बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –ओशो
दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
सारे धर्म मेरे हैं-(प्रवचन-तीसरा)
पहला प्रश्न: भगवान,
आपने उस दिन हमारे पूज्य आचार्य श्री तुलसीदास को
भोंदूमल कहा तथा मुनि श्री नथमल को थोथूमल कहा तथा अन्य साधुओं को गधा कहा। जब आप
हमारे पूज्य मुनियों और साधुओं को ऐसी गालियां देते हैं तो आपका विरोध क्यों न हो? भगवान महावीर ने तो साधुओं, मुनियों, सिद्धों आचार्यों और उपाध्यायों को नमस्कार कहा है, जिसका
आपने महावीर-वाणी के एक प्रवचन में समर्थन भी किया है। फिर यह विरोधाभास क्यों?
हीरालाल जैन,
महावीर ने निश्चय ही अरिहंतों को, सिद्धों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को, साधुओं
को नमस्कार कहा है। लेकिन भोंदूमल या थोथूमल, इनमें से कोई
भी नहीं--न अरिहंत हैं, न सिद्ध हैं, न
आचार्य हैं, न उपाध्याय हैं, न साधु
हैं।
फिर भोंदूमल को भोंदूमल कहने में गाली कहां है? गुलाब को गुलाब कहने में गाली नहीं, तो गधे को गधे
कहने में गाली कैसे हो जाएगी? जो जैसा है उसको जैसा ही कहना
उचित है, उससे अन्यथा कहना असत्य है।
महावीर में भी कुगुरु, कुशास्त्र, कुदेव की भरपूर आलोचना की है, कठोर से कठोर आलोचना
की है। "कुदेव' उसे कहा है, जो
मनुष्य द्वारा कल्पित है, जो वस्तुतः है नहीं। तुम्हारे
हनुमान जी, गणेश जी और हजारों देवी-देवता, सब कुदेव हैं। ये तुम्हारी कल्पनाएं हैं, इनका कोई
वास्तविक अस्तित्व नहीं है। और कैसी-कैसी बचकानी कल्पनाएं हैं! और कैसी मूढ़ता कि
आदमी हो कर बंदरों को पूज रहे हो, कि आदमी हो कर हाथी की
सूंड़ वाले गणेश को पूज रहे हो और जय गणेश, जय गणेश कहते थकते
नहीं! शर्म भी नहीं आती, लज्जा भी नहीं लगती। विचार भी नहीं
उठता कि मैं क्या कर रहा हूं! काली को पूज रहे हो, बकरे काट
रहे हो। कलकत्ते की काली के सामने जितना खून बहा है, शायद
दुनिया में किसी मंदिर में नहीं बहा होगा। और उस खून से सरोबोर प्रसाद को पाने के लिए
पागलों की तरह दीवाने हो उठते हैं, ऐसी भीड़ लगती है! जरा-सा
प्रसाद मिल जाए, खून से सरोबोर, तो
जीवन धन्य हो गया! इनको महावीर ने कुदेव कहा है।
"कुशास्त्र' कहा है उन
शास्त्रों को जो ऐसे लोगों के द्वारा लिखे गए हैं, जिन्होंने
सत्य का कोई अनुभव नहीं किया है। जिन्होंने सत्य को नहीं जाना, वे सत्य के संबंध में जो कुछ भी कहेंगे-लिखेंगे, वह
झूठ होगा। सच तो यह है कि सत्य को जानने वाला भी सत्य को कहने में असमर्थ अनुभव
करता है अपने को। लाओत्सु ने कहा है: सत्य को कहा कि वह असत्य हुआ। क्योंकि शब्द
बहुत छोटे हैं और सत्य बहुत विराट। सत्य को जानने वाले सत्य को कहने में संकोच
अनुभव करते हैं। फिर उनकी तो गिनती कहां करोगे, जिन्होंने
जाना ही नहीं और कहते रहे हैं, कहते रहे हैं? उनको कुशास्त्र कहा है।
दुनिया में शास्त्र बहुत कम हैं; सौ शास्त्रों में
एकाध मुश्किल से। उस एकाध शास्त्र में भी अगर सौ श्लोक हो तो एकाध श्लोक सत्य
होगा। तुम जरा अपने वेदों को उठा कर देखो। सौ मैं निन्यानबे सूत्र धर्म से कोई
संबंध ही नहीं रखते--शुद्ध अधार्मिक हैं। कोई प्रार्थना कर रहा है इंद्र से कि
मेरे खेत में वर्षा ज्यादा कर देना और पड़ोसी के खेत में कम; मेरी
गायों के थन में दूध ज्यादा आ जाए और दुश्मनों की गायों के थनों का दूध सूख ही जाए;
कि हे प्रभु मुझे शत्रुओं पर विजय दिला और मेरे शत्रुओं को ऐसी मात
दिला कि उन्हें पाठ मिल जाए। इन सब बातों का धर्म से कोई संबंध हो सकता है?
तो महावीर ने वेदों की स्पष्ट आलोचना की, उन्हें
कुशास्त्र कहा है।
हिंदुओं ने जैनों का विरोध क्यों किया है? इसीलिए कि जैन वेद-विरोधी हैं। हिंदुओं ने जैनों के विरोध में हजारों साल
लगाए हैं, उसका कुल कारण इतना है कि जैन न तो हिंदू देवताओं
को मानते न हिंदू शास्त्रों को। और इन शास्त्रों को मानने वाले और इन देवताओं को
पूजने वालों को और पूजा करवाने वालों को कुगुरु कहा है। तो मैंने अगर किसी को
भोंदूमल और थोथूमल कहा, तो क्या चिंता कर रहे हो?
अरिहंत का अर्थ होता है, जो सत्य के साथ एक हो
गया। सत्य के साथ जो एक हो गया है, वह पूछेगा कि मैं ध्यान
कैसे करूं? और भोंदूमल ने यही मुझसे पूछा कि ध्यान कैसे
करूं। सत्य के साथ जो एक हो गया है, अब क्या ध्यान? स्वस्थ जो हो गया है, अब क्या औषधि?
अरिहंत परम अवस्था है भगवत्ता की।
ध्यान रहे, महावीर ने भगवान को कोई अस्तित्व नहीं माना है।
निश्चित ही जो भगवान को मानते हैं, उन सबको चोट पड़ी होगी;
जैसी चोट हीरालाल जैन को पड़ गयी। तिलमिला गए होंगे। महावीर को
नास्तिक कहा है हिंदुओं ने। और हिंदुओं की नास्तिक की व्याख्या यही है--जो वेद को
न माने, ईश्वर को न माने, अब और
नास्तिकता क्या होगा? हिंदुओं ने जैन धर्म को धर्म नहीं माना
है; धर्म को आड़ में नास्तिकता माना है। कारण? कारण स्पष्ट है। महावीर ने भगवत्ता स्वीकार की है, भगवान
को स्वीकार नहीं किया। और मैं उनसे राजी हूं।
यह अस्तित्व भगवत्ता से भरा हुआ है। भगवत्ता एक गुण है, व्यक्ति नहीं। फूलों की गंध में भगवत्ता है। यह वर्षा की बूंदाबांदी में
भगवत्ता है। कहीं सोयी है, कहीं जागी है। जब जाग जाती है तो
अरिहंत; जब सोयी होती है तो हमें पहचान में नहीं आती।
चट्टानों में भी भगवत्ता सोयी हुई है, क्योंकि उनमें भी जीवन
है। जहां जीवन है वहां भगवत्ता को संभावना है। लेकिन जिनमें जागी न हो और वे इस
तरह के दावे कर रहे हो कि जाग गयी है, उनको अगर भोंदूमल न
कहो तो और क्या कहो?
मुझसे एकांत मैं जैन मुनि मिलते हैं तो पूछते हैं कि आत्मा को कैसे
पहचाने और रोज सुबह-शाम आत्मा की ही चर्चा करते हैं।
एक धर्म-सभा में चंदन मुनि मुझसे पहले बोले। आत्मा की खूब शास्त्रीय व्याख्या की, लोगों को बड़ी उत्प्रेरणा दी आत्मज्ञान की। लेकिन उनकी प्रत्येक बात से लग
रहा था कि यह सब बात शास्त्रीय है, शाब्दिक है, तो जैसी है। उनकी आंखों में आत्मबोध की कोई झलक, उनके
शब्दों में आत्मभाव का कोई गीत, उनके उठने-बैठने में
आत्म-अनुभूति का कोई सौंदर्य, कुछ भी नहीं है। मैं उनके पीछे
बोला तो मैंने कहा कि अगर चंदन मुनि ईमानदार आदमी हैं तो उन्हें स्वीकार करना
चाहिए कि वे जो कह रहे हैं, सिर्फ कह रहे हैं, जाना नहीं है। बहुत तिलमिलाए। वहां तो स्वीकार न कर सके। लेकिन आदमी अच्छे
हैं, उनको मैं भोंदूमल नहीं कहूंगा। वे भी तेरापंथी साधु हैं,
उनको थोथूमल भी नहीं कहूंगा। थोड़े हिम्मतवर तो कम हैं, लेकिन दोपहर मुझे खबर भेजी कि मिलना चाहता हूं। और जब मैं उनसे मिला तो
उन्होंने कहा कि मुझे क्षमा करें, मैं वहां साहस न जुटा सका
कहने का। लेकिन मैं बेचैन रहा। यह बात मुझसे किसी ने कभी कही ही नहीं। और आपने यूं
कह दी छाती में तीर की तरह चुभ गयी! और जब तक मैं आपसे निवेदन न कर दूं सत्य का,
यह तीर चुभा रहेगा और प्राणों में मेरे पीड़ा होती रहेगी।
उनकी आंखों में आंसू थे और उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे आत्मा का कोई
भी पता नहीं। जो शास्त्रों में पढ़ा वही दोहराता हूं। आप मुझे बताएं, आत्मा को कैसे जाना जा सकता है।
इस व्यक्ति को मैं थोथूमल नहीं कहूंगा। इस व्यक्ति को भोंदूमल भी नहीं
कहूंगा। इस व्यक्ति को मैं मुमुक्षु कहूंगा, जिज्ञासु कहूंगा,
सत्य का खोजी कहूंगा। यह व्यक्ति साधक है, तो
कभी साधु हो सकता है। और साधु हो जाए तो अरिहंत होना भी दूर नहीं।
लेकिन आचार्य तुलसी को इतना ईमानदार नहीं मानता हूं। जो मेरा उनका
अनुभव आया, उसमें चालबाजी, राजनीति,
कूटनीति, वे सब तो मुझे दिखाई पड़ी बातें,
आत्मानुभव बिलकुल दिखाई नहीं पड़ा। और जो उन ने मुझसे पूछा, वे प्रश्न ही सूचक थे इस बात के। मैंने आज तक किसी से नहीं पूछा कि ध्यान
कैसे करूं, क्यों पूछूं? क्या जरूरत थी?
