कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-01

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
जीवित गुरु--जीवंत धर्म—(प्रवचन-पहला)

पहला प्रश्न: भगवान,
जीवित सदगुरु के पास इतना खतरनाक क्यों है? सब कुछ दांव पर लगा कर आपके बुद्ध-ऊर्जा क्षेत्र में डूबने के लिए इतने कम लोग क्यों आ पाते हैं? जबकि पलटू की तरह आपका आह्वान पूरे विश्व में गूंज उठा है--
बहुरि न ऐसा दाव, नहीं फिर मानुष होना,
क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।
भगवान, अनुकंपा करें, बोध दें।
योग चिन्मय,
जीवन ही खतरनाक है। मृत्यु सुविधापूर्ण हैं। मृत्यु ज्यादा और आरामदायक कुछ भी नहीं। इसलिए लोग मृत्यु को वरण करते हैं, जीवन का निषेध।। लोग ऐसे जीते हैं, जिसमें कम से कम जीना पड़े, न्यूनतम--क्योंकि जितने कम जीएंगे उतना कम खतरा है; जितने ज्यादा जीएंगे उतना ज्यादा खतरा है। जितनी त्वरा होगी जीवन में उतनी ही आग होगी, उतनी ही तलवार में धार। जीवन को गहनता से जीना, समग्रता से जीना--पहाड़ों की ऊंचाइयों पर चलना है। ऊंचाइयों से कोई गिर सकता है। जो गिरने से डरते हैं, वे समतल भूमि पर सरकते हैं; चलते भी नहीं घिसटते हैं। उड़ने की तो बात दूर।
और सदगुरु के पास होना तो सूर्य की ओर उड़ान है।
शिष्य तो ऐसे है जैसे सूर्यमुखी का फूल; जिस तरह सूरज घूमता, उस तरह शिष्य घूम जाता। सूर्य पर उसकी श्रद्धा अखंड है। सूर्य ही उसका जीवन है। सूर्य नहीं तो वह नहीं। जैसे ही सूरज डूबा, सूर्यमुखी का फूल बंद हो जाता है। जैसे ही सूरज ऊगा, सूर्यमुखी खिला, आह्लादित हुआ, नाचा हवाओं में, मस्त हुआ, पी धूप। उसके जीवन में तत्क्षण नृत्य आ जाता है।
फ्रेड्रिक नीत्शे का प्रसिद्ध वचन है: "लिव डेन्जरसली। खतरनाक ढंग से जीओ।' सच तो यह है, इसमें दो ही शब्द हैं--"खतरनाक ढंग' और "जीना। एक ही शब्द काफी है। दो शब्दों में पुनरुक्ति हैं। जीना ही खतरनाक ढंग से जीना है। और तो कोई जीने का उपाय नहीं, और तो कोई विधि नहीं।
इसलिए सदियों-सदियों से धर्म ने जीवन-निषेध का रूप लिया। यह कायरों का ढंग है। यह कायरों की जीवन-शैली है--भोगा, जीओ मत; छिप रहो किसी दूर गुफा में, कहीं हिमालय में, जहां जीवन न के बराबर होगा। क्या होगा जीवन हिमालय की गुफा में? क्या जीवन हो सकता है जहां संबंध नहीं? जितने संबंध हैं उतना जीवन है--उतनी जीवन की गहनता है, सघनता है, विस्तार। जी भर जीने का अर्थ होता है--अनंत-अनंत संबंधों में जीओ।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: भागना मत, जागना। जाग कर जीओ--यह धर्म है। भाग कर जीए--यह तो धर्म भी नहीं, जीवन भी नहीं। इससे तो बेहोश होकर भी जो जी रहा है वह भी कम से कम जी तो रहा है! कम से कम उसके प्राणों में धड़कन तो है! लेकिन सदियों-सदियों से आदमी ने आत्मघाती धर्मों को चुना है। कसूर धर्मों का नहीं है। धर्म तो आत्मघाती हो ही नहीं सकता। लेकिन आदमी डरपोक है, भयभीत है, भीरु है। इसलिए उसने सारे धर्मों को अपनी भीरुता के वस्त्र दिए।
महावीर भीरु नहीं हैं, लेकिन उनके पीछे चलने वालों की जमात, उनसे ज्यादा भीरु जमात तुम और कहां पाओगे? बुद्ध भीरु नहीं हैं। जीवन उनका संघर्ष है, क्रांति है। जीवन उनका आग्नेय है। एक-एक शब्द अंगार है। ज्वालामुखी हैं वे। लेकिन बौद्धों को देखो: पीले पत्ते हैं, मर चुके कभी के, झरने के करीब हैं, गिरने के करीब हैं। ठूंठ की तरह रह गए हैं। न वसंत आता न फूल खिलते। और जितना ही वसंत का आगमन असंभव हो जाता है, उनकी पुरानी धारणा पुष्ट होती है कि जीवन में कुछ सार नहीं। अच्छा ही हुआ जो छोड़ दिया। यह तर्काभास है। तुमने छोड़ा, इसलिए जीवन में कोई सार नहीं। जीते तो सार पाते; सार, सत्य, भगवत्ता--सब पाते।
जीवन का खजाना अकूत है, उसकी गहराई अथाह है। अगर कहीं कोई ईश्वर है तो वह जीवन में व्याप्त है, रोएं-रोएं में, कण-कण में वही प्रतिध्वनित है। बाहर वह, भीतर वह। दसों दिशाओं में वह।
लेकिन कमजोर आदमी अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए तर्क खोजता है। बीमारी आदमी यह मानने को राजी नहीं कि मैं बीमार हूं; इससे अहंकार को धक्का लगता है। बीमार आदमी भी अपने को ही नहीं, औरों को भी समझाता है कि यह साधना है; यह जीवन की व्यर्थता को देख कर बीमार हूं।
ईसप की प्रसिद्ध कथा, जो मैं बार-बार कहता हूं, क्योंकि आदमी के संबंध में इतनी सच है। एक लोमड़ी ने अंगूर के गुच्छे लटकते हुए देखे। छलांग मारी, बहुत छलांग मारी, बहुत तड़फी पहुंचने को अंगूरों तक, नहीं पहुंच सकी। छलांग छोटी पड़ती गयी। सब ताकत लगा दी, मगर अंगूर के गुच्छे ऊंचे थे, छलांग ओछी थी। पसीना-पसीना, थकी-मांदी, हारी पराजित। चारों तरफ उसने देखा कि किसी ने देखा तो नहीं। जैसे कोई आदमी गिर पड़ता है तो जल्दी धूल झाड़ता है और चारों तरफ देखता है, किसी ने देखा तो नहीं! कंघी निकाल कर जल्दी बाल संवार लेता है, चश्मा ठीक लगा लेता है, टोपी ठीक करके चल पड़ता है--किसी ने देखा तो नहीं! इसकी भी फिक्र नहीं होती कि कहीं चोट लगी या नहीं; वह तो घर जाकर देख लेंगे। किसी ने देखा तो नहीं! घबड़ाहट कि कहीं मैं गिर गया, यह कोई देख न ले! मैं और पराजित हो गया।
लोमड़ी ने चारों तरफ देखा, कोई भी न था। धुल झाड़-झवांस कर चल पडी। लेकिन एक खरगोश छुपा देखता था झाड़ी से। उसने कहा: "चाची, क्या हुआ?' लोमड़ी बहुत चकित हुई। उसने कहा: "हुआ क्या! कुछ भी नहीं हुआ। अंगूर खट्टे हैं। अभी पके नहीं। जब छलांग लगा कर पास पहुंची तो देखा बच्चे हैं, अभी तोड़ने योग्य नहीं। थोड़े पक जाएं, फिर तोड़ेंगे।'
ईसप की छोटी-छोटी कथाएं आदमी के संबंध में हैं। लोमड़ी यानी आदमी के भीतर छिपी हुई चालाकी, बेईमानी, पाखंड। जो भाग जाते हैं जीवन से, वे भी अपने भागने को फलसफा बनाते हैं, उसे भी दर्शन देते हैं, उसे भी सुंदर शास्त्रीय शब्दों में ढांकते हैं। वे यह नहीं कहते कि हम भगोड़े हैं, वे कहते हैं हम संन्यासी हैं। हमने जीवन का त्याग किया है!
रामकृष्ण के पास एक आदमी आता था, जो हर उत्सव पर, अवसर ही नहीं चूकता था, पूर्णिमा आ गयी, कभी एकादशी आ गयी, कभी कुछ उत्सव...हिंदुओं के उत्सवों की तो  कोई कभी ही नहीं है...कोई भी बहाना मिल जाए, बकरे कटते थे उसके घर। धर्म का दिन आ गया तो बलि देनी होगी। काली का भक्त था। फिर एक दिन रामकृष्ण को पता चला कि अब उसने धार्मिक उत्सव वगैरह मनाना बंद कर दिया है, अब बकरे नहीं कटते। क्या हुआ? क्या भक्ति छोड़ दी? बुलाया उसे और क्या हुआ, उससे पूछा। बुढ़ापे में, अब मरते वक्त भक्ति छोड़ दी? अब बकरे वगैरह नहीं कटते?
उसने कहा: "अब आपसे क्या छिपाना! औरों को धोखा दे दूं, आपको कैसे धोखा दूं?' इससे सदगुरु के पास होने में डर लगता है। औरों को धोखा दे दोगे, सदगुरु को कैसे दोगे! दोगे भी तो दे न पाओगे। उसकी पारदर्शी आंखें पकड़ ही लेगी। तो उस आदमी ने कहा:" अब सच बात आपसे कह दूं। औरों को तो मैंने कहा कि अरे इन सब बाह्य क्रिया-कांडों में क्या रखा है! जवानी का अंधापन था, चलता रहा; अब प्रौढ़ हो गया, अब देख लिया बस करके, इसमें कुछ सार नहीं है। असली बात भीतर है। लेकिन अब आपसे कह दूं सच्ची बात कि मेरे दांत गिर गए; अब दांत ही न रहे तो बकरे क्या काटना!' मतलब यह हुआ कि दांत थे, इसलिए बकरे काटते थे। धर्म तो बहाना था। धर्म तो सुंदर बहाना था। बकरे खाने थे।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने एक दिन सुबह-सुबह उससे कहा कि मियां, कुछ याद है, अपनी शादी को पूरे पच्चीस वर्ष हो गये। कल पच्चीसवीं वर्षगांठ पड़ रही है विवाह की, जोर-शोर से मनाना है। जिस बकरे को हमने इतने दिन पाल-पोस कर तैयार किया है, हो इरादा तो कल कट जाए।
नसरुद्दीन ने कहा: "फजलू की अम्मा, शादी हमने की, बेचारे बकरे का क्या कसूर? उसको क्यों सजा देती हो? अरे काटना है तो मुझे काट। और यूं भी पच्चीस साल में बचा क्या है, सब तो काट डाला और बकरे का क्या कसूर? और उसको काटना होगा तो बकरी जाने, तू क्यों पीछे पड़ी है? बकरे ने अपना क्या बिगाड़ा? भूल थी तो अपनी थी। भोगें तो अपने भोगे।'
लेकिन लोग हमेशा बहानों से जीते हैं।
मनुष्य-जाति की छाती पर जीवन-निषेधात्मक धर्म हावी रहे हैं, क्योंकि मनुष्य भीरु है, इतना भीरु कि बाबा तुलसीदास कहते हैं: भय बिन होय न प्रीति। इससे ज्यादा व्यर्थ की बात शायद ही किसी आदमी ने कभी कही हो। इससे ज्यादा दो कौड़ी की बात कहनी कठिन है! इतनी अवैज्ञानिक, इतनी निरर्थक, इतनी असंगत--खोजना भी चाहो कोई बात तो न खोज पाओगे। लेकिन लाखों लोग तुलसीदास के इस वचन को दोहराते हैं और मानते हैं। सोचते हैं: "क्या गजब के मनोविज्ञान को खोजा है--भय बिन होय न प्रीति!' और भय से कभी प्रीति हुई है, सोचा, विचारा? कभी दो घड़ी विमर्श किया, चिंतन किया, मनन किया, ध्यान किया? भय और प्रीति, इनके बीच क्या संबंध है? यह तो यूं हुआ कि जैसे कोई कहे कि जहर के बिना अमृत नहीं होता; सींचो जहर, तब अमृत होगा। यह तो यूं हुआ कि जैसे कोई कहे कि बोओ कहे कि बोओ नीम के बीज, निबोलियां और तब आम लगेंगे।
भय और प्रेम बड़ी विपरीत अवस्थाएं है। भय में आदमी सिकुड़ता है, संकुचित होता है, छोटा होता है; प्रेम में फैलता है, विस्तीर्ण होता है। याद रखना ब्रह्म शब्द का अर्थ। ब्रह्म का अर्थ होता है,जो फैलता ही चला जाए, फैलता ही चला जाए; जिसके फैलने का कोई अंत न आए, जिसके फैलाव की कोई सीमा न हो। कितना ही पीओ, चुका न सको। कितना ही जानो, फिर भी जानने को शेष रह जाए। कभी ऐसा न कह सको कि सब जान लिया। स्वयं उसे खोजने में खो जाओगे, मगर उसे खोज न पाओगे। नहीं कि स्वाद न मिलेगा, भर जाओगे उससे लबालब, लेकिन वह बहुत है। हम गागर, वह सागर। हमसे ऊपर से बहेगा।
ऐसा ही प्रेम है। प्रेम तुमसे बड़ा है। प्रेम परमात्मा का ही मानवीय रूपांतरण है। इसलिए जीसस ने ठीक कहा कि परमात्मा प्रेम है। जीसस के वचन में सार है। बाबा तुलसीदास के वचन मग सिवाय असार के और कुछ भी नहीं। परमात्मा प्रेम है। और प्रेम कहीं भय हो सकता है? तुम खुद ही सोचो, अपने जीवन में सोचो। जिससे तुम भयभीत हो, उसे तुम प्रेम कर सकते हो?
