भक्ति आंसुओ से उठी एक पूकार-प्रवचन-नौवा
दिनांक 29 जुलाई, 1977 ओशो आश्रम पूना।
सारसूत्र:
सोई सती सराहिए, जरै
पिया के साथ।।
जरै पिया के साथ, सोइ
है नारि सयानी।
रहै चरन चित लाय, एक
से और न जानी।।
जगत् करै उपहास, पिया
का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय, मेहर
की चादर ओढ़ै।
ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारै भूख-पियास याद संग चलती स्वासा।।
रैन-दिवस बेरोस पिया के रंग में राती।
तन की सुधि है नाहिं, पिया
संग बोलत जाती।।
पलटू गुरु परसाद से किया पिया को हाथ।
सोई सती सराहिए, जरै
पिया के साथ।।
तुझे पराई क्या परी अपनी आप निबेर।।
अपनी आप निबेर, छोड़ि
गुड़ विस को खावै।
कूवां में तू परै, और
को राह बतावै।।
औरन को उजियार, मसालची
जाय अंधेरे।
त्यों ज्ञानी की बात, मया
से रहते घेरे।।
बेचत फिरै कपूर, आप
तो खारी खावै।
घर में लागी आग, दौड़
के घूर बुतावै।
पलटू यह सांची कहै, अपने
मन को फेर।
तुझे पराई क्या परी, अपनी
और निबेर।।
पलटू नीच से ऊंच भा, नीच
कहै ना कोय।।
नीच कहै ना कोय, गए
जब से सरनाई।
नारा बहिके मिल्यो गंग में गंग कहाई।।
पारस के परसंग, लोह
से कनक कहावै।
आगि मंहै जो परै, जरै
आगइ होइ जावै।।
राम का घर है बड़ा, सकल
ऐगुन छिप जाई।
जैसे तिल को तेल फूल संग बास बसाई ।।
भजन केर परताप तें, तन
मन निर्मल होय।
पलटू नीच से ऊंच भा, नीच
कहै न कोय।।
गंधराज यहां कहां?
खुश्बू भर छायी है
हवा की लहरियों के संग तैर आयी है।
फलों के संपुट में सधी नहीं
सीमा के घेरे में बंधी नहीं
दूर-दूर फैला अवकाश नाप लायी है
गंधराज यहां कहां ? खुश्बू
भर छायी है।
इस जगत् में जो सौंदर्य है, वह
असली सौंदर्य नहीं है--असली सौंदर्य की झलक मात्र है।
इस जगत् में जो प्रेम है, वह
असली प्रेम नहीं है--प्रेम का प्रतिबिंब मात्र।
इस जगत् में जो उत्सव चल रहा है, वह
असली उत्सव नहीं है--उत्सव की प्रतिध्वनि मात्र।
गंधराज यहां कहां?
खुश्बू भर छायी है
हवा की लहरियों के संग तैर आयी है।
वह जो राजा है गंधों का, वह
बहुत दूर है;
लेकिन उस गंधराज की खुश्बू हवाओं के साथ तैरती यहां तक भी आ गयी
है। पदार्थ में भी परमात्मा का प्रतिबिंब पड़ रहा है। संसार में भी उसकी थोड़ी-सी
सुवास है। इस सुवास का सूत्र पकड़कर उस परम प्यारे की तरफ बढ़ने का नाम ही भक्ति है।
संसार में प्रेम का पाठ जिसने पढ़ा उसने
संसार का उपयोग कर लिया। यह पाठशाला है--प्राथमिक पाठशाला, जहां
जीवन की परम संपदा का क ख ग सीखा जाता है। प्रिय से हो प्रेम, प्रेयसी
से हो,
मित्र से हो, बेटे से हो, पिता
से हो,
मां से हो, भाई से हो, बहन
से हो--ये सब पाठ हैं। बड़ी दूर की खबर है। इन पाठों को जो ठीक से सीख लेता है, उसके
जीवन में परमात्मा का प्रेम पैदा होता है। और जब तक वह प्रेम पैदा न हो जाए तब तक
आदमी प्यासा ही रहता है। यह प्रेम, इस संसार के
प्रेम,
प्यास को और भड़काते हैं, जगाते हैं; बुझाते
नहीं। इससे और अग्नि की लपटें प्रकट होती हैं। इससे भूख और स्पष्ट होती है। इससे
क्षुधा गहरी होती है। इससे असंतोष और जगता है। इसलिए तो यहां का जितना पानी पियोगे, उतनी
प्यास बढ़ती चली जाती है।
जीसस के जीवन में उल्लेख है। एक यात्रा पर
आए हैं। एक गांव के बाहर रुके हैं। पानी भरती एक पनिहारिन से पानी पिलाने को कहा
है। पनिहारिन ने जीसस को देखा। उसने कहाः "मैं नीच कुल की हूं, शायद
आपको पता नहीं। मेरे हाथ का पानी आप पिएंगे?'
जीसस हंसे और जीसस ने कहा ः "तू फिक्र
मतकर। तू मुझे पानी पिला। तेरा पानी तो मेरी प्यास को थोड़ी-बहुत देर को बुझाएगा।
यह तो बहाना है तुझसे संबंध बनाने का। अगर तूने मुझे पानी पिलाया तो मैं तुझे ऐसा
पानी पिलाऊंगा कि वह सदा के लिए प्यास बुझा देता है। मैं तेरे कुएं पर आया हूं, ताकि
तू मेरे कुएं पर आ जाए। तेरे पनघट पर आना मेरा प्रयोजन से हुआ है, ताकि
मैं तुझे अपने पनघट पर बुला लूं।'
इस स्त्री ने जीसस की आंखों में देखा। वहां
परम तृप्ति थी। वहां अपूर्व आलोक था। जीसस की हवा में प्रसाद था। वह भागी गांव गई।
उसने अपने गांव के लोगों को कहा कि तुम सब आ जाओ, पहली
दफा किसी आदमी में मुझे ऐसा दिखायी पड़ा है कि परमात्मा झलक रहा है। पहली दफा किसी
आदमी की मौजूदगी से मुझे परमात्मा का प्रमाण मिला है। और उसने एक शब्द भी नहीं कहा
परमात्मा का। उसने इतना ही कहा है कि जो मेरे कुएं से पिएगा, उसकी
प्यास सदा के लिए बुझ जाती है।
परमात्मा को पीए बिना प्यास सदा के लिए
बुझती नहीं। संसार को तो पीयो, और पीयो और पीयो, जन्मों-जन्मों
तक पीयो,
क्षणभर को बुझती लगती है प्यास, बुझती नहीं कि
फिर लग जाती है। एक प्यास दूसरी प्यास में ले जाती है; एक
वासना दूसरी वासना में। एक इच्छा दूसरी इच्छा को जन्माती है। परमात्मा को पी कर सब
प्यास बुझ जाती है।
परमात्मा यानी परम तृप्ति।
परमात्मा यानी आत्यंतिक परितोष। फिर उसके
पार कुछ पाने को नहीं है। इसलिए उसको कहते हैं ः "परम प्यारा'।
और भक्ति तो उस परम प्यारे की तलाश है।
आज के सूत्र भक्ति की ओर गहराइयों में ले चलते
हैं।
"सोई
सती सराहिए,
जरै पिया के साथ।'
"सोई
सती सराहिए. . .।'
उस प्रेयसी की ही प्रशंसा करो, जो अपने प्यारे
के साथ जलने को तैयार है; जल जाए।
सती की धारणा बड़ी अपूर्व है। सिर्फ इस देश
में पैदा हुई। जब सती की धारणा अपने शुद्धतम रूप में थी, तो
अपार्थिव थी;
जैसे उस परम की कोई बात हम इस जगत् में उतार लाए थे! जो यहां नहीं
घटती है,
जो इस क्षणभंगुर में नहीं घटती है, वह
