्रत्येक चीज़ तुम्हारे लिए समाप्त हो गई।
तुम्हारी स्वांस अव्यवस्थित हो जायेगी, तुम्हारा रक्तचाप गड़-बड़ा
जायेगा। तुम्हारा हृदय व्याकुल और व्यग्र होना शुरू हो जायेगा और वातानुकूलित वायुयान
में भी तुम्हें पसीना आना शुरू हो जायेगा।
यह विश्वास करना सुखदायक होता है कि वहां
चालक कक्ष में पाइलेट्स है जो सभी कुछ जानता और प्रत्येक चीज़ ठीक से चल रही है—परमात्मा देखभाल कर रहा है। तुम जिस तरह से हो, वैसे
ही बने रह सकते हो। वह ‘परम पिता’ है
और वह प्रत्येक व्यक्ति को जानता हैं। बिना उसकी मर्जी के एक पत्ता तक नहीं खड़कता,
इसलिए प्रत्येक चीज ठीक है। यह एक सुविधा है। मन बहुत चालाक है। यह
परमात्मा उसी चालबाजी मन का ही एक योग है।
सराह कहता है कि विश्वास सत्य नहीं होता हैं
और सत्य कभी भी एक विश्वास नहीं होता है। सत्य तो एक अनुभूति है।
और मन के शूद्र-विचारों को वे अंतिम सत्य की
तरह सोचते हैं।
वे शरीर और मन के सपनों जैसे सुखमय अनुभवों
को ही
सर्वोच्च अनुभव मानकर वहीं बने रहते है,
और नाशवान शरीर और मन के अनुभवों को ही
शाश्वत आनंद कहते है।
कभी-कभी तुम शरीर के द्वारा भ्रमित होते हो
और यदि किसी प्रकार तुम शरीर के पास जाने की व्यवस्था कर लेते हो,
तो तुम मन के द्वारा और अधिक भ्रमित करता है। पहले तीन चक्र शरीर से
संबंधित हैं और अगले तीन चक्रों का सम्बन्ध मन से है। और सातवां चक्र दोनों के पास
है।
सामान्य रूप से जो लोग सुखभोग में लगे रहते
हैं,
वे पहले तीन निम्नतम चक्रों, मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर में लटके रह जाते हैं। और उच्चाकांक्षाओं से रहित
भूमि से ही बंधे रह जाते हैं। वे गुरुत्वाकर्षण से आकर्षित भूमि में नीचे की और
खींच लिए जाते हैं। अगले तीन चक्र अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा
हैं। इन पर गुरुत्वाकर्षण का कोई प्रभाव नहीं होता और ये आकाश की और उन्मुख होते
हैं। वे एक दूसरे आकाशगामी नियम के अंतर्गत ऊपर की और खींच लिए जाते हैं। ये तीनों
चक्र मन से मिले होते हैं। शरीर नीचे की और खींच लिया जाता है। और मन ऊपर की और
खींच लिया जाता हैं। लेकिन तुम (तुम्हारी चेतना) इनमें से कोई भी नहीं है। तुम
सातवें चक्र पर हो, जो न तो शरीर है और न मन ही हैं।
इसलिए वे लोग जो सुखभोग में लगे रहते हैं,
वे पहले तीन चक्रों में जीते और वे लोग जो प्रथम तीन चक्रों को
नियंत्रण में रखते हैं, वे लोग दूसरे तीन चक्रों में जीना
प्रारम्भ कर देते हैं। लेकिन वे एक सपनों का संसार है सृजित करते हैं। यह लगभग ठीक
इसी प्रकार है कि जैसे एक दिन तुम उपवास करते हो और रात में तुम स्वप्न देखते हो
कि इंग्लैंड की महारानी द्वारा तुम्हारे सम्मान में एक बहुत बड़े भोज का आयोजन
किया गया हैं, और तुम उसमें आमंत्रित किए गये हो। तुम उन सभी
तरह की चीजों को खा रहे हो, जिन्हें तुम हमेशा से खाना चाहते
थे। लेकिन डाक्टर तुम्हें उन चीजों को खाने की अनुमति नहीं देते थे। तुम्हारा
उपवास ही यह स्वप्न सृजित करता है, लेकिन यह तुम्हारा पोषण
नहीं कर सकता। सुबह के समय तुम उतने ही भूखे होगे जैसे पूर्व में थे, बल्कि उससे भी अधिक भूखे हो। लेकिन यह स्वप्न तुम्हारी थोड़ी सहायता करता
है। वह कैसे सहायता करता है?वह तुम्हें सोना जारी रखने में
