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बुधवार, 25 मई 2011

(ओशो )--- आप अपनी आत्‍म कथा क्‍यों नहीं लिखते?—

यह सवाल ठीक है कि मैं अपनी आत्‍म कथा क्‍यों नहीं लिखता। यह बहुत मजेदार बात है। असल में आत्‍मा के जानने के बाद कोई आत्‍म कथा नहीं होती। और सब आत्‍म कथाएं अहंकार कथाएं है। आत्‍म कथाएं नहीं है, एगो-ग्राफीज है। पहला तो यह कि जिसे हम कहते है आत्‍म-कथा वह आत्‍म-कथा नहीं है। क्‍योंकि जब तक आत्‍मा का पता नहीं है तब तक जो भी हम लिखते है वह ईगो-ग्राफी है। वह अहम-कथा है।

      इस लिए यह बड़े मजे की बात है कि जीसस ने आत्‍मकथा नहीं लिखी, कृष्‍ण ने आत्‍म कथा नहीं लिखी, बुद्ध ने आत्‍म कथा नहीं लिखी। महावीर ने आत्‍मकथा नहीं लिखी। न लिखी न कहीं। आत्‍म-कथा जो है वह इस जगत में किसी भी उस आदमी न लिखी जिसने आत्‍मा को जाना है। क्‍योंकि आत्‍मा को जानने के बाद वह ऐसे निराकार में खो जाता है कि जिन्‍हें हम तथ्‍य कहते है वह सब उखड़़ कर बह जाते है। जिनको हम खूंटियां कहते हैयह जन्‍म हुआ, यह-यह हुआ। वह सब उखड़़ कर बह जाता है। इतना बड़ा अंधड़ है आत्‍मा का आना। कि उस आंधी के बाद जब वह देखता है, तो पाता है कि सब साफ हो गया। वहां कुछ बचा ही नहीं। कोरा कागज़ हो जाता है। आत्‍मा कथा लिखने का जो रस है वह आत्‍मा जानने के पहले हैजरूर है।
      इसलिए राजनीतिज्ञ आत्‍म कथा लिखेंगे। साधु आत्‍म कथा लिखेंगे। लेखक, कवि, साहित्‍यकार, आत्‍म-कथा लिखेंगे। ये आत्‍म-कथायें मैं की ही सजावटें है।
      तेरा मतलब भी मैं समझा कि उस अनुभव की बात लिखू जो मुझे हुआ है। तो आत्‍म कथा तो बचता नहीं । इसलिए कोई मुल्‍य ही नहीं रह जाता। आत्‍मा को जानने के बाद आत्‍म कथा करीब-करीब ऐसी हो जाती है जैसे कोई सपने देखे। जैसे वह अपने सपनों को ब्‍योरा लिखे रोज सुबह कि आज मैंने यह सपना देखा, कल मैंने यह सपना देखा। परसों मैंने यह सपना देखा। एक आदमी अगर अपने सपनों की कथा लिखें तो जितनी उसकी कीमत हो सकती है उससे ज्‍यादा कीमत उसकी नहीं है, जिसको हम यथार्थ कहते है।
      और जाग-गयाआदमी लिख सकता हैयह कठिन मामला है। क्‍योंकि जागते से ही पता चलता है कि सपना था। लिखने योग्‍य भी कुछ नहीं बचा। अनुभव की बात रह जाती है। पर जो जाना है वह भी नहीं लिखा जा सकता। वह नहीं लिखा जा सकता, इसलिए कि लिखते ही बहुत फीका और बेमानी हो जाता है। ये सब उसको ही कहने की कोशिश चलती है निरंतर, बहुत-बहुत विधियों से।
      जिंदगी भर उसी को कहता रहूंगा। वह जो हुआ है1 उसके अलावा और कुछ कहने को है ही नहीं। लेकिन उसको भी लिखा नहीं जा सकता है। क्‍योंकि जैसे ही लिखते है उसको, वैसे ही पता चलता है कि यह तो कोई बात नहीं हुई। क्‍या लिखेंगे, लिख सकते है कि आत्‍मा का अनुभव हुआ। बड़ा आनंद मिला, कि बड़ी शांति मिली। सब बेमानी मालूम होता है। बुद्ध या महावीर या क्राइस्‍ट पूरी जिंदगी, जो उन्‍होंने जाना है, उसको ही बहुत-बहुत रूपों में कहे चले जा रहे हे। फिर भी थकते नहीं। क्‍योंकि रोज लगता है कि बाकी रह गया। फिर उसको और तरह से कहते है। वह चुकता नहीं। बुद्ध महावीर चुक जाते है, वह नहीं चुकता। वह कथा कहने को बाकी रह ही जाती है। दोहरी कठिनाइयां है। जो कहा जा सकता है वह सपने जैसा हो जाता है। जो नहीं कहा जा सकता है वह कहने जैसा लगता है। फिर यह भी ख्‍याल निरंतर होता है कि उसको सीधा कहने से कुछ भी हो तो प्रयोजन नहीं है।