हमने सती के माध्यम से यहां घटा कर बताया था। फिर जब विकृत हो गयी तो, बड़ी
विकृत हो गयी। ब्रिटिश राज्य ने सती की जिस प्रथा को बंद किया; वह
तो विकृत दशा थी;
वह असली सती की धारणा बची ही न थी। सती की धारणा अति-मानवीय है। और
जिस सती की प्रथा को अंग्रेजों ने बंद किया, वह अमानवीय हो
गयी थी।
मनुष्य कुछ ऐसा है कि श्रेष्ठतम भी इसके हाथ
में पड़ता है तो देर-अबेर गंदा हो जाता है। शुद्धतम भी इसके हाथ में दो, जल्दी
ही धूलभरा हो जाता है। आदमी कुछ ऐसा है कि सोना भी छूता है तो मिट्टी हो जाती है।
इसलिए श्रेष्ठतम धारणाएं भी आदमी के हाथ में पड़ कर जंजीरों में ढल जाती हैं, विकृत
हो जाती हैं। पुण्य भी पाप हो जाते हैं। नीति अनीति हो जाती है। धर्म अधर्म हो
जाता है। आदमी की गंदगी ऐसी है।
सती की धारणा बड़ी अपूर्व धारणा है। सती का
अर्थ है ः एक को चाहा तो फिर उस चाहत को कहीं और न जाने दिया। फिर उस चाहत को एक
में ही पूरा डुबा दिया। एक को चाहा तो अनेक को भुला दिया। और अगर अनेक भूल जाएं, तो
फिर एक में ही परमात्मा का दर्शन शुरू हो जाता है। क्योंकि एक यानी परमात्मा।
इसे समझना।
एक यानी परमात्मा; अनेक
यानी संसार। जब तक तुम्हारा प्रेम अनेक पर भटकता है--एक से दूसरे, दूसरे
से तीसरे,
तीसरे से चौथे; जब तक तुम्हारा प्रेम ऐसा भटकता है, भिखारी
है, भिखमंगा
है; जब
तक तुम्हारा प्रेम अकंप होकर एक जगह नहीं बैठ गया है; जब
तक तुम्हारे प्रेम ने समाधि नहीं साध ली है, किसी एक में ही
डुबकी नहीं लगा ली है--तब तक संसार। और अगर प्रेम एक में ही डुबकी लगा ले, तो
उसी एक से परमात्मा का द्वार खुल जाएगा। सांसारिक प्रेम में बड़ा छिपा है राज। काश, तुम
एक को पूरी तरह प्रेम कर पाओ, तो सांसारिक प्रेम भी असांसारिक प्रेम में
रूपांतरित हो जाता है!
सांसारिक और असांसारिक प्रेम में फर्क ही
क्या है?
अनेक का प्रेम ः संसार। एक का प्रेम ः असंसार। तो अगर तुम संसार
में भी एक को प्रेम कर पाओ, और एक पर ही सब भांति निछावर हो जाओ--इस
भांति निछावर हो जाओ कि उसी में तुम्हारा जीवन और उसी में तुम्हारी मृत्यु! अगर
तुम्हारा प्यारा मर जाए तो तुम भी मर गए। उससे अलग तुमने न जीवन सोचा था, न
जाना था;
न उससे अलग जीवन की तुम कल्पना कर सकते हो। उसके बिना श्वास चलेगी
ही नहीं। उसके कारण ही चलती थी। उसके संग-साथ चलती थी। उसके भीतर प्राण धड़कते थे
तो तुम्हारे प्राण धड़कते थे। तुमने अपने दोनों के प्राण साक्षीदार बना लिए थे; एक
में डूबा दिए थे। दो सिर्फ देहें रह गयी थीं; प्राण एक हो गए
थे। तो फिर एक मर जाए तो दूसरे को जीने का कोई अर्थ नहीं बचता।
यह तो अति-मानवीय धारणा थी। पुरुष इस ऊंचाई
पर नहीं उठ सका। पुरुष ध्यान की तो ऊंचाइयों पर उठा, लेकिन
प्रेम की ऊंचाइयों पर नहीं उठ सका। इसलिए स्त्रियां ही सती हुईं। भक्ति स्त्री के
लिए सुगम है। भाव की बात है। हृदय की बात है।
बुद्ध हुए, महावीर
हुए, पतंजलि
हुए--ये सब ध्यानी हैं। लेकिन पुरुषों में एक भी अपनी प्रेयसी पर नहीं मरा--इतना
डूबा नहीं एक में! पुरुष का चित्त चंचल होकर दौड़ता ही रहा। अनेक स्त्रियां एक
पुरुष में डूब गईं; सती की ऊंचाई पर उपलब्ध हुईं।
पुरुषों में जो संत की दशा है, वही
स्त्रियों में सती की दशा है। और दोनों शब्द बने हैं सत् से। इसे स्मरण रखना। सती
क्यों कहा?
जो शब्द "संत' को बनाता है
"सत्',
वही शब्द "सती' को बनाता है। सती
यानी संत--प्रेम का संतत्व। एक में डूब गयी। इस तरह डूब गयी कि अपने जीवन का अलग
होने का कोई प्रयोजन ही न बचा; अलग होने की कोई धारणा ही न बची, कोई
विचार न बचा। तो जब प्रेमी गया तो प्रेमी के साथ चिता पर चढ़ गयी। इसमें न तो
आत्मघात है। इसमें न अपने साथ जबरदस्ती है। यहां तो प्रश्न ही नहीं बचा। दोनों एक
ही हो गए थे। इसलिए न तो यह आत्मघात है और न यह स्त्री अपने शरीर की दुश्मन है। और
न यह कोई हिंसा कर रही है। यह तो प्रेम की परम प्रतिष्ठा हो रही है।
यह तो जब सती की धारणा आकाश छू रही थी, तब
की बात। फिर धीरे-धीरे यह विकृत हुई। फिर पुरुष के अहंकार ने इसको विकृत कियाः
स्त्री के अहंकार ने इसको विकृत किया। फिर ऐसी स्त्रियां भी सती होने लगीं, जिनको
पति से कुछ मतलब न था; लेकिन प्रतिष्ठा के लिए होने लगीं। अगर सती
न हों तो लोग समझते हैंः "पतिव्रता नहीं हो।' मजबूरी
से होने लगीं। कर्तव्य भाव से होने लगीं। जो प्रेम से घटती थी महान् घटना, वह
जब कर्तव्य हो गयी तो फिर महान् नहीं रही, क्षुद्र हो गयी, साधारण
हो गयी। सोच-विचार कर मरने लगी। लोग क्या कहेंगे, लोक-लाज
से मरने लगीं।
और लोग भी ऐसे मूढ़ थे कि उन्होंने इसे नियम
भी बना लिया। अगर कोई पति मरे, उसकी पत्नी उसके साथ न मरे, तो
लोग कहने लगे ः "अरे, यह भ्रष्ट है। यह सती नहीं है।' तो
इतना अपमान और अनादर होने लगा कि उससे यही बेहतर था कि मर ही जाओ। इतना अनादर, इतना
अपमान सहने से यही बेहतर था मर जाओ। लेकिन यह मर जाना दुःखपूर्ण था; यह
आत्मघात था। फिर हालत और भी बिगड़ी। फिर तो हालत यहां तक बिगड़ी कि जो स्त्रियां न
मरें. . . क्योंकि कुछ स्त्रियां ऐसी भी थीं. . . और स्वाभाविक, क्योंकि
जीवेषणा बड़ी प्रबल है, हजार में कोई एकाध सती हो सकती है। जब तुम
नौ सौ निन्यानबे को भी उसके साथ डालने लगोगे तो झंझट आएगी। शायद नौ इसलिए सती हो
जाएं कि लोक-लज्जा से मर जाना बेहतर है। लोक-लाज खोने से मरना बेहतर है। प्रतिष्ठा
से मर जाना बेहतर है अप्रतिष्ठा से जीने की बजाय। तो शायद हजार में नौ इसलिए मर
जाएं। मगर,
वे जो नौ सौ नब्बे बचती हैं, उनके लिए क्या
उपाय है?