सहायता करता है। अन्यथा तुम्हारी भूख तुम्हें बार-बार जगा देती और तुम जागते रहते।
यह स्वप्न मन की ही बाजीगरी का एक खेल है। मन कहता हैं—‘इस
बारे में जागने की कोई जरूरत नहीं है और अंधेरे में जाकर फ्रीज में ही कुछ खोजने
की जरूरत है। तुम भली भांति सो सकते हो। देखो महारानी ने तुम्हें आमंत्रित किया है,
मेज़ पर इतने अधिक भोज्य पदार्थ सजे हुए है, तुम
खाते क्यों नहीं हो?’—और तुम खाना शुरू कर देते हो। यह मन की
बाजीगरी का एक खेल है; वह तुम्हें सोते बने रहने में
तुम्हारी सहायता करता है।
ऐसा कई बार होता हैं;
तुम्हारा ब्लैडर पेशाब से भर जाता है, और तुम
स्वप्न देखने लगते हो कि बाथरूम में हो। यह सहायता करता है, न
केवल यह ब्लैडर को हल्का करता है, बल्कि यह तुम्हें भ्रमित
भी बनाए रखता है। और तुम धोखा खाकर नींद को जारी रख सकते हो।
तुम्हारे विश्वास,
तुम्हारी कल्पना तुम्हारे सपने, तुम्हारे
मंदिर, तुम्हारे गिरजा घर, तुम्हारी
मस्जिदें और तुम्हारे गुरुद्वारा तुम्हें बने रहने में तुम्हारी सहायता करते हैं।
वे नींद की गोलियों की भांति हैं।
इन नाशवान शरीर और मन के अनुभवों को
वे सर्वोच्च शाश्वत-आनंद कहते हैं।
कभी-कभी वे सोचते हैं कि वहां शरीर के ही
सुख सर्वोच्च हैं और तन व मन में कल्पना करते हुए सोचना शुरू कर देते हैं कि
कुंडलिनी जागृत हो रही है। वहां अंदर प्रकाश दिखाई दे रहा हैं और उनके काल्पनिक
दृश्य छवियां दिखाई देने के साथ सुखद अनुभव हो रहे है।
एक प्रामाणिक धर्मोन्मुख व्यक्ति की
दिलचस्पी चेतना की किसी विषय-सामग्री में नहीं होकर स्वयं चेतना में ही होती है।
‘इवाम’ जैसे
मंत्रों को दोहराते हुए वे सोचते हैं कि वे आत्मोपलब्ध हो रहे हैं।
जब कि विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरने के
लिए चार
मुद्राओं को तोड़ने की जरूरत होती है,
वे अपनी इच्छानुसार सृजित की गई सुरक्षा की
चार दीवारी
तक वे स्वयं तक पहुंच जाना कहते है,
लेकिन यह केवल दर्पण में प्रतिबिम्बों को
देखा जैसा है।
मंत्रों और ध्वनियों के द्वारा,
एक व्यक्ति एक विशिष्ट मानसिक शांति प्राप्त कर सकता है। हां,
भावातीत-ध्यान के द्वारा एक व्यक्ति एक विशिष्ट भ्रम सृजित कर सकता
है। यदि तुम एक विशिष्ट ध्वनि को निरंतर दोहराते रहते हो, वह
तुम्हारी पीड़ा को शांति देती है। वह तुम्हारे मन को एक विशिष्ट लय देती है,
वह तुम्हें लयबद्ध कर देती है। यदि तुम ‘औम्’
अथवा ‘इवाम’ अथवा कोई भी
मंत्र को दोहराते चले जाते हो, ‘कोक-कोक’ का दोहराना भी काम करेगा। और मन का ये खेल सार है कि तुम केवल परिपूर्ण
होकर मंत्र का जाप करो। तब वह तुम्हारी सहायता करता है। तुम अपने सामने एक
कोका-कोला की बोतल रख कर उसके सामने फल-फूल भी रख सकते हो, तो
वह भी तुम्हारी सहायता कर सकता है। तुम्हें बस एक खास वातावरण सृजित करना होगा। तो
इन सब से तुम्हें सहायता मिल सकती है। यदि तुम पर्याप्त लम्बी अवधि तक ऐसा करते हो
तो इस बारे में पूरी सम्भावना है कि तुम अच्छा अनुभव करो। तुम्हें स्वयं अपने को
आत्मसम्मोहित करना होगा। तुम्हें स्वयं अपने को किसी भी चीज के सुझाव देने होंगे।
तुम्हें सुझाव देना होगा; शांति आ रही है, प्रसन्नता आती जा रही हैं, यह कुछ और नहीं है बल्कि
स्वयं को बहुत अप्रत्यक्ष रूप से सुझाव देना है।
एमिलीकुए प्रत्यक्ष सुझाव देता है। विचार
