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सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

अमृत की दशा-(प्रवचन-01)

अमृत की दशा-(ओशो)
(ध्‍यान-साधना)  

प्रवचन-पहला

एक साधु के आश्रम में एक युवक बहुत समय से रहता था। फिर ऐसा संयोग आया कि युवक को आश्रम से विदा होना पड़ा। रात्रि का समय है, बाहर घना अंधेरा है। युवक ने कहा, रोशनी की कुछ व्यवस्था करने की कृपा करें।
उस साधु ने एक दीया जलाया, उस युवक के हाथ में दीया दिया, उसे सीढ़ियां उतारने के लिए खुद उसके साथ हो लिया। और जब वह सीढ़ियां पार कर चुका और आश्रम का द्वार भी पार कर चुका, तो उस साधु ने कहा कि अब मैं अलग हो जाऊं, क्योंकि इस जीवन के रास्ते पर बहुत दूर तक कोई किसी का साथ नहीं दे सकता है।
और अच्छा है कि मैं इसके पहले विदा हो जाऊं कि तुम साथ के आदी हो जाओ। और इतना कह कर उस घनी रात में, उस अंधेरी रात में उसने उसके हाथ के दीये को फूंक कर बुझा दिया।
वह युवक बोला, यह क्या पागलपन हुआ? अभी तो आश्रम के हम बाहर भी नहीं निकल पाए, साथ भी छोड़ दिया और दीया भी बुझा दिया!
उस साधु ने कहा, दूसरों के जलाए हुए दीये का कोई मूल्य नहीं है। अपना ही दीया हो तो अंधेरे में काम देता है, किसी दूसरे के दीये काम नहीं देते हैं। खुद के भीतर से प्रकाश निकले तो रास्ता प्रकाशित होता है, और किसी तरह रास्ता प्रकाशित नहीं होता है।
तो मैं निरंतर सोचता हूं, लोग सोचते होंगे कि मैं आपके हाथ में कोई दीया दे दूंगा, जिससे आपका रास्ता प्रकाशित हो जाए, तो आप गलती में हैं। आपके हाथ में कोई दीया होगा तो मैं उसे बड़ी निर्ममता से फूंक कर बुझा दे सकता हूं। मेरी मंशा और मेरा इरादा यही है कि आपके हाथ में अगर कोई दूसरे का दिया हुआ प्रकाश हो तो मैं उसे फूंक दूं, उसे बुझा दूं। आप अंधेरे में अकेले छूट जाएं, कोई आपका संगी-साथी हो तो उसे भी छीन लूं। और तभी जब आपके पास दूसरों का जलाया हुआ प्रकाश न रह जाए और दूसरों का साथ न रह जाए, तब आप जिस रास्ते पर चलते हैं, उस रास्ते पर परमात्मा आपके साथ हो जाता है और आपकी आत्मा का दीया जलने की संभावना पैदा हो जाती है।
सारी जमीन पर ऐसा हुआ है। सत्य की तो बहुत खोज है, परमात्मा की बहुत चर्चा है, लेकिन, लेकिन ये सारे कमजोर लोग कर रहे हैं, जो साथ छोड़ने को राजी नहीं हैं और जो दीया बुझाने को राजी नहीं हैं। अंधेरे में जो अकेले चलने का साहस करता है बिना प्रकाश के, उसके भीतर साहस का प्रकाश पैदा होना शुरू हो जाता है। और जो सहारा खोजता है, वह निरंतर कमजोर होता चला जाता है।
भगवान को आप सहारा न समझें। और जो लोग भगवान को सहारा समझते होंगे, वे गलती में हैं। उन्हें भगवान का सहारा नहीं उपलब्ध हो सकेगा। कमजोरों के लिए इस जगत में कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। और जो शक्तिहीन हैं और जिनमें साहस की कमी है, धर्म उनका रास्ता नहीं है। दिखता उलटा है। दिखता यह है कि जितने कमजोर हैं, जितने साहसहीन हैं, वे सभी धार्मिक होते हुए दिखाई पड़ते हैं। कमजोरों को, साहसहीनों को, जिनकी मृत्यु करीब आ रही है उनको, घबड़ाहट में, भय में धर्म ही मार्ग मालूम होता है। इसलिए धर्म के आस-पास कमजोर और साहसहीन लोग इकट्ठे हो जाते हैं। जब कि बात उलटी है। धर्म तो उनके लिए है, जिनके भीतर साहस हो, जिनके भीतर शक्ति हो, जिनके भीतर बड़ी दुर्दम्य हिम्मत हो और जो कुछ अंधेरे में अकेले बिना प्रकाश के चलने का दुस्साहस कर सकें।
तो यह मैं प्राथमिक रूप से आपसे कहूं। दुनिया में यही वजह है कि जब से कमजोरों ने धर्म को चुना है, तब से धर्म कमजोर हो गया। और अब तो सारी दुनिया में कमजोर ही धार्मिक हैं। जिनमें थोड़ी सी हिम्मत है, वे धार्मिक नहीं हैं। जिनमें थोड़ा सा साहस है, वे नास्तिक हैं। और जिनमें साहस की कमी है, वे सब आस्तिक हैं।
भगवान की तरफ सारे कमजोर लोग इकट्ठे हो गए हैं, इसलिए दुनिया में धर्म नष्ट होता चला जा रहा है। इन कमजोरों को भगवान तो बचा ही नहीं सकता, ये कमजोर भगवान को कैसे बचाएंगे? कमजोरों की कोई रक्षा नहीं है, और कमजोर तो किसी की रक्षा कैसे करेंगे?
सारी दुनिया में मनुष्य के इतिहास के इन दिनों में, इन क्षणों में, जो धर्म का अचानक ह्रास और पतन हुआ है, उसका बुनियादी कारण यही है।
तो मैं आपको कहूं, अगर आपमें साहस हो, तो ही धर्म के रास्ते पर चलने का मार्ग खुलता है। न हो, तो दुनिया में बहुत रास्ते हैं। धर्म आपके लिए नहीं हो सकता।
तो जो आदमी भय के कारण भयभीत होकर धर्म की तरफ आता हो, वह गलत आ रहा है। लेकिन सारे धर्म-पुरोहित तो आपको भय देते हैं--नरक का भय, स्वर्ग का प्रलोभन, पाप-पुण्य का भय और प्रलोभन, और घबड़ाहट पैदा करते हैं। वे घबड़ाहट के द्वारा आपमें धर्म का प्रेम पैदा करना चाहते हैं। और यह आपको पता है, भय से कभी प्रेम पैदा नहीं होता। और जो प्रेम भय से पैदा होता है, वह एकदम झूठा होता है, उसका कोई मूल्य नहीं होता। आप भगवान से डरते हैं, तो आप नास्तिक होंगे, आस्तिक नहीं हो सकते।
कुछ लोग कहते हैं कि जो भगवान से डरे, वह आस्तिक है। गॉड फियरिंग, जो ईश्वर से डरता हो, ईश्वर-भीरु हो, वह आस्तिक है।
यह बिलकुल झूठी बात है। ईश्वर से डरने वाला कभी आस्तिक नहीं हो सकता। क्योंकि डरने से कभी प्रेम पैदा नहीं होता। और जिसको हम भय करते हैं, उसे बहुत प्राणों के प्राण में घृणा करते हैं। यह तो संभव ही नहीं है। भय के साथ भीतर घृणा छिपी होती है। जो लोग भगवान से भयभीत हैं, वे भगवान के शत्रु हैं, और उनके मन में भगवान के प्रति घृणा होगी।
तो मैं आपसे कहूं, ईश्वर से भय मत खाना। ईश्वर से भय खाने का कोई भी कारण नहीं है। इस सारे जगत में अकेला ईश्वर ही है जिससे भय खाने का कोई कारण नहीं है। और सारी चीजें भय खाने की हो सकती हैं। लेकिन हुआ उलटा है। और मैं बड़े-बड़े धार्मिकों को यह कहते सुनता हूं: ईश्वर का भय खाओ। और ईश्वर के भय खाने से पुण्य पैदा होगा। और ईश्वर के भय खाने से सच्चरित्रता पैदा होगी।