मैंने किसी से नहीं पूछा कि आत्मा को कैसे पाऊं। एक मैंने कस्त कर
ही लिया था कि अगर आत्मा मेरे भीतर है तो किसी से क्या पूछना है? खोजूंगा, तलाशूंगा, टटोलूंगा।
देर-अबेर मिलेगी ही मिलेगी। अगर मेरे ही भीतर है तो खोदता रहूंगा, खोदता रहूंगा। जो भी कीमत चुकानी होगी, चुका दूंगा।
पूछने का अर्थ ही यही है कि अभी कुछ पता नहीं है और ध्यान पर रोज बोल
रहे हैं, समाधि पर व्याख्यान चल रहे हैं। हजारों लोगों को
उत्प्रेरण दे रहे हैं। अनुशास्त्री है अणुव्रत के। सात सौ साधुओं के गुरु हैं।
पाया कुछ भी नहीं। अरिहंत होते तो मैं भी कहता कि जरूर उनको नमस्कार करना चाहिए।
ठीक कहा महावीर ने। "नमो अरिहंताणं! नमस्कार करता हूं अरिहंतों को।' लेकिन अरिहंतों को। महावीर ने कृष्ण को भी नमस्कार नहीं किया है, तो ये भोंदूमल को क्या नमस्कार करेंगे? जैन
शास्त्रों ने कृष्ण को नर्क में डाला है; भोंदूमल को कहां
डालूं, तुम बोलो। सातवें नर्क में डाला है, उसके आगे कोई नर्क नहीं। और थोड़े दिनों कि लिए नहीं डाला है; यह सृष्टि जब तक चलेगी, तब तक नर्क में वे रहेंगे।
इस सृष्टि के समाप्त होने पर, जब महाप्रलय होगी तभी नर्क से
मुक्त होंगे।
यह समझ में आने वाली बात है। जैनों को लगा कि जिस व्यक्ति ने महाभारत
का युद्ध करवाया, उस व्यक्ति की और क्या सजा हो सकती है? वे हिम्मतवर लोग थे, हिम्मतवर दिन थे। अब तो
लल्लो-चप्पो के दिन आ गए हैं। हर कोई हर किसी की चमचागिरी कर रहा है। एक-दूसरे की
चमचागिरी लोग कर रहे हैं। कोई सत्य बोलता नहीं। वे कहते हैं कि आप महान हैं;
दूसरा भी कहता है कि आप महान है: एक कहता है मैं आपके सामने कुछ भी
नहीं; दूसरा कहता है मैं आपके सामने कुछ भी नहीं। सभी लखनवी
हो गए हैं। शिष्टाचार चल रहा है; सत्य बोलने की हिम्मत नहीं।
महावीर को शिष्टाचार नहीं था, जिन्होंने यह हिम्मत की कि
कृष्ण को नर्क में डाल दिया। इनकी छाती को धन्यवाद देना होगा। यह कोई छोटा-मोटा
काम नहीं था। हिंदुओं के देश में, हिंदुओं के पूर्णावतार को
नर्क में डालना...मैं नहीं कहता कि यह ठीक है या गलत है; मैं
सिर्फ इतना कह रहा हूं कि महावीर को जो ठीक लगता था वह उन्होंने कहा। और यह कहने
का प्रत्येक व्यक्ति को हक है।
मैं तो जब आचार्य तुलसी को मिला तो जो बात मेरे मन में पहली बार उठी, वह यह थी कि यह आदमी निपट भोंदू है। जो बात मेरे मन में उठी, वह मुझे कहने का हक है। उनके मन में जो उठी हो वे कहें। उसमें मुझे कुछ
एतराज नहीं।
तुम पूछते हो: "आपका विरोध क्यों न हो?'
जरूर हो, जी भर कर हो। वही तो मैं चाहता हूं। मेरे अपने हिसाब
हैं। मेरे काम करने के अपने ढंग हैं। मैं तो चाहता हूं जितने विरोधी पैदा हो जाएं
उतना अच्छा है। यह सारा मुल्क एक ही चिंतना से भर जाए: या तो मरे पक्ष में,
या मेरे विपक्ष में। यह सारी पृथ्वी पर एक ही विभाजन की रेखा हो
जाए: या तो मेरे साथ, या मेरे खिलाफ। यही चाहता हूं, क्योंकि उससे चिंतन पैदा होगा, विचारणा पैदा होगी।
लोग मंथन करेंगे कि बात में क्या सच है और क्या झूठ है? आखिर
इतने लोग क्यों चिंतन कर रहे हैं? क्यों इतने लोग विरोध में
हैं, क्यों इतने लोग पक्ष में हैं? मैं
तो बांट देना चाहता हूं सारी दुनिया को।
तो जरूर हीरालाल जैन, खुशी से विरोध करो, जी भर कर विरोध करो। मुझे विरोध से कोई एतराज नहीं। मजा आ जाएगा! तुम
विरोध करोगे तो मैं कोई चुप रहने वाला हूं? तुम सुई उठाओगे
तो मैं तलवार उठाऊंगा। मुझे कुछ अड़चन नहीं है विरोध इत्यादि से। उसका मैं सामना कर
सकता हूं भलीभांति।
अरिहंतों को जरूर नमस्कार है। लेकिन महावीर ने बुद्ध को भी नमस्कार
नहीं किया है, कृष्ण को भी नमस्कार नहीं किया है, राम को भी नमस्कार नहीं किया है। इनमें से किसी को अरिहंत नहीं माना है।
और तुम सोचते हो कि आचार्य तुलसी और मुनि नथमल, ये अरिहंत
हैं? अरिहंत को अर्थ है: जो सत्य के साथ एक हो गया, भगवत्ता को उपलब्ध हो गया।
अरिहंत की ही समकोटि का व्यक्ति है: सिद्ध। इसलिए दूसरा सूत्र है:
"नमो सिद्धाणं। सिद्धों को नमस्कार'। अरिहंतों और सिद्धों
में थोड़ा-सा भेद है। अरिहंत वे हैं जिन्होंने जाना और जो जनाने में भी कुशल हैं;
जिन्होंने जीया और जो दूसरे को जीने के लिए अनुप्रेरित कर सकते हैं;
जो जागे और दूसरों को जगा सकते हैं। सिद्ध भी अरिहंत की अवस्था में
हैं; भेद इतना है कि वे स्वयं जाग गए लेकिन किसी को जगा नहीं
सकते। उन्होंने स्वयं जान लिया, रस पी लिया, मस्त हो गए। अब उन्हें कोई फिक्र नहीं। किसी को और रस पिलाने की।
कबीर ने कहा है: "हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार क्यों खोले!' यह सिद्ध की अवस्था है।
अब मिल गया हीरा, अपनी गांठ में गठियाया, अब बार-बार खोलो, कोई चुरा ले जाए, कोई झटक ले, कोई झंझट खड़ी हो। क्यों उसे बार-बार
खोलना? अलग-अलग प्रवृत्तियों के लोग हैं।
बुद्ध ने इस भेद को बोधिसत्व और अर्हत का भेद कहा है। जिसको महावीर ने
अरिहंत कहा है, उसको बुद्ध ने बोधिसत्त्व कहा है--जो दूसरों को भीतर
बुद्धत्व को जगाए। और जिसको महावीर ने सिद्ध कहा है, उसको
बुद्ध ने अर्हत कहा है--जो किसी और को जगाने की चिंता में नहीं पड़ता; जो जाग गया, बात पूरी हो गयी; यात्रा
समाप्त हो गयी, मंजिल पर आ गया, विश्राम
मिल गया। अब क्या करना है? उस पार निकल गया है, सब लौट कर नहीं आता पुकारने। पहुंच गया शिखर पर; अब
चिल्लाता नहीं घाटी में भटकते हुए लोगों के लिए।
ये व्यक्ति-व्यक्ति के भेद हैं। सिद्ध अंतर्मुखी होता है।
पश्चिम के बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने दो भेद किए हैं
मनुष्यों के बीच--अंतर्मुखी और बहिर्मुखी। सिद्ध अंतर्मुखी होता है। अर्हत
अंतर्मुखी होता है। उसने पा लिया, अपने भीतर बंद हो जाता है;
जैसे कि भौंरा कमल पर बैठ कर रस पीता है, सांझ
जब कमल बंद होता है तो भौंरा कमल के भीतर ही बंद हो जाता है। उड़ता भी नहीं,
पीता ही रहता है रस। कमल बंद हो जाता है, उसको
फिक्र भी नहीं है। ऐसा सिद्ध कमल के भीतर बंद भौंरा है। उसकी गुन-गुन भी तुम्हें
सुनाई न पड़ेगी। रस तो जी भर कर पी रहा है। डूबा हुआ है रस में।
लेकिन अरिहंत बहिर्मुखी व्यक्ति है। उसने जाना है, लेकिन जानने के साथ-साथ उसके भीतर एक प्रगाढ़ करुणा उठी है कि जो भटक रहे
हैं उन्हें भी राह सुझा दे।
न तो तुम्हारे भोंदूमल, थोथूमल अरिहंत हैं,
न सिद्ध हैं।
तीसरा सूत्र है: " नमो आयरियाणं। आचार्यों को नमस्कार।'
पहले दो व्यक्ति धर्म के जगत के हैं। दूसरे दो व्यक्ति आचार्य और
उपाध्याय नीति के जगत के व्यक्ति हैं। आचार्य का अर्थ है: जिसने सुना है अरिहंतों
से और उसको अपने आचरण में उतार रहा है। आचार्य शब्द का अर्थ ही यह होता है कि जो
उसको आचरण में उतार रहो है। सुना है अरिहंतों से। बैठा है अरिहंतों के पास। समझा
है उनसे जिन्होंने समझ लिया। और अब उसको अपने आचरण में उतार रहा है। अरिहंत आचरण
में नहीं उतारता। उसके भीतर तो दीया जलता है, वही उसका आचरण है।
सिद्ध आचरण में नहीं उतारता; उसके भीतर जो घटा है, वही उसके बाहर घटने लगता है।
आचार्य वह है जिसके भीतर को कुछ नहीं घटा है, लेकिन किसी अरिहंत के चरणों में झुका है, किसी सिद्ध
के पास बैठा है, किसी अरिहंत की गंध उसे मिली है। इतना उसे
सबूत हो गया है कि यह पारलौकिक जगत है। लेकिन यह प्रमाण अभी दूसरे से मिला है,
अपना अनुभव नहीं है। फिर भी वह इसे अपने आचरण में उतारने की कोशिश
कर रहा है। उसको आचार्य कहा है।
न तो तुम्हारे तुलसी किसी अरिहंत के पास बैठे हैं और न किसी सिद्ध के
पास बैठे हैं। इनको मैं आचार्य भी नहीं कह सकता हूं।
मेरी बातें को तुम ठीक साफ-साफ समझ लो। और जब समझ रहे हो तब क्रुद्ध
मत हो जाना, नहीं तो समझ नहीं पाओगे। इनको मैं आचार्य भी नहीं कह
सकता हूं। ये किसी अरिहंत के पास नहीं बैठे हैं, न किसी
सिद्ध के पास बैठे हैं। इन्होंने किसी सदगुरु का सत्संग नहीं किया है।
चौथी व्यवस्था है उपाध्याय की--"नमो उपज्झायाणं। उपाध्यायों को
नमस्कार करता हूं।' उपाध्याय और भी नीची कोटि है। यह तो सिद्धों के पास
बैठा, न अरिहंतों के पास बैठा; इसने
आचार्यों से सुना है। जिन्होंने किसी से सुना था, उनसे सुना
है। मगर उनके तर्क इसे जंचे हैं। उनका जीवन तो कुछ नहीं है; लेकिन
उनके तर्क, उनके प्रमाण, उनकी वाणी,
उनकी शास्त्रीयता ने इसे प्रभावित किया है। यह उपाध्याय है। यह
पंडित है। महावीर कहते हैं, इसको भी नमस्कार। माना कि यह
बहुत दूर हो गया है अरिहंतों से; जैसे गंगा निकली गंगोत्री
से, और अब बहुत दूर हो गयी काशी आते-आते और न मालूम कितना
कचरा मिल गया इसमें, कितनी गंदगी मिल गयी इसमें, कितने मुर्दे इसमें सड़ गए; क्या-क्या नहीं हो गया!