करो—‘मैं बेहतर होता जा रहा हूं, मैं स्वस्थ होता जा रहा
हूं, मैं प्रसन्न होता जा रहा हूं,’—ये
सब प्रत्यक्ष सुझाव हैं। एमिलीकुए एक पश्चिमी व्यक्ति है—कहीं
अधिक ईमानदार, सच्चा और प्रत्यक्ष रूप से कार्य करने वाला।
महर्षि महेश योगी सुझाव देते हैं। कि तुम ‘राम-राम’अथवा ‘ओम-ओम’ दोहराते रहो—यह अप्रत्यक्ष सुझाव हैं, इसमें पूरबी मस्तिष्क अधिक
है, यह प्रत्यक्ष नहीं अप्रत्यक्ष सुझाव है। लेकिन वे सभी
मंत्र सुझाव ही देते हैं। यदि तुम यह मंत्र बीस मिनट तक सुबह और बीस मिनट तक शाम
प्रतिदिन दोहराते हो तो तुम कहीं अधिक स्वस्थ कहीं अधिक शांत और कहीं अधिक आनंदित
हो जाते हो। इन सभी चीजों के वायदे किए जाते हैं—तुम्हारी
वेतन वृद्धि हो जायेगी, तुम्हारी पदोन्नति हो जायेगी और
तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं में पूरा विश्व तुम्हारे साथ सहयोग करेगा।
यह अप्रत्यक्ष रूप से आश्वासन दिया जाता है।
और तब तुम्हारी उतनी दिलचस्पी मंत्र में न होकर, इन
सभी चीजों में...अर्थात...धन, स्वास्थ्य, पद प्रतिष्ठा, शांति और आनंद में अधिक होती है। इसी
दिलचस्पी के कारण तुम मंत्र दोहराते हो। लेकिन प्रत्येक बार जब तुम ओम् दोहरते हो,
तुम जानते हो कि यह चीज़ें घटने जा रही हैं। और ये मंत्र केवल उस
सीमा तक कार्य करते हैं, ‘क्योंकि’ तुम
उनमें विश्वास करते हो। और यदि तुम विश्वास ही नहीं करते हो तो ये मंत्र काम नहीं
करेंगे। महेश योगी कहेंगे—‘यदि तुम विश्वास ही नहीं करते,
तो वे कैसे कार्य करेंगे? तुम्हें उन पर
विश्वास करना ही होगा, तभी वे कार्य करेंगे।’
सत्य तुम्हारे विश्वास के बिना भी कार्य
करता है,
सत्य को तुम्हारे विश्वास की कोई भी आवश्यकता नहीं है। सत्य को
तुम्हारे विश्वास की कोई भी आवश्यकता नहीं होती। विश्वास के द्वार केवल झूठ ही
कार्य करता है। झूठ को तुम्हारे भाग्य की विश्वास की जरूरत होती है। क्योंकि यदि
तुम विश्वास करते हो, केवल तभी तुम स्वयं को सुझाव देते हुए
एक ऐसा वातावरण और मन का व्यवहार सृजित कर सकते हो, जिसमें
वह कार्य करता हैं।
इवाम(Evam) जैसी ध्वनि अथवा मंत्र को दोहराते हुए
वे सोचते हैं कि वे आत्म सचेतन का उपलब्ध हो
जाते है....
और सरहा कहता है कि ये मूर्खतापूर्ण हैं। एक
विशिष्ट घ्वनि को दोहराने के द्वारा कोई भी स्पष्टता अर्थात निर्मलता उपलब्ध नहीं
होती है। यह केवल बादलों जैसी धुंध छा जाती हैं। ऐसा नहीं है कि तुम उससे अधिक
बुद्धिमान और सचेत हो जाते हो, तुम्हें नींद आने लगती
है। निश्चित रूप से तुम्हें अच्छी नींद आयेगी। यह इसका अच्छा भाग है। और यह कोई
संयोग नहीं है कि महेश योगी का भावातीत ध्यान अमेरिका में प्रभावी बन गया है।
क्योंकि अमेरिका एक ऐसा देश है जो अनिद्रा के रोग से भंयकर रूप से पीड़ित हैं। लोग
सो नहीं सकते उन्हें सोने के लिए किसी तरकीब की जरूरत है। भावातीत ध्यान अच्छी
नींद देने में सहायता कर रहा है। और मैं भावतीत ध्यान के विरूद्ध नहीं हूं,
यदि तुम केवल एक अच्छी नींद के लिए उसका उपयोग कर रहे हो। लेकिन
स्मरण रहे वह तुम्हें किसी अन्य क्षेत्र में नहीं ले जा सकता है। वह तुम्हारी
आध्यात्मिक यात्रा नहीं बन सकता, वह केवल एक चैन दे सकता है।
विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरने के लिए
चार मुद्राओं की जरूरत होती हैं.....