ये निहायत झूठी बातें हैं। भय से कहीं सदाचार पैदा हुआ है? जैसे हमने रास्तों पर पुलिसवाले खड़े कर रखे हैं, वैसे ही हमने परलोक में भगवान को खड़ा कर रखा है। वह एक बड़े पुलिसवाले की हैसियत से है। एक बड़े कांस्टेबल की हैसियत से है। भगवान को जिन्होंने कांस्टेबल बना दिया है, उन लोगों ने धर्म को बहुत नुकसान पहुंचाया है।
भगवान के प्रति भय से कोई विकसित नहीं होता। भगवान के प्रति तो बड़ा अभय चाहिए। और अभय का अर्थ क्या होगा? अभय का अर्थ होगा कि जो लोग श्रद्धा करते हैं, वे लोग भय के कारण श्रद्धा करते हैं। इसलिए श्रद्धा को मैं धर्म की आधारभूत शर्त नहीं मानता।
आपने सुना होगा कि जिसको धार्मिक होना है, उसे श्रद्धालु होना चाहिए।
गांधीजी को एक बहुत बड़े व्यक्ति ने जाकर पूछा कि मैं परमात्मा को जानना चाहता हूं तो क्या करूं? तो गांधीजी ने कहा, विश्वास करो। अगर वह मुझसे पूछता, मैं उससे यह नहीं कह सकता था कि विश्वास करो। गांधीजी की बात ठीक नहीं है। और उस आदमी ने गांधीजी को कहा कि विश्वास करूं? जिस बात को मैं जानता नहीं, विश्वास कैसे करूं? जिस बात से मैं परिचित नहीं हूं, उसे मानूं कैसे? गांधीजी ने कहा, बिना माने तो परमात्मा को जाना नहीं जा सकता। और मैं आपसे यह कहना चाहता हूं, जो मान लेते हैं, वे कभी नहीं जान सकेंगे। मैं आपसे यह कहता हूं कि जो परमात्मा को मान लेते हैं, वे कभी नहीं जान सकेंगे। यह आपका दुर्भाग्य होगा कि आप परमात्मा को मानते हों। क्योंकि मानने का अर्थ यह हुआ कि आपने जिज्ञासा और खोज के द्वार बंद कर दिए। मानने का अर्थ यह हुआ कि अब आपकी कोई तलाश नहीं है, आपकी कोई खोज नहीं है, अब आपकी कोई इंक्वायरी नहीं है। अब आप कुछ खोज नहीं रहे हैं, आप तो मान कर बैठ गए, आप तो मर गए।
श्रद्धा मृत्यु है। और संदेह? संदेह जीवन है। संदेह खोज है। तो मैं आपसे श्रद्धालु होने को नहीं, मैं आपसे संदेह करने को कहता हूं। लेकिन संदेह करने का यह मतलब मत समझ लेना कि मैं आपको ईश्वर को न मानने को कह रहा हूं। क्योंकि न मानना भी मानने का एक रूप है। आस्तिक भी श्रद्धालु होता है, नास्तिक भी श्रद्धालु होता है। आस्तिक की श्रद्धा है कि ईश्वर है, नास्तिक की श्रद्धा है कि ईश्वर नहीं है। ये दोनों अज्ञानी हैं। इन दोनों की श्रद्धाएं हैं। इन दोनों की खोज नहीं है। संदेह तीसरी अवस्था है--आस्तिक और नास्तिक, दोनों की नहीं। संदेह तो स्वतंत्र चित्त की अवस्था है। वैसा व्यक्ति निर्भय होकर पूछता है: क्या है? और न वह परंपरा को मानता है, न वह रूढ़ि को मानता है, न वह शास्त्र को मानता है। वह किसी दूसरे के दीये को अंगीकार नहीं करता। वह यह कहता है कि खोजूंगा अपना दीया। वही साथी हो सकेगा। दूसरों के दीये कितनी दूर तक, कितनी सीमा तक साथ दे सकते हैं? और इस जीवन के रास्ते पर सच है यह कि अपने सिवाय, स्वयं के सिवाय कोई साथी नहीं है और। कितनी ही बड़ी भीड़ खड़ी हो, कोई साथी नहीं है।
महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को कितना ही ज्ञान मिला हो, एक रत्ती भर भी अपने ज्ञान को आपको देने में वे समर्थ नहीं हैं। इस जगत में ज्ञान दिया-लिया नहीं जा सकता, और सब चीजें ली-दी जा सकती हैं। और स्मरण रखें, जो नहीं लिया जा सकता, नहीं दिया जा सकता, उसका ही मूल्य है। जो लिया जा सकता है, दिया जा सकता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। मैं तो ऐसा ही मानता हूं कि वही चीज संसार का हिस्सा है जिसको हम ले-दे सकते हैं। और वह चीज सत्य का हिस्सा हो जाती है जिसको लेना-देना संभव नहीं है।
कोई इस आशा में न रहे कि वह अपनी श्रद्धाओं से सत्य की या परमात्मा की खोज कर लेगा। साधारणतः यही हमें सिखाया जाता है। और इसके दुष्परिणाम हुए हैं। इसके दुष्परिणाम हुए हैं कि दुनिया में इतने लोग धार्मिक हैं, लेकिन धर्म कहां है? इतने मंदिर हैं, इतने मस्जिद हैं, लेकिन मंदिर-मस्जिद हैं कहां?
कल रात मैं बात करता था। एक संन्यासी के पास मेरा एक मित्र मिलने गया। उस संन्यासी ने कहा कि मंदिर जाते हो? उस मेरे मित्र ने कहा, मंदिर है कहां? हम तो जरूर जाएं, कोई मंदिर बता दे। वह संन्यासी हैरान हुआ। वह संन्यासी तो मंदिर में ही ठहरा हुआ था। उस संन्यासी ने कहा, यह जो देख रहे हो, यह क्या है? उस युवक ने कहा, यह तो मकान है, मंदिर कहां? यह तो मकान है। और उस युवक ने कहा कि सारी जमीन पर जिनको लोग मंदिर और मस्जिद कहते हैं, वे मकान हैं, मंदिर कहां हैं? और जिनको आप मूर्तियां कह रहे हैं, जिनको आप भगवान की मूर्तियां कह रहे हैं...
कैसी आत्मप्रवंचना है! कैसा धोखा है! मिट्टी और पत्थर को अपनी कल्पना से हम भगवान बना लेते हैं। जैसे कि हम भगवान के स्रष्टा हैं।
सुना था मैंने कि भगवान मनुष्यों का स्रष्टा है, देखा यह कि मनुष्य ही भगवान के स्रष्टा हैं। और हरेक आदमी अपनी-अपनी शक्ल में भगवान को बनाए हुए बैठे हैं। भगवान ने दुनिया को कभी बनाया या नहीं, यह तो संदेह की बात है, लेकिन आदमी ने भगवान की खूब शक्लें बनाई हैं, यह स्पष्ट ही है। और जो भगवान आदमी का बनाया हुआ हो, उसे भगवान कहना आदमी के अज्ञान और अहंकार की घोषणा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जो आदमी का बनाया हुआ हो, उसे भगवान कहना आदमी के अज्ञान और अहंकार की घोषणा के सिवाय और क्या है? कैसा धोखा आदमी अपने को दे सकता है! यह हमारा निम्नतम अहंकार है कि हम सोचते हों कि जो हम बनाते हैं वह भगवान हो सकता है। जो नहीं बनाया जा सकता और जिसे कभी कोई नहीं बना सकेगा और जो सब बनाने के पहले है और सबके मिट जाने के बाद भी शेष रह जाता है, उसे हम भगवान कहते हैं।
उसका मंदिर कहां है? और उसकी मस्जिद कहां है? और उसके मानने वाले लोग कहां हैं? असल में उसका कोई मानना नहीं होता, उसका तो जानना होता है। मानना नहीं होता उसका कोई, उसका जानना होता है। अंधा प्रकाश को मान लेगा, तो उसके मानने में क्या मूल्य होगा? और वह प्रकाश की जो कल्पना करेगा, वह भी कैसी होगी? उसका प्रकाश से क्या संबंध होगा?