मैं छोटा था तो मेरे पिता ने मुझे सिर्फ एक बार सजा दी। बहुत मुश्किल है ऐसा पिता पाना, जो सिर्फ एक बार सजा दिया हो। और एक चपत मुझे मारी, सिर्फ एक बार। मैंने उनसे कहा कि मारना आपको जितना हो आप मार सकते हैं, लेकिन फिर एक बात खयाल रखना, कि मेरे आपके बीच प्रेम का रिश्ता न रह जाएगा। आप मुझे  मार रहे, प्रेम को मार रहे हैं। मैं कैसे प्रेम कर सकूंगा उस व्यक्ति को जो मुझे दुख दे रहा है, पीड़ा दे रहा है, परेशान कर रहा है? निश्चित ही मैं निर्भर हूं अभी आप पर, अपने पैरों पर अभी खड़ा भी नहीं हो सकता, तो आपकी जो मर्जी। मारेंगे तो भी ठीक है, सहना होगा। लेकिन मुझे नहीं मार रहे हैं, खयाल रखना, मेरे और आपके बीच प्रेम है उसे मार रहे हैं।
वे संवेदनशील व्यक्ति थे, बहुत संवेदनशील व्यक्ति थे। बस पहली और आखिरी सजा वही रही। उन्होंने फिर मुझे कभी दो शब्द भी नहीं कहे, मारना तो बहुत दूर। मैंने कुछ भी किया हो--ठीक किया हो, गलत किया हो--उन्होंने जैसे एक बात तो बहुत ही गहरे मन में ले ली कि प्रेम को नष्ट नहीं करना है। मुझे पैसों की जरूरत पड़े, तो कहीं मुझे चुराना न पड़े...किस बच्चे को नहीं चुराना पड़ता? इस खयाल से कि मुझे कभी चोरी न करनी पड़े, वे एक डब्बे में पैसे रख देते थे कि मुझे जब चाहिए हों मैं निकाल लूं, जितने चाहिए हों निकाल लूं ताकि पूछना भी न पड़े। क्योंकि पूछो तो भी अड़चन होती है--किसलिए चाहिए, क्यों चाहिए, अभी कल ही तो लिए थे। मुझे पूछना न पड़े, उन्हें पूछना न पड़े--इसलिए पैसे रख देते थे, जब डब्बा खाली हो जाए तो भर देते। फिर उनके और मेरे बीच प्रेम की एक गहराई बढ़ती चली गयी।
जिससे भी भय है उससे प्रेम नहीं हो सकता, उससे घृणा होती है। इसलिए हर बच्चा बड़ा होकर अपने मां-बाप से बदला लेता है। जिम्मेवारी मां-बाप की है, बच्चे की नहीं। बदला लेगा ही। तुम जब ताकतवर थे और बच्चा कमजोर था तो तुमने उसे सताया, अच्छे-अच्छे नामों से सताया। एक से एक तरकीबें ईजाद की सताने की। अपनी धारणाओं के आधार पर उसे सताया। और तुम्हारी धारणाएं सच हैं, इसका तुम्हें आश्वासन है? फिर जब बच्चा बड़ा हो जाएगा, उसके हाथ में ताकत आएगी एक दिन। चाक घूम जाएगा। तुम बूढ़े हो जाओगे, कमजोर हो जाओगे। तुमसे चलते न बनेगा, उठते न बनेगा। तब तुम्हें वह भी कचरे में फेंक देगा। तब मत रोओ। यह तुम अपने किये का फल भोग रहे हो।
लोग भी खूब अजीब हैं, पिछले जन्मों की बातें करते हैं कि पिछले जन्मों के कर्मों के फल मिल रहे हैं और इसी जन्म में जो उपद्रव करते रहते हैं उनका गणित बिठाते नहीं! पिछला जन्म था कि नहीं, यह भी तुम्हें पता नहीं है। मगर यह जन्म तो साफ है। इसी जन्म में हिसाब जरा देखो।
ईसाइयत ने दो हजार साल तक मनुष्य को समझाया कि ईश्वर से डरो, क्योंकि ईसाइयत ईसा के आधार से नहीं बनी। यह तो बड़े अचंभे की बात है। बुद्ध धर्म बुद्ध के आधार से नहीं बना और न जैन धर्म महावीर के आधार से बना और न हिंदू धर्म कृष्ण के आधार से बना। और जैन धर्म महावीर के आधार से बना और न हिंदू धर्म कृष्ण के आधार से बना। इस जगत में बहुत अचंभे हैं, लेकिन सबसे बड़ा अचंभा यह है।
कबीरदास बहुत बार कहते हैं: एक अचंभा मैंने देखा नदिया लग गयी आगि। कि नदी में आग लग गयी। कि मछली चढ़ गयी रूख, कि मछली वृक्ष पर चढ़ गयी। मगर ये कुछ भी नहीं अचंभे। कबीरदास मुझे मिल जाएं तो उनसे कहूं कि कबीर दास जी, ये कोई अचंभे नहीं। नदी में आग लग सकती है, इसमें क्या अड़चन? जरा पेट्रोल फेंक दो और लगा दो आग। अमरीका की झीलों में आग लगती है। अब बेचारे कबीरदास आ जाएं तो उन्हें अपना वचन बदलना पड़े, क्योंकि अमरीका की झीलों में इतना तेल हो गया है! मोटरें चल रही हैं। मोटर-बोट चल रही हैं, जहाज चल रहे हैं। इतना तेल फैल गया है सतह पर कि आग लग जाती है। अभी कुछ दिन पहले अमरीका की प्रसिद्ध झील में आग लग गयी। कबीरदास सुनते तो भौंचक्के रह जाते कि मैंने तो कहा: एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लग गयी आगि। अब वह अचंभा नहीं रहा।
लेकिन असली अचंभा यह है कि महावीर को मानने वाले महावीर के दुश्मन, बुद्ध को मानने वाले बुद्ध के दुश्मन, जीसस को मानने वाले जीसस के दुश्मन, कृष्ण को मानने वाले कृष्ण के दुश्मन। यह सबसे बड़ा अचंभा है। मानने वाले हैं, लगता है प्रेम करने वाले लोग होंगे। मगर कहीं कोई प्रेम नहीं, भय है। इसलिए घृणा।
ईसाइयों ने दो हजार साल तक पश्चिम को समझाया कि ईश्वर से डरो। जीसस ने कहा था: "ईश्वर प्रेम है।' जो प्रेम है, उससे कहीं डरा जाता है? प्रेमी कहीं एक-दूसरे से डरते हैं? पति-पत्नी डरते हैं, क्योंकि प्रेम नहीं हैं। पति डरता है कि कहीं पत्नी को पता न चल जाए। घर क्या आता है, रास्ते भर हिसाब लगाता आता है--क्या-क्या जवाब देना, यह बाई क्या-क्या पूछेगी आज--कहां रहे, कहां गए! और इससे बचना मुश्किल है, क्योंकि वह निकाल ही लेगी कोई तरकीब। वह फांस ही लेगी किसी जाल में। सब बचाव का इंतजाम करके पति घर में प्रवेश करता है और फौरन फंस जाता है। देर नहीं लगती।
पत्नियां पतियों से डरी हुई हैं। बच्चे मां-बाप से डरे हुए हैं। मां-बाप बच्चों से डरे हुए हैं। शिक्षक बच्चों को डरा रहा है, बच्चे शिक्षकों को डरा रहे हैं। हर कोई हर कोई को डरा रहा हैं। क्या समाज हमने बनाया है--भय पर खड़ा हुआ!
दो हजार साल में ईसाइयत ने ईसा से बिलकुल उल्टी बात लोगों को समझायी। अंग्रेजी में शब्द है--गॉड-फीयरिंग। हिंदी में भी हमारे पास शब्द है--ईश्वर-भीरु। कैसे बेहूदे शब्द! धार्मिक व्यक्ति को कहते हैं ईश्वर-भीरु, गॉड-फीयरिंग। धार्मिक व्यक्ति को कहना चाहिए--ईश्वर-प्रेम गाड-लविंग। लेकिन दो हजार साल तक जब बार-बार यह कहा गया कि ईश्वर से डरो, वह तुम्हें सजा देगा, वह तुम्हें नर्कों में सड़ाएगा, अगर उसकी बात नहीं मानी तो बहुत कष्ट पाओगे, ऐसे कष्ट पाओगे कि जिनकी कल्पना भी नहीं कर सकते। और दुनिया के दूसरे धर्मों ने तो सावधिक नर्क की व्यवस्था की है। एक अवधि है कि कुछ सालों तक नर्क में रहोगे, स्वाभाविक। कोई कितना ही बड़ा जुर्म करे, तो भी सजा की कोई सीमा होती है। मगर ईसाइयत ने तो गजब कर दिया--अनंत काल तक नर्क में रहना होगा! जुर्म क्या किए हैं? और बड़ा मजा यह है कि हिंदू अनंत जीवनों में मानते हैं, जैन और बौद्ध अनंत जीवनों में मानते हैं। अनंत जीवनों में भी इतने पाप नहीं होते कि अनंत काल तक नर्क मग रहना पड़े। और ईसाइयत केवल एक जीवन में मानती है, और एक ही भवन में इतने पाप कर लोगे! गजब कर दिया अनंत कल तर्क में रहना पड़े! कैसे-कैसे पाप करोगे? क्या पाप करोगे आखिर? अगर घंटे सतत पाप ही करते हरो--न सोओ, न खाओ, न पीओ; दूसरा कोई काम ही न करो, बस पाप ही पाप करो--तो भी साठ-सत्तर साल की जिंदगी में कितने पाप करोगे? अनंत काल की कोई सीमा नहीं है। अनंत काल तक कैसे सजा भोगोगे?
बर्ट्रेंड रसेल ने किताब लिखी है: "व्हाय आय एम नाट टू क्रिश्चियन? मैं ईसाई क्यों नहीं हूं?' उसमें बहुत-सी दलीलों में एक दलील यह भी है कि यह बात बेहूदी है, असंगत है, अन्याय पूर्ण है। एक जीवन, उसमें कितने पाप?