इन चारों मुद्राओं को समझना है। तंत्र चार
मुद्राओं के बारे में बात करता हैं। उस अंतिम सत्य को पाने के लिए एक व्यक्ति को
चार द्वारों से होकर गुजरना होता है। उसे चार ताले खोलने होते हैं। इन चार तालों
को ही चार मुद्राएं कहते है सरहा। वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
पहली मुद्रा को कर्म मुद्रा कहा जाता हैं।
यह सबसे बाहर का द्वारा है,यह तुम्हारे अस्तित्व की
वास्तविक परिधि है। ठीक कर्म के समान ही यह तुम्हारे सबसे अधिक बाहर हैं, इसी कारण इसे कर्म मुद्रा कहा जाता है। कर्म का अर्थ है कार्य अथवा क्रिया
कार्य करना, तुम्हारे अस्तित्व का सबसे अधिक बाहर का स्थान
है, वह तुम्हारी परिधि है, तुम जो कुछ
भी करते हो वह तुम्हारी परिधि पर होता है। तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो,
तुम किसी व्यक्ति से घृणा करते हो, तुम किसी
व्यक्ति को मारते हो, तुम किसी व्यक्ति की रक्षा करते हो—तुम जो भी करते हो वह तुम्हारी परिधि है। कर्म तुम्हारे अस्तित्व का सबसे
अधिक बाहर वाला भाग है।
तुम्हारे कर्म में समग्र होने के द्वारा ही
पहली मुद्रा खुलती है—तुम अपने कार्य में समग्र
बने रहो। तुम जो कुछ करो, समग्रता से करो और तब वहां महान
आनंद उत्पन्न होगा—लेकिन वह किसी मंत्र को दोहराने से नहीं,
वह किसी भी कार्य को समग्रता से करने से होता है। यदि तुम क्रोधित
हो तो पूर्ण रूप से क्रोध ही बन जाओ, इस पूर्ण क्रोध से तुम
बहुत कुछ सीखोगे। यदि तुम समग्र रूप से क्रोधित हो और अपने क्रोध के प्रति पूर्ण
रूप से सचेत हो, तो एक दिन क्रोध विलुप्त हो जायेगा। फिर और
अधिक क्रोधित बने रहने का वहां कोई अभिप्राय ही न होगा: तुमने उसे समझ लिया है,
और अब उसे छोड़ा जा सकता हैं।
कोई भी चीज जो समझ में आ जाती है उसे सरलता
से छोड़ा जा सकता है। केवल समझ में न आने वाली चीजें ही तुम्हारे चारों और लटकी रह
जाती हैं। इसलिए वह चाहे कोई भी कार्य हो, समग्र बने
रहो। समग्र और सचेत होने का प्रयास करो यही है वह पहला ताला जिसे खोलना है।
सदा स्मरण बना रहे कि तंत्र बहुत अधिक
वैज्ञानिक हैं। वह एक मंत्र को दोहरने के लिए नहीं कहता है। वह अपने कार्यों में
पूर्ण सचेत बनने के लिए कहता है।
दूसरी मुद्रा को ज्ञान मुद्रा कहा जाता है;
यह पहली की अपेक्षा थोड़ी सी अंदर और थोड़ी अधिक गहराई में ज्ञान की
भांति होती है। कर्म सबसे अधिक बाहर की चीज़ है, ज्ञान थोड़ा
सा गहराई में है। जो कुछ में कर रहा हूं, तुम उसका निरीक्षण
कर सकते हो, लेकिन जो कुछ मैं जान रहा हूं, तुम उसका निरीक्षण नहीं कर सकते। जानना अंदर होता है। कर्मों का निरीक्षण
किया जा सकता है। जानने का निरीक्षण नहीं किया जा सकता, वह
अंदर होता है। दूसरी मुद्रा जानने की हैं—वह ज्ञान मुद्रा
हैं।
जो तुम वास्तव में जानते हो,
अब उसे जानने की शुरूआत करो, और जिन चीजों को
वास्तव में तुम नहीं जानते, उन पर विश्वास करना बंद करो दो।
कोई व्यक्ति तुमसे पूछता है—‘क्या वहां परमात्मा है?’ और तुम कहते हो: ‘हां परमात्मा है।’ स्मरण रहे, क्या
तुम वास्तव में उसे जानते हो? यदि तुम नहीं जानते तो कृपया यह
मत कहो कि तुम जानते हो। कहो—‘मैं नहीं जानता।’ यदि तुम ईमानदार हो तो तुम केवल वही कहो—जो तुम
जानते हो, और जो कुछ तुम जानते हो, तुम
केवल उसी पर विश्वास करो। तब दूसरा द्वार टूट जायेगा। जिन चीजों को वास्तव में तुम
नहीं जानते, यदि तुम उन चीजों पर विश्वास किए चले जाते हो।
और उन चीजों को जानने का दावा किए चले जाते हो। तो दूसरा ताला कभी नहीं टूटेगा।