रामकृष्ण के पास एक दफा एक व्यक्ति आया और रामकृष्ण से उसने कहा, मुझे सत्य के संबंध में कुछ बताएं! और रामकृष्ण से उसने कहा कि मुझे परमात्मा के संबंध में कुछ कहें!
रामकृष्ण ने कहा, मुझे तुम्हारे पास आंखें तो दिखाई नहीं देतीं, तुम समझोगे कैसे?
वह बोला, आंखें मेरे पास हैं।
रामकृष्ण ने कहा, अगर इन्हीं आंखों से परमात्मा और सत्य जाना जाता होता, तो परमात्मा और सत्य को जानने की जरूरत ही न रह जाती, सभी लोग उसे जानते। और भी आंखें हैं।
वह बोला, फिर भी कुछ तो समझाएं!
तो रामकृष्ण ने एक कहानी कही। वह कहानी बड़ी मीठी है। बड़ी अदभुत है। बड़ी प्राचीन कथा है। हजारों-हजारों ऋषियों ने उस कहानी को कहा है और आने वाले जमाने में भी हजारों-हजारों ऋषि उस कहानी को कहेंगे। उसमें बड़ी पवित्रता समाविष्ट हो गई है। बड़ी छोटी सी कहानी, बड़ी सरल सी ग्रामीण कहानी है।
रामकृष्ण ने कहा, एक गांव में एक अंधा था और उस अंधे को दूध से बहुत प्रेम था। उसके मित्र जब भी आते, उसे भेंट में दूध ले आते थे। उसने एक दफा अपने मित्रों को पूछा, इस दूध को मैं इतना प्रेम करता हूं, इतना प्रेम करता हूं कि मैं जानना चाहता हूं कि यह दूध कैसा है? क्या है? मित्रों ने कहा, बड़ा मुश्किल है, कैसे बताएं! फिर भी उस अंधे ने कहा, कुछ तो समझाएं, किसी तरह समझाएं कि यह दूध क्या है? कैसा है? उसके एक मित्र ने कहा कि दूध, बगुला होता है, बगुले के पंख जैसा सफेद है। अंधा बोला, मुझसे मजाक न करें। बगुले को मैं जानता नहीं। उसके पंख की सफेदी को भी नहीं जानता। मैं कैसे समझूंगा कि दूध कैसा है? कुछ और सरल रास्ता अख्तियार करें तो शायद मैं समझ जाऊं। तो उसके मित्र ने कहा, कैसे समझाएं! तो एक मित्र ने कहा, बगुला जो होता है, वह घास काटने के हंसिए की तरह टेढ़ी उसकी गर्दन होती है। अंधा बोला, आप पहेलियां उलझा रहे हैं। मैंने कभी देखा नहीं हंसिया, मुझे पता नहीं वह कैसा टेढ़ा होता है। तीसरे मित्र ने कहा, इतनी दूर क्यों जाते हो? उसने अपने हाथ को मोड़ कर और उस अंधे को कहा, इस हाथ पर हाथ फेरो, इससे पता चल जाएगा कि हंसिया कैसा होता है। उसने उसके तिरछे हाथ पर हाथ फेरा। घूमा हुआ, मुड़ा हुआ हाथ अनुभव हुआ। वह अंधा नाचने लगा, वह बोला, मैं समझ गया, दूध मुड़े हुए हाथ की तरह होता है।
और रामकृष्ण ने कहा कि सत्य के संबंध में, जो नहीं जानते हैं, उनको बताई हुई सारी बातें ऐसी ही हो जाती हैं।
इसलिए आपसे सत्य के संबंध में न कभी कुछ कहा गया है और न कभी कुछ कहा जा सकेगा। आपसे यह नहीं कहा जा सकता कि सत्य क्या है, आपसे इतना ही कहा जा सकता है कि सत्य को कैसे जाना जा सकता है। सत्य तो नहीं बताया जा सकता, लेकिन सत्य की विधि विचार की जा सकती है। और उस विधि में श्रद्धा कोई हिस्सा नहीं है। खोज और अन्वेषण, जिज्ञासा और अभीप्सा। उसमें कोई चीज को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। और जब से दुनिया के धार्मिकों ने यह शुरुआत की कि भगवान को मान लो, स्वीकार कर लो, अंगीकार कर लो, तब से जो भी विवेकशील हैं, वे सब भगवान के विरोध में खड़े हो गए हैं। क्योंकि स्वीकार करना, अज्ञान में किसी चीज को मान लेना, कभी भी जिसका थोड़ा भी विचार जाग्रत हो और विवेक प्रबुद्ध हो, उसके लिए संभव नहीं होगा। अपने हाथों से धार्मिकों ने धर्म को विवेक-विरोधी बना कर खड़ा कर दिया है।
तो मैं आज की सुबह आपसे यह कहना चाहूंगा, धर्म का विवेक से कोई विरोध नहीं है, धर्म ही परिपूर्ण रूप से विवेक को प्रतिष्ठा देता है। और विवेक धर्म का खंडन नहीं है। विवेक के माध्यम से ही धर्म की परिपूर्ण उपलब्धि होती है। पर अपने भीतर विवेक को जगाना होता है, श्रद्धा को नहीं। अपने भीतर विवेक को जगाना होता है, श्रद्धा को नहीं। विवेक और श्रद्धा मनुष्य के भीतर दो दिशाएं हैं।
श्रद्धा का अर्थ है कि मैं मान लूं जो कहा जाए। दुनिया के जितने प्रचारवादी हैं, वे सब यही चाहते हैं कि वे जो कहें, आप मान लें। दुनिया के जितने प्रोपेगेंडिस्ट हैं, चाहे वे राजनैतिक हों, चाहे वे धार्मिक हों, वे चाहते हैं कि जो वे कहें, आप मान लें। उनकी कही हुई बात में आपमें कोई इनकार न हो। उनकी सबकी चेष्टाएं ये हैं कि आपका विवेक बिलकुल सो जाए और आपके भीतर एक अंधी स्वीकृति पैदा हो जाए।
इसका परिणाम यह हुआ है कि जो बहुत कमजोर थे, और जिनके भीतर विवेक की कोई संभावना नहीं थी, या जिनका विवेक बहुत क्षत था, क्षीण हो गया था, या जो साहस नहीं कर सकते थे किसी कारण से अपने विवेक को जगाने का, वे सारे लोग धर्म के पक्ष में खड़े रह गए। और जिनमें थोड़ा भी साहस था, वे सब धर्म के विरोध में चले गए। उन विरोधी लोगों ने विज्ञान को खड़ा किया और इन कमजोर लोगों ने धर्म को सम्हाले रखा। आज दोनों सामने खड़े हैं। और धर्म रोज क्षीण होता जाता है और विज्ञान रोज विकसित होता चला जाता है। इसे कोई देखता नहीं कि यह क्या हो रहा है? हम समझ रहे हैं कि विज्ञान नुकसान पहुंचा रहा है। विज्ञान नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। धर्म के दरवाजे विवेकशील के लिए जब तक बंद रहेंगे, तब तक विवेकशील विज्ञान के पक्ष में खड़ा रहेगा।
धर्म के द्वार विवेकशील के लिए खुल जाने चाहिए और विवेकहीन के लिए बंद हो जाने चाहिए। श्रद्धा धर्म के लिए आधार नहीं रह जाना चाहिए। ज्ञान, विवेक, शोध धर्म का अंग हो जाना चाहिए। अगर यह हो सका, तो धर्म से बड़ा विज्ञान इस जगत में दूसरा नहीं है। और जिन लोगों ने धर्म को खोजा और जाना है, उनसे बड़े वैज्ञानिक नहीं हुए हैं। उनकी अप्रतिम खोज है। और मनुष्य के जीवन में उस खोज से बहुमूल्य कुछ भी नहीं है। उन सत्यों की थोड़ी सी भी झलक मिल जाए, तो जीवन अपूर्व आनंद और अमृत से भर जाता है।
