ओशो—तुम्हारे
चरित्र का एक
ही अर्थ होता
है, बस कि स्त्री
पुरूष से बंधी
रहे, चाहे
पुरूष कैसा ही
गलत हो। हमारे
शास्त्रों
में इसकी बड़ी
प्रशंसा की गई
है। कि अगर
कोई पत्नी
अपने पति को—बूढ़े,
मरते, सड़ते,
कुष्ठ रोग से
गलते पति को
भी—कंधे पर रख
कर वेश्या के
घर पहुंचा दे
तो हम कहते है: ‘’यह
है चरित्र,
देखो क्या
चरित्र है।
मरते पति ने
इच्छा जाहिर
की कि मुझे
वेश्या के घर
जाना है। और स्त्री
इसको कंधों पर
रख कर पहुंचा
आयी।‘’ इसको
गंगा जी में डूबा
देना था, तो
चरित्र होता।
यह चरित्र
नहीं है,
सिर्फ गुलामी
है, यह दासता
है और कुछ भी
नहीं।
पश्चिम
की स्त्री ने
पहली बार
पुरूष के साथ
समानता के
अधिकार की
घोषणा की है।
इसको मैं
चरित्र कहता
हूं। लेकिन
तुम्हारी
चरित्र की
बड़ी अजीब
बातें है। तुम
इस बात को
चरित्र मानते
हो कि देखो
भारतीय स्त्री
सिगरेट नहीं
पीती। और पश्चिम
की स्त्री
सिगरेट पीती
है। और भारतीय
स्त्रियां
पश्चिम से आए
फैशनों का
अंधा अनुकरण
कर रही है।
अगर सिगरेट
पीना बुरा है
तो पुरूष का
पीना भी उतना
ही बुरा होना चाहिए।
अगर पुरूष को
अधिकार है
सिगरेट पीने
का तो स्त्री
को भी क्यों
न हो। कोई चीज
बुरी हो तो सब
के लिए है, और अगर
बुरी नहीं है
तो किसी के
लिए भी बुरी
नहीं होनी
चाहिए। आखिर
स्त्री में हम
क्यों भेद
करे। क्या स्त्री
के अलग मापदंड
निर्धारित
करें? पुरूष
अगर लंगोट लगा
कर नदी में नहाओ
तो ठीक और अगर
स्त्री लँगोटी
बाँध कर नदी में
नहाए तो
चरित्रहीन हो
गयी। ये दोहरे
मापदंड क्यों?
लोग कहते है: ‘’इस
देश की युवतियां
पश्चिम से आए
फैशनों का
अंधानुकरण
करके अपने चरित्र
का सत्यानाश
कर रही है।
जरा भी
नहीं। एक तो
चरित्र है
नहीं कुछ......। और पश्चिम
में चरित्र
पैदा हो रहा
है। अगर इस
देश की स्त्रियां
भी पश्चिम की
स्त्रियों
की भांति
पुरूष के साथ
अपने को समकक्ष
घोषित करें तो
उनके जीवन में
भी चरित्र
पैदा होगा और आत्मा
पैदा होगी। स्त्री
और पुरूष को
समान हक होना
चाहिए।
यह बात
पुरूष तो हमेशा
ही करते रहे
है, स्त्रियों
में उनकी उत्सुकता
नहीं है: स्त्रियां
के साथ मिलते
दहेज में उत्सुकता
है।–स्त्री से
किसको लेना
देना है।
पैसा, धन, प्रतिष्ठा।
हम बच्चों
पर शादी थोप
देते थे।
लड़का कहे कि
मैं लड़की को
देखना चाहता
हूं, वह ठीक।
यह उसका हक
है। लेकिन
लड़की कहे मैं
भी लड़के को
देखना चाहती
हूं, लड़की
कहे कि मैं
लड़के के साथ
दो महीने रहना
चाहती हूं।
आदमी जिंदगी
भर साथ रहने
योग्य है भी
कि नहीं। तो
हो गया चरित्र
का ह्रास। पतन
हो गया। और इसको
तुम चरित्र
कहते हो कि
जिससे पहचान
नहीं, संबंध
नहीं, कोई
पूर्व परिचय
नहीं। इसके
साथ जिंदगी भर
साथ रहने का
निर्णय लेना।
यह चरित्र है
तो फिर अज्ञान
क्या होगा? फिर मूढ़ता
क्या होगी?
