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गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-07)

अंतस-जीवन की एक झलक--(प्रवचन--सातवां
)
 मेरे प्रिय आत्मन्,
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात को शुरू करना चाहूंगा।
एक फकीर, एक संन्यासी प्रभु की खोज में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा था। वह किसी मार्गदर्शक की तलाश में था..कोई उसकी प्रेरणा बन सके, कोई उसे जीवन के रास्ते की दिशा बता सके। और आखिर उसे एक वृद्ध संन्यासी मिल गया राह पर ही, और वह उस वृद्ध संन्यासी के साथ सहयात्री हो गया।
लेकिन उस वृद्ध संन्यासी ने कहा कि मेरी एक शर्त है यदि मेरे साथ चलना हो तो। और वह शर्त यह है कि मैं जो कुछ भी करूं, तुम उसके संबंध में धैर्य रखोगे और प्रश्न नहीं उठा सकोगे। मैं जो कुछ भी करूं, उस संबंध में मैं ही न बताऊं, तब तक तुम पूछ नहीं सकोगे। अगर इतना धैर्य और संयम रख सको तो मेरे साथ चल सकते हो।

उस युवक ने यह शर्त स्वीकार कर ली और वे दोनों संन्यासी यात्रा पर निकले। पहली ही रात वे एक नदी के किनारे सोए और सुबह ही उस नदी पर बंधी हुई नाव में बैठ कर उन्होंने नदी पार की। मल्लाह ने उन्हें संन्यासी समझ कर मुफ्त नदी के पार पहुंचा दिया। नदी के पार पहुंचते-पहुंचते युवा संन्यासी ने देखा कि बूढ़ा संन्यासी चोरी-छिपे नाव में छेद कर रहा है! नाव का मल्लाह तो नदी के उस तरफ ले जा रहा है, और बूढ़ा संन्यासी नाव में छेद कर रहा है! वह युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, यह उपकार का बदला? मुफ्त में उन्हें नदी पार करवाई जा रही है! उस गरीब मल्लाह की नाव में किया जा रहा यह छेद?
भूल गया शर्त को। कल रात ही शर्त तय की थी। नदी से उतर कर वे दो कदम भी आगे नहीं बढ़े होंगे कि उस युवा संन्यासी ने पूछा कि सुनिए! यह तो आश्चर्य की बात है। एक संन्यासी होकर, जिस मल्लाह ने प्रेम से नदी पार करवाई, मुफ्त सेवा की सुबह-सुबह, उसकी नाव में छेद करने की बात मेरी समझ में नहीं आती, कि उसकी नाव में आप छेद करें! यह कौन सा बदला हुआ..नेकी के लिए बदी से, भलाई का बुराई से?
उस बूढ़े संन्यासी ने कहा, शर्त तोड़ दी तुमने। सांझ को ही हमने तय किया था कि तुम पूछोगे नहीं। मेरे से विदा हो जाओ। अगर विदा होते हो तो मैं कारण बताए देता हूं। और अगर साथ चलना है तो आगे ध्यान रहे, दुबारा पूछा कि फिर साथ टूट जाएगा।
युवा संन्यासी को ख्याल आया। उसने क्षमा मांगी। उसे हैरानी हुई कि वह इतना भी संयम नहीं रख सका! इतना भी धैर्य नहीं रख सका!
लेकिन दूसरे दिन ही फिर संयम टूटने की बात आ गई। वे एक जंगल से गुजर रहे थे, और उस जंगल में उस देश का सम्राट शिकार खेलने आया था। उसने संन्यासियों को देख कर बहुत आदर दिया, उन्हें अपने घोड़ों पर सवार किया और वे सब राजधानी की तरफ वापस लौटने लगे। वृद्ध संन्यासी के पास राजा ने अपने एकमात्र पुत्र युवा राजकुमार को घोड़े पर बिठा दिया। घोड़े दौड़ने लगे राजधानी की तरफ। राजा के घोड़े आगे निकल गए; दोनों संन्यासियों के घोड़े पीछे रह गए। बूढ़े संन्यासी के साथ राजा का बच्चा भी बैठा हुआ है, वह एकमात्र बेटा है उसका। जब वे दोनों अकेले रह गए; उस बूढ़े संन्यासी ने उस युवा राजकुमार को नीचे उतारा और उसके हाथ को मरोड़ कर तोड़ दिया। और झाड़ी में धक्का देकर अपने संन्यासी साथी से कहा, भागो जल्दी।
यह तो बरदाश्त के बाहर था। फिर भूल गई शर्त। उसने कहा, हैरानी की बात है यह! जिस राजा ने हमारा स्वागत किया, घोड़ों पर सवारी दी, महलों में ठहरने का निमंत्रण दिया, जिसने इतना विश्वास किया कि अपने बेटे के घोड़े पर तुम्हें बिठाया, उसके एकमात्र बेटे का हाथ मरोड़ कर तुम जंगल में छोड़ आए हो। यह क्या है? यह मेरी समझ के बाहर है! मैं इसका उत्तर चाहता हूं?
बूढ़े ने कहा, तुमने फिर शर्त तोड़ दी। और मैंने कहा था दूसरी बार शर्त तोड़ोगे, तो विदा हो जाएंगे। अब हम विदा हो जाते हैं, और दोनों बातों का उत्तर मैं तुम्हें दिए देता हूं। जाओ लौट कर पता लगाओ तो तुम्हें ज्ञात होगा कि वह नाव वह मल्लाह इसी किनारे पर रात छोड़ गया, और रात उस गांव पर डाका डालने वाले लोग उसी नाव पर सवार होकर डाका डालेंगे। मैं उसमें छेद कर आया हूं। उस गांव में डाका बच जाएगा। और राजा के लड़के को मैंने हाथ मरोड़ कर छोड़ दिया है जंगल में। तुम पता लगाना, यह राजा तो अत्यंत दुष्ट और क्रूर और आततायी है, इसका लड़का उससे भी क्रूर और आततायी होने को है। लेकिन उस राज्य का एक नियम है कि गद्दी पर वही बैठ सकता है, जिसके सब अंग ठीक हों। मैंने उसके हाथ को मरोड़ दिया है, वह अपंग हो गया, अब वह गद्दी पर बैठने का अधिकारी नहीं रहा। सैकड़ों वर्षों से इस देश की प्रजा पीड़ित है, वह पीड़ित परंपरा से मुक्त हो सकेगी।
अब तुम विदा हो जाओ। मैं क्षमा चाहता हूं। तुम्हें जो प्रकट दिखाई पड़ता है, वही दिखाई पड़ता है; जो अप्रकट है, जो अदृश्य है, वह दिखाई नहीं पड़ता। और जो आदमी प्रकट पर ही ठहर जाता है, दि अॅाबियस, वह जो सामने दिखाई पड़ता है, उसी पर रुक जाता है, वह कभी सत्य की खोज नहीं कर सकता है। मैं तुमसे क्षमा चाहता हूं; हमारे रास्ते अलग जाते हैं।
मुझे पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है, मुझे यह भी पता नहीं कि उस नाव से डाकू हमला करते या न करते, मुझे यह भी पता नहीं कि वह राजकुमार बड़ा होकर आततायी होता या नहीं होता, लेकिन यह कहानी मैंने किसी दूसरे ही अर्थ से कहनी चाही है। और वह यह है कि जिंदगी में एक तो प्रकट अर्थ होता है और एक अप्रकट अर्थ होता है। जीवन के समस्त तथ्यों के पीछे एक तो वह अर्थ होता है, जो ऊपर से दिखाई पड़ता है; और एक वह अर्थ होता है, जो अदृश्य होता है। जो ऊपर के ही अर्थ को देखते हैं, वे धार्मिक नहीं हैं; जो भीतर के अदृश्य अर्थ को देख पाते हैं, वे धार्मिक हैं।
इससे इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि महावीर का एक जीवन तो वह है, जो किताबों में लिखा हुआ है, शास्त्रों में लिखा हुआ है, महावीर के पूजने वाले जिसको मानते हैं; और एक महावीर का जीवन वह है, जो प्रकट नहीं है, जो अदृश्य है, और जिसे देखने के लिए बहुत धैर्य की और संयम की आंखें चाहिए। किताबों में उसे नहीं लिखा जा सकता, जो अप्रकट है; शब्दों में उसे नहीं बांधा जा सकता, जो अदृश्य है। उसके तो संकेत और इशारे हो सकते हैं।
लेकिन लोग संकेत को पकड़ लेते हैं, इशारे को पकड़ लेते हैं, और पीछे जो अप्रकट है, उसे छोड़ देते हैं! सारी दुनिया में सारे महापुरुषों के साथ यह अन्याय हुआ है, वह महावीर के साथ भी हुआ है।
अभी एक भाई ने प्रार्थना की कि उनके जीवन पर मैं कुछ कहूं।
किस चीज को जीवन समझते हैं आप महावीर का?किस घर में पैदा हुए, इस बात को?तो पागल हैं आप। किस बाप के बेटे थे, इस बात को?तो पागल हैं आप। राजा के घर में पैदा हुए, इस बात को?शादी की कि नहीं की?कि लड़की पैदा हुई कि नहीं हुई?कि कपड़े पहनते थे कि नहीं पहनते थे?कि कितनी उम्र तक जिंदा रहे, कि किस सन में पैदा हुए और किस सन में मर गए, इसको जिंदगी समझते हैं महावीर की?
तो आपमें संयम नहीं है और धैर्य नहीं है। महावीर को आप नहीं जान सकते। ये कोई भी, महावीर की जिंदगी का इन बातों से कोई संबंध नहीं। ये नॅान-एसेंशिअल हैं, ये बातें बिल्कुल ही सारहीन हैं। लेकिन इन्हीं बातों को जीवन समझा जाता है..न केवल महावीर का, क्राइस्ट का, राम का, कृष्ण का, किसी का भी! जो बिल्कुल व्यर्थ है, जिसका कोई भी मूल्य नहीं है कि कौन आदमी कहां पैदा होता है, किस घर में पैदा होता है; राजा के घर में पैदा होता है कि दरिद्र के घर में पैदा होता है; कि क्षत्रिय के घर में पैदा होता है कि ब्राह्मण के घर में पैदा होता है; कि शूद्र के घर में पैदा होता है कि ऊंचे कुल में पैदा होता है..कहां पैदा होता है इसका कोई मूल्य नहीं है; यह शरीर की कथा है, इससे महावीर का कोई संबंध नहीं है। यह तो हर आदमी कहीं न कहीं पैदा होता है। कितने दिन जिंदा रहता है, किस सन में पैदा होता है और किस सन में समाप्त हो जाता है, इसका भी कोई मूल्य नहीं।
मैं एक गांव में बोल रहा था, एक बड़ी नगरी में। एक व्यक्ति ने खड़े होकर पूछा कि मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। महावीर और बुद्ध समसामयिक थे, कंटेंपरेरी थे। उन दोनों में किसकी उम्र ज्यादा थी? दोनों में कौन बड़ा था, कौन उम्र में छोटा था? उन सज्जन ने कहा कि मैं तीन वर्ष से इस बात पर खोज-बीन कर रहा हूं, लेकिन अभी तक निर्णय नहीं कर पाया हूं कि पहले कौन पैदा हुआ।
तो मैंने उनसे कहा, कोई भी पहले पैदा हुआ हो, किसी की उम्र कम और ज्यादा रही हो, वे तो गौण बातें हैं। लेकिन इस खोज में आपकी तीन साल की उम्र व्यर्थ हो गई, यह निश्चित है। एक बात तय है कि आपने तीन साल की उम्र गंवा दी है। कोई भी..महावीर उम्र में ज्यादा रहे हों कि बुद्ध, इससे क्या फर्क पड़ता है?और कोई पहले पैदा हुआ हो कि पीछे पैदा हुआ हो, इससे क्या फर्क पड़ता है?इससे जिंदगी को समझने में, इससे जीवन के अर्थ को खोज लेने में कौन सी बुनियादी बात प्रकट होती है? वे कभी पैदा भी न हुए हों तो कोई फर्क नहीं पड़ता। पैदा होना और न पैदा होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है..महावीर की अंतर-दशा, महावीर का अंतस-जीवन, महावीर की आत्मा क्या है?
लेकिन मैं देखता हूं, जगह-जगह गुणगान हो रहे हैं, पंडित कथाएं बता रहे हैं कि कब पैदा हुए, कैसे पैदा हुए, कितने हाथी-घोड़े थे उनके घर, कितना धन था, किस तरह त्याग किया, कितना धन, कितनी कोटि धन बांट दिया! बड़े महान त्यागी थे, क्योंकि इतना धन छोड़ा। अगर इतना धन उनके पास न होता तो ये पंडित एक भी पूछने नहीं आते, क्योंकि छोड़ते क्या? अगर गरीब के घर पैदा होते महावीर तो उनका तीर्थंकर बनना कठिन था इन सारे लोगों की आंखों में, जो उनको तीर्थंकर माने हुए हैं।
आपको पता है, जैनों के चैबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र हैं, एक भी गरीब का बेटा नहीं! हिंदुओं के सब भगवान के अवतार राजाओं के पुत्र हैं, एक भी गरीब का बेटा नहीं! बौद्धों के सब बुद्ध-अवतार राजाओं के पुत्र हैं, एक भी गरीब का बेटा नहीं! हिंदुस्तान में आज तक एक गरीब के लड़के को ईश्वर होने का हक नहीं मिल सका! क्यों?क्या अमीर के घर में ही पैदा होता है ईश्वर?भगवान ने कोई ठेका ले रखा है अमीर के घर में पैदा होने का?
नहीं, यह बात नहीं है। भगवान तो हजार घरों में पैदा होता है, लेकिन हमारी अंधी आंखें केवल उस भगवान को पहचान पाती हैं, जो धन का त्याग करता है। धन से हम भगवान को नापते हैं! गरीब भगवान हमें दिखाई नहीं पड़ सकता। हमारी नाप-जोख धन की है। हम कहते तो धर्म की बातें हैं, और हम समझते भी यह हैं कि हम त्याग की प्रशंसा कर रहे हैं। झूठी है यह बात। महावीर की प्रशंसा करते वक्त जब कोई यह गिनती गिनाता है कि कितने सोने के रथ, कितना राज्य, कितना धन, कितने हीरे-माणिक उनके पास थे, उनको ठुकरा कर, त्याग कर गए, तो याद रखना उसकी आंखों में त्याग का कोई मूल्य नहीं है; वह जो संख्या गिना रहा है धन की, उसका मूल्य है। और चूंकि उस मूल्यवान धन को वे छोड़ कर चले गए, इसलिए उनका भी मूल्य मालूम पड़ता है।
मैं जयपुर में था। एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि एक बहुत बड़े मुनि हैं यहां, आप उनके दर्शन नहीं करेंगे?मैंने कहा, वे बड़े मुनि हैं, यह तुम्हें कैसे पता चला?इसके बांट-बटखरे कहां हैं, इसके तौलने का तराजू कहां है कि कौन बड़ा मुनि है और कौन छोटा मुनि है?कौन मुनि है और कौन मुनि नहीं है, कैसे तुमने जाना?
उन्होंने कहा, यह भी कोई बात है पूछने की? खुद जयपुर-नरेश उनके चरण छूते हैं!
समझ गए आप, मापदंड क्या है नापने का? जयपुर-नरेश अगर पैर नहीं छूते हैं मुनि के, मुनि छोटे हो गए! तो मैंने कहा, इसमें जयपुर-नरेश बड़े सिद्ध होते हैं कि मुनि बड़े सिद्ध होते हैं?कौन बड़ा सिद्ध होता है? इसमें जयपुर-नरेश बड़े सिद्ध होते हैं; इसमें मुनि बड़े सिद्ध नहीं होते।
जब कोई गिनती बताता है, इतना धन छोड़ा, इसलिए बड़े त्यागी हैं, इसमें त्याग बड़ा सिद्ध नहीं होता, धन बड़ा सिद्ध होता है; क्योंकि धन मापदंड है, धन क्राइटेरिअन है। इस सबकी कथा कि महावीर ने कितना धन छोड़ा, दो कौड़ी की है। जब महावीर को कोई मूल्य नहीं है उस धन का, तो महावीर के जीवन को समझने में भी उस धन का कोई मूल्य नहीं रह जाता। जब महावीर को मूल्य नहीं है उस धन का, तो महावीर की जिंदगी में उसकी गणना क्यों की जाती है? कौन कर रहा है यह गणना? ये महावीर को समझने वाले लोग नहीं हैं।
महावीर कहते हैं, आत्मा का न जन्म होता, न मृत्यु होती, तो फिर महावीर के जीवन की कथा में जन्म और मृत्यु की बात बकवास है। क्योंकि महावीर कहते हैं जन्म भी गौण, मृत्यु भी गौण, आत्मा तो अमर है; जन्म और मृत्यु का कोई हिसाब रखने की जरूरत नहीं। जब महावीर यह कहते हैं तो महावीर की जीवन-चर्या की बात करने वाले लोग अगर महावीर के जन्म और मृत्यु की चर्चा करते हों, तो दुश्मन हैं महावीर के, अनुयायी नहीं हैं। समझे ही नहीं कि महावीर क्या कह रहे हैं, क्या उनका जीवन है!
तो किस जीवन की बात पूछना चाहते हैं आप? कुछ ऐसे ढंग से पूछी गई है बात कि उनके जीवन पर कहें, जैसे मैं कहीं किसी और चीज पर न कह दूं!
जीवन क्या है? जीवन कोई ऐसी चीज नहीं है कि आप घटनाओं में उसके आंकड़े बिठा लें; जीवन जो अॅाबियस है, जो दिखाई पड़ता है, प्रकट, वह नहीं है। और महावीर का जीवन तो वह बिल्कुल नहीं है। वह व्यक्ति उतना ही महान है, जिस व्यक्ति के भीतर ऐसा जीवन है, जो बाहर से दिखाई पड़ना मुश्किल है।
लेकिन हमारी आंखें तो केवल बाहर से देखती हैं। और इस बाहर से देखने के कारण हमने सारे महापुरुषों के साथ जो अनाचार किया है..पूजा के नाम पर, प्रार्थना के नाम पर, अनुयायी होने के नाम पर हमने महापुरुषों की जो विकृत स्थिति पैदा कर दी है, किसी दिन उसका हिसाब लगेगा तो हम परमात्मा की अदालत में कैसे अपराधी सिद्ध होंगे, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। हमारा क्या निर्णय होगा, कहना कठिन है।
हमारे देखने के ढंग, हमारी पहचानने की आंख इतनी बेमानी है कि हम जिन चीजों को आंकते और पहचानते हैं, उनका कोई मूल्य नहीं रह जाता। हम कुछ व्यर्थ को खोजने में इतने सफल हैं..जैसे, थोड़ा समझें तो हमें दिखाई पड़े कि बाहरी जीवन क्या है और अंतस-जीवन क्या है? और महावीर के अंतस-जीवन में थोड़ी झांकी मिल जाए, तो हमारे खुद के अंतस-जीवन में भी झांकी मिलने के लिए कुछ रास्ता सिद्ध और साफ हो सकता है।
मुझे कोई प्रयोजन नहीं इस बात से कि महावीर की प्रशंसा में कुछ बातें कही जाएं कि न कही जाएं; महावीर की प्रशंसा में कहने से महावीर को तो जरा भी चिंता नहीं थी। जब वे जीवित थे, तब चिंता नहीं थी, अब तो चिंता का कोई कारण नहीं है। लेकिन उनके पीछे चलने वाले जो लोग हैं, उनको बड़ा आनंद आता है कि कोई महावीर स्वामी, भगवान महावीर, उनकी प्रशंसा में कुछ बातें कहे! क्यों, उनको क्यों मजा आता है?
महावीर को तो कोई मजा नहीं आता। महावीर तो प्रशंसा के भूखे नहीं हैं, आदर के भूखे नहीं हैं। महावीर को तो यश की कोई कामना नहीं है। महावीर को तो पता भी नहीं है कि कौन उनके बाबत क्या सोचता है और क्या कहता है, और न इसका वे कोई मूल्य मानते हैं। लेकिन महावीर के पीछे चलने वाले के मन को क्यों गुदगुदी छूटती है? क्यों ऐसा अच्छा लगता है कि कोई महावीर की प्रशंसा करे?बात क्या है?
बीमारी अनुयायी के भीतर होगी, महावीर में तो बीमारी का कोई पता नहीं चलता। बीमारी यह है कि जब जोर से अनुयायी चिल्लाता है, बोल महावीर स्वामी की जय, तो वह महावीर स्वामी की जय नहीं बोल रहा है, वह अपनी जय बोल रहा है। मेरे भगवान जो हैं, वे बहुत बड़े भगवान हैं! उनकी आड़ में मैं भी बड़ा हो जाता हूं। अन्यथा मुझे उनसे क्या लेना-देना?भगवान से मुझे क्या प्रयोजन?उनकी जय से मुझे क्या प्रयोजन?
