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शनिवार, 14 मई 2011

संभोग से समाधि की और—38

विद्रोह क्‍या है?
    दूसरा सूत्र है—सहज जीवन—जैसे हैं, है।
लेकिन सहज होना बहुत कठिन है। सहज होना सच में ही बहुत कठिन बात है। क्‍योंकि हम इतने असहज हो गए है कि हमने इतनी यात्रा कर ली है। अभिनय की कि वहां लौट जाना, जहां हमारी सच्‍चाई प्रकट हो जाये, बहुत मुश्‍किल है।
      डॉक्‍टर पर्ल्‍स एक मनोवैज्ञानिक है, जो हिप्पियों का गुरु कहा जा सकता है। एक महिला गई थी वहां। मैंने उससे कहा था कि जरूर उस पहाड़ी पर हो आना, 2-4दिन रूक जाना। तो जब वह पर्ल्‍स के पास गयी और वहां का सारा हिसाब देखा, वह तो घबरा गई। बहुत घबरा गयी, क्‍योंकि वहां सहज जीवन सूत्र है। सारे लोग बैठे है और एक आदमी नंगा चला आयेगा हाल में और आकर बैठ जायेगा। अगर उसको नंगा होना ठीक लग रहा है तो यह उसकी मरजी है। इसमें किसी को कुछ लेना देना नहीं है। न कोई हाल में चीखेगी, न कोई चिल्‍लायेगा, न कोई गौर से देखेगा, उसे जैसा ठीक लग रहा है, उसे वैसा करने देना है।
      और जो लोग पर्ल्‍स के पास महीने भर रह आते है। उनकी जिंदगी में कुछ  नये फूल खिल जाते है। क्‍योंकि पहली दफा वे हल्‍के, पक्षियों की तरह जी पाते है। पौधों की तरह, या जैसे आकाश में कभी चील को उड़ते देखा हो—पंख भी नहीं चलाती। पंख भी बंद हो जाते है। बस हवा पर तैरती रहती है। उसे पहाड़ी पर पर्ल्‍स के पास भी व्‍यक्‍ति हवा में तैर रहे है। एक आदमी बहार नाच रहा है। कोई गीत गा रहा है। तो गीत गा रहा है। कोई रो रहा है तो रो रहा है। कोई रूकावट नहीं है।
      लेकिन हमने तो आदमी को सब तरह से रोक रखा है। बच्‍चे को निर्देश देने से शुरू हो जाती  है कहानी। हमारी सारी शिक्षा–‘डू नाट’ से शुरू हो जाती है। और हर बच्‍चे के दिमाग में हम ज्‍यादा से ज्‍यादा ‘मत करो’ थोपते चले जाते है। अंतत: करने की सारी क्षमता, सृजन की सारी क्षमता, ‘न-करने’ के इस जाल में लुप्‍त हो जाती है। या तो वह आदमी चोरी से शुरू कर देता है, जो-जो हमने रोका था, कि यह मत करो। और या फिर भीतर परेशानी में पड़ जाता है।
      दो ही रास्‍ते है, या पाखंडी हो जाये, या पागल हो जाये।
      अगर भीतर लड़ा और अगर सिंसियर होगा, ईमानदार होगा तो पागल हो जायेगा। अगर होशियार हुआ, चालाक हुआ, कौनिंग हुआ ता पाखंडी हो जायेगा। एक दरवाजा मकान के पीछे से बना लेगा। जहां से करने की दुनिया रहेगी। एक दरवाजा बाहर से रहेगा जहां ‘न करने’ के सारे ‘टेन कमांडमैंट्स’ लिखे हुए है। वहां वह सदा ऐसा  खड़ा होगा कि यह में नहीं करता हूं। और करने की अलग दुनिया बना लेगा।
      मनुष्‍य को खंडित, स्‍किजोफ्रेनिक बनाने में, मनुष्‍य के मन को खंड-खंड करने में सभ्‍यता की ‘न करने’ की शिक्षा ने बड़ा काम किया है।
      हिप्‍पी कह रहा है कि जो हमें करना है, वह हम करेंगे। और उसके लिए जो भी हमें भोगना है, हम भोग लेंगे। लेकिन एक बात हम न करेंगे कि करें कुछ, और दिखायें कुछ। यही बड़ी बगावत है।
      हालांकि सदा से साधु-संतों ने कहा था कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। हिप्‍पी भी यही कहते है। लेकिन एक बुनियादी फर्क है। साधु-संत कहते है। कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। तब उनका मतलब है: बाहर जैसे हो वैसे ही भीतर होना चाहिए। हिप्‍पी जब कहता है कि बाहर भीतर एक होना चाहिए: तो वह कहता है कि भीतर जैसे हो वैसे ही बाहर भी होना चाहिए। इन दोनो में फर्क है।
       साधु संत जब कहते है कि बहार भीतर एक जैसा होना चाहिए। तो वह कहते है कि भीतर का दरवाजा बंद करो। हिप्‍पी कहता है बहार भीतर एक होना चाहिए। तो वह कहता है: बाहर जो दस निषेध आज्ञाओं, टेन कमांडमैंट्स की तख्‍ती लगी है उसको उखाड़कर फेंक दो। और जैसे भी हो, वैसे हो जाओ। अगर चोर हो तो चोर अगर बेईमान हो तो बेईमान, क्रोधी हो तो क्रोधी। बड़ा खतरा तो यह है कि क्रोधी अभिनय कर रहा अक्रोध का, हिंसक अभिनय कर रहा है अहिंसक का, कामी अभिनय कर रहा है ब्रह्मचर्य का। और पुरानी सारी संस्‍कृतियां अभिनय को बड़ी कीमत देती है। और कुशल अभिनेता की बड़ी पूजा हाथी है।
      हिप्‍पी कह रहा है हम अभिनय की पूजा नहीं करते। हम जीवन के पूजक है। हिप्‍पी यह कह रहा है कि झूठे ब्रह्मचर्य से सच्‍चा यौन भी अर्थपूर्ण है। झूठे ब्रह्मचर्य में भी वह सुगंध नहीं है, जो सच्‍चे यौन में हो सकती है। सच्‍चे ब्रह्मचर्य की तो बात ही दूसरी है। उसकी सुगंध का हमे क्‍या पता? लेकिन सच्‍चा यौन न हो तो सच्‍चे ब्रह्मचर्य की कोई संभावना ही नहीं है। अभी हिप्‍पी यह नहीं कह रहे है, लेकिन शीध्र ही जानेंगे तो कहेंगे। हम अगर पशु है तो स्‍वीकृत है कि हम पशु है और हम पशु की भांति ही जीयेंगे।
      तीसरी बात, जब मैं सोचता हूं तो मुझे लगता है कि अगर खोज की जाये तो ईसाईयों की कहानी के अदम और ईव हिप्‍पियों के आदि पुरूष कहे जाने चाहिए। क्‍योंकि अदम और ईव को ईश्‍वर ने कहा था कि तुम ज्ञान के वृक्ष का फल मत चखना। उन्‍होंने बगावत कर दी और जिस वृक्ष का फल नहीं चखने को कहा था, उसी का फल चख लिया और ईड़न के बग़ीचे से बहिष्‍कृत कर दिये गये।
      तीसरा सूत्र है हिप्‍पी का: विद्रोह, इनकार का साहस। एक तो कन्‍फरमिस्‍ट की जिन्‍दगी है, ‘हां-हुजूर की’ ‘यस सर’ की। वह जो भी कह रहा है, ‘हां’ कह रहा है। वह सदा ‘हां हुजूर’ कहने के लिए तैयार है। उसने चाहे बात भी ठीक से नहीं सुनी है, लेकिन ‘हां हुजूर’ कहे जा रहा है। उसे पता भी नहीं कि वह किस चीज में हां भर रहा है। लेकिन वह हां भरे चला जा रहा है। एक गुरु एक सीक्रेट उसे पता है। जिन्‍दगी में जीना हो तो सब चीज में ‘हां’ कहे चले जाओ।
      हिप्‍पी कह रहा है जब तक हम समाज की हर चीज में ‘हां’ कह रहे है, तब तक व्‍यक्‍ति का जन्‍म नहीं होता। व्‍यक्‍ति का जन्‍म होता है ‘नौ से इंग’ से, न कहना शुरू करने से।
      असल में मनुष्‍य की आत्‍मा ही तब पैदा होती है, जब कोई आदमी ‘नो’ नहीं कहने की हिम्‍मत जुटा लेता है।
      जब कोई कह सकता है, नहीं, चाहे दांव पर पूरी जिंदगी लग जाती हो। और जब एक बार आदमी नहीं, कहना शुरू कर दे, ‘नहीं’ कहना सीख ले, तब पहली दफा उसके भीतर इस ‘नहीं’ कहने के कारण, ‘डिनायल’ के कारण व्‍यक्‍ति का जन्‍म शुरू होता है। यह ‘न’ की जो रेखा है, उसको व्‍यक्‍ति बनाती है। ‘हां’ की रेखा उसको समूह का अंग बना देती है। इसलिए समूह सदा आज्ञाकारिता पर जोर देता है।