मिथ्या ज्ञान, सत्य ज्ञान का शत्रु है। और सभी विश्वास
मिथ्या ज्ञान हैं। और तुम उन पर पूरी तरह विश्वास करते हो। तुम्हारे तथा कथित संत
तुम्हें बताये चले जाते है—‘पहले विश्वास करो तभी तुम
जानोगे।’
तंत्र कहता है पहले जानो तभी उस जगह विश्वास
होता है। लेकिन वह पूर्ण रूप से एक भिन्न तरह का विश्वास होता है। वह आस्था होती
है। तुम परमात्मा में विश्वास करते हो और सूरज को जानते हो। सूरज का नित्य उदय
होता है। तुम्हें उस में विश्वास करने की जरूरत नहीं है। वह पूर्ण रूप से है और
तुम उसे जानते हो। परमात्मा, तुम उसमें विश्वास
करते हो पर परमात्मा एक झूठ है, तुम्हारा परमात्मा एक मिथ्या
है।
इस बारे में एक दूसरा परमात्मा है—वह परमात्मा जो जानने के द्वारा आता है। पर पहली चीज़ यह चुनने की है कि
वह सभी कुछ छोड़ दो, जिसे तुम नहीं जानते हो और उसी पर
विश्वास करो, जिसे तुम जानते हो। तुमने हमेशा विश्वास किया
है और तुमने हमेशा वह भार ढोया है। उस बोझ को छोड़ दो। सौ चीजों में से तुम लगभग
अट्ठानवे चीजों के बोझ से हल्के हो जाओगे केवल थोड़ी सी चीजें बनी रहेंगी जिन्हें
तुम वास्तव में जानते हो। तुम्हें एक बहुत बड़ी मुक्ति का अनुभव होगा और तुम्हारा
सिर उतना अधिक भारी नहीं रहेगा। उस भारहीनता और स्वतंत्रता के साथ तुम अन्य मुद्रा
में प्रवेश करो। दूसरा वाला टूट जाता हैं।
तीसरी मुद्रा को समय मुद्रा कहा जाता है।
समय का अर्थ है—अवधि अथवा जीवन काल। पहली सबसे बाहर की
पर्त है कर्म, दूसरी
पर्त है ज्ञान, तीसरी पर्त है समय। ज्ञान विलुप्त हो जाता है
और तुम अभी और यहीं में होते हो, केवल शुद्धतम समय ही रह
जाता है। निरीक्षण करो और इस पर ध्यान करें। अभी के क्षण में वहां ज्ञान नहीं
होता। ज्ञान हमेशा अतीत के बारे में होता है। अभी के क्षण में वहां ज्ञान नहीं
होता। ज्ञान हमेशा अतीत के बारे में होता है। अभी के क्षण वहां कोई भी ज्ञान नहीं
होता। वह ज्ञान से पूर्ण रूप से मुक्त होता है। ठीक इसी क्षण मेरी और देखते हुए
तुम क्या जानते हो? कुछ भी नहीं जाना जाता। यदि तुम सोचना
प्रारंभ करते हो तो तुम यह अथवा वह जानते हो, तो वह अतीत से
आयेगा। वह इस क्षण और अभी से नहीं आयेगा। जानकारी अतीत से होती है। अथवा वह भविष्य
में एक कल्पना होती है। अभी है विशुद्ध ज्ञान।
इसलिए तीसरी है समय-मुद्रा—इसी क्षण में बने रहना। सरहा इसे समय क्यों कहता है? सामान्य रूप से तुम सोचते हो कि समय के तीन विभाजन है—भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्यकाल पर यह तंत्र की
समझ नहीं है। तंत्र कहता है कि केवल वर्तमान ही समय है। भूतकाल केवल स्मृति और
भविष्य है एक कल्पना। भूतकाल पहले ही जा चुका है, वह है ही
नहीं। भविष्य भी नहीं है वह अभी आया ही नहीं है। केवल वर्तमान ही है।
वर्तमान में बने रहना ही वास्तव में समय में
बने रहना है। अन्यथा तुम या तो स्मृति में रहते हो अथवा तुम सपनों में रहते हो,
जो दोनों ही मिथ्या हैं। एक भ्रम हैं। इसलिए अभी में बने रहना ही तीसरी
मुद्रा को तोड़ना है। पहला अपने कार्य में समग्रता से बने रहने में पहला ताला टूट
जाता है। दूसरा अपने जानने में ईमानदार बने रहने के द्वारा दूसरा ताला टूट जाता
है। अब यहीं और अभी में बने रहने से तीसरा ताला टूट जाता है।
और चौथी मुद्रा को महामुद्रा कहा जाता है।
यह महानतम मुद्रा अंतरस्थ में अंतराल के समान है। अब विशुद्ध तम अंतराल बना रहता