और जय बोलने से किसी की जय सिद्ध होती है? मेरे जीवन से जय बोली जानी चाहिए कि मेरा जीवन प्रकट बने; मेरे भीतर वह प्रकट हो, जिसको मैं आदर दे रहा हूं, जो उसके भीतर प्रकट हुआ है। जिस फूल की सुगंध की मैं बातें कर रहा हूं, मेरी जिंदगी में भी वह सुगंध हो, तो जय निकलती है। और नहीं तो थोथे जय-जयकार से पृथ्वी में बहुत शोरगुल मच चुका, उससे कोई परिणाम नहीं होता।
जीसस क्राइस्ट के मानने वाले चिल्लाते रहते हैं, जय हो जीसस क्राइस्ट की। राम के मानने वाले राम का जय-जयकार करते हैं, महावीर के मानने वाले महावीर का जय-जयकार करते हैं। और जय-जयकार में एक-दूसरे को हरा दें इसकी कोशिश करते हैं, कि हमारा जय-जयकार दूसरे के शोरगुल से बड़ा हो जाए।
इससे अगर महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट अगर कहीं भी होंगे, तो कान पर हाथ रख लेते होंगे कि ये पागल बड़ा शोरगुल मचाते हैं, शांति से बैठने नहीं देते। काहे के लिए चिल्ला रहे हैं?किसके लिए चिल्ला रहे हैं?यह क्यों इतनी उत्सुकता और आतुरता क्यों है कि कोई प्रशंसा करे?क्यों यह प्रशंसा में हम अपना रस, अपने अहंकार की तृप्ति देखना चाहते हैं?
जब कोई कहता है, राम बहुत बड़े हैं, तो राम का मानने वाला भी बड़ा हो जाता है आड़ में, ओट में कि मैं कोई छोटे का मानने वाला नहीं हूं, बहुत बड़े का मानने वाला हूं। जब कोई कहता है, जीसस क्राइस्ट ईश्वर के पुत्र हैं, तो जीसस क्राइस्ट का मानने वाला बड़ा हो जाता है, कि हो गए फीके राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, सब। जीसस क्राइस्ट ईश्वर के पुत्र हैं और मैं उनका मानने वाला हूं। जब महावीर की प्रशंसा होती है तो महावीर का मानने वाला सिर हिलाने लगता है कि बड़ी अच्छी बातें कही जा रही हैं!
कुछ अच्छी बातें नहीं कही जा रही हैं, आपके अहंकार को गुदगुदाया जा रहा है, आपको मजा आ रहा है, आप बड़े होते मालूम हो रहे हैं। लेकिन ध्यान रहे, धर्म अहंकार का शत्रु है। और महावीर की तो सारी की सारी साधना अहंकार को मिटा देने की साधना है। तो ये कुछ महावीर की जयंती पर करने वाली बातें नहीं हैं। इसको सोचना जरूरी है, विचारना जरूरी है। हमारे मोटिव्स क्या हैं? हमारी अंतस-इच्छा क्या है जो हम जय-जयकार बोलते हैं, या प्रशंसा के लिए आतुर हो उठते हैं कि कोई प्रशंसा करे?क्यों?
लेकिन इन्हीं गलत हमारी इच्छाओं ने हमारे सारे महापुरुषों के अदभुत जीवन को एकदम विकृत कर दिया। हमारे देखने के ढंग, हमारे सोचने के ढंग हम जैसे बंद हैं, हमारे जैसे संकीर्ण हैं। और हमारी संकीर्ण वृत्ति और बुद्धि के कारण, जिस महापुरुष को हम देखने जाते हैं अपनी संकीर्ण खिड़की से, उसकी तस्वीर भी छोटी हो जाती हो तो आश्चर्य नहीं है।
जैनी मिल-जुल कर महावीर को छोटा करते हैं। ईसाई मिल कर जीसस को छोटा करते हैं। हिंदू मिल कर राम को छोटा करते हैं। मुसलमान मिल कर मोहम्मद को छोटा करते हैं। ये लोग इतने बड़े थे कि इस सारी पृथ्वी के हो सकते थे। लेकिन इनके अनुयायियों ने घेरे बना लिए और इनको छोटा कर दिया। ये थोड़े से लोगों की संपदा हो गए हैं! तीस लाख मुश्किल से जैन होंगे हिंदुस्तान में; महावीर तीस लाख जैनियों की संपदा हो गए! और वे इतने जोर से शोरगुल मचाते हैं कि दूसरा आदमी शंकित हो जाता है कि ये इनके भगवान हैं, ये इनके आदमी हैं, हमें क्या लेना-देना! महावीर से वंचित हो जाती है सारी मनुष्यता।
इसी भांति सारे महापुरुषों से सारी मनुष्यता वंचित हो गई। जो सब की संपदा होने चाहिए, वे कुछ लोगों की संपदा हो गए हैं और वे कुछ लोग बड़ी अकड़ से चिल्लाते हैं! वह अकड़ उनकी अपनी है, उसका महावीर से क्या लेना-देना? इसलिए मैं उनकी प्रशंसा में कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि आपकी प्रशंसा में कहने की कोई भी जरूरत नहीं, कोई भी हित नहीं, कोई भी फायदा नहीं। मैं तो कुछ बात जरूर कहना चाहूंगा, जिसमें आपकी प्रशंसा न हो, बल्कि महावीर की अंतस-चेतना को समझें तो आप सेल्फ-कंडेम्ड हो जाएं, आपको अपनी निंदा मालूम पड़े। क्योंकि जब किसी महापुरुष के पास किसी व्यक्ति को आत्म-निंदा अनुभव होती है, तो उस व्यक्ति के जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है।
महापुरुष की प्रशंसा में अपनी प्रशंसा से तो कोई क्रांति शुरू नहीं होती, हम और जड़ हो जाते हैं। लेकिन महापुरुष के सान्निध्य में, उसके स्मरण में, उसके चित्र के सामने अगर हमारा चित्र बिल्कुल छोटा, दयनीय, दीन-हीन दिखाई पड़ने लगे, ऐसा प्रतीत हो कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं और मनुष्य इतना बड़ा भी हो सकता है! अगर एक मनुष्य के भीतर इतनी महानता घट सकती है तो मैं बैठा-बैठा कहां जीवन गंवा रहा हूं! मेरे भीतर भी तो यह घटना घट सकती थी। महावीर एक-एक व्यक्ति के भीतर भी तो पैदा हो सकते हैं।
एक बीज वृक्ष बन सकता है, तो हर बीज के लिए चुनौती हो गई कि वह वृक्ष बन कर दिखा दे। और अगर कोई बीज वृक्ष नहीं बन सकता, तो वृक्ष के सामने खड़ा होकर अपनी आत्म-निंदा अनुभव करे। अनुभव करे इस बात को कि मैं व्यर्थ खो रहा हूं; मैं भी वृक्ष हो सकता था और मेरे नीचे भी हजारों लोगों को छाया मिल सकती थी; मैं भी एक फलों से लदी हुई छाया का, विश्राम का स्थल बन सकता था, लेकिन मैं नहीं बन सका हूं।
क्या महावीर के निकट पहुंच कर आपको ऐसा लगता है कि जो महावीर के भीतर हो सका, वह आपके भीतर नहीं हो पा रहा है?क्या आपको आत्म-ग्लानि अनुभव होती है?अगर होती है तो महावीर के जीवन से कुछ, महावीर की साधना से, महावीर की अंतस-चेतना से आपको कुछ किरणें मिल सकती हैं जो मार्गदर्शक हो जाएं। लेकिन नहीं, इसकी हमें फुर्सत कहां है? हम जय-जयकार में, महावीर के जय-जयकार में अपनी आत्म-ग्लानि को छिपा लेते हैं, भुला देते हैं, भूल जाते हैं कि यह प्रश्न आत्म-चिंतन का था! यह महावीर के समक्ष स्वयं को रख कर रिलेटिव, सापेक्ष रूप से सोचने का था कि मैं कहां और यह व्यक्ति कहां!
लेकिन नहीं, हम बहुत होशियार हैं! आदमी की जात बहुत चालाक है। वह इतनी होशियारी से काम करती है कि बजाए इसके कि महापुरुष को, महावीर को, या किसी और को सामने रख कर अपने और उनके बीच तुलना कर सके! यह नहीं, अपने को तो भुला देती है उनकी प्रशंसा में, जय-जयकार में, और फिर उन पर वे गुण आरोपित कर लेती है, जो उनके गुण नहीं होते, बल्कि हमारे भीतर के कुछ कारण होते हैं।
जैसे, जो आदमी भोजन करने का अति लोभी होगा, जो आदमी भोजन में बहुत लोलुप होगा, ग्रीडी होगा, वह आदमी हमेशा उपवास करने वाले आदमी का आदर करेगा। जब कोई आदमी उपवास करने वाले व्यक्ति का आदर करता हो तो समझ लेना कि यह उपवास करने वाले व्यक्ति के आदर का इससे बहुत संबंध नहीं है; इससे बहुत संबंध उस आदमी का है, जो भोजन करने में बहुत लोभी और लालची है। उसके भोजन करने की जो अति वासना है, उसके कारण उपवासी आदमी उसको आदरणीय मालूम पड़ता है।
जो आदमी बहुत कामुक है, कामी है, उस आदमी को ब्रह्मचारी का जीवन बहुत आदृत मालूम पड़ेगा! जो आदमी हिंसक है, जो आदमी अत्यंत दुष्ट और क्रूर और कठोर है, उस आदमी को अहिंसक का जीवन बहुत प्रभावित करता हुआ मालूम पड़ेगा! यह बड़ी अजीब बात है। यह बहुत अजीब बात है। जो आदमी धन का बहुत पागल लोभी है, उसको त्यागी का जीवन बहुत प्रभावित करता हुआ मालूम पड़ेगा! लेकिन यह मनोवैज्ञानिक है। इसके पीछे कारण हैं। जो हम नहीं कर सकते, जब कोई उसे करता है, तो हम चकित हो जाते हैं। जो मैं नहीं कर सकता, जब कोई और करता है, तो मैं चकित हो जाऊं, यह स्वाभाविक है।
महावीर से जो लोग चकित हो गए हैं, वे महावीर से ठीक विपरीत लोग हैं। बुद्ध से जो आदमी चकित हो गया है, वह बुद्ध से ठीक विपरीत आदमी है। क्राइस्ट से जो आदमी प्रभावित हो गया है, वह क्राइस्ट से ठीक विपरीत आदमी है। इसीलिए तो महापुरुष एक तरफ, अनुयायी बिल्कुल उलटे..बिल्कुल उलटे सिद्ध होते हैं।
