दिनांक
25 जुलाई, 1977;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।।
चाला
जात बसंत, कंत
ना घर में आए।
धृग
जीवन है तोर, कंत
बिन दिवस गंवाए।।
गर्व
गुमानी नारि
फिरै
जोवन की माती।
खसम
रहा है रूठि, नहीं
तू पठवै
पाती।।
लगै न
तेरो चित्त, कंत
को नाहिं मनावै।।
कापर करै
सिंगार, फूल
की सेज बिछावै।।
पलटू
ऋतु भरि खेलि ले, फिर
पछतावै
अंत।
क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।।7।।
ज्यौं-ज्यौं सूखै ताल
है,
त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।।
त्यौं-त्यौं
मीन मलीन, जेठ
में सूख्यो
पानी।
तीनों
पन बन गए बीति, भजन
का मरम न
जानी।
कंवल गए कुम्हिलाए, हंस
ने किया पयाना।
मीन
लिया कोऊ मारि, ठांय ढेला चिहराना।
ऐसी
मानुष-देह
वृथा में जात
अनारी।
भूला
कौल-करार आपसे
काम बिगारी।।
पलटू
बरस औ मास दिन, पहर
घड़ी पल छीन।
ज्यौं-ज्यौं सूखै ताल
है,
त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।।8।।
पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई हिराय।।
आपुइ गई
हिराय, कवन
अब कहै संदेसा।
जेकर
पिय में ध्यान, भई
वह पिय के भेषा।।
आगि
माहि जो परै, सोउ अगनी
हवै जावै।
भृंगी
कीट को भेंट, आपु सम लैइ बनावै।।
सरिता
बहिकै गई, सिंध
में रही समाई।
सिव सक्ती के
मिले, नहीं
फिर सक्ती
आई।।
पलटू
दिवाल कहकहा, मत
कोउ झांकन
जाय।
पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई हिराय ।।9।।
सायते
फसल गुल है
जवानी
क्यों
न जिस्मे-मय
हो,
मयवशां हो
आकबत के अजाबों का
रोना
इंबो
मुबारक मनों
में क्यों हो?
भक्ति
प्रेम-विरोधी
नहीं है; भक्ति
है प्रेम का
ऊर्ध्वगमन।
भक्ति राग-विरोधी
नहीं है; भक्ति
है राग का
रूपांतरण।
भक्ति
सौंदर्य-विरोधी
नहीं है; भक्ति
है परम
सौंदर्य की
खोज। भक्ति
प्रिय से तुम्हें
तोड़ती
नहीं--परमप्रिय
से जोड़ती है।
इस बात को
पहले ध्यान
में ले लें।
यह भक्ति की
अपूर्व दशा
है।
भक्ती
कहती नहीं, छोड़ो
प्रेम। भक्ति
कहती है, प्रेम
को बढ़ाओ।
छोटे प्रेम को
जाने दो, बड़े
प्रेम को बुलाओ।
भक्ति
वियोग नहीं
सिखाती, योग
नहीं सिखाती,
वैराग्य
नहीं, तपश्चर्या
नहीं। भक्ति
सिखाती है :
कैसे प्रिय के
रंग में रंग
जाओ।
संसार
के विरोध का
कारण प्रेम
नहीं है।
संसार के विरोध
का कारण है कि
संसार प्रेम
के लिए उपयुक्त
पात्र नहीं
है। विरागी
कहता है : छोड़ो
राग को, क्योंकि
राग बुरा है।
भक्त कहता है :
जहां तुमने
राग लगाया है,
वह
विषय-वस्तु
व्यर्थ है।
राग को मत छोड़ो;
विषय-वस्तु
को बदल लो।
जहां तुमने
क्षुद्र को विराजा है,
बिठाया है,
क्षुद्र को
सिंहासन पर
विराजमान
किया है, वहां
प्रभु को बिठाओ।
जिस हृदय में
तुमने धन, मद,
पद, इन
सबको बिठा रखा
है, वहां
प्रभु का गुण
गाओ। जितना
तुम संसार के
लिए श्रम कर
रहे हो उतने
ही श्रम से
परमात्मा मिल
सकता है।
कुछ
नया नहीं करना
है साधना में; जो
तुम जानते हो,
उसकी ही
दिशा बदलनी
है। यही पैर
पहुंचा देंगे।
दिशा बदलनी
है। यही आंखें
दिखा देंगी।
दिशा बदलनी
है। यही तुम
परमात्मा में
प्रविष्ट हो जाओगे,
परमात्मा
के आलिंगन को
उपलब्ध हो
जाओगे। ज़रा
भी तुम में
कमी नहीं है। लेकिन
तुम्हारी
दिशा गलत है।
तुम गलत नहीं
हो, तुम्हारी
दिशा गलत है।
यह
भक्ति का
आधारभूत
सिद्धांत है :
तुम गलत नहीं
हो,
तुम्हारी
दिशा मात्र
गलत है।
तुम्हें नहीं
बदलना है, सिर्फ
दिशा को बदल
लेना है। तुम
चले हो जिस तरफ,
जो तुम पाने
चले हो, वह
तो ठीक ही है; लेकिन जिस
तरफ तुम चले
हो वहां वह
पाया न जा सकेगा।
जैसे
कोई आदमी चला, नदी
जाना चाहता था
और बाजार की
तरफ चला। चल
रहा है, यह
भी ठीक है; नदी
पहुंचना
चाहता है, यह
भी ठीक है।
प्यासा है तो
नदी पहुंचना
चाहता है।
लेकिन चल पड़ा
है बाजार की
तरफ। पैर भी
ठीक है, चलना
भी ठीक है।
प्यास भी ठीक
है, पानी
की तलाश भी
ठीक है। लेकिन
ज़रा राह
गलत चुन ली, दिशा गलत
चुन ली--नदी की
तरफ चले।
तो
भक्ति
तुम्हारी
सारी
सांसारिकता
को परमात्मा
में नियोजित
कर देती है।
यह भक्ति की
बड़ी अपूर्व
कला है।
ज्ञानी तोड़ता
है। भक्त तोड़ता
ही नहीं।
ज्ञानी काटता
है। भक्त
काटता ही
नहीं। ज्ञानी
के लिए बड़ा
संघर्ष है।
भक्त के लिए
सिर्फ समर्पण
है। भक्त तो
कहता है, यहां
भी जो सौंदर्य
तुम्हें
दिखाई पड़ रहा
है, संसार
में भी, वह
भी है
परमात्मा का।
तुम जिस दिन पहचानोगे
उस दिन जानोगेः
यहां भी जो
वसंत आता है
वह भी उसकी
प्रार्थना का
क्षण है। जब
तुम्हारे
भीतर, तुम्हारे
खून में
जीवन-ऊर्जा
तूफान उठाती
है, यह भी
उसी का तूफान
है। सब उसका
है। उसी की
तरफ बहने लगे,
स्रोत की
तरफ जाने लगे,
तो ठीक हो
जाएगा।
आज के
पलटू के पद
बहुत
सोचने-समझने
जैसे हैं। भक्ति
की
आधार-शिलाएं
उनमें हैं।
क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जाता बसंत।
यह
जीवन तो बसंत
की बेला है।
यह जीवन तो
बसंत ऋतु है।
देखते हो, जीवन
की कोई निंदा
नहीं है। यह
जीवन तो बसंत
है। यह तो
अहोभाग्य है।
और तुम
सोए-सोए बिताए
दे रहे हो!
बसंत आ गया, फूल खिल गए, पक्षी गीत
गा रहे हैं, मोर नाच रहे
हैं। सारा
जगत् उल्लास
से भरा है। और
तुम सोए-सोए
बिता दोगे? तुम
मूर्च्छित ही
बने रहोगे?
"क्या सोवै तू
बावरी'. . .। तुम
कैसे पागल हो!
जागने की घड़ी
आ गई , बसंत
द्वार थपथपा
रहा है। जागने
का क्षण आ गया,
सब तरफ
राग-रंग है।
सब तरफ प्रभु
की वर्षा है। सूरज
निकल आया, किरणों
का जाल फैल
गया। तुम कैसे
पागल हो कि अभी
भी सोए हो! फिर
कब जागोगे?
"क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।।
चाला
जात बसंत, कंत
ना घर में आए।'
प्यारे
को तूने खोजा
ही नहीं।
प्यारे को घर
भी न बुलाया!
प्यारे को
पाती भी न
लिखी, निमंत्रण
भी नहीं भेजा
और ये बसंत के
जाने के क्षण
करीब आने लगे।
यह
जीवन अभी है, अभी
खो जाएगा! यह
जीवन सदा तो
नहीं रहेगा।
आता है, चला
जाता
है--क्षणभंगुर
है। यह तो
क्षणभंगुर जीवन
है, इसे
प्रभु की
पुकार बना लो।
अगर यह प्रभु
की पुकार बन
जाए और प्रभु
की तरफ यात्रा
शुरू हो जाए
तो तुम ऐसे वसंत
में पहुंच
जाओगे जो आता
है, फिर
जाता नहीं। यह
बसंत तो आता
है जाता है।
इस जीवन का
बसंत तो बनता
है मिटता है।
लेकिन एक और
भी बसंत
है--प्रभु में
डूब जाने का।
वहां फिर फूल
सदा ही खिलते
हैं। वहां
सनातन के फूल
खिलते हैं। एस
धम्मो सनंतनो!
जिसको बुद्ध
कहते हैं, शाश्वत,
सनातन, जो
कभी नहीं मुर्झाता--उसके
फूल खिलते
हैं--उस धर्म
के फूल खिलते
हैं।
यहां
तो निश्चित ही
समय के जगत्
में,
समय की
व्यवस्था में,
जो भी पैदा
होता है मर
जाता है। बसंत
भी आया और गया।
आया भी नहीं
कि जाने की
तैयारी शुरू
हो जाती है।
सुबह हुई और
सांझ होने
लगी। जन्म हुआ
और मृत्यु
होने लगी।
मिले नहीं कि बिछुड़ने
की घड़ी आने
लगी। यह बसंत
तो थोड़ी देर
को है। यह द्वार
ज़रा-सी
देर को खुलता
है। लेकिन इस
द्वार का जो
सदुपयोग कर ले
तो वह परम
बसंत को
उपलब्ध हो
जाए।
"क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत ।।
चाला
जात बसंत, कंत
ना घर में आए।'
अभी
प्रेमी के
बिना ही तुझे
रहना पड़ रहा
है। स्वामी से
मिलन ही न
हुआ। मालिक से
कोई संबंध ही
न जुड़ा। साहिब
को कब पुकारोगे? उसी
परम प्यारे के
मिल जाने पर
तृप्ति है।
यहां
भी तुम जो खोज
रहे हो, खोज
तो उसी को रहे
हो। पत्नी में
खोजते हो, पति
में खोजते
हो--कभी सोचा
है किसे खोजते
हो? यह
किसकी खोज चल
रही है--पति
में, पत्नी
में; बेटी
में, मित्रों
में, संबंधों
में, परिजनों
में, किसकी
खोज चल रही है?
और तुमने यह
भी नहीं सोचा,
कभी इसकी
जांच-परख भी
नहीं की कि हर
बार खोज व्यर्थ
हो जाती है।
हर बार विषाद
हाथ लगता है, विफलता लगती
है। पत्नी में
खोजो, पति
में खोजो--तुम
जिसे खोज रहे
हो वह इतना
बड़ा है कि कोई
उसे तुम्हें न
दे पाएगी। और
तब तुम अंततः
नाराज होओगे
गरीब पत्नी
पर। उसका कोई
कसूर भी न था।
तुम्हारी
मांग बड़ी थी। घड़े में
सागर खोजने
चले थे। घड़े
का क्या कसूर ?