कितनी नालियां-नाले, सब इसमें हो गया है कूड़ा-करकट। अब यह वह
बात नहीं रही जो गंगोत्री पर थी। जो गंगोत्री की शुद्धि थी, जो
स्फटिक मणि जैसा स्वच्छ जल था, जो अमृत जैसी बात थी, वह नहीं रही। लेकिन फिर भी है तो यह वही जल--गंदा हो गया, कूड़ा-करकट से भर गया, नदी-नाले इसमें उतर गए,
न मालूम कितना पाखाना, मल-मूत्र इसमें
सम्मिलित हो गया, लेकिन फिर भी कुछ अंश तो अब भी इसमें
गंगोत्री का शेष है। और महावीर कहते है, उतना अंश हो तो भी
नमस्कार।
महावीर नमस्कार करने में कंजूस नहीं हैं, मैं भी कंजूस नहीं हूं। मगर ये तो उपाध्याय भी नहीं हैं। महावीर सौ वर्ष
पहले हुए। उनके पास जो गणधर थे, वे आचार्य थे। और उन गणधरों
के पास जिन्होंने बैठ कर सिखा, वे उपाध्याय थे। उनको हुए
चौबीस सौ साल, पच्चीस सौ साल हो गए। ये तो किन आचार्यों के
पास बैठे हैं? इन्होंने आचार्य होने की भी राजनीति बना लिया
है, उसका भी चुनाव होता है। जिसको वोट ज्यादा मिल जाएं,
वह आचार्य हो जाता है। या जिसको पिछला आचार्य नियुक्त कर दे,
जैसे इन्होंने नियुक्त कर दिया। आचार्य तुलसी ने थोथूमल को नियुक्त
कर दिया कि आगे अब ये आचार्य होंगे। न ये खुद आचार्य हैं, न
थोथूमल आचार्य हैं।
और जब मैं "थोथूमल' कह रहा हूं तो गाली
जरा भी नहीं दे रहा हूं। मैं सिर्फ उतना ही कह राह हूं जितना मैंने देखा, जैसा देखा। मैंने बहुत थोथे लोग देखे, मगर नथमल से
ज्यादा थोथा आदमी नहीं देखा। यह आदमी अद्वितीय है, बेजोड़ है!
यह बिलकुल कूड़ा-करकट है! इसकी खूबी अगर कुछ है तो एक है कि यह अच्छी तरह से
चमचागिरी करना जानता है। यह आचार्य तुलसी की सेवा में रत रहता है। आचार्य तुलसी के
पास इससे बेहतर लोग हैं, मगर वे इतने अच्छे चमचे नहीं है।
मुनि नगराज योग्य व्यक्ति हैं, जो कि अगर होना ही था तुलसी
का कोई उत्तराधिकारी तो नगराज को होना था। लेकिन नगराज चमचे नहीं हैं। किसी भी
व्यक्ति में, जिसमें थोड़ा भी स्वाभिमान है, चमचागिरी नहीं होती। इसलिए तुलसी ने नगराज को काट कर ही अलग कर दिया। नथमल
की खूबी यह है कि पांव दबाते रहते हैं और कुछ खूबी नहीं है। और उनकी प्रशंसा में,
स्तुति में, गीत लिखते रहते हैं। बस इतनी ही
खूबी है।
यह तो सब गोरखधंधा राजनीति का हो गया। इनमें कोई उपाध्याय भी नहीं है।
और सबसे नीचे साधु हैं।--जिसने उपाध्यायों से सुना। मतलब बात दूर से दूर होती जा
रही है, बहुत दूर होती जा रही है। जैसे सूरज का प्रतिफलन बना
नदी में, नदी का प्रतिफलन बना दर्पण में। दर्पण की तुमने एक
तस्वीर उतारी और फिर किसी चित्रकार ने उस तस्वीर के आधार पर सूरज बनाया। ऐसी बात
दूर होती जा रही है--प्रतिफलन का प्रतिफलन। साधु सबसे नीचे हैं। उसने उपाध्यायों
से सुन कर साधना शुरू कर दी है। उसे कुछ पता नहीं वह क्या कर रहा है। उपाध्यायों
को ही पता नहीं कि वे क्या करवा रहे हैं।
कितने जैन साधुओं ने ध्यान पर किताबें लिखी हैं और उन्हीं ने मुझसे
पूछा है कि ध्यान है! मैंने उनसे पूछा: "तुमने किताबें लिखीं तो किसलिए लिखीं, कैसे लिखीं?'
वे कहते हैं: "किताबें तो हमने शास्त्र पढ़ कर लिख दीं। मगर ध्यान
का अनुभव हमें नहीं हुआ। यह चित्त तो शांत होता ही हनीं है।' हालांकि समझाते हैं रोज लोगों को कि चित्त को शांत करो, निर्विचार बनो, निंबींज बनो। मगर कोई इनसे पूछे कि
तुम निंबींज हुए, तुम्हारे चित्त शांत हुआ, तुमने मौन पाया? तुमको मुनि कैसे कहें, कि आधार पर कहीं?
मैं जब ये बातें उठा रहा हूं तो सिर्फ इसलिए उठा रहा हूं कि इस देश को
पुनर्विचार करने का आ गया। इस देश को अपनी चिंतना को अब साफ-सुथरा कर लेना चाहिए।
अगर हमें भारत की आत्मा को फिर से जाग्रत करना हो तो हमें सारा कूड़ा-करकट छांट कर
हीरे बचा लेने चाहिए।
लेकिन हीरालाल जैन को कष्ट हुआ होगा। वह जैन होना दिक्कत दे रहा है।
उन्होंने लिखा है: आपने उस दिन "हमारे' "पूज्य'...। हम को चोट लगी है, अहं को चोट लगी है। हमारे पूज्य
को थोथूमल कह दिया! तो हमारी तो गिनती ही क्या रही! हम तो और ही गए-बीते हो गए!
प्रत्येक व्यक्ति अपने अहंकार को बड़ी तरकीबों से भरता है। हर शिष्य
अपने अहंकार को भरने की तरकीबें करता है। अगर मुझे कोई गाली दे दे तो मेरे शिष्यों
को, जो मुझे नहीं समझता है, फौरन चोट लग जाती है। उसे
चोट इसलिए नहीं लगती की मुझे गाली पड़ी। उसे चोट इसलिए लगती है कि अगर मेरे गुरु को
गाली पड़ी तो मैं भी तो सम्मिलित हूं। मेरा गुरु तो महान होना चाहिए, तो उसी आधार पर मैं भी महान हो जाता हूं। महान गुरु का शिष्य महान;
थोथे गुरु का शिष्य थोथा।
हीरालाल को लगा होगा, यह तो मुझको ही थोथा कह दिया।
मगर सीधा कह नहीं सकते कि आपने मुझे थोथा कहा, घूम कर आ रहे
हैं, लंबा चक्कर लगा रहे हैं कि हमारे मुनियों को, हमारे आचार्यों को, भोंदूमल कह दिया, थोथूमल कह दिया।
इनके ढंग मैंने देखे। जो-जो मैंने कहा था एकांत में, उन सबके नोट ले कर मुनि नथमल ने प्रवचन दिया। प्रवचन देने की उनकी कोई
पूर्व-घोषणा नहीं थी। प्रवचन मेरा होना था; मेरे समय में
उनका प्रवचन हुआ। मैंने पूछा भी कि यह आकस्मिक परिवर्तन कैसा कार्यक्रम में?
कोई जवाब नहीं। और उन्होंने एक-एक शब्द दोहरा दिया। उसको उन्होंने इस
ढंग से दोहराया कि मुझे बिलकुल पक्का प्रमाण हो गया कि यह आदमी बिलकुल तोता है,
तोतारटंत है। एक-एक शब्द जैसा मैंने कहा था वैसा दोहरा दिया।
लेकिन कोई बीस हजार लोगों का मेला था। सांझ को रमणीक झवेरी, जो मुझे वहां ले गए थे...प्यारे आदमी हैं! अगर मुझसे कोई पूछे तो तुलसी और
नथमल दोनों से ज्यादा श्रेष्ठ आदमी मैं रमणिक झवेरी को मानता हूं। इस आदमी में कुछ
खूबियां हैं। यह न तो मुनि है न साधु है, मगर इसमें एक सरलता
है। और सरलता ही साधुता है। इसमें एक सहजता है। और इसमें एक साहस भी है। सांझ को
आकर उन्होंने मुझसे कहा कि बड़ी हैरानी की बात है, मुझे भी
बहुत धक्का लगा कि जो समय आपका था उसमें नथमल को क्यों बुलवाया। और जब नथमल जो
बोले, मैं एक-एक बात समझ गया कि ये तो आपकी बातें हैं जो वे
कह रहे हैं, जो उन्होंने इसके पहले कभी नहीं कहीं। तो मैंने
शाम को ही जाकर उनसे कहा कि यह बात उचित नहीं। तुलसी जी को मैंने कहा कि यह उचित
नहीं। मुझे आपने कहा था कि उनको मैं आमंत्रित करके ले आऊं। मैं उनके आमंत्रित करके
लाया हूं। मुझसे भी धक्का लगा कि यह बात उचित नहीं है, यह
अनुचित हुआ। और फिर भी मैं आपको कहता हूं कि आपके मुनि नथमल का कोई प्रभाव जनता पर
पड़ा नहीं, क्योंकि उन बातों में जान नहीं थी।
जब बातें उधार होती हैं उनमें जान नहीं होती। तुम दोहरा तो सकते हो, लेकिन ओठों पर ही रह जाती हैं, आत्मा नहीं होती।
भीतर कोई समर्थन नहीं होता।
तो तुलसी जी ने क्या कहा, मालूम है? रमणीक झवेरी ने मुझे बताया कि तुलसी जी बोले कि प्रभाव पड़ने का कारण यह है
कि रजनीश तो उपयोग करते हैं लाउडस्पीकर का और मेरे मुनि लाउडस्पीकर का उपयोग नहीं
करते। इसलिए जनता पर प्रभाव नहीं पड़ा।
और तुम जान कर हैरान होओगे दूसरे दिन से ही उनके मुनियों ने
लाउडस्पीकर का उपयोग शुरू कर दिया। सदियों की परंपरा इतने से मैं टूट गयी! ये सब
बाजारी लोग हैं, दो कौड़ी के इनके सिद्धांत हैं। अभी तक बड़े सिद्धांत
की चर्चा हो रही थी कि हम कैसे लाउडस्पीकर का उपयोग करें, क्योंकि
महावीर ने या जैन शास्त्रों में कहीं लाउडस्पीकर का उपयोग है नहीं। फिर यह तो
यंत्र है, आधुनिक यंत्र है। और ये तो मुंह पर भी पट्टी बांधे
रहते हैं कि कहीं मुंह से भी जोर से आवाज निकले, गर्म हवा
निकले, कीड़े-मकोड़े मर जाएं, कोई जीवाणु
मर जाएं। लाउडस्पीकर पर बोलना तो इतने जोर से बोलना है कि न मालूम कितने जीव-जंतु
मर जाएंगे। सब भूल-भाल गए। सब सिद्धांत की बकवास, जो कल तक
चलती थी, बंद हो गयी।
और थोथूमल इनको मैं इसलिए कहता हूं, भोंदूमल इसलिए कहता
हूं कि ये बातें भी अगर ईमानदारी से स्वीकार की जाएं कि जमाना बदल गया और अब बीस
हजार लोगों को हमें बोलना है तो हम उपयोग करेंगे लाउडस्पीकर का। तो भी ठीक इसमें
भी चालबाजियां। चालबाजी क्या? दूसरे दिन आचार्य तुलसी बोलने
बैठे और एक आदमी ने लाकर माइक वहां रख दिया। जब वे बैठे तब माइक नहीं था। जब वे
बैठे, बैठ गए, अभी बोलना शुरू नहीं
किया, माइक ला कर रख दिया गया, तब
उन्होंने बोलना शुरू किया। उनसे पूछा गया कि आप माइक से बोल रहे हैं! उन्होंने कहा
कि नहीं, मैं तो बोल रहा हूं, अब कोई
माइक ला कर रख दे, इसमें मैं क्या करूं? देखते हैं; इनके मैं चालबाजियां कहता हूं! इनको मैं
बेईमानियां कहता हूं। और तुम कहते हो, मैं गालियां दे रहा
हे। और तब से रोज माइक रखा जा रहा है। चलो, एकाध दफा किसी ने
रख दिया होगा, भूल से रख दिया होगा। मगर तब से अब कोई
पंद्रह-सोलह साल हो गए, रोज माइक रखा जा रहा है। और उनके ही
सामने नहीं, सात सौ साधु-साध्वियों के सामने माइक रखा जा रहा
है। सारे हिंदुस्तान में माइक रखा जा रहा है। ये माइक रखने वाले कौन है? और इनको क्या पड़ी है? और जब इनके गुरुजन माइक के
खिलाफ हैं तो ये लोग क्या उनको नरक भिजवाने की कोशिश कर रहे हैं? तो कोई आदमी आ कर इनकी मुंह-पट्टी उतार ले--फिर? "हम क्या करें, एक आदमी आया, उसने
मुंह-पट्टी उतार ली!' अरे जब माइक पर बोल सकते हैं तो
मुंह-पट्टी उतार ली। कोई आदमी आ कर जूते पहना दे--"अब हम तो चल रहे थे,
यह आदमी आ गया, इसने जूते पहना दिए! कोई आदमी
पकड़ कर कार में बिठा दे, हम क्या करें! हम तो चले जा रहे थे,
यह आदमी मिल गया और इसने धक्का दिया और गाड़ी में बिठा दिया!'
तो कोई आदमी फिर मांस ही ले आए--"अब हम क्या करें! हम तो भोजन
कर रहे थे, इसने थाली में परोस दिया। तो अब थाली में कुछ
छोड़ना तो ठीक नहीं, तो खा लिया।' तो
फिर अड़चन क्या है? फिर अड़चन किस बात की है?
इस तर्क को जरा समझने की कोशिश करो। ये बेईमानी के तर्क हैं या नहीं? और इन बेईमानों को तुम कहो कि ये उसी कोटि में आते हैं, जिसमें अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय,
साधु...मैं स्वीकार नहीं करूंगा।
और तुम पूछते हो कि आपने महावीर वाणी के एक प्रवचन में इसके समर्थन
किया है। निश्चित किया है! आज भी करता हूं। तुमको लगता है विरोधाभास है; कहीं कोई विरोधाभास नहीं है। मैंने अरिहंतों, सिद्धों,
आचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं
का समर्थन किया है। उनको नमस्कार करता हूं। मगर ये थोथूमल, भोंदूमल,
न तो आचार्य हैं न अरिहंत हैं, न नमस्कार के
योग्य हैं। ये छंटे हुए बेईमान और राजनीतिक लोग हैं।
तुम देखो, यूं, रायपुर में आचार्य तुलसी
पर भारी विवाद खड़ा हुआ था कुछ वर्ष पहले, क्योंकि उन्होंने
राम के संबंध में कुछ बातें लिख दी थीं जिससे हिंदू भड़क गए। तो मुझे खबर आयी,
उनके आदमी खबर ले कर आए कि मैं एक वक्तव्य दूं उनके समर्थन में और
उनका जो विरोध किया जा रहा है उसके विरोध में। मैंने कहा: विरोध तो उचित नहीं है,
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने का हक है। तो
मैं जरूर वक्तव्य दूंगा।' मैंने वक्तव्य लिखित दिया। वक्तव्य
मैंने दिया, उसमें मैंने कहा, वह छपा
वक्तव्य। उन्हीं को वक्तव्य भेज दिया था कि आपको जहां छपवाना हो छपवा लें।...कि
प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार प्रकट करने का हक है। अगर वह राम को पसंद नहीं
करता तो उसे हक है कि वह कह सके; या किसी बात की आलोचना उसे
करनी हो तो कर सके। इतनी स्वतंत्रता भी अगर लोकतांत्रिक जगत में न हो तो फिर कैसा
यह लोकतंत्र है?
मगर मैंने उस वक्तव्य में यह भी कहा था कि साथ में मैं यह भी स्मरण
दिलाना चाहता हूं कि आचार्य तुलसी को राम से लेना-देना क्या है? इनके पास चौबीस तीर्थंकर हैं, उनके संबंध में लिखें।
ये कोई मेरे जैसे व्यक्ति तो नहीं हैं, जिसका दावा दुनिया के
हर सदगुरु पर है। मैं जीसस पर बोलूंगा, क्योंकि मैं जीसस को
उतना ही प्रेम करता हूं जितना महावीर को। और बुद्ध पर बोलूंगा और कृष्ण पर बोलूंगा
और लाओत्सु पर बोलूंगा, क्योंकि मेरा कोई धर्म नहीं है। सारे
धर्म मेरे हैं। मैं इस पूरे आकाश को अपना मानता हूं। बगीचे जितने खिले हैं,
मेरे हैं। जब दिल होगा, चंपा के फूल इकट्ठे
करूंगा और जब दिल होगा तो गुलाब के फूल इकट्ठे करूंगा।
लेकिन तुलसी की तो सीमा है, उनको अपनी सीमा में
ही जीना चाहिए। उन्हें क्या जरूरत राम पर बोलने की? राम ने
उनका क्या लिया-दिया है? राम से क्या प्रयोजन है? मैं बोलूंगा राम पर--मैं बोलता हूं। और तुलसी ने क्या आलोचना की है राम
की--खाक! उसमें कुछ भी नहीं है। मैंने राम की जो आलोचना की है उसको आलोचना कहते
हैं। राम को मैं जरा भी कीमत नहीं देता। तुलसी ने तो राम पर पूरा महाकाव्य लिखा
है। मैं तो कविता भी लिखने को राजी नहीं हो सकता राम पर। इतना समय भी क्यों खराब
करूंगा? क्या प्रयोजन है?
तो मैंने उस वक्तव्य में यह भी कहा था कि आचार्य तुलसी को राम पर कुछ
कहने की आवश्यकता नहीं है। तुम हिंदू नहीं हो। तुम जैन हो। तुम्हारी एक बंधी
परंपरा है। तुम एक डबरे में बंद हो। तुम एक डबरे की मछली हो, अपनी मछलियों की चर्चा करो; मगरमच्छों की चर्चा करो,
जो भी तुम्हें करना है। मगर तुम्हें दूसरे के उसमें क्यों बीच में
पड़ना? तुम्हें कोई प्रयोजन नहीं है।
उन्होंने क्या चालबाजी की--मेरे वक्तव्य में यह हिस्सा तो अलग कर दिया
जो उनके खिलाफ था और जो हिस्सा उनके पक्ष में था वह अखबारों में दे दिया! जब मैंने
वक्तव्य पढ़ा, मैं हैरान हुआ--सब वे हिस्से उन्होंने अलग कर दिए थे,
जिनमें मैंने यह बात उठायी थी कि आपको क्या जरूरत है कहने की और वे
हिस्से सब दे दिए थे जिनमें मैंने आलोचना की थी कि लोगों को प्रत्येक व्यक्ति को
बोलने की, विचार की स्वतंत्रता देनी चाहिए। इसको मैं चालबाजियां
कहता हूं। मगर यह करना था तो मुझसे पूछ कर करना था। आधा वक्तव्य देना अपने मतलब का
वक्तव्य देना, आधा निकाल लेना--इसको तुम ईमानदारी कहोगे?
और तुम जरा सोचो, उनको किसी ने छुरा नहीं मार दिया
था, गोली नहीं मार दी थी, सिर्फ आलोचना
हो रही थी। अभी मुझ पर छुरा फेंका गया, मेरी हत्या करने की
कोशिश की गयी। हिंदुस्तान के किसी धर्मगुरु ने इस बात का खंडन किया? किसी एक धर्मगुरु ने यह भी कहा कि यह बात अनुचित है? और ये सब अहिंसा के पुजारी हैं! इन्होंने कुछ कहां? आचार्य
तुलसी ने कुछ कहा? कानजी स्वामी ने कुछ कहा? सुशील मुनि ने कुछ कहा? एलाचार्य विद्यानंद ने कुछ
कहा? ये सब जैन मुनि, अलग-अलग जैन
संप्रदायों के, ये तो सब अहिंसा के पुजारी हैं, इनको कम से कम इतना तो कहना चाहिए कि किसी की गर्दन पर छुरा चला कर उसकी
वाणी को बंद करने की बात अशोभन है। लेकिन एक धर्मगुरु ने भी इसका विरोध नहीं किया।
इसका मतलब? जैसे भीतर-भीतर इन सबका समर्थन है कि अच्छा हुआ।
इनको दुख हुआ होगा तो यह हुआ होगा कि वह आदमी चूक कैसे गया।
सिर्फ इंदिरा गांधी को छोड़ कर भारत के एक राजनैतिक व्यक्ति ने इस बात
का विरोध नहीं किया। सिर्फ इंदिरा गांधी ने मुझे पत्र लिखा कि मुझे हार्दिक दुख है
और मुझे धक्का लगा। इस तरह की घटना नहीं घटनी थी। यह बात बेहूदी है। और इस तरह की
घटना न घटे, इसका मैं पूरा इंतजाम करूंगी।
इंदिरा ने सिर्फ कहा, बाकी देश का कोई राजनेता नहीं
बोला, कोई धर्मगुरु नहीं बोला। कोई बुद्धिवादी बड़े लेखक,
कवि, साहित्यकार, मनीषी,
कोई नहीं बोले। यूं जैसे कि कोई खास बात ही न थी! किसी को छुरे से
मारना, कोई खास बात ही नहीं! जाहिर है एक बात: इस छुरे के
पीछे इन सारे लोगों का अनजाना, अचेतन समर्थन है। ये
प्रफुल्लित हुए होंगे। ये आनंदित हुए होंगे कि अच्छा हुआ। ये भी यही करना चाहते
हैं, मगर कर नहीं सकते। इतनी करने की भी इनमें हिम्मत नहीं
है।
आचार्य तुलसी को तो सोचना था कि तुम्हारी सिर्फ आलोचना हुई थी तो भी
मैंने वक्तव्य दिया था; मुझ पर छुरा फेंका गया, कम से
कम तुम इतना कह सकते थे कि यह बात अशोभन है। वह भी कहने की बात नहीं बन सकी उनसे।
इस तरह के लोगों को मैं क्या कहूं? और इस तरफ के सारे
लोग में जा कर अड्डा जमाए रखते हैं। और दिल्ली में इनका काम क्या है? इनका काम एक ही है कि बस इनके जो चापलूस हैं, वे जा
कर राजनेताओं की प्रार्थना करते रहते हैं कि आप तुलसी जी महाराज के पास चलिए,
कि आप सुशील मुनि जी महाराज के पास चलिए, बस
दो मिनिट के लिए चलिए! और वहां जाकर क्या काम करते हैं? कोई
भी जाएगा, स्वभावतः नमस्कार करेगा। और जैन मुनि तो किसी को
नमस्कार करता नहीं, आशीर्वाद देता है।
तो आचार्य तुलसी ने क्या तरकीब की थी! पंडित जवाहरलाल नेहरू के पीछे
छः महीने लोग पड़े रहे कि आप एक दफा तुलसी जी के वहां चलिए। वे टालते रहे, टालते रहे। जब थक गए होंगे, परेशान हो गए होंगे,
तो गए। दो मिनट के लिए। हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, जो कि बिलकुल स्वाभाविक है। तुलसी जी ने उनको आशीर्वाद दिया। कैमरामैन
तैयार है, जल्दी से उसने फोटो ले लिया। उसका कैलेंडर छपवा
दिया कि पंडित जवाहरलाल नेहरू--आचार्य तुलसी को नमस्कार करते हुए। कैलेंडर मुफ्त
सारे हिंदुस्तान में बांटा गया।
ये चालबाजियां, ये बेईमानियां--इनका धर्म से कोई संबंध है? कोई प्रयोजन है? कोई अर्थ है? मैं
सिर्फ चाहता हूं कि तुम सोचो, विचार करो। और तुम्हें अगर
इतनी-इतनी बड़ी चीजें नहीं दिखाई पड़ती तो तुम बिलकुल अंधे हो।
एक साइकिल सवार नाराज हो गया। चिल्ला कर बोला: "क्यों जी, तुम मुड़ने के लिए हाथ नहीं दे सकते थे? मैं ट्रक के
नीचे आ जाता तो?'
ट्रक ड्राइवर ने कहा: "भाईजान, तुम्हीं सोचो,
जब तुम्हें मेरा इतना लंबा-चौड़ा ट्रक नजर नहीं आया तो हाथ भला कैसे
नजर आता?'
तुम्हें कुछ नजर ही नहीं आ रहा है। और जिनके पास जा कर तुम नमस्कार कर
रहे हो, उनसे पा क्या रहे हो? तुम्हारे
जीवन में कौन-सी क्रांति घट रह ही है? तुम्हें कौन-सी औषधि
मिल रही है?
सोहनलाल दूगड़ आचार्य तुलसी के भक्तों में से एक थे। आखिर-आखिर में वे
मेरे हाथ बिगड़ने लगे थे। तो मुझसे उन्होंने एक रात कहा--उनके घर मैं मेहमान था--कि
आपसे क्या छिपाऊं, मैंने जीवन में चार बार आचार्य तुलसी के कहने से
ब्रह्मचर्य-व्रत लिया है। एक भोंदू मेरे पास बैठे थे। वे तो बड़े प्रभावित हुए कि
चार बार ब्रह्मचर्य व्रत! मैंने उनकी खोपड़ी पर एक चपत लगायी। मैंने कहा: "तू
इतना बड़ा भौंदू है छंटा हुआ कि तुझे यह भी समझ में नहीं आ रहा, तू प्रभावित हो रहा है कि ब्रह्मचर्य का व्रत चार बार लेने का मतलब क्या
होता है! तूने तो हद कर दी मूढ़ता की--उनका गदगद भाव देख कर कि वाह, क्या गजब कर दिया, चार बार! मैंने तो एक बार भी नहीं
लिया जीवन में, तो स्वभावतः जिसने चार बार लिया उसने तो महान
साधना कर ली! पहले तू सोच भी तो पागल कि चार बार लेने का मतलब क्या होता है! अब
इनसे पूछ कि पांचवीं बार क्यों नहीं लिया?'
तब उनको थोड़ा होश आया। और मैंने सोहनलाल को पूछा कि पांचवीं बार क्यों
नहीं लिया, वह बताओ। तो उन्होंने कहा: "आप पहले आदमी हैं जो
यह पूछ रहे हैं पांचवीं बार क्यों नहीं लिया। नहीं तो लोग प्रभावित होते हैं,
जैसे यह भैया प्रभावित हुआ कि चार बार ब्रह्मचर्य का व्रत! पांचवीं
बार इसलिए नहीं लिया कि चार बार ले-ले कर बार-बार टूटा, थक
गया, मैं समझ गया कि यह अपने से होने वाला नहीं है, इसलिए नहीं लिया।'
मैंने उन मूर्खानंद को, जो बैठे कहां,
प्रभावित हो रहे थे, वहां कि तुमने एक कहानी
सुनी है कि एक राजनेता पागलखाने देखने गया। उसने पूछा कि जब कोई पागल ठीक हो जाता
है तो तुम कैसे तय करते हो कि वह ठीक हो गया? तो उसने कहा:
"कई हमारे पास परीक्षण हैं। जैसे अगर पढ़-लिखा आदमी हो तो हम उससे पूछते हैं
कि जो पहला हवाई जहाज का उड़ाका था, उसने पृथ्वी के चार चक्कर
लिए, उन चार चक्कर लेने में एक बार मारा गया, कौन-से चक्कर में मारा गया?'
राजनेता ने कहा: "यह तो बड़ा कठिन सवाल है। यह तो मैं भी...इतिहास
मैंने पढ़ा नहीं। अगर तुम मुझसे भी पूछो तो मैं तो भी नहीं बता सकता। अरे जब पढ़ा ही
नहीं इतिहास तो किस चक्कर में मारा गया यह मैं भी कैसे बता सकता हूं?'
मैंने कहा: "तुम भी उसी कोटि के मूढ़ हो। तुम किसी पागलखाने में
भरती हो जाओ। अब जो आदमी चार दफा चक्कर लिया पृथ्वी का, यह भी नहीं बता सकते किस में मारा गया! अरे स्वभावतः चौथे ही में मारा
जाएगा। अगर तीसरे में मर जाता तो चौथे का चक्कर कौन लेता? इतनी
सीधी-सीधी बात तुम्हारी अकल में नहीं घुसती!'
इसी तरह का यह अणुव्रत आंदोलन चलता है; लोग व्रत ले लेते हैं,
टूटते रहते है। न कोई व्रतों का मतलब है, न
कोई सम्हालने का सवाल है। मगर तुलसी जी अणुव्रत-शास्ता हो गए, अणुव्रत-अनुशास्ता हो गए।
इस देश में क्रांति वगैरह तो होती ही नहीं, क्रांतिकारी बहुत हैं। इस देश को सुधारने वाले इतने हैं कि कभी-कभी मैं यह
सोचता हूं कि सुधारना किसका है?
बहरा मरीज डाक्टर से बोला: "डाक्टर साहब, मैं इतना कम सुनने लगा हूं कि अपनी खांसी की आवाज तक नहीं सुन पाता।'
डॉक्टर ने कहा: "घबड़ाओ मत। ये दो गोलियां खा लेना, खांसी तेज हो जाएगी, तब तुम उसकी आवाज ठीक से सुन
सकोगे।'
ऐसे-ऐसे- चिकित्सक पड़े हैं!
सिर्फ देते हैं सुनाई शब्द अनगढ़,
अर्थ आधे
टूटते से स्वर,
द्वार पर ताले जड़े हैं
ऊंघते से घर,
आजकल इस ओर भी
बस्ती नहीं है।
कौन जाने सब कहां हैं
नौकरी पर या कि बाहर
या कि भीतर?
या सभी को लीलता है
मुखर संशय,
मौन का डर?
जिंदगी, मुरदाघरों को देख कर
हंसती नहीं है।
आजकल इस गांव में
सब कुछ मगर बस्ती नहीं है।
ऐसा लगता है यह देश एक मरघट हो गया है। इसमें मुर्दों की पूजा चल रही
है। मुर्दों को पूज रहे हैं। मुर्दे मुर्दों का जुलूस निकाल रहे हैं, जय-जयकार कर रहे हैं। न कोई सोचता न कोई विचारता। और अगर कोई
सोचने-विचारने की बात कहे तो फौरन तुम तिलमिला जाते हो।
ये सारे बातें मैं तुम्हें सिर्फ झकझोरने के लिए कह रहा हूं, ताकि तुम एक दफा पुनर्विचार में उतर जाओ। इस देश का विचर मर गया तो आत्मा
कर गयी। इस देश को झकझोरना होगा। और आंधी आए, तूफान आए,
तो ही शायद तुम जगो तो जगो, अन्यथा तुम जग
नहीं सकते हो।
मेरा विरोध करो, जीवन भर विरोध करो!
इसी संबंध में दूसरा प्रश्न पूछा है हरनामदास आर्य ने।
"भगवान, आप इन दिनों साधुओं,
मुनियों और दूसरे लोगों के धर्मों की कड़ी आलोचना व निंदा करते हैं।
इससे आपको क्या मिलेगा? आप सीधा ध्यान और धर्म का प्रचार
क्यों नहीं करते!
हरनामदास आर्य, नाम से लगता है आर्यसमाजी हो। दूसरों की आड़ में अपनी
बात छिपा रहे हो। अगर आर्यसमाजी हो तो तुमने "सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ा है दयानंद का? उसमें तो सारे धर्मों की आलोचना
है। आग है। आग लगा दो उसको, क्योंकि क्यों दयानंद ने दूसरे
धर्मों की बात की, आलोचना की? अपने
ध्यान और धर्म का प्रचार करते। तुम "आर्य' क्यों हुए?
और कुछ तुम जरा बुद्धि पर थोड़ा बल डालो। बुद्ध ने महावीर की भी आलोचना
की है और सख्त आलोचना की है। वे दिन जानदार थे, शानदार थे। लोग
तलवारों पर धार रखते थे। प्रतिभा एक तलवार है। ऐसे कमजोर और कायर नहीं थे। ऐसे
पूंछ दबाकर नहीं भागते थे। बुद्ध ने महावीर की आलोचना की है और सख्त आलोचना की है,
क्योंकि जैन कहते थे कि महावीर त्रिकालज्ञ हैं और बुद्ध इस पर बहुत
हंसते थे।
बुद्ध ने कहा है कि मैंने महावीर को ऐसे घर के सामने भिक्षा मांगते
देखा है, जिस घर में कोई है ही नहीं, बरसों
से घर खाली पड़ा है--और ये सज्जन त्रिकालज्ञ हैं! तीनों काल का इनको पता है और इनको
यह भी पता नहीं कि घर में कोई रहता नहीं है! ये खाक त्रिकालज्ञ हैं! मैंने महावीर
को सुबह-सुबह धुंधलके में उठते, गांव के बाहर पाखाना इत्यादि
करने को जाते देखा। रास्ते में अंधेरे में कुत्ते की पुंछ पर पैर पड़ जाता है;
जब कुत्ता भौंकता है तब इनको अकल आती है कि कुत्ता सो रहा है। और ये
त्रिकालज्ञ हैं! इनको तीनों काल का ज्ञान है--अतीत का, वर्तमान
का, भविष्य का! महावीर को मालूम था कि हरनामदास आर्य आज के
दिन यह प्रश्न मुझसे पूछेंगे।
बुद्ध ने बहुत मजाक उड़ायी है। मैं यह नहीं कहता कि सही या गलत। मैं यह
कहता हूं कि जब कोई देश जिंदा होता है, उसमें प्रखरता होती
है, उसमें चीजों में चुनौती होती है। शंकराचार्य ने बुद्ध की
बहुत आलोचना की है, गहन आलोचना की है। और रामानुज ने
शंकराचार्य को छोड़ नहीं। रामानुज ने इतनी गहन आलोचना की शंकराचार्य की और यह सिद्ध
करने की कोशिश की है कि शंकराचार्य छुपे हुए बौद्ध हैं, प्रच्छन्न
बौद्ध हैं। ये करते तो बुद्ध की आलोचना हैं, अगर वह आलोचना
सब धोखा है; भीतर से, पीछे के दरवाजे
से बुद्ध के ही विचारों का ये प्रचार कर रहे हैं। चूंकि अब बुद्ध का प्रचार
सीधा-सीधा नहीं हो सकता, ब्राह्मणों ने बुद्ध के धर्म को
उखाड़ फेंका है, इसलिए अब बुद्ध के धर्म को पीछे के दरवाजे से
कैसे प्रवेश करवाया जाए, यह शंकराचार्य कोशिश कर रहे हैं।
ये जानदार लोग थे। ये तुम जैसे मुर्दा लोग नहीं थे।
क्यों न करूं मैं आलोचना अगर साधु गलत हैं? मुनि नहीं हैं, साधु साधु नहीं हैं। आलोचना क्यों न
करूं? और धर्मों पर किसी की बपौती है, किसी
का ठेका है? दुनिया में तीन सौ धर्म हैं, तीन सौ ही धर्म ठीक नहीं हो सकते। सत्य एक है, तीन
सौ धर्म ठीक हो सकते हैं? और जब तक गलत को गलत न कहा जाए,
तब तक सही को सही कहा नहीं जा सकता। गलत की पहचान आ जाए तो ही सही
की पहचान आती है। और गलत से शुरू करना होगा, क्योंकि गलत से
भरे हो।
तुम तो ऐसी बात कर रहे हो हरनामदास आर्य, कि "आपको अगर अमृत उंडेलना हो तो हमारे पात्र में उंडेल दें, आप हमारे पात्र की सफाई की बात क्यों करते हैं? मुझे
अपना अमृत खराब करना है? तुम अपने पात्र में मलमूत्र किए बैठे
हो, उसकी सफाई न करवाऊं? उसकी पहले
सफाई करवाऊंगा लेकिन लोग तो एक से एक पहुंचे हुए हैं। मैंने सुना दो हिप्पी एक
रास्ते पर चले जा रहे थे। एक हिप्पी बड़ी देर से नाक पर रूमाल लगाए हुए था। दोत्तीन
मील चलने के बाद उससे कहा कि भई, क्या तूने अपने पतलून में
पाखाना किया है! क्योंकि पहले मैंने सोचा कि नालियों की बास होगी, फिर नालियां भी खत्म हो गयीं, अब तो कोई नाली भी
नहीं है। फिर मैंने सोचा कि आदमियों में से से बास आ रही होगी। अब कोई आदमी भी
नहीं, हम दोनों ही बचे, क्या तू अपने
पतलून में पाखाना कर रहा है?