थोड़ा सोचें। महावीर तो कहते हैं अपरिग्रह, महावीर तो सारा स्वामित्व छोड़ देते हैं। नहीं मानते कि मेरा कोई धन है। लेकिन महावीर के अनुयायियों ने भारत में जितना धन इकट्ठा किया, किसी और ने इकट्ठा किया? यह तो अजीब बात है! लेकिन यह अजीब नहीं है, बहुत साइकोलाजिकल है। बहुत कुछ कारण हैं इसके पीछे। इसके पीछे महावीर की कोई भूल नहीं है। महावीर के सर्व-धन-त्याग के कारण, जितने लोग धन के प्रति अति लोभी थे, वे सब महावीर के प्रति आकर्षित हो गए। वे जो नहीं कर सकते थे, महावीर वही कर रहे हैं।
जीसस क्राइस्ट कहते हैं, प्रेम। सबको प्रेम। शत्रु को भी प्रेम। जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा गाल भी उसके सामने कर देना। और जो तुम्हारा कोट छीने, उसको कमीज भी दे देना, कहीं उसे कमीज की भी जरूरत न हो। जो आदमी तुम्हें एक मील तक कहे मेरा बोझा ढोकर ले चलो, दो मील तक ढोकर ले जाना। जीसस क्राइस्ट तो यह कहते हैं। लेकिन क्रिश्चियंस ने जितने जनता के गालों पर चांटे मारे हैं, और आदमियत के साथ जितनी हत्या और हिंसा की, धर्म के नाम पर जितने युद्ध लड़े, जितने निहत्थे लोगों को समाप्त किया, जितने लोगों को आग में जलाया..लाखों की संख्या में! बड़ी हैरानी की बात है।
जीसस क्राइस्ट कहते हैं कि एक गाल पर मारे कोई चांटा तो दूसरा कर देना, शत्रु को भी प्रेम करना। और अनुयायी? अनुयायी सिवाय हत्या करने के दूसरा काम नहीं करते! बात क्या है? यह प्रेम के संदेश देने वाले के आस-पास वे लोग इकट्ठे हो गए, जिनके जीवन में प्रेम बिल्कुल नहीं था। वे आकर्षित हो गए। जो वे नहीं कर सकते थे, उस चीज के प्रति चकित हो गए। यह बहुत अदभुत बात है, यह बहुत कंट्राडिक्टरी बात है। लेकिन सारी दुनिया में यह हुआ।
अगर महापुरुष का जीवन आप देखें और उसके आस-पास अनुयायी देखें, तो आप ठीक उलटे अनुयायी उसके आस-पास इकट्ठे पाएंगे। और ये उलटे अनुयायी उस महापुरुष में उन्हीं बातों की प्रशंसा करेंगे, जिन बातों की उनमें कमी है। उस प्रशंसा को बड़ी करते जाएंगे, बड़ी करते जाएंगे। आखिर वहां पहुंचा देंगे, एक्सट्रीम पर पहुंचा देंगे, महापुरुष झूठा मालूम पड़ने लगेगा उस सीमा तक बातों को खींच कर ले जाएंगे! इसमें महापुरुष का कसूर नहीं है, इसमें अनुयायी...। और अनुयायी अपनी कमियों को सब्स्टीट्यूट कर रहा है, पूर्ण कर रहा है, महापुरुष से अपने भीतर जोड़ रहा है। थोड़ा सोचें तो दिखाई पड़ेगा।
हिंदुस्तान में महावीर की, बुद्ध की शिक्षा त्याग की शिक्षा है, अपदार्थ की शिक्षा है..भौतिकता से मोह छोड़ना है, पदार्थ से ऊपर उठना है, मैटीरियलिज्म से ऊपर उठना है। लेकिन अनुयायी जितने मैटीरियलिस्ट हैं, देख कर हैरानी होती है। जितने पदार्थ को जोर से पकड़े हुए हैं, देख कर हैरानी होती है। उन्होंने महावीर के मंदिर भी बनाए हैं तो सोने की मूर्तियां बना दी हैं! उस महावीर की, जो बेचारा जीवन भर कह रहा है कि सोना मिट्टी है। उन्होंने महावीर पर धन की तिजोरियां इकट्ठी कर दी हैं। उस महावीर पर, जो कह रहा है धन राख है, धन छोड़ दो, धन का कोई मूल्य नहीं। महावीर के उस मंदिर पर, जो महावीर हाथ में एक लकड़ी भी नहीं रखता, जो कहता है कि हाथ में लकड़ी भी रखनी हिंसक होने का सबूत है, संभावित शत्रु की तैयारी है; हाथ में लकड़ी रखनी कायरता का सबूत है, क्योंकि जो भयभीत है, वह शस्त्र रखता है..जो महावीर हाथ में लकड़ी भी नहीं रखता, उसके मंदिर के सामने बंदूकधारी पहरेदार खड़ा हुआ है! आश्चर्य की बातें हैं, मिरेकल है, चमत्कार है! यह क्या हो रहा है? और यही लोग महावीर की प्रशंसा कर रहे हैं, गुणगान कर रहे हैं, तो हो गई महावीर की जिंदगी ठीक। ये जो जिंदगी खड़ी करेंगे, वह जिंदगी झूठी होगी, फाल्स होगी; बिल्कुल झूठ होगी, क्योंकि इनके द्वारा खड़ी होगी।
दुनिया भर के महापुरुषों के साथ ऐसा हुआ। एक के साथ हुआ होता, ऐसी बात नहीं। इसलिए कोई यह न सोचे कि महावीर के साथ जो हुआ है, वह दूसरों के साथ नहीं हुआ; वह सबके साथ हुआ है। जो मैं महावीर के लिए कह रहा हूं, वह केवल प्रतीक है। वह सबके साथ हुआ है।
तो हम जो जिंदगी खड़ी कर लेते हैं, वह हमारी देखी गई जिंदगी है, महावीर की जिंदगी नहीं है। महावीर को जैसा हम देखते हैं! हम कैसा देखते हैं? हम उसी शक्ल में देखते हैं, जिसकी हमारे भीतर कमी है। हम देखते हैं कि मैं तो स्त्री को छोड़ कर नहीं जा सकता, महावीर स्त्री को छोड़ कर जा रहे हैं! मैं धन नहीं छोड़ सकता, महावीर धन छोड़ रहे हैं! मैं मकान नहीं छोड़ सकता, महावीर मकान छोड़ रहे हैं! मैं भूखा नहीं रह सकता, महावीर उपवास कर रहे हैं! हम एकदम चकित हो जाते हैं और हम कहते हैं, धन्य है भगवान! तुम बड़े तपस्वी हो। तुम दुख को अंगीकार कर लेते हो। तुम सुख के त्यागी हो। तुम दुख को वरण करते हो। तुम तपस्वी हो, तुम तपश्चर्या में जाते हो; हम भोगी हैं, हम दीन-हीन हैं, हम पापी हैं, तुम पुण्यात्मा हो।
लेकिन चीज बदल गई हमारे देखने से। महावीर न तो त्यागी हैं, न तपस्वी हैं; न धन को छोड़ रहे हैं, न कुछ और छोड़ रहे हैं। महावीर के भीतर कुछ और घटित हो रहा है; उस और घटित को हम इस भांति देख रहे हैं! यह हमारा एटिट्यूड है, यह महावीर के जीवन की घटना नहीं। महावीर त्यागी नहीं हैं, महावीर ज्ञानी हैं।
इसको थोड़ा समझ लें, तो उनकी जिंदगी के भीतर घुसना आसान हो जाएगा। ऐसे तीन सूत्रों पर मैं आपसे बात करना चाहूंगा, जो उनके अंतस-जीवन में प्रवेश करवा दें।
महावीर त्यागी नहीं, ज्ञानी हैं। लेकिन हम कहते हैं, महावीर त्यागी हैं। और हम जय-जयकार करते हैं कि महावीर जैसा त्यागी नहीं हुआ! शायद आपको पता ही नहीं है, त्याग सिर्फ अज्ञानी करते हैं, ज्ञानी कभी त्याग नहीं करता। क्यों ऐसा मैं कह रहा हूं?घबड़ाहट होगी आपको, बेचैनी होगी, मैं क्यों ऐसा कह रहा हूं? मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं कि ज्ञानी को तो व्यर्थ दिखाई पड़ जाता है संसार। जो व्यर्थ है, उसे छोड़ना नहीं पड़ता, वह छूट जाता है। अज्ञानी को छोड़ना पड़ता है, उसे व्यर्थ दिखाई नहीं पड़ता; वह कोशिश कर-करके छोड़ता है।
महावीर छोड़ते नहीं, छूट जाता है।
ज्ञान में त्याग अपने आप आ जाता है छाया की तरह; अज्ञान में त्याग लाना पड़ता है। अज्ञान के जीवन में त्याग है झाड़ से कच्चे पत्ते तोड़ने जैसा, जबरदस्ती पत्ते तोड़े जाते हैं। पत्ता पीड़ित होता है, शाखा पीड़ित होती है, घाव छूट जाता है पीछे, वृक्ष के प्राण पर चोट लगती है। और त्याग ज्ञानी का..छूटने वाला, छोड़ने वाला नहीं..वह सूखे पत्ते की भांति वृक्ष से गिर जाता है, न वृक्ष को खबर लगती कि कब पत्ता गिर गया, न पत्ते को पता चलता कि कहीं से टूट गया हूं, न कहीं दुनिया में कोई खबर आती, चुपचाप, मौन, कोई हवा का एक झोंका और पत्ता चुपचाप नीचे बैठ जाता है।
महावीर ज्ञानी हैं, लेकिन हमें त्यागी दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि हम भोगी हैं। वह जो हमारा भोग है, उस भोग के कारण हमें त्याग दिखाई पड़ता है, महावीर का ज्ञान दिखाई नहीं पड़ता। महावीर छोड़ नहीं रहे हैं, महावीर को चीजें व्यर्थ दिखाई पड़ गईं। और जब व्यर्थ दिखाई पड़ जाती है, उसको छोड़ना पड़ता है?
एक रात एक जंगल से दो संन्यासी निकल रहे हैं। एक वृद्ध संन्यासी है, युवा संन्यासी उसके साथ पीछे है। वृद्ध एक झोला लटकाए हुए है कंधे से, छाती से दबा कर पकड़े हुए है झोले को। रात पड़ने लगी, अंधेरा उतरने लगा। तो उसने पूछा युवा संन्यासी से, कोई भय तो नहीं है? जंगल खतरनाक मालूम होता है, रास्ता बीहड़ मालूम होता है। कोई खतरा तो नहीं है?
युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, क्योंकि संन्यासी को खतरा कैसा? खतरा होता है उनको, जो संन्यासी नहीं हैं। संन्यासी को खतरा कैसा! संन्यासी को भय कैसा! संन्यासी के पास क्या है, जिसे कोई छीन लेगा! संन्यासी के पास क्या है, जिसे कोई मिटा देगा! संन्यासी के पास क्या है, जिसके लिए वह चिंतित हो, असुरक्षित अनुभव करे! वह कुछ चिंतित हुआ, हैरान हुआ। फिर आज तक यह बूढ़ा संन्यासी कभी नहीं पूछा, बड़े घने जंगलों में से निकलना पड़ा; अंधेरी रातों में रुकना पड़ा; बीहड़ रास्ते थे, निर्जन मार्ग थे, इसने कभी नहीं पूछा कि खतरा तो नहीं है कोई; आज क्या हो गया?
थोड़ी दूर और, फिर उस वृद्ध संन्यासी ने पूछा कि रात बढ़ती जाती है, गांव पता नहीं कितनी दूर है; दीए भी दिखाई नहीं पड़ते..कोई खतरा तो नहीं है?
फिर वे एक कुएं पर रुके। और वृद्ध संन्यासी ने झोला दिया युवा संन्यासी को और कहा, मैं हाथ-मुंह धो लूं, झोला संभाल कर रखना! तब युवा संन्यासी को लगा कि खतरा जरूर झोले के भीतर होना चाहिए। उसने झोले के भीतर हाथ डाला..बूढ़ा तो पानी खींचने लगा कुएं से..उसने झोले के भीतर हाथ डाला तो देखा सोने की एक ईंट है। समझ गया खतरा कहां है। उसने वह ईंट निकाल कर बाहर फेंक दी, एक पत्थर की ईंट उठा कर झोले के भीतर रख दी। बूढ़े संन्यासी ने जल्दी से पानी-वानी पीया, जल्दी से आकर झोला लिया..ठीक से पानी भी नहीं पी पाया बेचारा!
कब कौन पी पाता है जिनके पास सोने की ईंटें होती हैं?कोई पी पाता है पानी ठीक से? और अगर किसी को ठीक से पानी पीते देख लें, तो वे कहेंगे, महान अदभुत आदमी है, यह बड़ा महापुरुष है! शांति से पानी पी रहा है, शांति से खाना खा रहा है, शांति से सो रहा है! ये साधारण सी बातें महापुरुष जैसी मालूम होने लगती हैं जो कि हर एक आदमी में होनी चाहिए, क्योंकि हम बिल्कुल विक्षिप्त और पागल हैं। उस पागलपन की वजह से थोड़ी सी भी शांति बहुत मालूम होती है।
उसने जल्दी से झोला लिया, कंधे पर टांग लिया, फिर छाती से लगा लिया, फिर चलने लगा। उस बेचारे को पता भी नहीं है कि अब वह जो छाती से लगाए हुए है, वह पत्थर की एक ईंट है! किसको पता है कि आप जिसको छाती से लगाए हुए हैं, वह सोने की है या पत्थर की है? जो जानते हैं, वे कहते हैं पत्थर की; जो नहीं जानते हैं, वे कहते हैं सोने की।
फिर वह आगे बढ़ गया। फिर पूछने लगा। रात और बढ़ गई है, खतरा और बढ़ गया। उसने पूछा कि कोई खतरा तो नहीं है? उस युवा ने कहा, आप बेफिकर हो जाएं, खतरे को मैं पीछे फेंक आया हूं। वह तो घबड़ा गया। जल्दी से झोले में हाथ डाला, ईंट निकाली, पत्थर की ईंट थी! एक क्षण तो सन्नाटा हो गया उस जंगल में। फिर वह वृद्ध हंसने लगा। ईंट निकाल कर उसने बाहर फेंक दी। फिर कहने लगा, अब यहीं सो जाएं, अब गांव तक जाने की क्या जरूरत! फिर वे वहीं सो गए। फिर सुबह जब वे उठे तो उस युवा ने पूछा, आप महान त्यागी हैं, आपने ईंट निकाल कर झोले से बिल्कुल बाहर फेंक दी! आपने महान त्याग किया! वह बूढ़ा कहने लगा, त्याग कहां पागल! जब ईंट दिखाई पड़ गई कि पत्थर है, तो त्याग क्या? छूट गई, व्यर्थ हो गई। त्याग तो उसका करना होता है, जो स्वर्ण की मालूम पड़ती है।
महावीर ने जो छोड़ा है, वह मिट्टी दिखाई पड़ने लगा है। उसका कोई त्याग नहीं किया गया है..छूट गया, जैसे मिट्टी छूट जाती है। लेकिन भक्तगण चिल्ला रहे हैं कि हे महात्यागी! हे दीर्घ तपस्वी! हे महापुरुष! तुम धन्य हो! तुमने कितना-कितना छोड़ा! और महावीर हंसते होंगे कि यह क्या पागलपन है, मैंने कुछ छोड़ा नहीं! और ढाई हजार साल से ये चिल्ला रहे हैं कि हे महान तपस्वी! हे त्यागी! हे महापुरुष! तुमने कितना छोड़ा!
यह भोगियों की वृत्ति है, यह महावीर का जीवन नहीं। महावीर का अंतस-जीवन ज्ञान का है; लेकिन बाहर से जो जीवन हमें दिखाई पड़ता है, वह त्याग का दिखाई पड़ता है। और त्याग और ज्ञान में जमीन-आसमान का भेद है। और इसका परिणाम क्या होता है!
इसका परिणाम केवल महावीर की जिंदगी गलत हम लिखते तो क्या हर्जा था, लिख लेते गलत। खतरा यह होता है कि गलत जिंदगी का अनुकरण करने वाले लोग पैदा हो जाते हैं। वे त्याग करना शुरू कर देते हैं और जिंदगी उनकी नष्ट हो जाती है।
जिंदगी का आधार है ज्ञान; और ज्ञान से जो त्याग आ जाए, वह है सहज फल। लेकिन इस गलत कथा और जीवन के नाम पर पढ़ने वाले त्याग शुरू कर देते हैं! और त्याग से जो शुरू करता है, वह ज्ञान पर तो कभी पहुंचता नहीं, जीवन भर दुख में और पीड़ा में जीता है, क्योंकि सोने की ईंट छोड़ता है। सोच सकते हैं आप, सोने की ईंट! सम्हालना भी खतरा है, दुख है, पीड़ा है; और छोड़ना भी दुख और पीड़ा है, क्योंकि सोना दिखाई पड़ता रहता है। सोना छोड़ दिया मैंने..कहीं भूल तो नहीं हो गई, कहीं हैरानी तो नहीं हो गई।
मुझे संन्यासी मिलते हैं। सबके सामने तो आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं; और जब एकांत में मिलते हैं, तो कहते हैं, बड़ा भय मालूम होता है, बड़ी शंका मालूम होती है..कहीं हमने सब छोड़ कर गलती तो नहीं कर ली? हम बिल्कुल अंधेरे में जा रहे हैं। पता नहीं, कहीं ऐसा न हो कि जो भोग रहे हैं, वे ही ठीक हैं।
एकांत में उनके मन में यह संदेह, यह डाउट खड़ा रहता है हमेशा कि हम छोड़ आए हैं! सारा जगत भोग रहा है, हम छोड़ आए हैं। कहीं हमने भूल तो नहीं कर ली? हम तो बिल्कुल अंधेरे रास्ते पर चल रहे हैं। हाथ की रोटी छोड़ रहे हैं, मोक्ष की रोटी का विचार कर रहे हैं! पता हो, न हो!
लेकिन महावीर को ऐसी शंका नहीं है उनके प्राणों में। वे किसी रोटी के लिए नहीं छोड़ रहे हैं। वे किसी चीज को इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि कुछ मिल जाएगा। वे किसी चीज को इसलिए छोड़ रहे हैं कि कुछ मिल गया है।
इस फर्क को ठीक से समझ लेना।
एक आदमी छोड़ता है कोई चीज..अपने हाथ के पत्थर छोड़ देता है इस आशा में कि कल हीरे मिलेंगे तो हाथ भर लूंगा। इसकी पीड़ा आप नहीं समझ सकते। हीरे अभी मिले नहीं हैं और जो पास में था..रंगीन पत्थर सही, अभी हीरे मालूम होते थे; लेकिन लोग कहते थे रंगीन पत्थर हैं, शास्त्र कहते थे रंगीन पत्थर हैं, गुरु-संन्यासी समझाते थे कि रंगीन पत्थर हैं, छोड़ दो..समझ-बूझ कर, लोगों की बात सुन कर इसने छोड़ दिए रंगीन पत्थर, जो इसको हीरे मालूम होते थे, इस आशा में कि हीरे मिलेंगे। और अभी हीरे मिले नहीं, हाथ खाली हो गए हैं, प्राण छटपटा रहे हैं। खाली हाथ में प्राण बहुत छटपटाते हैं, पत्थर भी रखे रहें तो भी राहत मिलती है..कुछ तो है, पास कुछ तो है।
महावीर ने कुछ पाने के लिए नहीं छोड़ा। महावीर की हालत उस आदमी की हालत है, जिसके सामने हीरों की खदान आ गई है और अब पत्थर इसलिए छोड़ रहा है कि अब पत्थर रखने का कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, अब हीरे रखने का मौका सामने आ गया है। हीरे मिल गए हैं, इसलिए पत्थर छोड़े जा रहे हैं। जिस आदमी को हीरे मिल जाएं, अगर वह घर में से पत्थर निकाल कर बाहर फेंक दे और हीरों से कोठरी भर ले, आप उसको त्यागी कहेंगे? कहेंगे त्यागी उसको?
मेरे घर में बहुत कबाड़ भरा है, फर्नीचर है, फलां है, ढिकां है, सब इकट्ठा है। कल मुझे हीरे की एक खदान मिल जाए। सब फर्नीचर-वर्नीचर, कबाड़, सब बाहर निकाल दूंगा, हीरे भर लूंगा; आप सब मिल कर मुझे महा-तपस्वी कहेंगे? कि ये महान तपस्वी हैं, इन्होंने घर का कूड़ा-कचरा सब बाहर त्याग कर दिया! कोई मुझे महा-तपस्वी नहीं कहेगा।
महावीर को भी महा-तपस्वी मत कहिए, महा-ज्ञानी कहिए। ज्ञान से तपस्वी हैं।
ज्ञान से त्याग फलित होता है। ज्ञान का त्याग सहज फल है, लेकिन त्याग से ज्ञान कभी नहीं मिलता। ज्ञान से त्याग मिल जाता है, लेकिन त्याग से ज्ञान कभी नहीं मिलता।
पच्चीस सौ साल से महावीर के पीछे चलने वाला इसी मुसीबत में उलझा है, वह त्याग करके ज्ञान पाने की कोशिश कर रहा है! और महावीर के जीवन में जो घटना घटी है, वह ज्ञान से त्याग की है। ये बिल्कुल रिवर्स, बिल्कुल उलटी वैल्यूज पकड़ जाती हैं; और तब सारी की सारी दृष्टि भ्रांत हो जाती है। फिर हमारे हाथ में एक ही गुणगान रह जाता है करने को। जब हम त्याग भी करते हैं और आनंद नहीं मिलता, ज्ञान नहीं मिलता, तो हम सोचते हैं पिछले जन्मों का कोई कर्म बाधा दे रहा है, या हमारा त्याग पूरा नहीं है, या हमारे मन में वासना शेष रह गई है। और फिर यह कोई एक-दो दिन का काम तो नहीं है, यह तो जिंदगी-जिंदगी लगती हैं, अनेक जन्म लगते हैं, तब कहीं यह हो पाएगा। यह कोई छोटी बात थोड़े ही है! फिर हम ऐसा कंसोलेशन, ऐसी बातें ढूंढ-ढूंढ कर मन को समझाते हैं, सांत्वना देते हैं। लेकिन ये सांत्वनाएं खतरनाक हैं। सचाई उलटी है। ज्ञान को खोजिए, ज्ञान मिल सकता है; क्योंकि ज्ञान आपके प्राणों में छिपा हुआ दीया है, जिसे कहीं लेने नहीं जाना।
महावीर का यही अनुभव, महावीर का यही केंद्रीय अनुभव है कि ज्ञान मनुष्य का स्वभाव है, ज्ञान मनुष्य की आत्मा का धर्म है, ज्ञान मनुष्य की आत्मा ही है। इसलिए ज्ञान को खोजने कहीं जाना नहीं है, ज्ञान भीतर है। भीतर की तरफ मुड़ते ही, शांत होते ही, शून्य होते ही, मौन होते ही उस ज्ञान की किरणें मिलनी शुरू हो जाती हैं।
लेकिन भीतर दो तरह के आदमी नहीं मुड़ पाते। एक तो वे नहीं मुड़ पाते, जो बाहर की दुनिया में धन इकट्ठा करते हैं, बाहर की दुनिया में मकान बनाते हैं, बाहर की दुनिया में यश कमाते हैं। वे लोग भीतर की तरफ कैसे मुड़ें? उनका मन बाहर की तरफ लगा है। दूसरे वे लोग नहीं मुड़ पाते..और इसे ठीक से सुन लेना, क्योंकि पहली बात सुनी हुई होगी, दूसरी बात विचारणीय है..दूसरे वे लोग नहीं मुड़ पाते, जो बाहर के त्याग में पड़े रहते हैं। धन छोड़ो, मकान छोड़ो, स्त्री छोड़ो, यह छोड़ो, वह छोड़ो..इनकी दृष्टि भी बाहर है। इकट्ठा करने वाले की दृष्टि भी बाहर है, छोड़ने वाले की दृष्टि भी बाहर है, क्योंकि दोनों का आब्जेक्ट बाहर है।
तो न तो भोगी भीतर जा पाता, न त्यागी भीतर जा पाता। भोगी भी बाहर भटकता है, त्यागी भी बाहर भटकता है। भोगी सुख को खोजता है, त्यागी दुख को खोजता है। त्यागी कोशिश करता है कि जितना दुख...
भोगी एक तख्त खरीद लाता है। फिर कहता है, तख्त बहुत गड़बड़ है; गड़ता है, रात सोते नहीं बनता। अच्छी गद्दी खरीद लाता है। फिर एक और गद्दी, फिर एक और गद्दी..गद्दी पर गद्दी बढ़ाता जाता है। यह भोगी की दिशा है।
त्यागी एक गद्दी कम कर देता है। सोचता है, एक गद्दी कम करने से मोक्ष मिलेगा! फिर दूसरी गद्दी कम कर देता है, फिर तीसरी गद्दी कम कर देता है। फिर सोचता है, तख्त अकेला ठीक है, इससे जरूर मोक्ष मिलेगा! फिर तख्त भी अलग कर देता है। फिर सोचता है, फर्श पर सो जाना सबसे ठीक है, इससे तो मोक्ष बिल्कुल निश्चित है!
दोनों पागल हैं। न तो गद्दी इकट्ठी करने से मोक्ष मिलता है, न गद्दी छोड़ने से मोक्ष मिलता है। गद्दी से मोक्ष का क्या संबंध? इररिलेवेंट है, कोई संबंध ही नहीं है। और अगर भगवान के पास पहुंचे और कहे, मैंने तीन गद्दियां छोड़ीं, इसलिए मोक्ष का दरवाजा खोलिए, तो वह भी कहेगा कि तुम पागल हो गए हो! तीन गद्दियां छोड़ने से सिनेमा का दरवाजा भी नहीं खुलता है, मोक्ष का दरवाजा खुलवा लेना बहुत मुश्किल है। इतना आसान नहीं है, इतना सस्ता नहीं है कि आपने तीन गद्दियां छोड़ दीं, आपने घी लगाना रोटी पर छोड़ दिया, आप सिर घुटाने लगे, आप नंगे खड़े हो गए। आप जो भी कर रहे हैं, इस करने का सारा आब्जेक्ट बाहर है, सारी दृष्टि बाहर है। भीतर वह पहुंचता है, जो बाहर छोड़ने और पकड़ने दोनों से मुक्त हो जाता है।
इसलिए महावीर को त्यागी मत कहें। महावीर रागी नहीं हैं, महावीर त्यागी नहीं हैं, महावीर वीतराग हैं। वीतराग का मतलब दोनों से भिन्न है..न त्याग, न राग। न राग, न विराग; न तो बाहर की पकड़, न छोड़ने का आग्रह। एक तीसरा कोण: वीतराग। न मैं बाहर पकड़ता हूं, न मैं बाहर छोड़ता हूं, क्योंकि मैं हूं भीतर। और जो भीतर है, मैं उसे जानने चलता हूं, बाहर की तरफ से आंख हटाता हूं। इसलिए महावीर हैं वीतराग। मत कहें विरागी, मत कहें त्यागी।
वीतरागता में ज्ञान फलित होता है।
भीतर जो जाता है, वह ज्ञान के दर्शन को उपलब्ध होता है।
यह तो उनके अंतस-जीवन की कथा है। महावीर का असली जीवन, उनकी आत्मा के जीवन का पहला सूत्र कि महावीर ज्ञान के खोजी हैं, त्याग के नहीं।
दूसरा सूत्र।
हमें यही दिखाई पड़ता है, जैसा मैंने कहा, भोगी सुख खोजता है, त्यागी दुख खोजता है। और त्यागियों ने ऐसे-ऐसे दुख खोजे कि अगर हिसाब लगाएंगे आप, तो आप पाएंगे कि वे भोगियों से ज्यादा इन्वेंटिव, ज्यादा आविष्कारक हैं। भोगियों ने इतने आविष्कार नहीं किए। त्यागियों ने ऐसे-ऐसे आविष्कार किए हैं कि अगर उनकी सारी कथा बताई जाए तो प्राण रोमांचित हो जाएं कि यह क्या किया! आंखें फोड़ने वाले त्यागी हुए हैं, क्योंकि वे कहते हैं, आंखों से वासना का जन्म हो जाता है! पागल हो गए हैं, जैसे अंधे को वासना का जन्म न होता हो! आंख से क्या मतलब है? लेकिन वे कहते हैं, आंख से दिखाई पड़ते हैं रूप और चित्त आकर्षित होता है। जैसे कि सपनों में रूप नहीं देखे जा सकते। आंख बंद करके रूप नहीं देखे जा सकते। आंखें फोड़ लीं; हाथ-पैर काट डाले हैं; जननेंद्रियां काट डाली हैं; पैरों में खीले ठोंक लिए हैं; कमर में खीले ठोंक लिए हैं; रेत पर, जलती रेत पर पड़े रहे हैं; कांटे बिछा कर लेटे रहे हैं; शरीर को कोड़े मारते रहे हैं!
कोड़े मारने वालों का एक संप्रदाय ही था पूरे यूरोप में। वह कोड़े मारने वालों का ही संप्रदाय कहलाता। उसका साधु यही करता था कि सुबह से उठ कर कोड़े मारना शुरू करता था नंगी देह पर, लहूलुहान हो जाता। जो साधु जितने ज्यादा कोड़े मार लेता, वह साधु गुरु हो जाता, बाकी साधु चेले हो जाते। जैसे कि जो साधु ज्यादा उपवास कर ले, वह आचार्य हो जाता है, बाकी चेले हो जाते हैं! अखबार में खबर छापते हैं कि फलां साधु ने इतने उपवास किए, इतने उपवास किए, इतने उपवास किए, वैसे ही उनके अखबारों में खबर छपती थी कि फलाने साधु ने अब तक क्लाइमेक्स पा ली है, अब तक आखिरी कोटि पा ली है, इतने कोड़े मार लेता है। सुबह से लहूलुहान कर लेते शरीर। लोग दर्शन करने आते और कहते कि महा-तपस्वी हैं। इन्वेंटिव थे बहुत! खूब खोजी हैं तरकीबें दुख पाने की!
लेकिन महावीर दुखवादी नहीं हैं। महावीर दुख की खोज में नहीं हैं। और इस सीक्रेट को, इस रहस्य को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि हमें ऐसा दिखाई पड़ता है कि महावीर दुख खोज रहे हैं। क्योंकि हम सुख के खोजी हैं, जो मैंने आपसे पहले कहा। सुख के खोजी को दिखाई पड़ता है, हम तो गद्दी ला रहे हैं घर की तरफ और एक आदमी गद्दी छोड़ कर बाहर जा रहा है! हमको लगता है, यह बेचारा बड़ा दुख खोज रहा है। लेकिन यह भी हो सकता है कि एक स्वस्थ शरीर को गद्दी सुख न दे। गद्दी के लिए बीमार शरीर चाहिए सुख पाने के लिए गद्दी में। स्वस्थ शरीर के लिए गद्दी जैसी चीज सुख देने का कोई कारण नहीं रह जाती। स्वस्थ शरीर के लिए सुख मिलता है गहरी निद्रा से, गहरे वस्त्रों से नहीं। गहरे वस्त्रों का सुख वह खोजता है, जिसने गहरी निद्रा खो दी है। जब गहरी निद्रा नहीं रह जाती, तो सब्स्टीट्यूट खोजना पड़ता है। तो गहरे वस्त्र खोजते हैं हम, बड़ी गद्दी करते चले जाते हैं।
स्वस्थ आदमी को भूख से आनंद मिलता है, बीमार आदमी को भोजन से। इन दोनों में फर्क समझ लेना। स्वस्थ आदमी को भूख लगती है, आनंद मिलता है भूख के कारण। जो भी खाता है, रसपूर्ण हो जाता है, स्वादपूर्ण हो जाता है। बीमार आदमी को भूख तो होती नहीं, स्वाद तो भोजन में आ नहीं सकता, तो फिर नमक-मिर्च-मसाले खोजता है। और उनके द्वारा स्वाद पैदा करने की कोशिश करता है। तो जब कोई स्वस्थ आदमी रूखी रोटी खाकर आनंदित दिखता है, तो वह नमक-मिर्च वाला आदमी बेचारा सोचता है, कितना दुख झेल रहा है। उसे पता नहीं कि मूर्ख! दुख तू झेल रहा है। वह आदमी सुख, पूरा सुख उठा रहा है। हमारी सारी दृष्टि...
महावीर त्याग रहे हैं ज्ञान के कारण। और महावीर जो जीवन जी रहे हैं, उसमें उन्हें कोई दुख नहीं है। महावीर इतने नासमझ नहीं हैं कि दुख का जीवन जीएं; वे परम आनंद का जीवन जी रहे हैं। उन्हें नग्न खड़े होने में आनंद आ रहा होगा।
और आप जानते हैं कि अगर बच्चों की आदतें न बिगाड़ी जाएं तो बच्चे बामुश्किल कपड़े पहनने को राजी होते हैं। कपड़े पहनना फोस्र्ड हैबिट है, आदमी के ऊपर जबरदस्ती थोपी गई आदत है। नग्न होने का अपना आनंद है और मजा है। छोटे बच्चे इनकार करते हैं कि कपड़े मत पहनाओ, भागते हैं, लेकिन मां-बाप बड़े प्रेमवश उनको कपड़े पहनाते हैं कि जल्दी पहनो कपड़े! दुनिया अगर अच्छी आएगी तो नग्नता सहज स्वीकृत हो जाएगी। लोगों को जरूरत होगी तो कभी कपड़े पहन लेंगे। कोई बहुत सर्दी है, तो कपड़े डाल लेगा। वर्षा पड़ रही है, तो कपड़े पहन लेगा। ऐसे नग्न रहेगा। नग्न रहने के लिए आदमी पैदा हुआ है। नग्नता के लिए उसका शरीर बना है।
महावीर किसी आनंद के अनुभव में नग्न हो गए हैं। भक्तगण कह रहे हैं कि महान त्याग किया, बड़ा दुख झेल रहे हैं!
पागल हैं हम। महावीर नग्न होकर दुख नहीं झेल रहे हैं। कोई ज्ञानी कभी दुख झेलता नहीं, दुख झेलना अज्ञान का लक्षण है। ज्ञानी निरंतर आनंद से आनंद में प्रतिष्ठित होता चला जाता है। महावीर की चर्या आनंद की चर्या है, दुख की नहीं।
लेकिन हजारों साल से यह गुणगाथा कही जा रही है कि महावीर दुख झेल रहे हैं! दुख झेल रहे हैं! दुख झेल रहे हैं! क्यों? क्योंकि हम सुख के खोजी हैं, इसलिए हमको दुख दिखाई पड़ता है। हमें पता ही नहीं कि महावीर किस आनंद में प्रतिष्ठित हो रहे हैं! वे कहां जा रहे हैं! उन्हें क्या मिल गया है!
महावीर की सारी चर्या सहज है। उसमें कोई त्याग-व्याग नहीं है, उसमें कोई दुख नहीं है, उसमें आनंद ही आनंद है। यह तो उनका अंतस-सूत्र है। बाहर से जो दुख दिखाई पड़ता है, वह भीतर उनका आनंद है।
एक पहाड़ पर एक संन्यासी चला जा रहा है। घनी धूप है। तेज सूरज आग बरसाता है। पसीने से लथपथ है संन्यासी। कंधे पर बोझा रखे हुए है..अपनी किताबें, अपने कपड़े-लत्ते, अपना बिस्तर। माथे से पसीना पोंछता है। दूर है मार्ग अभी, थक गया है बहुत। और तभी रास्ते पर एक पहाड़ी लड़की भी चढ़ रही है। चैदह-पंद्रह साल की लड़की है। अपने कंधे पर एक मोटे-ताजे बच्चे को लिए है। पसीने से लथपथ है, हांफ रही है। संन्यासी को दया आ गई।
हालांकि संन्यासियों को दया जरा मुश्किल से आती है। क्योंकि जो अपने प्रति ही दयापूर्ण नहीं हैं, वे किसके प्रति दयापूर्ण हो सकेंगे?जो खुद को ही दुख देने की कोशिश में लगे हैं, वे किसके दुख से प्रभावित होंगे? लेकिन कुछ जरा गड़बड़ संन्यासी रहा होगा। कभी-कभी गड़बड़ संन्यासी पैदा हो जाते हैं..जैसे महावीर। ये बोनाफाइड संन्यासी नहीं हैं। ये ठीक रजिस्टर्ड संन्यासी नहीं हैं महावीर। ये असली संन्यासी, जिसको हम जानते हैं संन्यासी, वैसे नहीं हैं। ये कुछ गड़बड़ हैं, स्ट्रेंजर हैं, अजनबी हैं इस संन्यास की दुनिया में। वैसा ही कोई अजनबी संन्यासी वह भी रहा होगा। उसको दया आ गई। उसने उस लड़की के कंधे पर हाथ रखा और कहा, बेटा! बहुत बोझ मालूम पड़ रहा होगा तुझे?उस लड़की ने नीचे से ऊपर तक संन्यासी को गौर से देखा आश्चर्य से और कहा, क्या कहते हैं आप? स्वामी जी! बोझ आप लिए हुए हैं, यह तो मेरा छोटा भाई है।
उस लड़की ने कहा, बोझ आप लिए हुए हैं, यह तो मेरा छोटा भाई है। आप कहते क्या हैं! संन्यासी सोच रहा था, मैं कष्ट उठा रहा हूं बोझ ढोकर, वह लड़की भी कष्ट उठा रही होगी। उसे पता नहीं कि वह अपने छोटे भाई को लिए हुए है। जहां प्रेम है, वहां कष्ट कहां! वहां आनंद है। छोटे भाई को ढो रही है, यह उसका आनंद है, यह ढोना नहीं है। यह प्रेम का कृत्य है, यह एक्ट अॅाफ लव है।
महावीर जो कुछ कर रहे हैं, उसमें दुख नहीं है, वे सब आनंद के कृत्य हैं। यह सारा जीवन अपना है। यह सब अपना है। इस सारे जीवन पर, इस सारे जीवन की पीड़ा, इस सारे जीवन के दुख को दूर करने के लिए वे आतुर हैं। उनके प्राणों की प्यास है, एक करुणा है। वे कोई दुख नहीं झेल रहे हैं। यह उनका आनंद है। यह उनकी खुशी है। यह उनके जीवन का गीत है। यह उनका संगीत है।
लेकिन नहीं, हम ऐसा नहीं समझ पाते! यह हमें दिखाई नहीं पड़ता! हम तो अपनी कैटेगरीज में, हमारे अपने तौलने के ढांचे, अपने तराजू हैं, उन्हीं तराजू को लेकर पहुंच जाते हैं महावीर को तौलने! यह सोचते नहीं कि यह दुकान पर तौलने का तराजू महावीर को तौलने के काम नहीं आ सकता। और इसी तरह तौल-तौल कर हमने जीवन लिख लिया है। वह जीवन सब झूठा और फाल्स है। उसका कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है महावीर की अंतस-घटना का, आनंद का, दुख का नहीं। आनंद घटित हुआ है महावीर के जीवन में।
लेकिन आप जरा देखें। आप जरा सोचें। हमने अपने सब महापुरुषों की तस्वीरें, आंखें, चेहरे ऐसे बनाए हैं कि उनमें कहीं आनंद का भाव नहीं मालूम पड़ता! आपने कभी ख्याल किया? क्रिश्चियन कहते हैं, जीसस क्राइस्ट नेवर लाफ्ड! ईसाई कहते हैं, जीसस क्राइस्ट कभी हंसे ही नहीं! सोच सकते हैं कभी? अगर जीसस क्राइस्ट नहीं हंसे तो दुनिया में कौन हंसा होगा! कौन बचा होगा दुनिया में, अगर जीसस क्राइस्ट नहीं हंसे! लेकिन क्यों, क्रिश्चियंस ऐसा क्यों कहते हैं?क्या बात है? वे सोचते हैं कि जो हंसता है, वह महापुरुष नहीं रह जाता, सामान्य आदमी हो जाता है। सामान्य आदमी हंसते हैं। वे यह नहीं सोच पाते कि सामान्य आदमी की हंसी और, महापुरुष की हंसी और। और सच में सामान्य आदमी झूठा हंसता है। उसकी हंसी झूठी है। भीतर रोता रहता है, बाहर हंसता है।
आप कभी सच में हंसे हैं? अगर जिंदगी में एक बार आपने सच में हंस लिया हो, आपको धर्म का रहस्य पता चल जाएगा। बड़ी अजीब बात कह रहा हूं आपसे। अगर आपने जिंदगी में एक बार सच में हंस लिया हो, तो आपको सामायिक का अनुभव हो जाएगा, ध्यान का अनुभव हो जाएगा। लेकिन हम कभी हंसे ही नहीं..भीतर रोते हैं, बाहर हंसते हैं! क्यों हंसते हैं बाहर? ताकि भीतर के रोने को छिपाए रखें, किसी को पता न चल जाए।
जितना दुखी आदमी होता है, उतना ही हंसता मालूम होता है।
दुख को छिपाने की तरकीब है। आमोद-प्रमोद में कौन जाता है?मनोरंजन करने कौन जाता है गांव के बाहर?सिनेमा में, मनोरंजनगृह में कौन प्रवेश करता है? जो दुखी है। दुनिया जितनी दुखी होती जाती है, उतने ही मनोरंजन के साधन ईजाद करने पड़ रहे हैं; क्योंकि दुखी आदमी को भुलाने की जरूरत है कि कहीं भूले। एक आदमी दुखी होता है। लोग कहते हैं, चलो ताश खेलें भाई; चलो गपशप करें, रेडियो सुनें, कुछ गपशप करें, कुछ हंसें। कुछ बातचीत करते हैं, ताकि वह हंसी में भूल जाए दुख को।
हमारी हंसी एस्केप है, भुलाती है।
लेकिन इस डर से कि कहीं हमारी हंसी के कारण महापुरुष छोटा न हो जाए, तो महापुरुष में हंसी ही पोंछ देते हैं, मिटा देते हैं, समाप्त कर देते हैं। महापुरुष हंसता ही नहीं! उसकी मूर्ति बना देते हैं गुरु-गंभीर। वह बच्चे जैसा सहज नहीं मालूम पड़ता; वह बनावटी, बैठा हुआ ढोंगी मालूम पड़ने लगता है।
महावीर रहे होंगे बच्चे जैसे सहज, क्योंकि इतने जीवन के सत्य को जानने वाला बच्चे जैसा सरल हो जाता है। लेकिन क्या हमारी बनाई हुई तस्वीर से वे बच्चों जैसे सरल मालूम होते हैं? नहीं; हमारी तस्वीर में तो वे बड़े जटिल, बड़े सधे हुए मालूम होते हैं। हमारी मूर्ति में तो..वह हमारी बनाई हुई मूर्ति है..बिल्कुल सधे हुए मालूम पड़ते हैं, बिल्कुल तैयार मालूम पड़ते हैं। सरलता नहीं दिखाई पड़ती, वह बच्चे जैसा भाव नहीं दिखाई पड़ता, वे बच्चे जैसे हंसते हुए नहीं मालूम पड़ते। हंसे होंगे जरूर, क्योंकि अगर महावीर बच्चों जैसे नहीं हंस सकते तो कौन हंसेगा? अगर उतनी इनोसेंस, अगर उतना निर्दोष उस आदमी में नहीं आ सकता, और मैं मानता हूं कि जरूर आया होगा, क्योंकि महावीर नग्न हो गए बच्चों जैसे, खड़े हो गए सरल, सहज, स्पांटेनिअस। हंसे होंगे, खूब हंसे होंगे। लेकिन हमारा भय..हमारा भय...
मैं एक जगह एक घर में ठहरा हुआ था। घर के लोग मुझसे अपरिचित थे। सांझ हम बैठे थे। घर के दो-चार बच्चे थे, पत्नी थी, पति थे, गपशप होती थी, मैं खूब हंस रहा था। तभी घर के वृद्धजन ने बाहर से आकर कहा, हंसिए मत, दो-चार लोग आ रहे हैं।
तो मैंने कहा, क्या बात है?उन्होंने कहा, वे क्या कहेंगे कि आप और हंसते हैं? वे आपको एक महान संन्यासी समझ कर दर्शन करने आ रहे हैं।
तो मैंने कहा, हद हो गई। जब तुम जिंदा आदमी से कह सकते हो कि मत हंसो, तो तुमने मर गए तीर्थंकरों और महावीरों के साथ क्या किया होगा, कहना बहुत मुश्किल है। क्योंकि अब तो वे बेचारे इनकार भी नहीं कर सकते कि नहीं, हम हंसेंगे।
हमने ढाल ली है तस्वीर। सरलता को हमने जटिल ढांचे में खड़ा कर दिया है।
महावीर का तीसरा सूत्र और अंतिम बात आपसे कहूं। पहली बात मैंने कही, त्याग नहीं, ज्ञान; दुख नहीं, आनंद। और तीसरी बात आपसे कहना चाहता हूं: सधा हुआ साधना का व्यक्तित्व नहीं; सहज, सरल, जल की भांति तरल। सधा हुआ, कल्टीवेटेड, एक और तरह का आदमी होता है, जो कल्टीवेट करता है; जो एक-एक चीज को साध लेता है..बोलने को, उठने को, बैठने को, खाने को, कपड़े को..सब चीज को साध कर बैठ जाता है। उसको हम साधक कहते हैं! महावीर साधक नहीं हैं; महावीर सरल हैं।
सरल साधक कैसे हो सकता है? साधक का मतलब है फोस्र्ड, जिसने एक-एक चीज को नियंत्रण में लेकर खड़ा हुआ है..सांस रोक कर खड़ा हुआ है; आंख थाम कर खड़ा हुआ है; जिसने हर चीज को नियंत्रण में रखा हुआ है..कंट्रोल्ड। ऐसा आदमी झूठा आदमी होता है, अभिनेता होता है। महावीर तो अत्यंत सरल हैं। उनके जीवन में जो भी है, वह सीधा है और सरलता से निकल रहा है। लेकिन जब दूसरे लोग अनुकरण करने लगते हैं किसी सीधे और सरल आदमी का, तब मुश्किल शुरू होती है।
समझ लीजिए कि मैं सरलता से हंस रहा हूं, अब मेरा कोई अनुयायी पैदा हो जाए; हालांकि ऐसा पाप मैंने अब तक किया नहीं कि किसी को कहूं कि तुम मेरे अनुयायी हो, या मेरे शिष्य हो। हालांकि कई पागल मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमें अपना शिष्य बनाइए, हम तो पीछा छोड़ेंगे ही नहीं। हमको शिष्य बनाइए! ऐसे ही पागलों ने शायद महावीर और बुद्ध और सबका पीछा करके उनको पकड़ लिया होगा कि हम तो शिष्य बनेंगे।
अगर कोई अनुयायी देख ले कि मैं हंस रहा हूं और हंसना चाहिए, तो वह भी हंसेगा, लेकिन उसका हंसना पोज्ड होगा, साधक का हंसना होगा। वह भी मुस्कुराएगा; लेकिन वह मुस्कुराहट झूठी होगी, ऊपर से थोपी हुई होगी।
महावीर अत्यंत स्पांटेनिअस, सहज-स्फूर्त व्यक्तित्व हैं; जी रहे हैं, जैसा उन्हें आनंदपूर्ण मालूम हो रहा है। और हम उनके पीछे पकड़-पकड़ कर नियम खोज रहे हैं कि वे कैसे जी रहे हैं, क्या कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं!
महमूद गजनी में था..सम्राट गजनी का। एक दिन सुबह निकल रहा है गजनी के रास्ते से, एक मजदूर एक बहुत बड़ी पत्थर की चट्टान को लेकर ढो रहा है। महमूद ने देखा कि यह चट्टान ले जा रहा है। उसका पसीना-पसीना चू रहा है। उसकी आंखों में आंसू हैं। बूढ़ा आदमी है, जर-जर देह उसकी कंपती है। न मालूम किस दीनता में, किस दुख में, चट्टान ढोनी पड़ रही है उसे किस मजबूरी में। महमूद अपने घोड़े पर है। उसने चिल्ला कर कहा कि ऐ मजदूर! पत्थर को नीचे गिरा। गिरा दे इसी वक्त!
अब सम्राट ने आज्ञा दी, मजदूर ने पत्थर नीचे बीच सड़क पर गिरा दिया राजपथ पर। महमूद तो अपने घोड़े पर बैठ कर अपने घर चला गया। अब उस पत्थर को कौन हटाए, क्योंकि बादशाह ने पत्थर गिरवाया! तो बादशाह के वजीर, अनुयायी, बादशाह के अधिकारी कहने लगे जरूर कोई मतलब होगा। जब पत्थर गिराया तो मतलब होना चाहिए, क्योंकि महमूद कोई नासमझ तो नहीं है। जरूर कोई राज है इसमें। पत्थर हटाना मत। पत्थर जहां गिराया गया था, वहीं पड़ा रहा।
अब महमूद पत्थर गिरवा कर भूल-भाल गया। वह तो कोई और बात थी, इतनी बात थी कि मजदूर इतना थका-मांदा मालूम पड़ता था, तो उसने कहा, गिरा दो! वह तो अपने घर चला गया, बात खतम हो गई। अब वह पत्थर वहीं पड़ा रहा। एक साल बीत गया। रास्ते पर ट्रैफिक में दिक्कत होती है, निकलने में मुसीबत होती है, लेकिन पत्थर को हटाए कौन? महमूद ने गिराया है! महमूद से कहे कौन?उसकी विजडम पर, उसकी बुद्धिमत्ता पर शक कौन करे? कोई महमूद से कुछ कहता नहीं, महमूद को कुछ पता नहीं। महमूद बीस साल जिंदा रहा और वह पत्थर वहीं पड़ा रहा।
महमूद मर गया। उसका लड़का गद्दी पर बैठा। वजीरों ने कहा, पत्थर के बाबत क्या किया जाए? राजधानी में बड़ी तकलीफ है।
उसने कहा कि जिसको पिता ने किया था, मैं उसे कैसे इनकार कर सकता हूं? कोई राज होगा, कोई सीक्रेट होगा, कोई बात होगी। इतने बुद्धिमान आदमी थे! नहीं, उनके प्रति सम्मान के कारण पत्थर नहीं हटाया जा सकता। पत्थर वहीं रहेगा।
लड़का भी मर गया। तीसरी पीढ़ी आ गई, लेकिन पत्थर वहीं है। आगे का मुझे पता नहीं है। जहां तक सौ में निन्यानबे मौके हैं, पत्थर अभी भी वहीं होगा, क्योंकि वह महमूद ने गिरवाया था।
जीवन के सहज कृत्य, जिनका उस क्षण में कोई मूल्य होता है, पीछे चलने वाले पागल की तरह पकड़ लेते हैं और फिर उन्हीं के साथ बंधे रह जाते हैं, उन्हीं के साथ बंधे रह जाते हैं और उन्हीं को साधना बना लेते हैं।
किसी महापुरुष के जीवन को समझिए जरूर, अनुयायी कभी मत बनिए। समझिए; उसके जीवन में प्रवेश करिए; उसके जीवन के दबे हुए पर्दे उघाड़िए, खोलिए राज; पहचानिए उसकी आत्मा को; उतरिए शब्दों के भीतर, हटाइए सिद्धांतों को; जाइए उसके व्यक्तित्व में, उसके मनस में, उसकी साइकोलाजी में। अनुयायी मत बनिए, सिर्फ प्रवेश करिए।
और आप हैरान होंगे, किसी भी महापुरुष की आत्मा से एनकाउंटर, साक्षात्कार आपकी आत्मा को बदलने के लिए, आपकी अपनी आत्मा में क्रांति लाने के लिए एक अनूठी प्रेरणा बन कर उपस्थित हो जाता है।
अनुयायी बनने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी के पीछे जाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि हर आदमी को अपने भीतर जाना है, किसी के पीछे नहीं जाना है। लेकिन अपने भीतर जाने के लिए जो लोग अपने भीतर गए हों, उनके जीवन के रास्ते को ठीक से जानना और पहचानना। और केवल वही पहचान सकता है, जिसे अनुयायी बनने की जल्दी न हो; क्योंकि अनुयायी बनने की जल्दी में विचार करना संभव नहीं होता।
पक्षपात, संप्रदाय के भाव से, सामथ्र्य, समझ की, साक्षी बनने की, नहीं होती। फिर तो जल्दी पकड़ कर अनुगमन करने का भाव होता है कि जैसा वे करते हैं, वैसा हम करें। उनके सहज कृत्य हमारे लिए साधना बन जाते हैं। सीधी सी बात समझ लें, महावीर हैं निर्दोष, सीधे, बच्चे जैसे सरल-तरल, ऐसा व्यक्तित्व है उनका। साधक, महायोगी, योगी, महान तपस्वी, बारह वर्ष तक तपश्चर्या कर रहे हैं, भारी पराक्रम कर रहे हैं। इन सारी बातों में हमने उनके व्यक्तित्व की जो सहजता, उसको जीर्ण-शीर्ण कर दिया, और एक ऐसा व्यक्तित्व खड़ा कर लिया जो हमारा देखा हुआ ढांचा तो है लेकिन महावीर की आत्मा नहीं।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। मेरी बातें हो भी सकती हैं सब गलत हों। क्योंकि महावीर से मेरा मिलना नहीं हुआ, कोई बातचीत नहीं हुई। हो सकता है यह मेरे देखने का ढंग हो, यह मेरी अपनी दृष्टि हो। लेकिन मैं मजबूर हूं। महावीर को मैं वैसा ही तो देख सकता हूं, जैसा मैं देख सकता हूं। तो जो मैंने कहा, कोई जरूरी नहीं है कि उसमें सोचने-विचारने जाएं कि शास्त्र में लिखा है कि नहीं लिखा है। यह मेरी अपनी सोचने की दृष्टि हो सकती है। आप से मेरा यह भी आग्रह नहीं है कि मेरी बात को सच मान लें। कोई आग्रह नहीं। मैंने ये बातें कहीं। आपने सुनीं। इतना काफी है।
इनको थोड़ा सोच और लें तो काफी से थोड़ा ज्यादा हो जाएगा। उतनी कृपा बहुत है कि इन पर थोड़ा सोचें, विचार करें। महापुरुष को हम अपने बंधे हुए ढांचों में नहीं बांधें, मुक्त करें। और उस मुक्त चेतना के साथ खुले आकाश में उड़ें।
तो शायद हमारी आत्मा को भी पंख मिल सकते हैं। और हम भी वहां पहुंच सकते हैं जहां कोई भी कभी पहुंचा है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। 

मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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