तो मैं आपको कहूंगा: विवेक-जागरण; श्रद्धा नहीं। स्वीकार कर लेना नहीं; शोध करना। किसी दूसरे को अंगीकार कर लेना नहीं; स्वयं अपनी साधना और अपने पैरों पर खड़ा होना और जानना। चाहे अनेक जन्म लग जाएं। दूसरे के हाथ से लिया हुआ सत्य अगर एक क्षण में मिलता हो, तो भी किसी कीमत का नहीं है; और अगर अनेक जन्मों के श्रम और साधना से अपना सत्य मिलता हो, तो उसका मूल्य है। और जिनके भीतर थोड़ी भी मनुष्य की गरिमा है, जिनको थोड़ा भी गौरव है कि हम मनुष्य हैं, वे किसी के दिए हुए झूठे सत्यों को स्वीकार नहीं करेंगे।
लेकिन हम सब झूठे सत्यों को स्वीकार किए बैठे हैं। और हमने अच्छे-अच्छे सत्य ईजाद कर लिए हैं, जिनके माध्यम से हम अपनी श्रद्धा को जाहिर करते हैं। यह बहुत बड़ी प्रवंचना है। यह बहुत बड़ा डिसेप्शन है। यह समाप्त होना जरूरी है।
तो मैं आपसे कहूंगा, आपके भीतर बहुत बार श्रद्धा होती होगी कि मान लें। क्योंकि कमजोर मन है। कौन खुद खोजे? जितने आलसी हैं, जितने तामसी हैं, वे सब श्रद्धालु हो जाएंगे। क्योंकि कौन खुद खोजे? खुद की कौन चेष्टा करे? कृष्ण कहते हैं, तो ठीक ही होगा। और महावीर कहते हैं, तो ठीक ही होगा। क्राइस्ट कहते हैं, तो ठीक ही होगा। उन्होंने सारी खोज कर ली, हमें तो सिर्फ स्वीकार कर लेना है।
यह वैसा ही पागलपन है जैसे कोई आदमी दूसरों को प्रेम करते देख कर यह समझे कि मुझे प्रेम करने से क्या प्रयोजन? दूसरे लोग प्रेम कर रहे हैं, मुझे तो सिर्फ समझ लेना है, ठीक है। लेकिन दूसरों को प्रेम करते देख कर क्या आप समझ पाएंगे कि प्रेम क्या है? इस जगत में सारे लोग प्रेम करते हों और मैं देखता रहूं, तो भी मैं नहीं समझ पाऊंगा, जब तक कि वह आंदोलन मेरे हृदय में न हो। जब तक कि वे किरणें मुझे आंदोलित न कर जाएं, जब तक कि वे हवाएं मुझे न छू जाएं, तब तक मैं प्रेम को नहीं जान सकूंगा। सारी दुनिया प्रेम करती हो, तो किसी मतलब की नहीं है।
यह सारी दुनिया बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट से भरी पड़ी हो और मुझे सत्य का स्वयं अनुभव न होता हो, तो मुझे कुछ पता नहीं चलेगा। कोई रास्ता नहीं है। सारी दुनिया में आंख वाले हों और मैं अंधा हूं, तो क्या होगा? उनकी सबकी मिली हुई आंखें भी मेरी दो आंखों के बराबर मूल्य नहीं रखती हैं। इस दुनिया में दो अरब लोग हैं, तीन अरब लोग हैं। छह अरब आंखें हैं। एक अंधे आदमी की दो आंखों का जो मूल्य है, वह छह अरब आंखों का नहीं है।
तो मैं आपको यह कहना चाहूंगा, अपने भीतर श्रद्धा की जगह विवेक को जगाने के उपाय करने चाहिए। और विवेक को जगाने के क्या नियम हो सकते हैं, उस संबंध में थोड़ी सी बात आपसे कहूं।
पहली बात, जन्म के साथ प्रत्येक मनुष्य को, दुर्भाग्य से, किसी न किसी धर्म में पैदा होने का मौका मिलता है। जन्म के साथ हर मनुष्य को, दुर्भाग्य से, किसी न किसी धर्म में पैदा होने का मौका मिलता है। दुनिया अच्छी होगी, तो हम यह दुर्भाग्य कम कर सकेंगे। लेकिन अभी यह है। और तब परिणाम यह होता है कि जब उसमें विवेक का कोई जागरण नहीं होता, बाल-मन होता है, चुपचाप चीजें स्वीकार कर लेने की मनःस्थिति होती है, तब सारे धर्मों के सत्य उसके मन में प्रविष्ट करा दिए जाते हैं। तब उसके मन में सारी बातें डाल दी जाती हैं। वह उन पर श्रद्धा करने लगता है।
मैं एक गांव में गया, तो वहां एक अनाथालय मैं देखने गया। वहां कोई पचास बच्चे थे। उस अनाथालय के संयोजक ने मुझे कहा कि इनको हम धार्मिक शिक्षा भी देते हैं। मुझे यह समझ कर कि मैं साधु जैसा हूं, उसने सोचा, ये खुश होंगे कि हम इनको धर्म की शिक्षा देते हैं। मैंने कहा, इससे बुरा काम दूसरा नहीं है दुनिया में। क्योंकि धर्म की शिक्षा आप क्या देंगे? धर्म की कोई शिक्षा होती है? धर्म की साधना होती है, शिक्षा नहीं होती।
अभी मैं सुनता हूं कि एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने वहां अमरीका में एक संस्था डाली है, जहां वे प्रेम की शिक्षा देते हैं। यह तो बड़ी बेवकूफी की बात है। यह तो बड़ी मूर्खतापूर्ण बात है। और उस संस्था से जो लोग प्रेम की शिक्षा लेकर निकलेंगे, इस जगत में वे प्रेम कभी नहीं कर पाएंगे, इसको स्मरण रखें। वे कैसे प्रेम करेंगे? वे जब भी प्रेम करेंगे, तभी शिक्षा बीच में आ जाएगी। और जब उनके भीतर प्रेम उठेगा, तब उनके सिखाए हुए ढंग बीच में आ जाएंगे और वे अभिनय करने लगेंगे, प्रेम नहीं कर सकेंगे। जब भी उनके हृदय में कुछ कहने को होगा, तब वे उन किताबों को कहेंगे, जिनमें लिखा हुआ है कि प्रेम की बातें कैसे कहनी चाहिए। और तब वैसा आदमी जो प्रेम में शिक्षित हुआ है, प्रेम से वंचित हो जाएगा।
और यही मैं कहता हूं, जो आदमी धर्म में शिक्षित होगा, वह धर्म से वंचित हो जाएगा, क्योंकि धर्म तो प्रेम से भी बड़ी गूढ़ और बड़ी रहस्य की चीज है। प्रेम को तो कोई सीख भी ले, धर्म को कैसे सीख सकेगा?
धर्म की कोई लघनग नहीं होती। यह कोई गणित थोड़े ही है, कोई फिजिक्स थोड़े ही है, कोई भूगोल थोड़े ही है कि आपने समझा दिया और लोगों ने याद कर लिया और परीक्षा दे दी। धर्म की कोई परीक्षा हो सकती है? अगर धर्म की परीक्षा नहीं हो सकती, तो शिक्षा भी नहीं हो सकती। जिस चीज की परीक्षा हो सके, उसकी ही शिक्षा हो सकती है।
तो मैंने उनसे कहा, यह तो आप बड़ा बुरा कर रहे हैं। इन बच्चों के मन में बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं। क्या शिक्षा देते होंगे?
वे बोले, आप क्या कहते हैं! अगर धर्म की शिक्षा न होगी, तो लोग बिलकुल बिगड़ जाएंगे।
मैंने कहा, दुनिया में इतनी धर्म की शिक्षा है, लोग बने हुए दिखाई पड़ रहे हैं? दुनिया में इतनी धर्म की शिक्षा है--जितनी बाइबिल बिकती है, कोई किताब नहीं बिकती। जितनी गीता पढ़ी जाती है, कोई किताब नहीं पढ़ी जाती। जितने रामायण के पाठ होते हैं, कौन सी किताब के होते होंगे? कितने संन्यासी हैं! कितने साधु हैं! एक-एक धर्म के कितने प्रचारक हैं! कैथलिक ईसाइयों के प्रचारकों की संख्या ग्यारह लाख है। और इसी तरह सारी दुनिया के धर्म-प्रचारकों की संख्या है। यह इतना प्रचार, इतनी शिक्षा, इसके बाद आदमी कोई बना हुआ तो मालूम नहीं होता। इससे बिगड़ी और शक्ल क्या होगी जो आदमी की आज है?