है। कार्य जानना, समय और अंतराल—ये चार मुद्राएं है। अंतराल तुम्हारे अंतरस्थ का केंद्र है, वह चक्र का धुरा है अथवा वह चक्रवात का केंद्र है। तुम्हारे अंतरस्थ की
शून्यता ही अंतराल अथवा अंर्ताकाश है। ये तीन पर्ते हैं। पहली पर्त है समय,
तब दूसरी है जनना, और तीसरी पर्त है कम। इन
चारों मुद्राओं अर्थात तालों को तोड़ना है। यह मंत्र को दोहराने से होने वाला
कार्य नहीं है। स्वयं अपने को बेवकूफ मत बनाओ। अपनी वास्तविकता में जाने के लिए
महत्वपूर्ण कार्य करने की जरूरत हैं।
इवाम(Evam) जैसी ध्वनि अथवा मंत्र को दोहराते हुए
वे सोचते हैं कि वे आत्म सचेतन का उपलब्ध हो
जाते है।
पर विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरने के लिए
चार मुद्राओं को तोड़ने की जरूरत होती है।
इन मुद्राओं अर्थात तालों को तोड़े बिना
निर्मलता प्राप्त नहीं होती, वह केवल तभी उपलब्ध
होती हैं, जब तुम अपने अंदर विशुद्ध अंतराल अर्थात शून्यता
में प्रवेश करते हो।
वे अपनी इच्छानुसार सृजित की गई सुरक्षा की
चार दीवारी
तक वे स्वयं तक पहुंच जाना कहते है,
लेकिन यह केवल दर्पण में प्रतिबिम्बों को
देखा जैसा है।
हां, मंत्रों
का जाप करने के द्वारा तुम कल्पना में एक दर्पण सृजित कर सकते हो; और दर्पण में तुम चीज़ों को देख सकते हो। यह स्वच्छ पारदर्शक शीशे में
देखने जैसा है और इसका कोई भी अधिक मूल्य नहीं है। यह ठीक झील में चन्द्रमा का
प्रतिबिम्ब देखते हुए यह सोचने जैसा है कि वह चन्द्रमा है। चन्द्रमा नहीं है केवल
वहां उसका प्रतिबिम्ब है। यह दर्पण में स्वयं को देखते हुए यह सोचना भर है कि तुम
वहां उस प्रतिबिम्ब में हो। जबकि तुम वहां पर नहीं हो। बच्चे मत बनो-ऐसा तो छोटे
बच्चे करते हैं। क्या तुमने दर्पण के सामने पहली बार खड़े हुए किसी बच्चे का
निरीक्षण किया है? वह दर्पण में प्रवेश करने का प्रयास करता
है। वह दर्पण को पकड़ कर उसके अंदर जाने का मार्ग खोजने का प्रयास करता है। और उस
बच्चे से मिलना चाहता है जो वहां उसके अंदर है। जब वह इसे कठिन पता है तो वह दर्पण
के पीछे जाकर उसके द्वारा अंदर जाने का प्रयास करता है, --‘हो
सकता है वहां एक कमरा हो, और बच्चा वहां बैठा हो?’ यह वहीं चीज़ है जिसे हम किये चले जाते है।
मन एक दर्पण हैं। हां,
भावातीत ध्यान में एक मंत्र को दोहराते हुए तुम इस दर्पण को
बहुत-बहुत निर्मल बना सकते हो। लेकिन इस दर्पण में देखने से तुम सत्य को उपलब्ध
कभी भी नहीं हो सकते हो। वास्तव में दर्पण को पूरी तरह से फेंक देना होता हैं। तुम्हें
अपने अंदर गतिशील होना है। और यह बहुत व्यवहार के योग्य उपाय है—पहले कर्म, तब जानना, तब समय
और तब अंतराल अर्थात शून्यता।
जैसे मरुस्थल में भ्रमवश जल समझ कर हिरणों
का झुंड उसके पीछे भागेगा
वैसे ही दर्पण में झूठा प्रतिबिम्ब देखकर वे
मृग तृष्णा के जल की भांति
अपने भ्रम को प्रामाणिक रूप से नहीं
पहचानते।
इसी तरह उनकी नकली प्यास,
प्यास का भ्रम है,
और वे सपनों के झूठे अनुभवों की ज़ंजीरों से
बंधे उनमें ही सुख पाते हैं,
और कह रहे हैं कि यह सब कुछ सर्वोच्च सत्य
है।
यह अंतिम सूत्र हैं। सरहा कहता है कि दर्पण
में देखते हुए तुम मृग तृष्णा में देख रहे हो। तुम सपना देख रहे हो। तुम स्वयं
अपने चारों और एक भ्रम सृजित करने में सहायता कर रहे हो,
तुम एक सपने में सहयोग कर रहे हो। जैसे मृग तृष्णा के भ्रम में
हिरणों का झूंड उसके पीछे दौड़ेगा, जो एक प्रमाणित पहचान
नहीं है। इसी तरह उनकी झूठी प्यास उनकी प्यास का भ्रम है, और
वे कल्पनाओं और सपनों के झूठे अनुभवों से बंधे है.....