      बाप अपने ‘गोबर गणेश’ बेटे को कहेगा कि आज्ञाकारी है। क्‍योंकि गोबर गणेश बेटे से न निकलती ही नहीं। असल में ‘न’ निकलने के लिए थोड़ी बुद्धि चाहिए। हां निकलने के लिए बुद्धि की कोई जरूरत नहीं है। हां तो कम्प्युटराइज्ड है, वह तो बुद्धि जितनी कम होगी, उतनी जल्‍दी निकलता है। न तो सोच विचार मांगता है। न तो तर्क आर्गुमेंट मांगता है। न जब कहेंगे तो पच्‍चीस बार सोचना पड़ता है। क्‍योंकि न कहने पर बात खत्‍म नहीं होती। शुरू होती है। हां कहने पर बात खत्‍म हो जाती है। शुरू नहीं होती।
      बुद्धिमान बेटा होगा तो बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि बुद्धिमान बेटा बहुत बार बाप को निर्बुद्धि सिद्ध कर देगा। बहुत क्षणों में बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि अपने आप को भी वह निर्बुद्धि मालूम पड़ रहा है। बड़ी चोट है, अहंकार को। वह कठिनाई में डाल देगा।
      इसलिए हजारों साल से बाप, पीढ़ी, समाज ‘हां’ कहने की आदत डलवा रहा है। उसको वह अनुशासन कहे, आज्ञाकारिता कहे और कुछ नाम  दे लेकिन प्रयोजन एक है। और वह यह है कहे विद्रोह नहीं होना चाहिए। बगावती चित नहीं होना चाहिए।
      हिप्‍पियों का तीसरा सूत्र है कि अगर चित ही चाहिए हो तो सिर्फ बगावती ही हो सकता है। अगर आत्‍मा चाहिए हो तो वह ‘रिबैलियस’ ही हो सकती है। अगर आत्‍मा ही न चाहिए तो बात दूसरी।
      कन्‍फरमिस्‍ट के पास कोई आत्‍मा नहीं होती।
      यह ऐसा ही है, जैसे एक पत्‍थर पडा है, सड़क के किनारे। सड़क के किनारे पडा हुआ पत्‍थर मूर्ति नहीं बनता। मूर्ति तो तब बनता है। जब छैनी और हथौड़ी उस पर चोट करती और काटती है। जब कोई आदमी ‘न’ कहता है। और बगावत करता है। तो सारे प्राणों पर छैनी और हथौड़ियां पड़ने लगती है। सब तरफ से मूर्ति निखरना शुरू होती है। लेकिन जब कोई  पत्‍थर कह देता है ‘’हां’’ तो छैनी हथौड़ी नहीं होती वहां पैदा। वह फिर पत्‍थर ही रह जाता है। सड़क के किनारे पडा हुआ।
      लेकिन समस्‍त सत्ताधिकारी यों को चाहे वे पिता हो, चाहे मां, चाहे शिक्षक हो। चाहे बड़ा भाई हो, चाहे राजनेता हो, समस्‍त सत्ताधिकारी यों को ‘’हां-हुजूर’’ की जमात चाहिए।
      हिप्‍पी कहते है कि इससे हम इंकार करते है। हमें जो ठीक लगेगा। वैसा हम जीयेंगे। निश्‍चित ही तकलीफ है और इसलिए हिप्‍पी भी एक तरह का संन्‍यासी है। असल में संन्‍यासी कभी एक दिन एक तरह का हिप्‍पी ही था, उसने भी इंकार किया था, अ-नागरिक था, समाज छोड़ दिया, चला गया स्‍वछंद जीने की राह पर।
      जैसे महावीर नग्‍न खड़े हो गए, महावीर जिस दिन बिहार में नग्‍न हुए होंगे। उस दिन मैं नहीं समझता कि पुरानी जमात ने स्‍वीकार किया होगा। यहां तक बात चली कि अब महावीर को मानने वालों के दो हिस्‍से है। एक तो कहता है कि वस्‍त्र पहनते थे। लेकिन वे अदृश्‍य वस्‍त्र थे, दिखाई नहीं देते थे। यह पुराना कन्‍फरमिस्‍ट जो होगा, उसने आखिर महावीर को भी वस्‍त्र पहना दिये, लेकिन ऐसे वस्‍त्र जो दिखाई नहीं पड़ रहे है। इस लिए कुछ लोगों को भूल हुई कि वे नंगे थे। वे नंगे नहीं थे। वस्‍त्र पहने थे।
      जीसस, बुद्ध, महावीर जैसे लोग सभी बगावती है। असल में मनुष्‍य जाति के इतिहास में जिनके नाम भी गौरव से लिये जा सकें वे सब बगावती है।
 ओशो
संभोग से समाधि की और
विद्रोह क्‍या है,
प्रवचन—10  

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