रसेल ने लिखा है कि मैं अगर अपने सारे पाप गिनती करता हूं, जो मैंने किए तो मुझे कोई कठोर से कठोर न्यायाधीश चार साल की सजा दे सकता है। और अगर उन पापों को भी गिन लें जो मैंने किए नहीं, सिर्फ सोचे, हालांकि जो सोचे उनके लिए सजा देने का कोई सवाल नहीं, तुम भी सोच लेना सजा, देने की कोई बात नहीं। न मैंने किसी को कुछ किया, न तुम मुझे कुछ करो। या बहुत से बहुत चूंकि मैंने सोचे, इसलिए सपने मग मुझे जितने भी दुख-स्वप्न दे देना हो दे देना।
मगर रसेल कहता है: वह भी गिनती कर लो, चलो वह भी मत छोड़ो, तो जो मैंने किए और जो मैंने सोचे, सब जोड़ लो, तो भी मुझे आठ साले से ज्यादा की कोई सजा नहीं दे सकता। और अनंत काल की सजा!
तो उसने अपने ईसाई न होने के कारणों में एक कारण यह भी गिनाया है कि यह बात बेहूदी है, असंगत है। और सिर्फ धर्म के नाम पर सताए जाने का आयोजन है। लोगों को डरवाया जा जा रहा है, भयभीत किया जा रहा है। और भय के आधार पर धर्म खड़ा किया जा रहा है। इसका अंतिम परिणाम हुआ कि एक दिन पश्चिम के बहुत बड़े मनीषी फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा: "ईश्वर मर चुका है, दफनाओ उसे और मुक्त हो जाओ।'
यह जो नीत्शे का वचन है, यह दो हजार साल की ईसाइयत ने जो भय का आरोपण किया, उसका परिणाम है। उसके अनिवार्य परिणाम है, तर्कगत निष्कर्ष है। ऐसे ईश्वर को मार ही डालना होगा। ऐसे दुष्ट ईश्वर को बचाने की कोई जरूरत नहीं। पूजा की तो बात और, इसकी हत्या कर दो। इसे दफना दो, ताकि आदमी मुक्त तो हो जाए।
और तम कहते हो भय के बिना प्रीति नहीं होगी। भय के बिना नीत्शे नहीं होगा, यह पक्का है। भय के बिना घृणा नहीं होगे, यह पक्का है। भय के बिना ईश्वर को खत्म कर देने की आयोजना नहीं होगी, यह पक्का है। भय के बिना नास्तिकता नहीं होगी, यह पक्का है। लेकिन प्रीति नहीं होगी! वह बात तो निपट मूढ़ता की--एकदम मूढ़ता की।
प्रेम और भय भिन्न बातें हैं। लेकिन आदमी अपनी हर चीज के लिए सुंदर तर्क खोजना चाहता है। आदमी भीरु है, भयभीत है। वह इसी को कहता है कि यह प्रेम है, प्रार्थना है, पूजा है। तुम क्यों मंदिर में झुकते हो--प्रेम से? तुम कभी प्रेम से झुके हो? तुम क्यों मस्जिद जाते हो--प्रेम से? तुमने कभी प्रेम से भर कर नमाज पढ़ी, प्रार्थना की? सब भय है, सब घबड़ाहट है। कंपे हुए हो। इसलिए जवान आदमी धार्मिक नहीं होता, क्योंकि जवान में जरा ताकत होती है, जूझने का बल होता है। जैसे-जैसे बूढ़ा होने लगता है वैसे-वैसे धार्मिक होने लगता है। सब बूढ़े धीरे-धीरे धार्मिक हो जाते हैं। कारण? भय बढ़ने लगा और भय हमारा धर्म है।
जीवन को जीने की हिम्मत जिनमें नहीं है, इन भगोड़ों ने, इन कायरों ने धर्म के ऊपर बड़ा अत्याचार किया है। इन्होंने धर्म को परिभाषा दे दी, व्याख्या दे दी। ये रुग्णचित्त लोग; ये विक्षिप्त लोग, ये मुर्दा लोग धर्म पर हावी हो गए। इनकी लाशों की सड़ांध धर्म को भी सड़ा गयी।
इसलिए जीवंत सदगुरु के पास होना हमेशा खतरनाक है। उसके पास होने का अर्थ है--जीवन के पास होना। उसके पास होने का अर्थ है--आग के पास होना जलने की तैयारी चाहिए। मिटने की हिम्मत चाहिए। शून्य होने का साहस चाहिए। अहंकार को राख कर देने के लिए चुनौती जो स्वीकार कर सकता है, वही केवल जीवित सदगुरु के पास हो सकता है।
इसलिए बुद्ध जब जिंदा होते हैं तो बहुत लोग उनके साथ नहीं होते, न जीसस के साथ होते हैं। लेकिन जब मर जाते हैं तो बहुत लोग, करोड़ों लोग साथ हो जाते हैं। मुर्दा गुरु में कोई अड़चन नहीं। लोग मृत्यु के पूजक हैं, जीवन के नहीं। फिर तुम मूर्ति बनाओगे, मंदिर बनाओगे, क्या-क्या नहीं करोगे! मुहम्मद को जिंदगी भर सताया। एक गांव में टिक कर रहने न दिया। मुहम्मद को पूरी जिंदगी जूझना पड़ा। और अब सारी दुनिया में मुहम्मद का गुणगान हो रहा है। कैसे अजीब लोग हैं! कैसा चमत्कार है!
तुम पूछते हो योग चिन्मय: "जीवित सदगुरु के पास होना इतना खतरनाक क्यों है?' जीवन के पास होना खतरनाक है, क्योंकि जीवन है असुरक्षा। मृत्यु में बड़ी सुरक्षा है। एक बार मर गए सो मर गए, फिर न कोई बीमारी लगती, फिर न कोई दुबारा मृत्यु हो सकती, न दिवाला निकलता, न चोरी होती, न डाका पड़ता। फिर तो विश्राम करो कब्रों में, विश्राम ही विश्राम है।
कन्फ्यूशियस से उसके एक शिष्य ने पूछा कि जीवन में सुरक्षा कैसे मिले? कन्फ्यूशियस ने उसकी तरफ देखा। कन्फ्यूशियस कोई बुद्धपुरुष नहीं है। कन्फ्यूशियस फिर भी एक सुलझा हुआ विचारक है, बहुत सुलझा हुआ। कन्फ्यूशियस के जमाने में तो बुद्ध पुरुष तो था लाओत्सु। कन्फ्यूशियस उससे मिलने भी गया था। इतना सुलझा हुआ तो था कि पहचान सका, कि जाए लाओत्सु के पास। इतना साफ-सुथरा चिंतन तो था, नहीं लाओत्सु को इनकार करता। तो एकदम गंवार पंडित नहीं था, एकदम भोंदू पंडित नहीं था, पोंगा पंडित नहीं था। सोच-विचार था, चिंतन की एक स्पष्ट रूपरेखा थी। तो इतना तो उसे समझ में आया कि जो मेरे पास नहीं वह लाओत्सु के पास है। जिसे अभी मैं टटोल रहा हूं; इस आदमी ने उसे लगता है, पा लिया। तो गया था मिलने, सैकड़ों मील की यात्रा करके मिलने गया था। और लाओत्सु बैठा था एक वृक्ष के नीचे और जब कन्फ्यूशियस पहुंचा, तो कन्फ्यूशियस तो बहुत ज्यादा नीति-नियम, शिष्टाचार का मानने वाले था। इस पृथ्वी पर जिन लोगों ने शिष्टाचार को सर्वाधिक मूल्य दिया, उनमें कन्फ्यूशियस सर्वप्रथम है। आदमी को कैसे व्यवहार करना, कैसे उठना कैसे बैठना...। उसने झुक-झुक कर लाओत्सु को नमस्कार किया। लाओत्सु ने कहा: "व्यर्थ परेशान न होओ। क्यों शरीर को कष्ट देते हो? बैठो! यह क्या झुक-झुक कर कोरनिस बजा रहे हो? यह कोई राजाओं का दरबार नहीं। यह क्या तुम खुशामद कर रहे हो? बैठो। बैठ जाओ चुपचाप!'
वह तो चीनी ढंग था...और चीनी ढंग बड़ा विस्तारपूर्ण था, सात बार झुकना, स्तुति करना। जब किसी महान पुरुष के पास जाओ तो क्या-क्या कहना, कैसे-कैसे शब्दों में कहना। और लाओत्सु ने तो उसको तत्क्षण रोक दिया कि बकवास बंद कर, बैठ जा चुपचाप! घबड़ा कर कन्फ्यूशियस बैठ गया। वह इतना घबड़ा गया जैसा कभी न घबड़ाया था। बड़े-बड़े सम्राटों के पास गया था, सब जगह उसको प्रशंसा मिली थी, क्योंकि सम्राट तो खुशामद पसंद होते हैं। लेकिन लाओत्सु ने कहा: "यह क्या तूने दरबारी बातें यहां लगा रखी हैं? यह कोई दरबार है?'
तो कन्फयूशियस ने जो भी पूछा, लाओत्सु ने उसका सीधा-सीधा जवाब दिया। पूछा: "ईश्वर है?' लाओत्सु ने कहा: "सब बकवास।' एक धक्का लगा। तो फिर धर्म क्या है? लाओत्सु ने कहा: "स्वयं को जानना और जिसने स्वयं को जान लिया उसने ईश्वर को जान लिया। उसके पहले सब बकवास।'
"तो हम नैतिक जीवन कैसे जीएं'--कन्फ्यूशियस ने पूछा। लाओत्सु ने कहा: "नैतिक जीवन जीने की कोई जरूरत नहीं। ध्यान से नीति वैसे ही बहती है जिसे हिमालय से सरिताएं बहती हैं। ध्यान में उतरो।'
"ध्यान का क्या अर्थ है?'
तो लाओत्सु ने कहा: "मिटो! शून्य हो जाओ! यह दंभ छोड़ो।' ऐसे झटके दिए उसको, ऐसा झकझोर! जब वह बाहर आया तो सर्द सुबह थी, लेकिन पसीना-पसीना हो रहा था। उसके शिष्यों ने पूछा: आप इतने बेचैन, उद्विग्न, पसीना-पसीना हो रहे हैं, क्या बात है?'
उसने कहा: " यह आदमी नहीं है, यह तो सिंह है। और यह बोलता नहीं, गरजता है। यह जलती आग है। अभी मैं इसके योग्य नहीं। अभी इसे पचा सकूं, यह मेरी सामर्थ्य नहीं।'
मगर इतनी स्पष्टता थी। इसलिए कन्फ्यूशियस का भी मेरे मन में आदर है। कम से कम इतनी स्पष्टता थी कि यह आदमी आग है; अभी मैं पचा सकूं, यह मेरी सामर्थ्य नहीं! लेकिन लोग तो बेईमान हैं। लोग यह नहीं कहेंगे। लोग यह कहेंगे: "यह बात ही गलत है। इसलिए हम इसे सुनें भी क्यों?' लेकिन कन्फ्यूशियस ने कहा: "बात तो सुनने जैसी है। शब्द-शब्द सुनने जैसा है। मगर मैं कमजोर। यह तो बिलकुल तलवार की धार है। इसके पास रहे कि गर्दन कटी। ज्यादा देर इसके पास टिकना खतरे से खाली नहीं है।'
जब कन्फ्यूशियस के शिष्य ने पूछा कि सुरक्षा कैसे मिले, जीवन में सुरक्षा कैसे मिले? तो कन्फ्यूशियस ने कहा कि फिर कब्र में क्या करोगे? कब्र में सुरक्षा मिलेगी, सुरक्षा ही सुरक्षा भोगना खूब। अभी तो जी लो। और अगर त्वरा से जीना है तो जाओ लाओत्सु के पास--उस खतरनाक आदमी के पास! मैं तो बूढ़ा हो गया, तुम अभी जवान हो, शायद तुम्हारे जीवन में अभी सामर्थ्य हो कि तुम उसे पी लो, पचा लो। और लाओत्सु तो ऐसे है जैसे शमा। बनो परवाने, चले जाओ! मैं तुम्हें नीति सिखा सकता हूं। लाओत्सु तुम्हें जीवन दे सकता है।
इसलिए कन्फ्यूशियस को ईमानदार आदमी तो मानना ही होगा।
सदगुरु के पास होना खतरनाक है, क्योंकि वह जीवन सिखाएगा, पलायन नहीं; जीवन निषेध नहीं, जीवन-स्वीकार का अहोभाव।
तुम पूछते हो योग चिन्मय: "सब कुछ दांव पर लगा कर आपके बुद्ध-ऊर्जा क्षेत्र में डूबने के लिए इतने कम लोग क्यों आ पाते हैं?'
सब कुछ दांव पर लगाना, वही तो अड़चन है। यहां समझौता नहीं है। यहां मैं तुमसे यह नहीं कहता कि चलो महाव्रत नहीं सधते तो अणुव्रत साधो। अणुव्रत यानी समझौता। व्रत तो महाव्रत होते हैं। अणुव्रत भी कोई व्रत होते हैं? व्रत भी कहीं छोटे और बड़े होते हैं? व्रतों में भी कहीं कोई साइज...कि अपने-अपने हिसाब से साध लो, जितना बने उतना साध लो, कि जब सुविधा हो सत्य बोल लेना, जब सुविधा न हो तो असत्य बोल देना--यह अणुव्रत। और सुविधा जब होती है तब तो कोई भी सत्य बोलता है, इसमें साधना क्या है? सच तो यह कि कभी-कभी लोग सत्य ही इसलिए बोलते हैं कि सत्य बोल कर ही नुकसान पहुंचाया जा सकता है। जैसे किसी आदमी को तुम्हें सजा करवानी हो और तुम अदालत में जाकर सच बोल दो, तो तुम यह मत सोचना कि तुम सत्यवादी हो। तुम्हारे इरादे नेक नहीं थे। तुम बदमाश हो। तुम बेईमान हो। तुम चोर हो। तुम सत्य बोलने अदालत नहीं गए थे। तुम गए थे कि इस आदमी को सजा जो जाए, कि ऐसा मौका तुम न चूक सके। दोहरे हाथ। अरे एक पत्थर से दो चिड़िएं मार ली। सत्य भी बोल लिया, सो ईश्वर के खाते में भी लिखवा लिया कि देखो सत्य बोला और इसको भी पांच साल की सजा करवा दी।
एक छोटे से बच्चे को अदालत में गवाही के लिए लाया गया। मजिस्टे्रट ने उसे कहा कि कसम खा कि सत्य ही बोलेगा। उसने कहा कि ठीक है, आप कहते हैं तो कसम खाता हूं कि सत्य ही बोलूंगा। फिर मजिस्ट्रेट ने कहा कि बोल, तुझे क्या कहना है?
उसने कहा: "मुझे अब कुछ नहीं कहना। आपने पहले ही मेरा मुंह बंद कर दिया।' छोटा बच्चा था, सीधा-साफ। "आपने मेरा मुंह पहले ही बंद कर दिया। अगर बोलूं तो असत्य बोल सकता हूं, क्योंकि वही मैं सिखा-पढ़ा कर भेजा गया हूं। और वह आपने कसम खिला दी। और सत्य मैं बोल नहीं सकता। और सत्य ही बोलना है। इसलिए अब बोलने को कुछ बचा नहीं। जयराम जी! मैं यह चला। आपने पहले ही बाधा ऐसी लगा दी।'
लोग सत्य बोलते हैं--चोट पहुंचाने के लिए। कभी-कभी सत्य को ऐसा उपयोग करते हैं, जैसे गालियों का उपयोग किया जाता है। गर्दनें काटने के लिए। वही तुम झूठ का उपयोग करते हो, वही तुम सत्य का उपयोग करते हो। सवाल उपयोग का है; सवाल इसका नहीं कि तुमने क्या बोला। तुम धर्म का उपयोग भी गर्दनें काटने के लिए करते हो। और तुम अधर्म का उपयोग भी उसी के लिए करते हो। तुम्हारी दुनिया में धर्म और अधर्म में भेद क्या है? तुम्हें आग लगानी है, आदमी मारने हैं। तुम्हें लोगों की जितनी ज्यादा हानि संभव हो सके उतनी हानि करनी है; लेकिन शोषण बन सके उतना शोषण करना है--अधर्म से हो तो अधर्म से और धर्म से हो जाए तो कहना ही क्या! दोनों दुनियाएं साधनी हैं। रात पी भी ली, सुबह तोबा भी कर ली। न दुनिया हाथ से गयी, न जन्नत हाथ से गयी। तुम चालबाज हो! और इन चालबाजों से धर्म बुरी तरह क्षत-विक्षत हुआ है।
तुम पूछ रहे हो कि सब कुछ दांव पर लगा कर...योग चिन्मय, तुमने भी सब कुछ दांव पर लगाया है? "सब कुछ'--सोचना इस शब्द पर। सब कुछ कौन दांव पर लगा रहा है? लोगों के दांव भी सशर्त होते हैं, उनके दांव में भी शर्त होती है--चाहे उन्हें पता न भी हो, चाहे अचेतन शर्त हो। अगर मैं उनकी मन की कह रहा हूं तो वे राजी हैं, बिलकुल राजी हैं। और जरा उनके बेमन की कही कि बात बिगड़ी। इसलिए जो होशियार चालबाज लोग हैं, वे तुम्हारे मन की कहते ही नहीं। इसलिए उनसे कोई नाराज नहीं होता। इधर मैं एक दोस्त बनाता हूं, दस दुश्मन बनते हैं। बड़ा महंगा सौदा है यह। यहां एक दोस्त बनना मुश्किल हो जाते है। और दुश्मन, एक दोस्त को बनाने में, कितने बना लेता हूं!
लेकिन चालबाज लोग ऐसा नहीं करते। चालबाज लोग होशियारी से चलते हैं; वे किसी को दुश्मन नहीं बनाते।
एक महात्मा से सेठ चंदूलाल ने पूछा: "मेरा इंटरव्यू-लेटर आया है। जाऊं या नहीं महाराज? आपकी क्या राय है?'
महात्मा ने कहा: "भई मेरी तो यही राह है कि अगर आपको जाना हो तो जरूर जाएं। अगर नहीं जाना हो तो हर्गिज न जाएं।
सब कुछ दांव पर लगाना बड़ी हिम्मत की बात है, दुस्साहस की बात है। सब कुछ दांव पर लगाने का अर्थ है: पीछे लौटने की सीढ़ी ही तोड़ दी, सेतु ही गिरा दिया। "हां' जो कही तो उसमें कहीं भी कोई "नहीं' की गुंजाइश न रखी। फिर गर्दन कटे तो गर्दन कटे, जीवन रहे तो जीवन रहे, न रहे तो न रहे।
योग चिन्मय को अपने से पूछना चाहिए, प्रत्येक को अपने से पूछना चाहिए कि सब दांव पर लगाया है? या मन को भाती है जो बात, रुचती है जो बात, उसमें मुझसे राजी हो जाते हो? जो नहीं रुचती या उसको सुनते ही नहीं, या सुन भी ली तो अनसुनी कर जाते हो। और जो करते भी हो, उसमें भी कितनी होशियारियां करते हो! मुझे लोग पत्र लिखते हैं कि अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं एक-दो महीने के लिए घर हो आऊं। अगर मैं कह दूं हो आओ, तो वे बड़े प्रसन्न। अगर मैं कहूं नहीं, तो वे बड़े दुखी। मगर तुम्हारे दुख ने सब कह दिया। क्यों मांगी थी? आज्ञा मांगने की कोई जरूरत न थी। आज्ञा मांगी इसीलिए थी कि मैं वही कहूं जो तुम चाहते हो। तो फिर मुझसे बिना ही आज्ञा मांगे कर लेना था, जरूरत क्या थी? मुझे किसलिए परेशान किया? और फिर उदास बैठे हैं, फिर दुखी बैठे हैं। फिर जगह-जगह अपनी उदासी की चर्चा करते फिर रहे हैं कि मुझे आज्ञा नहीं मिली जाने की, फलाने को आज्ञा मिल गयी जाने की; उसको हां भर दिया, मुझे हां नहीं भरा। फिर लाख शिकायतें कर रहे हैं।
और तुमसे पूछा किसने था कि तुम आज्ञा मांगो? तुम चले जाते। जिसको जाना है वह जाए, मजे से जाए। लेकिन बेईमानी देखते हो? जाना भी चाहते हो और यह भी बताना चाहते हो कि आज्ञा के अनुसार जा रहे हो; चूंकि मैंने कहा, इसलिए जा रहे हो। अगर मैं मना कर देता तो कभी न जाते। मगर तब तुम इस तरह का चारों तरह उदास चेहरा लिए घूमते कि सारे आश्रम को पता चल जाए कि तुम्हारी शिकायत क्या है।
लोग जो काम...मुझसे कहते हैं कि जो आप काम कहें, वही हम करेंगे। मगर उन्हें जो काम दिया जाता है, वह नहीं जमता। इसमें यह तकलीफ आती है, इसमें यह तकलीफ आती है, इसमें यह तकलीफ आती है। जब तक उनको वह काम नहीं मिल जाता जो वे करना चाहते हैं...इतना समय क्यों खराब करवाया? पहले ही कह देते कि मैं यह काम करना चाहता हूं। मगर यह मजा भी लेना था कि समर्पण हमारा पूरा है; जो आज्ञा दी जाएगी, वह हम करेंगे।
योग चिन्मय की हालत तो पक्की ऐसी है। यहां आश्रम में थे--अब तो वे सासवड़ में हैं--उनके पास ही एक नल को आठ बजे बंद करना होता था। उनको कहा गया कि आठ बजे नल बंद कर दिया करें।...कि वह मैं नहीं कर सकता हूं, क्योंकि मुझे रोज याद नहीं रह सकता। इतनी-सी बात रोज याद नहीं रह सकती कि आठ बजे उसको बंद कर देना है नल को? उन्हें जो भी काम दिया जाता है--"इतना ही मैं करूंगा, इतना ही हो सकता है।' क्षमता उनकी बहुत है। और मैं चाहता हूं तुम्हें तुम्हारी क्षमताओं से पार ले चलूं। तुम चढ़ सकते हो पहाड़, तुम जा सकते हो गौरीशंकर पर। लेकिन तुम कहते हो: "हम तो पूना की पहाड़ी चढ़ेंगे, बस इतना ही इतने में भी थक जाते हैं।'
मैं चाहता हूं कि तुम्हारी क्षमताओं को उनकी आत्यंतिक स्थिति तक खींचा जाए, क्योंकि वहीं से रूपांतरण होता है। लेकिन तुम कंजूसी कर जाते हो। तुम आलस्य कर जाते हो। तुम अपने को रोक लेते हो। "इतना ही मैं कर सकूंगा'...। और अपना हिसाब-किताब बताने को तैयार होते हैं कि सुबह का समय तो प्रवचन में चला गया; फिर भोजन में समय चला जाता है; फिर मुझे दोपहर को विश्राम भी करने में समय चाहिए; फिर कोई सत्संगी आ जाते हैं तो उनको भी समय देना पड़ता है; फिर शाम को घूमने जाना पड़ता है; फिर संध्या के भोजन का वक्त आ गया। फिर दिन भर में बचता ही नहीं उनके पास कुछ समय। जो थोड़ा-बहुत बचता है, उसमें काम करते हैं।
समग्र समर्पण, सब कुछ दांव पर लगा कर, जो लोग यहां मेरे पास हैं वे ही मेरे पास हैं! और जो लोग यहां भी हिसाब-किताब बिठा रहे हैं, वे समझ लें कि वे मेरे पास होने के भ्रम में हैं, मेरे पास नहीं है।
तुम कहते हो: "सब कुछ दांव पर लगा कर आपके बुद्ध-ऊर्जा क्षेत्र में डूबने के लिए इतने कम लोग क्यों आ पाते हैं?'
और तुमसे किसने कहा कि इतने कम लोग आ रहे हैं? तुम क्या सोचते हो इससे ज्यादा लोग कभी भी आए हैं किसी के पास? बुद्ध के पास कितने लोग थे या महावीर के पास कितने लोग थे और जीसस के पास कितने लोग थे? और जितने थे उनमें से भी कितने सच में पास थे? आज जिस विराट पैमाने पर मेरे पास लोग आए हैं, संभवतः पृथ्वी पर कभी किसी के पास नहीं आए। आज सारी पृथ्वी पर डेढ़ लाख संन्यासी हैं। बुद्ध और महावीर के ऊर्जा-क्षेत्र तो बहुत सीमित थे, बिहार के बाहर नहीं। बिहार शब्द ही इसलिए पड़ गया उस प्रांत का, क्योंकि वहां बुद्ध और महावीर घूमते थे, विहार करते थे। इसलिए बिहार नाम पड़ गया। जिस सीमा को उन्होंने भ्रमण किया था, वही बिहार की सीमा है। बिहार के बाहर से तो कोई आना-जाना बहुत हुआ नहीं।
जीसस तो जेरुसलम के आसपास सीमित रहे। बारह शिष्य थे खास। उनमें से भी एक ने उन्हें तीस रुपए में बेच दिया। और बाकी ग्यारह भी, जब जीसस को सूली लगी, भाग खड़े हुए। जो लोग जीसस के पास सूली के बाद भी मौजूद रहे, जो उनको सूली से उतारने गए...। तुम चकित होओगे कि यह दुनिया कैसी अदभुत है! तीन स्त्रियां जीसस को उतारने गयी थीं सूली से। इसलिए मेरा स्त्रियों पर भरोसा ज्यादा है पुरुषों के बजाय।
मुझसे लोग बार-बार पूछते हैं कि आपने इस आश्रम में स्त्रियों को सर्वाधिक कार्य क्यों दे रखा है? मेरा उन पर ज्यादा भरोसा है। स्त्रियां ज्यादा सरल, ज्यादा सौलभ्य, ज्यादा प्रीतिपूर्ण हैं। पुरुष--चालबाज, बेईमान, होशियार, हर तरह के षडयंत्र करने में कुशल। अपने हिसाब से चलें और दूसरों को भी अपने हिसाब से चलाएं--ऐसी आकांक्षा से भरे हुए। और जब जैसा मौका देखें, अवसरवादी।
ग्यारह ही शिष्य भाग गए। यद्यपि बड़ी मजे की बात है कि जिन तीन स्त्रियों ने जीसस को सूली से उतारा, ईसाई उनमें से तीनों में से किसी की पूजा नहीं करते। पूजा उन ग्यारह की होती है अब भी, जो भाग गए थे। क्या मजा है! अब भी उन ग्यारह भगोड़ों को, जीसस का गणधर, अपॉसल्स कहा जाता है। अब भी वे ही उनके खास शिष्य हैं। मजबूरी थी पीछे आने वाले लोगों को, क्योंकि उन तीन स्त्रियों में एक वेश्या थी--मेरी मेग्दालिन। अब वेश्या को कैसे वे आदर दें?
इसलिए, मैं तुमसे कहता हूं, यह दुनिया इतनी आसान और नहीं है, जैसा कि तुम सोचते हो। यहां सतियां धोखा दे जाएं और वेश्याएं निष्ठावान सिद्ध हो जाएं--यह दुनिया बहुत अदभुत है! यहां ऊपर से ही तय मत कर लेना।
जब गर्दन कटने का वक्त था तो मेरी मेग्दालिन पहुंच गयी। उसने फिक्र नहीं की जीसस के साथ खड़े होने में, जीवन की लाश को सूली से उतारने में। और यह वही वेश्या है, जिसने एक दिन जीसस के पैरों पर आकर इत्र की बोतल उंडेल दी थी--धोने के लिए पैर। और अपने बालों से पैरों को पोंछा था। तो जुदास ने जिसने कि तीस रुपए में बाद में जीसस को बेचा, उसने एतराज किया था। यह जरा मजे की बात है! यह घटना सोचने जैसी है। जुदास ने, जिसने कि जीसस को मरवाया, उसने ही एतराज किया था कि आपको शर्म नहीं आती कि वेश्या को पैर छूने देते हैं? और यह भी तो सोचिए कि इसने कितना कीमती इत्र पैरों में उंडेल दिया! यह इतना कीमती इत्र था कि इसको बेच कर पूरे गांव को एक दिन भोजन कराया जा सकता था। गांव में कितनी गरीबी है!
बड़ा समाजवादी था, साम्यवादी कहना चाहिए--जुदास। तर्क तो उसका सही मालूम पड़ता है। और जीसस से उसने कहा: यह उचित नहीं है। लोग देख रहे हैं, लोग क्या कहेंगे कि आप जैसा वेश्या को पैर छूने दे रहे है! अरे वेश्याओं को तो पत्थर मार-मार कर मार डालना चाहिए।'
तुम भी राजी होओगे कि ठीक तो बात है, इत्र की बोतल उंडेलने से क्या फायदा? अरे पैर तो पानी से भी धोए जा सकते थे। और इत्र को बेच कर गांव के गरीबों के काम आ जाता। सर्वोदय के अनुकूल पड़ती है बात। और फिर जीसस को इतना तो खयाल होना चाहिए कि वेश्या को पैर न छूने दें, क्योंकि वेश्या को पैर छूने देना खुद भी अपवित्र होना है।
लेकिन जीसस ने कहा कि जुदास, तू फिक्र न कर। इस इत्र को बेच कर भी उनकी कुछ गरीबी न मिट जाएगी। और फिर, हम इस इत्र के मालिक नहीं है; इस इत्र की मालकिन पैरों में डालना चाहती है, यह उसकी मर्जी है। फिर मैं ज्यादा देर यहां नहीं रहूंगा। मेरे जाने के बाद तुम्हें गरीबों को जो-जो बांटना हो बांट देना।
बड़ा प्यार वचन जीसस ने कहा कि जब दूल्हा मौजूद हो, तब तो उत्सव मना लो! "दूल्हा' शब्द का उपयोग किया है...कि जब दूल्हा मौजूद हो तब तो उत्सव मना लो, तब तो ये बेहूदी बातें और ये तर्क न लाओ! और गरीब तो मेरे मरने के बाद भी रहेंगे, उनकी सेवा पीछे कर लेना। फिर जिसने इतने प्रेम से मेरे चरणों में इत्र डाला है और इतने अहोभाव से अपने बालों से मेरे पैरों है, कौन कहता है वह अपवित्र है? पवित्रता-अपवित्रता भाव की बात है। उसकी भावना मैं देख रहा हूं।
और मजे की बात यह है कि जुदास ने तीस रुपए में बेच दिया जीसस का--सिर्फ तीस रुपए में! दुश्मनों से केवल तीस रुपए की रिश्वत मिली थी और जीसस को पकड़वा दिया। और वे तीस रुपये भी गरीबों में बांटे नहीं! कम से कम वे तीस रुपए तो गरीबों में बांट देता, कि चलो कोई बात नहीं, तीस रुपए में एक दिन का कम से कम गांव भर का भोजन तो हो जाएगा। उन दिनों हो भी जाता, तीस रुपए, चांदी के शुद्ध सिक्के थे। वे तीस रुपए तो जेब में डाल लिए। और जो स्त्री जीसस के पास खड़ी रही आखिरी क्षण तक, वह यही वेश्या थी--यही मेग्दालिन थी। मगर ईसाइयों ने मेग्दालिन को कोई प्रतिष्ठा नहीं दी। वेश्या को कैसे प्रतिष्ठा दें!
इसलिए मैं कहता हूं: ईसाई कोई ईसा के दोस्त नहीं, दुश्मन हैं। दूसरी स्त्री इसी मेग्दालिनी की बहन थी। और तीसरी स्त्री थी जीसस की मां। ये तीन स्त्रियों ने जीसस को उतारा था। चलो छोड़ दो मेग्दालिन को और उसकी बहन को, क्योंकि उनके चरित्र का कुछ ठिकाना न था। लेकिन मेरी के चरित्र का तो ईसाइयों को ठिकाना है। लेकिन भीतर से उनको शक है। यूं ऊपर से तो वे कहते हैं कि जीसस का कुंआरा जन्म हुआ, लेकिन ये ऊपर-ऊपर की बातें हैं, भीतर-भीतर उनके भी सरकता है कि कुंआरे में जन्म हो कैसे जाएगा? कहीं न कहीं डर भीतर छिपा है कि लगता है यह स्त्री, जीसस की मां भी विवाह के पहले किसी से संबंधित रही होगी मगर इसको कोई कहता नहीं, क्योंकि कौन कहे! कौन झंझट मोल ले! इसको लीप-पोता दिया है। यह बिना पुरुष के संसर्ग के जीसस के जन्म की कहानी गढ़ ली।
चलो ठीक है, तुम्हारी अगर कहानी सही है, तो कम से कम जीसस की मां के साथ तो सदव्यवहार करते। तुमने परमात्मा के तीन रूप बताए हैं--पिता, बेटा और दोनों के मध्य में पवित्र आत्मा। कम से कम एक स्त्री को भी स्थान न दे देते। उसमें मेरी को भी गिन लेते तो क्या हर्जा हो जाता? मगर मेरी को भी उसमें न गिन सके। जीसस की मां को भी उसमें न गिन सके! एक तो स्त्री को कैसे गिने! स्त्री तो पाप, स्त्री तो नरक का द्वार। स्त्री को वहां रख दें ईश्वर के साथ, वह ईश्वर तक को भ्रष्ट कर दे और पवित्र आत्मा को ले भागे या क्या गड़बड़ हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता! स्त्री को घुसने ही नहीं देना।
 वह पूरी ईसाइयों की जो त्रिमूर्ति है, तीनों ही पुरुष हैं। अब बड़ा मजा यह है कि पिता हैं तो मां कहां है? ये पिता बिना ही मां के पिता हैं! मगर यह मजा चलता है। तुम ईसाई पादरी को पिता कहते हो--फादर! उससे कभी पूछो भी तो कि मदर कहां है? तुम फादर हो कैसे गए! न पत्नी है, न बेटा है--और पिता हो गए ? पिताश्री! गजब कर रहे बाप जी! चमत्कार कर रहे।
मेरे पास एक ईसाई पादरी मिलने आते थे। मैं जबलपुर में जहां रहता था, उसके पास ही चर्च था। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें कभी इस पर विचार नहीं उठता कि तुम्हें लोग फादर कहते हैं, पिता कहते हैं, बापजी कहते हैं, तुम रोकते नहीं? मैं राजस्थान जाता था तो कुछ लोग मुझको बापजी कहने लगे। राजस्थान में गजब के लोग हैं। मैंने उनको कहा:"रुको भई। कैसे तुम मुझे बापजी कह रहे हो? मैं बापजी नहीं हूं; क्योंकि न तो कोई माताराम हैं मेरे साथ, न कोई बेटाराम हैं, कोई बाल-बच्चे भी नहीं। अरे अपने न हों, गोद लिए हों, वे भी नहीं। तुम मुझे बापजी न कहो।'
मगर लोग तो अजीब, वे कहें: "अरे नहीं बापजी, आप कैसी बातें कर रहे हैं!'
मैंने उस पादरी को कहा कि तुम्हें जब लोग फादर कहते हैं तो तुम्हें संकोच नहीं होता सोच कर कि यह क्या बात हुई! फादर का मतलब क्या होता है? मगर वह बोला; "मैंने कभी इस पर सोचा नहीं।'
मैंने कहा: "तुम क्यों सोचोगे! ऊपर तुम्हारे जो फादर बैठा है, वह तक नहीं सोचता, तुम क्यों सोचोगे!'