      तुमसे मैं कह दूँ मुझे यह हुआ। उससे कुछ प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन तो इससे है कि तुम्‍हें उस रास्‍ते पर ले चलू जहां हो जाए, तो तुम शायद किसी दिन समझ सको कि क्‍या हुआ था। उसके पहले समझ भी नहीं सकते। सीधी यह वक्‍तव्‍य कि मुझे क्‍या हुआ, क्‍या मतलब रखता है। तुम भरोसा करोगे। यह भी मैं नहीं मानता। तुम भरोसा भी नहीं कर सकोगे। तो तुम्‍हें  उस रास्‍ते पर, उस किनारे पर धक्‍का दिया जाए जहां कि तुम्‍हें किसी दिन हो जाये। उस दिन तुम भरोसा कर सकोगे। उस दिन तुम जान सकोगे कि ऐसा होता है। नहीं तो भरोसे का भी कोई उपाय नहीं है।
      जैसे बुद्ध की मृत्‍यु का वक्‍त है और लोग पूछ रहे है कि आप मर जाएंगे तो कहां जाएंगे? तब बुद्ध क्‍या कहें? वह कहते है, मैं कभी कहीं था ही नहीं तो मर कर मैं कहां जाऊँगा, मैं कभी गया ही नहीं, मैं कभी कहीं था ही नहीं। तब भी पूछने वाले पूछ रहे है कि नहीं जरूर कुछ तो बताइए, कहां जाएंगे। वे बिलकुल तथ्‍य कह रह है।
      क्‍योंकि बुद्ध का मतलब ही है नौ-व्‍हेयर-नेसउस स्‍थिति में कोई न कहीं होता, और न होने का कोई सवाल होता है। तुम भी अगर शांत पड़ कर किसी क्षण रह जाओ तो सिवाय श्वांस ही रह जाएगी। और बचेगा क्‍या। तो श्वांस वैसे ही रह जायेगी जैसे कि बुलबुले में हवा। और क्‍या रह जाएगी। वह तो हम कभी ख्‍याल नहीं करते और हमें ख्‍याल में नहीं आता। क्‍योंकि हम कभी उस क्षण में नहीं होते। कभी दो क्षण को भी मौन होकर बैठ जाओ, तो तुम क्‍या पाओगे, कि तुममें है क्‍या सिवाय श्वांस के। विचार नहीं है तो सिवाय श्वांस के तुममें क्‍या बचेगा। और तुममें श्वांस का बाहर-भीतर आना एक बबूले में श्वांस का एक बैलून में हवा के बाहर-भीतर आने से ज्‍यादा और क्‍या है।
            तो बुद्ध कहते है, मैं एक बबूला था, था कहां? इसलिए जाने का क्‍या सवाल है? एक बबूला फूट गया, हम पूछते है कहां चला गया? हम नहीं पूछते क्‍योंकि हम पहले से ही जानते है कि बबूला था ही कहां। हम नहीं पूछते कहां चला गया। बस ठीक है, था ही नहीं तो जाने की क्‍या बात है। अब बुद्ध जैसा व्‍यक्‍ति अपने को जान रहा है कि बबूला है, तो क्‍या आत्‍म-कथा लिखेगा। और जो भी कहेगा वह मिसअंडरस्‍टैण्‍ड होने वाला है।