दूसरे ने कहा: "कभी नहीं! नहीं जी! क्या बातें करते हो!'
उसने कहा: "तू उतार पतलून! क्योंकि बास इतनी तेज है और तीन मील
से साथ चल रही है...।'
उसने पतलून उतरवाया। वह पाखाने ही पाखाने से भरा हुआ था। उसने कहा:
"यह क्या है?'
तो उसने कहा; "यह तो पुराना है, कोई अभी
का थोड़ी ही है। तुम कह रहे थे पतलून में पाखाना कर रहे, तो
मैंने कहा नहीं, अरे यह तो बहुत पुराना है! यह तो कई दिन
पहले की बात हैं।'
तुम्हारे बर्तनों में कितनी गंदगी है, कितना कचरा भरा है,
उसको न निकालूं? हरनामदास आर्य तुम कह रहे हो
कि आप अपने धर्म का सीधा प्रचार क्यों नहीं करते! सीधा प्रचार कहां करूं? जितनी खोपड़ियां सब कचरे से भरी हुई हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई
जैन है, कोई बौद्ध है। तो पहले उसका कचरा निकालना होगा,
तभी उसके भीतर सम्यक सत्य को डाला जा सकता है, अन्यथा कोई उपाय नहीं।
लेकिन तिलमिलाते क्यों हो? अगर तुम्हारे धर्मों
में सत्य है तो टक्कर क्यों नहीं लेते? तो तुम अपने धर्मों
के जो धुरंधर हैं, उनसे कहो कि जवाब दें मेरी बातों का।
लेकिन तुम्हारे धर्म के धुरंधर भी क्या हैं! उनसे कुछ पूछो तो क्या जबाव मिलेगा!
मैं पढ़ रहा था पूरी के शंकराचार्य के संबंध में कि दिल्ली में उनका
सत्संग चल रहा था और एक आदमी ने खड़े हो कर पूछा कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे उपलब्ध
हो। कोई खराब बात नहीं पूछी थी। और पूरी के शंकराचार्य को एकदम क्रोध आ गया, इस बात मैं ही क्रोध आ गया कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे हो! और सत्संग ही हो
रहा था तो ब्रह्म का ज्ञान ही तो पूछा जाएगा। उन्होंने उल्टा सवाल उस आदमी से किया
कि तुम्हारी चुटैया है या नहीं? अब आजकल किसकी चुटैया होती
है? सिर्फ गधों को छोड़ कर और किसी की नहीं। कोई समझदार आदमी
चुटैया काहे के लिए रखेगा? कोई औरत के हाथ से पिटना हो,
वह पकड़ कर चुटैया और धुनकाई करेगी!
मैं छोटा था तो मेरे गांव में पड़ोस में एक सज्जन रहते थे। उनकी बड़ी
चुटैया थी। मैं उनकी चुटैया के खिलाफ था। उनसे कई दफा कहा कि देखो, तुम चुटैया छोटी कर लो। उन्होंने कहा कि तुम कौन हो जी मेरी चुटैया छोटी
करने वाले? और तुम्हें मतलब?
मैंने कहा: "मैं भी तुम्हारा पड़ोसी हूं। तुम्हारी वजह से मेरी तक
बदनामी होती है कि तुम ऐसे पड़ोस में रहते हो।'
अरे--उन्होंने कहा--यह भी हद हो गयी!
मैंने कहा: "तुम देखो, काट ही लो चुटैया!'
नहीं माने। गांव में, छोटे गांव में तो लोग गरमी के
दिनों में बाहर सोते हैं। सो मैं एक रात उनकी चुटैया काट आया। सुबह क्या मजा हुआ,
देखने लायक दृश्य खड़ा हो गया! वे क्या उछले, फांदे,
क्या कूदे! बिलकुल बजरंग बली हो गए! उनका धर्म नष्ट हो गया! और
मुहल्ले के आदमियों को लेकर मेरे घर आए। मेरे पिता से कहा हद हो गयी। अब यह सीमा
के बाहर बात हो गयी--मेरा धर्म नष्ट हो गया, मेरी चुटैया काट
ली!
मैंने कहा: "भाई तुम ऐसा करो, मेरे पूरे बाल काट लो,
और क्या करोगे? कहो तो मैं चुटैया बढ़ा लूं।
तुम्हारी कट गयी, मैं बढ़ाए लेता हूं। जब बढ़ जाए तब तुम काट
देना। चुटैया ही काटी है, कोई तुम्हारा धर्म कैसे नष्ट हो जाएगा?
चुटैया में तुम्हारा धर्म था? तुम सिद्ध कर
सकते हो, चुटैया में तुम्हारा धर्म था?'
मगर पुरी के शंकराचार्य को भी चुटैया में धर्म मालूम होता है। यह
बेचारा पूछ रहा है कि ब्रह्म को कैसे पाया जाए; वे पूछते हैं चुटैया
है कि नहीं! उसने कहा कि भई चुटैया तो नहीं है। तो दूसरा सवाल उन्होंने बड़ा
आध्यात्मिक सवाल पूछा पूरी के शंकराचार्य ने, कि पेशाब खड़े
हो कर करते हो कि बैठ कर। क्योंकि वह पतलून पहने हुए था। अब पतलून पहनकर और बैठ कर
पेशाब करना बड़ी कठिन बात है। कोई योगी वगैरह हो तो कर ले। मतलब आसन वगैरह करना
जानता हो, उल्टा-सीधा शरीर को घुमाना जानता हो। अब पतलून
पहने बैठ कर पेशाब करोगे तो पुरखे तक तिर जाएंगे। उसने कहा पतलून की वजह से बैठ कर
तो कैसे कर सकता हूं?
तो उन्होंने कहा: "खड़े हो कर पेशाब करते हो और ब्रह्मज्ञान की
पड़ी है! अरे पहले अपना आचरण ठीक करो। चुटैया बढ़ाओ, बैठ कर पेशाब करो।
जनेऊ पहनते हो कि नहीं?'
वह जनेऊ भी नदारद था। और वे जो आदमी बैठे थे, वहां बैठे होंगे उसी तरह के आदमी, और किस तरह के
आदमी इस तरह की जगह पहुंचते हैं! वे सब हंसने लगे कि ये देखो ब्रह्मज्ञान करने
चले! बेचारे की ऐसी फजीहत हो गयी।
ये तुम्हारे पुरी के शंकराचार्य हैं! और तुम चाहते हो कि इनकी आलोचना
न की जाए? तुम चाहते हो तुम्हारे साधुओं और मुनियों और
"दूसरे के धर्मों के लोगों की'...! कौन दूसरे लोग?
मैं किसी को दूसरा नहीं मानता। कोई दूसरा नहीं है। बिजली चलाने में
तुम्हें फिक्र नहीं आती कि किसने खोजी। तुम्हारे बापदादों ने खोजी? शंकराचार्य ने खोजी, रामानुज ने खोजी, निम्बार्क ने खोजी, वल्लभाचार्य ने खोजी, किसने खोजी? तब तुम नहीं पूछते कि बिजली घर में चला
रहे हैं, पंखा चला रहे हैं, रेडियो सुन
रहे हैं, यह किसने खोजा?
विज्ञान पर सबका अधिकार है, तो धर्म पर क्यों
नहीं? धर्म भीतर का विज्ञान है। फिर जीसस ने खोजा कि
जरथुस्त्र ने खोजा कि मोजिज ने खोजा, कि महावीर ने खोजा,
क्या फर्क पड़ता है? कृष्ण ने खोजा कि क्राइस्ट
ने खोजा, क्या फर्क पड़ता है?
सारे धर्म मेरे हैं। इसलिए कोई मुझसे यह न कहे कि दूसरों के धर्मों की
मैं कड़ी आलोचना करता हूं। मेरे धर्म हैं। और उनमें जहां-जहां मैं देखूंगा लोगों ने
गंदगी मिलायी है, उसकी मैं आलोचना करूंगा। मेरे धर्म हैं! मैं अधिकारी
हूं कि अपने धर्मों में कचरा न मिलने दूं। मैं किसी और के धर्म की आलोचना नहीं कर
रहा हूं।
और मजा यह है कि हरनामदास ही दूसरा प्रश्न पूछते हैं, जिससे जाहिर हो जाता है कि अक्ल कितनी होगी। दूसरा प्रश्न पूछते हैं:
"भगवान, रामायण में यह
साफ-साफ कहा गया है कि एक व्यक्ति को बस एक ही विवाह करना चाहिए। और पर स्त्री को
देखना भी पाप है। आप जिस मुक्त स्वच्छंद और अपने कम्यून में होने वाले प्रयोगों की
बात करते हैं, क्या यह आचरण समाज को एक गलत दिशा में नहीं ले
जाएगा?'
हरनामदास आर्य, अब तुम रामायण को फंसा रहे हो कि नहीं? अब मैं रामायण के संबंध में कुछ कहूं तो आलोचना हो जाएगी! और तुम कहते हो
कि साधुओं, मुनियों और दूसरे के धर्मों की आलोचना न करूं। अब
तुम बाबा तुलसीदास की पिटाई करवाने को खुद उत्सुक हो। तुम्हें खुजलाहट हो रही है।
अब मैं क्या करूं, बोला, तुम्हारा पहला
प्रश्न मानूं कि तुम्हारा दूसरा प्रश्न मानूं?