पति में
परमात्मा को
खोजने चले थे
। नहीं मिला
पति में
परमात्मा, तो
क्या कसूर पति
का? फिर
नाराजगी पति
पर आती है।
तुमने
देखा, पति-पत्नी
एक-दूसरे पर
बड़े क्रुद्ध
हो जाते हैं।
क्योंकि उनको
लगता है धोखा
दिया गया है।
उनको लगता है :
जो प्रलोभन
हमें दिया गया
था, जो
देने का
आश्वासन दिया
गया था, वह
पूरा नहीं
किया गया।
उन्हें
शिकायत होती है।
चाहे शिकायत
साफ-साफ न हो, लेकिन
पति-पत्नी का
मन एक-दूसरे
के प्रति तिक्तता
से भरता जाता
है, कड़वाहट से भर जाता
है। कारण ? कारण
समझना। कारण
बड़ा धार्मिक
है। कारण यही
है कि पत्नी
ने जिसे प्रेम
किया था, सोचा
था उसमें
परमात्मा
मिलेगा। मिला
एक साधारण
आदमी--क्षुद्र
वासनाओं से
भरा, क्षुद्र
सीमाओं से
घिरा। सोचा था
असीम से दोस्ती
होगी। सोचा था
मंदिर मिल
जाएगा। मिला
घर, मंदिर
नहीं मिला।
घरवाली बन गई,
घरवाले मिल
गए--लेकिन
मंदिर नहीं
मिला। और आकांक्षा
मन की थी, प्यास
तो मन की एक ही
है--मंदिर के
लिए । शाश्वत को
चाहा था, यह
क्षणभंगुर
मिला। यह अभी
है अभी चला।
तुमने
जिस पत्नी को
प्रेम किया था, जिस
प्रेयसी को
प्रेम किया था,
सोचा था
इसमें
सौंदर्य, परम
सौंदर्य मिल
जाएगा, तुम
तृप्त हो
जाओगे, तुम्हारा
दिल भर जाएगा।
लेकिन
धीरे-धीरे यह
सौंदर्य चला गया
और दिल भरा
नहीं। दिल
भरने की तो
बात दूर रही, धीरे-धीरे
यह सौंदर्य अब
सौंदर्य भी
दिखाई नहीं
पड़ता। जिसको
फूल समझ कर
करीब आए, उसमें
बहुत कांटे
मिले--मन
तिक्त होने
लगा, मन कड़वाहट
से भर गया, मन
विरोध से भर
गया। तुम
सोचते हो :
पत्नी धोखा दे
गयी; यह
सुंदर थी नहीं,
इसने
दिखावा किया।
पत्नी सोचती
है : तुम धोखा
दे गए; तुम
ऐसे विराट थे
नहीं जैसा
तुमने दिखावा
किया था।
किसी
ने दिखावा
नहीं किया था।
तुम्हारी
आकांक्षा
परमात्मा को
खोजने की है।
मैंने
सुना है, एक
मुसलमान
सम्राट कभी-कभी
एक सूफी फकीर
को बुलाया
करता था। महल
में बुलाता
था। उसका
सत्संग करता
था। एक दिन फकीर
ने कहा कि यह
नियम के
प्रतिकूल है।
मैं आ जाता
हूं दया करके
। लेकिन कुरान
कहती है कि
फकीर कभी
सम्राट के घर
न जाए। तुम
बुलाते हो तो
मैं इनकार
नहीं कर पाता।
लेकिन कुरान कहती
है कि जब जाए
तो सम्राट ही
फकीर के घर
जाए। तो यह
आखिरी बार
मेरा आना हुआ
है। अब तुम इस
योग्य भी हो
गए हो कि मेरी
बात समझ
सकोगे। सत्संग
ने तुम्हें इस
योग्य बना
दिया। पहले
दिन ही मैं
तुमसे मना
करता तो शायद
तुम्हारी
अक्ल में भी न
आता, तुम
समझते अपमान
हो गया। लेकिन
अब तुम समझ
सकते हो।
तुम्हें
चाहिए तो तुम
आओ, कुएं
के पास आओ।
तुम प्यासे
हो। कुएं को
बुलाते हो तो
यह बात तो ज़रा
ठीक नहीं। अब
जब आना हो तो
तुम आ जाना।
राग तो
लग गया था
सम्राट को इस
फकीर का। इस
के प्रेम की
कुछ बूंदें
उसे मिली थीं।
इसके जीवन में
कुछ उसने झांका
भी था। कुछ
लगता था कि जो
नहीं
साधारणतः
होता, वह हुआ
है। तो वह एक
दिन पहुंचा
फकीर के झोंपड़े
पर। फकीर खेत
में काम करने
गया था। उसकी
पत्नी ने कहा,
आप बैठ
जाएं। वह खेत
की मेंड़
पर पत्नी अपने
पति की
प्रतीक्षा कर
रही है, भोजन
लेकर आई है।
वह कहती है, आप यहीं बैठ
जाएं मेंड़
पर, मैं
पति को बुला
लाती हूं, वे
दूर काम कर
रहे हैं।
सम्राट
ने कहा कि मैं टहलूंगा, तू
जाकर बुला ला।
पत्नी को लगा
कि शायद मेंड़
पर कुछ बिछा
नहीं है, इसलिए
सम्राट बैठता
नहीं। तो वह
भागी गई, अपने
झोंपड़े
में से एक दरी
उठा लाई। गरीब
की दरी! थेबड़ों
लगी। जगह-जगह
फटी, जरा-जीर्ण।
मगर उसने बड़े
प्रेम से बिछा
दी मेंड़
पर और कहा कि
आप बैठ जाएं।
सम्राट ने दरी
देखी और टहलता
ही रहा। उसने
कहा, मैं टहलूंगा
ही, तू पति
को बुला ला।
उसने सोचा कि
शायद मेंड़
पर बैठना
सम्राट के लिए
योग्य नहीं, तो उसने कहा,
आप ऐसा करें,
झोंपड़े में भीतर
चलें, तो
हमारी खाट पर
बैठ जाएं। तो
वह भीतर ले गई,
लेकिन खाट
भी सम्राट को
जंची नहीं।
खाट ही थी गरीब
की। और झोंपड़ा
भी. . .।
वह बाहर
फिर आ गया।
उसने कहा, मैं
टहलूंगा,
तू फिक्र मत
कर। तू जा कर
फकीर को बुला
ला।
पत्नी
गई। राह में
उसने फकीर से--अपने
पति से--कहा कि
सम्राट कुछ
अजीब-सा है! मैंने
बहुत कहा, मेंड़ पर
बैठ जाओ, नहीं
बैठा। दरी
बिछाई। नहीं
बैठा। भीतर ले
गई, अपनी
खाट पर बैठने
को कहा, वहां
नहीं बैठा। यह
बात क्या है, यह बैठता
क्यों नहीं?
फकीर
हंसने लगा।
उसने कहा, पागल!
सम्राट बैठ
कैसे सकता है?
हमारी दरी
भी उसके योग्य
नहीं, खेत
की मेंड़
भी उसके योग्य
नहीं, हमारी
खाट भी उसके
योग्य नहीं।
और फिर
फकीर हंसने
लगा। उसकी
पत्नी ने कहा, आप
हंसते क्यों
हैं? उसने
कहा, यही
तो मनुष्य के
सारे जीवन की
कथा है कि
हमारा मन कहीं
बैठता नहीं, क्योंकि मन
है सम्राट।
कभी तुम दुकान
पर बिठालना
चाहते हो, नहीं
बैठता है। कभी
तुम किसी की
देह में बिठाना
चाहते हो, नहीं
बैठता है। यह
तो बैठेगा ही
नहीं जब तक परमात्मा
न मिले। यह
सम्राट है। यह
परमात्मा मिले
तो ही बैठेगा
और परमात्मा
मिल जाता है
तो ऐसा बैठ
जाता है, हिलता
ही नहीं, डुलता
ही नहीं। सब
कंपन खो जाते
हैं।
कह रहे
हैं पलटू :
"चाला जात
बसंत, कंत ना
घर में आए।'
अभी वह
मालिक न तो
तुमने बुलाया, न
घर में आया, और ये बसंत
के जाने के
दिन भी करीब आ
गए। यह पागलपन
है। यह पागलपन
छोड़ो।
"धृग जीवन है तोर,
कंत बिन
दिवस गंवाए।'
और
जीवन में अगर
कोई भी एक पाप
हो सकता है तो
वह यह है कि उस
परम प्यारे के
बिना कोई जीवन
बिताए।
"धृग है जीवन तोर'.
. .। तेरा
जीवन व्यर्थ
है, व्यथा,
किसी मूल्य
का नहीं, निरर्थक।
अभागा है तू।
क्योंकि और
कोई दुर्भाग्य
ही नहीं जगत्
में--बिना
परमात्मा के
जीवन बिताना।
यह ऐसा ही है
जैसे बिना
रोशनी का दीया,
ऐसा ही। यह
ऐसा ही है
जैसे कि गरमी
में सूख गई सरिता;
रेत ही रेत
का पाट है, जल
की ज़रा भी
धार नहीं है।
यह ऐसा ही है
जैसे एक
मरुस्थल, जहां
न कभी वृक्ष
उगते , न
फूल लगते, न
पक्षी गीत
गाते; जहां
बसंत कभी आता
ही नहीं।
परमात्मा
के बिना जीवन
रस-विहीन है। रसो वै सः!
परमात्मा
रस-रूप है।
उसे बुलाओगे
तो रस-लिप्त
हो जाओगे।
उसके बिना
सूखे-सूखे ही
रहोगे। उसके
बिना आंखें
गीली न होंगी, न
हृदय गीला
होगा। उसके
बिना गीत नहीं
उठेगा। उसके
बिना समाधी
नहीं उसके
बिना समाधान
नहीं है।
और खयाल
रखना, यह जो
परमात्मा का
प्रेम है, यह
तुम्हारे
सांसारिक
प्रेम के
विपरीत नहीं है;
इसके ऊपर
जरूर है, इसके
विपरीत नहीं
है। यह संसार
के प्रेम में
भी तुम इसलिए
पड़ गए हो कि
परमात्मा की
तुम्हें तलाश
है। टटोल रहे
हो। जैसे एक
अंधा आदमी
अंधेरे कमरे
से बाहर
निकलना चाहता
है तो टटोलता
है; हाथ से
टटोलता है या
लकड़ी से
टटोलता है।
कभी दीवाल
टटोलता है, कभी खिड़की
टटोलता है, कभी कुरसी
टटोलता
है--रास्ता
खोज रहा है, दरवाजा खोज
रहा है।
दरवाजा खोजना
चाहता है, इसीलिए
टटोलता है।
तुम्हारा
जो सांसारिक
प्रेम है वह
परमात्मा के
लिए ही तुम्हारा
टटोलना है।
कभी स्त्री को
टटोलते, कभी
पुरुष को
टटोलते, कभी
पति को, कभी
पत्नी को, कभी
बेटे को, कभी
मित्र को, कभी
यहां-वहां--लेकिन
तुम टटोल
परमात्मा के
लिए रहे हो।
कभी तुम्हारी
टटोलती हुई
लकड़ी दीवाल से
लगती है तो
तुम थोड़ी देर
बाद हट जाते
हो, क्योंकि
यहां तो दीवाल
है। कभी कुरसी
से टकराती है,
क्योंकि
यहां तो कुरसी
है। ऐसे ही
धीरे-धीरे सारे
संसार में
टटोलने के बाद
दरवाजा मिलता
है।
यह
संसार
परमात्मा की
खोज का ही अंग
है।
जमजमा
साज का पायल
के छनाके
की तरह
बेहतर
अजसोरसे ताकूसो अजां है
साकी।
भक्तों
ने कहा है कि
अजान की आवाज
और शंख की
आवाज, इससे
ज्यादा
प्यारी आवाज
है संगीत की, प्रेम की, रस की।
जमजमा
साज का पायल
के छनाके
की तरह। वह जो
पायल की झनकार
है,
उसमें जो
संगीत है, वह
कहीं ज्यादा
मूल्यवान है
अजान, रूखी-सूखी
अजान से। वह
जो पायल की
छन-छन है, वह
कहीं ज्यादा
रस-सिक्त है, ज्यादा
जीवंत है
मंदिर के शंख
की सूखी-साखी
आवाज के
मुकाबले।
क्यों? क्योंकि
मंदिर के शंख
की आवाज
जीवन-रहित है।
और अजान भी
जीवन-रहित है।
तुम इस
जीवन में जो
खोज रहे हो, तुमने
अपने बेटे को
जिस नजर से
देखा है, या
अपनी बेटी को,
या अपने भाई
को, या अपनी
प्रेयसी
को--तुमने जिस
प्रेम की नजर
से अपनी
प्रेयसी को
देखा है वही
नजर काम आएगी।
उसमें ही
असली
बात छिपी है।
ऐसा
समझो कि एक
मंदिर में तुम
खड़े हो और आग
लग जाए और
तुम्हारा
बेटा अभी
मंदिर में है
तो तुम मूर्ति
बचाओगे
कृष्ण की कि
अपने बेटे को बचाओगे? मूर्ति-वूर्ति को
तुम छोड़ जाओगे,
भाग जाओगे,
बेटे को
लेकर बाहर
निकल जाओगे।
पता चल जाएगा
वहां कि
असलियत कहां
थी। मूर्ति
में इतना कोई
लगाव थोड़े ही
था। मूर्ति तो
मूर्ति थी।
बेटा असली था।
वहां प्रेम
है। वहां असली
संगीत है प्रेम
का। भक्त कहते
हैं, इसी
प्रेम के
संगीत को ऊपर
उठाना है। इसी
को
ऊर्ध्वगामी
करना है। इसी
को परमात्मा
की तरफ लगाना
है। शंखों की
आवाज से काम
नहीं होगा।
हृदय की आवाज!
अजान से काम नहीं
होगा--यह जो
प्रेम का
तुम्हारे
भीतर छोटा-सा
झरना है, इसी
को बहाना है।
यही बह-बह कर
किसी दिन सागर
तक पहुंचेगा।
"धृग जीवन
है तोर, कंत
बिन दिवस गंवाए।
गर्व
गुमानी नारि
फिरै, जोवन
की माती।'
और फिर
भी तुम कैसे
पागल हो, बड़े
अहंकार में अकड़े फिर
रहे हो!
"गर्व
गुमानी नारि
फिरै, जोवन
की माती।'
और अपने
यौवन पर बड़े
इतरा रहे हो!