      जापान में एक फकीर हुआ है लीची। लीची ने एक दिन सुबह घोषणा की कि हटाओं यह बुद्ध की मूर्तियां वगैरह। यह आदमी कभी हुआ ही नहीं। अभी उसने बुद्ध की मूर्ति की पूजा की है। अभी उसने कहा हटाओं इस आदमी की मूर्ति, यह सरासर झूठ है। तो किसी ने खड़े होकर कहा, आप क्‍या कह रहे है, आपका मस्‍तिष्‍क तो दुरुस्त है? लीची ने कहा, जब तक मैं सोचता था कि मैं हूं, तब तक मैं मान सकता था कि बुद्ध है। लेकिन जब मैं ही नहीं हूं, हवा का बबूला है, तो यह आदमी कभी हुआ ही नहीं।
      सांझ फिर पूजा कर रहा था। वह बुद्ध की, तो लोगों ने कहा, यह क्‍या कर रहे हो? तुम दोपहर तो कह रह थे कि यह नहीं हुआ। उसने कहा, लेकिन इसके न होने से मुझे भी न होने में सहायता मिली, तो धन्‍यवाद दे रहा हूं। लेकिन एक बबूले का एक बबूले को धन्‍यवाद है, इसमें और कुछ ज्‍यादा बात नहीं है। लेकिन ये वक्‍तव्‍य समझे नहीं जा सकते। लोगों ने समझा कि यह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया है। यह तो बुद्ध के खिलाफ हो गया है।
      आत्‍म कथा बचती नहीं। बहुत गहरे में समझो तो आत्‍मा भी बचती नहीं। आम तौर से यहां तक तो हम समझ पाते है कि अहंकार नहीं बचता, क्‍योंकि हमसे हजारों साल से यह कहा जा रहा है। और कोई वजह नहीं है। हजारों साल से कहा जा रहा है कि अहंकार नहीं बचता। लेकिन अगर ठीक से समझना चाहें तो आत्‍मा भी नहीं बचती। पर यह समझने में बहुत घबराहट होती है।
      इसलिए तो बुद्ध को हम नहीं समझ पाए। उन्‍होंने कहा कि आत्‍मा भी नहीं बचती। अनात्‍म हो जाते है। बहुत कठिन पड़ गया। इस पृथ्‍वी पर बुद्ध को समझना अब तक सर्वाधिक कठिन है। क्‍योंकि महावीर अहंकार तक कि बात करते है। कि अहंकार नहीं बचता। वहां तक हम समझ सकते है। ऐसा नहीं कि महावीर को पता नहीं है कि आत्‍मा भी नहीं बचती। लेकिन वे हमारी समझ को ध्‍यान में रखे हुए है कि ठीक है, अहंकार तो छोड़ो फिर आत्‍मा तो अपने से छूट जाती है। कोई अड़चन नहीं है, उसको कहने की। लेकिन बुद्ध ने पहली दफा यह स्टेटमैंट दे दिया जो बहुत दिन तक सीक्रेट था, जो कहा नहीं जा सकता था।
      उपनिषाद भी जानते है, और महावीर भी जानते है। आत्‍मा नहीं बचती। क्‍योंकि आत्‍मा का ख्‍याल भी अहंकार का ही सूक्ष्‍म रूप है। लेकिन बुद्ध ने एक सीक्रेट, जो सदा से सीक्रेट था, कह दिया कि आत्‍मा नहीं बचती। मुश्‍किल पड़ गयी। वही लोग जो मानते थे कि अहंकार नहीं बचता वे ही लड़ने खड़े हो गए। आप बुद्ध की अड़चन समझते है? जो लोग मानते थे कि अहंकार नहीं बचता वह ही लड़ने खड़े हो गये कि आप ये क्‍या कह रहे हो? आत्‍मा नहीं बचती तो सब बेकार है। जब हम ही नहीं बचते तो फिर क्‍या करना है।
      बुद्ध ने ठीक कहा। फिर कैसी आत्‍म-कथा होगी? फिर कोई आत्‍म-कथा नहीं हो सकती? सब सपने जैसा है, बबूले का देख हुआ सपना है, बबूले पर बने हुए रंग-बिरंगे किरण के जाल है। बबूले के साथ सब खो जाते है। ऐसा जब दिखाई पड़ता है, तो बड़ी कठिनाई होती है। ऐसी जब बिलकुल ही स्‍पष्‍ट स्‍थिति हो तो बहुत कठिनाई हो जाती है।
ओशो
मैं कहता हूं आंखन देखी
अंतरंग भेंट वार्ता, प्रवचन--1
वुडलैण्ड, बम्‍बई,
दिनांक-28, फरवरी 1971
     




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