प्रश्न—भारतीय
संस्कृति
बड़ी सहिष्णु
संस्कृति
रही है। बुद्ध
ईश्वर को
नहीं मानते
थे, पतंजलि ने
भी ईश्वर को
इंकार कर दिया
था। जब आप
अमेरिका में पाँच
वर्ष रहे, तब
क्या आपने इस
फर्क को देखा?
ओशो—मैंने फर्क
देखा है। फर्क
यह है कि जहां
तक चिंतन का
सवाल है, भारत
बहुत उदार और सहिष्णु
है; लेकिन
जहां सामाजिक
आचरण का सवाल
आता है, वहां
वह बड़ा कठोर
हो जाता है।
सामाजिक जीवन
के संबंध में
अमेरिका बड़ा
उदार है,
लेकिन चिंतन
आदि के बारे में
बहुत हठी और अड़ियल
है। उनके
विचारों का स्तर
देखा जाए, तो
अमेरिका के
सर्वाधिक शिक्षित
लोगों को भारत
के देहाती
लोगों की तरह
बात करते हुए
पाया है। और उन्हें
अपनी मूढ़ता
दिखाई नहीं
देती।
जब मैं
कारागृह में था
तो वहां का
जेलर मुझमें
उत्सुक हुआ।
पूरा जेल ही
मुझमें उत्सुक
था। जेलर
मुझसे मिलने
आया। काफी
पढ़ा लिखा,
अनुभवी बूढा
आदमी था। वह
बोला, मैं
आपको यह बाइबल
देने आया हूं।
ये ईश्वर के
वक्तव्य है।
मैंने
उससे पूछा,
तुमने कैसे
जाना कि ये
ईश्वर के वक्तव्य
है।
वह
बोला, ईश्वर
ने स्वयं ही
कहां है, इस
बाइबल में कि
मेरे वक्तव्य
है।
मैंने
कहा, मैं भी एक
किताब लिख
सकता हूं,
जिसमे मैं
कहूंगा कि ये
मेरे वक्तव्य
ईश्वर के ही
वक्तव्य है,
कुरान अल्लाह
के वचन है।
यहूदी कहते
है, तोराह ईश्वर
के वचन है।
फिर फर्क क्या
हुआ। इनमें
कौन से ईश्वर
के सही शब्द
है और कौन सही
ईश्वर है?
वह तो
समझ ही नहीं सका
कि मैं क्या
कह रहा हूं।
मैंने कहा,
इससे यही
सिद्ध होता है
कि बौद्धिक
रूप से तुम
पूरब से बहुत
पीछे हो। जहां
हमने बुद्ध
जैसे लोगो की
पूजा की, जो परमात्मा
को नहीं मानता
था। लेकिन फिर
भी हमने उसे
भगवान कहा है।
मैंने
उसे एच. जी.
वेल्स की याद
दिलार्इ। एच.
जी. वेल्स ने
बुद्ध के बारे
में लिखा है:
वह सर्वाधिक
ईश्वर विहीन
आदमी था। फिर
भी ईश्वर
तुल्य।
और ऐसा
हो सकता है।
कोई आदमी ईश्वर
के बिना ईश्वर
तुल्य हो
सकता है।
उसमें कोई
अड़चन नहीं है।
और मैंने उससे
कहा, मैं तुम्हारे
सामने हूं: और कोई
ईश्वर नहीं
है। और न कोई
ईश्वर का शब्द
है। हां, ऐसे
लोग है जिन्होंने
अस्तित्व
के परम सत्य
को जान लिया
है। लेकिन वे
भी निरंतर
यहीं कहते आ
रहे है कि जो
भी कहते है वह
ठीक-ठीक वही नहीं
है। जो हमने
अनुभव किया
है। अनुभव के
उस ऊंचे तल से
मनुष्य की
भाषा में उसे
अनुवादित
करने में बहुत
कुछ खो जाता
है। तो इन
साधारण शब्दों
को ईश्वर के
वचन कहना और वह
भी दुनिया के
सबसे शक्तिशाली
देश के
बुद्धिमान और सुशिक्षित
व्यक्ति
द्वारा, बड़ा मूढ़ता
पूर्ण लगता
है।
लेकिन
सामाजिक आचरण
के मामले में वे
बहुत उदार है।
तुम कोई भी
कपड़े पहन
सकते हो, तुम किसी
भी प्रकार का
काम कर सकते
हो। तुम
शिक्षित हो
सकते हो, किसी
भी किताब का
अध्ययन कर
सकते हो।
सामाजिक
ढांचे के
मामले में वे
लोग हमसे अधिक
उदार है।
लेकिन चिंतन
के बारे में वे
बहुत पुरातन
है। भारत में
चिंतन के बारे
में हम हमेशा
उदार रहा है।
हजारों
वर्षों से हम
बड़े
मित्रतापूर्ण
ढंग से
तार्किक
बातचीत करते
रहे है। उससे
हमारा किसी के
साथ कोई
संघर्ष नहीं रहा
है, कोई शत्रुता
नहीं रही है।
क्योंकि
दोनों पक्ष एक
दूसरे से लड़
नहीं रहे थे।
बल्कि दोनों
ही सत्य के
अन्वेषक थे और
अगर व्यक्ति
उपलब्धि पा
लेता है तो
दोनों ही एक
दूसरे के शिष्य
बनने को राज़ी
थे, उसमे वे
अपमानित
अनुभव नहीं करते
थे।
लेकिन
सामाजिक जीवन
के बारे में
हम बहुत ही दकियानूसी
रहे है। एक
शूद्र वेद
नहीं पढ़
सकता, एक
शूद्र
ब्राह्मणों
के साथ नहीं बैठ
सकता है। वह
वेदों को सून
भी नहीं सकता
है। उसे शहर
से दूर किसी
अलग बस्ती में
रहना पड़ता
है। वह अपना
काम धंधा बदल नहीं
सकता।
जो आदमी जूते
बनाता रहा है।
वह पीढ़ी दर
पीढ़ी जूते ही
बनाता रहेगा।
हमेशा; वह
उसमे कोई
बदलाहट नहीं
ला सकता, वह
डाक्टर नहीं
बन सकता।
तो हम
बड़े कठोर है।
और उसका सारा
श्रेय मनु
स्मृति को
जाता है। यदि
भारतीय मनु
स्मृति को
भुला सके तो
पूरे जगत में हम
अधिक उदार और अधिक
विशाल ह्रदय
के लोग कहलाए
जाएंगे। मनु
स्मृति हमारी
छाती पर पत्थर
की तरह बैठी
है।
ओशो
फिर
अमरित की बूंद
पड़ी
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