तो मैं आपको यह कहना चाहूं, धर्म-शिक्षा से आदमी नहीं ठीक होगा। मैंने उनसे कहा, यह तो गलत बात है। फिर भी मैं समझूं, आप क्या शिक्षा देते हैं? उन्होंने कहा, आप इनसे कोई भी प्रश्न पूछिए, ये हर प्रश्न का उत्तर देंगे। मैंने कहा, यही दुर्भाग्य है। सारी दुनिया में किसी से भी पूछिए, ईश्वर है? कोई भी कह देगा, है। यही खतरा है। जिनको कोई पता नहीं है, वे कहते हैं, है। और इसका परिणाम यह होगा कि वे धीरे-धीरे अपने इस उत्तर पर खुद विश्वास कर लेंगे कि ईश्वर है, और तब उनकी खोज समाप्त हो जाएगी।
मैंने उन बच्चों को पूछा, आत्मा है? वे सारे बच्चे बोले, है। उनके संयोजक ने पूछा, आत्मा कहां है? उन सबने अपने हृदय पर हाथ रखा और कहा, यहां। मैंने एक छोटे बच्चे से पूछा, हृदय कहां है? वह बोला, यह हमें सिखाया नहीं गया। यह हमें बताया नहीं गया।
मैं उन संयोजक को कहता था कि ये बच्चे जब बड़े हो जाएंगे, ये यही बातें दोहराते रहेंगे, और जब भी प्रश्न उठेगा, आत्मा है? तो यांत्रिक, मेकेनिकल रूप से इनके हाथ भीतर चले जाएंगे और ये कहेंगे, यहां है। यह बिलकुल झूठा हाथ होगा, जो सीखे की वजह से चला जाएगा।
आपके जितने उत्तर हैं परमात्मा के संबंध में, धर्म के संबंध में, वे सब सीखे हुए हैं।
विवेक-जागरण के लिए पहली शर्त है: जो भी सीखा हुआ हो सत्य के संबंध में, उसे कचरे की भांति बाहर फेंक देना। जो आपके मां-बाप ने, आपकी शिक्षा ने, आपकी परंपरा ने, आपके समाज ने सिखाया हो, उसे कचरे की तरह बाहर फेंक देना। धर्म इतनी ओछी बात नहीं है कि कोई सिखा सके। इसमें आपके मां-बाप का, आपकी परंपरा का अपमान नहीं कर रहा, इसमें मैं धर्म की प्रतिष्ठा कर रहा हूं, स्मरण रखें। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि परंपरा बुरी बात है, मैं यह कह रहा हूं कि धर्म इतनी बड़ी बात है कि परंपरा नहीं सिखा सकती। मैं यह कह रहा हूं कि धर्म इतनी बड़ी बात है कि कोई मां-बाप नहीं सिखा सकते। मैं यह कह रहा हूं कि धर्म इतनी बड़ी बात है कि कोई पाठशाला नहीं सिखा सकती। जो लोग समझते हैं कि सिखाया जा सकता है धर्म, उनको धर्म की महिमा का पता नहीं है।
तो पहली बात है: जिज्ञासा। स्वतंत्र जिज्ञासा। और जो सिखाया गया है, उसे कचरे की भांति फेंक देने की जरूरत है। इसके लिए साहस चाहिए। अपने वस्त्र छोड़ कर नग्न हो जाने के लिए उतने साहस की जरूरत नहीं है, जितनी साहस की जरूरत उन मन के वस्त्रों को छोड़ने के लिए है जो परंपरा आपको सिखा देती है, और उन ढांचों को तोड़ने के लिए है जो समाज आपको दे देता है। हम सबके मन बंधे हुए हैं एक ढांचे में। और उस ढांचे में जो बंधा है वह सत्य की उड़ान को नहीं ले सकेगा। इसके पहले कि कोई सत्य की तरफ अग्रसर हो, उसे सारे ढांचे तोड़ कर मिटा देने होंगे। मनुष्य ने जितने भी विचार परमात्मा के संबंध में सिखाए हैं, उसे उन्हें छोड़ देना होगा।
एक रात को कुछ शराबी एक नदी पर गए थे। और उन्होंने सोचा कि पूर्णिमा की रात है, वे नाव में बैठ कर यात्रा करें। वे नाव में बैठे, उन्होंने पतवार चलाई और उन्होंने समझा कि नाव चलनी शुरू हो गई है। वे रात भर नाव चलाते रहे। उन्होंने सोचा कि बड़ी यात्रा हो गई। सुबह जब ठंडी हवाएं चलने लगीं और उनका नशा थोड़ा उतरा, तो उनमें से एक ने कहा कि हम देखें तो कि कितनी दूर निकल आए? अब वापस लौटें। वे घाट पर उतरे और उन्होंने देखा कि अरे, रात भर मेहनत व्यर्थ गई। वे नाव को छोड़ना भूल गए थे। वह नाव वहीं खूंटे से बंधी हुई थी। चलाई उन्होंने रात भर और समझा कि यात्रा हो रही है, लेकिन नाव को खूंटे से छोड़ना भूल गए थे।
वे लोग, जिन्होंने अपनी आत्मा की नाव को सत्य या परमात्मा की तरफ लगाया हो, अगर उन्होंने परंपरा और समाज के खूंटे से अपने को नहीं छोड़ा, एक दिन वे पाएंगे कि नाव वहीं खड़ी हुई है। एक दिन जब वे तट पर उतर कर देखेंगे तो पाएंगे कि जीवन व्यर्थ गया। हमने पतवार तो बहुत खेई, लेकिन नाव एक इंच आगे नहीं जा सकी। नाव को गतिमान करने के लिए चलाना ही काफी नहीं, छोड़ना भी जरूरी है।
तो इसके पहले कि आप सत्य की तरफ चलें, आप अपने को छोड़ें। जो छोड़ना भूल जाएगा, उसका चलना सार्थक नहीं होगा। आपने कहीं अपने को छोड़ा है क्या? मैं तो हैरान हूं। सत्य की तरफ जो लोग उत्सुक होते हैं, वे उतने ही जोर से बांधने लगते हैं, छोड़ने की बजाय। अगर वे जैन हैं, तो वे और ज्यादा जैन होने लगते हैं। अगर वे हिंदू हैं, तो और ज्यादा हिंदू होने लगते हैं। अगर मुसलमान हैं, तो और ज्यादा मुसलमान होने लगते हैं। वे उस खूंटे पर जंजीर को और गहरा करने लगते हैं।
सत्य की तरफ जिसे जाना है, उसे हिंदू होने का मौका कहां है? जिसे सत्य की तरफ जाना है, वह जैन कैसे हो सकता है? जिसे परमात्मा में उत्सुकता है, उसकी उत्सुकता मुसलमान में और ईसाइयत में कैसे हो सकती है? और अगर ये उसकी उत्सुकताएं हैं, तो ये तो खूंटे हैं, और ये उसकी नाव को आगे नहीं जाने देंगे।
विवेक-जागरण के लिए पहली जरूरत है उन खूंटों से अपने को छोड़ लें जिनसे समाज ने आपको बांध दिया है। समाज की जरूरत है बांधने के लिए। समाज को मुश्किल पड़ेगी अगर आप बंधे हुए न हों। समाज का सारा ढांचा दिक्कत में पड़ जाएगा अगर वह आपको न बांधे। इसलिए समाज आपको बांधने की चेष्टा करता है। समाज की व्यवस्था, समाज की सुव्यवस्था इस पर निर्भर है कि आप बंधे हुए हों। हर आदमी खूंटे से बंधा हुआ हो, समाज व्यवस्थित होगा। समाज अपनी व्यवस्था के लिए आपका बलिदान चढ़ा देता है। समाज व्यक्तियों का बलिदान कर लेता है व्यवस्था के लिए। इसलिए जितना समाज व्यवस्थित होगा, व्यक्तियों का उतना ही बलिदान करना जरूरी हो जाएगा।
सोवियत रूस, या हिटलर जैसे लोगों ने व्यक्तियों को बिलकुल समाप्त कर दिया, क्योंकि समाज की पूरी व्यवस्था उनको करनी है। उन्होंने व्यक्तियों को खूंटों से बांधा ही नहीं, व्यक्तियों को खूंटे बना दिया। अब उनके छूटने की गुंजाइश भी नहीं रखी।
