(अध्याय—चौतीसवां)
ओशो
पूना मे सोहन
के घर पर ठहरे
हुए हैं और
रात के भोजन के
बाद एक
एयरकंडीशंड
कमरे में आराम
कर रहे हैं।
मैं उनके
चरणों के पास
बैठी हुई हूं
और अचानक उनके
पांव दबाने की
मेरी बडी
प्रबल इच्छा
जागती है। मैं
उनसे पूछती
हूं और वे
हामी भर देते
हैं। जैसे ही मैं
उनके दाएं
पांव के तलुए
को दबाने लगती
हूं?
वे कहते हैं,
हर शिष्य पैर
से शुरु करता
है
और' अतत:
गले तक पहुंच
जाता है।’ यह
सुनकर मैं
एकदम से उनके
पांव दबाना
बंद कर देती
हूं। वे हंसकर
कहते है, ‘यह
मैंने तुझे
नहीं कहा।’ मैं बेहोशी
में
प्रतिक्रिया
करते हुए कहती
हूं. यहां और
कोई तो है ही
नहीं।’ वे
कहते हैं, सच
तो यह है मुझे
पांव दबवाना
अच्छा नहीं
लगता। जब मैं
आराम कर रहा
होता हूं, तो
इससे मुझे
तकलीफ होती है।’
मैं उनकी
बात समझ जाती
हूं और उनसे क्षमा
मांगती हूं।
वे हंसकर मुझे
कहते हैं, तुम
गैर गंभीर
होना कब सीखोगी?'
यह कहकर वे
अपनी आंखें
बंद कर लेते
हैं और मैं उनके
कथन पर गंभीरता
से विचार करते
हुए कमरे में से
बाहर निकल आती
हूं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें