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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-05

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
प्रवचन-पांचवां
पहला प्रश्न: भगवान,
आपने आचार्य तुलसी और मुनि नथमल पर अपने विचार व्यक्त किए। क्या इनकी साधना, आध्यात्मिक ज्ञान एवं अनुभव के विषय में भी बताने की अनुकंपा करेंगे? इनके साधना-स्थल बिलकुल सूने पड़े हैं। अभी जैन विश्व भारती लाडनूं देखने का अवसर मिला, सुजानगढ़ शिविर के समय। दो करोड़ की लागत से खड़ी संस्था में इमारतें तो बहुत हैं, लेकिन साधक बहुत ही कम। आचार्य तुलसी एवं मुनि नथमल दोनों वहां हैं, फिर भी कोई भीड़ साधकों की नहीं है। मुनि नथमल आपकी तरह शिविर भी लेने लगे हैं और उनके ध्वनि-मुद्रित प्रवचन भी तैयार होने लगे हैं। मुनि नथमल कहते हैं: "संगीत से ध्यान में गति एक सीमा से आगे नहीं होती है।' आचार्य तुलसी ने अपने शिष्यों को कहा है कि वे आपका साहित्य न पढ़ें। लेकिन जैन साधु एवं साध्वी मेरे यहां ठहरते हैं, आपकी पुस्तकें पढ़ते हैं व टेप सुनते हैं और वे आपसे प्रभावित हैं। फिर इनके आचार्य आपका क्यों विरोध करते हैं? कृपया समझाएं।

स्वामी धर्मतीर्थ,

धर्म की आत्मा संस्थाओं में नहीं होती, जीवंत व्यक्तियों में होती है। जब फूल खिलता है तो तितलियां अपने आप उसका रस पीने उड़ती चली आती हैं। मधुमक्खियां मीलों से खबर पा जाती हैं। भौंरे दूर-दूर से यात्रा पर निकल पड़ते हैं। मगर फूल खिलना चाहिए। फूल की जगह तुम प्लास्टिक के फूल रख दो, तो न तो मधुमक्खियां आएंगी, न तितलियां आएंगी, न भंवरे गुंजार करेंगे।
महावीर के पास दूर-दूर से साधक, अन्वेषक, मुमुक्षु इकट्ठे हुए थे; बुद्ध के पास इकट्ठे हुए थे। हजारों मील की यात्राएं करके लोग आए थे। यह गंध ऐसी है कि विश्व के कोने-कोने तक व्याप्त हो जाती है। लेकिन संस्थाओं में प्राण कहां! तुम दो करोड़ नहीं, पचास करोड़ की संस्था खड़ी कर लो। इमारतें ही होंगी।। और ठीक है इमारतें होंगी। तो कुछ काहिल, सुस्त, आलसी, जिन्हें कुछ नहीं करना है, वे जरूर साधक के नाम की ओट में वहां इकट्ठे भी हो जाएंगे। या कुछ नौकर-पेशा लोग, जिनके लिए वे संस्थाएं केवल रोजगारी का साधन हो जाएंगी, रोटी-रोजी कमाने का उपाय बन जाएंगी, वे इकट्ठे हो जाएंगे। साधक वहां नहीं मिलेगा।
तुम कहते हो: "बहुत थोड़े साधक वहां दिखाई पड़े।' जो तुम्हें दिखाई पड़े वे भी साधक नहीं है। वे भी वहां हैं, लेकिन साधना के लिए नहीं हैं।
मुझे एक शंकराचार्य ने आमंत्रित किया था। उनका सेक्रेटरी मुझे लेने आया, निमंत्रण देने आया। मैंने पूछा: "कितने दिन से उनके पास हो?' उसने कहा: "दो साल से उनके पास हूं।'
"क्या सीखा?'
उसने कहा: "सीखने के लिए उनके पास है ही कौन! उल्टे वे मुझसे सीख रहे हैं। मुझे तनख्वाह मिलती है, इसलिए वहां हूं।'
"दो साल पहले कहां थे?' मैंने पूछा।
कहा: "दो साल पहले आचार्य तुलसी के पास था। लेकिन वहां से यहां अब तनख्वाह ज्यादा मिलती है, तो यहां हूं। कल कहीं और तनख्वाह ज्यादा मिलेगी तो वहां पहुंच जाऊंगा।'
पहले वे तुलसी का प्रचार करते थे। जब पहली दफा मुझे मिले थे तो तुलसी के भक्त थे; तब वे जैन धर्म की बातें करते थे, तेरापंथ थे, तेरापंथ का गुणवान करते थे, तुलसी की स्तुति गाते थे। इस बार मिले तो सब बदल गया था। हिंदू धर्म की चर्चा थी, शंकराचार्य का गुणगान था। मैंने पूछा: "इतनी जल्दी सब बदल डाला?'
उसने कहा: "हमें लेना-देना क्या? जिसका नमक खाते हैं। उसकी बजाते हैं। कल कोई और हमें ज्यादा तनख्वाह देगा, हम वहां चले जाएंगे।'
जब यह कम्यून बनना शुरू हुआ, उनका पत्र यहां भी आया--उनका नाम है हरिभजन लाल शास्त्री--कि आपकी सेवा मैं आना चाहता हूं। बस आप अपने पास बुला लें। इतना ही है कि पत्नी बच्चे हैं, बूढ़े मां बाप हैं; इनके योग्य थोड़ी व्यवस्था मेरे लिए कर दें, तो बस अब आपका गुणगान गाऊं, आपकी स्तुति करूं और जीवन व्यतीत करूं।
मैंने उन्हें खबर करवायी कि यह जगह नहीं है जहां तुम जैसे मित्रों का कोई स्थान हो सके। यह पेशेवर लोगों की जगह नहीं है। यहां तो सत्यान्वेषी, सत्य की अभीप्सा से भरे हुए लोगों के लिए ही केवल निमंत्रण है। तुम तो रोटी के चाकर हो। जो दो रोटी फेंक देगा, उसके पास पूंछ हिलाने लगोगे। मुझसे तुम्हारा कोई संबंध न बन सकेगा।
फिर उनका पता ही नहीं चला। अगर सत्य की अभीप्सा पैदा हुई थी तो आना था और कहना था कि नहीं मैं नौकरी के लिए नहीं आना चाहता। अब वे किसी तीसरे संत के पास पहुंच गए हैं। अब जिस संत के पास हैं, उसको वे "राष्ट्रसंत' घोषित करते हैं।
पंडित, पुरोहित, शास्त्री--इस तरह के लोग इकट्ठे तुम्हें मिल जाएंगे। कुछ सीधे-सादे लोग भी मिल जाएंगे जिनको कुछ समझ नहीं कि साधना क्या है; जो परंपरागत रूप से जन्म से कुछ बातें सुनते रहे हैं और उनको मानने लगे हैं। क्योंकि जन्म से एक ही बात सिखायी गयी है: "विश्वास करो।' खोज की तो कोई कहता ही नहीं; खोज के पहले ही मान लो। अन्वेषण की यात्रा पर निकलने के लिए तो कोई आमंत्रण नहीं देता; चुपचाप स्वीकार करो, थोप लो अपने ऊपर, आरोपित कर लो। तो कोई जैन है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है--वे सब आरोपित लोग हैं।
फिर नाम बड़े-बड़े...इस देश में नाम बड़े-बड़े देने का तो बड़ा आकर्षण है। यहां छोटे-मोटे काम तो होते ही नहीं। किसी मुहल्ले में कवि-सम्मेलन होगा, मुहल्ले के कवि इकट्ठे हो गए--वे भी सब इकट्ठे नहीं होते क्योंकि उनमें भी दलबंदियां और गुटबंदियां होती हैं, झगड़े-झांसे होते हैं, मुकदमे चलते हैं--मगर नाम होगा: अखिल विश्व-सम्मेलन, अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन। तो नाम तो तुम्हारे हाथ में है जो देना हो दे दो।
एक सज्जन के पहले लड़के का नाम था: अंतर्रंजन। दूसरे लड़के का नाम था: संतरंजन। तीसरे लड़के का नाम था: पंतरंजन। अब चौथा लड़का पैदा हुआ तो बड़ी समस्या खड़ी हुई कि क्या नाम रखना। मुझसे पूछने लगे। मैंने कहा: दंतमंजन! अरे नाम तो तुम्हारे हाथ में है और दंतमंजन ज्यादा चलेगा। यह क्या लेना-देना इसको भीतर के प्रवेश से? दंतरंजन, दंतमंजन--ऐसा कुछ नाम रखो। यथार्थवादी होगा।
नाराज हो गये कि आप भी क्या बातें सुझाते हैं! कैसा नाम आप सुझाते हैं! अब मैं कुछ भी नाम रख लूं तो भी मैं यह दंतमंजन को नहीं भूल सकूंगा। यह मेरे खयाल में रहेगा ही, यह लड़का जब भी मुझे दिखाई पड़ेगा, मुझे दंतमंजन की याद आएगी।
तो मैंने कहा: जब भी दंतमंजन याद करो तो हमेशा खयाल रखना--बंदर छाप काला दंतमंजन।
नाम..."जैन विश्व भारती!' कितने जैन हैं? कुल पैंतीस लाख। वे भी केवल इस देश में। क्या विश्व में उनकी स्थिति है? मेरी एक छोटी-सी चुनौती को तो जैन मुनि--न आचार्य तुलसी, न आनंद ऋषि, न एलाचार्य विद्यानंद, न कोई और--स्वीकार करने को राजी है। मेरी छोटी सी चुनौती है कि तुम विश्व की बातें करते हो, एक गांव तो जैनों का बसा कर बता दो--सिर्फ एक गांव, जिसमें काम जैन करते हों। तभी तुम्हें हक होगा यह करने का कि यह समाज है।
समाज का अर्थ क्या होता है? कौन जैन चमार का काम करेगा? जूते जरूरी होंगे। और कौन जैन पाखाना साफ करेगा? और कौन जैन सड़क पर बुहारी लगाएगा? और कौन जैन छोटे-मोटे हजार काम हैं, जिनको राजी होगा? एक बस्ती जैन नहीं बसा सके पच्चीस सौ वर्षों में--एक गांव। विश्व की बातें कर रहे हो!
मैं जैनों को समाज नहीं कहता, न सभ्यता कता हूं, न संस्कृति कहता हूं। यह तो केवल एक विचारधारा मात्र है--और ऐसी विचारधारा, कोई जड़ें नहीं हैं। यह दूसरों की छाती पर बैठी विचारधारा है। खेतीबाड़ी भी जैन नहीं कर सकते, और तो और, क्योंकि उसमें हिंसा हो जाएगी। तो कैसे यह समाज है? ये तो हिंदुओं पर, मुसलमानों और ईसाइयों पर ही जी रहे हैं। कोई ईसाई नर्स का काम कर रही है महिला, कोई जैन महिला तो नर्स का काम करने को राजी हो! मवाद साफ करना, मरीजों का पाखाना साफ करना..."छिः छिः! कहां के भ्रष्ट कार्य, मलेच्छ कार्य! नरक जाएंगे ये सब!'
यह बड़ा मजा है। मलमूत्र करने वाले स्वर्ग जाएंगे और मलमूत्र की सफाई करने वाले मलेच्छ नरक जाएंगे। यह कौन-सा तर्क है, कौन-सा गणित है? सफाई करने वाले स्वर्ग जाएंगे, गंदगी करने वाले नरक जाएं तो समझ में आता है। जो सफाई कर रहे हैं इनको नरक भेजोगे! तो अगर जैनों को कोई स्वर्ग भी होगा तो वहां कौन सफाई करेगा?
इस छोटी सी चुनौती को मैं दस साल से दोहरा रहा हूं, कोई जैन मुनि हिम्मत करके स्वीकार नहीं कर सका। और उनकी छाती फटी जा रही है, क्योंकि मैं एक कम्यून बनाने के लिए तैयारी दिखा रहा हूं। तो कम्यून बन न सके इसके लिए हजार तरह की बाधाएं डाली जा रही हैं। क्योंकि जो चुनौती मैंने दी है, तो पूरी कर नहीं पाए; लेकिन मैं पूरी करके दिखा सकता हूं। कोई अड़चन नहीं है। आज इस छोटे-से कम्यून में जूते बनाने वाले संन्यासी हैं; वे उतने ही सम्मानित हैं जितना कोई और। पाखाना साफ करने वाले संन्यासी हैं; कोई उनको भंगी नहीं कहता, न हरिजन कहता। अच्छे-अच्छे नाम रखने से कुछ होता है, कि भंगी को हरिजन कह दिया, कि चमार को हरिजन कह दिया! नाम का हमें बड़ा आग्रह है! अच्छा-सा नाम लिख दिया कि बात सब ठीक हो गयी। मगर काम तो वही है, मुसीबत तो वही है। पहले शूद्र की, अछूत की स्त्री पर बलात्कार होता था; अब हरिजन की स्त्री पर बलात्कार होता है। बलात्कार जारी है। मगर हरिजन की स्त्री के साथ बलात्कार करना तो धार्मिक कृत्य समझा जाना चाहिए। हरिजन...तो नरसिंह मेहता ने कहा ही है: "पीर परायी जाने रे!' जो दूसरे की पीर जानता है, वही हरिजन है।
अच्छे-अच्छे शब्द गंदी से गंदी बातों पर थोप देते हैं और फिर सोचते हैं बात हल हो गयी।
जैनों की बड़ी इच्छा है विश्व धर्म बनने की। मगर एक बस्ती बसा नहीं सकते। विश्वविद्यालय बनाने हैं इन्हें। जैन जहां इकट्ठे होते हैं, इनके जहां सम्मेलन होते हैं, वहीं चर्चा होती है: जैन विश्वविद्यालय होना चाहिए--जैसे हिंदू विश्वविद्यालय काशी और मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़--ऐसा जैन विश्वविद्यालय होना चाहिए। मगर जैन विश्वविद्यालय में मेंढक कौन काटेगा, चिकित्साशास्त्र कौन पढ़ाएगा? उसके लिए अजैन बुलाने पड़ेंगे--वे जो कि नरक जाएंगे! बस जैन विश्व भारती! और कहां लाडनूं, जिसका नाम भी किसी ने कभी न सुना हो! एक छोटा-मोटा गांव, वहां जैन विश्व भारती! पैसा है जैनों के पास, सो दो करोड़ नहीं, वे पचास करोड़ लगा दें। मगर पैसे से दुनिया में सभी चीजें नहीं खरीदी जा सकतीं।
इस जगत में जो भी मूल्यवान है, वह सिर्फ प्रेम से मिलता है, पैसे से नहीं। प्रेम से पैसा भी मिल सकता है, लेकिन पैसे से प्रेम नहीं मिल सकता।
तुम पूछ रहे हो कि इनके साधना-स्थल बिलकुल सूने पड़े हैं। पड़े ही रहेंगे। ये मकान बना सकते हैं बेचारे, साधक कहां से लाएंगे? इमारतें खड़ी कर लेंगे, उसमें कुछ अड़चन नहीं है। तीर्थ बना लेंगे, मगर तीर्थंकर न हो तो कैसा? यह जरा सोचो, बिना तीर्थंकर के तीर्थ नहीं होता। तीर्थंकर पहले, तीर्थ पीछे। सिद्ध पहले, फिर साधक आते हैं। सदगुरु पहले फिर, शिष्य का जन्म होता है। सदगुरु के गर्भ से ही शिष्य का जन्म होता है।
तो ये बेचारे थोथे कामों में लगे रहते  हैं। बस अहंकार को फैलाने के लिए कुछ न कुछ करना है तो करते हैं।
अब तुम पूछ रहे कि इनकी साधना, आध्यात्मिक ज्ञान एवं अनुभव के संबंध में कुछ कहूं। क्या खाक कहूं। कुछ हो तो कहूं! न इनकी कोई साधना है, न कोई आध्यात्मिक ज्ञान है, न कोई अनुभव है। कहने को कुछ भी नहीं है। कोरी किताबी जानकारी है। उसको अगर तुम आध्यात्मिक ज्ञान कहते हो तो तुम्हारी मर्जी। वह आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है। किताब तो कोई भी पढ़ ले। किताब पढ़ने में क्या अड़चन है? जिसको पढ़ना आता है वह पढ़ ले। न पढ़ना आता हो, किसी और से सुन ले। ब्रह्म की चर्चा सीख ले, अध्यात्म की बातें करने लगे। आत्मा परमात्मा का सैद्धांतिक ऊहापोह करने लगे। लेकिन इससे कुछ आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता। आध्यात्मिक ज्ञान तो स्वानुभव से ही होता है--जो अपने भीतर उतरे, अपने भीतर डूबे; जो अपने को पा ले, अपनी अंतर्ज्योति को जगा ले; जिसके भीतर छिपा हुआ कमल खिले, सुगंध उड़े; जिसके जीवन में ऐसा प्रकाश का उदय हो कि खुद ही आलोकित न हो जाए, जो उसके पास बैठे वह भी आलोकित हो उठे; जिसके भीतर ऐसा संगीत बजे कि जिन्होंने कभी संगीत नहीं जाना, उसके पास आ जाए तो उनकी हृदयतंत्री के तार भी झनझना उठें। और यह संगीत तो कुछ ऐसा संगीत है--वाद्यों से पैदा नहीं होता। बांसुरी ओंठ पर रखनी पड़ती और बजने लगती है। पैर में घूंघर बांधने नहीं पड़ते और बजने लगते हैं।
मैंने पैरों में पायल तो बांधी नहीं:
मैंने पैरों में पायल तो बांधी नहीं
क्यों सदा आ रही है झनन-झन झनन-झन झनन-झन
मैंने हाथों में कंगन तो पहना नहीं
पहना नहीं
मैंने हाथों में कंगन तो पहना नहीं
क्यों सदा आ रही है झनन झन झनन-झन झनन-झन
मैंने पैरों में पायल तो बांधी नहीं
न कोई आरजू न कोई आस है,
न कोई आरजू न कोई आस है,
मेरे दिल ये बात कैसा अहसास है
दिल में अनचाहा सा एक अरमान है
कुछ दिनों से यहीं दिल परीशान है
मैंने छेड़ी नहीं प्यार की रागिनी:
मैंने छेड़ी नहीं प्यार की रागिनी
क्यों सदा आ रही है झनन झन झनन-झन झनन-झन
मैंने पैरों में पायल तो बांधी नहीं
न कोई आरजू न कोई आस है
मेरे दिल ये बता यह कैसा अहसास है,
कोई देने लगा है सदायें मुझे
आ गई हैं कहां से अदाएं मुझे
कुछ दिनों से अजब आरजू जग उठी
गुदगुदाने लगी हैं हवाएं मुझे
मेरा आंचल तो बाहों के घेरे में है
मेरा आंचल तो बाहों के घेरे में है
क्यों सदा आ रही है झनन-झन झनन-झन झनन-झन
मैंने पैरों में पायल तो बांधी नहीं
न कोई आरजू न कोई आस है
मेरे दिल ये बता यह कैसा अहसास है
कुछ होना शुरू होता है जो अदृश्य है; जो पकड़ में नहीं आता साधारण इंद्रियों की, लेकिन फिर भी घटता है। रोआं रोआं तरंगित हो उठता है।
आध्यात्मिक ज्ञान एक अहसास है; ज्ञान नहीं, एक अनुभूति। बाहर के जगत का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। न शास्त्रों में है, न शब्दों में है--विपरीत, निःशब्द में है, शून्य में है।
मैं इन्हें जानता हूं--तुलसी को भी, नथमल को भी। इनके न मालूम कितने साधु मेरे पास आए, गए। अब तो उनकी हिम्मत टूट गयी, अब तो आने में भी डरते हैं। अब तो घबड़ाहट होती है, क्योंकि मेरे पास आना मतलब श्रावकों से दुश्मनी लेनी है। अभी कच्छ से जैन मुनियों की खबरें आनी शुरू हुई कि हम आपके पक्ष में हैं और वक्तव्य देना चाहते हैं, मगर फिर हमारे भविष्य का क्या होगा? क्योंकि हमने अगर इतना भी कहा कि हम आपके पक्ष में हैं तो जैन समाज हमें तत्क्षण निष्कासित कर देगा। हमें रोटी-पानी तक के लाले पड़ जाएंगे। तो हमारी मजबूरी है, हम चुप हैं। हम आपके पक्ष में कहना चाहते हैं, नहीं कह सकते; क्योंकि हमारे जीवन-मरण का भी यह सवाल है।
मैंने उन्हें खबर भिजवा दी कि तुम बेफिक्री से कहो। मेरे हजारों संन्यासी हैं, इनमें तुम भी सम्मिलित हो जाना। बस एक ही बात खयाल रखो कि यहां तुम अपने जैन ढांचे को न ला सकोगे। उतना भर तुम्हारा साहस हो तो अंगीकार हो, ये द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं। मगर तुम कहो कि हम यहां मुंहपट्टी बांध कर घूमेंगे, हमें बैठने के लिए अलग तख्त चाहिए, हम इस तरह का भोजन करेंगे उस तरह का भोजन करेंगे, यह भोजन किसने बनाया, इटालियन है कि फ्रेंच है कि ईसाई है कि हिंदू है, मैं तो सिर्फ जैन श्राविका के हाथ का भोजन लेंगे, कि हम तो इतने देर का लगा हुआ दूध पीएंगे, हम तो इतने दिन पुराना घी खाएंगे--अगर तुम ये झंझटें लाओ तो ये झंझटें अंगीकार नहीं कर सकता हूं। तुम आ जाओ, झंझटें बाहर छोड़ आओ। अगर तुम्हें मेरी बात प्रीतिकर लगती है और तुम्हारा मन हो रहा है कि तुम कहो स्पष्ट...।
अब तुम चकित होओगे जान कर, लक्ष्मी अभी लौटी कच्छ होकर तो मैंने पूछा कि क्या स्थिति है? उसने कहा वह चकित हुई है। चकित हुई यह बात जान कर कि अखबारों में इतना शोरगुल मचाया जा रहा है मेरे विरोध में, लेकिन कच्छ के लोग आंखें बिछाए बैठे हैं। लक्ष्मी केवल पंद्रह मिनट के लिए मांडवी गयी और एक हजार आदमी इकट्ठे हो गए और इन्होंने कहा कि शीघ्र आओ, जल्दी आओ देखें कौन रोकता है!
रोकने वाले, वक्तव्य देने वाले लोग कौन हैं? इनके निहित स्वार्थ हैं। और उन्होंने कहा कि तू आधा घंटा रुक जा तो हम दस हजार आदमी अभी इकट्ठे कर देते हैं स्वागत के लिए अभी! जब सारा आश्रम आएगा तब तो पूरा कच्छ हम इकट्ठा कर देंगे।
लेकिन ये वक्तव्य देने वाले लोग कौन हैं? कोई महंत, कोई संत, कोई पंडित, कोई पुजारी, कोई राजनेता, कोई जनसंघी, कोई मतांध हिंदू, कोई मतांध जैन, कोई मुनि, कोई आचार्य--इस तरह के लोग। और मजा यह है कि इनमें से भी कितने लोग वस्तुतः राजी हैं विरोध के लिए, यह भी साफ करना मुश्किल है। क्योंकि उनके अपने न्यस्त स्वार्थ हैं। वे डरे हुए हैं, घबड़ाए हुए हैं। क्या इनकी साधना, क्या इनका साहस? ऐसे कमजोर लोग! और इनकी पूजा चल रही है हजारों वर्षों से!
तुम पूछते हो इनकी साधना के संबंध में कुछ कहूं। इनकी कोई साधना नहीं है। मैं इसको साधना नहीं कहता कि एक बार भोजन कर लिया। मैं इसको साधना नहीं कहता कि चार ही कपड़े रखे। मैं इसको साधना नहीं कहता कि रात में न चले, कि प्रकाश न जलाया। ये सब बचकानी बातें हैं, इनसे जीवन रूपांतरण नहीं होता। साधना तो सिर्फ एक है और वह है अंतर्यात्रा; वह है ध्यान। और उसका इन्हें कोई भी पता नहीं है, दूर का भी पता नहीं है। इनके कानों में भी खबर नहीं पड़ी। वह झनन-झन की आवाज इन्हें सुनाई नहीं पड़ी है। तभी तो इस तरह की व्यर्थ की बातें ये कह सकते हैं।
तुमने पूछा धर्मतीर्थ कि नथमल कहते हैं: "संगीत से ध्यान में गति एक सीमा से आगे नहीं होती।' इन्हें क्या पता है संगीत का? इन्हें क्या पता है ध्यान का? इन्हें क्या पता है गति का? तो पागल थे वे जिन्होंने यह कहा कि समाधि की परम अवस्था में नाद का विस्फोट होता है? वस्तुतः संगीत का अनुभव ही समाधि में होता है, उसके पहले कभी होता ही नहीं। उसके पहले तुम जिसे संगीत कहते हो वह संगीत नहीं है, बस संगीत की दूर की प्रतिध्वनि है। बहुत दूर की प्रतिध्वनि। जैसे किसी पहाड़ी पर जा कर तुम आवाज लगाओ तो पहाड़ियों में से आवाज गूंजे। वह जो पहाड़ों से आवाज गूंज रही है, प्रतिध्वनि है, ध्वनि नहीं। ऐसे ही जब तुम सितार के तार छेड़ देते हो तो जो आवाज गूंजती है, वह प्रतिध्वनि है, ध्वनि नहीं, संगीत नहीं है। संगीत को तो सिर्फ थोड़े-से लोगों ने जाना है। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है: एक ओंकार सतनाम!
ओंकार उस परम संगीत का नाम है। वह तो सुना जाता है भीतर और सुना जाता है तब जब शून्य हो जाता है। जब एक विचार नहीं रह जाता, एक वासना नहीं रह जाती, मोक्ष की भी वासना नहीं, आवागमन से मुक्ति होने की भी वासना नहीं, बैकुंठ और स्वर्ग जाने की भी आकांक्षा नहीं--उस परम मौन के क्षण में, जब भीतर कोई हलन-चलन नहीं, जब सब थिर है, तब नाद का विस्फोट होता है। तब आदमी जानता है संगीत क्या है--ईश्वरीय संगीत! वही नाद-ब्रह्म है। उसी संगीत से सारी सृष्टि का सृजन हुआ है। वही संगती सघन हो कर अस्तित्व बना है। तुम उसी संगीत से निर्मित हो। तुम्हारे रोएं-रोएं में वह बज रहा है, मगर सुनने वाला नहीं है कोई तुम मूर्च्छित हो या अपने विचारों के शोरगुल में खोए हुए हो। बाजार भरा है तुम्हारे सिर में। फिर ये बाजार में तुम खाते बही का हिसाब कर रहे हो, कि कुंदकुंदाचार्य के समयसार का विचार कर रहे हो, कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण इनके शब्दों पर ऊहापोह कर रहे हो--इससे फर्क नहीं पड़ता। तम कंकड़-पत्थर के संबंध में सोच रहे कि हीरे--जवाहरातों के संबंध में, कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब तक सोच-विचार की प्रक्रिया जारी है, संगीत का कोई अनुभव नहीं होगा।
नथमल को क्या संगीत का अनुभव है जो ये कहें कि संगीत से ध्यान में गति एक सीमा से आगे नहीं होती? लेकिन इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातें कही जा सकती हैं, क्योंकि सुनने वाले कौन हैं, उनको क्या पता है? कुछ भी कहो, लोग सुन लेंगे। उन्हें भी पता नहीं है, तुम्हें भी पता नहीं है। अंधे अंधों को मार्गदर्शन दे रहे हैं।
तुमने पूछा है धर्मतीर्थ कि तुलसी ने अपने शिष्यों को कहा है कि वे आपका साहित्य न पढ़ें। क्या घबड़ाहट है मेरे साहित्य से? अगर मेरा साहित्य गलत है तो तुम्हारे शिष्य, तुम्हारे साधु, तुम्हारी साध्वियां, जो कि ध्यान में ऐसी पराकाष्ठा को पहुंचे हैं कि यह भी बता सकते हैं कि संगीत थोड़ी दूर तक साथ देता है, जिनका ऐसा आत्मसाक्षात्कार है, मेरा साहित्य उनका क्या बिगाड़ लेगा? क्या घबड़ाहट है? क्या डर है? डर यही है...पहला डर तो यह है कि मेरा साहित्य जो भी लोग पढ़ लेंगे, वे इनकी थोथी बातों में नहीं आएंगे। इनकी बातें उन्हें थोथी मालूम पड़ने लगेंगी, दो कौड़ी की मालूम पड़ने लगेंगी। यह घबड़ाहट है। और दूसरी और भी एक गहरी घबड़ाहट है कि ये जो बातें कह रहे हैं वे मेरा साहित्य पढ़ कर कह रहे हैं। तो अगर लोग भी मेरा साहित्य पढ़ें तो वे फौरन पहचान लेंगे कि अरे, आप तो वही बातें दोहरा रहे हैं तोतों की तरह; शब्द बदल लेते हैं, शास्त्रों के उद्धरण दे देते हैं, थोड़ा शास्त्रों का आसपास बागुड़ लगा देते हैं, मगर जो आप कह रहे हैं यह वही है। तो भी दिक्कत होगी। तो भी अड़चन होगी।
तो जो लोग मुझे पढ़ते हैं, उन्होंने निरंतर इन मुनियों से जा कर पूछा है कि आप जो कह रहे हैं, यह तो वही है।
मेरे एक संन्यासी, स्वराज्यानंद, जैन थे, वृद्ध जैन थे। और जैनियों में बहुत प्रख्यात, खासकर दिगंबर जैनियों में प्रख्यात कानजी स्वामी के पहले भक्त थे। कानजी स्वामी का दिगंबरों में प्रख्यात होने का कुल कारण इतना है कि वे पैदा हुए थे श्वेतांबर और फिर वे श्वेतांबर मार्ग को छोड़ कर दिगंबर हो गए। जब भी कोई आदमी किसी धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म में प्रवेश करता है तो दो कौड़ी का आदमी एकदम हीरा हो जाता है, क्योंकि उस धर्म के लोग बड़े आह्लादित होते हैं कि देखो फिर एक प्रमाण मिला कि हमारा धर्म ही ठीक है, दूसरा धर्म गलत था! तो श्वेतांबरों ने तो बहुत विरोध किया, लेकिन दिगंबरों ने बहुत सहायता दी।
स्वराज्यानंद भी दिगंबर थे। फिर मेरे संन्यासी हो गए, तो कानजी स्वामी को मेरे संन्यासी होने के बाद मिलने गए--सिर्फ यह निवेदन करने कि मुझे क्षमा करें, अब मैं और आपके साथ न चल सकूंगा। और कानजी स्वामी निरंतर मेरे खिलाफ उनको समझाते रहे थे; यह भी कहते रहे थे कि मेरी किताबें न पढ़ाए। उस दिन वे बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूर्व-सूचना दिए पहुंच गए। देखा कानजी स्वामी भी साधना पथ पढ़ रहे हैं! कानजी स्वामी भी घबड़ा गए। जल्दी किताब को उलट कर रख दिया, जिसमें उसका शीर्षक दिखाई न पड़े। मगर जो लोग मेरी साधना पथ से परिचित हैं वे तो उसके उल्टे हिस्से को भी जानते हैं। स्वराज्यानंद ने कहा; "क्या पढ़ रहे हैं आप?' तो छिपाना भी मुश्किल हो गया। कहा कि जरा देख रहा हूं कि यह व्यक्ति क्या कहता है जिसके कारण इतने लोग भ्रष्ट हो रहे हैं! मगर तुम इसे मत पढ़ना। इस व्यक्ति की किताब को छूना भी पाप है।
तो स्वराज्यानंद अब तो बिगड़ ही चुके थे, वे मेरे संन्यासी भी हो चुके थे। उन्होंने कहा: "मैं तो अब बिगड़ ही चुका और अब आपसे मेरा कोई लेना-देना भी नहीं रहा, गुरु-शिष्य का कोई संबंध भी नहीं रहा, अब आपसे दो बातें सच्ची-सच्ची हो जाएं, कि जब से मैंने उनकी किताबें पढ़ी हैं तब से मैं यह जान कर हैरान हुआ कि आप जो-जो समझाते रहे हैं वह उन्हीं की किताबों में से हैं; सिर्फ इतना है कि उसके लिए उद्धरण आप शास्त्रों में से देते हैं, वे सीधा कहते हैं। तुम शास्त्रों में लपेट कर उसी बात की गोलमोल करके पेश करते हो। और हम उनके शास्त्र को छुएं तो पाप और तुम उनकी किताब पढ़ो तो पुण्य! अभी यह किताब छुई, अब इसका पाप कौन भोगेगा?
कानजी तो बहुत हैरान हुए। कहा: "कैसी बातें कर रहे हो आज अटपटी?'
कहा: "अटपटी बातें नहीं कर रहा हूं, आज सच्ची-सच्ची बातें कर रहा हूं, जो मुझे पहले ही करनी थी लेकिन संकोचवश नहीं किया।'
तुम जान कर हैरान होओगे कि सारे जैन मुनि, इस देश में एक ऐसा जैन मुनि नहीं है जैन साध्वी नहीं है, जिसने मेरी किताबें न पढ़ी हो। उसे पढ़नी ही हैं।
चोरी से पढ़ता है, चोरी से बुला कर पढ़ता है, छिपा कर पढ़ता है। शास्त्रों में दबा लेता है, ऊपर से शास्त्रों के कवर चढ़ा लेता है। मगर यह कैसा अजीब वातावरण है जहां साधु इतना भी मुक्त नहीं है कि अध्ययन कर सके! साधना की तो बात दूर, अध्ययन-मनन करने को भी मुक्त नहीं है! यह साधु हुआ या परतंत्र हो गया, कैदी हो गया?
मैं तुमसे कहता हूं: ये कैदी हैं--ये तुम्हारे आचार्य, ये तुम्हारे मुनि, ये तुम्हारे महाराज, ये कैदी हैं। और कैदी हैं दो रोटी के। सस्ते में इन्होंने अपनी आत्मा बेची है। मगर इनकी अड़चन यह है कि अब जाएं तो जाएं कहां! प्रतिष्ठा, सम्मान, सत्कार, वह मिल ही इसलिए रहा है। और मेरी किताबें पढ़ने के लिए दो जरूरी बातें हैं, उनको पढ़नी इसलिए पड़ती हैं, क्योंकि बहुत-से मेरे लोग हैं, हजारों की संख्या में लोग मुझे पढ़ रहे हैं, वे जा कर सवाल खड़े करते हैं, उनके जवाब भी कहां से दें! और पढ़नी इसलिए भी पड़ती हैं कि उन्हीं को पढ़-पढ़ कर तो इनको रोज प्रवचन देने हैं, नहीं तो ये प्रवचन कहां से दें! इनके पास अपनी कोई पूंजी नहीं। इनके पास अपना कोई जलस्रोत नहीं, अपनी कोई अनुभूति नहीं। ये सब उधार जी रहे हैं। इतनी मूर्च्छित इनकी दशा है कि दयायोग्य है।
चंडूखाने में तीन अफीमची बैठे अफीम पी रहे थे। उनमें से एक बोला: "चलो आज एक खेल खेलते हैं। कुछ देर बाद हम तीनों में से एक उठ कर घर चला जाए, बाकी दो को यह पता लगाना होगा कि तीनों में से कौन-सा घर गया है?' अफीमची ऐसे खेल खेल सकते हैं। अफीमचियों की अपनी दुनिया है। वहां यही पता लगाना मुश्किल होता है कि कौन कौन है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन हज की यात्रा को गया। हाजी होने की बड़ी इच्छा थी। किस मुसलमान की नहीं होती! बड़ी भीड़भाड़ थी वहां। बमुश्किल ही धर्मशाला में जगह मिली, वह भी बहुत हाथ-पैर जोड़ कर। मगर मैनेजर ने कहा कि जगह तो देते हैं लेकिन एक अड़चन है: एक ही बिस्तर पर एक दूसरे आदमी के साथ सोना पड़ेगा। उसको भी मुफ्त जगह दी है, इसलिए वह अड़चन नहीं डाल सकता। लेकिन सोना पड़ेगा दोनों को एक ही बिस्तर में, जगह और है नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा:"यह तो बड़ी झंझट की बात है। मगर खैर कोई बात नहीं, कोई रास्ता निकाल लेंगे।' गया अपनी टोपी लगाए, जूता पहने, कपड़े पहने और लेटने लगा बिस्तर पर, तो वह दूसरा आदमी बोला कि भाईजान, वैसे ही दिक्कत होगी दो आदमियों के एक बिस्तर में सोने में, मगर मैं भी मुफ्त इसलिए कुछ कह सकता नहीं, नहीं तो वह मैनेजर निकाल करेगा, मगर आप कृपा करके टोपी, कोट, जूता तो कम से कम निकाल ही दें! नहीं तो कैसे आपके साथ सोऊंगा?
नसरुद्दीन ने कहा: "यह तुम बात ही मत उठाना। ये मैं उतार नहीं सकता, क्योंकि मैं ये उतार दूं तो सुबह मैं पहचानूंगा कैसे कि कौन कौन है! इन्हीं की वजह से तो मुझे पहचान रहती है कि यह मैं ही हूं। जब दर्पण के सामने खड़ा देखता हूं--वही टोपी, वही कोट, वही जूता, सब वही--तो मैं निश्चिंत रहता हूं कि मैं वही हूं।
वह आदमी को जरा मजाक सूझा कि यह आदमी तो बड़ा अजीब सा दिखता है। उसने कहा: "एक काम करो, इन सबको उतार दो। इस कमरे में पहले लोग ठहरे होंगे, उनका बच्चा रहा होगा, दिखता है फुग्गा छोड़ गया है एक। वह पड़ा है कोने में फुग्गा फूला हुआ। उसको हम तुम्हारी टांग में बांध देते हैं। सो सुबह तुम्हें जब टांग में फुग्गा बंधा हुआ मिले, समझ जाना यह तुम्हीं हो।
नसरुद्दीन ने कहा: "यह बात तुमने अच्छी बतायी, क्योंकि मैं भी दिक्कत में था कि टोपी, कोट, जूते पहने नींद कैसे आएगी! एक तो एक आदमी के साथ सोना, फिर ऊपर से सब कपड़े पहने सोना यह अच्छी तुमने तरकीब बतायी। सब उतार कर कपड़े...।'
और जब नसरुद्दीन ने कपड़े उतारे तो बिलकुल उतार दिए। दिगंबर हो कर पैर में फुग्गा बांध कर सो रहा। उस दूसरे आदमी को रात मजाक सूझा, उसने आंधी रात को उठ कर फुग्गा खोल कर अपने पैर में बांध लिया और सो रहा। सुबह नसरुद्दीन उठा, उसने क्या हूं हुल्लड़ मचाया! नंगधड़ंग भागा बाहर! भीड़ इकट्ठी कर ली और पूछने लगा कि बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी। मैनेजर को बुलाओ। अब कैसे तय हो? यह तो पक्का है कि नसरुद्दीन वह दूसरा आदमी है, जिसके पैर में फुग्गा बंधा है; लेकिन मैं कौन हूं, यह कुछ पता नहीं चल रहा। जिसके पैर में फुग्गा है वह नसरुद्दीन है, यह बात तय है; मगर फिर मैं कौन हूं?
तुम्हारी पहचानें भी बस इसी तरह की हैं। मुंह पर पट्टी बांध कर कोई आ गया--एकदम महाराज जैन मुनि आ रहे हैं। जरा मुंह पर से पट्टी निकाल लो, बात खत्म, खेल खत्म! बात गयी। मुंह-पट्टियां भी कई तरह की होती हैं। स्थानकवासी की अलग ढंग की होती है और तेरापंथी की अलग ढंग की होती है। किसी की चौड़ी किसी की संकरी। चौड़ी बांध लो तो गए, संकरी बांधी तो पहुंचे। दूसरे के हिसाब से संकरी बांधी तो गए, चौड़ी बांधी तो पहुंचे। क्या-क्या खेल बना रखा! क्या ऊलजलूल खेल बना रखे हैं! और इन खेलों को साधना समझा जा रहा है। ये सब मूर्च्छाएं हैं, और कुछ भी नहीं।
एक व्यक्ति चंडूखाने के पास से गुजर रहा था कि एक अफीमची बाहर निकला और उस व्यक्ति से पूछने लगा: "भाई, क्या बता सकते हैं इस समय टाइम क्या है?'
उस व्यक्ति ने कहा: "तीन बजे हैं।'
दोनों अलग-अलग दिशाओं में कुछ कदम चले कि अफीमची जोर से चिल्लाया कि रुको भाई रुको! यह तो बताओ कि आज आज है कि कल है? समय तो तीन बजा है, यह तो पक्का है, घड़ी मैं साफ है; मगर मेरी घड़ी में दिन का कैलेंडर नहीं है, तो मैं यह पूछना चाहता हूं कि आज आज है कि कल?
क्या आध्यात्मिक प्रश्न पूछा उसने भी! अब बैठे पंडित और विचार करें कि आज आज है कि कल है। मगर इसी तरह के ऊहापोह में पड़े हैं--सृष्टि को किसने बनाया, क्यों बनाया? पहले क्यों नहीं बनाया, उसी दिन क्यों बनाया? इतने दिन तक परमात्मा क्या करता रहा? फिर उसमें संसार को बनाने की वासना क्यों उठी।
जैनों को तो बड़ी दिक्कत है, क्योंकि परमात्मा में वासना नहीं होनी चाहिए। चूंकि परमात्मा में वासना नहीं होनी चाहिए, इसलिए जैन नहीं मानते कि परमात्मा से सृष्टि को बनाया। तो फिर सृष्टि कैसे बनी? अपने-आप बनी? अब उनको और झंझट खड़ी होती है कि अपने आप चीजें बन कैसे गयीं! अपने-आप एक घड़ी तो बन जाए। तुम रेगिस्तान में चले जा रहे हो और तुम्हें एक घड़ी पड़ी मिल जाए, क्या तुम सोच भी सकोगे कि यह अपने-आप बन गयी होगी पड़े-पड़े-पड़े-पड़े, रेते इस तरह होते-होते हजारों-लाखों सालों से घड़ी बन गयी होगी? कांटे बन गए होंगे, टाइम बताने लगी होगी, टिकटिकाने लगी होगी? अगर घड़ी नहीं बन सकती अपने आप तो इतना नाजुक जीवन कैसे निर्मित हो गया है? और कि सुव्यवस्था से चल रहा है!
फिर यह सृष्टि क्यों? प्रयोजन? लक्ष्य? फिर आत्माएं अगर बनी नहीं तो आयी कहां से? तो जैनों को एक सिद्धांत खोजना पड़ा: निगोद से आयीं। निगोद का अर्थ है: एक ऐसा अंधकार-लोक, जहां अनंत आत्माएं पड़ी हैं, फिर धीरे-धीरे निगोद से छूटती जाती हैं और संसार में आती जाती हैं। मगर निगोद कहां से आया? और निगोद में ये अनंत आत्माएं क्यों पड़ी हैं और कब से पड़ी हैं? और कुछ क्यों छूटती हैं? और अनंत पड़ी ही रहती हैं! अनंत तो रखनी ही पड़ेगी वहां, नहीं तो एक दिन धीरे धीरे निगोद खत्म! निगोद खत्म तो संसार खत्म! इधर संसार में लोग मोक्ष पाते जाएंगे धीरे-धीरे और निगोद से कोई, आएगा नहीं, बस्ती उजड़ती जाएगी, उजड़ती जाएगी।
फिर जैन मुनि क्या करेगा? फिर जैन शास्त्रों को क्या होगा? और फिर "विश्व जैन भारती' का क्या होगा? सब मामला ही गड़बड़ हो जाएगा। तो इधर मोक्ष है, अनंत आत्माएं मुक्त हो चुकी हूं अब जरा मजा देखना अनंत आत्माएं मुक्त हो चुकी हैं, मोक्ष मैं जा चुकी हैं! अब ये लौट नहीं सकती। और अनंत आत्माएं निगोद में पड़ी है, उनको मुक्त होना है। वे होती रहे मुक्त, कभी खतम नहीं होगी!
यह सारा खेल अफीमचियों की बकवास मालूम होता है। क्यों सीधे-सीधे स्वीकार नहीं करते कि हमें पता नहीं? क्या जरूरी है कि तुम्हें सब पता हो? और मैं तुमसे यह कहता हूं: आत्मज्ञान से इनका कोई संबंध नहीं। मुझे आत्मज्ञान हुआ, न मुझे निगोद का पता चला, न मुझे यह पता चला कि ईश्वर ने संसार बनाया, क्यों बनाया? स्वयं को जाना--एक परम संतुष्टि, एक परम आनंद, एक परम आलोक फैल गया! कुछ पूछने को न रहा, कुछ जानने को न रहा।
अगर इन फिजूल की बातों को ज्ञान समझा जाता है। अगर धर्मतीर्थ तुम पूछते हो ऐसी बातें, तो जरूर इन लोगों को बहुत आती हैं। वे तुम इन्हीं से पूछ लेना। मगर कोई इन्हें आध्यात्मिक अनुभव नहीं। आध्यात्मिक अनुभव तो इन सारी बातों से छुटकारा दिला देता है। ये सब अंधेरे में टटोलते हुए लोग हैं। और एक से एक कल्पनाएं कर रहे हैं। और एक से एक सुझाव दे रहे हैं। एक से एक समाधान खोज रहे हैं। और तुमसे कहता हूं: सिवाय समाधि के और कोई समाधान नहीं है। और जिसको समाधि उपलब्ध नहीं हुई, उसके सब समाधान बचकाने हैं, खतरनाक है; उससे सावधान रहना।
संथाल परगना आदिवासियों का क्षेत्र है। एक दिन इस क्षेत्र में एक बड़े नेता का आगमन हुआ। नेताजी लोगों को समझाने लगे: "हमारे देश की जनसंख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। आप लोगों को जानना चाहिए कि किसी न किसी स्थान में एक स्त्री हर मिनट पर एक संतान उत्पन्न कर रही है।'
भीड़ को चीर कर एक भोला सा व्यक्ति सामने आया और नेताजी से कहने लगा: " महाशय, क्यों न उस स्त्री को तुरंत मार दिया जाए।' एक बारगी में सफाया कर दो! क्या सरल तरकीब उसने निकाली! मगर बेचारा आदिवासी और क्या कर सकता है! वह यही समझा कि एक स्त्री किसी न किसी स्थान में हर एक बच्चे को जन्म दे रही है, वही उपद्रव का कारण है। उस स्त्री को क्यों नहीं खत्म कर देते? नाहक इतना संततिनियमन समझा रहे हो और इतना उपद्रव कर रहे हो, लोग भूखे मर रहे हैं! उस स्त्री को खत्म कर दो। बात तो उसने पते की कही। मगर अज्ञान में बस बात इस तरह की ही हो सकती है।
तुमने यह भी पूछा कि यद्यपि तुलसी कहते हैं कि आपका साहित्य कोई न पढ़े; लेकिन जैन साधु एवं साध्वी मेरे यहां ठहरते हैं तो आपकी पुस्तकें पढ़ते हैं, टेप सुनते हैं और आपसे प्रभावित हैं।
लेकिन ये बेचारे कैदी हैं। इनको सहायता दो। और जैसे ही हमारा बड़ा कम्यून निर्मित हो जाता है, इनको मुक्त करो। जितने जैन साधु-साध्वियों को, हिंदू संन्यासियों को, महंतों को संतों को, जितनों को मुक्त कर सकते हो मुक्त करो। ये सड़ रहे हैं। इनकी आत्मा के विपरीत ये वहां अटके हुई हैं। लेकिन कहां जाएं अब, क्या करें अब? संसार में लौटे तो अपमान होता है। वह ऐसा लगता है जैसे थूका और फिर चाटा। वह जरा बेहूदा लगता है। और लोग मजाक उड़ाएंगे कि अरे बड़े संन्यास लिए थे, बड़ा सब छोड़ कर चले गए थे, अब कैसे लौट आए? भूल गयी चौकड़ी? आ गयी अकेले? और हमें भी समझा रहे थे। खुद ने भी पूंछ कटा ली थी, हमारी भी कटवाने फिर रहे थे। अब कैसे वापिस लौटे? किस मुंह से वापिस लौटे?
हिंदुओं के कोई पचास-साठ लाख संन्यासी हैं भारत में। और मैं कितने लोगों को मिला हूं! बीस वर्षों की यात्राओं में हजारों संन्यासियों से मिला हूं। और सब पीड़ित हैं और परेशान हैं। छूटना चाहते हैं। संसार से छूट गए, कुछ पाया नहीं; अब ये संन्यास से छूटना चाहते हैं, मगर अब जाएं कहां? इनके लिए विकल्प मैं खोज रहा हूं। बस इतनी ही शर्त इनको समझा देना कि जब मेरे जगत में प्रवेश करो तो अपने संस्कारों को बाहर ही छोड़ आना। तुम्हारे संस्कारों को ले कर भीतर प्रवेश नहीं हो सकता है। तुम अगर अपने संस्कार छोड़ने को राजी हो तो मैं तुम्हें तुम्हारे कारागृह से मुक्त कर सकता हूं। मैं एक मुक्त आकाश दे सकता हूं, जहां तुम खिलो, फूलो; भूमि दे सकता हूं, जहां तुम्हारे बीज पड़े, जहां तुम्हारे जीवन में हरियाली आए; जहां तुम पहली बार अनुभव करो जीवन का अर्थ, गरिमा, गौरव; वहां तुम में भी चांद सितारे जुड़ जाएं!
और मेरे संन्यासियों को इस कार्य में लगना होगा, क्यों इन साधु-साध्वियों में कई भले लोग हैं, सीधे लोग हैं, अच्छे लोग हैं--जो इसीलिए उलझ गए हैं कि भले हैं सीधे-सादे हैं और जिन्होंने सोचा कि संसार में दुख है तो चलो आनंद की तलाश में। और आनंद की तलाश के नाम पर ऐसी जंजीरों में जकड़ गए हैं कि संसार से छूटना भी आसान था, अब इस संन्यास से छूटना मुश्किल पड़ रहा है उन्हें।
मैं संन्यास की एक नयी अवधारणा को जन्म दे रहा हूं, जिसमें संसार छोड़ना नहीं है, बल्कि संसार को जीने की एक नयी कला सीखनी है। यूं जीयो संसार में जैसे कमल जल में जीता है। रहे जल में और जल छुए भी नहीं। इसके अतिरिक्त संन्यास की सब धारणाएं व्यर्थ हैं।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
कल कुछ बेंगलोर के उद्योगपति आश्रम देखने परिवार सहित आए। उन्हें घूमकर आश्रम दिखाया। बाद में दूसरे दिन वे अकेले प्रवचन सुनने आए। मुझे देखते ही हाथ पकड़ कर कहा कि चलो आप भी प्रवचन सुनने। मैंने कहा, मैं बाद में आऊंगी। प्रवचन पूरा हुआ तो वे तुरंत आए और कहा कि मुझे किस चाहिए। मैंने बड़ी-बड़ी आंखें दिखा कर कहा: क्या कहा तो तुतलाए कि कैसेट चाहिए।

रंजन भारती,
ऋषि-मुनियों का यह देश है! यहां ऋषि-मुनि यही करते रहे सदियों से। यहां के सारे पुराण अनीति से भरे पड़े हैं, अश्लील हैं। यहां के सारे धर्म-ग्रंथ अशोभन हैं। और मजा तो यह है कि इन्हीं धर्मग्रंथों के आधार पर भारत अपनी सच्चरित्रता, अपनी धार्मिकता, अपने सदाचरण का ढोल पीटता है। और ढोल में बड़ी पोल है--ऊपर कुछ, भीतर कुछ।
इस तरह के लोग दया योग्य भी हैं, सजा योग्य भी। इस तरह के लोगों को देख कर हंसी भी आती है और रोना भी। और रंजन को तो इस तरह के लोगों से रोज मिलना होता है, क्योंकि उसका काम है लोगों को आश्रम दिखाना। रंजन मुझे अक्सर लिख कर भेजती है कि क्या किया जाए इन लोगों के साथ? आते तो हैं आश्रम देखने, अगर मौका मिल जाता है तो रंजन को धक्का ही दे देते हैं, च्यूंटी ही ले लेंगे। आए हैं आश्रम देखने। नेता हैं, शुद्ध खादीधारी हैं, गांधीटोपी लगाए हुए हैं, उद्योगपति हैं, धनपति हैं--आए हैं आश्रम देखने और रंजन को प्रेमपत्र भेजने लगेंगे।
दो बातें खयाल रखनी जरूरी हैं। एक तो भारत का चित्त बहुत दमित है। दमित है और इतना ईमानदार भी नहीं कि कह सके कि हम दमित हैं। दमित है और ऊपर से आवरण थोपा हुआ है कि बड़े सच्चरित्र हैं। स्त्रियों के प्रति भारत के मन में कोई सदभाव नहीं है, कभी नहीं रहा। छोटे-छोटे लोगों की छोड़ दो, बड़े बड़े लोगों को भी नहीं रहा। स्त्री तो पैर की जूती है! उसका जैसा चाहो वैसा उपयोग करो!
राम जैसा व्यक्ति ने भी युद्ध किया तो कोई भी सोचेगा कि युद्ध सीता के लिए किया। मगर तुम गलती में हो। बाल्मीकि रामायण में--जो कि ज्यादा प्रामाणिक है तुलसी से, क्योंकि पहले लिखी गयी...बाल्मीकि रामायण में, जब सीता को जीत लिया जाता है वापिस और राम सीता को अपने खेमे में ले आते हैं, रावण पराजित हो गया, समाप्त हो गया, तो जो पहले वचन राम ने कहे हैं, वे बड़े अभद्र हैं। वे इतने बेहूदे हैं कि हैरानी होती है कि राम से और ऐसे वचन कैसे निकलते होंगे! मगर निकले ही होंगे, क्योंकि बाल्मीकि जैसा भक्त राम का लिख रहा है, तो ठीक ही लिख रहा होगा। राम ने सीता से कहा कि "ऐ स्त्री' ऐ औरत, तू यह मत समझना कि यह युद्ध मैंने तेरे लिए किया है। यह युद्ध तो किया है कुल की मर्यादा के लिए। यह तो प्रतिष्ठा का सवाल था। तू तो सिर्फ बहाना था प्रतिष्ठा का।'
क्या अभद्र बात कही! स्त्री सिर्फ बहाना थी, असली सवाल था कुल-मर्यादा, वंश-परंपरा, प्रतिष्ठा राज्य की, सदियों-सदियों से पुरखों की! इस गरीब स्त्री से कुछ लेना-देना नहीं है। और फिर इस गरीब स्त्री पर जोर-जबरदस्ती डाली कि वह अग्नि से गुजरे, परीक्षा दे। लेकिन हमारे मापदंड हमेशा दोहरे रहे। राम में अगर थोड़ी भी मनुष्य के प्रति सम्मान की दृष्टि होती तो वे स्वयं भी आग से गुजरते, क्योंकि अगर कुछ वर्षों तक सीता रावण के खेमे में रही थी, अकेली रही थी, तो राम भी तो अकेले रहे थे। अगर सीता किसी पुरुष के साथ संबंधित हो सकती थी तो राम भी किसी स्त्री के साथ संबंधित हो सकते थे।
और मेरे एक मित्र, प्रोफेसर नावलेकर ने एक अदभुत किताब लिखी है: "ए न्यू एप्रोच टु रामायणा'। और उसमें यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि शबरी बूढ़ी औरत नहीं थी; सुंदर आदिवासी जवान स्त्री थी। और राम और उसके बीच लगाव था।
नावलेकर को बहुत गालियां पड़ी। किताब उनकी इस तरह छिप गयी कि कहीं पढ़ी ही नहीं गयी। छपी भी तो भी बिकी नहीं। कौन खरीदेगा ऐसी किताब! और नावलेकर ने बात बड़ी मेहनत की खोजी है और बड़े प्रमाणों से सिद्ध की है। मैं नहीं कहता कि सही है या गलत, लेकिन एक बात तो तय है कि तुम दोनों अलग-अलग रहे थे वर्षों तक, तो अगर सीता को अग्नि-परिक्षा से गुजार रहे हो तो वही नियम स्वयं पर भी लागू होना चाहिए। दोनों गुजर जाते साथ साथ, जो भांवर पड़ी थी साथ ही साथ, साथ ही साथ आग से गुजर जाते। मगर सीता आग से गुजरी, सीता की तो अग्नि-परीक्षा हुई और राम की कोई अग्नि-परीक्षा नहीं। हम कहते हैं: "पुरुष की बात ही और! मर्द बच्चा! स्त्रियों का क्या ठिकाना। स्त्रियों का क्या भरोसा! इनकी कोई इज्जत थोड़े ही है।'
हर स्त्री के प्रति हमारी दृष्टि ऐसी है जैसे वह वेश्या है। और अग्नि-परीक्षा के बाद भी राम ने जो दर्ुव्यवहार किया सीता के साथ, भारत में किसी ने उसकी निंदा नहीं की। फिर सीता का परित्याग कर दिया। एक धुब्बड़ के कहने से! और अग्नि-परीक्षा किसलिए ली थी फिर? मगर एक धोबी की औरत रात भर घर नहीं आयी और उसने सुबह कहा कि "तू यह मत समझना कि मैं राम जैसा हूं कि सालों सीता नदारद रही और फिर भी उसको स्वीकार कर लिया। मैं ऐसा नहीं हूं। ये घर के द्वार तेरे लिए बंद। तू कहां रही रात भर?'
बस इतनी बात काफी हो गयी।
अग्नि-परीक्षा के बाद भी सीता का परित्याग कर दिया--गर्भवती सीता को! उससे कहा भी नहीं। उसे झूठा धोखा दे कर जंगल में छुड़वा दिया। हमारा स्त्री के साथ बड़ा दर्ुव्यवहार रहा है।
पांचों पांडवों ने एक ही स्त्री को बांट लिया। दिन बांट लिए, जैसे स्त्री न हुई कोई सामान हुआ, कि आज तुम उपयोग कर लेना, कल मैं उपयोग कर लूंगा, परसों तीसरा उपयोग कर लेगा! स्त्री न हुई, यह तो वेश्या ही हो गयी फिर। पांच भाइयों ने हिसाब बांट लिया कि पांचों उपयोग कर लेंगे, ताकि भाइयों में कोई झगड़ा न खड़ा हो। यह दर्ुव्यवहार जारी रहा है।
एक ऋषि ने अपने बेटे को कहा कि जा कर मां की गर्दन काट आ, तो वह मां की गर्दन काट लाया। बाप की आज्ञा ज्यादा मूल्यवान है मां की गर्दन से! बड़ी हैरानी की बात है।
बाप बिलकुल आदमी की ईजाद है। मां प्राकृतिक है। एक जमाना था जब बाप नहीं होते थे और एक जमाना फिर आएगा जब बाप नहीं होगे। बाप संस्था है, लेकिन मां संस्था नहीं है। मां नौ महीने तुम्हें पेट में रखती है, फिर वर्षों तुम्हें बड़ा करती है। बाप का काम ही क्या है? एक इंजेक्शन कर सकता है वह काम जो बाप करता है। बस बाप की उतनी कीमत समझो जितनी इंजेक्शन के सिरिंज की होती है, इसमें ज्यादा नहीं। सिरिंज ने कह दिया कि मां की गर्दन काट आओ और चले! और मां की गर्दन काट आए! क्योंकि पुरुष की प्रतिष्ठा है। पुरुष की आज्ञा, पुरुष का बल! स्त्री की क्या कीमत है! वह तो पैर की जूती है! जैसा चाहो वैसा उसके साथ उपयोग करो!
ये अजीब लोग थे, मगर ये लोग इस दंश की आधारशिलाएं रख गए हैं और ये अजीब-अजीब बातें समझा गए हैं। पुरुष का पूरा का पूरा कब्जा स्त्री को दे गए हैं। इसको स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि स्त्रियों ने इनसे छुपे रास्तों से बदला लेना शुरू किया, जो कि अनिवार्य था। आखिर स्त्री की भीतर भी आत्मा है! तो भारत का जो दांपत्य-जीवन है, उसमें सुख नाममात्र को नहीं है।
मैं हजारों जोड़ों से परिचित हूं, लेकिन मुश्किल से दोत्तीन जोड़ों को मैं जानता हूं जिनके जीवन को मैं कह सकता हूं कि वहां सुख है। करोड़ों दंपतियों के जीवन में कोई सुख नहीं है। हालांकि हम कहते हैं: दांपत्य-सुख। कहना चाहिए: दांपत्य दुख। यह सुख शब्द बिलकुल झूठा है। अपवाद को नियम नहीं बनाना चाहिए। कभी संयोगवशात दो व्यक्तियों के बीच ऐसा संबंध बन जाता है--संयोगवशात। न तो ज्योतिषी मिला सकते हैं यह संबंध, न तारे मिल सकते हैं, न हाथ की रेखाएं मिला सकती हैं, न कोई भविष्यवाणियां मिला सकती हैं--बस संयोगवशात। क्योंकि हमने प्रेम को तो मूल से ही काट दिया है। इस प्रेम को काट देने का परिणाम यह हुआ कि वेश्या अनिवार्य हो गयी। पुरुष ने अपने लिए इंतजाम कर लिया कि वह वेश्या के पास जाने लगा। इधर सदगृहस्थ भी बना रहता है, वहां वेश्या को भी पैसा से खरीदता रहता है। लेकिन इस सबका अनिवार्य परिणाम जो होना था हुआ; वह यह हुआ कि स्त्री क्रोध से भर गयी और उसके क्रोध का हर जगह से विस्फोट होने लगा।
तूने लिखा रंजन कि ये बेंगलोर के उद्योगपति आश्रम देखने आए सपरिवार। सपरिवार आए तो तुझे धक्का नहीं दे पाए, तुझसे चुंबन नहीं मांग पाए, तेरा आलिंगन नहीं कर पाए, दूर-दूर रहे होंगे, बड़े भले संत-साधु मालूम हुए होंगे, क्योंकि पत्नी जो मौजूद थी। पत्नी की मौजूदगी में पुरुष बिलकुल पूछ दबाया हुआ कुत्ते जैसा हो जाता है। होना ही पड़ता है, क्योंकि पत्नी के साथ उसने जो दर्ुव्यवहार किया है, उसका एक ही बदला पत्नी ले सकती है कि उसको जहां मौका मिल जाए वहां इसकी गर्दन दबाए।
नसरुद्दीन चंदूलाल से कह रहा था: "अरे चंदूलाल, अरे उल्लू के पट्ठे, तो तू अपनी पत्नी को छोड़ कर भाग आया! अरे भगोड़े कहीं के! शर्म खा, चुल्लू भर पानी में डूब मर!'
चंदूलाल ने कहा कि नसरुद्दीन, मत ऐसी बातें करो, मत मुझे तीख चढ़ाओ, मत मुझे जोश दिलाओ। तुम मेरी पत्नी को नहीं जानते। अगर तुम मेरी पत्नी को जानते होते तो कभी तुम ऐसा न कहते। मैं भगोड़ा नहीं हूं, शरणार्थी हूं!
एक पुलिस अफसर एक स्त्री से कह रहा था: "देवीजी, हम आपके साहस की प्रशंसा करते हैं। आपने चोर पर हमला किया , वह भी अंधेरे में! और उसकी ऐसी ठुकाई-पिटाई की कि हड्डी-पसली तोड़ डाली!'
उस महिला ने कहा: "जी, बात ऐसी है कि मुझे मालूम नहीं था कि वह चोर है। अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ा। मैंने तो समझा कि मेरा पति है।'
सरहद पर एक कार रुकी। कस्टम-आफिसर ने पासपोर्ट तथा अन्य सामान चेक करने के बाद पूछा: "बड़े मियां, बाकी सब तो ठीक है, परंतु यह कैसे साबित होगा कि यह स्त्री आपकी पत्नी ही है?'
इस पर मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी को देखा और कस्टम-अधिकारी से बोला। "अगर आप यह साबित कर दें कि यह मेरी पत्नी नहीं है तो मैं आपको सौ रुपए इनाम देने को अभी राजी हूं। है माई का लाल जो साबित कर दे कि यह मेरी पत्नी नहीं है? उसी की तो मैं तलाश में घूम रहा हूं।'
पत्नियों से पति डरते हैं, कंपते हैं। कारण पत्नी नहीं है, कारण पति ही हैं। इन्होंने जो दर्ुव्यवहार किया है सदियों-सदियों से, उससे इनको कंपना ही पड़ता है। इनके कंपन में इनका दर्ुव्यवहार ही है।
ढब्बूजी चंदूलाल से कह रहे थे: "भाई, तुम अपनी पत्नी से लड़ा मत करो, क्योंकि पति-पत्नी गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहियों के समान होते हैं।'
चंदूलाल ने कहा: "यह बात तो ठीक है ढब्बूजी। परंतु जब एक पहिया ट्रैक्टर का हो और दूसरा साइकिल का, तो बताओ गाड़ी कैसे चले?'
मगर यही हालत हैं। तुम्हें पत्नी कैसे मिली, पति कैसे मिला? कोई मूर्ख पंडित। तुम्हारी जन्मपत्री देख कर हिसाब बिठाता है, कि तुम्हारे मां-बाप करते हैं--कौन-सा परिवार प्रतिष्ठित है, कहां से धन ज्यादा मिलेगा, कहां से दहेज ज्यादा  मिलेगा? कैसी-कैसी अजीब बातों से तय हो रहा है विवाह! फिर इस विवाह में प्रेम के फूल नहीं खिलते। नहीं प्रेम के फूल खिलते तो दमित वासना सब तरफ से बह निकलना चाहती है। तो गंदी किताबें लोग पड़ते हैं, अश्लील साहित्य पढ़ते हैं, अश्लील फिल्में देखते हैं। और जब मौका मिल जाए, जहां मौका मिल जाए। मंदिर जाते हैं, जाते हैं पूजा को, मगर वस्तुतः देते हैं धक्का स्त्रियों को। रामलीला देख रहे हैं, मगर रामलीला से इन्हें कोई मतलब नहीं है; वे अपनी लीला में संलग्न हैं।
जहां तुम देखो, पुरुष स्त्री के साथ दर्ुव्यवहार कर रहा है। लेकिन अभी भी हमें इतना होश नहीं कि हम इस सत्य को ठीक से समझ पाएं और इसकी मूल जड़ को पहचानें और मूल जड़ को काटें।
तो वे बेचारे...रंजन, उन पर दया करना, क्रोध मत करना। पत्नी को छोड़ कर दूसरे दिन आए होगे। देखा होगा, सुंदर युवती है रंजन...और यहां मेरे संन्यासियों में तो सुंदर ही सुंदर लोग हैं। सच तो यह है कि मेरा जो संन्यासी हुआ, संन्यासी होते ही सुंदर हो जाता है। आखिर मुक्ति सौंदर्य लाती है, प्रसाद लाती है, एक लावण्य लाती है, जीवन को एक नयी ऊर्जा देती है, एक नयी चमक, एक नयी दमक, एक नया गंध! भीतर कुछ दीया जलने लगता है, उसकी किरणें बाहर भी फूटने लगती हैं।
और फिर इस आश्रम के संबंध में जो अफवाहें उड़ायी गयी हैं, तो सोचा होगा उद्योगपति ने कि यह आश्रम में तो मुक्त जीवन-व्यवहार है, स्वच्छंद आचरण है, चलो रंजन से थोड़ा प्रेम प्रकट कर आएं! तो बेचारे आ गए। क्रोध मत करना उन पर। जब अब दोबारा तुमसे कोई किस मांगे, तो संत महाराज को किसलिए बिठा रखा है बाहर? फौरन संत को आवाज दिये कि इनको एक किस दो! और संत ऐसा पंजाबी किस देगा कि वे जीवन भर नहीं भूलेंगे, कि कम से कम उनकी हड्डियां चरमरा जाएं, दो-चार पसलियां टूट जाएं कि यहां से सीधे अस्पताल जाएं, और कहीं जा ही न सकें। और यहां तो आश्रम में कितने कराटे के जानकार हैं, समुराई हैं, अकीदो के पहचानने वाले हैं। अगर एक किस से उनकी तबीयत न मानती हो तो चार छः बुला लिए इकट्ठे कि चारों तरफ से किस दे दो इनको, हर दिशा से इनको ऐसा किस दो कि जीवन भर के लिए फिर कभी किस का इनको खयाल ही न उठे। जिसको अंग्रेजी में कहते हैं ने--किस आह डेथ! मृत्यु का चुंबन! इनको चखा ही दो। और इनको कहना कि आते-जाते रहें, ऐसा न करना कि अब न आओ; अगली बार आओगे तो और भी बड़ा किस दिलवाएंगे। तब तक हमारे संत डंड-बैठक लगा कर तैयार हो जाएंगे।
ये बेचारे लोग बचकाने हैं। इनके बाल धूप में पके हैं।
यही जज्बात हर एक दिल में भड़क सकते हैं
तेरे आंसू तेरी आंखों से टपक सकते हैं।
गम से लबरेज है दिल, अश्क से आंखें मामूर
ये भरे जाम किसी वक्त छलक सकते हैं।
बात कहनी हो अगर सख्त भी नरमी से कहो
लफ्ज कांटों की तरह दिल में खटक सकते हैं।
जगमगाने पर न इतराएं सितारों से कहो
रोशनी पाएं तो जर्रे भी चमक सकते हैं।
अक्ल की उम्र से निस्बत हो जरूरी तो नहीं
बाल फस्लों की तरह धूप में पक सकते हैं
कहिए अश्कों की जबां में गमे दिल आज "शमीम'
सूख सकता है गला, लफ्ज अटक सकते हैं।
तूने रंजन, उनका गला सुखा दिया। बोल रहे थे बेचारे किस और कहना पड़ा कैसेट। वैसे इससे एक लाभ हुआ। अब यह तू खयाल रख कि कैसेट बेचने की अच्छी तरकीब मिली। कोई न भी कहे किस, तो एकदम धमकी दे दी: "तूने किस कहा कि कैसेट?' और जोर से बोलेगी तो घबड़ाहट में कह ही देगा कि कैसेट। फौरन कैसेट बिकवा दिया। कोई किस कहे कि न कहे रंजन, मौका पा कर एकदम से पकड़ लिया कि "तुमने क्या कहा, किस कि कैसेट?' किस तो वह कह ही नहीं सकता कि अब पिटे, वह कहेगा ही कैसेट। विकल्प ज्यादा देना ही मत।
अगर जर्मनी तुम जाओ तो वहां का बैरा तुमसे पूछेगा: "चाय लेंगे? लेकिन जापान अगर जाओ तो जापान का बैरा पूछता कि चाय लेंगे; जापान का बैरा पूछता है। "चाय लेंगे या काफी?' तुम फर्क समझते हो, हो, मनोवैज्ञानिक रूप से बड़ा फर्क हो गया। जर्मनी मैं जब कोई पूछता है कि चाय लेंगे तो तुम चाहो तो नहीं कह सकते हो सीधा विकल्प यह है--हां या नहीं। अगर लेना है तो हां, नहीं लेना है तो नहीं। लेकिन जापानी बैरा ज्यादा मनोवैज्ञानिक बात पूछता है। वह यह पूछता है...वह हां या नहीं का तो मौका ही नहीं दे रहा है तुम्हें, इतना अवसर ही नहीं दे रहा है; वह कह रहा है कि चाय लेंगे या काफी? और अक्सर इस बात की संभावना है कि तुम या तो कहोगे चाय या काफी; तुम शायद ही इस बात को कह सकोगे कि मुझे कुछ नहीं लेना, मुझे लेना ही नहीं। नहीं तो वह मौका ही नहीं दे रहा है तुम्हें। वह तो सिर्फ विकल्प दे रहा है चाय और काफी का। और जर्मन बैरा तुम्हें विकल्प दे रहा है नहीं और हां का।
तो थोड़े मनोविज्ञान का उपयोग किए। वह तो अच्छी तरकीब तेरे हाथ लगी। और भी जितनी स्वागत कक्ष में महिलाएं हैं, उन सबको समझा दे कि जब भी मौका एकांत का मिल जाए, एकदम चिल्ला दिए कि तुमने क्या कहा: "किस कि कैसेट? और तू चकित होगी देख कर कि वे सभी कहेंगे: कैसेट! और तब उनको ले जाकर फौरन कैसेट बिकवा दिया। कम से कम कैसेट ही बिकेगा। और इनको, किस इन्होंने चाहे न भी चाहे हो, लेकिन भीतर तो मन रहा ही होगा कहने का। उसको भी चोट पड़ जाएगी। उसको भी अक्ल आ जाएगी।
मगर फिर भी ये दया योग्य लोग हैं, दीन-हीन लोग हैं। अब उद्योगपति हैं, क्या खाक उद्योगपति हैं! धन है, लेकिन क्या खाक धन है! अभी किस मांगते फिर रहे हैं--भिक्षापात्र लिए, भिखारियों की तरह! और क्या हो जाएगा, अगर किसी स्त्री ने इनको चुंबन भी दे दिया तो क्या मिल जाने वाला है? क्या पा जाएंगे? थोड़े से कीटाणु ओंठों से, एक ओंठों से दूसरे ओंठों पर चले जाएंगे? और किस ही देना हो तो फ्रेंच किस देना हमेशा। अगर किसी को देने का ही दिल हो जाए कि चलो दे ही दो बेचारे को, इतनी दूर से आया, बेंगलोर से आया, कोई ऋषि मुनि हो, कोई साधु-संत हो, कहां-कहां से तड़फत्तड़फ कर आया है, दे ही दो, तो फ्रेंच किस देना। क्योंकि जितने फ्रेंच किस में कीटाणु एक दूसरे से जाते हैं, उतने किसी से नहीं जाते लाखों की संख्या में। इतनी दूर से आया है, कुछ तो ले जाए।'
तुम जान कर हैरान होओगे, दुनिया में ऐसी कुछ कौमें हैं जहां चुंबन होता ही नहीं।
और जब पहली दफा इन आदिम जातियों को पता चला कि दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो चुंबन लेते हैं तो वे बहुत हंसे, बहुत खिलखिलाए कि यह भी हद हो गयी! गंदगी की भी हद हो गयी कि एक दूसरे के ओंठों से ओंठ रगड़ना, थूक से थूक रगड़ना! और यही नहीं, फ्रेंच किस में तो जीभ भी एक-दूसरे से रगड़ना! हद हो गयी, बेवकूफी की हद हो गयी।
तुम इनका काम देखोगे तो तुमको हंसी आएगी। मगर इनका काम ज्यादा सात्विक है। जब इनको प्रेम बहुत उमड़ आता है तो एक-दूसरे से नाक रगड़ते हैं। यह ज्यादा सात्विक है, हालांकि तुम्हें बहुत बेहूदा लगेगा कि ये क्या कर रहे हैं नालायकी कि एक-दूसरे से नाक रगड़ रहे! लेकिन यह ज्यादा सात्विक है, स्वास्थ्यप्रद है, चिकित्सा की दृष्टि से योग्य है क्योंकि नाक में कोई कीटाणु नहीं होते। और कोई एक-दूसरे की नाक में नाक थोड़े ही घुसेड़ दोगे, नाक से नाक रगड़ लो कि अपने घर गए। तुम अपने घर गए, वे अपने घर गए, खत्म हुआ मामला।
मगर चुंबन तो सच में ही रोगों का घर है। मगर वह जो-जो सवार हो जाएं, एक से एक वहम सवार हो जाते हैं। और जो संस्कार पकड़ जाएं। और वही वे लोग हैं, जो फिल्मों में चुंबन को न चलने देंगे कि वहीं हमारे बच्चे न बिगड़ जाएं। ये बिगड़े, इनके बाप बिगड़े, इनके बाप के बाप बिगड़े। खजुराहो के मंदिर कोई फिल्म देखने वालों ने बनाए थे। खजुराहो गए हो?? नहीं गए हो तो जाना चाहिए खजुराहो, पुरी, कोणार्क। इनके मंदिर देखने चाहिए। यहां जो-जो तुम्हें मूर्तियां देखने को मिलेगी, तुम भी चौंकोगे कि गजब कर दिया लोगों ने! तुमने सपने भी नहीं देखे होंगे ऐसे अंट-शंट, जैसे संतों ने ये मंदिर बनवाए। इसलिए मैं संतों को अंट-शंट कहता हूं। क्या क्या गजब के काम इन मंदिरों की मूर्तियों में हैं कि देख कर चकित हो जाओगे! फ्रायड भी आया होता तो वह भी शर्माता कि मैंने भी क्या किया कुछ खाक नहीं, इसके मुकाबले क्या रखा है! हैवलक एलिस भी अगर आया होता--जिसने कि काम शास्त्र पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं--तो वह भी सिर झुका कर खड़ा हो जाता, नमस्कार कर लेता इन ऋषियों को। ऋषि-मुनियों की संतान, महर्षि वात्स्यायन और पंडित कोका, इनकी संतानों ने क्या गजब कर दिया! ये सब पहले ही हरा चुके हैं हजारों साल पहले एलिस और फ्रायड और इन सबको, कई हजारों साल पले पानी पिला चुके हैं। क्या-क्या गजब की मूर्तियां हैं! कल्पना के बाहर। स्त्री शीर्षासन कर रही है, उसके साथ पुरुष संभोग कर रहा है। क्या गजब के ऋषि-मुनि थे! एक एक स्त्री के साथ दो दो तीन आदमी संभोग कर रहे हैं। क्या पहुंचे हुए लोग थे! इनको ही तो सिद्ध पुरुष कहा है--"नमो अरिहंताणं! नमो सिद्धाणं! नमो लोएसव्वसाहूणं!' ये ही तो सब साधु हैं जिनको नमस्कार करना चाहिए।
और मैं अगर सत्य कहता हूं तो आग लगती है। ये किन मूढ़ों ने सब किया है? और पंडित कोक ने जो किताबें लिखीं, कोकशास्त्र--यह भी शास्त्र है! और वात्स्यायन ने जो कामसूत्र लिखे, ये जरूर भारत की दमित वासना का प्रस्फुटन है। जैसे कि मवाद भरी हो शरीर में और फूट-फूट कर निकलने लगे।
इन पर दया करना। ये दया योग्य हैं। ये कष्ट में जी रहे हैं। ये रुग्ण लोग हैं।
एक महिला की एक अंगुली एक्सीडेंट में कट गयी। उसने बीस हजार रुपए हर्जाने का दावा किया। जज ने कहा: "बीस हजार रुपया, क्या कह रही है आप! बहुत ज्यादा होता है। एक अंगुली के कट जाने का बीस हजार रुपया!'
महिला बोली: "यह अंगुली असाधारण थी। इसके ऊपर ही मैं अपने पति को नचाती थी।
अब ये स्त्रियां पतियों को अंगुलियों पर नचा रही हैं। नाचना पड़ रहा है उनको नाचना पड़ रहा है इसलिए कि स्त्रियों को गुलाम बना कर रखा है, तो उसके बदले में कुछ चुकाना पड़ेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन चंदूलाल से पूछ रहा था: "जो व्यक्ति गलती करके मान ले, क्षमा मांग ले, उसे आप क्या कहेंगे?
चंदूलाल ने कहा: "अक्लमंद, शरीफ, नैतिक और भला आदमी।'
नसरुद्दीन ने कहा: "और जो गलती न करने पर भी उसे मान ले, वह कौन है?'
चंदूलाल ने कहा: "विवाहित पुरुष।'
यहां इस तरह के लोग आएंगे।
यह भारत पूरा का पूरा कामवासना से रुग्ण है, बहुत पीड़ित है। और बड़े वहमों में जी रहा है, बड़े भ्रमों में जी रहा है। और हम जो प्रयोग करने यहां इकट्ठे हुए हैं, वह प्रयोग इतना अनूठा है कि न इनकी समझ में आता है। क्योंकि उसको समझने के लिए भी यहां रुकते नहीं, बैठते नहीं। उसके विपरीत बोलते रहेंगे जगह-जगह क्योंकि विपरीत बोलने में प्रतिष्ठा है। लेकिन यहां आएंगे तो उनकी असलियत प्रकट होनी शुरू हो जाती है।
रोज भारत में बलात्कार हो रहे हैं, रोज, ऐसा एक दिन नहीं जाता जिस दिन अखबार में खबर न हो कि बलात्कार नहीं होते। और फिर भी यह भारत कहे चला जाता है कि हमारी पुण्य भूमि हैं, धर्म-भूमि हैं; हमारा कार्य यही है कि सारी दुनिया को कैसे धार्मिक बनाना! पहले तुम खुद तो धार्मिक हो जाओ। तुमसे ज्यादा रुग्ण और विक्षिप्त इस समय पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। पहले तुम तो स्वस्थ हो जाओ। फिर तुम औरों का स्वस्थ करने लगना।
लेकिन जब ये मैं बातें कहता हूं तो लोगों के प्राणों पर तीर चुभ जाते हैं, तो लगता है कि मैं उनके समाज का दुश्मन, सभ्यता का दुश्मन, संस्कृति का दुश्मन, धर्म का दुश्मन। और बात बिलकुल उल्टी है। दुश्मन वे हैं। मुझसे बड़ा कोई मित्र नहीं है संस्कृति और धर्म का! लेकिन मुझसे उन्हें खतरा मालूम होता है, क्योंकि मैं चीजों को उघाड़ कर रखना चाहता हूं, सत्य को जैसा है वैसा ही रखना चाहता हूं। सत्य को सत्य की भांति जान कर ही हम जीवन में कोई क्रांति कर सकते हैं।
इसलिए रंजन, ऐसे मौके बार-बार आएंगे। घबड़ाना मत। चिंता भी नहीं लेना। इससे तेरा आत्मबल बढ़ेगा। मेरे संन्यासी के ऊपर बहुत-सी झंझटें आने वाली हैं, तरहत्तरह की झंझटें आने वाली हैं। क्योंकि हमने यह तय किया है कि अंधों के बीच हम आंख वाले रहेंगे। हमने यह तय किया है कि  हम रुग्ण और विक्षिप्त लोगों के बीच अपने को रुग्ण और विक्षिप्त नहीं होने देंगे। हमने स्वस्थ होने की कसम खायी है। तो निश्चित ही उसके लिए हमें बहुत-सी मुसीबतें झेलनी पड़ेंगी। और बहुत कुछ दांव पर लगाना जरूरी है। मगर इस सबसे तुम्हारी आत्मा का जन्म होगा, तुम्हारे जीवन में क्रांति होगी। यही तुम्हारे जीवन में मोक्ष का द्वार बन जाएगा। इसलिए चिंता जरा भी नहीं है। चिंता लेना भी मत।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
मस्त करना है तो मुख से मुंह लगा दे साकी
तू पिलाएगा कहां तक मुझे पैमाने से।
पिछले कुछ दिनों से मुझे यूं महसूस होता है कि जिंदगी में बहार आने वाली है

दिनेश भारती,
"आने वाली है'? आ गयी है! तुम क्यों पीछे-पीछे घसिट रहे हो? तुम लंगड़ाते क्यों हो? "आने वाली है!'
यहां तो हम भविष्य में जीते ही नहीं। यहां तो वर्तमान ही एकमात्र अस्तित्व है। बहार आ गयी है! सकुचाओ मत, संकोच मत करो। खिलो!
और तुम कहते हो: "मस्त करना है तो मुंह से मुंह लगा दे साकी।' मैं तो लगाता हूं, तुम इधर उधर मोड़ लेते हो। मैं तो सुराही ही लग रहा हूं तुम्हारे मुंह से मैं तो खुद भी भरोसा नहीं करता...क्या छोटे-छोटे कुल्हड़ों में पिलाना! मैं तो खुद ही चाहता हूं कि तुम सुराही से पीओ। और सुराही भी क्या, तैयारी हो तो सागर से ही पीओ! लेकिन तुम ही मुंह मोड़ लेते हो। और अपने कसूर को मुझ पर थोप देते हो। जरा सोचो, जरा विचारो।
कहते हो मुझसे इश्क का अफसाना चाहिए
अफसाना चाहिए: कहते हो मुझसे इश्क का अफसाना चाहिए
रुसवाई होगी आपको शर्माना चाहिए
ऐ शर्माना चाहिए: रुसवाई होगी आपको शर्माना चाहिए
खुद्दार इतनी फितरते रिंदाना चाहिए
साकी ये खुद कहे: साकी ये खुद कहे कोई पैमाना चाहिए
साकी ये खुद कहे साकी ये खुद कहे कोई पैमाना चाहिए
खुद्दार इतनी फितरते-रिंदाना चाहिए
मिट्टी खराब करते हो तुम बीमारे हिज्र की
मिट्टी खराब करते हो तुम बीमारे हिज्र की
बीमारे हिज्र की...बीमारे हिज्र की...मिट्टी खराब करते हो
क्यों बीमार हिज्र की
जो तुम पर मर गया उसे दफनाना चाहिए
दफनाना चाहिए: जो तुम पर मर गया उसे दफनाना चाहिए
खुद्दार इतनी फितरते रिंदाना चाहिए
साकी ये खुद कोई कहे कोई पैमाना चाहिए
कहते हो मुझसे इश्क का अफसाना चाहिए
आंखों में दम रुका है किसी के लिए जरूर
किसी के लिए जरूर, किसी के लिए जरूर
आंखों में दम रुका है किसी के लिए जरूर
वरना मरीजे हिज्र को मर जाना चाहिए
खुद्दार इतनी फितरते रिंदाना चाहिए
साकी यह खुद कहे कोई पैमाना चाहिए
वादा अंधेरी रात मैं आने का था "कमर'
वादा अंधेरी रात मैं आने का था "कमर'
अब चांद छुप गया उन्हें आ जाना चाहिए
आ जाना चाहिए, अब चांद छुप गया: अब चांद छुप गया,
उन्हें आ जाना चाहिए
कहते हो मुझसे इश्क का अफसाना चाहिए
खुद्दार इतनी फितरते रिंदाना चाहिए
साकी ये खुद कहे कोई पैमाना चाहिए
तुम अपने भीतर पियक्कड़ की हैसियत पैदा करो। साकी यह खुद कहे कोई पैमाना चाहिए! मैं तुमसे कहूंगा कि यह लो सुराही। मगर तुम इतनी हिम्मत तो पैदा करो! सुराही को पचाने की हिम्मत तो पैदा करो। तुम प्रेम तो मांगते हो, मगर प्रेम को लेने की पात्रता तो पैदा करो।
"कहते हो मुझसे इश्क का अफसाना चाहिए।' और मैं तुम्हें दे क्या रहा हूं? मेरे पास देने को कुछ है भी नहीं। प्रेम है। प्रेम की शराब है। और कुल्हड़-कुल्हड़ पिलाने में मुझे भरोसा नहीं। तुम्हें डुबा देना चाहता हूं शराब में। "मगर खुद्दार इतनी फितरते रिंदाना चाहिए।' तुम डूबने को तैयार हो।
योग तीर्थ ने मुझे एक पत्र लिखा और लिखा है कि मैं अहमदाबाद में श्री पूनमचंद भाई के घर मेहमान था। उनके घर में अरविंद आश्रम की माताजी का चित्र एक कमरे में लगा हुआ है। मैं ध्यान करने वहां बैठा। चित्र से आवाज आयी: "मुक्त हो जाओ।' ऐसा मुझे अनुभव में हुआ। मैंने पूनमचंद भाई से पूछा, इसका क्या अर्थ है? तो उन्होंने कहा: इसी तरह की आवाज तसवीर से मुझे आयी थी--मुक्त हो जाओ। तो मैं तो तत्क्षण समझ गया कि संन्यास से मुक्त हो जाओ। सो मैं संन्यास से मुक्त हो गया। अब तुम भी संन्यास से मुक्त हो जाओ। क्योंकि मैं तुमसे कहता हूं कि भगवान डुबा तो सकते हैं, पार नहीं लगा सकते।'
योग तीर्थ ने मुझे पूछा है: "अब मैं क्या करूं!'
मैं तो कहूंगा भैया: मुक्त हो जाओ। मैं निश्चित ही डूबा सकता हूं, पार मैं लगा सकता नहीं। पार लगाने में मेरा भरोसा नहीं है, पर कहीं कोई है नहीं। जो डूब गया वही पहुंच गया। जो पार लगा वह फिर चूक गया। डूबना है, परमात्मा में डूबना है! परमात्मा का कोई किनारा है? मोक्ष का कोई किनारा है? निर्वाण का कोई किनारा है? यहां तो जो डूब जाए मझधार में उसी को किनारा मिलता है। मझधार ही साहिल है! मझधार ही किनारा है!
योग तीर्थ, तुम तो पूनमचंद की मानो। अहमदाबाद में बहुत अहमक हैं, मगर पूनमचंद पहुंचे हुए अहमक हैं! वह तसवीर वगैरह से आवाज नहीं आयी है। संन्यास ले कर वे मुश्किल में पड़े गए थे। उनकी पत्नी उनकी जान लिए ले रही थी और उनके मित्र उनकी जान लिए ले रहे थे और कमजोर आदमी है। अहमदाबादी तुम जानते ही हो--फुफ्फस! आत्मा वगैरह अहमदाबादियों में होती है, यह भी शक की बात है। ढोल ही ढोल। भीतर कुछ तलाशो, मिले ही नहीं।
आवाज आयी होगी पत्नी से, बताते हैं तसवीर से। और तुमको भी आवाज आयी, बड़ा ही अच्छा हुआ! यह तसवीर बड़ा काम कर रही है। मेरी नाव में जगह भी ज्यादा नहीं है। यह नाव मझधार में डूबने वाली है। इसमें जगह भी ज्यादा नहीं है। तुम खाली करो। तुम मुक्त हो जाओ। मेरी नाव में मुझे उनको ही ले जाना है जो डूबने को राजी हैं।
दिनेश, डूबने को राजी हो जाओ। मैं तो डुबाने को प्रतिपल तैयार हूं।

आज इतना ही।
पांचवां प्रवचन; दिनांक ५ अगस्त, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना




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