यह चल रहा है मूर्खतापूर्ण सिलसिला। लेकिन स्त्री को कैसे जगह दें, यह अड़चन रही। तुम्हारी भी जो त्रिमूर्ति है परमात्मा की, उसमें एक भी स्त्री रूप नहीं है--ब्रह्मा, विष्णु, महेश। एकाध स्त्री का भी जगह दे देते तो कुछ बिगड़ जाता? मगर स्त्री को तो कहीं जगह नहीं मिल सकती।
मुझे तो स्त्री के जीवन में ज्यादा स्वास्थ्य और ज्यादा प्रेम दिखाई पड़ता है। इसलिए बहुत सी स्त्रियां तुम्हारे महात्मा और संत और महंत नहीं हो सकी, क्योंकि वे इतनी जीवन-विरोधी। पुरुष में यह जीवन-विरोध बड़े जल्दी पैदा होता है; वह भगोड़ा हो जाता है। इसलिए अगर मेरे पास स्त्रियों का एक बहुत बड़ा वर्ग इकट्ठा हो रहा है तो आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जीवन का समर्थन कभी किसी ने इस प्रगाढ़ता से नहीं किया जिस प्रगाढ़ता से मैं कर रहा हूं। और स्त्री का सम्मान मेरे मन में जितना है, संभवतः तुम्हारे किसी तीर्थंकर, किसी अवतार के मन में नहीं था। कहीं न कहीं निंदा के वचन हैं। कहीं न कहीं स्त्री को नीचा दिखाने की चेष्टा है। कहीं न कहीं पुरुष का अहंकार स्थापित हो जाता है।
अब तुम देखो, तुम्हारे हिंदू अवतारों में क्या क्या अवतार नहीं हुए! मछली कछुआ, सिंह, सुअर--हद हो गयी! किसी को सुअर कह दो तो फौरन तलवारें खिंच जाएं। मगर एकाध स्त्री को भी अवतार बन जाने देते। नहीं। सुअर चल सकता है; वह भी सुअर नहीं, सुअर, खयाल रहे। कछुवी नहीं, कछुआ। मछली नहीं, मछला। वह ही होना चाहिए पुरुष। सिंहनी नहीं सिंह। यह पुरुषों के द्वारा। अपने ही अहंकार को आरोपित करने की चेष्टा की गयी है। मेरी मौलिक जीवन-दृष्टि जगत को प्रेम से भरने की है। प्रेम मेरे लिए धर्म है। सार रूप में, निचोड़ रूप में धर्म प्रेम है।
और यह तुमसे किसने कहा कि..."इतने कम लोग क्यों आ पाते हैं?' इतने कम लोग नहीं हैं। किसी जीवित सदगुरु के पास इतने लोग कभी इकट्ठे नहीं हुए। और फिर जितना खतरनाक मेरा जीवन-दृष्टिकोण है, उतने खतरनाक जीवन-दृष्टि कोई को देखते हुए इतने लोगों का आना भी परम आश्चर्य है। मैं परंपरावादी नहीं हूं, किसी रीति-रिवाज, पुरानी धारणा, संस्कार, इनसे मेरा कुछ नाता नहीं। मैं तुम्हें सारी प्राचीनता से मुक्ति दिलाना चाहता हूं। मैं तुम्हें चाहता हूं कि तुम नित नूतन होते रहो, रोज-रोज अतीत के प्रति मरते रहो। इतनी आमूल क्रांति की बात के लिए जितने लोग इकट्ठे हो गए हैं, उसको योग चिन्मय, तुम कहते हो: "इतने कम लोग क्यों आ पाते हैं?' तुम्हें गिनती आती है?
लेकिन हमारे सोचने के ढंग ही भीड़-भाड़ के होते हैं। तुम चाहते हो कि जिस तरह रामलीला में लाखों लोग बैठ कर रामलीला देखते हैं, इस तरह लोग यहां आएं; या यज्ञ होता है और लाखों लोग यज्ञ में जाते हैं; या कुंभ का मेला भरता और करोड़ों मूढ़ इकट्ठे होते हैं--ऐसे ही यहां इकट्ठे हों। मैं होने नहीं दूंगा, अगर होना भी चाहें तो। मुझे भीड़-भाड़ में रस नहीं है।
भीड़ तो झगड़ों से बनती है, आदमियों से नहीं। भीड़ की चाल तो भेड़चाल होती है। मुझे तो उत्सुकता है उन थोड़े-से हिम्मतवर लोगो में, जो अपनी जान हथेली पर लेकर खड़े हो सकते हों, जो अपने अहंकार को गिरा देने का बल रखते हों और जो उन महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं से गुजरने को राजी हों जो यहां चल रही हैं। और यह अभी केवल प्रारंभ है। यह केवल अभी तैयारी है। यह अभी छलांग की तैयारी है। जैसे ही यह तैयारी पूरी हो जाएगी, तुम्हें उस अगम सागर में ले जाना है, जिसका कोई कूल-किनारा नहीं है, न कोई नक्शा है; जिसमें डूबना ही उबरना है।
तो स्वभावतः चुने हुए लोग आएंगे। मगर वे ही चुने हुए लोग तो पृथ्वी के नमक हैं! उनके कारण ही जीवन में सौष्ठव है, सौंदर्य है, सुवास है, मिठास है। उनके कारण ही जीवन में कभी-कभी फूल खिलते हैं, वसंत आता है। उन थोड़े-से लोगों के कारण ही मनुष्य मनुष्य है, नहीं तो मनुष्य अभी भी पूरा होता, अभी भी झाड़ों पर बंदरों की तरह उछल-कूद मचा रहा होता।
तुम पूछते हो: "...जबकि पलटू की तरह आपका आह्वान पूरे विश्व में गूंज उठा है।'
पलटू का आह्वान कभी भी विश्व में नहीं गूंजा। पलटू को तो बहुत ही कम लोग जानते रहे। पलटू तो सीधा-सादा आदमी है, ग्रामीण। उसकी तो भाषा भी गांव की। मगर बातें उसने पते की कहीं। और यह सूत्र उसका पते का है। गूंजना चाहिए था विश्व में, लेकिन नहीं गूंजा। विश्व में किसी बात को गुंजाने के लिए भी बड़ी व्यवस्था, बड़ी दृष्टि और सूझ-बूझ चाहिए। विश्व में किसी बात को गुंजाना आसान मामला नहीं है। और धर्म की बात को गुंजाने तो बहुत मुश्किल बात है। धर्म कोई जासूसी उपन्यास तो नहीं कि हर कोई पढ़ना चाहेगा। धर्म कोई हत्याओं, बलात्कारों से भरी हुई फिल्म तो नहीं कि हर कोई देखना चाहेगा। धर्म कोई सनसनीखेज घटना तो नहीं कि हर अखबार उसे सुर्खियां देना चाहेगा।
धर्म तो बड़ी नाजुक बात है, न उसमें कुछ सनसनीखेज है, न हत्या है, न बलात्कार है, न आगजनी है। धर्म तो ध्यान है। ध्यान में किसको रस? ध्यान से किसको प्रयोजन? लोग को धन से प्रयोजन है, ध्यान से नहीं; पद से प्रयोजन है, परमात्मा से नहीं। और-और तरह की बातों से प्रयोजन है, हर तरह के कूड़ा-करकट को इकट्ठा करने को वे राजी हैं; लेकिन मोक्ष, निर्वाण, ये शब्द.ही उनके हृदय में कोई गूंज पैदा नहीं करते। इन शब्दों को सुन कर वे खिसक जाते हैं कि अभी तो मुझे जीना है, अभी तो मुझे हजार काम करने हैं।
बुद्ध जिस दिन मरे, एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा कि मुझे आना तो बहुत पहले से था, तीस साल से सोच रहा था आऊं-लेकिन नहीं आ सका। और आप मेरे गांव से कितनी बार नहीं गुजरे! लेकिन कभी कोई मेहमान आ गया, कभी मैं दुकान अभी बंद करके आपके दर्शन को आ ही रहा था कि कोई ग्राहक आ गया। बस कभी मैंने बिलकुल तैयारी ही की थी कि पत्नी बीमार पड़ गयी, कि चिकित्सक को बुलाने जाना पड़ा कि मेरे खुद ही सिर में दर्द हो गया।
हजार बहाने हैं। सब बहाने हैं, क्योंकि जिस जाना हो वह सिर-दर्द हो तो भी जा सकता है और पत्नी बीमार हो तो भी जा सकता है। और जिसे जाना हो, आज नहीं सही एक ग्राहक, जिंदगी भर तो ग्राहक आए। और जिसे जाना हो, वह मेहमान को भी साथ ले जाएगा, क्यों रुकेगा? और मेहमान को नहीं जाना हो तो मेहमान आराम करे। लेकिन ये सब बहाने हैं। और लोग चूकते चले जाते हैं।
अब जब उसको खबर मिली कि बुद्ध मर रहे हैं, अपनी अंतिम सांस ले रहे हैं, तब भागा हुआ आया। बुद्ध ने कहा: "तूने बहुत देर कर दी। अब तू क्या समझ पाएगा? मैं मुझे क्या समझाऊं अब? यह बात इतनी आसान तो नहीं। यह कुछ ऐसा मामला तो नहीं कि मैं तुझे दे दूं, कि यह ले जा, घुटी बना कर पी लेना। धर्म कुछ ऐसी चीज तो नहीं कि मैं एक किताब पकड़ा दूं कि ले, पढ़ते रहना।'
धर्म तो जीवन साधना है। समग्र जीवन, श्वास-श्वास जब अनुप्राणित होते हैं, तब कहीं क्रांति घटती है।
मगर यह सूत्र कीमती है--
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।।
पलटू कह रहे है: चूको मत, दोबारा मौका मिले न मिले। संभावना तो यही है कि शायद ही मिले। बहुरि न ऐसा दांव। अगर सदगुरु मिल जाए तो लुट जाओ। अगर सत्य के मिलने की कोई संभावना हो तो सब गंवाने को राजी हो जाओ। तुम्हारे पास है भी क्या गंवाने को? क्या बचा रहे हो?
बहुरि न ऐसा दांव! कौन जाने फिर तुम मनुष्य हो सको दोबारा, न हो सको। कौन जाने मनुष्य भी हो जाओ तो कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट मिले न मिले। कौन जाने क्राइस्ट, बुद्ध, कृष्ण मिल भी जाएं तो तुम समझ पाओ, न समझ पाओ, बात मन को आकर्षित करे न करे। क्या पता! आज चूक रहे हो, कल का भरोसा क्या? जैसे आज चूक रहे हो वैसे ही कल भी चूकोगे, क्योंकि चूकने की आदत बन जाएगी।
लोगों की आदतें बन जाती हैं, भाषाएं बन जाती हैं, देखने-सोचने के ढंग सुनिश्चित हो जाते हैं।
एक पुलिस इंस्पेक्टर एक जेबकतरा से कह रहा था: "जेब काटते हुए तुम्हें कभी शर्म नहीं आती?'
जेबकतरा ने कहा: "आती है साहब, जरूर आती है। तब किसी यात्री की जेब में एक रुपया भी नहीं मिलता तो बहुत शर्म आती है।'
अलग भाषाएं हैं, अलग सोचने के ढंग है। अब जेबकतरा को शर्म कब आती है? जेब काटने में नहीं, मगर जब एक पैसा भी नहीं मिलता। घंटों इसके पीछे चले, न मालूम कितने उपाय से इसकी जेब काटी। खोपड़ी ठोंक लेता है--क्या किस्मत है! किस मूरख के पीछे समय गंवाया!
एक चोर मुल्ला नसरुद्दीन के घर में घुसा। आधी रात, अंधेरे में। जैसे ही वह उसके घर में भीतर गया, अकेला नसरुद्दीन बिस्तर पर सोया था। वह तो भीतर गया नसरुद्दीन भी चुपचाप उठा और जा कर उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला कि भाई साहब, घबराओ न। मैं जरा मोमबत्ती जला लूं!
चोर बहुत घबराया। उसने कहा। "मोमबत्ती किसलिए जलाता होगा'
नसरुद्दीन ने कहा: "तुम बिलकुल चिंता न करो। मैं तीस साल से इस घर में रहता हूं, खोज खोज मर गया, कुछ नहीं मिला; हो सकता है तुम्हारा भाग्य से कुछ मिल जाए। आधा-आधा कर लेंगे।'
अब उस समय जरूर इस चोर ने सिर पीट लिया होगा कि कहां फंस गए! यह और कुछ झटक न ले!
ऐसे ही एक कहानी और है कि एक रात दूसरा चोर उसके घर में घुसा! कुछ नहीं मिला। नसरुद्दीन कंबल ओढ़े पड़ा था, जब अंदर गया चोर। जब बाहर आया तो उसने कंबल फर्श पर डाल दिया था। चोर ने कहा, चलो कुछ नहीं तो दूसरे घर से जो सामान चुरा कर लाया था वह उसने कंबल में बांध लिया और चल पड़ा। नसरुद्दीन उसके पीछे हो लिया। उसके पैरों की आवाज सुन कर थोड़ी देर बाद उस चोर ने कहा: "आप कौन हैं, मेरे पीछे क्यों आ रहे हैं?'