हम उन प्रतिबिम्बों के द्वारा जो हमारे मन
में घटित हो रहे है, भ्रमित हो जाते है।
मैंने एक सुंदर कहानी सुनी हैं-----
एक व्यक्ति बेल्स पर्वतमाला में भ्रमण करने
को इच्छुक था इसलिए वहां के एक शराबखाने को अपना मुख्यालय बनाकर वह वहां रहने लगा।
उसने पाया कि उसकी श्यामे बहुत उबाऊ और बुझी-बुझी सी हैं। और कोई भी घटना नहीं घट
रही है। शराब खाने में अधिकतर बातचीत भेड़ों और वेल्स पर्वत के बारे में ही होती
थी।
उसने शराबखाने के मालिक से पूंछा कि कैसे
कस्बे की महिलाओं को खोज कर उनके साथ बात शुरू की जाये। मालिक के सम्मान को इससे आघात
पहुंचा।
उसने कहां—‘देखिए
महाशय! यह वेल्स है। हमारे यहां वेश्याएं नहीं रह सकती—हमारा
गिराजघर इस की कभी अनुमति नहीं देता।’
पर्यटक को उदास देखकर वहां के मालिक ने अपनी
बात जारी रखते हुए कहा—‘निश्चित रूप से हमारे यहां
भी मनुष्य की प्रकृति कहीं अन्य स्थान के मनुष्य के ही समान है, लेकिन जिस चीज का आपने जिक्र किया है वह यहां दृष्टि पथ से ओझल रखा जाता
है।’ वह स्पष्ट करते हुए बताता रहा कि पहाड़ के ऊपर उसके
पीछे की और गुफाएं हैं, जो सजी संवरी सभी सुविधाओं से
परिपूर्ण है। कुएं अजनबी को शाम के धुंधलके में पर्वत के ऊपर जाकर ज़ोर से ‘यू हूं’ चिल्लाना चाहिए और यदि महिला लौटकर ‘यू हूं’ कहते हुए संकेत देती है तो एक मर्यादा में
रहते हुए बातचीत पट सकती है। यदि वह महिला पहले से किसी के साथ व्यस्त है तो वहां
से कोई उत्तर नहीं मिलेगा।
उस शाम उस अंग्रेज ने एक गुफा से दूसरी गुफा
तक अपनी और से ‘यू हूं’ का घोष
किया, लेकिन भाग्य ने उसका जरा भी साथ नहीं दिया। अंतिम रूप
से उसने वापस लौटकर शराब पीने का निश्चय किया लेकिन पहाड़ के नीचे जाकर उसे एक नई
गुफा मिली। वह चिल्लाया—‘यूं हूं’ बहुत
स्पष्ट रूप से ‘यूं हूं’ की आवाज लौटती
हुई सुनाई दी।
वह तेजी से उस गुफा में घुसा और एक रेलगाड़ी
से कुचल कर मारा गया।
इसे कहते है मृगतृष्णा। तुम कल्पना करते हो,
तुम एक मानसिक चित्र सृजित करते हो और तब तुम देखना शुरू कर देते
हो। तब कोई भी बहाना काम करेगा। जब एक व्यक्ति मरुस्थल में प्यासा भटकता है और जब
उसके अंदर प्यास एक लपट की तरह से जलाती है तो वह और कुछ भी न सोचकर केवल पानी के
ही बारे में सोचता है—इस बारे में प्रत्येक संभावना यहीं
होती है कि वह कहीं न कही पानी देखना शुरू कर देगा। वह कल्पना में उसका प्रक्षेपण
कर लेगा, उसकी कामना इतनी अधिक प्रबल है कि वह उसकी कल्पना
कर लेगा। वह भ्रमित होकर रेत में झील को देखना शुरू कर देगा, वह सोचेगा कि ठंडी हवा का झोंका आया है। वह सोचेगा कि उसने उड़ते हुए
पक्षी देखे हैं। वह यह भी सोचेगा कि वह थोड़े से हरे वृक्षों को भी देख सकता है—केवल हरे वृक्ष ही नहीं—बल्कि वह पानी में उनके
प्रतिबिम्बों को देख सकता हैं। वह तेजी से उस और दौड़ेगा।
इसी तरह से लाखों जन्मों से हम तेजी से एक
गुफा से दूसरी गुफा की और दौड़ते हुए ‘यूं-हूं’
का घोष करते आये है। और तुम न तो देख पाते हो और समझ पाते हो कि
प्रत्येक बार जहां तुम जाते हो, वहां पानी नहीं पाते और
प्यास नहीं बुझ पाती। लेकिन तुम कोई भी चीज़ नहीं सीखते।
मनुष्य के साथ सबसे बड़ी उलझन यही है कि वह
सीखना नहीं चाहता। तुमने एक स्त्री से अथवा एक पुरूष से प्रेम किया,
तुम सोच रहे थे कि तुम्हारी तृष्णा शांत हो जायेगी—लेकिन वह प्यास नहीं बुझती। लेकिन तुम कोई भी चीज़ नहीं सीखते हो, तुम दूसरी गुफा की और जाना शुरू कर देते हो। तुम्हारे पास कोई भी घन नहीं
है, तुम सोचते हो कि उस जगह दस हजार रूपये होते तो प्रत्येक
चीज ठीक हो जाती। और तब वे दस हजार रूपये भी मिल जाते हैं, लेकिन