पहली
दफ़ा दुनिया में
एक स्वतंत्रता
की हवा पैदा
हुई है। लोकतंत्र
की हवा पैदा
हुई है। और स्त्रियों
ने उदधोषणा की
है समानता की,
तो पुरूषों की
छाती पर सांप
लोट रहे है।
मगर मजा भी यह
है की पुरूषों
की छाती पर सांप
लोटे, यह तो
ठीक; स्त्रियों
की छाती पर
सांप लोट रहे
है। स्त्रियों
की गुलामी
इतनी गहरी हो
गई है। कि उनको
पता ही नहीं
रहा कि जिसको
वे चरित्र,
सती-सावित्री और
क्या–क्या नहीं
मानती रही है,
वे सब पुरूषों
के द्वारा
थोपे गए
जबरदस्ती के
विचार थे।
पश्चिम
में एक शुभ
घड़ी आयी है। घबड़ाने
की कोई जरूरत
नहीं है।
भयभीत होने की
कोई जरूरत
नहीं है। न ही
कोई कारण है,
सच तो यह है कि
मनुष्य जाति
अब तक बहुत
चरित्रहीन
ढंग से जी रही
थी। लेकिन यह
चरित्र हीनता
लोग ही आपने
को चरित्रवान
समझते है। तो
मेरी बातें
उनको गलत
लगती है। कि
मैं लोगों के
चरित्र को
खराब कर रहा
हूं। मैं तो
केवल स्वतंत्रता
और बोध दे रहा
हूं, समानता
दे रहा हूं। और
जीवन को
जबरदस्ती
बंधनों में
जीने से उचित
है कि आदमी स्वतंत्रता
से जीए। और बंधन
जितने टूट
जाएं उतना अच्छा
है। क्योंकि
बंधन केवल आत्माओं
को मार डालते
है, सड़ा
डालते है।
तुम्हारे
जीवन को दूभर
कर देते है।
जीवन एक
सहज आनंद, उत्सव
होना चाहिए।
इसे क्यों
इतना बोझिल,
इसे क्यों
इतना भारी
बनाने की चेष्टा
चल रही है? और मैं नहीं
कहता हूं कि
अपनी स्व-स्फूर्त
चेतना के विपरीत
कुछ करो। किसी
व्यक्ति को
एक ही व्यक्ति
के साथ
जीवन-भर प्रेम
करने का भव है—सुंदर
है, अति सुंदर
है। लेकिन यह
भाव होना
चाहिए आंतरिक।
यह ऊपर से
थोपा हुआ
नहीं। मजबूरी में
नहीं। नहीं तो
उसी व्यक्ति
से बदला लेगा
वह व्यक्ति,
उसी को परेशान
करेगा। उसी पर
क्रोध जाहिर करेगा।
ओशो
बहुरि
न ऐसो दांव
जय गुरूदेव, ओशो ने जो उर्जा और सोच दी उसी के साथ जीते हुए जीवन को करीब से देख पाया, आप उनके विचार को जन जन तक पहूंचा रहे है आपको सादर प्रणाम, बस इतना ही कहूंगा कि उनके विचारों मरने नहीं देना है, जीवन में उतार कर ही ओशो का जिंदा रखा जा सकता है...
जवाब देंहटाएंएक निवेदन कि आज तक कभी ध्यान करने का सौभाग्य नहीं मिल सका, आर्थिक बाधा सबसे बड़ी रही पर अब चाहता हूं कि यह सानिघ्य भी मिले, कृप्या मदद करें
sathi66@gmail.com
dhyan ke lie khabhi aarthik badha aa hi nahi sakti dhyan ke liye bahar ka nahi ander jane ki jarurat hai.
जवाब देंहटाएंsudhir
BEHUDA LEKH,
जवाब देंहटाएंgood
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