अपने बल पर, अपनी
शक्ति पर, अपने
सौंदर्य पर, अपने रूप पर,
अपने रंग
पर--बड़े अकड़
रहे हो! और
तुम्हें यह
पता नहीं हैः
चाला जात
बसंत! यह तो
चला, यह तो
जा ही रहा है।
यह तो तुम्हें
पता ही नहीं चलेगा,
सोए-सोए
निकल जाएगा।
यह कब हाथ से
निकल जाएगा, तुम्हें पता
नहीं चलेगा।
इस पर तुम
इतने गर्वाओ
मत। इस
क्षणभंगुर पर
इतने मत अकड़ो।
"गर्व
गुमानी नारि
फिरै, जोवन
की माती।'
भक्तों
के लिए तो सभी
स्त्रियां
हैं;
पुरुष तो एक
परमात्मा है।
इसलिए "नारी'। गर्व
गुमानी नारि
फिरै, जोवन
की माती।
तुम अपनी अकड़
में ही--यौवन
की, सौंदर्य
की अकड़, रूप
की अकड़--इसमें
ही मदमाते
फिर रहे हो।
यही शराब पी
है, यही
नशा तुम पर
चढ़ा है।
"खसम
रहा है रूठि,
नहीं तू पठवै
पाती।'
और इस
अकड़ की वजह से
तुम्हें एक
बात दिखाई ही
नहीं पड़ रही
है कि
तुम्हारा
असली स्वामी
रूठा बैठा है
और उसे तुम
अभी तक मना भी
नहीं पाए। तुम्हारा
यह गर्व बाधा
बन रहा है।
गर्व के कारण
तुम परमात्मा
को नहीं राजी
कर पा रहे हो, मना
पा रहे हो।
गर्व के कारण
तुम परमात्मा
को नहीं बुला
पा रहे हो। और बुलाओ, तो
ही वह आए।
"खसम
रहा है रूठि,
नहीं तू पठवै
पाती।'
थोड़ा
सोचो तो, तुम
परमात्मा को न
लुभा पाए तो
तुमने जो भी
किया बेकार
गया। उस
प्यारे को
लुभा लिया, उसकी आंख
तुम्हारी आंख
में पड़ गई, उसका
हाथ तुम्हारे
हाथ में आ गया,
तो तुम सफल
हुए। एक ही
सफलता है, बस
एकमात्र
सफलता है जीवन
में और एक ही
धन्यता
है--जिस दिन
तुम सफल हो
जाते हो
परमात्मा को
अपने भीतर
बुलाने में।
उसके पहले सब
असफलता ही असफलता
है। तुम लाख
अपने को समझा
लो कि धन मेरे
पास है, देखो
सफल हो गया; कि पद मेरे
पास है, सफल
हो गया ये
धोखे हैं। ये
सब धोखे मौत
तोड़ देगी। जब
बसंत जाएगा तब
तुम अचानक पाओगेः
सूख गई देह, झर गए हरे
पत्ते, फूल
अब नहीं खिलते,
पक्षी अब
डेरा भी नहीं
डालते; अब
न कोई गीत है न
कोई गान है। सब
गया। अब बस
मौत से ही
पहचान है।
इसके पहले कि
मौत तुममें घर
बना ले, तुम
अमृत से संबंध
जोड़ लो।
"गर्व
गुमानी नारि
फिरै, जोवन
की माती।
खसम
रहा है रूठि, नहीं
तू पठवै
पाती।।
लगै न
तेरो चित्त, कंत
को नाहिं मनावै।'
और
तेरा चित्त भी
नहीं लग रहा
है,
यह भी सच है।
चित्त लगे भी
कैसे, लगे
भी तो कैसे
लगे? सम्राट
बैठेगा तो
उसके योग्य
आसन चाहिए। और
तुम्हारा
चित्त भी
परमात्मा के
पहले कहीं लग
नहीं सकता।
वहीं बैठता है
बस। यह चित्त
का पंछी वहीं
बैठता है। और
कोई जगह नहीं
बैठता; इसे
और कोई जगह
सुहाती नहीं।
कभी तुम कहते
हो इस ढेर पर
बैठ जा--धन का
ढेर--मगर यह
उसे कचरा है।
कभी तुम कहते
हो पद पर बैठ
जा, यह भी
उसके लिए कचरा
है। तुम उसे
लाख तरह के खिलौने
देते हो, लेकिन
वह हर खिलौने
से ऊब जाता है
और एक दिन हर खिलौने
को छोड़ देता
है। वह कहता
है, असली
लाओ। और इसलिए
चित्त बेचैन
है।
तुम
शायद सोचते हो
कि चित्त की
बेचैनी कोई
बीमारी है तो
तुम गलत खयाल
में हो। मेरे
पास लोग आते हैं।
वे कहते हैं
कि कुछ ऐसा
करें कि हमारा
चित्त शांत हो
जाए। मैंने
कहा,
इसी अशांत
चित्त में तो
थोड़ी आशा है; अगर शांत हो
गया तो तुम
गए। इसका
अशांत होना सौभाग्य
है। यह अशांत
चित्त यही कह
रहा है कि
यहां तुमने
जहां-जहां
शांति खोजनी
चाही वहां
शांति नहीं
मिलेगी। और
तुम चाहते हो
चित्त शांत हो
जाए। अगर तुम्हारा
चित्त शांत हो
जाए तो तुम
संसार में ही
रह जाओगे।
इसलिए चित्त
तो शांत होगा
ही नहीं--जब तक
तुम परमात्मा
में प्रवेश न
करो। तुम लाख
उपाय करो, चित्त
शांत नहीं
होगा। कैसे
होगा? जब
तक परम धन न
मिले तब तक
तुम कैसे
चित्त को समझाओगे?
चित्त को
लगता ही रहता
है : मैं
भिखारी, निर्धन,
भूखा, क्षुधा-पीड़ित,
तड़प रहा! और
चित्त कंप रहा
है। यह चित्त
का कंपन तुम्हारा
सौभाग्य है, इसे
दुर्भाग्य मत
समझो। यह कहीं
नहीं लगता।
क्योंकि यह
कहता है : वहां
ले चलो जहां
मैं लग सकता
हूं। और वहां
तुम ले नहीं
जाते। तुम
अपने गर्व में
अकड़े
बैठे हो। तुम
कहते हो, हम
तुझे यहीं
शांत कर लेंगे;
और थोड़ा धन
ले ले।
तुमने
चित्त को कोई
छोटा बच्चा
समझा है, जिसको
तुम समझा रहे हो
कि चल और
आइसक्रीम
ले-ले, यह
खिलौना ले-ले,
चल बाजार से
कुछ मिठाई
दिलवा दें!
तुम यह सब देते
रहोगे और
चित्त की
बेचैनी न
मिटेगी; बेचैनी
बढ़ती जाएगी।
क्योंकि
जैसे-जैसे
बसंत बीतने
लगेगा
वैसे-वैसे
चित्त को
लगेगा यह तो दिन
भी गया, यह
अवसर भी खोया
जा रहा है। और
इन खिलौनों से
मैं कब तक
उलझा रहूं!
इसलिए
जैसे-जैसे
उम्र बढ़ती है
वैसे-वैसे
चित्त की
अशांति बढ़ती
है। बच्चे
शांत मालूम
होते हैं; बूढ़े
अशांत हो जाते
हैं। बूढ़े का
बसंत चला गया,
अवसर चला
गया और कंत से
मिलना न हुआ।
"लगै न तेरो
चित्त'. . .।
लग सकता ही
नहीं। लगाओ, लाख लगाओ, लग सकता ही
नहीं। और यह
सौभाग्य है कि
चित्त तुम्हारा
लगता नहीं; नहीं तो
तुमने न मालूम
किस कूड़े
की ढेरी में
इसको कभी का
लगा दिया
होता। यह तो चित्त
की तुम पर
कृपा है कि यह
कहीं पर लगता
नहीं। न मालूम
तुमने कहां
उलझा दिया
होता, कहां
के नकली
सिक्के पकड़
लिए होते और
जिंदगी भर
छाती से लगाए
बैठे रहते।
मगर चित्त
तुम्हें हर
जगह से हटा
देता है। वह
कहता है : अब
चलो आगे बढ़ो;
यहां नहीं
है कुछ, कहीं
और खोजें।
चित्त
की बेचैनी का
अर्थ है कि
खोजना कहीं और
होगा। यह खोज
ठीक जगह नहीं
चल रही है। और
जैसे ही तुम
ठीक जगह खोजने
लगोगे, तुम
अचानक पाओगे
चित्त शांत
होने लगा।
लोग
कहते हैं कि
चित्त शांत हो
जाए तो तुम
परमात्मा में
पहुंच जाओगे।
मैं तुमसे
कहता हूं : तुम
परमात्मा की
तरफ पहुंचने
लगो तो चित्त
शांत हो जाए।
लोगों ने
तुमसे कहा है
कि चित्त को शांत
कर लो तो तुम
परमात्मा में
पहुंच जाओगे।
मैं तुमसे यह
कहना चाहता
हूं कि तुम
परमात्मा की
तरफ चलने भर
लगो और चित्त
शांत होने
लगेगा। चित्त
शांत हो ही
नहीं सकता
परमात्मा की
तरफ चले बिना।
उसकी तरफ चलने
से ही शीतलता
बढ़ती है। उसकी
तरफ चलने से
ही बेचैनी अपने
आप कम होने
लगती है। उसकी
तरफ चलने से
ही भीतर भरोसा
आने लगता है
कि अब ठीक
दिशा मिली, अब
घर की तरफ
चले।
"लगै न
तेरो चित्त, कंत को
नाहिं मनावै।'
इधर चित्त
भी तेरा नहीं
लग रहा है।
किसका लग रहा
है? तुमने
किसी का संसार
में चित्त को
लगते देखा? जिनके पास
बहुत धन है, जिनके पास
बहुत पद
है--तुम सोचते
हो उनका चित्त
लग रहा है? वे
इतने ही उखड़े
हैं जितने तुम
उखड़े हो, शायद तुमसे
ज्यादा उखड़े
हैं। क्योंकि
उन्होंने
अपना सारा
बसंत तो धन को
इकट्ठा करने
में लगा दिया
और चित्त शांत
नहीं हुआ है।
अब उनकी
बेचैनी तुम
समझ न सकोगे।
वे विक्षिप्त
हुए जा रहे
हैं। उनको कुछ
समझ में नहीं
आ रहा है कि अब
क्या करें , क्या न
करें।
. . ."कंत
को नाहिं मनावै'। लेकिन अकड़
के मारे तुम
परमात्मा की
तरफ भी नहीं
जाते हो, चित्त
भी बेचैन है।
सब तरह की
विक्षिप्तता
इकट्ठी हो गई
है। एक क्षण
को रस नहीं
है। एक क्षण को
सुख की छाया
नहीं मिलती।
भागे जाते हो,
धूप-ही-धूप,
आपाधापी!
महत्त्वाकांक्षा!
और इकट्ठा, और इकट्ठा!
इतना कर लिया,
उससे कुछ
नहीं मिला।
एक
मित्र मेरे
पास आए। वे
कहने लगे कि
जब मैं युवा
था,
तब मैंने तय
किया था कि
जिस दिन मेरे
पास दस लाख
रुपए हो
जाएंगे उसी
दिन सब
आपाधापी छोड़-छाड़ कर
शांति से बैठ
रहूंगा। बस अब
थोड़ी ही देर
और है। पांच
लाख मेरे पास
हो गए हैं
(गरीब आदमी के
घर पैदा हुए, पांच लाख
बड़ी बात है
उनको इकट्ठा
कर लेना, बड़ी
मुश्किल से
इकट्ठे
किए।)--थोड़ी
देर और है, एक
दो-चार-पांच
साल की बात है,
अब पैसा
मेरे पास है, पांच को दस
करने में
कठिनाई न
होगी। ये पांच
असली कठिन बात
थी। अब पांच
को दुगना करना
सरल पड़ेगा। बस
फिर तो मैं भी
संन्यस्त
होकर बैठ जाऊंगा।
मैंने
उनसे पूछा, एक
बात तो मुझे
कहो। पांच लाख
मिले, आधी
तो संपत्ति
मिल गई जितने
तुम चाहते थे।
आधा चैन मिला?
आधी शांति
मिली?
वे
कहने लगे :
शांति! शांति
मिलने की
पूछते हैं? जो
थी थोड़ी-बहुत
वह भी चली गई।
तो
मैंने कहा कि
यह भी तो सोचो
कि दस के
मिलते-मिलते
यह जो थोड़ी
बहुत समझ बची
है मेरे पास
आने की कि तुम
यहां तक आ गए, यह
भी चली जाएगी।
पांच लाख
मिलने में जो
थोड़ी-बहुत
शांति थी, वह
चली गई। दस
लाख मिलते-मिलते
तक होश रहेगा?
पगला तो न
जाओगे?
वे कुछ
सोचने लगे और
कहा कि आपकी
बात ठीक मालूम
पड़ती है; सोचता
हूं तो ठीक
मालूम पड़ती
है। इतना पागल
मैं पहले नहीं
था। जब से ये
पांच हो गए
हैं तब से सो
भी नहीं सकता।
दिन-रात गिनती
चल रही है। और
वह दस का नशा
चढ़ा हुआ है।
इसलिए
भारत में हम
धन के नशे को
"धन-मद' कहते
हैं; पद के
नशे को "पद-मद'
कहते हैं।
मद यानी नशा, मदिरा।
अंग्रेजी में
जो शब्द है "मैड' वह
संस्कृत के
"मद' शब्द
से बना है। मद
एकमात्र
पागलपन है।
तो
मैंने उनसे
कहा,
अभी तो
तुम्हें थोड़ा
होश है, चलो
तुम यहां आ
गए। पांच साल,
दस साल बाद
जब तुम्हारे
पास दस लाख हो
जाएंगे--तुम्हें
मेरी याद
रहेगी? तुम
इस तरफ आओगे?
वे
कहने लगे, पक्का
नहीं कह सकता।
हालत मेरी
खराब है। सच
तो यह है कि दस
लाख होने तक
मैं बच भी
सकूंगा, यह
भी मुझे संदेह
लगता है।
क्योंकि मैं
बहुत परेशान
हुआ जा रहा हूं।
तो फिर
मैंने कहा, जब
पांच से इतनी
मुसीबत हो गई,
तो अब इसको
दस किसलिए
करना चाहते
हो! मगर गर्व? वे बोले कि
नहीं, एक
दफा तय कर
लिया था कि दस
तो करके
रहूंगा, तो
करके तो
रहूंगा।
आदमी
कभी-कभी ऐसी
दिशाओं में भी
चलता जाता है जिनमें
कुछ भी नहीं
पाता; लेकिन
एक अहंकार. . .।
"लगै न तेरो
चित्त, कंत
को नाहिं मनावै।'
और फिर भी
अकड़ कर बस. .
. प्रभु को
मनाने की तरफ
कोई चेष्टा भी
नहीं हो रही।
"कापर करै
सिंगार'. . .। सुनते
होः "कापर
करै
सिंगार, फूल
की सेज बिछावै'। फिर किसके
लिए श्रृंगार
करती है? और
फिर किसके लिए
फूलों की सेज
बिछाती है? जब परमात्मा
को मनाने का
ही , मनाने
के लायक भी
विनम्रता
नहीं है, तो
किसके लिए
श्रृंगार और
किसके लिए
फूलों की सेज
सजाती है? यह
किसके लिए
मंदिर बनाती
है? यह
किसके लिए दीप
जलाती है?
"कापर करै
सिंगार'. . . . .। तुम
किसके लिए सज
रहे हो? हां,
मंदिर जाने
के लिए सज रहे
हो तो ही
तुम्हारे सजने
का कोई मूल्य
है। प्रभु को
रिझाने को चले
हो तो ही
तुम्हारा कोई
मूल्य है।
मैंने
सुना है, अकबर
ने तानसेन को
एक बार कहा कि
तुम्हारा संगीत
अपूर्व है।
मैं सोच भी
नहीं सकता कि
इससे श्रेष्ठ
संगीत कहीं हो
सकता है। या कोई
इससे श्रेष्ठ
संगीत पैदा कर
सकेगा। लेकिन
एक प्रश्न
मेरे मन में
बारबार उठ आता
है कि तुमने
किसी से सीखा
होगा, तुम्हारा
कोई गुरु
होगा। अगर
तुम्हारे
गुरु जीवित
हों तो एक बार
उनका संगीत
सुनना चाहता हूं,
उन्हें
दरबार में बुलाओ।
तानसेन
ने कहा, यह ज़रा कठिन
बात है। गुरु
मेरे जीवित
हैं, लेकिन
उन्हें
बुलाना
मुश्किल है।
वे फकीर आदमी
हैं। (फकीर
हरिदास उनके
गुरु थे) वे
गाते हैं अपनी
मौज से, बजाते
हैं अपनी मौज
से, क्योंकि
वे आदमियों के
लिए नहीं गाते,
आदमियों के
लिए नहीं
बजाते। वे
परमात्मा के लिए
गाते और
परमात्मा के
लिए बजाते
हैं। तो जब उन
की मौज होती
है तब। और दरबार
में तो उनको
लाया न जा
सकेगा।
फरमाइश पर तो वे
गाते ही नहीं,
गा ही नहीं
सकते। वे कहते
हैं, परमात्मा
करे फरमाइश तब
मैं गाता हूं।
इसलिए ज़रा
मुश्किल है।
आप चलने को
राजी न होंगे,
उन्हें
लाया नहीं जा
सकता। और यह
भी कुछ पक्का
नहीं है कि वे
कब गाएं, रोज
उनका कुछ बंधा
हुआ नियम नहीं
है। प्रार्थना
के कहीं बंधे
हुए नियम हो
सकते हैं!
प्रेम के कहीं
बंधे हुए नियम
हो सकते हैं!
प्रेम तो सब नियम
तोड़ कर बहता
है। प्रेम तो
बाढ़ की तरह
है--कूल-किनारे
सब तोड़ देता
है। तो कभी वे
दो बजे रात उठ
आते हैं और
गाते रहते हैं,
गाते रहते
हैं, घंटों
बीत जाते हैं,
सूरज निकल
आता है, दोपहर
हो जाती है और
मस्त नाचते
रहते हैं। और कभी
दो-चार दिन
सन्नाटा ही
रहता है, उनके
झोंपड़े
पर कोई स्वर
नहीं उठता।
कभी शून्य का
नैवेद्य चढ़ाते
परमात्मा को,
कभी संगीत
का चढ़ाते
हैं। मगर यह
सब अनिश्चित
है। हरिदास
स्वतंत्र
वृत्ति के हैं;
स्वच्छंद
हैं; संन्यासी
हैं।
संन्यासी
का अर्थ ही
होता है
स्वच्छंद, जो
अपने भीतर के
छंद से जीता
हो। अकबर ने
कहा कि तुमने
मुझे और लुभा
दिया। सुनना
तो होगा ही, कुछ भी उपाय
हो। तुम पता
लगाओ। मैं आधी
रात भी चलने
को राजी हूं।
लेकिन
तानसेन ने कहा, एक
और आखिरी बात
झंझट की है कि
अगर कोई पहुंच
जाए तो वे
तत्क्षण रुक
जाते हैं, वे
चुप हो जाते
हैं। तो चोरी
से सुनना
पड़ेगा। झोंपड़े
के बाहर छिप
कर सुनना
पड़ेगा। हम जब
उनके विद्यार्थी
भी उनके पास
थे तो छिप कर
ही सुनते थे।
हमें सिखाते
थे, वह तो
ठीक था। लेकिन
जब वे खुद
अपनी मस्ती
में, अपनी
रौ में गाते
थे तो हमें
छिप कर सुनना
पड़ता था।
सामने पहुंच
जाओ, वे
रुक जाते। बात
ही गई।
तो रात
अकबर और
तानसेन, दो
बजे रात, छिप
गए हरिदास के झोंपड़े के
पास। वे आगरा
में यमुना के
किनारे रहते
थे। तीन बजे
रात वह अपूर्व
संगीत शुरू
हुआ हरिदास
का। अकबर
डोलने लगा।
उसकी आंख से
आंसू ही बहे
जाते हैं।
पांच बजे बंद
हुआ संगीत। जब
वे लौटने लगे
महल की तरफ, तो अकबर
बिलकुल चुप
रहा, कुछ
बोला ही नहीं।
यह बात कुछ
ऐसी थी कि
इसके संबंध
में कुछ भी
कहना छोटा
होगा, ओछा
होगा। यह इस
जगत् का संगीत
न था। यह सेज
परमात्मा के
लिए बिछाई गई
थी। यह
श्रृंगार
परमात्मा के
लिए किया गया
था। यह तो बात
ही अलौकिक थी।
यह अपार्थिव
थी बात। यह
स्वर्ग का
संगीत था।
इसके संबंध
में क्या कहो!
कुछ कहने को न
था। एक
सन्नाटा रहा।
जब महल
आ गया और अकबर
उतर कर महल की सीढ़ियां चढ़ने लगा
और उसने
तानसेन को
विदा दी, तब
उसने इतना ही
कहा : "तानसेन,
अब तक मैं
सोचता था
तुम्हारा कोई
मुकाबला नहीं
है; आज मैं
सोचता हूं
तुम्हारे
गुरु के सामने
तुम तो कुछ भी
नहीं हो। आज
मैं बड़ी
बेचैनी में पड़
गया हूं। अब
तक सोचता था तुम्हारे
सामने कोई भी
कुछ नहीं है; आज बड़ी
मुश्किल हो गई
है। आज
तुम्हें
देखता हूं तो
तुम्हारा
संगीत साधारण
मालूम होता
है। तुम्हारे
गुरु के सामने
तो तुम कोई भी
नहीं हो, कुछ
भी नहीं हो।
तुम्हारा
उनसे क्या
मुकाबला! अब
तक सोचता था
तुम्हारा कोई
मुकाबला नहीं;
अब सोचता
हूं तुम्हारा
उनसे क्या
मुकाबला! इतना
फर्क क्यों है?
और जो
तुम्हारे
गुरु के जीवन
में हो सका, तुम्हारे
जीवन में
क्यों नहीं हो
पाया?
तानसेन
ने कहा : कठिन
नहीं है मामला, सीधा-साफ
है। मैं बजाता
हूं आपके लिए;
मेरे गुरु
बजाते हैं
परमात्मा के
लिए। मैं बजाता
हूं कुछ
पुरस्कार
पाने के लिए।
क्षुद्र पुरस्कार--धन,
पद, प्रतिष्ठा।
मेरे गुरु
बजाते हैं
अहोभाव से, किसी
पुरस्कार को
पाने के लिए
नहीं। मैं
बजाता हूं कुछ
पाने के लिए; मेरे गुरु
बजाते हैं
क्योंकि
उन्होंने कुछ
पा लिया है।
उस पाने बजना
उठता है। मैं
तो भिखारी हूं,
वे सम्राट
हैं।
जिस
दिन तुम
परमात्मा के
लिए श्रृंगार
करोगे, उसके
लिए फूलों की
सेज सजाओगे,
उसी दिन
तुम्हारे
जीवन में आनंद,
उसी दिन
तुम्हारे
जीवन में
संगीत, उसी
दिन तुम्हारे
जीवन में
अर्थ. . . उसके
पहले तो सब
व्यर्थता है।
"कापर करै
सिंगार, फूल
की सेज बिछावै।'
और
कहते पलटूदास
के लोगों को
मैं देखता
हूं--बड़ा
श्रृंगार कर रहे
हैं,
बड़ी फूलों
की सेज सजा
रहे हैं, मकान
बना रहे हैं, व्यवस्थाएं
जुटा रहे हैं!. . . किसलिए? किसके लिए?
"कापर करै
सिंगार, फूल
की सेज बिछावै।'
किसको
रिझाने के लिए
यह आयोजन चल
रहा है? और
यहां हाथ से
बसंत निकला जा
रहा है।
"पलटू
ऋतु भरि खेलि ले, फिर पछतावै
अंत।
क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।।'
"पलटू
ऋतु भरि खेलि ले'. . .। यह
जो छोटा-सा
क्षण मिला है,
यह जो जीवन
मिला है, इसको
रस से मदमत्त,
प्रभु के
प्रेम में
मस्त, खेलि ले, नाच
ले, क्रीड़ा कर ले। यह
जिसने दिया है
उसी के चरणों
में समर्पित
कर दे।
"पलटू
ऋतु भरि खेलि ले, फिर पछतावै
अंत।' नहीं
तो मृत्यु के
समय पछतावा
होगा कि प्रभु
ने इतनी बड़ी
भेंट दी ,
हमने उसे
कुछ भी न
लौटाया, हमने
कोई उत्तर भी
न दिया। और यह
आ गई मौत और सब छीन
कर ले चली।
सूखने लगे फूल
सेज के, श्रृंगार
कुम्हलाने
लगा। यह आई
मौत और सब छीन
कर ले चली! और
जब हम दे सकते
थे तब हमने
प्रभु को भी
देने में
आनाकानी की।
जो छिन ही
जाएगा, जो
छिन ही जाना
है, उसे
क्यों न तुम
दान बना लो! और
फिर अगर दान
ही बनाना हो
तो सबसे पहले
तो उसी का
ध्यान करना
चाहिए जिसने
दिया है, उसको
हम लौटा दें!. . .
तेरी वस्तु
गोविंद तुझी
को समर्पित। त्वदी यंवस्तु
गोविंद, तुभ्यमेव समर्पए।
और तो किसी को
देने का कारण
भी नहीं है।
है
नींद सुहागिन वंदिनी
परदेशी
पी की बांहों
में
ओ
मेरे सपनों के
स्रष्टा
ओ
मेरी जागृति
के द्रष्टा
क्या
ज्ञात नहीं, मेरी
सीमित
साधे
हैं तेरी
चाहों में?
ओ
मेरे मोहन
परदेशी,
तेरी
राधा
वल्कल-वेशी
आशा
का दीप लिए
बैठी है
पल-छिन
तेरी राहों
में
इन
श्वासों का
ताना-बाना
रुक
जाए नहीं
आना-जाना
युग
से पल बीत रहे
मेरे
मैं
डूब रही हूं
आहों में
तेरी
पद-रज कुंकुम रौली
तू
था तो
प्रतिदिन
होली
तू
तो तरु, मैं
हूं लता
पुष्प
पलती हूं तेरी
छांओं
में
ओ
मेरे सपनों के
स्रष्टा
ओ
मेरी जागृति
के द्रष्टा
क्या
ज्ञात नहीं है, मेरी
सीमित
साधे
हैं तेरी
चाहों में?
है
नींद सुहागिन वंदिनी
परदेशी
पी की बांहों में।
वह जो
परदेसी पिया
है,
वह जो
परमात्मा है,
जो पता नहीं
कहां छिपा है,
हमारा सारे
जीवन का आनंद
उसकी बांहों
में है। उसके
आलिंगन में पड़
कर ही जीवन
में संगति, सुरभि, संगीत
का जन्म होता
है।
संसार
में सिर्फ
दुःख है, दुःख
यही है कि जो
हम खोजते हैं
वह वहां नहीं
मिलता है। वह
वहां नहीं
मिलता है, क्योंकि
वह वहां नहीं
है। हमारी खोज
ठीक, हमारी
आकांक्षा ठीक,
हमारी दिशा
भ्रांत है।
लेकिन
हम बड़े अकड़े
हैं। हम बड़े
गर्व से भरे
हैं। हम कहते
हैं : "मैं, और
मेरी दिशा
कैसे गलत हो
सकती है? सिद्ध
करके रहूंगा!
माना दूसरे
हार गए होंगे,
और सिकंदर
हार गए होंगे;
लेकिन मैं
सिद्ध करके
रहूंगा कि
मिलता है।
सारी
मनुष्य-जाति
की कथा क्या
है?
जिन्होंने
भी बाहर खोजा,
अब तक कुछ
भी नहीं पाया।
जिन्होंने
बाहर खोजा, खाली हाथ
रहे, खाली
हाथ गए ।
निरपवाद रूप
से बाहर खोजने
वाले थके, हारे,
पराजित
हुए। बाहर
खोजने वालों
में कोई कभी
जिन और विजेता
नहीं हुआ है।
पराजय वहां
भाग्य है।
पराजय वहां नियति
है। एक मनुष्य
ने भी कभी
बाहर खोजकर यह
नहीं कहा कि
मुझे मिला।
इससे बड़ा और
कोई वैज्ञानिक
सत्य हो सकता
है? निरपवाद।
किस
बात को
वैज्ञानिक
कहते हो? वैज्ञानिक
उस बात को कहते
हैं जिसमें
कोई अपवाद न
हो। जब भी
पानी गरम करो,
सौ डिग्री
पर ही भाप बने;
कभी
निन्यानबे पर
बन जाए, कभी
एक सौ एक
डिग्री पर बने
तो यह फिर
विज्ञान का
नियम न रहा।
अपवाद आ जाए
तो नियम टूट
गया। सौ
डिग्री पर ही
बने, फिर
चाहे तिब्बत
में गरम करो, चाहे चीन
में, चाहे
मंगोलिया में,
कहीं गरम
करो, सौ
डिग्री पर ही
भाप बने--जब ये
हजारों
प्रयोग करके
देख लिए जाते
हैं और पाया
जाता है हर
बार सौ डिग्री
पर ही भाप
बनता है, तो
नियम
निर्धारित हो
जाता है।
निरपवाद है तो
नियम बन जाता
है।
लेकिन
इससे बड़ी
निरपवाद कोई
व्यवस्था
नहीं है मनुष्य-जाति
के इतिहास
में। क्योंकि
यह प्रयोग
अरबों-खरबों
लोगों ने किया
है कि हम
संसार में सुख
पा लें-- और
नहीं मिलता।
लेकिन फिर भी
हर आदमी इस
अहंकार से भरा
हुआ पैदा होता
है कि औरों को
न मिला होगा, मैं
निरपवाद, नियम
को तोड़ कर
बताऊंगा; मैं
अपवाद होकर
रहूंगा; मैं
दिखाऊंगा
कि मुझे मिलता
है।
यह एक
पहलू है।
दूसरा
पहलू यह है कि
जिन्होंने भी
भीतर खोजा, उन
सभी को मिला
है। वह भी
निरपवाद है।
कोई महावीर, कोई मुहम्मद,
कोई कृष्ण,
कोई
क्राइस्ट, कोई
रैदास, कोई
पलटू, कोई
नानक, कोई
कबीर--जो भी
भीतर गया है, उसे मिला
है। ऐसा कभी
नहीं हुआ कि
कोई भीतर गया
हो और उसने
कहा हो कि
मुझे नहीं
मिला। यह
दूसरा पहलू है
उसी नियम का।
यह तो दोनों
तरफ से कसौटी
हो चुकी है इस नियम
की। भीतर ही
मिलता है, बाहर
नहीं मिलता।
लेकिन फिर भी
आदमी का अहंकार
अपूर्व रूप से
अंधा है। वह
कहता है, किसी
को अब तक न
मिला होगा, मैं एक
कोशिश करके और
देख लूं।
असंभव
कोशिश हार ही
जाती है। फिर
हमारे हाथ में
केवल अभिनय रह
जाता है। सत्य
तो हाथ में
नहीं आता।
संसार अभिनय
है। फिर हम
दिखावा करने
लगते हैं जब
नहीं मिलता।
हंसी तो आती
नहीं असली, तो
फिर हम झूठी
मुस्कराहट
अपने ओंठों पर
चिपका लेते
हैं। मन को
समझाना तो
होगा ही न ! तो
हम झूठी
खुशियां, झूठे
उत्सव मनाते
रहते हैं।
भीतर जलती
रहती है आग और
बाहर हम
शीतलता
दिखाते रहते
हैं। भीतर
आंसुओं के ढेर
लगे रहते हैं
और बाहर हम
हंसते चले
जाते हैं।
तुम ज़रा
लोगों का
हंसना
देखो--कैसा
खाली, कैसा
रिक्त, कैसा
निर्जीव! तुम ज़रा लोगों
की आंखों में
झांको।
दिखलाने की
कोशिश वे यही
करते हैं कि
सब ठीक है! कुछ
भी ठीक नहीं है।
भीतर सिर्फ
मौत आ रही है
और बसंत जा
रहा है और
उनके पैर
डगमगा रहे हैं,
लेकिन किसी
तरह अपने को
संभाल कर खड़े
हुए हैं, किसी
को दिखने नहीं
देते कि हमारे
पैर डगमगा रहे
हैं।
अभिनय
करो
प्रणय
का अभिनय करो
अभी
नहीं बंद करो
एक
बार,
दो बार, तीन
बार, नहीं-नहीं
नित्य
ही अभिनय करो
नित्य
ही अभिनय करो
बहुत
भला लगता है
सांसों
पर सरगम-सा
चलता है
क्या
बुरा है यदि
ऐसे ही
प्राणों
को छला जाए,
यूं
ही सहज सरल
जीवन-क्रम
चलता जाए?
मगर
क्या खाक सहज
है यहां? और
क्या सरल है? फिर
धीरे-धीरे
अभिनय की कला
ही रह जाती
है--बताते रहो
जो नहीं है; भीतर निर्धन
रहो, बाहर
धन दिखलाते
रहो; भीतर
अज्ञानी रहो,
बाहर ज्ञान
दिखलाते रहो।
भीतर संताप और
बाहर दिखलाते
रहो कि सब ठीक
है, तुम बड़े
प्रसन्न हो।
ऐसा यह जगत्
अभिनय से भरा
है। और इससे
बड़ा खतरा होता
है। कम-से-कम
छोटे बच्चों
को तो बड़ा
धोखा हो जाता
है। बच्चों को
ही धोखा होता
है। फिर बच्चे
बड़े उम्र के
भी हुए तो भी
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। बच्चों
को ही धोखा
होता है। धोखा
ही बच्चों को
हो सकता है।
तुमको भी धोखा
होता है कि सब
लोग इतने
प्रसन्न चले
जा रहे हैं; देखो कितने
लोग आनंदित
हैं, मैं
ही एक दुःखी!
यह
हरेक का अनुभव
है। प्रत्येक
ऐसा ही सोचता
है कि मैं ही
अकेला दुःखी, हे
प्रभु, मुझे
ही क्यों
दुःखी बनाया
है? सारी
दुनिया इतनी
खुश मालूम हो
रही है, रंगरेलियां चल रही हैं, लोग हाथों
में हाथ डाले
जा रहे हैं; गीत गा रहे
हैं, नाच
रहे। सारी
दुनिया इतनी
प्रसन्न है, मैं ही
क्यों दुःखी
हूं?
यह सभी
का भीतरी
अनुभव है कि
मैं ही क्यों
दुःखी हूं।
लेकिन दूसरे
तो प्रसन्न
दिखाई पड़ते हैं, तो
ऐसा लगता है
कोई अन्याय
किया गया है
तुम्हारे
साथ। यहां कोई
भी प्रसन्न नहीं
है। यहां
जितने तुम
दुःखी हो उतने
ही सभी दुःखी
हैं। यहां
ऊपर-ऊपर के
भेद होंगे, भीतर की
दुःख की ढेरियां
उतनी ही उतनी
हैं, कोई
अंतर नहीं है।
मैंने
एक कहानी सुनी
है कि एक आदमी
निरंतर रोता
था जा कर
मस्जिद में कि
हे प्रभु, मुझे
इतना दुःखी
क्यों बनाया?
आखिर मैंने
तेरा क्या बिगाड़ा
है? यह
अन्याय हो रहा
है। और मैं तो
सुनता थाः तू
बड़ा न्यायी है,
रहीम है, रहमान है, कृपालु है, महाकरुणावान है! मगर सब
धोखे की बातें
हैं। मुझे
इतना दुःख क्यों
दिया? सब
मजे में हैं।
मगर सब धोखे
की बातें हैं।
मुझे इतना
दुःख क्यों
दिया? सब
मजे में हैं।
सब आनंद कर
रहे हैं। मैं
ही दुःख में
पड़ा सड़ा
जा रहा हूं।
कुछ कृपा कर!
अगर सुख न दे
सके तो कम से
कम इतना तो कर
कि किसी और का
दुःख मुझे दे
दे, यह
मेरा दुःख
किसी और को दे
दो। इतना तो
कर!
उसने
एक रात सपना देखा
कि कोई आवाज
आकाश से कह
रही है कि सब
लोग अपने-अपने
दुःख लेकर
मस्जिद पहुंच
जाएं। वह तो बड़ी
जल्दी तैयार
हो गया। उसने
जल्दी से अपना
दुःख बांधा, पोटली
उठाई, भागा
मस्जिद की
तरफ। खुद भी
भागा, उसने
देखा, बड़ा
हैरान हुआ कि
पूरे गांव के
लोग अपनी-अपनी
पोटलियां
लिए जा रहे
हैं। वह तो
सोचता था
जिनके जीवन
में कोई भी
दुःख नहीं
है...राजा भी
भागा जा रहा
है! वजीर भी
भागे जा रहे
हैं। नेता भी
भागे जा रहे
हैं, पंडित-पुरोहित
भी भागे जा
रहे हैं! उसने
मौलवी को भी
देखा, वह
भी अपना गट्ठर
लिए चला जा
रहा है। सबके
गट्ठर हैं। और
एक और बात
हैरानी की
मालूम हुईः
किसी के पास
छोटी-मोटी
पोटली नहीं।
क्योंकि वह
सोचने लगा कि
किससे बदलना
जब बदलने का
मौका आ जाए।
मगर सब
बड़ी-बड़ी पोटलियां
लिए हुए हैं।
ये तो पोटलियां
कभी दिखाई भी
नहीं पड़ी थीं
उसको। अभिनय
चलता है।
मस्जिद में
पहुंच गए। बड़ा
उत्तेजित ! सारे
लोग उत्तेजित
हैं, क्योंकि
कुछ होने वाला
है। और फिर एक
आवाज हुई कि
सब लोग मस्जिद
की खूंटियों
पर अपनी-अपनी पोटलियां
टांग दें।
सबने जल्दी से
टांग दीं। सभी
छुटकारा पाना
चाहते हैं। और
फिर एक आवाज
हुई कि अब जिसको
जिसकी पोटली
चुननी हो चुन
लें, बदल
लें। और वह आदमी
भागा और सारे
लोग भागे। मगर
चकित होने की
बात तो यह थी
कि उस आदमी ने
भागकर अपनी
पोटली फिर से
उठा ली, कि
कोई दूसरा न
उठा ले। और
यही हालत सबकी
थी--सबने
अपनी-अपनी उठा
ली।
वह बड़ा
हैरान हुआ, लेकिन
अब बात उसके
खयाल में आ
गई। उसने अपनी
क्यों उठाई? सोचा कि
अपने दुःख कम
से कम परिचित
तो हैं; दूसरे
का बड़ा पोटला
है और पता
नहीं, इसके
भीतर क्या हो!
अपने दुःख कम
से कम जाने-माने
तो हैं, उनके
साथ जीते तो
रहे हैं
जिंदगी भर, धीरे-धीरे
अभ्यस्त भी हो
गए हैं। और अब
धीरे-धीरे
उतना उनसे
दुःख भी नहीं
होता।
कांटा गड़ता ही
रहा हो, गड़ता ही रहा हो, गड़ता रहा हो तो
धीरे-धीरे
चमड़ी भी मजबूत
हो जाती है; उस जगह
कांटा गड़ते-गड़ते,
फिर चमड़ी
में उत्ता
दर्द भी नहीं
होता। सिरदर्द
जिंदगीभर
होता ही रहा
तो धीरे-धीरे
आदमी भूल ही
जाता है; सिरदर्द
और सिर में
कोई फर्क ही
नहीं रह जाता।
एक अभ्यास हो
जाता है।
और तब
उसे समझ में
आया कि सबने
अपने-अपने उठा
लिए;
सब डर गए
हैं कि कहीं
दूसरे का न
उठाना पड़े; पता नहीं
दूसरे की
अपरिचित
पोटली, भीतर
कौन-से
सांप-बिच्छू समाए हों!
प्रत्येक ने
अपनी-अपनी पोटलियां
उठा लीं और सब
बड़े खुश हैं
कि अपनी पोटली
वापिस मिल गई।
और सब अपने घर
की तरफ भागे
जा रहे हैं।
सुबह जब उसकी
नींद खुली, तब उसे
सच्चाई समझ
में आई : ऐसा ही
है। यहां सब
दुःखी हैं।
मगर एक अभिनय
चल रहा है।
इस
अभिनय से जो
जाग गया उसके
जीवन में ही
संन्यास का
जन्म होता है।
अभिनय से जाग
जाना संन्यास
है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
: आपके संन्यास
की परिभाषा
क्या? मैं
कहता हूं :
अभिनय से जाग
जाना संन्यास
है। अब और
अभिनय न करेंगे।
अब और धोखा न
देंगे। अब
जीवन की सच्चाइयां
परखेंगे।
उन्हीं परखों
से धीरे-धीरे
तुम परम सत्य
की तरफ संलग्न
हो जाते हो।
"ज्यौं-ज्यौं सूखै
ताल है, त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।'
बसंत
बीतने लगा। अब
तालाब सूखने
लगा--जीवन का तालाब।
समय की धारा
धीरे-धीरे
सूखने लगी, आदमी
बूढ़ा होने
लगा।
"ज्यौं-ज्यौं सूखै
ताल है, त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।'
स्वभावतः
वह जो मछली उस
सागर के पानी
में रहती थी, तालाब
में रहती थी, अब तालाब
सूखने लगा, वह मछली बड़ी
दुःखी होने
लगी। इसलिए
बूढ़ा आदमी
दुःखी होने लगता
है।
तुम
किसी बच्चे को
शायद ही दुःखी
पाओ;
तुम किसी
बूढ़े को शायद
ही सुखी पाओ।
अगर बच्चा कोई
दुःखी मिल जाए
तो समझना कि
पिछले जन्मों की
कमाई है। और
अगर बूढ़ा सुखी
मिल जाए तो
समझना इस जन्म
की कमाई है।
नहीं तो बच्चे
सुखी होते हैं,
क्योंकि
बेहोश हैं; होश नहीं
अभी तो दुःख
का पता क्या!
अभी सीखा नहीं,
अभी जीवन का
कोई अनुभव
नहीं। अभी
जिंदगी के बाजार
में गए नहीं, लुटे नहीं। अभी
लुटेरे
तैयारी कर रहे
हैं; वे भी
तैयार हो रहे
हैं कि लुटने
की तैयारी हो
जाए।
और
बूढ़े को तुम
दुःखी ही
पाओगे
क्योंकि लुट
गया--बाजार
में लूट लिया
गया;
कुछ नहीं
बचा हाथ में।
अगर बूढ़ा
प्रसन्न मिल जाए
तो आनंदित मिल
जाए समझना संत
है। और बच्चा अगर
दुःखी मिल जाए
तो समझना कि
संत है।
क्योंकि
बच्चे के दुःख
का एक ही मतलब
हो सकता है कि
पिछले जन्मों
का अनुभव नहीं
भूला। और बूढ़े
के सुख का एक
ही मतलब हो
सकता है कि
परमात्मा से
संबंध जुड़
गया।
"ज्यौं-ज्यौं सूखै
ताल है, त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।'
मछली
बड़ी दुःखी हो
रही है, तालाब
सूखने लगा।
"त्यौं-त्यौं
मीन मलीन, जेठ
में सूख्यो
पानी।'
और वह
मौत आने लगी ज्येठ
जैसी। ज्येठ
का महीना आने
लगा। घबड़ाहट
बढ़ने लगी।
तालाब का जल उड़ने लगा, वाष्पीभूत
होने लगा। अभी
था, रोज-रोज
नहीं होने
लगा। ऐसे ही
तो उम्र एक
दिन उड़ जाती
है; पता भी
नहीं चलता कब
हाथ से निकल
गई।
"त्यौं-त्यौं
मीन मलीन, जेठ
में सूख्यो
पानी।
तीनों
पन गए बीति, भजन
का मरम न जानी।।'
बचपन
बीता, जवानी
बीती, अब
यह बुढ़ापा
भी बीतने लगा,
या आखिरी जल
की धार भी उड़ने
लगी। अब मीन
के मरने का
क्षण आने लगा।
"तीनों
पन गए बीति, भजन का मरम
न जानी।'
और
जीवन में
जानने योग्य
बस एक ही बात
थी--"भजन का मरम'; भक्ति
का अर्थ; भक्ति
का अनुभव।
क्योंकि मर्म
जानने का और
कोई उपाए
नहीं है--मर्म
जानना हो तो
अनुभव में
उतरना पड़े, भाव
में उतरना
पड़े। भक्ति तो
शुद्ध अनुभव
की बात है।. . . तो
जीवन बीत गया
और भजन आया
नहीं। बसंत चला
गया और तुम
सोए रहे।
"क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।
चाला
जात बसंत, कंत
ना घर में
आए।।'
भजन का
अर्थ है : कंत
का आगमन शुरू
हुआ,
प्रार्थना
उठने लगी, अर्चना
जगने लगी।
उपासना होने
लगी धीरे-धीरे।
अब संसार का
ही रटन नहीं
होता मन में, अब प्रभु की
भी याद आने
लगी; जिक्र
शुरू हुआ; याद्दाश्त शुरू हुई; सुरति उठी।
"तीनों
पन गए बीति, भजन का मरम
न जानी।
कंवल गए कुम्हिलाए, हंस
ने किया पयाना।'
और
इंद्रियों के
कमल--आंखें, कान--सब
कुम्हलाने
लगे। वे
इंद्रियां, जिनको तुमने
अब तक जीवन
जाना था, वे
कुम्हलाने
लगीं।
"कंवल गए
कुम्हिलाए,
हंस ने किया
पयाना।'
और अब
हंस के उड़ने
का क्षण आने
लगा। यह जीव
अब जाएगा--पता
नहीं कहां, किस
अंधकार में, किस लोक में!
इसके जाने के
लिए कोई
तैयारी न की, क्योंकि भजन
का मरम ही
न जाना। भजन
को जान लेते
तो आगे की
तैयारी हो
जाती। मृत्यु
के बाद की
तैयारी भजन से
ही होती है।
प्रभु को याद
किया होता, प्रभु से
संबंध जुड़
जाता, तो
मृत्यु में
गुजरने की
पीड़ा ही न
झेलनी पड़ती।
अमृत से जो
जुड़ गया, फिर
वह मरता नहीं।
शरीर तो शांत
हो जाता है, लेकिन अमृत
से जुड़ गए
व्यक्ति को
मृत्यु की कोई
पीड़ा नहीं
होती।
"कंवल गए
कुम्हिलाए,
हंस ने किया
पयाना।'
और हम
क्या कर रहे
हैं?
हमें हंस की
तो बिल्कुल
फिक्र नहीं
है। जो आज खिले
और कल कुम्हला
जाएंगे, इन
कमलों की हम
बड़ी फिक्र कर
रहे हैं।
तुम्हें अपनी
तो फिक्र नहीं
है; लेकिन
देह, रंग-रूप,
इसकी तुम
बड़ी चिंता कर
रहे हो। आंखों
में काजल लगा
रहे हो। ओंठों
पर लिपिस्टिक
लगा रहे हो, चेहरों पर
रंग रोगन पोत
रहे हो। शरीर
को सुंदर
बनाने की हर
तरह की चेष्टा
कर रहे हो। हर
तरह की चेष्टा
चल रही है।
हंस की कोई
चिंता नहीं
है। वह जो भीतर
छिपा हंस है, जो आज नहीं
कल उड़ जाएगा
उसकी कोई
चिंता नहीं है
और यह सब देह, इसकी सब
सजावटें, काजल
और लिपिस्टिक
और पावडर और
देह और वस्त्र,
रंग-रूप, सब पड़ा रह
जाएगा--इस पर
तुम सारा जीवन
लगा रहे हो।
सार की चिंता
नहीं, असार
के साथ जीवन
व्यय कर रहे
हो।
"कंवल गए
कुम्हिलाए,
हंस ने किया
पयाना।
मीन
लिया कोई मारि.
. .।।'
और आज
नहीं कल, मौत
का जाल
आएगा--कोई भी
तो नहीं
पहचानता मौत कौन
है। इसलिए
कहते हैं पलटू
: "मीन लिया कोऊ
मारि' ...। कौन मार
जाएगा, पता
नहीं। कौन जाल
फेंक देगा? कौन फांस
लेगा? यह
मौत कौन है, किसी को पता
नहीं।
हम तो
जीवन के रंग
में ऐसे रंगे
रहते हैं कि
मौत का विचार
ही कौन करता
है!
"मीन
लिया कोऊ मारि, ठांय
ढेला चिहराना।'
और जो
कभी तालाब हुआ
करता था, अब
सिर्फ मिट्टी
के ढेले पड़े
रह गए, सब
सूख गया।
फटी-पुरानी
दरारें पड़ी
मिट्टी रह गई।
. . ."ठांय
ढेला चिहराना'। जिसको
तुमने घर समझा
था, जिसको
तुमने सब समझा
था, वह जल
तो उड़ गया।
मछलियों को
कोई मार कर ले
गया। हंस ने
प्रयाण दिया।
अब वहां जल के
नाम पर एक
सूखी तलैया रह
गई है, जो
कभी तलैया थी।
और जमीन ढेले
रह गए--वे भी तिरके हुए,
फटे हुए, दरारें
पड़ीं।
ऐसी ही
तो एक दिन देह
पड़ी रह जाती
है--मिट्टी का ढेला!
डस्ट अंटू
डस्ट। मिट्टी
में मिट्टी
गिर जाती है।
"मीन
लिया कोऊ मारि, ठांय
ढेला चिहराना।
ऐसी
मानुष देह, वृथा
में जात
अनारी।'
और यह
जो मनुष्य की
देह है, इसे
तुम पागलों की
तरह, मूढ़ों की तरह
व्यर्थ ही गंवाए
दे रहे हो।
इसके पहले कि
देह चली जाए
व्यर्थ, तुम
देह का सेतु
बना लो, इस
देह की सीढ़ी
बना लो! इस देह
की सीढ़ी पर चढ़
जाओ और
परमात्मा से
संबंध जोड़ लो।
"ऐसी
मानुष-देह, वृथा में
जात अनारी।
भूला
कौल-करार, आपसे
काम बिगारी।।'
यह बड़ा
महत्त्वपूर्ण
वचन है : भूला
कौल-करार।
पलटू यह कह
रहे हैं कि
परमात्मा से
वचन देकर आया
था कि याद
रखूंगा
तुम्हें और
भूल ही गया सब
आश्वासन।
भूला
कौल-करार! यहां
आकर भूल ही
गए। याद भी
नहीं करते।
जहां से आए हो
वहां की याद
भी नहीं करते।
जो वचन दे आए
हो उसकी याद
भी नहीं करते।
उस कौल को, उस
करार को पूरा
करने की कोई
चेष्टा भी
नहीं है।चेष्टा
तो दूर याद ही
नहीं रखी।
वचन
दिया था, उसे
भंग मत करो।
यह बात बड़ी
महत्त्वपूर्ण
है। प्रत्येक
व्यक्ति जब
परमात्मा के
मूलस्रोत से
आता है तो इसी
आश्वासन को
देकर, इसी
आश्वासन से
भरा आता है कि
मैं भटकूंगा
नहीं; मैं
तो संसार से
अछूता लौट आऊंगा।
यही तो कबीर
ने कहा : ज्यों
की त्यों धरि
दीन्हीं
चदरिया, खूब
जतन से ओढ़ी
रे कबीरा!
कबीर ने
कौल-करार याद
रखा, उलझे
नहीं। गुजर गए
संसार से। यह
काजल की कोठरी
है। मगर अछूते
गुजर गए। अपनी
आंतरिक
शुभ्रता को
कायम रखते हुए
गुजर गए।
ज्यों की
त्यों धरि
दीन्ही
चदरिया!
करार
याद भी नहीं
है। हमें याद
ही कुछ नहीं
है। हम कहां
से आए, यह याद
नहीं है; हम
कहां जा रहे
हैं, यह
याद नहीं है।
धर्म
का इतना ही
अर्थ होता है
कि तुम्हें
तुम्हारे
जीवन के
आश्वासनों का, वचनों
का स्मरण
दिलाया जाए।
"भूला
कौल-करार, आपसे
काम बिगारी।
पलटू
बरस औ मास दिन, पहर
घड़ी पल छीन।'
ज्यौं-ज्यौं
सूखे ताल है, त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।।'
और देख, रोज-रोज
दिन बीतने लगे--बरस
और मास दिन; पहर घड़ी पल
छीन --एक-एक
क्षण बीता
जाता, यह
गागर रीती
जाती है।
जल्दी ही खाली
शून्य रह
जाएगा। ज्यौं-ज्यौं
सूखे ताल है, त्यौं-त्यौं
मीन मलीन। अब
कुछ कर, इसके
पहले कि अवसर
बिल्कुल ही
चला जाए।
"पलटू
ऋतु भरि खेलि ले, फिर पछतावै
अंत।
क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।।'
"पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई
हिराय।
आपुइ गई
हिराय, कवन
अब कहै संदेसा।।'
यह तो
पलटू ने
तुम्हारी दशा
कही इन दो
पदों में। एक
में कि यह
बसंत सदा न
रुकेगा, उपयोग
करना हो तो कर
लो; गीत
बनाना हो तो
बना लो; नाचना
हो तो नाच लो।
और अगर नाचो
तो और किसी के
सामने मत
नाचना, प्रभु
के सामने नाच
लेना। अगर कुछ
घर बनाना हो
तो प्रभु के
हृदय में बना
लो। ये दो पद
तुमसे कहे। यह
भी कहा कि कल
पर मत टालते
जाना क्योंकि ताल
रोज सूखता
जाता है। और
कब मछुआ आएगा
मौत का और
मछली को मार
लेगा, तुम्हें
पता भी नहीं
चलेगा। फंस गए
जाल में, फिर
कुछ भी न
होगा। फिर पछताए
होत का, जब
चिड़िया चुग गई
खेत।
यह
तीसरा पद अपने
संबंध में
कहते हैं :
"प्रिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई
हिराय।'
और
कहते हैं कि
एक अनूठी बात
भी तुम्हें कह
दें : मैं
खोजने चला
लेकिन
खोजते-खोजते
मैं खो गया।
यह प्रेम की
आखिरी घड़ी है।
क्योंकि परमात्मा
और तुम एक साथ
नहीं हो सकते।
एक ही हो सकता
है,
दो नहीं हो
सकते। तुम जब
तक हो, परमात्मा
नहीं। जिस दिन
परमात्मा है,
तुम नहीं।
तो तुम नहीं
हो जाओ तो
परमात्मा के होने
में सुगमता हो
जाती है। इसी
को कहते हैं निमंत्रण,
भजन का
मर्म। क्या है
भजन का मर्म? कि तुम अपने
को मिटा दो, गला दो। तुम
कह दो कि मैं
नहीं हूं, तू
ही है, तू
ही है, तू
ही है! तुम
धीरे-धीरे
शून्य होते
जाओ। इधर तुम
मिटते हो उधर
परमात्मा का
अवतरण होने
लगता है। इधर
तुम बाहर गए
उधर परमात्मा
भीतर आया। जगह
बहुत थोड़ी है
भीतर। प्रेम
गली अति सांकरी,
तामें दो न समाय।
तुम हटो तो
परमात्मा आ
जाए।
"पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई
हिराय।
आपुइ गई
हिराय, कवन
अब कहै
संदेशा।।'
पलटू
कहते हैं : बड़ी
मुश्किल हो गई
है,
बड़े संदेशे
तय किए थे, बड़ा
सोच रखा था, यह कहेंगे, यह कहेंगे, यह कहेंगे!