उसने कहा: "भई मैं कोई भी नहीं। मैं दुश्मन नहीं, दोस्त हूं। अपना वाला समझो। अभी-अभी तुम जिसके घर से आ रहे हो, वही हूं। उसी घर का मालिक हूं।'
"तुम किसलिए आ रहे हो?' चोर घबराया।
कहा: "मैं इसलिए आ रहा हूं, मैं मकान बदलने की बहुत दिन से सोच रहा था। अब यह एक ही कंबल था, तुम वह ले चले तो मैंने सोचा चलो मकान ही बदल लो। अब तुम्हारे साथ ही मैं भी चल रहा हूं। जहां कंबल रहेगा वहीं हम भी रहेंगे।'
चोर तो बहुत घबड़ाया। उसने कहा: -भैया तू अपना कंबल ले जा।'
नसरुद्दीन ने कहा: "अरे क्या बात है जी? मैं आ रहा हूं साथ। साथ ही साथ रहेंगे। यहीं कौन-से सुख भोग रहा हूं? सो जो दुख यहां भोग रहा हूं, वहां भोगूंगा। और तुम कमा कर लाओगे, करोगे तो कुछ न कुछ, भोजन वगैरह का भी इंतजाम रहेगा ही।'
चोर तो इतना घबड़ाया। उसने कहा: "तू अपना कंबल सम्हाल।' उसने कंबल तो सम्हाला ही सम्हाला। चारे ने कहा: "कम से कम वह सामान तो निकाल लेने दे भैया, जो दूसरे के घर का है।' वह उसका सामान भी ले चला जो दूसरे के घर का था। नसरुद्दीन ने कहा: "अगर ज्यादा तीन-पांच की तो वह शोरगुल मचाऊंगा कि छठी का दूध याद आ जाएगा।'
चोर बोला: "जा भैया, ले जा। जो तुझे करना हो कर।'
कभी ऐसी हालतों में जरूर दिक्कत हो जाती है, कठिनाई हो जाती है। नहीं तो चोरों की अपनी एक भाषा है!
एक महिला दूसरी महिला से कह रही थी कि बहन, जब मैं बोलते-बोलते थक जाती हूं, तब मेरे पति सेठ चंदूलाल को रेडियो सुनने बैठा देती हूं, ताकि उनके सुनने की आदत बनी रहे।
न्यायाधीश ने कहा: "आप मियां-बीबी के झगड़े को देखते हुए मेरी आपको यही सलाह है कि आप अपने पति को तलाक दे दीजिए।'
पत्नी ने कहा: "यह क्या कह रहे हैं आप? मैं और तलाक! मैं इसके बारे में कभी सोच भी नहीं सकती। साहब, आपको मालूम है मैंने अपने पति के साथ पच्चीस वर्ष बिताए हैं और आप यह चाहते हैं कि यह कम्बख्त मेरे बिना सुख-चैन और आराम से जीए! हर्गिज नहीं!'
लोग सुन भी ले तो भी समझ कहां पाते हैं! समझेंगे तो वही जो वे समझ सकते हैं। शब्द सुन लेंगे, लेकिन अर्थ कहां से आएंगे। चिल्लाते रहे पलटू--"बहुरि न ऐसा दांव!' फिर नहीं ऐसा दांव है। मत चूको। "नहीं फिर मानुष होना। क्या ताकै तू ठाढ़।' लेकिन कितने लोग हैं जिनका कुल धंधा इतना ही है तमाशबीन! जिनको कुल काम इतना है कुतूहल। जिनके जीवन में कुतूहल से गहरी कभी कोई चीज नहीं होती। जिज्ञासा भी नहीं, मुमुक्षा की तो बात ही मत पूछो।
ये तीन तल हैं--कुतूहल, जिज्ञासा, मुमुक्षा। दुनिया में सौ में से निन्यानबे प्रतिशत लोग कुतूहल से जीते हैं। रास्ते पर झगड़ा हो रहा है, फौरन भीड़ लग जाएगी। तुम किसलिए वहां खड़े हो? तुम वहां क्या कर रहे हो? दो आदमी लड़ रहे हैं, लड़ने दो। अगर कोई खड़ा न हो तो शायद वे लड़ें भी नहीं। मजा ही क्या आएगा लड़ने का, कोई देखने वाला तक नहीं! कौन हारा कौन जीता, कौन पिटा कौन कुटा--कुछ पता भी नहीं चलेगा। थोड़ा शोरगुल करके देख कर कोई नहीं आता, अपने-आप चले जाएंगे। लेकिन भीड़ खड़ी है और भीड़ बड़ी उत्सुकता से देख रही है कि अब हुआ कुछ, अब हुआ कुछ, अब होता ही है कुछ, मुफ्त का तमाशा कौन नहीं देखना चाहता! दुख तो तब होता है जब कुछ नहीं होता, कि दोनों चले जाते हैं बिना लड़ाई-झगड़ा किए।
लुई फिशर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं जब पहली दफा चीन गया, तो मैंने चीज के एक गांव में एक अजीब तमाशा देखा। स्टेशन पर उतरा, दो आदमियों में बड़ी तीन-पांच हो रही थी, बड़ी गाली-गलौज हो रही थी। ऐसा कि दौड़-दौड़ पड़ते थे एक-दूसरे के ऊपर कि अब गर्दन दबा देंगे, कि खोपड़ी खोल देंगे, लट्ठ उठ गए। और भीड़ खड़ी देख रही। यह इतनी देर चलता रहा कि लुई फिशर ने अपने दुभाषिए से पूछा कि माजरा क्या है, यह झगड़ा शुरू कब होगा? शोरगुल तो बड़ा बच रहा है, चिल्ल-पों तो बड़ी जोर से हो रही है, डंडा भी उठ जाता है, डंडा घूम भी जाता है; मगर न तो कोई किसी को मारता, न कोई किसी को चोट पहुंचाता। उस दुभाषिए ने कहा कि आपको मालूम नहीं है यहां का रिवाज। चीनी रिवाज यह है कि जो आदमी पहले मारेगा, वह हार गया। मतलब उसने अपना धैर्य खो दिया। सो ये एक-दूसरे को उकसा रहे हैं और भीड़ खड़ी यह देख रही है कि कौन हारता है। हारने का मतलब चीन में बिलकुल उल्टा। हारने का मतलब यह कि कौन पहले अपना धीरज खोता है। जैसी ही एक आदमी अपना धीरज खो देगा और दूसरे को मार बैठेगा, लोग कहेंगे। "गया काम से।' बस भीड़ छंट जाएगी कि हार गया।
मगर कुछ भी हो, चीन हो कि भारत हो, रिवाज कुछ भी हो, भीड़ इसलिए खड़ी होती है कि देख लें और जब कभी कुछ नहीं होता तो लोग इस उदासी में जाते हैं कि अरे बेकार समय गंवाया, नाहक खड़े रहे, कुछ भी न हुआ! हो जाते दो-दो हाथ, खिंच जाते लट्ठ, थोड़ा जिंदगी में मजा आ जाता! खून में थोड़ी गति आ जाती। थोड़ी हृदय में धड़कन आ जाती। थोड़ा मुर्दापन कम हो जाता। कुतूहल, सिर्फ कुतूहल
यहां भी लोग आ जाते हैं बहुत कुतूहल से कि क्या हो रहा है, क्या माजरा है, क्या मामला है? कुछ लोग, निन्यानबे प्रतिशत है इनकी संख्या, कुतूहल से जीते हैं। ऐसे व्यक्तियों को तो पलटू की बात समझ में नहीं आएगी। दांव वगैरह उन्हें लगाना नहीं।
तुमने देखा कहीं लोग शतरंज खेल रहे हो, चार आदमी आदमी खेलते हैं और दस-पंद्रह का घेरा खड़ा हो कर देखता है। शतरंज के नकली घोड़ा हाथी, शतरंज सब नकली खेल है, राजा वजीर सब नकली हैं। खेल कोई और रहा है और दस-पंद्रह आदमी अपना हजार काम छोड़ कर खड़े हैं, देख रहे हैं कि क्या हो रहा है! एक आदमी मछली मार रहा था। तीन घंटे से मुल्ला नसरुद्दीन उसके पीछे खड़ा देख रहा था। आखिर मुल्ला उससे बोला कि तीन घंटे खराब किए, तुमने एक मछली न पकड़ी। उसने कहा: भैया, मैंने मछली पकड़ी या नहीं पकड़ी, तुम क्या कर रहे हो यहां? तीन घंटे मेरे खराब गए, मैंने मछली नहीं पकड़ा। और तुम सिर्फ मुझको देख रहे हो! तुम घर क्यों नहीं जाते?
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं इस कुतूहल में खड़ा हूं कि देखूं यह आदमी पकड़ पाता है कि नहीं! अब यह पकड़ भी लेगा तो तुम्हें क्या सार है? और नहीं पकड़ा तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है? मगर उस आदमी को दोष दे रहा है कि तीन घंटे तेरे बेकार गए, एक मछली नहीं पकड़ी। और तीन घंटे से खुद खड़ा देख रहा है। अपने तीन घंटे बेकार गए, इसकी उसको फिक्र नहीं है।
दुनिया में तमाशबीनी बढ़ती चली गयी है। इतनी बढ़ गयी है कि अब हर चीज में तमाशबीनी है। तुम प्रेम नहीं करते; जब प्रेम वगैरह का खयाल उठता है, फिल्म देख आए। अरे जब दूसरे पेशेवर प्रेम करने वाले मौजूद हैं, जो तुमसे अच्छे ढंग से कर सकते हैं, क्या-क्या लहजे से करते हैं, तो तुम काहे को मेहनत करो अलग से! फिल्म ही देख आए, मामला खत्म हो गया। कुश्ती लड़नी है, क्या अपने हाथ से लड़नी, क्यों डंड-बैठक लगाना सालों, और मुसीबत करो और पसीना झेलो और परेशानी उठाओ। अरे नागपंचमी के दिन लड़ने वाले लड़ेंगे, तुम जा कर देख आना!
तुमको पूजा भी करनी हो तो तुम खुद नहीं करते। पुजारी करता है, तुम देख लेते हो। तुम्हें कुछ नहीं करना। तुम सिर्फ तमाशबीन हो। रेडियो सुन लेते हो, टेलीविजन देख लेते हो। लोगों का कुल धंधा इतना है कि दूसरे करें और वे देखते रहे। हर चीज में पेशेवर करने वाले हैं। और बाकी लोगों का काम सिर्फ देखना है। जैसे तुम इसीलिए पैदा हुए हो--तमाशबीनी के लिए।
जिंदगी में कुछ और गहरी खोज भी करो। कुतूहल को जिज्ञासा बनाओ। लेकिन जिज्ञासा बनते ही खतरा शुरू होता है। उसका मतलब,तुम्हें थोड़ा गहरे उतरना पड़ेगा, किनारे से नीचे उतरना पड़ेगा, पानी में उतरना पड़ेगा। कम से कम पैर भिगोने पड़ेंगे, कपड़े भी भीग सकते हैं।
और जो जिज्ञासा करेगा, वह आज नहीं कल मुमुक्षा भी करेगा। जिज्ञासा का अर्थ है: मैं सत्य को जानूं। और मुमुक्षा का अर्थ है: मैं सत्य हो जाऊं। क्योंकि जो जानने चलेगा, उसे एक दिन पता चलता है कि बिना हुए जाना ही नहीं जा सकता। जिज्ञासु को यह पता चलना शुरू हो जाता है धीरे-धीरे कि यह मामला तो होने का है, सिर्फ जानने का नहीं है। प्रेम को जानना है, प्रेम हो जाओ। और सत्य को जानना है, सत्य हो जाओ। ईश्वर को जानना है, ईश्वर हो जाओ। इसके सिवा कोई जानने का उपाय नहीं।
मुमुक्षा तक तो कभी कोई लाख में एक आदमी पहुंचता है। जो मुमुक्षा तक पहुंचता है उसी के लिए पलटू के वचन में आएंगे। या कम से कम जो जिज्ञासा तक पहुंचा हो, उसे थोड़-सी पलटू की झलक मिलेगी।
"बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताकै तू ठाढ़ हाथ से जाता सोना।।
जीवन कितना बहुमूल्य है! हाथ से सोना निकला जा रहा है और तुम खड़े देख रहे हो। बहुत देख चुके, अब कुछ जीओ, अनुभव करो। लोग रामायण पढ़ रहे हैं और रामलीला देख रहे हैं। राम कब बनोगे? कृष्णलीला देख रहे हैं। कृष्ण कब बनोगे? बुद्ध की मूर्ति की पूजा कर रहे हैं, बुद्ध नहीं होना? बुद्धू ही रहना है।?