समाज की जरूरत है कि व्यक्ति बिलकुल मर जाए। वह बिलकुल मशीन की तरह व्यवहार करे। समाज जो कहे, उस तरफ जाए। समाज जो व्यवस्था दे, उसको माने। समाज को सत्य से कोई मतलब नहीं है, समाज को तो सुव्यवस्था से मतलब है। इसलिए समाज की जरूरतें हैं, वह आपको बांधेगा ही। लेकिन एक सीमा पर आपकी अपनी जरूरत है सत्य, और आपको छोड़ना पड़ेगा। छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि आप उच्छृंखल हो जाएंगे। छोड़ने का यह मतलब नहीं है कि आप स्वच्छंद हो जाएंगे। छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि आप समाज-विरोधी हो जाएंगे। छोड़ने का मतलब केवल इतना है कि आपकी चित्त की भूमिका जंजीरों से बंधी नहीं रह जाएगी। आप किन्हीं धारणाओं में अपने को कैद नहीं करेंगे। किन्हीं कंसेप्ट्स में अपने को बांधेंगे नहीं। और किन्हीं संस्कारों को आप अज्ञान में स्वीकार नहीं करेंगे। आप खोज में संलग्न होंगे। आप आंतरिक जिज्ञासा के लोक में प्रवेश करने में लगे होंगे। और धीरे-धीरे वहां जितनी गति आपकी होगी और जो अनुभव आपको होंगे, वे ही अनुभव आपके पथ के प्रदीप बनेंगे। वे ही अनुभव आपके लिए प्रकाश बनेंगे
तो पहली जरूरत है, समाज ने जो ढांचे और संस्कार दिए हैं, उनको कोई व्यक्ति क्षीण करे, उनको छोड़े मन से। लेकिन इतना ही काफी नहीं है। समाज के ढांचे क्षीण हो जाएं तो मन उड़ने को मुक्त हो जाता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उड़ान शुरू हो गई। उड़ने की संभावना पैदा हो जाती है। समाज के ढांचे, परंपरा, शास्त्र, संप्रदाय, इनके द्वारा प्रचारित संस्कार, इनको छोड़ कर चेतना इतनी हलकी हो जाती है कि उड़ सकती है। फिर साथ दूसरी चेष्टा अंतर्दृष्टि के लिए करनी होती है। एक तो खूंटे से छोड़ देना और फिर अंतर्दृष्टि की पतवार चलानी होती है, तब नाव में गति होती है।
अंतर्दृष्टि की पतवार का क्या अर्थ है?
अंतर्दृष्टि की पतवार का अर्थ है कि चीजों को, जैसी वे दिखाई पड़ती हैं, उनको वैसी ही मत मान लेना। उनके भीतर बहुत कुछ है।
एक आदमी मर जाता है। हमने कहा, आदमी मर गया। जिस आदमी ने इस बात को यहीं समझ कर चुप हो गया, उसके पास अंतर्दृष्टि नहीं है।
गौतम बुद्ध एक महोत्सव में भाग लेने जाते थे। रास्ते पर उनके रथ में उनका सारथी था और वे थे। और उन्होंने एक बूढ़े आदमी को देखा। वह उन्होंने पहला बूढ़ा देखा। जब गौतम बुद्ध का जन्म हुआ, तो ज्योतिषियों ने उनके पिता को कहा कि यह व्यक्ति बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा और या संन्यासी हो जाएगा। उनके पिता ने पूछा कि मैं इसे संन्यासी होने से कैसे रोक सकता हूं? तो उस ज्योतिषी ने बड़ी अदभुत बात कही थी। वह समझने जैसी है। उस ज्योतिषी ने कहा, अगर इसे संन्यासी होने से रोकना है, तो इसे ऐसे मौके मत देना जिसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए। पिता बहुत हैरान हुए कि हम...। यह क्या बात हुई? उनके पिता ने पूछा। ज्योतिषी ने कहा, इसको ऐसे मौके मत देना कि इसको अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए। तो पिता ने कहा, यह तो बड़ा मुश्किल हुआ, क्या करेंगे? उस ज्योतिषी ने कहा कि इसकी बगिया में फूल कुम्हलाने के पहले अलग कर देना। यह कभी कुम्हलाया हुआ फूल न देख सके। क्योंकि यह कुम्हलाया हुआ फूल देखते ही पूछेगा, क्या फूल कुम्हला जाते हैं? और यह पूछेगा, क्या मनुष्य भी कुम्हला जाते हैं? और यह पूछेगा, क्या मैं भी कुम्हला जाऊंगा? और इसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाएगी। इसके आस-पास बूढ़े लोगों को मत आने देना। अन्यथा यह पूछेगा, ये बूढ़े हो गए, क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा? यह कभी मृत्यु को न देखे। पीले पत्ते गिरते हुए न देखे। अन्यथा यह पूछेगा, पीले पत्ते गिर जाते हैं, क्या मनुष्य भी एक दिन पीला होकर गिर जाएगा? क्या मैं गिर जाऊंगा? और तब इसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाएगी।
पिता ने बड़ी चेष्टा की और उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि बुद्ध के युवा होते-होते तक उन्होंने पीला पत्ता नहीं देखा, कुम्हलाया हुआ फूल नहीं देखा, बूढ़ा आदमी नहीं देखा, मरने की कोई खबर नहीं सुनी। फिर लेकिन यह कब तक हो सकता था? इस दुनिया में किसी आदमी को कैसे रोका जा सकता है कि मृत्यु को न देखे? कैसे रोका जा सकता है कि पीले पत्ते न देखे? कैसे रोका जा सकता है कि कुम्हलाए हुए फूल न देखे?
लेकिन मैं आपसे कहता हूं, आपने अभी मरता हुआ आदमी नहीं देखा होगा, और अभी आपने पीला पत्ता नहीं देखा, अभी आपने कुम्हलाया हुआ फूल नहीं देखा। बुद्ध को उनके बाप ने रोका बहुत मुश्किल से, तब भी एक दिन उन्होंने देख लिया। आपको कोई नहीं रोके हुए है और आप नहीं देख पा रहे हैं। अंतर्दृष्टि नहीं है, नहीं तो आप संन्यासी हो जाते। यानी सवाल यह है, क्योंकि उस ज्योतिषी ने कहा था कि अगर अंतर्दृष्टि पैदा हुई, तो यह संन्यासी हो जाएगा। तो जितने लोग संन्यासी नहीं हैं, मानना चाहिए, उन्हें अंतर्दृष्टि नहीं होगी।
खैर, एक दिन बुद्ध को दिखाई पड़ गया। वे यात्रा पर गए एक महोत्सव में भाग लेने और एक बूढ़ा आदमी दिखाई पड़ा। और उन्होंने तत्क्षण अपने सारथी को पूछा, इस मनुष्य को क्या हो गया?
उस सारथी ने कहा, यह वृद्ध हो गया।
बुद्ध ने पूछा, क्या हर मनुष्य वृद्ध हो जाता है?
उस सारथी ने कहा, हर मनुष्य वृद्ध हो जाता है।
बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी?
उस सारथी ने कहा, भगवन, कैसे कहूं! लेकिन कोई भी अपवाद नहीं है। आप भी हो जाएंगे।
बुद्ध ने कहा, रथ वापस लौटा लो, रथ को वापस ले लो।
सारथी बोला, क्यों?