रामायण ने कोई ठेका लिया है? रामायण कोई
धर्म-ग्रंथ है? कथा-कहानी है। पढ़ो, जी
भर कर पढ़ो! लीला करो! मगर धर्म-ग्रंथ क्या है? रामायण तो
सारा देश पढ़ रहा है, कितने लोग धार्मिक हो गए हैं रामायण पढ़
कर? चौपाइयां पढ़ते-पढ़ते चौपाये हो गए हैं, और कुछ भी नहीं। और तुम कह रहे हो: "रामायण में साफ-साफ कहा गया
है...।' कहा गया होगा। कोई मैं आबद्ध हूं रामायण में जो कहा
है उसको मानने को?...कि एक व्यक्ति को बस एक ही विवाह करना
चाहिए। तो फिर कृष्ण महाराज की फिर क्या गति होगी? सोलह हजार
पत्नियां! रामायण के हिसाब से कृष्ण महाराज को कहां रखोगे? और
अपनी भी नहीं, न मालूम दूसरों-दूसरों की भगा लाए। रुक्मणी को
भी भगा कर लाए। और तुम्हारे सब ऋषि-मुनियों की अनेक पत्नियां थी। एक पत्नी थी
जिसको पत्नी कहते थे; और बाकी को पत्नी न कहने के लिए
"वधु' शब्द खोजा हुआ था। आजकल तो हम वधू शब्द का उपयोग
गलत अर्थ में कर रहे हैं--उस अर्थ में, पुराना जो हिसाब है,
बैठता नहीं। वधू कहते थे उपनिषद के काल में--उन स्त्रियों को,
जो तुम्हारी पत्नी तो नहीं है, लेकिन जिनके
साथ तुम पत्नी जैसा व्यवहार करते हो, उनको वधू कहते थे।
पत्नी एक होती थी, वधुएं अनेक होती थी। बाजारों में बिकती थी
औरतें!
और रामचंद्र जी के बाप जी की कितनी औरतें थी? और यह खूसट बुढ़ापे में भी एक औरत के ही चक्कर में तो राम को भिजवा दिया था
जंगल, चौदह साल के लिए। न वह औरत होती न रामायण होती। सब मजा
किरकिरा हो जाता। तुम्हारा धर्म ही डुब जाता। उसी चौथी औरत की वजह से रामायण है,
नहीं तो बाबा तुलसीदास कहां होते? कौन पूछता?
और "एक व्यक्ति को बस एक ही विवाह करना चाहिए'...। तो मैंने कब कहा कि दो करना चाहिए? मैं तो कहता
हूं एक भी नहीं करना चाहिए। तुम जरा मेरी बात तो समझो। मैं किन ऊंचाइयों पर ले जा
रहा हूं और तुम कहां की बातें कर रहे हो! मैं तो एक से भी बचाना चाहता हूं। एक में
ही झंझट शुरू हो जाती है। और जब एक किया तो दो से कब तक बचोगे? एक के बाद दो, दो के बाद तीन। आखिर आदमी तो गति
करेगा, विकास करेगा।
मैं तो विवाह के ही विपरीत हूं। मैं तो विवाह का ही दुश्मन हूं। मैं
तो कहता हूं एक भी नहीं करना चाहिए; क्योंकि एक करने से
ही यह खतरा शुरू होता है--अपनी स्त्री और परायी स्त्री। अब स्त्री भी जैसे कोई
संपत्ति है--पर स्त्री! स्त्री कोई चीज वस्तु है? स्त्री को
कोई आत्मा है या नहीं? उसको संपत्ति मान कर चलते रहे हो।
पर-स्त्री! उसकी तरफ देखना भी पाप है! कैसे घबड़ाए हुए लोग रहे होंगे! कैसे डरपोक
लोग रहे होंगे! किसी स्त्री की तरफ देखने से घबड़ा रहे हैं! इनके भीतर कैसा
कचरा-कूड़ा भरा होगा!
इनके भीतर पाप ही पाप भरा होगा। नहीं तो दूसरे की स्त्री देखने में
क्या हर्जा है? कौन-सा पाप है? और अगर दूसरे की
स्त्री सुंदर है तो उसको सुंदर कहने में क्या हर्जा है? पड़ोसी
के बगीचे में अगर सुंदर फूल खिले हैं, तो तुम उससे नहीं कहते
कि अहा, कितने सुंदर गुलाब तुम्हारे बगीचे में खिले हैं!
इसमें कुछ अड़चन है?
अच्छी दुनिया होगी, भले लोग होंगे, तो मैं मानता हूं कि किसी सुंदर स्त्री को देख कर कोई कहेगा कि तुम
धन्यभागी हो, ऐसी सुंदर स्त्री तुम्हें मिली! अच्छी दुनिया
होगी तो कोई व्यक्ति किसी सुंदर स्त्री के पास जा कर भी उसे धन्यवाद देगा कि
अनुग्रह, कि मैंने तेरा दर्शन किया, आज
सुबह-सुबह तू इतनी सुंदर स्त्री मुझे दिखाई पड़ी! और ऐसा नहीं कि वह एकदम चिल्ला
देगी, पुलिस वाले को बुलाने लगेगी, क्योंकि
उसने कोई पाप नहीं किया, कोई धक्का नहीं दिया। अभी क्या कर
रहे हो तुम? सुंदर तो नहीं कहते उससे, लेकिन
भीड़भाड़ में धक्का दे देते हो। मौका मिल जाए तुम्हें, चुटैया
ही खींच दोगे, च्यूंटी ले दोगे। क्या-क्या तुम नहीं कर रहे
हो! है ऋषि-मुनियों की संतान, तुम्हारी कैसी दुर्दशा है! और
बकवास तुम यही लगाए हुए हो कि दूसरे की स्त्री को देखना पाप है। क्या पाप है?
परमात्मा की कृति है स्त्री भी, पुरुष भी।
किसी की स्त्री को देखना पाप नहीं है। घूंघट डालना पाप है। इसका मतलब
हुआ कि घूंघट डाल कर तुमने परमात्मा की कृति को छिपाया, तुमने मालकियत कर दी कि यह मेरी स्त्री है, इस पर
मेरा घूंघट है। सील-मोहर बंद! और ऐसा नहीं कि सील-मोहर बंद नहीं होती थी! मध्य युग
में युरोप में यह चलता था, क्योंकि अक्सर...। जैसा हमारे देश
में चलता था वैसा ही वहां चलता था। हम तो और ज्यादा जघन्य हैं। जब कोई राजा युद्ध
के लिए जाता था तो अपनी पत्नी की गर्दन ही काट जाता था, क्योंकि
पता नहीं युद्ध में मर जाए फिर? पति तो युद्ध में जाता था,
स्त्रियां अग्नि में बैठ कर अपने को जला लेती थी, सती हो जाती थीं। यह सिखाया गया था उनको कि यह करना, क्योंकि अगर मैं न बचूं तो पता नहीं फिर कोई तुम पर कब्जा न कर ले। कैसी
अमानुषिकता!
मध्य युग में, युरोप में एक रिवाज था। वहां लोगों ने...वे तो जरा
वैज्ञानिक बुद्धि के लोग हैं पश्चिम में।...लोहे के बेल्ट बना लिए थे। वे
स्त्रियों को बेल्ट पहना जाते थे और ताला लगा जाते थे। तो स्त्रियां पेशाब तो कर
सकती थीं, मगर प्रेम नहीं कर सकती थीं। वह बेल्ट इस ढंग से
बनाया जाता था कि किसी के साथ संभोग नहीं कर सकती थीं।
एक सेनापति युद्ध पर जा रहा था। उसे यह डर लगा कि कहीं युद्ध के मैदान
में कहीं चाबी गिर जाए, खो जाए, कुछ हो जाए, तो मारे गए! लौट कर फिर क्या करेंगे? उसने सोचा अपना
एक मित्र है, बहुत जिगरी मित्र, जिस पर
भरोसा किया जा सकता है। उस को जा कर कहा कि भई, और तो मैं
किसी पर भरोसा नहीं कर सकता, तुम यह चाबी रख लो। छः महीने तो
मुझे लग जाएंगे युद्ध से लौटते-लौटते। आते ही से चाबी ले लूंगा। और मुझे तुम पर
भरोसा है, तुम बेफिक्री से चाबी रख लो।
निश्चिंत, वह गांव के बाहर अपने घोड़े पर सवार हो कर निकला। गांव
के बाहर ही निकला ही नहीं था, कि एक दूसरा घोड़ा भोगता हुआ
आया, बेतहाशा उसका मित्र चला आ रहा था। उसने कहा: "रुको,
रुको?' रोका इसे और कहा कि यह क्या है,
तुम गलत चाबी मुझे दे आए! इधर ये चाबी दे कर गए, उधर वे चाबी खोलने पहुंच गए! गलत चाबी का इतनी जल्दी पता चल गया!
एक और मैंने कहानी सुनी है कि ऐसा ही एक सम्राट अपनी पत्नी पर
संदिग्ध! और पति संदिग्ध, पत्नियां संदिग्ध--हमने क्या समाज बनाया है! इसमें
कहीं श्रद्धा तो है ही नहीं, संदेह ही संदेह है। तुम्हारी
पत्नी किसी से जरा हंस कर बोल ले कि बस संदेह। तुम्हारी जान निकली! चले हनुमान जी
के मंदिर, कि चढ़ाएंगे नारियल और पता लगाएंगे अब कि हनुमान जी
कुछ करो, कि भैया यह क्या हो रहा है! पत्नी हंस रही थी,
बात कर रही थी! ऐसी मुझसे तो कभी नहीं हंसती!
तुमसे हंसे भी क्या? तुम्हारी रोती हुई सूरत देख कर
हंसता हुआ आदमी हो, उसकी हंसी बंद हो जाए। तुम घर क्या आते
हो, बच्चे चुप हो जाते हैं। अरे पशु-पक्षी एकदम चुप हो जाते
हैं! एक तहलका छा जाता है।
और पत्नियों को डर है पतियों का कि कहां जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं! सब एक-दूसरे के पीछे जासूसों की तरह लगे हुए हैं। यह कोई
समाज है? यह कोई नीति है? यह कोई जीवन
है? जहां इतना संदेह है, यहां कैसे
प्रेम के फूल खिलेंगे! इस संदेह की घास में प्रेम के गुलाब नहीं लग सकते।
सम्राट था फ्रेंच। वह जा रहा था युद्ध पर, तो उसने एक खास तरह का बेल्ट बनवाया। बेल्ट ऐसा था कि कोई भी धोखा खा जाए।
धोखा ऐसा कि साधारण जैसे बेल्ट बनते थे पश्चिम में--अभी भी पश्चिम के म्यूजियम में
बेल्ट रखे होते हैं, देखने के लिए, मध्य
युग के, कि किस तरह की बातें आदमी ने कीं--इसने बेल्ट ऐसा
बनवाया था कि जिसमें अंदर एक चाकू था कि अगर कोई स्त्री से संभोग करने की कोशिश
करे तो उसकी जननेंद्रिय का फौरन चाकू खात्मा कर दे। मतलब सजा भी उसको मिल जाए। यह
भी नहीं कि वह कोशिश कर के हारे, न कर पाए; सजा भी उसको मिल जाए। उसके पांच वजीर थे। उनमें पांचों पर उसे शक था।
उन्हीं के लिए उसने इंतजाम किया था। वह तो गया युद्ध पर। जब लौट कर आया वह तो उसने
वजीरों से कहा कि उतारो कपड़े! वजीर जरा सकुचाए। मगर अब सम्राट कहे...उसने तलवार
खींच ली, उसने कहा। "निकालो कपड़े!' पहले ने कपड़ा निकाला, उनका खतना हो चुका था। सिर
झुका कर खड़े हो गए। सम्राट ने कहा: "अच्छा! अब तो सबूत भी है।'
दूसरे का, उनका भी खतना, चार का खतना हो
चुका था। पांचवें का खतना नहीं हुआ था। सम्राट ने कहा: "तू एक विश्वास योग्य
व्यक्ति है! तुझ पर मैं भरोसा कर सकता हूं। और मैं आज शघमदा हूं कि मैं तुझ पर ही
सबसे ज्यादा शक करता था। तू बोल। जो मांगेगा दूंगा।'
वह बोला: "मममम...।' उनकी जीभ का खात्मा
हो चुका था। फ्रांस के आदमियों की तो तुम हरकतें जानते ही हो कि वे प्रेम की एक से
एक तरकीबें निकालते हैं। वे जीभ से प्रेम करते थे। उनकी जीभ नदारद थी। सम्राट ने
सिर ठोक लिया। उसने कहा कि हो गया!