"क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।'
यह जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य है, क्यों कि इस एक-एक क्षण में तुम्हारे जीवन में क्रांति घट सकती है, तुम्हारे भीतर बुद्धत्व का अवतरण हो सकता है। तुम्हारे भीतर वही फूल खिल सकते हैं, जो बुद्ध चेतना में खिले। वही बांसुरी तुमसे बज सकती है, जो कृष्ण के ओठों पर बजी। वही घूंघर तुम्हारे पैरों में रुनझुन कर सकते हैं, जो मीरा के पैरों में बंधे। जहां इतना अभूतपूर्व कुछ हो सकता है, वहां तुम क्या कर रहे हो? ठीकरे जोड़ रहे हो! व्यर्थ के कचरे में उलझे हुए हो! राख छान रहे हो! जहां जीवन ज्योति बन सकता है--ऐसी ज्योति जो कभी न बुझे; ऐसी ज्योति कि जिस ज्योति से औरों की ज्योति भी जल जाए-- वहां तुम क्या कर रहे हो?
पलटू का वचन प्यारा है।
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या तर्क ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।।
लेकिन लोग मूर्च्छित हैं। लोग यूं जीए जा रहे हैं कि उन्हें होश ही नहीं है।
चंदूलाल ने अपनी पत्नी से कहा: "अरी सुनती हो, आज तो मैं अपना छाता ले जाना ही भूल गया था।'
पत्नी ने पूछा: "आपको कब पता चला?'
चंदूलाल ने सिर खुजाते हुए कहा: "अरे वह तो जब बारिश रुक गयी और छाता बंद करने के लिए मैंने अपना हाथ ऊपर उठाया, तब पता चला कि छाता तो है ही नहीं।'
तुम अपनी जिंदगी में ऐसे हजार मौके पाओगे, जब छाता नहीं है; इसका पता ही तब चलता है जब छाता बंद करके लिए हाथ उठाते हो। नहीं तो चले जा रहे हो, जैसे शराब पी रखी हो। होश में नहीं हो। होश में आओ! बहुरि न ऐसा दांव, हाथ से जाता सोना।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
साधु-महात्माओं व मुनि-महाराजों को आप गधों की उपाधि से विभूषित क्यों करते हैं? गधा शब्द से आपका क्या तात्पर्य है? समझाने की कृपा करें।

प्रश्नकर्ता ने अपना नाम नहीं लिखा है। पता नहीं किस गधे ने यह प्रश्न पूछा है। मालूम पड़ता है जरूर कोई गधा नाराज हो गया है। नाराज होना भी चाहिए, क्योंकि गधे इतने गये-बीते नहीं। मुझसे भूल तो हो गयी।
गधे तो बड़े शालीन होते हैं। गधों का मौन देखो। यूं कभी-कभी रेंक देते हैं, मगर रेंकने में भी बड़ी अटपटी वाणी है, जिसको सधुक्कड़ी भाषा कहते हैं, कि कोई समझने वाला ही समझे तो समझे। कुछ ऐसी गहरी पते की बात कहते हैं कि जो शब्दों में आती ही नहीं; शास्त्र जिसको कह-कह कर थक गए...। ऐसा कभी-कभी। नहीं तो यूं मौन रहते हैं।
और गधों के चेहरे देखो--कैसे उदासीन, कैसे विरक्त! न कोई लाग, न कोई लगाव। अनासक्त भाव से चले जा रहे हैं। और कुछ बोझा लाद दो--कुरान लाद दो, गीता लाद दो, वेद लाद दो--कोई किसी तरह की धार्मिक मतांधता नहीं। कुरान लादो तो ठीक, वेद लादो तो ठीक, गीता रख दो तो ठीक, तो ऐसा सर्व-धर्म-समन्वय...अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान! कुछ भेद-भाव नहीं करते, अद्वैतवादी हैं।
और गधे इतने गधे नहीं होते जितना कि आमतौर से लोग सोचते हैं। पता नहीं क्यों गधे बदनाम हो गए! कैसे बदनाम हो गए!
मुझे बचपन से ही गधों में रुचि रही। मेरे गांव में बहुत गधे थे--सभी जगह होते है। गधों की कहां कमी है? घोड़े तो मेरे गांव में बहुत कम थे; बस जितने तांगे थे, थोड़े से...। और बिलकुल मरियल घोड़े, गरीब गांव, गरीब तांगे, उनके गरीब घोड़े। किसी के ऊपर घाव बन गए हैं, हड्डी-हड्डी हो रहे हैं। खच्चर तो बिलकुल ही नहीं थे, क्योंकि खच्चर तो पहाड़ी इलाकों में काम आते हैं। वह कोई पहाड़ी इलाका न था।
मगर गधे काफी थे। अच्छे मस्त गधे थे!
और मुझे बचपन से ही गधों पर चढ़ने की धुन थी। शाम हुई कि मैं गधों की तलाश में निकला। और तभी मुझे पता चला कि गधे इतने गधे नहीं, जितना लोग समझते हैं। गधे मुझे पहचानने लगे। मुझे दूर से ही देख कर एकदम रेंकने, लगते, भागने लगते। मैं भी चकित हुआ। मैं पहले यही सोचता था कि गधे सच मैं गधे होते हैं। रात के अंधेरे में, जैसे मेरी बास भी उन्हें समझ में आने लगी। मैं कितना ही धीमे-धीमे उनके पास जाऊं...। दूसरे लोग निकल जाएं उनके बगल से, बराबर खड़े रहें। मैं उनके पास गया नहीं कि वे भागे। तब मुझे पता चला कि इतने गधे नहीं हैं। बड़े पहुंचे हुए सिद्ध हैं! अपनी मतलब की बात पहचान लेते थे, अब बाकी ऐरे-गैर नत्थू-खैरे निकल रहे हैं तो निकलने दो। इनसे क्या लेना-देना? जैसे ही उनको दिखा कि यह आ रहा है खतरनाक आदमी और उन्होंने रेंकना शुरू किया।
इसलिए मैंने कहा कि अभी गुजरात के गधों की मैं जनगणना कर रहा हूं। मेरे हाथ तो एक सूत्र लग गया। अब मैं सारे भारत के गधों की जनगणना कर लूंगा यहीं बैठे-बैठे, न कहीं गए न कहीं उठे। जब गुजरात के सब गधे रेंक चुके होंगे, तब में जाऊंगा कटक। फिर उड़ीसा के गधों की रेंक शुरू होगी। फिर चले कलकत्ता। अपना बिगड़ता क्या है? फिर बंगाली गधों की जांच-पड़ताल कर लेंगे। जितने भी गधा बाबू होंगे उनका पता लगा लेंगे। फिर चले बिहार। अरे न कहीं आना न जाना! मगर यूं बैठे-बैठे गधों की जनगणना तो हो ही जाएगी। अपने-आप गधे बोल देंगे। यह बचपन से ही मेरा उनसे नाता है। वे मुझे देख कर एकदम छड़कते हैं, एकदम भागते हैं।
तो गधे इतने तो गधे नहीं होते। इसलिए एक लिहाज से तो ठीक ही है। जिस गधे ने भी यह पूछा है, उससे मैं काफी मांगता हूं कि मुझे साधु-संतों को, मुनि-महात्माओं को गधा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि गधों ने बेचारों ने किसी का कभी कुछ नहीं बिगाड़ा। गधे बिलकुल निर्दोष हैं। इनके ऊपर कोई हिंदू-मुसलमान दंगे-फसाद का, मसजिद-मंदिर को जलाने का कोई आरोप नहीं कर सकता। मगर गधा शब्द का मेरा अर्थ भी समझ लो। उससे तुम्हें आसानी होगी। कम से कम मेरे संन्यासियों को आसानी होगी; कोई गधा पूछ ही बैठा तो तुमको आसानी रहेगी। कोई गधा पूछ बैठे तो उसको कहना कि है गधाराम जी...। राम तो लगा ही देना पीछे। राम लगाने से बड़ी बचत हो जाती है। जैसे ही किसी के नाम के पीछे राम लगा दो तो चित्त प्रसन्न हो जाता है उसका। तो कहना: हे गधाराम जी आपको नाराज वगैरह होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मेरा जो गधा शब्द का प्रयोग है, वह शार्ट फार्म है। ग अर्थात गंभीर और धा अर्थात धार्मिक। जो बहुत गंभीर रूप से धार्मिक है, उसको मैं गधा कहता हूं।
और गधों को बिगाड़ना मेरा धंधा है। धा को तो रहने देता हूं, ग को मिटाता हूं। गंभीरता मिटानी है। मस्ती लानी है। नृत्य लाना है। धार्मिकता तो अच्छी है। धा यानी मेधा, प्रतिभा। ग को मिटा देना है। ग मिटाने की कोशिश करेंगे, ताकि सिर्फ धा बचे, धार्मिकता बचे, मेधा बचे। अपने से जो भी सेवा बन सकेगी, करेंगे।
इसलिए गधों से मेरी प्रार्थना है, नाराज न होना। जिसकी सूरत पर सदा बारह बजे रहते हों और जो धर्म की बकवास करता फिरे--भावार्थ पंडित-पुरोहित, साधु-महात्मा संयमीत्तपस्वी, मुनि-मौलवी इत्यादि-इत्यादि। मेरा तात्पर्य कोई चौपाया गधे से नहीं था। उस बेचारे ने तो किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा। ये जो दोपाये गधे हैं, इन्होंने मनुष्य-जाति का बहुत अहित किया है। इनसे छुटकारे की आवश्यकता है।

अंतिम प्रश्न: भगवान,
इसे आप सामान्य अर्थों में स्तुति अथवा प्रशंसा न समझें। सच में ही यह मेरा भाव है कि आपकी अनुकंपा अपार है। जीवन मैं मैं पहली बार इस योग्य हुआ कि आपके निकट बैठे सकूं और सुन सकूं। आपने कहा कि मेरी आधी यात्रा पूरी हो गयी है। सदगुरु साहिब, मेरी शेष आधी यात्रा को पूरा होने में क्या अब और आठ वर्ष लगेंगे?

संत महाराज,
यह कहना कठिन है, क्योंकि तुमने पंजाबी ढंग की होशियारी की। अब जैसे "स्वभाव' है, वे भी पंजाबी हैं। सो हाथी तो निकल गया, पूंछ रह गयी। पूंछ नहीं निकल रही है। संत तो हैं ही अंट-शंट, इसलिए तो मैंने उनको संत नाम दिया है। पहुंचे हुए अंट-शंट हैं। इसने देखा कि कई पंजाबी फंस गए हैं; हाथी तो निकल जाता है, पूंछ अटक जाती है। सो इन्होंने पूंछ तो पहले निकाल दी, अब हाथी अटक गया है। अब पूंछ निकालने में आठ साल लगे; हाथी निकालने में कितने साल लगेंगे, मैं भी कैसे कहूं?
पर संत महाराज, तुम निकलने-विकलने की फिक्र छोड़ो। निकलना-विकलना कहां है? जहां हैं, वहीं काबा, वहीं काशी, कहां निकलना? पूंछ को भी भीतर कर लो। वैसे ही बरसात हो रही है बाहर। "स्वभाव' वगैरह को भीगने दो, तुम तो पूंछ भी भीतर कर लो। तुम बिलकुल फिक्र ही छोड़ो। अरे जब मैं चल पडूंगा बैकुंठ तो मुझे कोई सवारी की जरूरत तो पड?गी ही। और वहां कोई रॉल्सरॉयस तो जा नहीं सकती। संत की ही सवारी करने वाला हूं!
आज इतना ही।
पहला प्रवचन; दिनांक १ अगस्त, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें