मेरे
द्वारा पर और
करता रहेगा
यूं तन्हा
मेरा इंतजार...
पर मैं
हूं कि आंखें
बंद किये
उलझा
हूं किन्हीं
अंधेरी
गलियों में
और ढूंढ
रहा हूं, उन
आस्था और
विश्वासों
में
कुछ
वादे और गिले सिकवा
जो कभी
के दफ़न हो
गये है
नैतिकता
और संस्कारों
के तले
किसी
अनबूझी कब्र
में
जहां न
कोई अक्ष है न
नक्श
न ही कोई
तीर का निशान
है
जो दिखा
सके राह मुझे
और वह
बाल चित मन,
खेल रहा
है, उस प्रकाश
के साथ
लूक्का
-छूप्पी को
खेल,
बन का
उसे गेंद
फेंक रहा
है बार-बार
इधर-उधर
जो
फिर-फिर लोट
का आता है
उसी की
और, न जाने क्यों?
और देखो
उस ढीठ उजाले
को
जो
हंसता ही जा
रहा है बार-बार
नहीं
भागता इतना
दुतकारा जाने
पर भी
रह-रह कर
फिर खड़ा हो
जाता है,
इत-उत
आमने-सामने।
और देखो
आज जब मैं
बुला रहा हूं
उसे
तो कैसे
दूर छिटक जाता
है
एक पारे
की तरह....मेरी
मुट्ठी से
एक छुई मुई
चंचल पक्षी की
भांति
जो दूर
क्षितिज की
किसी उतंग डाल
पर
देख रहा
है मुझे
हंस-हंस कर
और ये
मेरी बोझल
होती साँसे
अकडी
हुई मेरी ये कमर
जो आज झुक
गई है
मेरे ही अहंकार
के तले
पीड़ा
से भरा बदन और ये
थके कदम,
दब सुकड़
गई है इच्छाएं
न जाने
कहां-कहां
एक सुखी लंबी-लकीर
की तरह
जो फिर
से गीली हो
जायेगी
चंद बूँद
पानी को पाकर
और लहरा
उठेगा फिर
वहीं झूठा
जीवन
और वहीं
भटकती पगडंडी,
जिस पर अनंत
बार चल चुका
हूं मैं
जो देती
तो मंजिल का
अहसास
पर नहीं
है वहां कोई
प्रकाश
फिर भी
मुझे चलना
होगा
उसी पथ
पर बार-बार
मैं
जानता हूं
नहीं मिलेगा
मुझे
कोई.....प्रकाश
वहां।
स्वामी
आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’
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