मगर संदेह से खड़ी यह दुनिया कोई अच्छी दुनिया नहीं है। मैं एक समाज
चाहता हूं जहां लोग प्रेम तो करते हो लेकिन संदेह न करते हों। और यह भी हो सकता है
जब यह विवाह की रुग्ण व्यवस्था समाप्त हो। यह विवाह महारोग है। इसने मनुष्य जाति
को पूरा सड़ा दिया है। प्रेम पर्याप्त है। अगर किसी व्यक्ति से तुम्हारा प्रेम है
तो जीवन भर साथ रहो; बहुत प्रेम हो तो कई जन्मों साथ रहो। लेकिन आधार
प्रेम हो। जहां तुमने जबरदस्ती बंधन शुरू किए, जहां तुमने
एक-दूसरे की स्वतंत्रता पर रुकावट डाली, बस वहीं प्रेम की
मृत्यु शुरू हो जाती है।
मनुष्य के जीवन में दो बड़ी आकांक्षाएं हैं--एक प्रेम और एक
स्वतंत्रता। और अब तक हम यह नहीं कर पाए हैं इंतजाम कि दोनों साथ-साथ सध जाएं। कुछ
लोगों ने प्रेम साधा, उनकी स्वतंत्रता छिन गयी। और कुछ लोगों ने स्वतंत्रता
साधी, उनका प्रेम छिन गया। स्वतंत्रता साधने वाले लोग
संन्यासी साधु, भिक्षु, मुनि, तपस्वी भागे जंगल की तरफ। प्रेम से भाग रहे थे। कहते हैं संसार से भाग रहे
हैं, लेकिन अगर उनके संसार का मतलब समझो तो कोष्ठक में लिखा
होता है प्रेम। प्रेम से भाग रहे हैं। अशक्ति कहें उसको, मोह
कहें उसको, काम कहें उसको--जो भी कहना चाहे कहें। लेकिन भाग
रहे है प्रेम से। प्रेम से डरे हुए हैं। और क्यों डरे हुए हैं? क्योंकि प्रेम के साथ स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। वे स्वतंत्रता को प्रेम
करते हैं; इसलिए भाग रहे हैं। स्वतंत्रता बचानी है।
स्वतंत्रता तो बच जाएगी हिमालय की गुफा में, लेकिन वह
तुलसीदास की जैसी छाप पड़ी वैसी किसी की भी नहीं पड़ी। उसका कारण साफ था। तालमेल बैठ
गया, दोनों की भाषा बराबर मालूम पड़ी।
और आर्यसमाजी इस देश में सबसे ज्यादा ग्रामीण बुद्धि के लोग हैं। नहीं
तो दयानंद का उन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था। दयानंद की बातें बहुत ओछी हैं, बहुत बचकानी हैं। उनके तर्क भी बहुत लंगड़े-लूले हैं।
कभी-कभी मेरा मन होता है कि ये जो छोटे-छोटे लोग छोटी-छोटी बातों से
बेचैन हो जाते हैं, तो एकबारगी उठा कर रामायण को एक कोने से लेकर दूसरे
कोने तक खंडित कर दिया जाए। और सत्यार्थ प्रकाश को उठा कर उसकी चिंदियां उड़ा दी
जाएं। चिंदियां उड़ाने योग्य है, क्योंकि एक भी तर्क में कोई
बल नहीं है। लेकिन फिर मैं यह सोचता हूं कि क्या फिजूल के काम में लगना! और भी काम
काम के योग्य हैं करने को। लेकिन अगर कभी मेरे पास वक्त बचा--ऐसा वक्त कि जब काटे
नहीं कटे, तब मैं इनको काटूंगा। अगर मुझे कभी जिंदगी में
फुरसत मिली, जो मिलनी नहीं है--क्योंकि झंझटें इतनी हैं
किस-किस को काटते फिरो! अगर कभी मुझे मौका मिला तो ये बाबा तुलसीदास और ये दयानंद,
ये दो आदमी तो छोड़ने ही नहीं हैं। इन दो आदमियों ने तो भारत की छाती
पर बहुत घूंघर मूता है; बहुत भारत की छाती पर दाल घोट रहे
हैं। इनसे तो छुटकारा भारत को चाहिए ही चाहिए।
आखिरी सवाल: भगवान,
आप बीस वर्षों से सतत बोल रहे हैं। इस तरह बोलना
कैसे संभव हो पाता है? इस कला का राज क्या है?
राजेंद्र,
राज कुछ भी नहीं। एक छोटी-सी कहानी से तुम्हें समझ में आ जाएगा। एक
नेताजी चुनाव लड़ रहे थे। चुनावों के मामले में वे जरा नये-नये ही थे। भाषण वगैरह
देना उन्हें ढंग से आता नहीं था। चुनावी दौरे के समय उनके मित्र ने उनसे कहा कि
भाई, ऐसे भी क्या शर्माते हो! अरे नेता हो शर्म करते हो!
वे बोले कि भाई, मैं जरा इस क्षेत्र में नया-नया
हूं और भाषण देने की कला मुझे आती भी नहीं कि कैसे भाषण देना चाहिए। मित्र महोदय
हंसे और बोले: "अरे,भाषण देना भी कोई कला है। बस बात
में से बात निकालते जाओ, यही तो भाषण का राज है।'
इसके बाद नेताजी ने मंच पर जो भाषण दिया, वह इस प्रकार था: "भाइयों और बहनों, न तो मैं
स्पीकर हूं, न ही लाउडस्पीकर! स्पीकर हमारे मुहल्ले के कल्लन
मियां हुआ करते थे, जो कि आजकल कब्र में हैं। उनकी कब्र पर
दो तरह के फूल चढ़ाए गए--गुलाब के और गेंदे के। और आप जानते ही होंगे कि गुलाब से
ही गुलकंद बनता है। और गुलकंद ही सारी बीमारियों की जड़ है। और जड़ों में सबसे लंबी
जड़ खरबूजे की होती है। और आपको पता ही होगा कि एक खरबूजे को देख कर दूसरा खरबूजा
रंग बदलता है। रंग जर्मनी के प्रसिद्ध होते हैं। और जर्मनी में ही हिटलर हुआ था
जिसके कारण द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ था। और उस युद्ध में कई शेरे दिल मारे गए थे।
चालीस सेर का एक मन होता है। और मन बड़ा चंचल होता है! चंचल मधुबाला की बहन का नाम
था। मधुबाला वही जिसे दिल का दौरा पड़ा था। दिल एक मंदिर है। और इस मंदिर के सामने
से कई प्राणी गुजरते हैं, जिनमें कई कुत्ते भी होते हैं। और
आपको पता ही होगा कि कुत्ते की दुम हमेशा तिरछी होती है। भाइयों और बहनो, जिस दिन कुत्ते की दुम सीधी जो जाएगी, मैं फिर भाषण
देने आऊंगा।'
इस तरह बात में से बात निकालते जाना। राजेंद्र, और कुछ कला वगैरह नहीं है। एक दफा बात में से बात निकालना आ जाए...और सबको
आती है। असल में। तुम रोज यही तो करते हो। एक-दूसरे से बातचीत करते हो, तो क्या करते हो?
मैं कोई भाषण थोड़े ही देता हूं, मेरी कोई कला थोड़े ही
है। जैसे तुमसे अकेले में बैठ कर बात करूं, ऐसे जरा ऊपर मंच
पर बैठ कर बात कर लिया। एक से बात की कि हजार से बात की कि दस हजार से बात की,
क्या फर्क पड़ता है?
मैं कोई भाषण देने की कला में निष्णात नहीं हूं। मैं तो बातचीत कर रहा
हूं।
और भाषण देने की जो कला होती है, वह तो कौड़ी की होती
है; उसका कोई मूल्य नहीं होता। मैं तो तुम्हारे सामने अपना
हृदय खोल कर रख रहा हूं। और हृदय बड़ा रहस्य है! बीस साल क्या, बीस जन्मों तक भी खोलते जाओ, खोलते जाओ, तो भी उस रहस्य का कोई अंत आने वाला नहीं।
मैं तो तुम्हारे सामने अपने प्रेम को गा रहा हूं। इससे गीत पर गीत
निकलते हैं। मैं तो तुम्हारे सामने अपने ध्यान को बांट रहा हूं। जितना बांटो उतना
बढ़ता है। मैंने जिस भगवत्ता को जाना है, उसमें तुम्हें
साझीदार बना रहा हूं। बीस वर्ष तो कुछ भी नहीं, अनंत काल तक
भी यह सत्संग चल सकता है।
यह तो मधुशाला है। यहां तो मैं तुम्हें मिला रहा हूं। यहां तो तुम
जितना पीओगे उतने प्यासे होते जाओगे। और यह मधु कुछ ऐसा है कि जितना पीओगे उतना
होश में आते जाओगे।
योग प्रीतम ने यह गीत मुझे भेजा है--
क्या मस्ती का समां बंधा है तेरे इस मयखाने में
जमा हुआ रिन्दों का मजमा, इस प्यारे मयखाने में
डरते-डरते कदम बढ़ाया, हमने भी इस महफिल में
हम भी हो बैठे दीवाने, पीकर इस मयखाने में
पीने वाला झूम रहा है, पीकर तेरी मय, साकी!
फिर भी होश बना रहता है तेरे इस मयखाने में
ऐसा जाम पिलाते हो तुम, मुर्दे जिंदा हो जाते
देखे क्या-क्या करते साकी तेरे इस मयखाने में
श्रीमान कृष्ण, जनाब मोहम्मद, घुट-घुट बातें करते हैं
बुद्धों का जमघट है साकी, तेरे इस मयखाने में
मिस्टर जीसस पूना आ कर बड़े ठहाके लगा रहे
लगता है कुछ ज्यादा ही पी बैठे इस मयखाने में
बुद्ध नाचने लगे यहां पर, मीरा बैठी ध्यान धरे
महावीर रोल्स में आते तेरे इस मयखाने में
कभी योग तो कभी कराटे, सूफी नर्तन, ताई-ची
क्या-क्या गोरखधंधे करते गोरख इस मयखाने में
बना रही है चाय राबिया, सहजो गेहूं बनी रही
और दया मां बर्तन धोती, इस न्यारे मयखाने में
लाओत्सु महाराज प्रेम से, यहां बगीचा-सींच रहे
नानक साहिब पहरा देते, रात जगे मयखाने में
चारों खाने चित पड़े हैं, पंडित तोताराम कई
गुरजिएफ कर रहे पिटाई, बैठे इस मयखाने में
मुल्ला नसरुद्दीन हंसाते, रोज सुबह इस महफिल में
हंसी-हंसी में कौन नहीं फंस जाता इस मयखाने में
छोड़ रहे भगवान पटाखे, और हंसी की फुलझड़ियां
रोज मनानी है दीवाली, अपने इस मयखाने में
इतना रंग ढुलाया तुमने, तन-मन भी रंग डाले हैं
नित होली का उत्सव मनता, तेरे इस मयखाने में
तेरे हाथों मय पी लें जो, सचमुच किस्मत वाले हैं
डूब-डूब कर तिर जाते हैं, वे तेरे मयखाने में
आज इतना ही।
तीसरा प्रवचन; दिनांक ३ अगस्त, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
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