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मंगलवार, 3 मई 2011

जब बरसता है तुम्‍हारा माधुर्य—(कविता)

जब बरसता है  माधुर्य तुम्‍हारा
छलक़ता है भर-भर प्‍याला मेरा
तब झूम उठता है उपवन का पौर-पौर
गाने लगते है कंठ-कोकिला के
पर होती है उनमें तेरी ही—स्‍वर लहरी?

बादलों की गढ़-गढ़ा हट भी
जब भयाक्रांत करती है मुझे
दूर क्षितिज से गा उठती है
कोई मधुर मेध-मल्‍हार
तब मेरा मन थिरक उठता है
और छा जाता है कोई जादू सा
मेरे सूखे प्राणों में
वीणा की झंकार लिये हुए
दूर तू ही खिल-खिलाता है
किसी बच्‍चे की हंसी बन कर
और खुल जाते है सब कपाट ह्रदय के
श्रद्धा का अंकुरित होता है बीज कोई
और दूर आ रही होती है
मधुमास की सुवास
जो कंटक-कटीला सा दिखता था मार्ग
एक सरस पथ बन जाता है
मार्ग है वो संकीर्ण जरूर
परन्‍तु उसकी सीतलता
लवणीय, प्रेम, और अल्‍हाद
अमरत्‍व का अभि रस लगता है
उस पथ की अदृष्‍य अस्‍पर्श चाँदनी
कैसी सीतलता भर देती है नयनों में
तब लगता है कहीं दूर
न अब मंजिल है और न ही मार्ग
और तब मिट रहा मैं भी
एक घोर अंधकार की तरह
पूर्ण तृप्ति समेटे हुए अपने आँचल में।

स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा

     



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