बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –ओशो
विज्ञान और धर्म का समन्वय-(प्रवचन-दूसरा)
दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
विज्ञान और धर्म का समन्वय-(प्रवचन-दूसरा)
पहला प्रश्न: भगवान,
आप गांधीवादी विचारधारा के विरोधी और आधुनिक प्रविधि और यंत्र
के समर्थक मालूम पड़ते हैं। लेकिन आपको मालूम है कि प्रविधि और यंत्र के कारण
पश्चिम का जीवन कितना अशांत और तनावग्रस्त एवं क्षुब्ध हो चला है। वह सामूहिक
विक्षिप्तता के कगार पर खड़ा है। तब क्यों आप उसका अंध-समर्थन करते हैं?
चिमनभाई देसाई,
मैं
विचारधाराओं मात्र का विरोधी हूं, गांधीवादी विचारधारा का ही नहीं। विचार के पार
जाना है, तो किस वाद को मान कर तुम उलझे हो, इससे भेद नहीं पड़ता। किस झाड़ी के कांटों में उलझे हो, इससे मुझे बहुत प्रयोजन नहीं है। कांटों से मुक्त होना है। और मस्त विचार
से ज्यादा नहीं है; उलझा सकते हैं, सुलझा
नहीं सकते। चूंकि मैं विचारधाराओं मात्र
का विरोधी हूं, इसलिए स्वभावतः गांधीवादी विचार की झाड़ी भी
उसमें एक झाड़ी है। और चूंकि नयी है, इसलिए बहुत लोगों को
उलझा लेती है। विशेषकर भारतीय मन के लिए उसमें बड़ा आकर्षण है। वह आकर्षण रुग्ण है।
उस आकर्षण के आंतरिक और अचेतन कारण बहुत हैरान करने वाले हैं। पहला तो कारण यह है
कि गांधीवादी विचारधारा दरिद्र को गौरीशंकर पर बिठा देती है।
उससे हमारी आत्महीनता
की भावना को बड़ा सहारा मिलता है। हमारे घाव फूलों से ढंक जाते हैं। हम दरिद्र हैं
और यह बात कचोटती है। और गांधीवादी विचारधारा हमें दरिद्रनारायण बना देती है--शब्दों
में ही! सब जाल शब्दों का है। दरिद्र को दरिद्रनारायण कह देने से कुछ भेद नहीं
पड़ता। कैंसर को कैंसरनारायण कह देने से क्या भेद पड़ेगा?
पुराने
आयुर्वेदिक शास्त्रों में टुबरकुलोसिस को राजरोग कहा है। इससे क्या कुछ मजा आ
जाएगा, कि टी. बी. हो गयी--राजरोग हो गया! चलो इस बहाने सही, राजा हो गए! टी. बी. तो फिर भी मारेगी। राजरोग कह देने से कुछ बचाव नहीं
है। लेकिन फिर भी मन सांत्वनाएं खोजता है। और ये सांत्वनाएं सदियों तक भटकाए रख
सकती हैं, भरमाए रख सकती हैं।
दरिद्रता
महारोग है। और दरिद्र को नारायण कहना उसके महारोग को ओट देना है। दरिद्रता मिटनी
चाहिए, दरिद्र मिटने चाहिए। और दरिद्रता के मिटाने के लिए अब एक ही उपाय है,
वह वैज्ञानिक तकनीकों का अधिकतम उपयोग है।
मैं
वैज्ञानिक तकनीकों का समर्थन जो कर रहा हूं, वह इसीलिए कि तुम्हारे घाव सिवाय
उसके और किसी तरह भरेंगे नहीं। छिप सकते हैं। छिपे हुए उघड़े घावों से ज्यादा
खतरनाक हो जाते हैं, क्योंकि तुम उन्हें भूलने लगते हो और
भीतर ही भीतर उनकी मवाद फैलने लगती है। जो छोटी-सी फुंसी थी, वह भी अगर छिपा ली जाए तो नासूर हो सकती है। और अगर उसकी चिकित्सा की ही न
जाए तो कैंसर भी बन सकती है।
भारत
का रोग बहुत पुराना हो गया है। भारत सदियों से दरिद्र है। उन दिनों भी भारत दरिद्र
था, जब सारी दुनिया उसे सोने की चिड़िया कहती थी। था सोने की चिड़िया कुछ
थोड़े-से लोगों के लिए, सो उन कुछ थोड़े-से लोगों के लिए अब भी
सोने की चिड़ियां है। दरिद्रता की एक अनिवार्य प्रक्रिया है। सौ लोगों में से
निन्यानबे लोग जब दरिद्र होते हैं तो एक व्यक्ति के हाथ में सोने की चिड़िया लग
जाती है। स्वभावतः निन्यानबे व्यक्तियों की दरिद्रता, उनके
गङ्ढे एक व्यक्ति के जीवन को धन के शिखर पर बिठा देते हैं। जरूर राजा था, महाराजा थे नगरसेठ थे। और उनके लिए जीवन सोने की चिड़िया था। इतिहास और
पुराण उनकी ही स्तुति गाते हैं। और इसमें एक भ्रांति पैदा होती है, जैसे कि सारा देश अमीर था। वह बात बिलकुल ही झूठ है। यह देश कभी भी देश की
तरह अमीर नहीं रहा। एक छोटा-सा वर्ग इस सारे देश का शोषण करके छाती पर बैठा रहा
है।
रामराज्य
लाना चाहते थे महात्मा गांधी। लेकिन रामराज्य की अगर पूरी अंतर्व्यवस्था हम समझें
तो बिलकुल सड़ी-गली थी,
रुग्ण थी। रामराज्य में आदमी बाजारों में बिकते थे गुलामों की तरह।
और क्या होगी दरिद्रता, जहां आदमी बिकने को मजबूर होते हों?
ऐसी दरिद्रता तो आज भी नहीं है। कौन बिकने को राजी है? बाजार में जैसे ढोरों के बाजार भरते हैं, मवेशियों
के बाजार भरते हैं और बोली लगती है--ऐसे आदमियों के बाजार भरते थे जहां आदमी बिकते
थे। आदमी तो कम, औरतें ज्यादा बिकती थीं। साधु-संतों का देश
है! सती-साध्वियों का देश है! सीता, पार्वती, द्रौपदी का देश है! स्त्रियां बाजारों में यूं बिकती थीं जैसे सामान बिकता
है। बोली लगती थी। इस रामराज्य को भारत में गांधी फिर लाना चाहते थे! निश्चित,
मैं विरोध में हूं।
अतीत
में लौटने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। और कोई लौटना भी चाहे तो नहीं लौट सकता है।
समय में पीछे जाया ही नहीं जा सकता। समय की घड़ी को पीछे की तरफ घुमाया ही नहीं जा
सकता! लेकिन पीछे की सुंदर-सुंदर कहानियां गढ़ी जा सकती है, सपने
संजोए जा सकते हैं। लोगों को भरमाया जा सकता है। कार्ल माक्र्स ने कहा है:
"धर्म अफीम का नशा है।' वह तो महात्मा गांधी के पहले
उसने कहा था। अगर वह महात्मा गांधी के बाद पैदा होता तो महात्मा गांधी को एक
प्रमाण की तरह उपस्थित करता, कि यह देखो धर्म अफीम का नशा
है! पूरा देश गरीब है और अफीम पिलायी जा रही है दरिद्रनारायण की! पूरा देश सदियों
से गरीब है और रामराज्य की झूठी, काल्पनिक कहानियां गढ़ी जा
रही हैं। और वह हवा फैलायी जा रही है कि रामराज्य फिर आना चाहिए।
बुद्ध
के समय में भारत की कुल आबादी दो करोड़ थी। आज भारत की आबादी सत्तर करोड़ के करीब
पहुंच रही है। इस भारत में से बंगला देश अलग हो गया, पाकिस्तान अलग हो गया,
ब्रह्म देश अलग हो गया। अगर उन तीनों को भी जोड़ लें तो इस देश की
आबादी अब एक अरब के ऊपर जा चुकी है। कहां दो करोड़ और कहां एक अरब! पचास गुनी आबादी
हो गयी। और तुम चरखों की बातें करते हो? होश की कुछ बात करो!
चरखे चला कर तुम एक अरब लोगों के तन ढांक सकोगे? तो तन ढंक
लेना, पेट खाली रह जाएगा। पेट भरोगे, तो
तन नंगा रह जाएगा। और तुम इन एक अरब लोगों के लिए इन बखर से खेती करोगे? जमीन कहां है इतनी? और हल-बखर से खेती कितनी हो सकती
है? और क्या पैदा हो सकता है?
नयी
प्रविधियों का उपयोग करना होगा और ऐसा क्या घबड़ाहट है नयी प्रविधि से? रूस में
ऐसे मौके आए हैं पिछले वर्षों में जब इतना गेहूं पैदा हो गया कि उन्हें गेहूं रेल
के इंजिनों में कोयले की तरह जलाना पड़ा, क्योंकि कोयला महंगा
और गेहूं सस्ता। अमरीका और कैनेडा इतना उत्पादन कर लेते हैं। कि सारी दुनिया को
सहायता देने को तत्पर होते हैं। इतना दूध इकट्ठा कर लेते हैं कि सारी दुनिया को
दूध का पावडर बांटते रहते हैं। और तुम्हारी गौ-माताओं की हालत देखो! उनसे दूध
निचोड़ना भी पाप मालूम पड़ता है। हड्डी-हड्डी हो रही हैं। तुम खून निचोड़ रहे हो।
उनके प्राण सूखे जा रहे हैं--अस्थि-पंजर! और कितनी गौ-माताएं हैं! जितनी भारत में
हैं उतनी कहीं भी नहीं--अठारह करोड़ और दूध के नाम पर पानी पी रहे हो। और फिर भी
वही मूर्खतापूर्ण बातें को दोहराए चले जाते हो।
महात्मा
गांधी न तो कोई बड़े विचारक थे और न ही कोई बड़ी विचारधारा छोड़ गए हैं। बहुत
साधारण-सी बातें हैं,
जिसको गांधीवादी विचारधारा के नाम से तुम शोरगुल मचाते हो। मगर अंधे
के हाथ में तो कुछ भी लग जाए तो लगता है बहुत बड़ी चीज लग गयी। सोच-विचार की क्षमता
भी तुमने खो दी है। मैं तो तुम्हें सोच-विचार के पार ले जाना चाहता हूं, तुम सोच-विचार से भी नीचे गिरे जा रहे हो।
थोड़ा
सोचो तो सही,
महात्मा गांधी रेलगाड़ी के विरोध में थे और जिंदगी भर रेलगाड़ी में
चले! तार टेलीफोन के खिलाफ थे, पोस्ट-आफिस के खिलाफ थे। और
जिंदगी भर जितने तार, टेलीग्राम और चिट्ठी-पत्री उन्होंने
लिखी, शायद ही किसी ने लिखी हो। पाखाने में बैठे-बैठे भी
चिट्ठी लिखवाते थे। संडास पर बैठे हैं और सेक्रेटरी पाखाने के बाहर बैठा है। वे
बोलते जा रहे हैं और सेक्रेटरी चिट्ठी लिख रहा है।
तुम
किस दुनिया की बातें कर रहे हो? बिजली न हो आज, रेलगाड़ी न
हो आज, हवाई जहाज न हो, कार न हो,
टेलिग्राफ न हो, टेलीफोन न हो, रेडियो न हो--तो तुम एक आदिम अंधकार में गिर जाओगे। चलाते रहना अपनी तकली
और चरखा। और चरखा चलाने वालों की हालत तो देखो; चक्रम हो
जाते हैं! और जो बहुत ज्यादा चलाते हैं, वे घनचक्कर हो जाते
हैं। अब जैसे मोरारजी देसाई को देखो! चरखा चलाते-चलाते ऐसे घनचक्कर हो गए कि
स्वमूत्र पीने लगे। ये महागांधीवादी विचारक हैं।
तुम
पूछते हो: "आप गांधीवादी विचारधारा के विरोधी और आधुनिक प्रविधि--और यंत्र के
समर्थक मालूम पड़ते हैं'
निश्चित
ही मैं विज्ञान समर्थक हूं। समग्ररूपेण मेरा विज्ञान को समर्थन है, बेशर्त
समर्पण है और समर्थन है। क्योंकि मुझे सिर्फ एक ही आशा दिखाई पड़ती है अब मनुष्य को
बचने की--और वह विज्ञान है।
लेकिन
इन देश के मूढ़ एक से एक बातें खोज लेते हैं। और वे यह भी नहीं देखते कि उनके तर्क
कितने भ्रांत हैं! तुम कहते हो कि "लेकिन आपको मालूम है कि प्रविधि और यंत्र
के कारण पश्चिम का जीवन कितना अशांत, तनावग्रस्त और क्षुब्ध हो चला है!'
वह प्रविधि और यंत्र के कारण नहीं है। उसका कारण है: धर्म का अभाव,
ध्यान का अभाव।
ये
गांधीवादी यह मूर्खता फैला रहे हैं इस देश में। और गांधीवादी ही नहीं, इस देश
में और भी विज्ञान-विरोधी लोग हैं। और उनके वैज्ञानिक का एकमात्र कारण है कि अगर
विज्ञान सही है तो हमारे पांच हजार वर्षों के सारे ऋषि-मुनि थोथे सिद्ध होते हैं।
उन्होंने हमें विज्ञान से वंचित रखा। उन्होंने संसार को माया कह कर हमें संसार को
समझने का मौका नहीं दिया। उसमें तुम्हारे अवतार, तीर्थंकर और
तुम्हारे शंकराचार्य सब फंसेंगे उस जाल में। क्योंकि उन सबका ही जुर्म है, जिन्होंने भी कहा यह संसार माया है। कहते ही रहे माया, फिर चाहे वे महावीर हों और चाहे बुद्ध हों और चाहे शंकराचार्य हों। माया
कहते ही रहे, लेकिन भोजन तो मांगने जाना ही पड़ता था। अब
संसार ही माया है तो क्या भिक्षा मांगते होगे? बुद्ध ने सब
तो छोड़ दिया था, लेकिन भिक्षापात्र तो रखते थे। अब क्या
भिक्षापात्र रखते हो जब संसार माया ही है, तो किससे मांगना,
क्या मांगना, क्या जरूरत?
बुद्ध
के साथ निरंतर जीवन नाम का,
उस समय का सर्वाधिक प्रसिद्ध चिकित्सक चलता था। वह एक सम्राट ने--बिंबिसार
ने--बुद्ध को भेंट किया था। वह सम्राट का निजी चिकित्सक था। जब संसार माया है तो
क्या दवा, क्या औषधि? और जब संसार माया
ही है तो किसको समझा रहे हो? यह भी बड़े मजे की बात है!
शंकराचार्य से अगर मेरा कहीं मिलना हो जाए तो पहली बात तो मैं उनसे यह पूछूं कि जब
सब झूठ ही है तो तुम क्यों सिर पचा रहे हो, झूठ के साथ!
अगर
तुम यहां ही नहीं तो मेरा बोलना पागलपन होगा। तुम हो तो मेरे बोलने में कोई
सार्थकता है। तुम नहीं हो तो मैं विक्षिप्त हूं; कोई नहीं है और बोल रहा
हूं! संसार है ही नहीं तो संसार में लोग कहां सब माया है, तो
तुम किसको समझा रहे हो? रस्सी ही है, सांप
दिखाई पड़ रहा है। मगर शंकराचार्य पीट रहे हैं रस्सी को डंडों से और फिर भी कहते
हैं: "अरे रस्सी है, सांप थोड़ी ही!' फिर डंडे से पीट किसलिए रहे हो? जिंदगी भर माया के
खंडन में लगे हैं! जो है ही नहीं उसका खंडन करना पड़ता है? काई
"गधे के सींग नहीं हैं! यह सिद्ध करने के लिए शास्त्र लिखता है? गधे भी नहीं लिखते कि गधे के सींग सब माया है। आकाशकुसुम नहीं है, इसको सिद्ध करने के लिए कोई तर्क-विवाद खड़ा करना पड़ता है?
लेकिन
शंकराचार्य पूरे जीवन एक ही बात सिद्ध करने में लगे रहे कि जगत माया है। और उनके
बाद इन हजार सालों में तथाकथित शंकर के अद्वैत को मानने वाले, दंडधारी,
साधु-महात्मा बस एक ही कर रहे हैं कि संसार माया है। इसका परिणाम यह
हुआ कि हम संसार को समझने से वंचित रहे गए। जो है ही नहीं, उसको
समझना क्या? उसके रहस्यों को क्या समझना? इसलिए विज्ञान से वंचित हुए। अब विज्ञान से वंचित हो गए हैं तो अब एक ही
सहारा खोजा है कि अरे विज्ञान में कोई सार नहीं! अंगूर खट्टे हैं। और देखते नहीं
पश्चिम में क्या हालतें हो रही है कि विज्ञान के कारण ही जीवन अशांत और तनावग्रस्त
व क्षुब्ध हो चला है! यह सरासर झूठी बात है।
मैं
तो वैज्ञानिक ढंग से ही रहता हूं। मैं तो विज्ञान की सारी प्रविधि का उपयोग करता
हूं। न तो विक्षिप्त हूं,
न तनावग्रस्त हूं। विज्ञान ने जो भी खोजा है उसका मैं उपयोग करता
हूं, मैं तो परम रूप से विज्ञान का उपभोक्ता हूं। मेरी
दरिद्रता में कोई आस्था नहीं है और संसार को मैं माया नहीं कहता। संसार उतना ही
सत्य है जितना ब्रह्म; थोड़ा ज्यादा ही भला, कम नहीं। क्योंकि ब्रह्म को भी जानना हो तो संसार के ही मार्ग से जाना
होगा। ब्रह्म भी जाना जाता है तो संसार से ही। संसार में ही छिपा है ब्रह्म। संसार
प्रकट है, ब्रह्म छिपा हुआ है, गुप्त
है। संसार ठोस है, ब्रह्म वायवीय है। संसार पत्थर जैसा है,
ब्रह्म हवा जैसा है; दिखता नहीं, अनुभव होता है।
मैं
तो विक्षिप्त नहीं हूं। मैं तो पागल नहीं हूं। तुम मेरी जीवन-प्रक्रिया देखो, बिलकुल
वैज्ञानिक है। जो भी विज्ञान ने खोजा है, जो भी श्रेष्ठतम
विज्ञान ने खोजा है, उसका मैं उपयोग करता हूं--उसका ही उपयोग
करता हूं!
पश्चिम
की तकलीफ यह नहीं है कि उन्होंने विज्ञान के कारण अपनी विक्षिप्तता पैदा कर ली; उनकी
तकलीफ अतिवाद है, जैसी तुम्हारी तकलीफ अतिवाद है। तुम
ब्रह्मवादी हो कर मरे, वे संसारवादी हो कर मर रहे हैं। लेकिन
अति न तुम देखोगे, न वे देखेंगे। तुम इसलिए सड़ रहे हो,
गल रहे हो, भूखे हो, दरिद्र
हो, दीन हो, रुग्ण हो, क्योंकि तुमने विज्ञान का उपयोग करके संपदा पैदा न की। और तुम्हारे थोथे
साधु-संन्यासी तुम्हें समझाते रहे संसार- त्याग। अब जब संसार का त्याग ही करना है
तो क्या संपदा पैदा करनी! अरे तो हाथ का मैल है, मिट्टी है!
छोड़ो, भागो! जितनी जल्दी भाग जाओ उतने होशियार और कुशल हो!
लेकिन
बड़े आश्चर्य हमें ये दिखाई पड़ते हैं कि आंखें रहते भी हम देखते नहीं गौर से। जैनों
ने, उनके मुनियों ने संसार छोड़ा लेकिन जैनों के मंदिर जितने समृद्ध है उतने
किसी के नहीं। तुम्हें विरोधाभास नहीं दिखाई पड़ता? संसार तो
माया है। सोना तो मिट्ठी है, मगर महावीर की प्रतिमाएं बनायी
हैं स्वर्ण की--शुद्ध सोने की! मिट्टी की नहीं बनायी? मंदिर
पर कलश चढ़ाते हैं, स्वर्ण का चढ़ाते हैं। मिट्टी का नहीं चढ़ा
देते! और दौड़ लगी रहती है, होड़ लगी रहती है हर धर्म में कि
किसका मंदिर कितना समृद्ध, कितनी चढ़ोत्तरी होती है, कितनी हुंडियां आती है, मंदिर की कितनी जायदाद है,
कितना धन है मंदिर के पास यह मंदिर की प्रतिष्ठा होती है। और ये वे
ही लोग हैं जो कि संपदा तो कुछ है ही नहीं, अरे सपना है!
कहां उलझे हो!
यह
बड़े मजे की बात है। ये सारे शास्त्र जैनों के, बौद्धों के, हिंदुओं
के संपदा को गाली देते हैं और दान की महिमा गाते हैं। मैं कभी-कभी चौंकता हूं कि
हम कब सोचेंगे, हमारे भीतर बुद्धि कब पैदा होगी? अगर धन मिथ्या है तो दान में क्या रहा फिर? यूं
समझाते हैं कि धन में कुछ सार नहीं, मगर दान मैं बड़ा पुण्य
है! असार का पुण्य करोगे, असार दान करोगे? असार से पुण्य अर्जित करोगे? किसको धोखा दे रहे हो?
मगर ऐसा जहर पिलाया है, ऐसी अफीम पिलायी है
सदियों से कि लोगों को विरोधाभास दिखाई नहीं पड़ता।
एक
स्त्री ने कहा: "बहन,
तुम्हें मेरे बेटे को मारने के बजाए अपनी खुराक में कमी करनी चाहिए।
बेटे ने कुछ गलत तो नहीं कहा।'
बच्चों
को तो सीधा दिखाई पड़ता है। रही होगी कोई टुनटुन।
मैंने
सुना है कि टुनटुन एक बस में सफर कर रही थी। एक तरफ अमिताभ बच्चन और दूसरी तरफ
विनोद खन्ना बैठे थे। आखिर विनोद तो मेरे संन्यासी हैं, थोड़ी देर
तो उन्होंने बर्दाश्त किया। लेकिन बर्दाश्त करना मेरे संन्यासियों की कोई साधना
नहीं है। आखिर उन्होंने कहा: "बहन जी, आप क्यों मुझे
हुद्दे मार रही है?'
टुनटुन
ने कहा: "हद हो गयी,
मार रही हूं? अरे क्या सांस लेना जुर्म है?'
अब
टुनटुन के पास बैठोगे तो वह सांस लेगी तो हुद्दे तो लगेंगे ही! ज्वार-भाटा आ रहा
है, उसमें हुद्दे तो लगने वाले ही हैं! वह बेचारी श्वास ही ले रही है।
बजाए
इसके कि तुम अपनी मूर्खताएं देखो...चिमनभाई देसाई पोरबंदर निवासी हैं। सो उन्हें
बहुत दुख हो गया मालूम होता है। पोरबंदर निवासी हैं। गांधी जी की जन्मभूमि! और मैं
गांधीवादी विचारधारा का विरोधी? सो उनको बेचैनी हो गयी होगी।...तुम जरा आंखें
तो खोलो।
तुम
एक काम करो। पोरबंदर रहते हो, बंदर-छाप काला दंतमंजन आंखों में सुरमे की तरह
लगाओ। और बुढ़िया का काजल दांतों में घिसो, क्योंकि दांत
जितने मजबूत होते हैं आंख उतनी मजबूत होती है। बुढ़िया का काजल दांतों में घिसना और
बंदर-छाप काला दंत-मंजन! यह बंदर-छाप काला दंत-मंजन सबसे पहले बजरंग बली ने खोला
होगा। वह उन्होंने सबसे पहले आंखों में आंजा था। वह बड़ी गजब की चीज है। यह राज
तुम्हें बताता हूं, दांतों पर मत घिसते रहना, आंखों में आंजना। तभी तो संजीवनी बूटी लेने गए थे, तो
सारे पहाड़ पर संजीवनी बूटी दिखाई पड़ने लगी, सो पहाड़ ही ले
आए। ऐसी आंखें देखने लगाी कि सारी बूटियां संजीवनी बूटियां दिखाई पड़ें।
थोड़ी
आंख खोलो। थोड़ी होशियारी की बात करो। थोड़ी समझ का उपयोग करो।
पश्चिम
इसलिए पागल नहीं हो रहा है कि विज्ञान ने उसे नयी आधुनिक संपदा दे दी है। वैभव दे
दिया है। पश्चिम इसलिए विक्षिप्त हो रहा है कि विज्ञान ने तो अभूतपूर्व साधन जुटा
दिए, लेकिन ध्यान की क्षमता नहीं पैदा हुई। जैसे बच्चे के हाथ में तलवार लग जाए
तो तलवार का कोई कसूर है? तलवार तो मार भी सकती है, बचा भी सकती है। लेकिन बच्चे के हाथ में लग जाए तो खतरा ही है। या तो किसी
को मारेगा या खुद को मार लेगा। लहू बहेगा--या तो किसी और का या खुद का। तलवार जैसी
चीज बच्चे के हाथ में पड़ जाए तो खतरा है। मगर इससे तलवार को गाली मत देना। तलवार
का क्या कसूर है? बच्चे को प्रौढ़ करो!