अब कौन कहे? संदेशा कहनेवाला
भी नहीं बचा।
इसलिए
प्रार्थना
आखिरी घड़ी में
मौन हो जाती
है, कहने
को कुछ भी
नहीं बचता।
"आपुइ गई
हिराय, कवन
अब कहै
संदेशा।'
रोज
ऐसा होता है।
मेरे
संन्यासी रोज
आते सांझ मिलने।
बड़ा तय करके
आते हैं: यह
कहेंगे, यह
कहेंगे, यह
कहेंगे
. . .! फिर सामने
बैठते हैं और
कहते हैं कि
भूल गए, कुछ
कहने का याद
नहीं आता।
क्या हो जाता
है उन्हें। जब
तक दूरी हो तब
तक कहने को
कुछ होता है।
जैसे ही निकटता
बढ़ती है वैसे
ही शब्द बीच
में नहीं
बचते।
जैसे-जैसे
निकटता बढ़ती
है, शब्द
हटते जाते
हैं।
आत्यंतिक
निकटता में तो
मौन ही बचता
है।
रूदादे गमे उल्फत
उनसे हम
क्या
कहते, क्योंकर
कहते
एक
हर्फ न निकला
ओंठों से
और
आंख में आंसू
आ भी गए।
प्रेम
के दुःखों
की कहानी भी
कहने की सोचता
है भक्त कि
कितना संसार
में तड़पा, किस-किस
तरह की विरह
की पीड़ा थी, किस-किस तरह
तुम्हें याद किया
.......!
रूदादे गमे उल्फत
उनसे हम
क्या
कहते, क्योंकर
कहते
कहना
तो चाहा था, बहुत
तय करके भी आए
थे कि सब
शिकायतें
करेंगे कि
क्यों संसार
में भेजा, क्यों
भटकाया, क्यों
इतना परेशान
किया. . .।
रूदादे गमे उल्फत
उनसे हम
क्या
कहते, क्योंकर
कहते
एक
हर्फ न निकला
ओंठों से
और
आंख में आंसू
आ भी गए।
आंसू
ही बच रहते
हैं--और आनंद
के आंसू! भूल
में मत पड़ना।
प्रेम के जगत्
में दुःख के
आंसू घटते ही
नहीं; आनंद के
ही आंसू घटते
हैं। प्रेम
इतनी बड़ी कीमिया
है कि दुःख के
आंसुओं को
आनंद के
आंसुओं में
रूपांतरित कर
देती है।
"पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई
हिराय।
आपुइ गई
हिराय, कवन
अब कहै
संदेशा।।
जेकर
पिय में ध्यान, भई
वह पिय के भेषा।'
प्यारा
वचन है। हीरों
से भी तौलो तो
न तुले, ऐसा
वचन है।
"जेकर पिय में
ध्यान'. . .। जिसने
उस प्यारे के
ध्यान में
अपने को डुबाया.
. . "जेकर
पिय के ध्यान,
भई वह पिय
के भेषा'.
. . वह प्यारा
ही हो गया। वह
प्यारे के साथ
एक हो गया।
जिसने उसका
ध्यान किया, वह वही हो
गया। प्रभु को
जानते ही प्रभुमय
हो जाते हैं।
प्रभु को
जानते ही
प्रभु हो जाते
हैं।
"जेकर
पिय में ध्यान,
भई वह पिय
के भेषा।
आगि
माहि जो परै, सोउ अगनी
हवै जावै।'
स्वभावतः
अग्नि में जो
गिरेगा, वह अग्निरूप
हो जाएगा।
उसमें से भी
लपट उठेगी, वह भी उसी
रंग में रंग
जाएगा।
"भृंगी
कीट को भेंट, आपु
सम लैइ बनावै।'
पतंगा
आता है, गिर
जाता है दीए
की ज्योति पर,
ज्योतिर्मय
हो जाता है।
"भृंगी
कीट को भेंट, आपु
सम लैइ बनावै।
आगि
माहि जो परै, सोउ अगनी
हवै जावै।।
जेकर
पिय में ध्यान, भई
वह पिय के भेषा।
आपुइ गई
हिराय, कवन
अब कहै
संदेशा।।'
पतंगा
कितनी यात्रा
करके आया था, कितने
दूर अंधेरे
कोनों से, कितनी
आकांक्षाओं-अभिलाषाओं-अभीप्साओं
को लेकर, कितनी
प्रार्थनाएं
थीं हृदय में,
कितना क्या
कुछ कहने को
था; दीए की तलाशत्तलाश
चलती रही थी; जन्मों-जन्मों
की तलाश के
बाद आज दीए की
ज्योति मिली
थी--और पतंगा आ
कर उसमें गिर
जाता है और ज्योतिरूप
हो जाता है।
संदेशा कहने
को न समय
मिलता न सुविधा
मिलती।
संदेशा कहनेवाला
ही नहीं बचता।
यह
क्रांति गुरु
के पास भी
घटती है। अगर
शिष्य सच में
ही समर्पित है
तो गुरु के
पास भी आकर कुछ
कहने को नहीं
बचता। एक
सन्नाटा रह
जाता है। एक
अपूर्व
सन्नाटा।
जीवंत!
ज्योतिर्मय !
चैतन्य-रूप!
बड़ा चिन्मय!
अहोभाव!
आनंद-अश्रु!
एक मग्नता! एक
मस्ती! एक
नाच। लेकिन
कहने को कुछ
भी नहीं बचता।
"सरिता
बहिकै गई,
सिंध में
रही समाई।
सिव
सक्ति के मिले, नहीं
फिर सक्ति
आई।।'
और जब
एक बार इस
प्रेमी से
मिलना हो जाता
है तो लौटना
नहीं होता।
फिर लौटना
नहीं है।
"सरिता
बहिकै गई,
सिंध में
रही समाई।'
खलील
जिब्रान ने
कहा है कि जब
नदी भी गिरने
लगती है सागर
में तो ठिठकती
है;
एकक्षण को अपने को
रोकती है; पीछे
लौट कर देखती
है। वे सब घाट जहां
से गुजरी, वे
सब तीर्थ, वे
सारे लोग
जिनसे राह में
मिलना हुआ, अच्छे-बुरे,
हजार-हजार
स्मृतियां, पहाड़ के
उत्तुंग शिखर,
मैदानों की
गंदगी, वृक्षों
की छायाएं, पक्षियों के
गीत, आकाश
में उड़ते बादल,
चांदत्तारे,
उनकी झलक, उनके
प्रतिफलन--लंबी
कथा है। अब
गंगा चलती है
हिमालय से, सागर तक
जाते-जाते
हजारों मील की
यात्रा है। हजारों
अनुभव होते
हैं।
जिब्रान
ठीक कहता है
कि सरिता भी
सागर में गिरने
के पहले एक
क्षण ठिठक
जाती है, लौट
कर पीछे देखती
है, याद
करती है और
डरती भी है।
यह सागर सामने
खड़ा है--विराट,
असीम, कूलहीन, तटहीन--इसमें गए तो
खो जाएंगे।
गुरु
के पास पहुंच
कर भी शिष्य घबड़ाता है, डरता
है, कंपता
है, बचना
चाहता है।
लेकिन गुरु
में गिरना
सीखना पड़े।
गुरु में जो
गिरना सीखे
वही किसी दिन
परमात्मा में
गिर सकता है।
गुरु में
गिरना तो
परमात्मा में
गिरने का
पूर्व अभ्यास
है--क, ख, ग,
पाठ का
प्रारंभ, श्रीगणेशाय नमः।
"सरिता
बहिकै गई,
सिंध में
रही समाई।
सिव
शक्ति के मिले, नहीं
फिर सक्ति
आई।।'
जैसे
ही शिव और
शक्ति का मिलन
हो जाता है, फिर
लौटना नहीं, फिर शक्ति
वापिस नहीं
लौटती। जैसे
प्रिय और प्रेयसी
का मिलना हो
गया, प्रेयसी
खो गई। प्रेयसी
यानी हम।
प्रिय यानी
परमात्मा।
"पलटू
दीवाल कहकहा,
मत कोउ झांकन
जाय।
पी
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई हिराय।।'
"पलटू
दीवाल कहकहा'.
. .! चीन की
दीवाल की तरफ
इशारा है। चीन
की दीवाल के
संबंध में यह
कथा है कि चीन
की दीवाल, पहले
तो दुनिया की
सबसे बड़ी
दीवाल है, हजारों
मील, पहाड़ों
को पार करती, नदियों को
पार करती, मैदानों
को पार करती।
ऐसी कोई दीवाल
दुनिया में
नहीं। बड़ी
चौड़ी दीवाल है,
पहाड़ जैसी
दीवाल है। एक बैलगाड़ी
चल सके दीवाल
के ऊपर। बड़ी
ऊंची दीवाल है,
उसको पार
करना मुश्किल
है।
चीन की
दीवाल के
संबंध में एक
लोकोक्ति है
कि चीन की
दीवाल में एक
खतरा है। वह
इस तरकीब से
बनाई गई है कि
अगर कोई उस पर
चढ़ कर दूसरी
तरफ देखे तो
उसे एकदम
कहकहा छूटता
है,
एकदम हंसी
छूटती है। वह
इतना मस्त हो
जाता है, ऐसे
नशे में डूब
जाता है कि
तत्क्षण
छलांग लगा कर
कूद जाता है
उस तरफ और फिर
खो जाता है, फिर कभी
उसका पता नहीं
चलता। यह जरूर
चीन के बाहर
से जो दुश्मन
चीन पर हमला
करने के लिए
आते रहे होंगे,
उन्हीं से
बचने के लिए
दीवाल बनाई गई
थी। उनमें यह
कहानी चल पड़ी
होगी कि चीन
की दीवाल एक
तो चढ़ना
मुश्किल और
अगर चढ़ जाओ और
अगर उस तरफ
उतर गए तो फिर
लौटना मुश्किल।
सावधान, कोई
चढ़ना मत
और उस तरफ
झांक कर देखना
मत। उसमें बड़ा
जादू है। जो
झांक कर देखता
है, उस तरफ
कूदने का मन
हो जाता है।
उसी की
तरफ इशारा है
पलटू का। बड़ा
प्यारा उपयोग
किया।
"पलटू
दीवाल कहकहा,
मत कोउ झांकन
जाय।'
पलटू
कहते हैं :
तुम्हें मैं
पहले ही
सावधान कर
देता हूं, यह
परमात्मा जो
है--"दीवाल
कहकहा'।
फिर मुझसे मत
कहना। मैं
तुम्हें पहले
ही बताए देता
हूं।
परमात्मा को
खोजने चले हो,
एक बात खयाल
रखना :
परमात्मा को
इस तरह न खोज
पाओगे कि
परमात्मा तुम्हारी
मुट्ठी में
बंद हो जाएगा।
परमात्मा को
खोजने बहुत
लोग चलते हैं।
उनका ख्याल, उनकी दृष्टि
यही होती है
जैसे धन को तिजोड़ी
में बंद कर
लिया है, एक दिन
परमात्मा को
भी तिजोड़ी
में बंद कर
देंगे। वे यही
सोचते हैं कि
परमात्मा का
भी परिग्रह कर
लेंगे। वह
उनकी अकड़ की खोज
है। वह असली
खोज नहीं है।
वह अहंकार की
ही यात्रा है।
वे कहते हैं
हमने धन पाया,
पद पाया, सब पाया; अब
परमात्मा को
पाकर रहेंगे।
मोरारजी
देसाई जिस दिन
प्रधानमंत्री
बने,
एक पत्रकार
ने उनसे पूछा
कि आपकी
जीवनभर की जो
खोज थी और
आपके जीवनभर
की जो
आकांक्षा थी,
वह पूरी हो
गई, आप
प्रसन्न
होंगे? उन्होंने
कहा : यह कुछ भी
नहीं, अभी
तो मुझे
परमात्मा को
खोजना है।
सुननेवाले को
लगेगा कि बड़ी
धार्मिक बात
है। ज़रा
भी धार्मिक
नहीं है।
परमात्मा को
ही खोजना है
तो दिल्ली से
परमात्मा की
तरफ जाने का
कोई रास्ता
अनिवार्य रूप
से थोड़े ही
गुजरता है!
दिल्ली खोजने
की क्या जरूरत,
परमात्मा
ही खोजना है
अगर? जितनी
मेहनत और
जितना श्रम
दिल्ली
पहुंचने में
लगता है, इससे
बहुत कम श्रम
और कम मेहनत
से आदमी
परमात्मा तक
पहुंच सकता
है। और सच तो
यह है कि
दिल्ली परमात्मा
से ठीक विपरीत
दिशा में है।
जितना दिल्ली
में चले गए
उतना
परमात्मा से
दूर चले गए।
लेकिन
मोरारजी
देसाई को ऐसा
लगता है कि
पहले
प्रधानमंत्री
होना, फिर
परमात्मा को
खोजना;
जैसे कि
परमात्मा की
सीढ़ी
प्रधानमंत्री
के आगे है! जब
तक
प्रधानमंत्री
की सीढ़ी न चढ़ेंगे,
परमात्मा
की सीढ़ी कैसे चढ़ेंगे!
यह
अहंकार की ही
खोज है। यह
परमात्मा की
बात भी अहंकार
की ही बात है।
यह सिर्फ इस
बात की घोषणा
है कि इससे हम
कहां तृप्त
होनेवाले, यह
तो ठीक है, करके
दिखा दिया; अब वह भी
करके दिखाना
है--परमात्मा
को भी पाना है।
मगर जो आदमी
इस तरह
परमात्मा को
खोजने चलेगा,
वह कभी न पा
सकेगा।
परमात्मा को
कोई पद, धन
की तरह नहीं
खोज सकता।
परमात्मा को
तो प्रेमी की
तरह खोजना
पड़ता है।
प्रेमी का
मतलब होता है
जो खोने को
तैयार है, मिटने
को तैयार है।
अपने को मिटाकर
जो खोज सकता
है, वही
खोजता है; जैसे
सरिता सागर
में गिरती है।
इसलिए
पलटू कहते हैं
: सावधान कर
देते हैं, भाई,
हमारी
बातों में मत
आ जाना कि
हमने कहा खाजो
प्रेमी को और
हमने कहा बसंत
बीता जा रहा
है और देखो यह
तालाब सूखने
लगा और मछली
दुःखी होने लगी,
इसलिए खोजो
परमात्मा को।
हमारी बात में
मत आ जाना। एक
बात सावधानी
से समझ लेना, यह शर्त
ध्यान में
रहे--
"पलटू
दीवाल कहकहा'...। एक बार अगर
चढ़ गए ध्यान
की दीवाल पर
और उस तरफ
झांक कर देखा
तो फिर लौट न
सकोगे। जाओ तो
यह खयाल रख कर
जाना; फिर
पीछे हमसे मत
कहना, शिकायत
मत करना कि यह
भी खूब खोज
पकड़ा दी जिसमें
हम खुद ही खो
गए! खोज तो ऐसी
हो कि हम तो
बचें और खोज
हो जाए। यह
परमात्मा की
खोज ऐसी खोज
नहीं है।
"पलटू
दीवाल कहकहा,
मत कोउ झांकन
जाय।'
इसलिए
सावधान किए
देते हैं कि
अगर अपने को
बचा कर
परमात्मा
पाना हो, अगर
अहंकार की ही
यात्रा का एक
हिस्सा हो
परमात्मा का
पाना, तो
कृपा करके मत
जाना। यह
दीवाल कहकहा
है, इसके
उस तरफ झांका
कि फिर कूदना
ही पड़ता है।
और जो कूद गया
वह खो गया और
फिर कभी लौट
कर नहीं आ
सकता।
"पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई
हिराय।'
तो मैं
प्रेमी को
खोजने गया और
खुद खो गया।
लेकिन यह खो
जाना धन्य भाग
है।
तुम्हारा
होना सिवाय
पीड़ा और दुःख
के और क्या है? तुम्हारा
होना सिवाय एक
घाव के, और
क्या है? तुम्हारे
होने में है
ही क्या ? इसे
बचाने की
कोशिश करोगे
तो परमात्मा
से वंचित
रहोगे। इसे
खोने की
तैयारी
चाहिए।
इसलिए
जब तुम मंदिर
में जाकर फूल चढ़ाते हो
तो तुम धोखा
देते हो। अपने
को जिसने नहीं
चढ़ाया, उसके
सब चढ़ाए
फूल बेकार
हैं। या तुम
धन चढ़ाते
हो, तो भी
तुम धोखा देते
हो। तुम सोचते
हो तुम्हारे
धन को
परमात्मा भी
धन समझता
होगा। तुमने
अपने ही जैसा मूढ़ उसे भी
समझ रखा है, तुम्हारे
सिक्कों के
धोखे में वह
भी आएगा!
अगर चढ़ाना
हो तो अपने को चढ़ाना।
उसके
अतिरिक्त और
कोई चीज नहीं चढ़ाई जा
सकती। आदमी ने
सब चीजें चढ़ाई
हैं। यहां तक
कि उसकी समझ
में आ गया कि
धन तो अपना
बनाया हुआ है, इसको
क्या चढ़ाना--तो
उसने पशु भी चढ़ाए, पशु-वध
किए। यज्ञ
किए--गाय चढ़ाओ
घोड़ा चढ़ाओ।
और यहां तक कि
आदमी भी चढ़ाए,
नरमेध यज्ञ
भी किए।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है : एक
गांव में यज्ञ
हो रहा है और
गांव का राजा
एक बकरे को
चढ़ा रहा है।
बुद्ध गांव से
गुजरे हैं, वे
वहां पहुंच
गए। और
उन्होंने उस
राजा से कहा
कि यह क्या कर
रहे हैं? इस
बकरे को चढ़ा
रहे हैं, किसलिए? तो उसने कहा
कि इसके चढ़ाने
से बड़ा पुण्य
होता है। तो
बुद्ध ने कहा,
मुझे चढ़ा दो
तो और भी
ज्यादा पुण्य
होगा। वह राजा
थोड़ा डरा। बकरे
को चढ़ाने
में कोई हर्जा
नहीं, लेकिन
बुद्ध को चढ़ाना!
उसके भी
हाथ-पैर कंपे।
और बुद्ध ने
कहा कि अगर सच
में ही कोई
लाभ करना हो
तो अपने को
चढ़ा दो। बकरा चढ़ाने से
क्या होगा?
उस
राजा ने कहा :
ना,
बकरे का कोई
नुकसान नहीं
है, यह
स्वर्ग चला
जाएगा। बुद्ध
ने कहाः
यह बहुत ही
अच्छा है, मैं
स्वर्ग की
तलाश कर रहा
हूं, तुम
मुझे चढ़ा दो, तुम मुझे
स्वर्ग भेज
दो। और तुम
अपने माता-पिता
को क्यों नहीं
भेजते स्वर्ग
और खुद को
क्यों रोके
हुए हो? जब
स्वर्ग जाने
की ऐसी सरल और
सुगम तुम्हें तरकीब
मिल गई तो काट
लो गर्दन।
बकरे को
बेचारे को
क्यों भेज रहे
हो जो शायद
जाना भी न
चाहता हो
स्वर्ग? बकरे
को खुद ही
चुनने दो कहां
उसे जाना है।
उस
राजा को समझ
आई। उसे बुद्ध
की बात खयाल
में पड़ी। यह
बड़ी सचोट बात
थी।
आदमी
ने सब चढ़ाया
है--धन चढ़ाया, फूल
चढ़ाए।
फूल भी
तुम्हारे
नहीं--वे
परमात्मा के
हैं। वृक्षों
पर चढ़े ही हुए
थे। वृक्षों
पर परमात्मा
के चरणों पर
ही चढ़े थे।
वृक्षों के
ऊपर से उनको परमात्मा
की यात्रा हो
ही रही थी।
वहीं तो जा रही
थी वह सुगंध, और कहां
जाती? तुमने
उनको वृक्षों
से तोड़ कर
मुर्दा कर
लिया। और फिर
मुर्दा फूलों
को जाकर मंदिर
में चढ़ा आए।
और समझे कि
बड़ा काम कर
आए। कभी
धूप-दीप जलाए,
कि कभी
जानवर चढ़ाए,
कि कभी आदमी
भी चढ़ा दिए!
अपने को कब चढ़ाओगे?
और जो अपने
को चढ़ाता
है, वही
उसे पाता है।
इसलिए
पलटू ठीक कहते
हैं--
"पलटू
दीवाल कहकहा,
मत कोउ झांकन
जाय।'
पहले
सावधान कर
देते हैं, अगर
जाना हो तो यह
बात समझ कर
जाना कि यह
"दीवाल कहकहा'
है। जो गया
वह लौटा नहीं।
जो गया वह
खोया।
कबीर ने
कहा है कि
खोजने चला था, खुद
खो गया। ऐसे
खो गया जैसे
बूंद सागर में
खो जाती है।
ऐसे खो गया
जैसे कि सागर
बूंद में खो जाता
है। मगर यह खो
जाना "खो जाना'
नहीं है।
तुम्हारा
होना असली खो
जाना है। और तुम्हारा
खो जाना
तुम्हारा
असली होना है।
क्योंकि जिस
दिन सरिता
सागर में उतर
जाती है, एक
तरफ से तो सच
है बात कि
सरिता खो गई; दूसरी तरफ
देखो; सरिता
सागर हो गई!
क्षुद्र से
छूटी, विराट
से जुड़ी। ना
कुछ से छूटी, सब कुछ से
जुड़ी। किनारे
गए जरूर, लेकिन
अनंत का
किनारा मिला।
पलटू
के इन वचनों
को धीरे-धीरे
पीना। ये शराब
जैसे वचन हैं।
इनको पीना, रस
ले-ले कर
पीना। चुस्की
ले-ले कर
पीना। एक-एक वचन
तुम्हें
तरंगित
करेगा। एक-एक
वचन तुम्हें हिलाएगा, डुलाएगा। तुम्हारे भीतर
सोई हुई ऊर्जा
धीरे-धीरे
नृत्य-मग्न हो
उठेगी। और
तुम्हारे
भीतर
क्या-क्या
नहीं छिपा है!
लेकिन तुम तो
बाहर खोजते हो,
इसलिए भीतर
का पता नहीं
चलता है। और
तुम्हारे भीतर
क्या-क्या
नहीं छिपा है!
तुम्हारे
भीतर पूरा
परमात्मा
बैठा है, लेकिन
तुम उसे छोड़
कर और सब जगह
भागे जाते हो।
लौटो घर!
"क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।।
चाला
जात बसंत, कंत
ना घर में आए।
धृग
जीवन है तोर, कंत
बिन दिवस गंवाए।।
गर्व
गुमानी नारि
फिरै, जोवन
की माती।
खसम
रहा है रूठि, नाहीं
तू पठवै
पाती।।
लगै न
तेरो चित्त, कंत
को नाहिं मनावै।
कापर करै
सिंगार, फूल
की सेज बिछावै।।
पलटू
ऋतु भरि खेलि ले, फिर
पछतावै
अंत।
क्या
सोवै तू
बावरी, चाला
जात बसंत।।'
जागते
क्यों नहीं? सोने
में ऐसा क्या
मिल रहा है? सपने मिल
रहे हैं।
सुखद-दुखद
सपनों का जाल
चल रहा है।
जागने से डरते
क्यों हो? जागने
से डर का कारण
हैः जागे कि
मिटे। पलटू
दीवाल कहकहा!
जागे कि मिटे।
होश आया कि
गए। जब तक बेहाशी
है तब तक बने
रहो, तब तक
अभिनय चलेगा,
तब तक यह
नाटक चलेगा।
जैसे ही ज़रा
होश की किरण
आई कि नाटक
बंद हुआ। उससे
डरे हुए हो।
मगर तुम कितने
डरे रहो, मौत
आती है। मौत आ
रही है।
"ज्यौं-ज्यौं सूखे ताल है,
त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।।
त्यौं-त्यौं
मीन मलीन, जेठ
में सूख्यो
पानी।
तीनों
पन गए बीति, भजन
का मरम न
जानी।।
कंवल गए कुम्हिलाय, हंस
ने किया पयाना।
मीन
लिया कोऊ मारि, ठांय ढेला चिहराना।।
ऐसी
मानुष-देह
वृथा में जात
अनारी।
भूला
कौल करार, आपसे
काम बिगारी।।
पलटू
बरस और मास
दिन,
पहर घड़ी पल
छीन।
ज्यौं-ज्यौं
सूखे ताल है, त्यौं-त्यौं
मीन मलीन।।'
रोज-रोज
तुम्हारा
तालाब सूखता
जा रहा है।
तुम्हारे
प्राणों की
मछली रोज-रोज
उदास होती जा
रही है, म्लान
होती जा रही, परेशान होती
जा रही। मौत
की छाया पड़ने
लगी--पहले दिन
से ही पड़ने
लगती है।
बच्चा पैदा
हुआ कि मरने
लगता है। एक
दिन का बड़ा
हुआ यानी एक
दिन का मर
गया। पहली
सांस ली कि
उसी के साथ अंतिम
सांस
प्रविष्ट हो
गई। अब मामला
चला-चली का
है। अब गए कि
तब गए। जाना
ही पड़ेगा।
जाना तो पड़ेगा,
तो जाना है
ही निश्चित--मौत
में जाओ, या
"दीवाल कहकहा'। दो उपाय
हैं जाने के ।
या तो मौत के
जाल में फंसोगे,
परवश खींचे
जाओगे, फिर
जीवन में
फेंके जाओगे।
एक
दूसरी राह भी
है--समाधि की, संन्यास
की। एक दूसरा
उपाय भी
है--खुद ही कूद
जाओ परमात्मा
में। इसके
पहले कि मौत
मारे, खुद
मर जाओ। और जो
खुद मर गया, स्वांतः सुखाय
मर गया, उसके
जीवन में अमृत
का वास हो
जाता है।
"पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई
हिराय।।
आपुइ गई
हिराय, कवन
अब कहै
संदेशा।
जेकर
पिय में ध्यान, भई
वह पिय के भेषा।।
आगि
माहि जो परै, सोउ अगनी
हवै जावै।
भृंगी
कीट को भेंट आपु सम लैइ
बनावै।।
सरिता
बहिकै गई, सिंध
में रही समाई।
सिव
सक्ति के मिले, नहीं
फिर शक्ति
आई।।
पलटू
दिवाल कहकहा, मत
कोउ झांकन
जाय।
पिय
को खोजन
मैं चली, आपुइ गई हिराय।।'
मैं भी
तुमसे कहता
हूं कि जाओगे
तो लौट न सकोगे।
मगर जाओ। वही
पलटू भी कह
रहे हैं।
जाओ--जरूर जाओ!
मिटो!
मिटने से बड़ा धन्यभाग
नहीं है।
स्वेच्छा
से मिटो
तो समाधि फैल
जाती है; स्वेच्छा
से न मिटोगे
तो मौत।
अपने
हाथ से
विसर्जन
करोगे तो
समाधि। कोई
आकर मछली को पकड़कर ले
जाए,
तो मृत्यु।
तुम्हारे
हाथ में है
मृत्यु को
समाधि बना लेना
या समाधि के
अवसर को खो
देना और फिर
मृत्यु में
मरना।
जो
मृत्यु को
समाधि बना
लेता है, वही
संन्यासी है।
जो
मृत्यु को
समाधि बना
लेता है, वही
समझदार है।
आज
इतना ही।
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