तुम तब भी कुछ भी नहीं सीखते हो। उस समय तुम सोचना शुरू कर देते हो—‘जब तक वहां एक लाख रूपये न हों, मैं कैसे प्रसन्न हो
सकता हूं?’ एक लाख रूपये भी हो जाते हैं, लेकिन तुम तब भी खाली के खाली ही रहते हो। अब तुम फिर सोचते हो जब तक वहां
दस लाख न हों, तुम तब तक कैसे प्रसन्न हो सकते हो? और इसी तरह से तुम्हारा जीवन चलता चला जाता है। तुम एक गुफा से दूसरी गुफा
की और चलते रहते हो, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु की और......। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मनुष्य
सीखने में लगभग असमर्थ है। केवल वे ही लोग जो सीखते है वे जानते हैं।
सीखना शुरू करो। थोड़े से अधिक सृजन बनो,
प्रत्येक अनुभव से तुम बोध लो। तुमने कई बार इतनी अधिक चीजों को
मांगा हैं और कुछ भी नहीं हुआ अब मांगना बंद करो। तुमने बहुत सी चीजों की कामना की
है और प्रत्येक कामना तुम्हें निराशा में ले गई है। फिर भी तुम कामना किये चले
जाते हो? तुमने वह चीज़ कल की थी, और
परसों भी वैसा ही किया था और आज भी और शायद आने वाले कल भी तुम वही कार्य फिर से
करोगे—और उससे कुछ भी नहीं मिलता है। और तुम बार-बार उसी
कार्य को किये चले जाते हो।
सीखना ही धार्मिक बनना है। ‘शिष्य’ शब्द सुंदर है; इसका
अर्थ है—एक वह व्यक्ति जो सीखने में समर्थ है। यह शब्द जिस
मूल से आता है उसका अर्थ है—‘सीखना’ एक
वह व्यक्ति जो में समर्थ है, वही शिष्य है।
शिष्य बनो—तुम
स्वयं अपने ही जीवन के शिष्य बनो। वास्तव में जीवन ही तुम्हारा सद्गुरू है। और यदि
तुम जीवन से नहीं सीख सकते तो तुम अन्य कहां से सीख सकते हो? यदि महान सदगुरू का जीवन भी तुमसे पराजित हो जाता है और तुम्हें कोई भी
चीज़ नहीं सिखा सकता, तो तुम्हें कोई भी चीज़ सिखाने में कौन
समर्थ होगा।
यह संसार एक विश्वविद्यालय है। प्रत्येक
क्षण एक पाठ है, प्रत्येक निराश एक सिखावन है। प्रत्येक
समय असफल होकर तुम कुछ चीज़ सीखते हो। धीमे-धीमे जानने की किरण तुम्हारे अंदर प्रविष्ट
होती है। इंच–इंच कर एक व्यक्ति सजग बनता है। इंच-इंच कर एक
व्यक्ति पुरानी गलतियों को न दोहराने में समर्थ बनता है। जिस क्षण तुम सीखना शुरू
करते हो, तुम परमात्मा के निकट आते हो।
और थोड़े से जानने पर विश्वास मत करो,
यह मत सोचो की अब तुम पहुंच गए। कभी-कभी एक छोटी सी सीखा वन लोगों
को इतना अधिक संतुष्ट कर देती है कि वे रूक जाते हैं। तब वे आगे बढ़ना बंद कर देते
है। यह एक बहुत बड़ी और अंतहीन यात्रा है। तुम जितना अधिक सीखते हो, तुम उतना ही अधिक सीखने में समर्थ बनोगे। तुम जितना अधिक सीखते हो,
तुम उतने ही अधिक सचेत बनोगे। और तुम और अधिक और अधिक सीखना चाहोगे।
तुम जितना अधिक जानते हो, रहस्य उतना ही अधिक सघन होता चला
जाता है। तुम जिन्हें अधिक जानते जाते हो, तुम उतना ही कम यह
अनुभव करते हो कि तुम जानते हो। जानने के साथ नए-नए द्वारा खुलते चले जाते हे।
जानने के साथ-साथ नए रहस्य प्रकट होते जाते है।
इसलिए थोड़े से ज्ञान के साथ संतुष्ट मत हो
जाना। जब तक स्वयं परमात्मा ही अपने को प्रकट न कर दे,
कभी भी संतुष्ट मत होना इस बारे में अधिक अध्यात्मिक असंतोष बढ़ने
दो।
केवल वे लोग ही प्रर्याप्त भाग्यशाली हैं,
जिनमें व्याप्त है दिव्य असंतोष—कि परमात्मा
से कम अन्य कोई भी चीज उन्हें संतुष्ट हनीं करेगी—अन्य कोई
भी चीज़ नहीं, केवल वे लोग ही पहुंचते हैं।
आज बस इतना ही।
I am very thankful to the author for writing the speech of the osho here. Hope I could help you for your work. Ahobhav
जवाब देंहटाएंthank you guruji
जवाब देंहटाएं