बुद्ध ने कहा, मैं बूढ़ा हो गया।
यह अंतर्दृष्टि है। बुद्ध ने कहा, मैं बूढ़ा हो गया। अदभुत बात कही। बहुत अदभुत बात कही। और वे लौट भी नहीं पाए कि उन्होंने एक मृतक को देखा और बुद्ध ने पूछा, यह क्या हुआ?
उस सारथी ने कहा, यह बुढ़ापे के बाद का दूसरा चरण है, यह आदमी मर गया।
बुद्ध ने पूछा, क्या हर आदमी मर जाता है?
सारथी ने कहा, हर आदमी।
और बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी?
और सारथी ने कहा, आप भी। कोई भी अपवाद नहीं है।
बुद्ध ने कहा, अब लौटाओ या न लौटाओ, सब बराबर है।
सारथी ने कहा, क्यों?
बुद्ध ने कहा, मैं मर गया।
यह अंतर्दृष्टि है। चीजों को उनके ओर-छोर तक देख लेना। चीजें जैसी दिखाई पड़ें, उनको वैसा स्वीकार न कर लेना, उनके अंतिम चरण तक। जिसको अंतर्दृष्टि पैदा होगी, वह इस भवन की जगह खंडहर भी देखेगा। जिसे अंतर्दृष्टि होगी, वह यहां इतने जिंदा लोगों की जगह इतने मुर्दा लोग भी देखेगा--इन्हीं के बीच, इन्हीं के साथ। जिसे अंतर्दृष्टि होगी, वह जन्म के साथ ही मृत्यु को भी देख लेगा, और सुख के साथ दुख को भी, और मिलन के साथ विछोह को भी।
अंतर्दृष्टि आर-पार देखने की विधि है। और जिस व्यक्ति को सत्य जानना हो, उसे आर-पार देखना सीखना होगा। क्योंकि परमात्मा कहीं और नहीं है, जिसे आर-पार देखना आ जाए उसे यहीं परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। वह आर-पार देखने के माध्यम से हुआ दर्शन है।
एक बहुत बड़ा राजा हुआ। वह एक रात सोया हुआ था। वह बगदाद में हुआ। एक मुसलमान राजा था। वह अपने महल में रात सोया हुआ था। और उसने अपने ऊपर छप्पर पर किसी के चलने की आवाज सुनी। तो उसने सोचा, यह क्या पागलपन है! इतनी रात को महल के छप्पर पर कौन चलता है? उसने चिल्ला कर पूछा कि आधी रात है, यह कौन ऊपर छत पर चल रहा है? यह कौन ऊपर छप्पर पर चल रहा है? एक आदमी ने ऊपर से कहा, मेरा ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं। वह राजा हैरान हुआ। उसने कहा, पागल मालूम होते हो। ऊंट कहीं छप्परों पर खोते हैं? मकानों के छप्परों पर ऊंट खोते हैं? उस आदमी ने कहा कि अगर मकानों के छप्परों पर ऊंट नहीं खो सकते, और अगर मकानों के छप्परों पर ऊंट नहीं खोजे जा सकते, तो तुम जहां राज-सिंहासन पर परमात्मा को खोज रहे हो, कभी सोचा कि मकान पर तो ऊंट खो भी जाएं और मिल भी जाएं, राज-सिंहासन पर परमात्मा नहीं मिलेगा
राजा बहुत हैरान हुआ। उसने बहुत कोशिश की कि उस फकीर को, कौन आदमी था जिसने ऊपर से यह बात कही, खोजवाया जाए। उसने बहुत ढुंढ़वाया, लेकिन उसका कोई पता नहीं चला। दिन बीते, वह बात भूल गया।
फिर एक दिन एक संन्यासी, एक फकीर दरबार में आया। वह इतना महिमायुक्त था, इतना प्रभावी था कि संतरी उसे रोक नहीं सके। उससे पूछ नहीं सके कि आप कैसे जाते हैं? और किसकी आज्ञा से? वह भीतर प्रविष्ट हुआ और दरबार में पहुंच गया। सारे दरबारी घबड़ा कर खड़े हो गए, खुद राजा भी खड़ा हो गया। लेकिन उसने पूछा कि कौन हैं आप और कैसे आए? क्या प्रयोजन है?
उस फकीर ने कहा, इस सराय में कुछ दिन ठहरना चाहता हूं।
उस राजा ने कहा, सराय? अशिष्ट बात बोल रहे हो। थोड़े शिष्टाचार का भी बोध नहीं। यह मेरा महल है, मेरा निवास है।
वह फकीर जोर से हंसने लगा और बोला, इसके पहले भी मैं आया था, लेकिन तुमको नहीं पाया था। तब दूसरा आदमी सिंहासन पर था। उसके पहले भी आया था, तब उसको भी नहीं पाया था, तीसरा आदमी सिंहासन पर था। यूं मैं कई दफे आया, हर दफा आदमी बदल जाते हैं, इसलिए क्षमा करें, मुझे ऐसा शक हुआ कि यह सराय है, यहां लोग आते हैं और जाते हैं। और इसलिए मैंने कहा कि इस सराय में मुझे ठहरने का कोई अवकाश मिल जाए तो बड़ी कृपा हो।
राजा ने उठ कर उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि यह निश्चित हो गया, जिस आदमी को मैं खोजता था वह तुम्हीं हो सकते हो। क्या उस रात मेरे छप्पर पर ऊंट तुम्हीं खोजते थे? क्योंकि तुम्हारे सिवाय और कौन खोजेगा?
वह फकीर बोला, मैं ही था, और आया था कि तुम्हें शायद अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए। और आज फिर आया हूं कि शायद अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए।
उस राजा ने कहा, बात समझ में आ गई। और उसने पीछे लौट कर नहीं देखा, वह महल के बाहर हो गया।
उससे जब भी लोग पूछते कि ऐसा तुमने इतना जल्दी क्यों किया? उसने कहा, अंतर्दृष्टि जब पैदा होती है तो जल्दी और देर का कोई सवाल नहीं है।
आर-पार देखने की जरूरत है, तो मकान सराय दिखाई पड़ेगा और आप चलते-फिरते हुए मुर्दे मालूम होंगे। खुद अपने को मुर्दे मालूम होंगे। क्योंकि जो चीज मर जानी है, वह आज ही मरी हुई होनी चाहिए। जो चीज मर जानी है, वह हमेशा मर रही है धीरे-धीरे।
मैं जिस दिन पैदा हुआ, उसी दिन से मर रहा हूं। एक दिन यह मरने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, मैं समाप्त हो जाऊंगा। उसे लोग मृत्यु कहेंगे। लेकिन जो देखता है, वह जान रहा है कि मैं प्रतिक्षण मर रहा हूं। नहीं तो मृत्यु घटित कैसे होगी? मरने का क्रमिक विकास ही, ग्रेजुअल ग्रोथ, वह जो रोज बढ़ती हो रही है मृत्यु की, वही एक दिन मरण हो जाएगा। हम यहां बैठे जितने लोग हैं, मर रहे हैं। यहां घंटे भर हम मर गए, घंटा मर गया हमारे भीतर।
जो जीवन में आर-पार देखेगा, उसे अनेक बातें दिखाई पड़नी शुरू होंगी। जिज्ञासा मुक्त हो और अंतर्दृष्टि की तलाश रहे, और किसी चीज को हम जैसी वह दिखाई पड़ती हो, उसका चेहरा जैसा मालूम पड़ता हो, वैसा ही स्वीकार न कर लें, उसके भीतर प्रवेश करें और देखें, तो यह सारा जगत संन्यास का उपदेश बन जाता है। यह सारा जगत परित्याग का उपदेश बन जाता है। यह सारा जगत धर्म का शिक्षालय हो जाता है। और जो आर-पार देखने में समर्थ हो जाता है, जिसकी शिक्षा, जिसकी जीवन-शिक्षा और अनुशासन आर-पार देखने में समर्थ हो जाता है, वह व्यक्ति घटनाओं के पीछे उसको देखने लगता है जिस पर कोई घटना नहीं घटती। वह व्यक्ति परिवर्तन के पीछे उसको अनुभव करने लगता है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। वह व्यक्ति जड़ता के पीछे उसको देखने लगता है जो चैतन्य है। उस व्यक्ति की जैसे-जैसे क्षमता गहरी होती जाती है, वह अनित्य के पीछे नित्य को और सामयिक के पीछे शाश्वत का दर्शन करने लगता है। जब उसे सारे तथ्यों के पीछे वह शाश्वत मिल जाता है, वह सनातन मिल जाता है, जिसके पार देखना असंभव है, उस बिंदु का नाम ईश्वर है--जिसके पार देखना असंभव है। जिसके पार देखा जा सकता है उसका नाम संसार है और जिसके पार नहीं देखा जा सकता उसका नाम सत्य है।
जहां तक हमारी दृष्टि प्रवेश कर सकती है, जहां तक दृष्टि को गति है, वहां तक संसार है। और जहां दृष्टि की अगति हो जाती है, जहां दृष्टि आगे जा ही नहीं सकती, अंतिम क्षण आ जाता है, अंतिम बिंदु आ जाता है, जिसके पार दृष्टि शून्य हो जाती है, जिसके पार देखने को कुछ रह नहीं जाता, उस जगह का नाम सत्य है, उस जगह का नाम परमात्मा है।
उसे जो मंदिर में खोज रहा है, वह नासमझ है। मंदिर के तो पार देखा जा सकता है, वह तो संसार का हिस्सा है। जो उसे शास्त्र में खोज रहा है, वह नासमझ है। शास्त्र के तो पार देखा जा सकता है, शास्त्र तो पदार्थ का हिस्सा है। परमात्मा को तो वहां खोजना होगा जिसके पार नहीं देखा जा सके।
कौन सी चीज है ऐसी जिसके पार आप नहीं देख सकते?
अगर आप अपने भीतर प्रविष्ट होंगे, तो आपके सिवाय ऐसी कोई चीज नहीं है जिसके पार आप नहीं देख सकते। हर चीज के पार देखा जा सकता है, सिवाय आपको छोड़ कर। जब आप भीतर प्रविष्ट होंगे, तो आपको अपने ही भीतर एक बिंदु उपलब्ध होगा, जिसके आर-पार कहीं नहीं देखा जा सकता। वह द्रष्टा का बिंदु है। जो देख रहा है, उसको ही केवल देखा नहीं जा सकता है। जो देख रहा है इस जगत में, उसको ही केवल देखा नहीं जा सकता। उस बिंदु पर थिर होकर व्यक्ति सत्य को अनुभव करता है, परमात्मा को अनुभव करता है। और उस दिन जो प्रकाश उसमें उत्पन्न होता है, उस दिन जो अनुभूति उसे स्पष्ट होती है, उस दिन जो दिखाई पड़ता है, उस दिन जो प्रतीति में आता है, वह उसके सारे जीवन को बदल देता है। उसके बाद मृत्यु नहीं रह जाती, क्योंकि उसे जान कर वह जानता है कि अमृत है। उसके बाद कोई दुख नहीं रह जाता, क्योंकि उसे जान कर वह जानता है कि सब आनंद है। उसके बाद यह सारा जगत सच्चिदानंद रूप में परिणत हो जाता है।
ऐसी परिणति को साहसी उपलब्ध होते हैं। ऐसी परिणति को दुर्दम्य साहसी उपलब्ध होते हैं, दुस्साहसी उपलब्ध होते हैं। जो सब छोड़ कर अनंत के सागर में अपनी नाव को खेते हैं। जो सारे खूंटे तोड़ कर अज्ञात सागर में अपने को छोड़ देते हैं अनजान--कहां जाएंगे, कुछ पता नहीं है! जिन्हें तटों का मोह है, वे सत्य को नहीं पा सकते। जिन्हें मंझधार में डूब जाने का साहस है, जिन्हें किनारों का कोई मोह नहीं, जो मंझधार को ही किनारा मान सकते हैं, जो बीच सागर को भी सहारा मान सकते हैं, केवल उनके लिए ही सत्य की खोज है।
ईश्वर ऐसा साहस पैदा करे। ईश्वर ऐसी हिम्मत दे। ईश्वर ऐसा दुर्दम्य बोध, ऐसी अंतर्दृष्टि, ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न करे, तो हम इस सारी दुनिया में फिर से धर्म को प्रतिष्ठित करने में समर्थ हो जाएंगे। जो धर्म वीरों का था, वह वृद्धों का बना हुआ है। जो धर्म साहसियों का था, वह आलसियों का बना हुआ है। जिस धर्म पर केवल वे ही चढ़ते थे जो पर्वतों में अपने को अकेले खो देने का साहस रखते हैं, जिन्हें मृत्यु का कोई प्रश्न नहीं, वह उनका बना हुआ है जो मृत्यु से बहुत भयभीत हैं, बहुत डरे हुए हैं, और जो धर्म में अपना बचाव खोजते हैं। धर्म कोई सुरक्षा नहीं है। धर्म कोई बचाव नहीं है। धर्म को इस अर्थों में शरण मत समझना। धर्म तो आक्रमण है। और जो लोग आक्रमण करते हैं सत्य पर, जो उसे विजय करते हैं, वे ही केवल उसे उपलब्ध होते हैं। ईश्वर ऐसी सदबुद्धि दे, ऐसा साहस दे, ऐसी हिम्मत दे कि अनंत सागर में आप अपनी नाव को छोड़ सकें। तो किसी दिन, किसी क्षण, किसी सौभाग्य के क्षण में कोई अनुभूति आपके जीवन को उपलब्ध होगी, जो आपको परिपूर्ण बदल देगी, जो आपकी सारी दृष्टि को बदल देगी। संसार तो यही होगा, लेकिन आप बदल जाएंगे। सब कुछ यही होगा, लेकिन आप दूसरे हो जाएंगे।
उस दूसरे हो जाने का नाम संन्यासी है। संन्यासी का अर्थ यह नहीं है कि किसी ने कपड़े बदले और वह भीख मांगने लगा तो संन्यासी हो गया। या किसी ने टीके लगाए और किसी ने कपड़े रंग लिए तो वह संन्यासी हो गया। और कोई घर में रहा तो वह गृहस्थी हो गया। संन्यासी का यह अर्थ नहीं है। सत्य के अनुसंधान में इतने साहस को लेकर जो कूद पड़ता है, वही संन्यासी है। और जिसके घरघूले हैं, और जिसके खूंटे हैं, और जो अपने घर के बाहर नहीं निकलता, वही गृही है, वही गृहस्थ है। कोई पत्नी और बच्चों से दुनिया में गृहस्थ नहीं होता, और न कोई पत्नी-बच्चों के न होने से संन्यासी होता है। और न कोई कपड़ों के परिवर्तन से गृहस्थ होता है, न कोई संन्यासी होता है। अगर ये छोटी और ओछी बातों से दुनिया में संन्यास होता हो, तो उसका मूल्य दो कौड़ी हो जाएगा। उसका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। संन्यास तो बड़ी आंतरिक परिवर्तन की, एक इनर ट्रांसफार्मेशन की बात है। और वह परिवर्तन आंतरिक जीवन की दिशा को बदलने से शुरू होता है।
उस दिशा के दो चरणों की मैंने आपसे बात की है। एक चरण है: जिज्ञासा को स्वतंत्र और उन्मुक्त कर देना। आस्थाओं, श्रद्धाओं के खूंटों से उसे अलग कर लेना। और दूसरी बात है: तथ्यों के आर-पार देखना। जो तथ्यों के आर-पार देखता है, वह सत्य को उपलब्ध होता है।

इन थोड़ी सी बातों को आपने बड़े प्रेम और बड़ी शांति से सुना है, उसके लिए मैं बहुत अनुगृहीत हूं। ईश्वर की अनुकंपा आपको उपलब्ध हो, उसका प्रसाद आपको मिले, यह कामना करता हूं। और पुनः धन्यवाद देता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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