तो
पश्चिम उस कोशिश में लगा हुआ है। मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके पास पश्चिम से इतने
लोग आ रहे हैं,
भारतीय क्यों नहीं आते?
भारतीय
क्या करें! वे तो बंदर-छाप काला दंत-मंजन आंखों में लगा रहे हैं। बुढ़िया का काजल
दांतों में घिस रहे हैं। और चरखा चला रहे हैं। उनको फुरसत कहां है ध्यान वगैरह की? लेकिन
पश्चिम में एक तीव्र क्रांति उठी है, एक तूफान उठा है,
ध्यान के प्रति आकर्षण उठा है। एक प्रबल अभीप्सा जगी है। साफ हो गयी
है पश्चिम के विचारशील व्यक्ति को यह बात कि विज्ञान अकेला हमें साधन तो दे देगा,
लेकिन साधन का उपयोग करने वाला कहां है? और
जितने सूक्ष्म साधन होंगे, उतनी ही सूक्ष्म चेतना चाहिए।
जितने जटिल साधन होंगे, उतनी ही शांत चेतना चाहिए। नहीं तो
साधनों की जटिलता की छाप चेतना की जटिलता बन जाएगी। इतना धन का अंबार लगेगा और
तुम्हारे भीतर वही पुरानी बचकानी वृत्तियां रही, तो इस धन का
तुम करोगे क्या? इससे कुछ न कुछ खतरा होने वाला है।
वेश्यागमन करोगे, शराब पीओगे, जुआ
खेलोगे, कुछ उल्टा-सीधा करोगे। लेकिन अगर भीतर ध्यान भी हो
तो धन का अदभुत उपयोग हो सकता है।
मैं
धन-विरोधी नहीं हूं। न धन-विरोधी हूं, न ध्यान-विरोधी हूं। मैं मानता हूं
कि ध्यानी के हाथ में धन हो तो धन भी अभूतपूर्व रूप से उपयोगी हो जाता है। और धनी
के हाथ में ध्यान लगे तो ध्यान भी सुगमता से सधता है।
दरिद्र
ध्यान नहीं साध सकता;
अभी धन ही नहीं साध सका, अभी बाहर का ही नहीं
सधा, भीतर का क्या खाक सधेगा! और अगर किसी तरह खींचतान करके
भीतर का साध ले तो बाहर से हमेशा व्याघात खड़े होते रहते हैं। कभी भूख सताती,
कभी रोग सताता। छप्पर नहीं है, वर्षा हो रही
है। कपड़े नहीं हैं, सर्दी पड़ रही है। तो हम एक से एक मूर्खता
की बातें खोजते हैं। हम कहते हैं कि कपड़े उतार दो, नग्न रहो,
तपश्चर्या करो। अगर कपड़े नहीं हैं तो भभूत रमा लो। बाजार इसके कि
कपड़े खोजो, भभूत रमाना हम सिखाते हैं।
अब
भभूत रमाना--तुम शायद चकित होओगे जानकर--है तो कपड़े का ही परिपूरक, मगर
अवैज्ञानिक। जब और व्यक्ति शरीर पर राख मल लेता है तो तुम जानते हो उसका वैज्ञानिक
अर्थ क्या होता है? उसका अर्थ होता है उसने अपने सारे रोओं
के जो छिद्र हैं, वे राख से भर लिए। वहां से हवा शरीर में
भीतर जाती है। हर रोआं श्वास लेता है। तुम सिर्फ नाक से ही श्वास नहीं लेते। तुम
सिर्फ नाक की ही श्वास के बल पर ठीक से जीवित भी नहीं रह सकते
वैज्ञानिक
कहते हैं कि अगर तुम्हारे पूरे शरीर के सारे रंध्र वैज्ञानिक विधि से बंद कर दिए
जाएं, जैसे कोलतार पोत दिया जाए पूरे शरीर पर, मोटी पर्त
कोलतार की तुम्हारे पूरे शरीर पर चढ़ा दी जाए, नाक खुली छोड़
दी जाए, मुंह खुला छोड़ दिया जाए--तो तुम तीन घंटे के भीतर मर
जाओगे। सिर्फ तीन घंटे जी सकते हो। तुम्हारी नाक श्वास लेती है, वह तो ठीक; लेकिन तुम्हारे प्रत्येक जीवकोष्ठ को
श्वास की जरूरत है। और तुम्हारे शरीर में सात करोड़ जीवकोष्ठ हैं। सात करोड़ जीवित
अणु हैं। उनको श्वास चाहिए।
भभूत
रमा कर बैठ गए,
तो तुम सोचते हो त्यागत्तपश्चर्या कर ली तुमने? भभूत रमाए हुए कोई ठंड में बैठा है तो तुम सोचते हो: "अहा, क्या तपस्वी है! हम गरम ऊन का कोट पहने बैठे हैं, अंदर
स्वेटर भी डाटे हुए हैं, कपड़ों पर कपड़े पहने हुए हैं,
रजाई ओढ़े हुए हैं और फिर भी कंप रहे हैं। और एक यह आदमी है, क्या तपश्चर्या है!' तपश्चर्या वगैरह कुछ भी नहीं,
इसने सिर्फ शरीर के रंध्र बंद कर लिए हैं तो श्वास बंद हो गयी,
हवा भीतर नहीं जाती, तो उसे ठंड नहीं लग रही
है।
गर्मी
में लोग अपने चारों तरफ अंगीठी जला लेते हैं। उसको हम तपश्चर्या कहते हैं। वह भी
तपश्चर्या नहीं है तुम्हारा प्रत्येक जीवकोष्ठ जब तुम गर्म होने लगते हो तो पसीना
छोड़ता है। पसीना छोड़ना गर्मी से बचने की एक प्राकृतिक व्यवस्था है। वह तुम्हें
वातानुकूलित रखने का एक आयोजन है। जब तुम्हारे शरीर से, रोएं-रोएं
से पसीना की बूंदें तुम्हारे शरीर की गर्मी से उत्तप्त हो कर वाष्पीभूत हो जाएगी।
शरीर की गर्मी, जो तुम्हें परेशान कर रही थी, इस पानी को जो पसीने की तरह आया है, भाप की तरह
बनाने के काम आ जाएगी। गर्मी पसीने को भाप बनाने में लग जाएगी, तुम्हारा शरीर शीतल हो जाएगा।
लेकिन
जो व्यक्ति अंगीठी जला कर गर्मी के दिनों में बैठ जाता है, उसका
परिणाम यह होता है कि उसके जीवकोष्ठों में जितना पानी होता है, सब बह जाता है। जब सब पानी बह जाता है तो जीवकोष्ठ सूख जाते हैं, करीब-करीब मुर्दा हो जाते हैं। उस मुर्दगी से भरी हुई पातों के भीतर गर्मी
नहीं पहुंचती फिर, शीत पहुंचती, न
गर्मी पहुंचती। उस आदमी ने अपनी चमड़ी को संवेदनशून्य कर लिया। उस आदमी ने अपनी
चमड़ी को मार डाला। उस आदमी की चमड़ी में अब जीवन नहीं है। और उतना ही जीवन उसका कम
हो गया। चमड़ी तुम्हारी पांचवीं इंद्रिय है, वह आदमी एक बटा
पांच मर गया।
तुम्हारे
रोएं-रोएं को जीवित होना चाहिए। विज्ञान ने सारी सुविधाएं जुटा दी हैं। तुम्हें यह
पता है भलीभांति कि सदियों से तुम्हारे साधु-संन्यासी हिमालय जाते रहे। किसलिए? हिमालय पर
शांति है, सन्नाटा है, शीतलता है। उस
शीतलता और सन्नाटे की तलाश में हिमालय जाते रहे। मगर आज विज्ञान ने यह उपाय कर
दिया है कि तुम्हारे घर में ही साउंडप्रूफ वातानुकूलित कक्ष हो सकता है। हर घर में
होना चाहिए। उसको ही मंदिर बनाना चाहिए। हिमालय, इतनी दूर
जाने की क्या जरूरत, जब हिमालय घर में लाया जा सकता है। और
कितने लोग हिमालय जाएंगे? समझो कि सभी लोग चल पड़ें...।
पश्चिम
के बहुत बड़े विचारक इमेनुअल कांट ने कहा है: "उस नियम को ही नीति मानो, जिसको सब
लोग पूरा करें तो पूरी हो सके। उस नीति को नियम मत मान लेना, जिसको कुछ लोग पूरा करते हों और काम चल जाता हो। जब तक सब लोग उसे पूरा न
कर सकें, तब तक वह नीति नहीं है, नियम
नहीं है, अपवाद है।' यह उसकी कसौटी थी
नीति को कसने की। और मैं मानता हूं कि उसकी कसौटी उपयोगी है। जैसे ब्रह्मचर्य को
नैतिक नहीं माना, मैं भी नहीं मानता। कारण? क्योंकि इमेनुअल कांट कहता है: "अगर सारे लोग ब्रह्मचर्य धारण कर लें
तो उसका परिणाम पृथ्वी पर आत्मघात होगा। आत्मघात, पूरी
मनुष्य-जाति का, नैतिक नहीं हो सकता।'
तो
ब्रह्मचर्य में कहीं अनीति है। हां, कुछ लोग करते हों तो पता नहीं चलता;
क्योंकि कुछ लोगों से कुछ फर्क नहीं पड़ता। खुद इमेनुअल कांट ने
विवाह नहीं किया। मैंने नहीं किया। लेकिन इसको मैं नैतिक नहीं बना सकता। यह मेरी
मौज, यह मेरी मर्जी। मैं अपवाद हो कर जीना चाहता हूं। यह
मेरी शैली। मगर मैं यह नहीं कह सकता कि इसको मैं सब के ऊपर थोप दूं और प्रत्येक
व्यक्ति से कहूं कि ब्रह्मचारी हो जाओ। हालांकि मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि जो वह
करता है, वह चाहता है सब पर थोप दे। और इन्हीं अहंकारियों की
वजह से बहुत-सी मूर्खतापूर्ण बातें तुम्हारे ऊपर थोप दी गयी हैं। जो वे करते हैं
वही तुमसे करवाएंगे।
इमेनुअल
कांट से मैं राजी हूं। इसका अर्थ यह हुआ कि संन्यास की जो पुरानी धारणा है, वह नैतिक
नहीं है। क्योंकि अगर सारे लोग संन्यासी हो जाएं तो क्या परिणाम होगा? भीख कौन देगा इन्हें, भोजन कौन देगा, कपड़े कौन देगा? ये जीएंगे कैसे? कुछ लोग संन्यासी हो जाते हैं। तो करोड़ों लोगों के बीच कुछ पता नहीं चलता।
ठीक है चल जाता है।
उसी
बात को नैतिक कहा जा सकता है जिसको सब लोग मानें और तो भी जीवन को हानि न हो।
महात्मा
गांधी की विचारधारा बिलकुल अनैतिक है, क्योंकि अगर सारे लोग उनकी बात को
मान कर जीएं तो हिंदुस्तान की आबादी पुनः दो करोड़ रह जाएगी; अस्सी
करोड़ आदमियों को मरना पड़ेगा। हालांकि वे कहते हैं कि अहिंसक हैं, लेकिन अस्सी करोड़ लोगों की हिंसा का जुम्मा उनको उठाना पड़ेगा। और इतनी बड़ी
हिंसा दुनिया में किसी ने भी नहीं की--न अडोल्फ हिटलर ने, न
जोसेफ स्टेलिन ने, न माओत्से तुंग ने, न
चंगेजखान ने, न तैमूरलंग ने, न
नादिरशाह ने। सच तो यह है कि जितने दुनिया में हिंसक हुई हैं आज तक--तैमूर से लेकर
माओत्से तुंग तक--सबने भी मिल कर जितनी हत्या की है, वह भी
इतनी बड़ी हत्या नहीं है जितनी बड़ी हत्या महात्मा गांधी के सिर पर लगेगी। अगर
महात्मा गांधी की बात मान कर तुम चलते हो समग्ररूपेण, तो दो
करोड़ आदमी भारत में जिंदा रहते हैं, वे भी न्यूनतम ढंग से
जिंदा रहेंगे। बस किसी तरह जिंदा रहेंगे। अस्सी करोड़ आदमियों को मरना होगा। मर ही
रहे हैं, ऐसे ही मर रहे हैं। क्या खाक जी रहे हैं? सड़ रहे हैं, सरक रहे हैं, घिसट
रहे हैं मगर फिर भी हमारी मूढ़ता है कि हम अपनी दलीलों को दोहराए चले जाते हैं। और
हम ऐसे उपाय खोजते हैं, जिनकी मूढ़ता बिलकुल स्पष्ट होती है,
मगर फिर भी अंधी आंखें देख नहीं पाती।
एक
मरीज डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने पूछा: "आपको रोग क्या है?
मरीज
ने कहा: "सबेरे उठने के बाद एक घंटे तक सिर चकराता रहता है।'
डॉक्टर
ने कहा: उसमें क्या है! अरे एक घंटे बाद उठा करो।'
क्या
सरल तरकीब बतायी! क्या सीधा नुस्खा बता दिया! मगर मूर्खता देखते हो? वे एक
घंटे बाद उठेगा तो फिर चकराएगा। उसका उठने के बाद चकराता है, उससे एक घंटे बाद उठे कि दो घंटे बाद, क्या फर्क
पड़ता है?
पश्चिम
क्षुब्ध है निश्चित,
लेकिन क्षुब्ध होने का कारण विज्ञान नहीं है; क्षुब्ध
होने का कारण धर्म का अभाव है। तुम भी क्षुब्ध हो और तुम्हारे क्षुब्ध होने का
कारण विज्ञान का अभाव है।
मैं
एक ऐसी मनुष्यता चाहता हूं,
जहां धर्म और विज्ञान संयुक्त हो जाएं। विज्ञान बाहर का धर्म है;
धर्म भीतर का विज्ञान है। इन दोनों में कोई विरोध बनाए रखने की
जरूरत नहीं है। और महात्मा गांधी की विचारधारा इनमें विरोध खड़ा करती है। महात्मा
गांधी तो समन्वय की तरह हैं, लेकिन समन्वय को समझते भी हैं
या नहीं यह भी संदिग्ध है। समन्वय का एक ही अर्थ हो सकता है कि जो-जो हमें बातें
विरोधी दिखाई पड़ती हैं उनके भीतर हम कोई सेतु खोजें। मनुष्य के शरीर और आत्मा के
बीच सेतु, पृथ्वी और आकाश के बीच सेतु, पश्चिम और पूरब के बीच सेतु। अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, इसमें कुछ सेतु नहीं है। क्योंकि ये अल्लाह को मानने वाले वैसे ही मूढ़ हैं
जैसे ये ईश्वर को मानने वाले मूढ़ हैं। इन दोनों मूढ़ताओं में कोई सेतु मिलाने की
जरूरत नहीं है। ये तीन मिले ही हुए हैं। इसमें कुछ खास मामला नहीं है। ये एक तरह
के मूढ़ हैं, वे एक तरफ के मूढ़ हैं। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए
खड़े हैं माना, मगर हैं दोनों परम बुद्धू।
विज्ञान
और धर्म के बीच असली समन्वय सिद्ध होना है। और उसी दिन पृथ्वी पर मनुष्य अपनी
समग्र गरिमा में,
गौरव में, महिमा में, सौंदर्य
में प्रकट होगा।
लेकिन
चिमनभाई देसाई कहते हैं कि पश्चिम सामूहिक आत्महत्या के कगार पर...तुम भी खड़े हो।
और अगर इन दोनों में से ही चुनना हो तो भी मैं कहूंगा पश्चिम को चुनना। अगर इन दो
ही में से चुनना हो,
अगर यही विकल्प हो, तो मैं कहूंगा कि सारी
समृद्धि का उपभोग करते हुए पागल होना बेहतर है--बजाय भूखे कर कर, सड़ते हुए, भीख मांगते हुए, रोते
गिड़गिड़ाते हुए जीने के। यह कोई जीना है?
मुल्ला
नसरुद्दीन का बाप जब मर रहा था तो उसने अपने बेटे को पास बुलाया और कहा कि
नसरुद्दीन, तुझे मुझे एक सीख देनी है। आखिरी सीख है, बेटा भूलना
मत। जीवन भर के अनुभव का मेरा निचोड़ है, तुझे कहे जाता हूं
कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा कि पिताजी, आप कहते हैं मानता हूं आपकी बात कि धन से सुख
नहीं खरीदा जा सकता। लेकिन एक बात मैं भी निवेदन कर देना चाहता हूं--क्योंकि फिर
मिलना हो कि न हो--कि धन से कम से कम अपना मनपसंद दुख तो खरीदा जा सकता है!
जरा
सोचो गौर से। मुल्ला ने बात पते की कही। मनपसंद दुख। माना कि धन से सुख नहीं खरीदा
जा सकता, सो कोई निर्धन होने से भी नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए वह बात छोड़ो; उसका कोई मतलब न रहा। मगर धन से मनपसंद दुख खरीदा जा सकता है। यह भी क्या
कम है? झोपड़े में भी दुखी रहोगे, महल
में भी दुखी रहोगे--तो फिर महल में ही दुखी क्यों न रहो! कम से कम महल में रहने का
तो मजा ले ही लो; दुख तो भोगना ही है, झोपड़े
में भोगा कि महल में भोगा। रेगिस्तान में भी दुखी रहोगे और बगीचे में भी, तो बगीचे में ही दुखी रहना बेहतर है, कम से कम कोयल
तो पुकारेगी कभी, पपीहा, तो पी-पी
करेगा, फूल तो खिलेंगे! भूले-चूके कभी कोई गंध भी उड़ती आ
जाएगी! कभी मोर तो नाचेगा! माना कि दुखी रहोगे, मगर
रेगिस्तान में दुखी रहने की बजाय बगीचे में दुखी रहना बेहतर है।
मैं
तुमसे कहता हूं कि अगर पूरब और पश्चिम ही विकल्प हों, अगर इनके
बीच कोई समन्वय बन ही न सकता है, तो पश्चिम को चुनना,
पूरब को नहीं। लेकिन समन्वय बन सकता है, इसलिए
चुनाव का कोई सवाल नहीं है। वही मैं कोशिश कर रहा हूं। इसलिए मुझसे पूरब भी नाराज
होगा और पश्चिम भी नाराज होगा। मैं जिस काम में लगा हूं उसमें लाखों-करोड़ों लोग
मुझसे नाराज होने वाले हैं। और मजा यह कि उनके लिए ही मैं काम में लगा हूं। मगर
यही इस काम का मजा है। मजा ही कहना चाहिए। यही इस काम की रौनक है। यही इस काम का
चमत्कार है कि तुम जिनके लिए करोगे वही तुम्हें गालियां देंगे। पूरब गाली देगा कि
मैं पूरब को बरबाद कर रहा हूं, क्योंकि मैं पूरब की संस्कृति
को डुबाए दे रहा हूं, धर्म को डुबाए दे रहा हूं; क्योंकि पूरब का धर्म और संस्कृति तो गरीबी में ही रह सकती है। गरीबी गयी
कि सब गड़बड़ हुआ। यह तो जबरदस्ती गरीबी में थोपी गयी संस्कृति है। इसलिए तुम देखते
हो, जो अमीर होता है वह तुम्हारी संस्कृति को औपचारिक रूप से
ही मानता है सिर्फ, नहीं तो पेरिस में जा कर मजे करता है।
मैंने
सुना, स्वर्ग में एक दिन जीसस के पिता जोसेफ और उनकी मां मेरी, दोनों बैठे गपशप कर रहे थे। काम भी स्वर्ग में क्या है--गपशप करो, और क्या करोगे! मैरी ने कहा: "जोसेफ, कभी-कभी
मेरा मन होता है कि अब दो हजार साल हो गए, एक दफा देख तो आऊं
अपने बेटे को मानने वाले लोगों की सुनते हैं करोड़ों संख्या हो गयी। तब तो उन
दुष्टों ने सूली दे दी थी, अब बड़ी पूजा करते हैं--चर्च-मंदिर
बनाए हैं, करोड़ों पादरी-पुरोहित हैं। बड़ा मन में खयाल आता है
एक दफा जा कर देख तो आऊं।
जोसेफ
ने कहा: "जरूर चली जाओ, मुझे भी खबर मिल जाएगी। जाओ जरूर जाओ, मगर रोज शाम मुझे फोन से खबर कर देना कि क्या हालत है, कैसा चल रहा है।'
तो
मैरी पृथ्वी पर आयी। रोज शाम को खबर करती थी। जेरुसलम गयी महल तो पुरानी परिचित
जगह। शाम को खबर की कि सब ठीक चल रहा है; चर्चों में प्रार्थनाएं हो रही हैं;
साधु हैं, साध्वियां हैं, आश्रम हैं। एक मोनेस्ट्री भी जा कर आयी हूं। जीसस के विचार खूब फैले हैं।
फिर रोम गयी, वेटिकन गयी। जगह-जगह से फोन करती रही। मगर फोन
का लहजा रोज-रोज बदलता गया। जोसेफ रोज पूछे कि अब तू आती कब है? तो कहती कि आऊंगी, जल्दी क्या है? आखिर वहां काम भी क्या है? फिर पांच-सात दिन तक फोन
आया ही नहीं। जोसेफ हैरान, परेशान। सेंट पीटर को कहा कि भई
पता लगाओ, खोजबीन करो कि हुआ क्या, गयी
कहां? सातवें दिन फोन आया, तो हमेशा,
कहती थी: "हे परम पूज्य पतिदेव, हे मेरे
परमात्मा, है प्यारे!' आज फोन आया तो
हालांकि फोन बड़ी दूर से आ रहा है, मगर शराब की गंध साफ मालूम
हो रही है, डट कर पी गयी है। और बोली: "प्यारे जो-जो!'
जोसेफ
तो बहुत हैरान हुए कि'!
इसने तो कभी इस तरह शब्द उपयोग किए नहीं। हमेशा कहती थी--परम पूज्य
पतिदेव; आज कह रही है--"जो-जो! कहा कि सात दिन से खबर
नहीं की?
मैरी
बोली: "जो-जो खबर करने की फुरसत ही नहीं मिली। पेरिस में हूं। क्या मजा आ रहा
है, क्या गुलछर्रे हैं! मैं तो कहती हूं तुम भी आ जाओ। अब कब तक वहां
बैठे-बैठे बूढ़े होते रहेंगे? मेरी मानो, तुम भी आ जाओ। कुछ दिन मजा कर लो।'
जोसेफ
को शराब की गंध भी आ रही है, बातचीत के ढंग में भी शराब का नशा मालूम हो रहा
है। पूछा कि मैरी, तुझे हो क्या गया है? मैरी ने कहा: "मेरा नाम यहां मेरी नहीं है, मिम्मी।
यह पेरिस है। और में तुमसे कहे देती हूं कि मेरा आने का अब कोई इरादा नहीं है। देख
लिया तुम्हारा स्वर्ग।
आदमी
ने स्वर्ग को बनाने का करीब-करीब पूरा इंतजाम कर लिया है। बस कमी रह गयी है तो एक, कि बाहर
तो स्वर्ग बनाने का पूरा इंतजाम हो गया है पश्चिम में, लेकिन
भीतर एक अर्थहीनता का बोध है, एक रिक्तता है। वह रिक्तता
ध्यान से भर जाएगी। बस ध्यान की जरूरत है विज्ञान के साथ जोड़ देने की। और जो कभी
नहीं घटा पृथ्वी पर, वह घट जाएगा। फिर स्वर्ग को आकाश में
रखने की जरूरत नहीं है, फिर पृथ्वी पर हम स्वर्ग बसा सकते
हैं। असल में आकाश पर रखते ही उसको इसलिए थे कि पृथ्वी पर बसाने में असमर्थ थे।
पश्चिम
समर्थ है स्वर्ग को बसाने में। और पूरब के पास ध्यान का विज्ञान है। दोनों का
लेन-देन हो सकता है। इस सौदे में किसी का नुकसान नहीं होगा, दोनों लाभ
ही लाभ में रहेंगे।
तुम
कहते हो: "तब क्यों आप उसका अंध-समर्थन करते हैं?
यह
अंध-समर्थन है या तुम्हारा अंधा विरोध है? मैं तो जो देख रहा हूं, जैसा देख रहा हूं, उसका समर्थन कर रहा हूं। लेकिन
तुम नहीं देख रहे हो। तुम तो अपनी धारणाओं को सिद्ध करने में लगे हुए हो। तुम्हारी
कितनी समझ है पश्चिम के संबंध में? मेरे पास पश्चिम के इतने
लोग हैं और उनमें मैं जो खूबी देखता हूं वह पूरब के आदमी में नहीं है। उनमें एक
खूबी है कि वे जिस काम में लगते हैं उसे परिपूर्ण निष्ठा से करते हैं। और परिपूर्ण
शिल्प, कुशलता, विज्ञान, बुद्धि का पूरा उपयोग करते हैं। पूरब का आदमी उनके सामने बिलकुल आलसी और
काहिल और सुस्त मालूम होता है। बिलकुल निकम्मा!
मुझसे
यहां लोग आकर पूछते हैं कि "आपने सारे कामों में पश्चिम के लोगों को क्यों
आगे रखा है!'
करो क्या?
तुम
जान कर हैरान होओगे कि ऐसे काम भी, जो कि पश्चिम का आदमी कर ही नहीं
सकता, वह भी वही कर रहा है। जैसे हिंदी पुस्तकों के लिए
कवर-डिजाइन बनाने का काम। अंग्रेजी की पुस्तकों का कवर डिजाइन तो ठीक है। अंग्रेज
कर लेते हैं, पश्चिम से आए हुए लोग कर लेते हैं। लेकिन हिंदी
पुस्तकों का कवर तो हिंदी में बनाना है; वह भी जितनी सुंदरता
से पश्चिम का आदमी करता है, पूरब का नहीं कर पाता। पूरब के
लोगों को उसमें से भी हटा देना पड़ा। हिंदी लिख रहा है अब वह लेकिन अभी तुम जो नयी
किताबें देखे वे सब पाश्चात्य लोगों की हिंदी है। वह सब लिपि उनकी है। मगर उसकी एक
पकड़ है, एक वैज्ञानिक सूझबूझ है।
और
मेरे देखने में दूसरी बात समझने में आ रही है: इसी सूझबूझ को जरा भीतर की तरफ मोड़
देना है कि यही सूझबूझ उसके लिए ध्यान बन जाती है। और पूरब का आदमी इतना टूट गया
है और हर चीज को माया कह-कह कर, त्याग कर-कर के उसने अपने हाथ-पैर तोड़ लिए हैं।
कुछ करते नहीं बनता अब। और कुछ करते नहीं बनता, उसको वह कहता
है भाव-भजन। न भाव-भजन करते बनता है अब। कुछ भी करते नहीं बनता। एकदम काहिल और
सुस्त। हां, उसको चरखा पकड़ा दो तो चलाता रहेगा। अब चरखा
चलाने में भी कोई खूबी की बात है? जमानों से बुढ़िया यही काम
काम करती रही हैं। जब उनसे कोई काम नहीं होता, तो गांव में
लोग बुढ़ियों को चरखा पकड़ा देते हैं। वही हालत भारत की है। कुछ इनसे बनता नहीं तो
अब इनको चरखा पकड़ा दो।
कोई
चरखा गांधी जी की ईजाद है,
तुम समझते हो? यह तो सदा की ईजाद है। बुढ़िया
करती ही रही हैं यह। सदियों से बच्चों को चांद पर हम बताते रहे हैं कि बुढ़िया चरखा
कात रही है। मगर क्यों बुढ़िया? बुढ़िया ही चरखा कातती रही। अब
जिससे कुछ नहीं बनता था, वह चरखा कातती थी। जिनसे अभी कुछ बन
सकता है, इनसे भी चरखा कतवाओगे? और
चरखा कात कर क्या मिल जाने वाला है इनको?
और
गांधी के ढंग एकदम बेहूदे हैं। जो काम सरलता से हो सके, उसको
बेहूदे ढंग से करने में इस देश में प्रशंसा मिलती है। अब जैसे मच्छरदानी कोई बहुत
बड़ी वैज्ञानिक चीज नहीं है। मगर गांधी मच्छरदानी न बांधेंगे। क्या करेंगे
मच्छरदानी की जगह--घासलेट का तेल मुंह पर लगा कर सोएंगे! बुद्धि भी गंवाते हैं,
तो भी आदमी थोड़ा हिसाब रखता है। मगर इसकी प्रशंसा होती है! गांधी के
ऊपर किताबें लिखी गयी हैं, जिनमें इस बात की प्रशंसा है कि
देखो त्याग, मच्छरदानी नहीं बांधते, मुंह
पर घासलेट का तेल लगाते हैं! अब घासलेट का तेल बहुत मुश्किल से मिलता है। और
मच्छरदानी में क्या अड़चन है? मच्छरदानी कोई ऐसी बड़ी भारी वैभव
की चीज भी नहीं है। मगर मुंह पर मिट्टी का तेल लगाओगे, मुंह
खराब करोगे। चमड़ी खराब करोगे। और मिट्टी के तेल को लगा कर स्वभावतः मच्छर पास नहीं
आएंगे। अरे मच्छर तक पास नहीं आते! और महात्मागण मिट्टी का तेल लगा कर बैठे हुए
हैं।
जरा
इन बेहूदगियों को तो देखो। मगर तुम एक आदत पकड़ कर बैठे हो कि जिसको महात्मा कह
दिया वह बेहूदगी कैसे कर सकता है! इसलिए अगर मैं तुम्हारे महात्मा को बेहूदा कह
दूं तो बस मैं तुम्हारा दुश्मन, कि हमारे महात्मा को बेहूदा कह दिया! अब मैं
क्या करूं? बेहूदगी तुम्हारे महात्मा करें, इसमें मैं क्या करूं?
एक
बेटा मां से बोला: मां,
एक चवन्नी दे दो।'
मां
ने कहा: क्यों?'
बेटे
ने कहा: "स्कूल मैं लेट गया था, इसलिए अध्यापक ने चवन्नी दंड लगाया
है।'
मां
ने कहा कि सुन,
तू भी अपने बाप की तर्ज पर जा रहा है। जहां गए वहीं लेट गए। लेटने
की जरूरत क्या थी?
दिमाग
में एक कचरा भरा हुआ है,
उसके बिना सुन ही नहीं सकते। उसी धारणा से सुनते हैं। वह कह रहा है
कि मैं स्कूल लेट गया था, इसलिए अध्यापक ने चवन्नी दंड लगाया
है। मां ने फौरन समझ लिया कि अच्छा तो तुम भी लेटने लगे इधर-उधर! तेरा बाप भी यही
कर रहा है।
स्कूल
से प्रोग्रेस रिपोर्ट आयी फजलू की, नसरुद्दीन के बेटे की। लिखा था
अध्यापिका ने: "वैसे तो आपका बेटा फजलू काफी मेधावी है, बस एक ही दोष है उसमें--वह यह कि वह अपना ज्यादातर समय स्कूल की लड़कियों
का पीछा करने तथा उनसे छेड़छाड़ करने में बिताता है। मैं उसकी यह आदत छुड़ाने की कोई
तरकीब सोच रही हूं।' स्कूल की अध्यापिका ने स्कूल की
प्रोग्रेस की रिपोर्ट में लिखा था। यह रिपोर्ट जब गुलजान को मिली तो उसने उसे पढ़
कर लिखा कि आपकी भेजी गयी प्रोग्रेस-रिपोर्ट मिली, आशा है कि
निकट भविष्य में आप बच्चे की आदत छुड़ाने में अवश्य सफल हो जाएंगी। और फिर नीचे
पुनश्च करके लिखा: "यदि आप वह तरकीब खोजने में सफल हो जाएं तो कृपया मुझे भी
बताने की कृपा करें ताकि मैं उसे फजलू के पिता मुल्ला नसरुद्दीन पर आजमा सकूं।'
अपनी-अपनी
धारणाएं। उन्हीं धारणाओं से हम चीजों को देखते हैं, सोचते हैं। और उन्हीं
धारणाओं के चक्कर में हम घूमते रहते हैं। गरीब हो, बजाय
गरीबी मिटाने के तुम इस कोशिश में लगे
रहते हो कि गरीबी के लिए किसी तरह समर्थन मिल जाए। अब पश्चिम में अगर लोग पागल हो
जाते हैं या आत्महत्या कर लें, तुम्हारा दिल प्रसन्न हो जाता
है कि अहा धन्यभागी हैं हम! क्या हमारी गरीबी! न आत्महत्या की जरूरत, न पागल होने की जरूरत।
लेकिन
खयाल रखना, पागल होने के लिए भी थोड़ी प्रतिभा चाहिए। तुमने कभी किसी बुद्धू को पागल
होते देखा? किसी जड़बुद्धि को तुमने पागल होते देखा? तो किसी को पागल होते देख कर जड़बुद्धि भी प्रसन्न होगा कि अहा, हम ही धन्य-भागी हैं! जरूर पिछले जन्म में कुछ पुण्य-कर्म किए होंगे,
तभी तो परमात्मा ने जड़बुद्धि बनाया हैं! नहीं तो देखो क्या हालत हो
रही है!
तुम
यह जानते हो कि दुनिया में जो भी श्रेष्ठतम प्रतिभा के लोग हुए हैं, उनमें से
बहुतों को पागल होना पड़ा है? क्यों? प्रतिभा
में खतरा है, क्योंकि जब तुम प्रतिभा के शिखर छूते हो तो
गिरने का डर है। फ्रेड्रिक नीत्शे पागल हो कर मरा। लेकिन चिमनभाई देसाई पोरबंदर
वाले, अगर मुझे चुनाव करना हो कि चिमनभाई देसाई होने कि
फ्रेड्रिक नीत्शे होना पसंद करूंगा। मुझे अगर चुनाव करना हो कि महात्मा गांधी होना
है कि फ्रेड्रिक नीत्शे, मैं फ्रेड्रिक नीत्शे होना पसंद
करूंगा। पागल होकर जाना बेहतर है, मगर मुंह पर मिट्टी का तेल
थोपने को मैं राजी नहीं। यह पागल होने से भी बदतर बात हो गयी। आखिर फ्रेड्रिक
नीत्शे अपनी प्रतिभा की ऊंचाइयों के कारण पागल हुआ। बच सकता था पागल होने से। काश
उसको ध्यान की कला मिल जाती तो वह बुद्धत्व को उपलब्ध होता!
फ्रेड्रिक
नीत्शे में वही क्षमता थी जो बुद्ध में थी। मैंने दोनों को बहुत बारीकी से
छाना-बिना है। उसमें वही सूझबूझ है। उसमें वही अंतर्दृष्टि है, वही
पैनापन, वही निखार, वही तेज है--जो
बुद्ध में है। थोड़ा ज्यादा ही, कम नहीं। बस चूक हो गयी तो एक
कि उसे भीतर जाने का कोई उपाय न मिला। और प्रतिभा इतनी थी कि बाहर से राजी न हुई।
जल्दी ही उसे बाहर जो था सब व्यर्थ दिखाई पड़ने लगा और भीतर जाने का मार्ग मालूम
नहीं। इस दुविधा में पागल हुआ। मगर यह पागल होना सौभाग्यपूर्ण है। फ्रेड्रिक
नीत्शे दूसरे जन्म में बुद्ध होगा ही। मगर महात्मा गांधी को बहुत जन्म लग जाएंगे।
शायद चौरासी कोटि योनियों में भटके तो भी अगर बुद्ध हो जाएं तो चमत्कार। क्योंकि
वे चरखा अगर कातते ही रहे, कातते ही रहे, कातते ही रहे, तो क्या करोगे? चरखा
ही कातते रहे तो बस चरखा ही हो जाएंगे।
विंसेंट
वानगॉग ने आत्महत्या की--पश्चिम के बहुत बड़े चित्रकार ने। इन दो सौ वर्षों में
पश्चिम में उसके मुकाबले में कोई चित्रकार नहीं हुआ। और आत्महत्या क्यों की? क्योंकि
बाहर का जो भी चित्रण करना था, चित्रण हो चुका। एक चित्र को
बनाने में, अंतिम चित्र को बनाने में एक वर्ष
लगाया--सूर्योदय के चित्र को बनाने में। वह उसकी जीवन भर की आकांक्षा थी कि एक ऐसा
सूर्योदय बना जाऊं,जैसा कभी किसी ने न बनाया हो। और जब वह
पूरा हो गया तो उसने गोली मार ली। सूर्योदय बनाने में पागल भी हुआ, एक साल पागल रहा, क्योंकि चौबीस घंटे सूर्य की सारी
कलाओं का अध्ययन करता रहा। अब सूर्य को खुली आंख से देखोगे और आरलीज में जहां वह
सूर्य का अध्ययन कर रहा था, फ्रांस में जहां सूरज सब से
ज्यादा तेजी से चमकता है, चौबीस घंटे सूरज को देखते-देखते
उसका सिर भन्नाने लगा। मगर चित्र बना गया। जिस दिन चित्र बन गया, उस दिन उसने गोली मार ली। पत्र लिखा अपने भाई को, कि
मेरा काम पूरा हो गया, अब तो कुछ और चित्र बनाने को बचा
नहीं। काश इस आदमी को ध्यान का पता होता तो एक नई दुनिया मिल जाती चित्र बनाने की, जिसका
कभी अंत नहीं होता है?
बाहर
की दुनिया की सीमा है,
भीतर की दुनिया की कोई सीमा नहीं है। लेकिन अगर मुझे करना हो चरखा
कातने में और विंसेंट वानगॉग के चित्र बनाने में तो मैं विंसेंट वानगॉग होना पसंद
करूंगा; फिर चाहे एक साल पागल हो जाऊं और फिर चाहे आत्महत्या
क्यों न करनी पड़े। इस आत्महत्या में भी गौरव है। इस पागलपन में भी प्रतिभा की
घोषणा है।
पश्चिम
को एकदम से कुछ कहने की कोशिश न करो। समझने की कोशिश करो। अपनी दीनता को छिपाने की
कोशिश न करो। उसमें बड़ी गहरी चालबाजी है।
मुल्ला
नसरुद्दीन चंदूलाल से पूछ रहा था कि भैया चंदूलाल, तुम्हारी साइकिल की दुकान
तो खूब चल गयी यार! पंक्चर सुधारने से दम मारने की फुरसत ही नहीं रहती तुम्हें! जब
देखो तब लगे काम में! जब देखो तब लगे काम! आधी-आधी रात तक पंक्चर सुधारते रहते हो!
चंदूलाल
बोला: "हां भाईजान,
इसका भी एक राज है। मेरा लड़का घूम-घूमकर साइकिल पंक्चर करता रहता
है। मैं उसे प्रति पंक्चर दस पैसा देता हूं और प्रति पंक्चर ठीक करने के पच्चीस
पैसे लेता हूं। नगद सौदा है वह भी कमा रहा है दिन भर घूम-घूम कर। स्कूल वगैरह अब
नहीं जाता। अब तो साइकिलें पंक्चर करना उसका काम है। वह साइकिलें पंक्चर करता है,
मैं साइकिलें जोड़ता हूं। जितनी साइकिलें पंक्चर करके भेज देता है,
उस पैसे के हिसाब से ले लेता है और मैं पच्चीस पैसे के हिसाब से जोड़
ले लेता हूं। दोनों मजे में हैं। बेटा भी कमा रहा है, मैं भी
कमा रहा हूं। यह बाप बेटे की साझेदारी चल रही है।'
तुम्हारे
पंडित-पुरोहित नहीं चाहते कि तुम समृद्ध हो जाओ। तुम्हारे धर्मगुरु नहीं चाहते कि
तुम समृद्ध हो जाओ। तुम्हारे जितने न्यस्त स्वार्थ ऊपर हावी हैं, कोई भी
नहीं चाहता कि तुम समृद्ध हो जाओ। तुम्हारे राजनैतिक नेता नहीं चाहते कि तुममें
किसी तरह की बुद्धि, प्रतिभा, क्षमता,
गरिमा, व्यक्तित्व का बोध पैदा हो जाए।
क्योंकि तुम्हारे भीतर अगर व्यक्तित्व का बोध पैदा हो जाए, तुममें
अगर थोड़ी प्रतिभा में निखार आ जाए, तुम अगर चक्रम होने से बच
जाओ, अगर चरखा वगैरह कातना छोड़ कर तुम थोड़ा बुद्धि को निखार
लो, या तुम थोड़ी ध्यान पर धार धर लो, तो
तुम इन बुद्धुओं को नेता मानोगे? मोरारजी देसाई को एक मत भी
इस देश में मिल सकता है अगर लोगों में थोड़ी भी प्रतिभा हो? लेकिन
लोगों में प्रतिभा नहीं है तो फिर तुम चाहो, गांव में खेत
में जो धोखे का आदमी खड़ा कर देते हैं, डंडा लगा कर, हंडी लटका कर सिर पर और कुर्ता पहना दिया पुराना एक, खादी का हो तो फिर कहना ही क्या और गांधी टोपी भी लगा दो हंडी के ऊपर और
चूड़ीदार पाजामा भी पहना दो--उसको भी वोट मिल जाएंगे, वह भी
चुनाव जीत जाएगा कि क्या शुद्ध खादीधारी है! बगल में एक चरखा रख दो, हाथ में झंडा पकड़ा दो। क्या कमी रह गयी? और चाहिये
क्या? और है ही क्या मोरारजी देसाई में, सिवाय इसके? किसी खेत में खड़े करने लायक हैं कि
पशु-पक्षियों को भगाते रहें। मैं समझता हूं, पशु-पक्षी भी
शायद ही भागेंगे--अरे ये मोरारजी, खड़ा रहने दो! यह क्या
पशु-पक्षी भगाएगा! मुंह पर मक्खियां बैठी हैं, उनको तो भगा
लो! पशु-पक्षी भगाओगे?
तुम्हारे
राजनेता इससे प्रसन्न हैं कि तुम जैसे हो ऐसे ही रहो। और जहां-जहां भी तुम्हारे
राजनेताओं ने भूल कर ली है तुम्हें बदलने की, वहीं उनको बड़ी तकलीफ झेलनी पड़ी है।
अभी ईरान के शहंशाह की मृत्यु हुई। उस आदमी का एक ही कसूर था कि उसने ईरान को
सुशिक्षित करने की, समृद्ध करने की, एक
विश्व-शक्ति बनाने की चेष्टा की। उसने अपने इस दुष्कर्म का फल पाया।
इथोपिया
के सम्राट हेलसियासी को उन्नीस सौ तीस में वैज्ञानिकों का एक दल ने कहा कि अगर
इथोपिया के लोगों को शुद्ध जल पीने मिलने लगे तो इनकी बीमारियां कम हो जाएंगी, इनकी उम्र
बच जाएगी। इथोपिया में लोग बहुत ही गंदा जल पीते हैं। सड़क के किनारे जो गङ्ढों में
जल भर जाता है वर्षा का, वह भी पीते हैं। हेलसियासी हंसा और
उसने कहा कि ये समझदारी की बातें तुम अपने पास रखो। मैं नहीं चाहता कि इथोपिया के
लोग जैसे है इससे जरा भी बदलें, क्योंकि उनकी जरा-सी भी
बदलाहट अंततः मुझ पर परिणाम लाएगी।
सियासी
बड़ी गजब की बात कह रहा था। था बुङ्ढा होशियार। उसने कहा: "मरने दो उनको मरना
है तो। जल्दी मरते है तो कोई हर्जा नहीं। बीमार रहते हैं कोई हर्जा नहीं। मगर मैं
किसी तरह की सामाजिक क्रांति अपने देश में नहीं चाहता हूं और न किसी तरह की
वैज्ञानिक प्रविधि का उपयोग करना चाहता हूं।'
ईरान
के शाह ने वही भूल की। सियासी के चरणों में बैठकर उसको कुछ पाठ लेने थे। जिन लोगों
को इसने शिक्षित किया वे ही लोग इसके जान के हत्यारे हो गए। आखिर ईरान में जो अब
बगावत हुई है,
वह विद्यार्थियों के द्वारा हुई है। और यह जान कर तुम हैरान होओगे
कि ईरान के शाह ने सारी दुनिया में ईरान से विद्यार्थी भेजे। अरबों रुपये इन पर
खर्च किए शिक्षा के लिए, कि ये सुशिक्षित हो जाएं। मगर जैसे
ही सुशिक्षित होते हैं, इनमें सींग निकलने शुरू हो जाते हैं।
क्योंकि सोच-विचार शुरू हो जाता है। सोच-विचार शुरू होता है तो सवाल उठता है कि
लोकतंत्र चाहिए, यह तानाशाही नहीं चलेगी!
वह
बड़ी अजीब दुनिया है। इस दुनिया मैं राजनेता का हित यही है कि तुम गरीब रहो, अशिक्षित
रहो, मूढ़ रहो। तुम जितने मूढ़ हो उतना ही उसका बल है। जरा तुम
अपने राजनेताओं की शक्लें तो देखो। एक से एक पहुंचे हुए पुरुष तुम्हारे राजनेता
हैं, जिनके दो कौड़ी की समझ और प्रतिभा नहीं है। कोई मोरारजी
देसाई अकेले ही है; चरणसिंग कोई किसी से पीछे हैं, कि जगजीवन राम बाबू किसी से पीछे हैं! इन सब का आधार तुम्हारी मूढ़ता पर
है। ये नहीं चाहते कि तुम समृद्ध होओ, विचारशील होओ। खतरा
है। और तुम्हारे पंडित-पुरोहित, तुम्हारे महंत, तुम्हारे संत, तुम्हारे महात्मा, इन सबका तो एक ही आधार है कि संसार दुख है। ये कैसे संसार को सुख बनने दें?
इनकी तो जमीन खिसक जाएगी। फिर ये कैसे लोगों को समझाएंगे कि आवागमन
से छूटोगे लोग कहेंगे कि महाराज, आप ही छूटो हम तो बहुत मजे
में हैं! हमें आवागमन से छूटना ही क्यों? हम तो पुनः पुनः
आना चाहते हैं।
रवीन्द्रनाथ
ने यही प्रार्थना कि हे प्रभु, तेरी दुनिया इतनी प्यारी है, तेरे फूल इतने सुंदर, तेरी तितलियों के रंग ऐसे,
तेरे इंद्रधनुष, तेरा सूरज, तेरा चांद, तेरे तारे! मैं कैसे कहूं कि आवागमन से
छुटकारा चाहता हूं? मेरी तो तेरे से एक ही प्रार्थना है कि
मुझे बार-बार इस दुनिया में भेजते रहना। अनंत बार मुझे इस दुनिया में भेजते रहना।
अब
तुम्हारे साधु-महात्माओं का रवीन्द्रनाथ से कहां मेल कैसे मेल होगा और मैं कहता
हूं: रवीन्द्रनाथ महर्षि हैं और तुम्हारे साधु-संत गधे हैं। रवीन्द्रनाथ पते की
बात कह रहे है और यह दुनिया...अभी चांदत्तारे सुंदर हैं, क्योंकि
तुम क्या करोगे इंद्रधनुषों पर? अभी इंद्रधनुष हिंदू नहीं,
मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं। अभी चांदत्तारे
चांदत्तारे हैं; कोई जैन नहीं, कोई
दिगंबर नहीं, कोई श्वेतांबर नहीं। लेकिन जमीन को तुमने
बर्बाद कर दिया। अगर यह जमीन फिर प्राकृतिक हो जाए, अगर यह
जमीन फिर स्वाभाविक हो जाए, अगर तुम्हारे महंतों के बाड़े तोड़
दिए जाएं, अगर ये कारागृह मिटा दिए जाएं, अगर आदमी को विज्ञान के द्वारा बाहर की समृद्धि मिल जाए और--धर्म के
द्वारा--धर्म! हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं, जैन
नहीं, बौद्ध नहीं--सिर्फ धर्म! एस धम्मो सनंतनो! धर्म का वह
जो शाश्वत नैसर्गिक नियम है, जिससे व्यक्ति अपनी आत्मा में
प्रवेश कर जाता है और स्वयं के के पर थिर हो जाता है--काश, उसका
तुम्हें अनुभव हो जाए तो क्या आवागमन से मुक्त होना है? क्यों
होना है? किसलिए होना है?
मगर
तब तुम्हारे पंडित-पुजारियों का क्या होगा? ये तो तुम्हारे दुख पर जी रहे हैं।
इनका धंधा ही गलत है। इनके धंधे में ही खतरा है। इनके धंधे में षडयंत्र है।
एक
रात एक शराबखाने में बहुत देर तक कुछ लोग डट कर शराब पीए, पीते ही
गए, पीते ही गए, बहुत गुलछर्रे किए,
नाचे-कूदे, धुआंधार शराब पी। जब आधी रात विदा
होने लगे, तो शराबघर के मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि अगर
ऐसे ग्राहक रोज-रोज आएं तो कुछ दिनों में अपनी अटारी खड़ी हो जाए। जो आदमी पैसे
चुका रहा था, हंसने लगा। और उसने कहा कि रोज-रोज, अरे हम तो सुबह भी आएं, दोपहर भी आएं, शाम भी आएं। बस परमात्मा से यही प्रार्थना करो कि हमारा धंधा ठीक से चलता
रहे।
तो
दुकानदार ने कहा कि जरूर प्रार्थना करेंगे कि परमात्मा तुम्हारा धंधा ठीक से चलाता
रहे। लेकिन जब वह आदमी दरवाजे के बाहर निकल रहा था, तब दुकानदार ने कहा: लेकिन
यह तो बता जाओ कि तुम्हारा धंधा क्या है?'
उस
आदमी ने कहा "यह तुम न पूछा तो अच्छा है। तुम प्रार्थना करना कि धंधा ठीक
चलता रहे।'
तब
उसे और संदेह हुआ। उसने कहा: "फिर भी धंधा कम से कम मुझे बता दो ताकि मैं
प्रार्थना करूं तो मुझे भरोसा तो रहे कि मैं किसी चीज के लिए प्रार्थना कर रहा
हूं।'
तो
उसने कहा: "अब धंधा तो मेरा ऐसा है कि क्या कहूं! मरघट पर लकड़ी बेचने का धंधा
है। लोग रोज रोज मरें तो मेरा धंधा चलता है। जितने ज्यादा मरें उतना मेरा धंधा
चलता है। इसलिए तुमसे कहता हूं धंधा न पूछो। मेरा धंधा चलता रहे, लोग
रोज-रोज मरते रहें। जितने ज्यादा लोग मरे उतनी लकड़ी बिकती है। उतनी ही लकड़ी बिकती
है, उतनी ही बचत होती है। उसी बचत की मजे-मौज हम कर लेते
हैं। अभी यह जो गांव में हैजा फैला है, उसके कारण ही तो आज
यह मजा-मौज चला। अब यह हैजा चलता रहे, चलता ही रहे, तो क्या कहने, रोज गुलछर्रे उड़ेंगे!'
दुनिया
में ऐसे धंधे हैं जो तुम्हारे है जो चलते हैं, तुम्हारे मलेरिया से चलते हैं,
तुम्हारे रोगों से चलते हैं। और इसी तरह के धंधे पंडित-पुरोहित चला
रहे हैं।
मेरा
जो विरोध होता है,
उसका कुल कारण इतना है कि अगर मैं सच हूं तो तुम्हारे सब
पंडित-पुरोहित गलत हैं। यह संघर्ष बड़ा है। यह संघर्ष ऐसा कुछ नहीं है जैसा कि
पुराने दिनों में था कि हिंदू मुसलमानों के विरोध में हैं, ईसाई
हिंदुओं के विरोध में हैं, जैन बौद्धों के विरोध में हैं,
बौद्ध सिक्खों के विरोध में हैं। यह कोई टुटपुंजिया संघर्ष नहीं है।
मेरा संघर्ष ऐसा है कि अगर मैं सही हूं तो हिंदू, मुसलमान,
ईसाई, जैन, बौद्ध,
सिक्ख, उन सबके धर्मगुरु और उन सबका धर्म का
जो फैलाव है, वह सब गलत है। अगर में सही हूं तो तुम्हारे सब
संत-महंतों का जीवन आधार खतरे में है। इसलिए मुझे वे जिंदा रहने दें, यह आसान नहीं।
तुम
जल्दी करो। अगर मुझे समझना हो तो जल्दी समझ लो। अगर मेरी बात पहचाननी हो तो
देर-अबेर न करो,
कल पर मत टालो, क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं
है। ये सारे संत-महंत और राजनीतिज्ञ मिल कर मुझे मिटाना ही चाहेंगे। यह बिलकुल
स्वाभाविक है। मैं समझ पाता हूं कि इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। और उसका सीधा तो
कारण है कि मैं जो कह रहा हूं वह है इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की कला। इसमें
महात्मा गांधी राजी नहीं हो सकते। वे भी ऊपर के स्वर्ग की आशा लगाए बैठे हैं। उनको
भी बैकुंठ जाना है।
मुझे
बैकुंठ यहां लाना है! हो चुकी यह बकवास बहुत बैकुंठ जाने की। मरने के बाद की
बातचीत सब धोखेधड़ी की बातचीत है। अभी हम जिंदा हैं। अगर हम जिंदा होने में स्वर्ग
में नहीं हो सकते तो मर क्या खाक हम स्वर्ग में होगे?
मैं
तुमसे कहता हूं: अभी तुम स्वर्ग में होना सीख लो। मरने के बाद कोई स्वर्ग होगा तो
तुम्हें कम से कम स्वर्ग में होने की थोड़ी शैली तो आ जाएगी।
खलील
जिब्रान ने ठीक कहा है। राजी हूं मैं उससे। खलील जिब्रान ने कहा कि मत रोक ए
धर्मगुरु, मुझे शराब पीने से, क्योंकि तूने ही लिखा है,
तूने ही कहा है कि स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं, झरने बहते हैं। थोड़ी मुझे पी लेने दे, ताकि पीने की
आदत बनी रहे। नहीं तो वहां कैसे एकदम पीऊंगा? थोड़ी-थोड़ी मुझे
पीने दे, अभ्यास करने दे। मत रोक मुझे। थोड़ा डोलने दे,
ताकि जब मैं वहां जाऊं तो जी भर कर पीऊं। और यहां तो कुल्हड़ों में
पी रहा हूं, यहां तो जामों में पी रहा हूं; वहां तो फिर नदियां बह रही हैं। तो थोड़ा अभ्यास तो कर लेने दे। यह क्या
तेरा फलसफा है। कि यहां पीओ तो हराम है। और वहां पीओ तो हलाल है! पीना वही है,
पीने वाले वही हैं, पिलाने वाला वही है। यहां
पीओ तो हराम है, वहां पीओ तो हलाल है! यह कैसा बेबूझ फलसफा
है? यह कैसा जीवन-दर्शन है?
मैं
अपने संन्यासियों को कहता हूं: यहां पीओ, यहां जीओ! जी भर कर जीओ, जी भर कर पीओ। एक क्षण भी खाली न जाए, क्षण-क्षण के
रस को आत्मसात कर लो, क्योंकि परमात्मा है--रसो वै सः! वह
रस-रूप है। फिर उसे पीएंगे, अगर यहां पीने का अभ्यास रहा।
तुम्हारे साधु-संत तो वहां भी नहीं पी सकेंगे। वे वहां भी अकड़े खड़े रहेंगे। वे
कैसे पी सकते हैं? जिन्होंने कुल्हड़ों से न पी, वे झरनों से पीएंगे? जो कभी रिंद न बने, वे क्या खाक पीएंगे! और अब मैं शराब की बात करता हूं तो मैं परमात्मा की
ही बात कर रहा हूं। जीवन का आनंद बाहर भी है, भीतर भी है।
दोनों तरफ पीओ, क्यों कि परमात्मा ही बाहर फैला है, परमात्मा ही भीतर है। ताकि तुम, आने वाला अगर कोई
जीवन हो...मैं नहीं कहता कि विश्वास करो; होगा तो देखेंगे,
नहीं होगा तो हम यहां भी चूके नहीं, हम कुछ
उसके सहारे बैठे नहीं। मैं यहां आनंद में हूं। कल अगर मर कर कुछ भी न हो, कोई स्वर्ग न हो, कोई परमात्मा न हो, तो भी मैंने कुछ गंवाया नहीं। मगर जो उस आशा मैं बैठे हैं, उनकी हालत बड़ी बुरी हो जाएगी, बड़ी खस्ता हो जाएगी।
और
अगर कोई परमात्मा हो,
कोई स्वर्ग हो, कोई बहिश्त हो, कोई जन्नत हो, कोई बैकुंठ हो, तो
भी तुम खयाल रखना कि मेरे संन्यासी कतार में आगे रहेंगे, क्योंकि
उनको पीना आएगा, जीना आएगा। वे वहां भी नाचेंगे, वे वहां भी गुनगुनाएंगे। और तुम्हारे साधु-संत-महंत वहां भी पीछे खड़े
रहेंगे--उदास, मक्खियां उड़ाते हुए! क्योंकि उनकी हिम्मत ही
नहीं पड़ेगी कि अब किस मुंह से पीएं, अब किसी ढंग से जीएं,
अब क्या करें क्या न करें!
अब
तुम सोचो, स्वामी नारायण संप्रदाय के ये प्रमुख स्वामी--प्रमुख महाराज--अगर ये
स्वर्ग चले जाएं और उर्वशी सामने आ जाए तो क्या करेंगे? एकदम
घूंघट डालना पड़ेगा, इन्हीं को डालना पड़ेगा उर्वशी तो घूंघट
डालती नहीं, सुना नहीं, शास्त्रों में
कहीं लिखा नहीं। ये प्रमुख महाराज को घूंघट डाल कर चलना पड़ेगा स्वर्ग में। जैसे
मारवाड़ी औरतें दो अंगुलियों में से देखते रहती हैं घूंघट से, ऐसे प्रमुख महाराज देखते रहेंगे कि आदमी है कि औरत।
अभी
उनका लंदन में हाथी पर जुलूस निकला है। और मैंने जब महंतों को गधा कहां, तो आज
किसी ने प्रश्न पूछा कि श्री प्रमुख स्वामी जी का जुलूस लंदन में हाथी पर निकला,
गधे पर क्यों नहीं? गधे पर इसलिए नहीं भैया,
कि फिर लोग पहचानते कैसे कि कौन कौन है? हाथी
पर गधे को बिठाल दो, अलग दिखाई पड़ेगा। अब गधे पर गधे को चढ़ा
दो तो लोग पूछेंगे, इसमें स्वामी जी कौन हैं? मतलब, नमस्कार किसको करें? उसमें
अड़चन होगी, और कोई बात नहीं। इसलिए हाथी पर बिठालना पड़ता है।
मगर
ये स्त्रियों को न देखने वाले लोग अप्सराओं के साथ बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे।
मेनका आ जाएगी और इनके प्राण निकले! उर्वशी गुजरी और उनके प्राण निकले! इनके कितने
बार प्राण निकलेंगे,
बड़ा मुश्किल है कहना। इन पर तो हार्ट-अटैक पर हार्ट-अटैक होते
रहेंगे। इनको तो अगर स्वर्ग में कोई अस्पताल वगैरह हो, पुराणों
में कोई चर्चा नहीं है, तो अस्पताल में ही रखना पड़ेगा,
इमरजेंसी वार्ड में हमेशा। और वहां भी नर्सें होंगी। और बड़ी अड़चनें
आने वाली हैं, बड़ी कठिनाई इनको पड़ने वाली है।
मैं
तुम्हें जीवन की कला सिखा रहा हूं। महात्मा गांधी की जीवनदृष्टि कोई जीवन-दृष्टि
कहने योग्य नहीं है,
न उनकी विचारधारा कुछ विचारधारा कहने योग्य है। एक राजनीतिक व्यक्ति
हैं, इसमें ज्यादा कुछ भी नहीं। न कभी ध्यान जाना, न कभी समाधि का अनुभव हुआ। जिंदगी भर व्यर्थ के कामों में अपने को संलग्न
रखा। मगर जो भी किया, उसको जिद से किया। और इस देश में जिद
का बड़ा सम्मान है। जिद्दी को हठयोगी कहते हैं।। और यहां तुम जिद से कोई भी काम करो,
तुम्हें दस-पचास शिष्य और अनुयायी मिल जाएंगे। और महात्मा गांधी तो
इस परंपरा के परिपोषक थे, इसलिए खूब शिष्य और अनुयायी मिल
गए। और इस देश के लोगों को बात बिलकुल जंची। जंचने का कारण था, क्योंकि वही भाषा बोल रहे थे जो तुम बोल रहे हो।
एक
बेटी अपने पिता से कह रही थी: पापा, मेरा प्रेम हो गया है। अब मेरा
विवाह करवा दो इसी लड़के से। करूंगी तो इसी लड़के से। जीऊंगी तो इसी लड़के के लिए,
नहीं तो मर जाऊंगी।
पापा
ने कहा: "बेटी,
धीरज रख। शादी के पहले यह तो पता कर ले कि लड़का क्या काम करता है,
उसकी कितनी जायदाद है?'
बेटी
ने कहा:"ओह पापा,
आप उससे मिल कर जरूर खुश होंगे, क्योंकि वह भी
बिलकुल यही बातें आपके बारे में पूछ रहा था।'
भाषा
वही है। लड़का भी यही पता लगा रहा है कि बाप की क्या हालत है, जायदाद
कितनी है? बाप भी यही पता लगा रहा है, लड़के
की क्या हालत है, जायदाद कितनी है? भाषा
ठहर गयी है।
इस
देश की भाषा को ठहरे पांच हजार साल हो गए; डबरा हो गयी है इस देश की भाषा।
नदी तो कब की खो गयी, डबरों में हम सड़ रहे हैं! और मैं
तुम्हें पुनः सरिताएं बनाना चाहता हूं, तो तुम्हें अड़चन आनी
स्वाभाविक है। मेरी बात तुम्हें चोट करती है, तुम्हें
तिलमिलाती है, तुम्हें बेचैन करती है, तुम
क्रुद्ध हो जाते हो, तुम क्रोध में इस तरह की बातें कहने
लगते हो, जो कि तुमने सोची नहीं हैं।
अब
तुम कह रहे हो: "तब क्यों आप उसका अंध-समर्थन करते हैं?'
मैंने
अपने जीवन में किसी चीज का अंध-समर्थन नहीं किया, न अंध-विरोध किया। करना भी
चाहूं तो नहीं कर सकता, क्योंकि ध्यान आंख है और ध्यान के
अतिरिक्त और कोई आंख नहीं है। और समाधि तो परम दृष्टि है। समाधि का एक बार अनुभव
जो जाए तो तुम्हारे जीवन में कुछ भी अंधापन रह नहीं जाता--रह नहीं सकता है!
आखिरी
प्रश्न: भगवान,
नहा-धो
कर आ गयी हूं। आपका दुलार तो बहुत ही मिला, अब थोड़ी-सी पी-गयी भी कर दो।
कृष्ण
शोभना,
यह
अच्छा किया कि नहा-धो कर आ गयी। नहाने-धोने का अर्थ तुम समझ लो, क्योंकि
तुम समझ न पाओगे। कृष्ण शोभना जरा सधुक्कड़ी भाषा बोल रही है; जरा बारीक और महीन बात कह रही है।
कृष्ण
शोभना को मैंने निश्चित इतना प्रेम दिया जितना बहुत कम लोगों को दिया। मगर अक्सर
यह हो जाता है कि तब प्रेम मुफ्त मिल जाए तो हम उसका अर्थ नहीं समझ पाते, उसका
मूल्य नहीं समझ पाते। वही कृष्ण शोभना के जीवन में हुआ। मैंने इस देश में न मालूम
कितने लोगों को प्रेम दिया, बेशर्त प्रेम दिया! और दे-दे कर
बार-बार यह अनुभव किया कि जितना प्रेम लोगों को दो, उतना ही
लोग समझने में असमर्थ हो जाते हैं। क्योंकि मेरे प्रेम में कोई शर्त नहीं है,
कोई मांग नहीं है, उसके कोई मूल्य नहीं चुकाना
पड़ता, उन्हें कोई पात्रता भी सिद्ध नहीं करनी पड़ती। मैं देता
हूं, क्योंकि मैं प्रेम से भरा हूं। उनकी पात्रता-अपात्रता
का कोई प्रश्न ही नहीं है। मैं देता हूं, क्योंकि मेरे पास
है। मैं देता हूं, क्योंकि देने से बढ़ता है। मगर तब मुझे यह
दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि उनको मिल नहीं पाता। वे ले नहीं पाते। या वे धीरे-धीरे आदी
हो जाते हैं--ऐसा कि यह तो मेरा स्वभाव है। वे मूल्य से वंचित हो जाते हैं। वे
कीमत नहीं आंक पाते। वे उस प्रेम को अपने हृदय में विराजमान नहीं कर पाते। फिर
मुझे मजबूरी में अपने हाथ हटा लेने पड़े। फिर मुझे मजबूरी में लोगों से अपने को
तोड़ना शुरू करना पड़ा। तब लोगों को सूझबूझ आनी शुरू हुई।
लोग
अजीब हैं। जब चीजें खो जाएं तब उन्हें पता चलता है जो मिलता रहे, उसको तो वे अंगीकार ही कर
लेते हैं कि जैसे यह हमारा अधिकार है। जब खो जाता है तब रोते हैं, तब पछताते हैं। वैसे ही कृष्ण शोभना पछतायी है और रोयी। जब प्रेम मिल रहा
था तब यह भी हालतें आ गयी कि उसने संन्यास भी छोड़ दिया। क्योंकि प्रेम मिल ही रहा
था तो संन्यास का मूल्य भी उसको समझ में न आया। लेकिन अब मैंने असली हाथ खींच लिए
हैं। अब मैं बहुत सोच-समझ कर एक-एक कदम उठा रहा हूं। इसलिए नहीं कि कंजूस हो गया
हूं; इसलिए कि यही एक उपाय है कि मैं तुम्हारा हृदय आनंद से
भर सकूं, और कोई उपाय नहीं है। नहीं तो तुम चूक ही जाओगे--
मैं बरसता रहूंगा, तुम्हारे घड़े उल्टे रखे रहेंगे। अब मुझसे
मिलना भी मुश्किल हो गया। अब मैं किसी को मिलता भी नहीं। अब बात भी करनी बंद कर
दी। यूं धीरे-धीरे अपने को हटाए चला जा रहा हूं। जल्दी ही बोलना भी बंद कर दूंगा।
तभी तुम समझ पाओगे। जैसे-जैसे दूर हटूंगा, तभी तुम्हारी समझ
में आएगा कि अरे कितना मिल रहा था, हम लिए नहीं!
और
यह कोई कृष्ण शोभना के अकेले के साथ नहीं हुआ, बहुतों के साथ हुआ है। आदमी,
स्वामी आनंद वापिस आ गए हैं। अभी कुछ दिन पहले संन्यास छोड़ कर चले
गए थे। छोड़ कर तो यूं अकड़ में गए थे कि जैसे कुछ पा लिया। अब लौट आए हैं। अब शर्म
से आंखें झुकी जा रही हैं। लेकिन अब पुनः प्रवेश इतना आसान नहीं। अब तो कीमत
चुकानी पड़ेगी। जब गए थे तब तो यूं गए थे कि क्या बात है फिर आ जाएंगे, फिर संन्यास ले लेंगे, संन्यास में कोई कठिनाई है?
मगर
पहली दफा तो संन्यास मैं बड़ी सरलता से दे देता हूं, दूसरी बार मुश्किल हो जाती
है। दूसरी बार मैं कठोर हो जाता हूं। कठोर मैं हूं नहीं, इसलिए
होना पड़ता है, चेष्टा करनी पड़ती है। चले तो गए थे यू. जी.
कृष्णमूर्ति के साथ; न खुद चले गए थे, बल्कि
औरों को भी समझाते थे। यहां भी कुछ और दूसरे भी बुद्धू थे, जो
आनंद के साथ उत्सुक हो गए थे। किरण को भी भरमाया था, चैतन्य
भारती को भी भरमाया था, हिम्मत भाई को भी भरमाने और उलझाने
वाले आनंद ही थे। लेकिन अब अकल आ गयी। अब बात समझ में आ गयी कि आनंद, तुम आनंद ही हो, परवीन बॉबी नहीं! यू. जी.
कृष्णमूर्ति परवीन बॉबी को ले कर नदारद हो गए। अब आनंद बैठे हैं, सोच रहे हैं कि परवीन बॉबी को ले कर जैसे नदारद हुए, ऐसे ही इनको भी ले कर नदारद हो जाएंगे। अब अकल आयी थोड़ी।
हिम्मत
भाई तो पहले ही भाग आए। हिम्मत भाई की गिनती मैं हमेशा "दूध की दुहनियां' में करता
हूं। मेरे गांव का यह शब्द है। तुम्हें इसका शायद अर्थ पता न हो। मेरे गांव में
यूं है कि जब बच्चे खेल खेलते हैं तो छोटे-छोटे बच्चे भी आते हैं, वे कहते हैं हम भी खेलेंगे। और वे बीच-बीच में ऊधम मचाते हैं, उछल-कूद करते हैं, इधर-उधर घुस आते हैं। खेल को खराब
करते हैं। तो मेरे गांव में यह रिवाज है कि बड़े बच्चे कहते हैं, अच्छा खेलो। लेकिन सबको कह देते हैं: "यह दूध की दुहनियां है।'
दूध की दुहनियां का मतलब यह कि मतलब इसकी कोई कीमत नहीं करना,
इसको उछलने दो, कूदने दो, मतलब इसको गंभीरता से मत लेना; यह कोई खेल का हिस्सा
नहीं है। मगर यह मानेगा नहीं, जाएगा नहीं, रोएगा-चिल्लाएगा। मां-बाप को लिवा लाएगा और झंझट खड़ी करेगा, तो इसको यह भ्रम रहने दो कि खेल, तू भी खेल का
हिस्सा है, मगर इसको कोई गंभीरता से लेना, मत, इस पर खेल निर्भर नहीं है। उसको दूध की दुहनियां
कहते है। जैसे दूध के दांत होते हैं न कच्चे, जिनका कोई
मूल्य नहीं, जो टूट ही जाने वाले हैं, ये
कोई असली दांत नहीं हैं--नकली खिलाड़ी, बचकाने खिलाड़ी
हिम्मत
भाई की कीमत तो बस दूध की दुहनियां की है। वे तो कई बार आए गए, सो उनको
मैं कोई गिनती में लेता नहीं। जब उनको आना हो आ जाते हैं, जब
जाना हो चले जाते हैं। आते रहेंगे, जाते रहेंगे, वे तो यूं ही समय गंवाते रहेंगे। मगर वे जल्दी लौट आए। हैरानी मुझे हुई कि
वे दूध की दुहनियां हैं, मगर फिर भी जल्दी लौट आए। मगर आनंद
अपने अहंकार में अकड़े बैठे रहे, अब आए हैं। अब उनको साफ हो
गया कि परवीन बाबी नहीं हैं। मगर अब आसान नहीं है, आनंद ऐसे
नहीं लूंगा। जो हरकतें करके गए हो, उनको खयाल करो। और जिन और
दूसरे नासमझों को तुम भड़का रहे थे, उनका खयाल करो। उन सबसे
क्षमा मांगो। और जिन-जिन को तुमने जाकर उल्टी-सीधी बातें कही थीं, उनसे माफी मांगो कि तुमने गलती की थी और तुम मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे
थे। तो वापिस प्रवेश मिलेगा।
ऐसी
ही शोभना भी चली गयी थी। जो वह वह रही है कि भगवान, नहा-धो कर आ गयी हूं,
अब वह यह कह रही है कि उस सब कचरे को मैं बहा कर आ गयी हूं। आपका
दुलार तो बहुत मिला...।' लेकिन यह पहचान शोभना, तुझे अब आयी, तब नहीं। तब आती तो आज न मालूम कहां
होती। मगर चलो, देर-अबेर आयी, सुबह का
भूला सांझ भी घर आ जाए तो कुछ बुरा नहीं।
अब
तू कहती है: "अब थोड़ी-सी पी-गयी भी कर दो।' मैंने तो बहुत पिलाया था,
तब तो तूने ओंठ भी न खोले। पिलाने को अब भी राजी हूं, मगर अब पीने के लिए पात्रता जुटानी पड़ेगी। तब तो तू पात्र थी या अपात्र,
मैंने पूछा भी नहीं था। अब सिर्फ तेरी प्रार्थना से पी-गयी नहीं कर
सकता हूं। अब तो पात्रता के साथ प्रार्थना होगी तो ही पी-गयी हो सकती है। अब ऐसे
मैं कठोर होता जा रहा हूं और कठोर मुझे होना ही पड़ेगा। पर तू नहा-धो कर आयी,
यह अच्छा है। यह सिर्फ कहना ही न हो, खयाल
रखना, सच में ही नहा-धो कर आ गयी हो।
एक
बच्चे ने अपने पिताजी से पूछा: "पिताजी, हम लोग जासूस-चोर का खेल खेल रहे
हैं और मैं जासूस हूं। कुछ तरकीब बताएं मैं किसी को पहचान में न आ सकूं।'
"बेटे'--बाप ने कहा--"साबुन से मुंह
धो लो, फिर कोई तुम्हें नहीं पहचान पाएगा।'
तो
मैं सोचता हूं कि तू बिलकुल साबुन से मुंह धो कर आ गयी होगी। पुरानी पहचान छोड़।
पुराना तादात्म्य छोड़। पीना भी हो जाएगा।
एक
शराबी अपने मित्रों से कह रहा था। "आजकल शक्ल बहुत धोखा देती है। एक बार साहब
मुझे विनोद खन्ना ही समझ बैठे।'
दूसरा
बोला: "यह तो क्या,
कुछ भी नहीं। एक सज्जन मुझे मोरारजी देसाई समझ बैठे। मैं शराब पी
रहा था, वे समझे कि स्वमूत्र पी रहा हूं।'
तीसरा
बोला: "अरे छोड़ो,
यह कुछ भी नहीं। जब मैं पांचवी बार जेल गया तो जेलर बोला--हे भगवान,
तो तू फिर आ गया!'
पीना
भी हो जाएगा,
बिलकुल घबड़ा मत। लेकिन अब पात्रता जुटा। अब मुफ्त में नहीं हो सकता
है।
आज
इतना ही।
दूसरा
प्रवचन; दिनांक २ अगस्त, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
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