उनमें से नौ सौ नब्बे ने तो यही तय किया कि चाहे अप्रतिष्ठा से
जीना हो,
मगर जीएंगे। जीना इतना महत्त्वपूर्ण है! इसमें कुछ उन्होंने बुरा
किया, ऐसा
मैं कह भी नहीं रहा हूं। इसमें निंदा की कोई बात ही नहीं थी; यह
बिल्कुल स्वाभाविक है। जिन्होंने सती होना चुना--एक हजार में--उसने तो बड़ा
अतिमानवीय कृत्य किया; उसने तो प्रार्थना का अपूर्व कृत्य किया।
उसका तो जितना सम्मान हो, थोड़ा है।
"सोई
सती सराहिए,
जरै पिया के साथ।'
लेकिन जिन नौ ने प्रतिष्ठा खोने की बजाय मर
जाना ठीक समझा,
यह तो अहंकार की पूजा है; इसमें कुछ प्रेम
की पूजा नहीं है;
इनकी कोई सराहना नहीं हो सकती। सराहना की कोई जरूरत नहीं है। ये
क्षुद्र अहंकार की बलिवेदी पर मिट गयीं। और जिन नौ सौ ने तय किया न मरने का, यह
उनका हक है। जो न मरना चाहे, उसे कोई जबरदस्ती मारे, तो
यह हिंसा है। उनका कोई अपमान करने की जरूरत नहीं है। वे सामान्य जन हैं। लेकिन
समाज ने उनको जबरदस्ती मारना शुरू कर दिया। फिर तो ऐसा इंतजाम हो गया कि जबरदस्ती
स्त्रियों को ले जाने लगे मरघट, घसीटकर ले जाने लगे; स्त्रियां
भाग रही हैं और उनको घसीटकर ले जाया जा रहा है। स्त्रियों को जबरदस्ती चिता पर
फेंका जा रहा है। फिर इतना घी और इतना तेल उनके ऊपर फेंका जाता था, ताकि
आग जल्दी पकड़ जाए,
वे जल्दी मर जाएं। फिर चारों तरफ पंडित-पुरोहित डंडे लेकर खड़े रहते
थे कि अगर कोई स्त्री भागने लगे. . . क्योंकि मरना, जलना
आग में जीते जी कोई साधारण तो बात नहीं। उन पंडितों में से भी कोई नहीं जलता था
कभी। पुरुषों ने यह झंझट कभी ली नहीं थी। तो चारों तरफ मशालें लिए खड़े रहते लोग।
जैसे कोई स्त्री उसमें से भागने लगती. . . आग में से कौन न भागना चाहेगा! ज़रा-सा
हाथ जल जाता है तो तुम्हें पीड़ा का पता है; जीते-जी किसी को
फेंकोगे तो वह भागेगी। तो डंडों से उसे वापिस, मशालों से उसे
वापिस आग में गिरा देना. . .। और इतना धुआं करते थे भी फेंककर कि किसी को यह
दिखायी न पड़े कृत्य। यह सीधी हत्या थी--और बड़ी नृशंस हत्या!
अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को बंद किया, ठीक
किया कि बंद किया। यह बात ही खो गयी थी। असली बात तो खो ही गयी थी। यह तो अमानुषिक
अत्याचार चल रहा था।
मगर सती की धारणा तो बड़ी अद्भुत है। कभी
हजार में कोई एक!
पलटू कहते हैं ः जैसे सती होती है, ऐसे
ही भक्त भी होता है। भक्त का अपना कोई जीवन नहीं होता; परमात्मा
का जीवन ही उसका जीवन होता है। उसकी श्वास, भक्त की श्वास।
परमात्मा के साथ ही जीने में उसे रस होता है। परमात्मा से अलग होकर जीने में उसे
रस नहीं होता। परमात्मा के साथ रहकर नरक भी मिले तो भक्त राजी होगा और परमात्मा के
बिना बैकुंठ मिले तो वह लात मार-मार देगा।
"सोई
सती सराहिए,
जरै पिया के साथ।।
जरै पिया के साथ, सोई
है नारी सयानी।
रहै चरन चित लाय, एक
से और न जानी।।'
जरै पिया के साथ, सोई
है नारी सयानी। वही स्त्री बुद्धिमान है, जो प्रेमी के
प्रेम में जल जाए;
जो प्रेम में मिट जाए; जो प्रेम में मर
जाए; प्रेम
जिसके लिए समाधि बन जाए। भक्त तो कहते हैं कि सभी हम नारी हैं, परमात्मा
को अगर ध्यान में रखें। परमात्मा ही एकमात्र पुरुष है; शेष
तो सब नारियां हैं।
नारी का अर्थ होता है, जिनके
भीतर, परमात्मा
के बिना रहने की सामर्थ्य नहीं है। वृक्ष पर बेल चढ़ती है। बेल वृक्ष के बिना नहीं
रह सकती। वृक्ष बेल के बिना रह सकता है। इसलिए बेल नारी है। वृक्ष पुरुष है। हम
परमात्मा के बिना नहीं रह सकते; परमात्मा हमारे बिना रह सकता है। इसलिए
परमात्मा पुरुष है और सारा जगत् नारी है।
वह जो कृष्ण का रास तुमने देखा हो या सुना
हो, वह
जो रास में नाचती हुई हजारों-हजारों सखियां और कृष्ण का बीच में बांसुरी बजाना, वह
सारे जगत् का चित्र है; वह ब्रह्मांड का चित्र है। कृष्ण यानी पुरुष; एक; परमात्मा।
और वे सारी सखियां यानी सारा संसार।
मनुष्य अपने-आप में पूरा नहीं है--स्त्रैण।
परमात्मा अपने-आप में पूरा है--पुरुष। मनुष्य निर्भर है, इसलिए
स्त्रैण। मनुष्य को सहारा चाहिए--इसलिए स्त्रैण। पलटू कहते हैं ः वही मनुष्य सयाना
है, होशियार
है, बुद्धिमान
है, जो
प्राण-प्यारे के साथ जलने को तैयार है। जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, उनको
तो पलटू गंवार कहते हैं। हम बुद्धिमान उनको कहते हैं, जो
परमात्मा को छोड़कर संसार को पकड़ने में लगे हैं। पलटू उसे बुद्धिमान कहते हैं, जो
सब छोड़ कर परमात्मा को पाने में लगता है; अपने को छोड़कर जो
परमात्मा को पाने में लगता है; अपने को भी मिटा कर परमात्मा को खरीदने चलता
है।
"जरै
पिया के साथ,
सोई है नारी सयानी।'
"सोई
सती सराहिए. . .।'
उसकी ही सराहना करो। उस भक्त की ही प्रशंसा के गीत गाओ।
अब तो प्रेम की वैसी अपूर्व धारणा न रही। और
उस प्रेम की अपूर्व धारणा के खो जाने के कारण, प्रार्थना भी खो
गयी, भक्ति
भी खो गयी।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मुझसे एक दिन कह
रही थी ः "सच पूछो तो बच्चों ने हमारा तलाक होते-होते रुकवा दिया।' मैंने
पूछा ः "वह कैसे?' तो मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा
ः "तलाक के बाद बच्चों को पास रखने के लिए न मैं तैयार थी और न मुल्ला।'
ऐसे ही संबंध रह गए हैं। औपचारिक हैं।
व्यवस्थागत हैं। आर्थिक हैं, सामाजिक हैं। सुरक्षा के लिए हैं, सुविधा
के लिए हैं। लेकिन आंतरिक ज्योति खो गयी है। हार्दिक नहीं हैं। आर्थिक हैं, सामाजिक
हैं, राजनीतिक
हैं, लेकिन
धार्मिक नहीं हैं। और जब इस जगत् के सारे संबंध ही अधार्मिक हो जाते हैं तो उस
परम संबंध की तरफ आंखें उठनी मुश्किल हो जाती हैं क्योंकि इन्हीं सीढ़ियों से तो चढ़
कर हम उसके मंदिर तक पहुंचते हैं।
जिन दिनों सती की परम धारणा जगत् में थी, उन
दिनों बहुत स्त्रियों ने परमात्मा को पाने का मौका पाया । यह आकस्मिक नहीं था कि मीरां
हो सकी,
कि राबिया हो सकी। आज मीरां और राबिया का होना कठिन है। इस बात की
असंभावना है कि पश्चिम में मीरां हो सके; और आज नहीं कल पूरब में भी नहीं हो सकेगी। क्योंकि वह बात
ही खो गई कि एक पर सब समर्पित कर दो। समर्पण का वह भाव ही खो गया। काम-चलाऊ संबंध
हैं अब। जिससे बनती है दो दिन, ठीक। जब तक बनती है, तब
तक ठीक। जब तक अपने हित में है तब तक ठीक
जितना शोषण तुम कर सको दूसरे का, कर लो; और इस बीच जितना
शोषण वह कर सके तुम्हारा, कर ले। सारे संबंध शोषण के हैं।
पत्नी पति के साथ बंधी रहती है, क्योंकि
अब कहां छोड़े! इस उम्र में कौन दूसरा पति मिलेगा! बच्चे हैं, इनकी
व्यवस्था क्या होगी! फिर धन कहां कमाएगी! जिंदगीभर बिना कमाने के रहने की आदत पड़
गयी। अब बड़ी मुश्किल हो गयी है। किसी तरह बने रहो, बनाए
रहो। पति है,
वह भी नहीं छोड़ता; सोचता है ः "अब कहां जाऊं, कहां
खोजूं! फिर से सब शुरू करूं--अ, ब, स से। जिंदगी तो
हाथ से बीत गयी है। फिर बच्चे भी हैं। फिर समाज की प्रतिष्ठा की भी बात है। फिर
लोग क्या कहेंगे! रुके रहो।' मगर यह रुकना प्रेम का रुकना न रहा। यह
विवाह तलाक से बहुत भिन्न नहीं है।
आज तो सौ में से निन्यानबे विवाह तलाक से बहुत
भिन्न नहीं हैं। सिर्फ कानूनी हैं। जो संबंध है, वह
कानून का है,
कि कौन अदालत में जाए, अब कौन झंझट खड़ी
करे, एक-दूसरे
पर मुकदमा चलाए! ठीक है, खींचते रहो, किसी
तरह सुविधा बनी है, बनाए रहो; चलाए
जाओ, चार
दिन की जिंदगी है,
बीत ही जाएगी आज नहीं कल। इतने दिन बीत गए; और
थोड़े बचे,
वे भी बीत जाएंगे, लेकिन कोई पुलक नहीं साथ का। कोई आनंद नहीं।
कोई रस नहीं बह रहा है।
जब सामान्य जीवन में ऐसा हो जाए, तो
फिर हमारी आंखें उस असामान्य की तरफ कैसे उठें? इसलिए भक्ति खो
गई है। लोग कहते हैं कि कलियुग में भक्ति ही एकमात्र मार्ग है; लेकिन
मुझे ज़रा संदेह मालूम पड़ता है। जब प्रेम ही नहीं बचा तो भक्ति कैसे बच सकती है? जब
प्रेम में ही अनन्य भाव नहीं रहा है कि एक से ही डुबकी लगा लेनी है, कि
एक से ही पूरे-पूरे बंध जाना है, जनम-जनम के लिए; जब
प्रेम में ही यह बात नहीं रही--तो तुम कहां से सीखोगे भक्ति का पाठ। यह तो प्रेम
का ही गणित जब बहुत फैल जाता है तो भक्ति बनता है। यह तो प्रेम का ही आंगन
फैलते-फैलते भक्ति का आकाश बनता है। आंगन ही न बचा तो आकाश तक तुम जाओगे कैसे?
इसलिए मुझे लगता नहीं, लोग
भला कहते हों कि कलियुग में भक्ति ही एक-मात्र उपाय है। दिखता नहीं। भक्ति के लिए
भी उतना ही सतयुग चाहिए, जितना ज्ञान के लिए। असल में भक्ति और ज्ञान
अलग-अलग युग की बात नहीं है। जब परमात्मा की तरफ आदमी की आंख उठती है तो दोनों तरफ
से उठ जाती है--या तो ध्यान से या प्रेम से।
किसको पाती लिखूं और किस परदेसी का पंथ
निहारूं?
कैसे मन बहलाऊं? मेरी
बगिया सूनी,
आंगन सूना
मेरे साथी केवल दो हैंः प्यासी धरती, गगन
उदासा
राह निहारें व्याकुल आंखें; मन
भी प्यासा,
तन भी प्यासा
लेकिन मेरा प्राण-पपीहा कैसे अपन पी को टेरे?
आशाओं के बादल बीते, सपनों
का सावन सूना
चारों ओर पड़े हैं लाखों मिट्टी के बेजान
खिलौने,
सारी रात बुलाने मुझको कितने ही बेशर्म
बिछौने,
अकसर माकी थे बिंदिया रो-रोकर मुझको यूं
कहती है--
किस पर मान करूं सखी, मेरे
बिछुवे सूने कंगन सूना
है पूनम की रात मगर मैं कैसे पग में पायल
बांधूं
किसकी मुरली की धुन सुन लूं, किस
कान्हा पर तन-मन वारूं
यमुना के तट पर चिर-परिचित बंसी-वट भी मौन
खड़ा है
कैसे रास रचाऊं, मेरी
सांसों का वृंदावन सूना!
किसको पाती लिखूं और किस परदेसी का पंथ
निहारूं?
कैसे मन बहलाऊं? मेरी
बगिया सूनी,
मेरा आंगन सूना
पुरवाई तन को झुलसाए, खिलता
चांद देख अलसाऊं
लहरों का गीत सताए, हंसते
फूल देख मुरझाऊं,
एकाकीपन से घबरा कर दोनों नयन मूंद लूं, लेकिन
किसका रूप निहारूं? मेरे
अंतरतम का दर्पन सूना
किस पर मान करूं सखी, मेरे
बिछुवे सूने,
कंगन सूना
है पूनम की रात, मगर
मैं कैसे पग में पायल बांधूं?
किसकी मुरली की धुन सुन लूं, किस
कान्हा पर तन-मन वारूं?
यमुना के तट पर चिर-परिचित बंसी-वट भी मौन
खड़ा है
कैसे रास रचाऊं, मेरी
सांसों का वृंदावन सूना
किसका रूप निहारूं, मेरे
अंतरतम का दर्पन सूना!
नहीं, अगर प्रेम खो जाए
तो भक्ति भी बच न सकेगी। प्रेम बचे तो ही भक्ति की संभावना बचती है; क्योंकि
प्रेम के ही पाठ भक्ति के शास्त्र की तरफ इंगित करते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी एक
व्यक्ति को अपूर्व भाव से प्रेम करता है, अनन्य भाव से
प्रेम करता है--ऐसा प्रेम करता है कि अपना जीवन निछावर कर देने को तैयार है। तभी
जीवन में पहली दफा एक घटना घटती है, अहंकार विसर्जित
हो जाता है। जब मैं मिटने को तैयार हो जाता हूं किसी के प्रेम में तो फिर मेरा
अहंकार बचता ही नहीं। अहंकार ही कहता है कि मिटो मत, अपने
को मारो मत;
दूसरे को चूस लो जितना चूसना हो अपने लाभ के लिए--लेकिन अपने को
बचा कर।
प्रेम अहंकार की मृत्यु है। प्रेम की तलवार
गिरती है अहंकार पर तो अहंकार का सिर कट ही जाता है। और जब अहंकार का सिर कट जाता
है तो तुमने जिस एक को प्रेम किया था उसमें तुम्हें मनुष्य नहीं दिखायी पड़ेगा; जैसे
ही अहंकार का पर्दा आंख से हटा कि तुम्हें उसमें परमात्मा दिखायी पड़ेगा। और एक में
परमात्मा दिख जाए तो फिर तुम्हारी आंख योग्य हो गयी, कुशल
हो गयी। फिर तुम जहां देखोगे वहां परमात्मा दिखायी पड़ेगा--अपनों में भी, परायों
में भी;
मित्रों में भी, शत्रुओं में भी; पत्थर-पहाड़
में भी। फिर तुम्हारी आंख जहां देखेगी, वहां परमात्मा को
ही निहारेगी। एक बार एक में तो दिख जाए, तो फिर अनेक में
दिखायी पड़ जाएगा। लेकिन एक में ही न दिखायी पड़े तो अनेक में कैसे दिखायी पड़े?
इसलिए मैं संसार का विरोधी नहीं हूं--भक्त
कभी नहीं रहे हैं। भक्तों ने संसार को छोड़ देने के लिए नहीं कहा। भक्तों ने कहा ः
सीढ़ी बना लो संसार की। इसी से धीरे-धीरे भक्ति की यात्रा शुरू होगी। इसी से
धीरे-धीरे भक्ति की तरफ उठोगे।
"रहै
चरन चित लाय एक से और न जानी।
जरै पिया के साथ सोई है नारी सयानी।।'
उस एक के ही चरणों में डूबी रहे। हृदय में
उस एक के ही चरण विराजमान हो जाएं। "रहे चरण चित लाय'. . .।
बस उसकी स्मृति बनी रहे। . . ."एक से और न जानी'।
और एक परमात्मा के सिवाय हृदय में कोई दूसरा भाव न हो
अक्सर लोग परमात्मा खोजते भी हैं तो
परमात्मा भी और बहुत-सी वासनाओं में एक वासना होता है। धन भी खोज रहे हैं, पद
भी खोज रहे हैं,
प्रतिष्ठा भी खोज रहे हैं--और सोचते हैं ः "थोड़ा घड़ी आधा घड़ी
परमात्मा में भी लगा दो, कौन जाने हो ही; शायद
आखीर में पता चले कि है, मरने पर पता चले कि है, तो
ऐसा न हो कि हमने कुछ भी न किया था। सब संभाल लो। दुकान भी चला लो, बाजार
भी संभाल लो,
पद की दौड़ भी दौड़ लो, क्योंकि कौन जाने
परमात्मा इत्यादि हो ही न, सिर्फ बातचीत ही हो, तो
कहीं हम संसार से न चूक जाएं।' इसको तुम होशियारी कहते हो। इसको तुम
समझदारी कहते हो। इसको तुम सयानापन कहते हो कि सब संभाल लो, दोनों
हाथ लड्डु संभाल लो। यह भी संभाल लो, उसको भी संभाल
लो. . .।
तो आदमी चौबीस घंटे में घड़ीभर मंदिर में चला
जाता है,
मस्जिद में चला जाता है, गुरुद्वारा चला
जाता है। घड़ीभर बैठ कर पढ़ लेता है--जपुजी का पाठ कर लेता है, कि
गीता पढ़ लेता है,
कि कुरान की आयतें दोहरा लेता है। सोचता हैः चलो भगवान से निपटे; अब
संसार में लगें। तेईस घंटे संसार में दौड़ता है, एक घंटा परमात्मा
को दे देता है। यह कोई भक्ति की बात नहीं। भक्त तो चौबीस घंटे अहर्निश परमात्मा
में डूबा है। और ऐसा भी नहीं कि भक्त संसार से भाग जाता है। संसार के सारे काम को
करता रहता है;
जैसे कोई अभिनेता करता हो नाटक में। उसने भेजा है, तो
उसका काम तो पूरा कर देना है। लेकिन कर्ता-भाव नहीं लाता। मैं कर रहा हूं, ऐसा
भाव पैदा नहीं करता। वह करवा रहा है तो करता जाता है। गृहस्थी दी तो गृहस्थी।
बच्चे दिए तो बच्चे। दुकान चलवाता है तो दुकान चला लेते हैं। लेकिन भीतर अहर्निश
चौबीस घंटे पाठ चल रहा है, स्मृति चल रही है, सुरति
चल रही है। सोते-जागते याद उसकी ही बनी है। संसार की हर अवस्था में, लेकिन
याद उसकी तरफ लगी हुई है।
कबीर कहते हैं ः जैसे पनिहारिन पानी भर कर
घर की तरफ चलती है, सिर पर मटकी संभाले है, दो
और तीन मटकियां संभाले है, हाथ भी नहीं लगाती मटकियों का, सहेलियों
से बातें करती चलती है, गीत गाती चलती है, गपशप
करती चलती है। यह सब गपशप भी चलती है, राह पर चलना भी
पड़ता है,
मटके सिर पर भी हैं, फिर भी उसका
ध्यान तो मटको को संभाले रखता है। पूरे वक्त सुरति तो उसकी मटको में लगी रहती है।
जैसे मां सोती है रात, तूफान उठे, आंधियां
चलें, आकाश
में बादलों की गर्जना हो, उसकी नींद टूटती। उसका छोटा-सा बच्चा ज़रा-सा
कुनमुनाए,
और उसकी नींद टूट जाती है। क्यों? एक
सुरति बनी। रात की नींद में भी उसे याद है कि छोटा बच्चा है। रात की नींद में भी
उसे याद है कि छोटे बच्चे की जरूरतें हैं। रात की नींद में भी प्रेम का धागा बंधा
है। आंधी आती है तो नींद नहीं टूटती। बादल घुमड़ते हैं तो नींद नहीं टूटती। बिजली
कड़कती है तो नींद नहीं टूटती। लेकिन यह छोटा-सा बच्चा ज़रा कुनमुनाता है कि नींद
टूट जाती है। एक सुरति का धागा भीतर बंधा है। जैसे पनिहारिन अपनी मटकियों में
ध्यान को रखती है--करती और सब काम है लेकिन ध्यान मटकी में लगा रहता है; जैसे
मां अपने बच्चे में ध्यान को रखती है--ऐसा भक्त संसार में रहता है, लेकिन
ध्यान परमात्मा में रखता है। ध्यान परमात्मा में रहता है, भक्त
संसार में रहता है।
भक्ति की बड़ी अनूठी कीमिया है। संसार में
भक्त रहता है,
लेकिन संसार को अपने भीतर नहीं रखता; अपने
भीतर तो परमात्मा को बसाए रखता है। दुकान पर बैठ कर दुकान भी चलाता है, ग्राहक
आता है तो ग्राहक में भी राम को ही देखता है। राम की थोड़ी सेवा का मौका मिला है तो
कर देता है। पर यहां भी राम है, वहां भी राम है। राम को क्षणभर को चूकता
नहीं, भूलता
नहीं।
"रहै
चरण चित लाय एक से और न जानी।
जगत् करै उपहास, पिया
का संग न छोड़े।'
और जगत् तो निश्चित उपहास करता है, करेगा; क्योंकि
यह तो जगत् को पागलपन लगेगा। "यह क्या बात है? किसकी
याद में लगे हो?
यह किसकी धुन बजा रहे हो? कैसा परमात्मा ? कहां
प्रमाण है?
कुछ काम की बातें करो। कुछ और धन कमा लो। थोड़ा और पद बढ़ा लो। थोड़ा
और बड़ा मकान बना लो।' ये सब बातें, तो
संसार कहता है,
बिल्कुल ठीक।
नानक को उनके पिता ने, बड़ी
कोशिशें कीं--कुछ काम में लग जाए, कुछ धंधा कर ले। स्वभावतः प्रत्येक पिता
चाहता है कि बेटा कुछ करे, कमाए। किसी ने सलाह दी कि इसको कुछ रुपए दे
दो, खरीदने
भेजो; कुछ
सामान खरीद लाए,
कुछ बेच लाए, ले जाए, व्यापार करे। कुछ
लगेगा काम में तो ठीक, नहीं तो यह खराब हो जाएगा। यह धीरे-धीरे
साधुओं के सत्संग में खराब हुआ जा रहा है।
कुछ रुपए दे कर उन्हें भेजा। जाते वक्त कहा
कि देख,
लाभ का खयाल रखना क्योंकि लाभ के बिना धंधे में कोई अर्थ नहीं है।
नानक ने कहा ः ठीक, खयाल रखूंगा। वे दूसरे दिन घर वापिस आ गए।
खाली चले आ रहे थे और बड़े प्रसन्न थे। पिता ने पूछा ः क्या हुआ, बड़ा
प्रसन्न दिखायी पड़ता है! इत्ती जल्दी भी आ गया! और कुछ सामान इत्यादि कहां है?
उन्होंने कहा ः "सामान छोड़ो , लाभ
कमा लाया हूं। कंबल खरीद कर ला रहे थे, राह में साधु मिल
गए। वे सब नंगे बैठे थे। सर्दी के दिन थे, सबको बांट दिए।
आपने कहा था न कि लाभ. . .!'
पिता ने सिर ठोंक लिया होगा, कि
इस लाभ के लिए थोड़े ही कहा था। कहां के लफंगों को, फिजूल
के आदमियों को कंबल बांट आया! ऐसे कहीं धंधा होगा? लेकिन
नानक ने कहा ः आपने ही कहा था कि कुछ लाभ करके आना। अब मैंने देखा कि अगर कंबल
लाकर बेचूंगा,
दस-पचास रुपए का लाभ होगा; लेकिन इन
परमात्मा के प्यारों को अगर बांट दिया तो बड़ा लाभ होगा।
फिर नौकरी पर लगा दिया। गांव के सूबेदार के
घर नौकरी लगा दी । सीधा सादा काम दिलवा दिया। काम था कि जो सिपाहियों को रोज भोजन
दिया जाता था,
वह उनको तौलकर दे देना। तो वह दिनभर तौलते रहते तराजू लेकर। एक दिन
तौलतेत्तौलते समाधि लग गई। रस तो भीतर परमात्मा में लगा था। तौलते रहते थे, बैठे
रहते थे दुकान पर,
काम करवा रहे थे पिता तो करते थे; लेकिन
भीतर तो याद परमात्मा की चल रही थी। उसी याद के कारण यह बड़ी क्रांतिकारी घटना घट
गयी। एक दिन तौलतेत्तौलते संख्या आयी--सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह
और तेरह--तो पंजाबी में "तेरह' तो नहीं है, "तेरा' है।
तो "तेरा'
शब्द उठते ही उसकी याद आ गयी। वह याद तो भीतर चल ही रही थी। उस याद
से सूत्र जुड़ गया। "तेरा' यानी परमात्मा का। फिर तो मस्त हो गए, फिर
तो मगन हो गए। फिर तो "तेरा' से आगे बढ़े ही नहीं। फिर तो तौलते ही गए। जो
आया, उसको
ही तौलते गए--"तेरा' और
"तेरा'!
खबर पहुंच गयी सूबेदार के पास कि इसका दिमाग खराब हो गया है। वे
"तेरा'
ही पर अटका है, और सभी को तौलता जा रहा है; जितना
जिसको जो ले जा रहा है, ले जा रहा है! दुकान लुटवा देगा। पकड़कर
बुलवाया गया। वह बड़े मस्त थे। उनकी आंखों में बड़ी ज्योति थी। पूछाः "यह तुम
क्या कर रहे हो?
उन्होंने कहा ः आखिरी संख्या आ गयी, अब
इसके आगे संख्या ही क्या? "तेरा' के
आगे अब और जाने को जगह कहां है? बाकी तो मेरे का फैलाव है। "तेरे' की
बात आ गयी,
खत्म हो गया मेरे का फैलाव; अब मुझे क्षमा करो, मुझे
जाने दो। आज जो मजा पाया है तेरा कह कर, अब उसको चूकना
नहीं चाहता। अब तो चौबीस घंटे तेरा ही तेरा करूंगा। उसका ही सब है। वही है। आज
"मेरा-मेरा'
गया। आज तो तेरा ही हो गया।
स्मरण जैसे-जैसे तुम्हारा सघन होगा, जगत्
तो उपहास करेगा।'
लोग तो हंसे। लोगों ने कहा ः नानक पागल हो गए।
"जगत्
करे उपहास,
पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाए मेहर की चादर ओढ़ै।।'
दुनिया हंसी करे--करेगी ही--इसे स्वीकार कर
लेना। इससे अन्यथा की आशा भी मत करना। ऐसा होता ही रहा सदा, ऐसा
ही होगा--आज भी,
कल भी। दुनिया उपहास न करे तो समझना कि कुछ भूल हो रही है।
लाओत्सु ने कहा हैः जब मैं कुछ सत्य की बात
कहता हूं तो लोग हंसते हैं, उपहास करते हैं; तब
मैं निश्चित समझ जाता हूं कि जौ मैंने कहा, वह सत्य ही होना
चाहिए। अगर वह सत्य न होता तो लोग उपहास क्यों करते!
एक फकीर थे ः महात्मा भगवानदीन। वे मुझसे
बोले कि जब भी मैं लोगों को ताली बजाते सुनता हूं. . . बड़े प्यारे वक्ता थे. . .
तो मैं दुःखी हो जाता हूं। क्योंकि जब लोग ताली बजा रहे हैं तो मैंने जरूर कोई गलत
बात कही होगी। जो लोगों तक की समझ में आ रही है, वह
गलत ही होनी चाहिए। लोग इतने गलत हैं!
वे बड़े नाराज हो जाते थे, जब
उनके बोलने में कोई ताली बजा दे। बड़े नाराज हो जाते थे कि मैंने कोई ऐसी गलत बात
कही कि तुम ताली बजाते हो! लोग तो ताली बजाकर प्रसन्न होते हैं, सुनकर
प्रसन्न होते हैं कि ताली बजायी जा रही है; वे बड़े नाराज हो
जाते थे। वे कहते थे ः मैं बोलूंगा ही नहीं, अगर ताली बजायी।
तुमने ताली बजायी--मतलब कि कुछ गलत बात हो गयी।
लाओत्सु ठीक कह रहा है कि अगर लोग उपहास न
करते तो मैं समझ लेता कि यह सत्य होगा ही नहीं। सत्य का तो सदा उपहास होता है, क्योंकि
लोग इतने असत्य हैं। लोग झूठे हैं, इसलिए सत्य पर
हंसते हैं। हंसकर अपने को बचाते हैं। उनकी हंसी आत्मरक्षा है।
"जगत्
करे उपहास,
पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै।।'
फिकर ही मत करना संसार की; तुम
तो अपनी प्रेम की सेज बिछा लेना और परमात्मा की याद करना कि तुम आओ, तुम्हारे
लिए सेज तैयार कर रखी है।
"प्रेम
की सेज बिछाय,
मेहर की चादर ओढ़ै। और करुणा की चादर ओढ़ना। प्रेम का बिस्तर बनाना
और करुणा की चादर बना लेना। संसार के प्रति करुणा रखना, परमात्मा
के प्रति प्रेम रखना--बस ये दो चीजें सध जाएं। हंसनेवालों के प्रति करुणा रखना, नाराजगी
मत रखना। अगर नाराजगी रखी तो वे जीत जाएंगे। अगर करुणा रखी, तो
ही तुम जीत पाओगे। वे हंसें, तो स्वीकार करना कि ठीक ही हंसते हैं। जहां
वे खड़े हैं,
वहां से उन्हें हंसी आती है हम पर, ठीक
ही है। उनकी स्थिति में ऐसा ही होना स्वाभाविक है। उन पर करुणा रखना।
"ऐसी
रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।'
यह बड़ा अपूर्व सूत्र है। पलटू कहते हैं कि
भक्त के प्रेम में और करुणा में, और परमात्मा के स्मरण में अपने-आप भोग-विलास
छूट जाता है।
"ऐसी
रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।'
भोग-विलास छोड़ना न पड़े, छूट
जाए--ऐसी रहनी रहे। परमात्मा की स्मृति जिसके जीवन में भरी है, उसको
कहां भोग-विलास की याद रह जाती है! वह तो परमभोग भोग रहा है; अब
तो छोटे-मोटे भोग की बात ही कहां! हीरे बरस रहे हों तो कोई कंकड़-पत्थर बीनता है? अमृत
बह रहा हो तो कोई नाली के गंदे पानी को भर कर घर लाता है? जहां
फूलों की वर्षा हो रही हो, वहां कोई दुर्गंध समेटता है? जहां
सच्चा सुख मिल रहा हो वहां क्षणभंगुर सुख की कौन चिंता करता है?
"ऐसी
रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।'
परमात्मा की मस्ती में रहे। परमात्मा के
आनंद-भाव में रहे। परमात्मा के प्रेम में रहे और जगत् के प्रति करुणा से भरा और
सुरति की धारा बहे। बस फिर अपने-आप ऐसी रहनी पैदा हो जाती है, जीवन
का ऐसा ढंग,
जीवन में ऐसी चर्या पैदा हो जाती है कि भोग-विलास अपने-आप छूट जाते
हैं। छोड़ने नहीं पड़ते, छोड़ने
पड़ें, तो
बात ही गलत हो गयी। छोड़ने पड़ें तो घाव रह जाएंगे; छूट
जाएं तो बड़ा स्वास्थ्य और बड़ा सौंदर्य होता है। व्यर्थ को छोड़ना पड़े तो उसका अर्थ
हुआ कि अभी कुछ सार्थकता दिखायी पड़ती थी, इसलिए चेष्टा
करनी पड़ी,
छोड़ना पड़ा। व्यर्थ व्यर्थ की भांति दिखायी पड़ जाए, तो
फिर चेष्टा नहीं करनी पड़ती, हाथ खुल जाते हैं, व्यर्थ
गिर जाता है। आदमी पीछे लौटकर भी नहीं देखता।
"रहनी
रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे भूख-प्यास, याद
संग चलती स्वासा।।'
फिर तो भूख-प्यास तक की याद नहीं रह जाती, क्योंकि
श्वास-श्वास में उसी की ही याद चलती है। कहां का भोग, कहां
का विलास! कौन धन को इकट्ठे करने में पड़ता है! कौन पद की चिंता करता है! कौन
आदर-समादर खोजता है! कौन सम्मान खोजता है! जिसको उस प्राण-प्यारे की तरफ से मान
मिलने लगा,
इस संसार में कोई मान अब अर्थ नहीं रखता। "मारे भूख-प्यास, याद
संग चलती स्वासा।'
यह जो श्वास के साथ याद बहने लगती है, इससे
भूख-प्यास तक मर जाती है।
एक तुमने बात कभी खयाल की--बहुत
मनोवैज्ञानिक है! जब तुम दुःखी होते हो, तुम ज्यादा
भूखे-प्यासे अनुभव करते हो। जब तम दुःखी होते हो, तब
तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो। क्योंकि दुःखी आदमी भीतर खाली-खाली मालूम पड़ता
है--किसी से भी भर लो, किसी तरह भर लो भीतर का गङ्ढा! सुखी आदमी कम
भोजन करता है। परम सुख में तो भूख भूल ही जाती है। परम सुख में तुम ऐसे भरे मालूम
पड़ते हो भीतर,
कि कहां भूख, कहां प्यास!
जब भी सुख घटता है तो आदमी भर जाता है। जब
भी जीवन में दुःख होता है, तो आदमी जबरदस्ती अपने को भरने लगता है; खाली-खाली
मालूम पड़ता है--"चलो किसी भी चीज से भर लो।'
सुखी आदमी खाली रह जाता है, क्योंकि
सुख काफी भरा हुआ है। दुःखी आदमी कैसे खाली रहे! मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिनके
जीवन में प्रेम है, उनके जीवन में ज्यादा भोजन का रोग नहीं
होता। जिनके जीवन में प्रेम नहीं है, वे ज्यादा भोजन
करने लगते हैं। वे प्रेम की कमी भूख से पूरी करने लगते हैं। जो प्रेम से मिलना
चाहिए था,
वह भोजन से ही पूरा करने लगते हैं। और इसके पीछे राज है। बच्चे का
जो पहला अनुभव है जगत्? में, वह भूख का और
प्रेम का एक साथ है, जुड़ा हुआ है। मां से ही उसको प्रेम मिलता है
और मां से ही दूध मिलता है। तो पहला जो अनुभव है उसको, उसमें
प्रेम और भोजन जुड़ा होता है, संयुक्त होता है। वह जोड़ इतना गहरा है कि
फिर भूलता नहीं। इसलिए तो तुम जब किसी के प्रति प्रेम प्रकट करना चाहते हो, तो
भोजन पर बुलाते हो! क्यों? आखिर प्रेम प्रकट करने के लिए भोजन पर
बुलाने की क्या जरूरत है? जरूरत है, क्योंकि
भोजन और प्रेम दोनों साथ जुड़े हैं। जिसको तुम भोजन पर बुला लेते हो, वह
प्रेमी हो जाता है, मित्र हो जाता है।
लोग अक्सर यह अनुभव करते हैं कि जब उन्हें
किसी दूसरे से कुछ काम की बात निकलवानी हो तो उसे भोजन करने के लिए होटल ले गए या
घर ले गए। जब दोनों भोजन करते होते हैं, बात करते होते
हैं, तब
आसान होता है मामला तय कर लेना। इसलिए दुकानदार, सेल्समैन, बीमा
के एजेंट भोजन पर बुला लेते हैं कि चलो, कल हमारे साथ
भोजन करो। वहां सुगमता पड़ जाती है। वहां आदमी हलका होता है, जिद्दी
कम होता है।
तुमने यह देखा कि लोग रात को अक्सर, सोने
के पहले,
अगर एक गिलास गरम दूध पी लें तो नींद अच्छी आती है। क्यों? वह
गरम दूध उन्हें फिर छोटा बच्चा बना देता है। दूध गरम, वह
बचपन याद आ जाता है। मां से दूध पहली दफा मिला था, गरम-गरम
दूध मिला था,
और प्रेम भी मिला था। उस प्रेम और दूध से भरकर वह गहरी नींद सो
जाता है।
भोजन और प्रेम का बड़ा गहरा संबंध है। तो जब
तुम्हारे जीवन में भोजन बढ़ जाए बहुत तो समझना, कि कहीं प्रेम की
कमी पड़ रही है,
तो प्रेम की कमी तुम भोजन से पूरी कर रहे हो। अक्सर ऐसा होता है कि
जो मां बच्चे को प्रेम करती है, वह बच्चा बहुत दूध नहीं पीता। वह हजार
झंझटें खड़ी करता है दूध पीने में। समझाना पड़ता है, बुझाना
पड़ता है,
मां को बार-बार घेर कर लाना पड़ता है कि फिर पी ले, कुछ
यहां-वहां की बात करनी पड़ती है। और वह दूध नहीं पीता, वह
फिकर नहीं करता। जब प्रेम है तो उसे भरोसा है, कि जब चाहिए दूध
मिल जाएगा। प्रेम में एक श्रद्धा है, भरोसा है। लेकिन
अगर मां बच्चे को प्रेम न करती हो समझो, नर्स हो, मां
न हो; जैसा
कि बहुत-सी मां नर्सें ही हैं, मां तो कभी-कभी कोई होती है; अगर
मां बच्चे को प्रेम न करती हो, जबरदस्ती मान लिया अब यह हो गया पैदा तो ठीक
है, किसी
तरह खींच रहे हैं,
चाहते तो नहीं थे, कहां की झंझट सिर पर आगयी--अगर ऐसी मां हो
तो बच्चा उसका स्तन छोड़ता ही नहीं क्योंकि उसे डर लगता है कि अभी छोड़ दिया तो पीछे
मिलेगा दूध कि नहीं मिलेगा, इसका कुछ पक्का भरोसा नहीं है, श्रद्धा
नहीं पैदा होती।
अक्सर प्रेम की कमी होने के कारण बच्चे
ज्यादा भोजन करने लगते हैं शुरू से ही। एक अनुपात है।
कहते हैं पलटूदास
"ऐसी
रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे भूख-प्यास याद संग चलती स्वासा।'
ऐसी रहनी रहै. . ऐसी प्रभु की याद गूंजती
रहे भीतर कि उससे ऐसा भरा-पूरा रहे कि भूख-प्यास मिट जाए। अब यह बड़ा फर्क हुआ। एक
तो उपवास करना और एक उपवास का अपने-आप हो जाना।
हमारे पास दो शब्द हैं, दोनों
के अलग-अलग अर्थ हैं। लेकिन हमने इन दोनों को एक साथ जोड़कर बड़ी खिचड़ी बना ली है।
एक शब्द है "अनशन' और एक शब्द है "उपवास'।
अनशन का मतलब होता है ः चेष्टा से भोजन न करना। उपवास का अर्थ होता है ः उसके पास
बैठ जाना,
परमात्मा के पास बैठ जाना; उप**वास; उसके
निकट हो जाना। उसके निकट होने से भूख-प्यास भूल जाएं। उसकी याद इतने करीब हो, वह
इतने करीब हो कि कौन फिक्र करता है। जब तुम्हारा कोई प्रेमी घर आ जाता है, मित्र
आ जाता है,
उस दिन तुम कहते हो ः छोड़ो अब, अभी पहले बातचीत
हो ले;
भोजन पीछे देखेंगे। रात तुम कहते हो कि अब रातभर बैठकर गपशप कर लें; आज
सोना जाए तो जाए,
कोई हर्जा नहीं। आज दो प्रेमी मिल बैठे हैं; न
भूख की फिक्र है,
न नींद की फिक्र है। आज पुराने रस में डूब गए हैं।
परमात्मा के तो पास होने का तो मतलब है परम
प्यारा मिल गया,
जनमों-जनमों से खोया हुआ मिल गया; जिसे
खोए अनंतकाल बीत चुका था और जिसको हम तलाशते रहे, तलाशते
रहे, वह
मिल गया--उसके मिल जाने पर कहां भूख, प्यास; कहां
भोग, कहां
विलास! वे सहज भूल जाते हैं। यह जो सहज जीवन में त्याग फलित होता है, इसकी
महिमा अपार है।
"ऐसी
रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे जो भूख प्यास याद संग चलती स्वासा।।
रैन दिवस बेहोस, पिया
के रंग में राती।'
दिन-रात बेहोश रहे, मस्ती
में रहे,
शराब में डूबा रहे--प्रभु के प्रेम की शराब पीता रहे।
"रैन
दिवस बेहोस,
पिया के रंग में राती।' उसका रंग छाया
रहे, उसका
ढंग छाया रहे। उसका गीत गूंजता रहे। उसकी मस्ती में झूमे, नाचे।
उसकी बांसुरी बजती रहे, उसकी बांसुरी के साथ तुम्हारे भीतर भी आनंद
का कंपन चलता रहे।
"रैन
दिवस बेहोस,
पिया के रंग में राती।'
अब यह फर्क समझना। साधारणतः जिनको तुम
त्यागी कहते हो,
वे संसार का सुख तो छोड़
देते हैं और परमात्मा का सुख मिल नहीं रहा है। उनका जीवन बड़ा उदास हो जाता है।
उनके जीवन में तुम उत्सव न पाओगे। तुम ऐसा न पाओगे कि कोई धुन बज रही है परम की।
तुम ऐसा न पाओगे कि कोई वीणा बज रही है। संसार में थोड़ी-बहुत जो भाग-दौड़ थी, वह
भी चली गयी;
क्षणभंगुर था सुख, लेकिन था तो, क्षणभंगुर
भी न रहा और शाश्वत मिला नहीं। ये धोबी के गधे हैं--घर के न घाट के! ये तुम्हारे
तथाकथित महात्मा अकसर ऐसी हालत में हैं।
पलटू कहते हैं ः पहले परमात्मा के रस में
डूबना सीख लो,
फिर संसार से निकलने में कोई बाधा नहीं आती। पहले शाश्वत तो पा लो, क्षणभंगुर
को छोड़ने में क्या रखा है, छूट जाएगा।
"रैन
दिवस बेहोस,
पिया के रंग में राती।'
--उस
प्यारे के रंग में डूबा रहे।
भक्ति तो भगवान को ऐसे पीती है जैसे पियक्कड़
शराब को पीता है। कहते हैं, जिस रात जीसस विदा हुए अपने शिष्यों से, उन्होंने
दावत दी--आखिरी दावत। वह दावत बड़ी प्यारी है। उसमें उन्होंने हाथ से रोटी तोड़ी और
अपने शिष्यों को बांटी। फिर अपने हाथ से शराब ढाली और अपने शिष्यों को बांटी। जब
वे रोटी बांटते थे तो उन्होंने कहा ः "खयाल रखना यह मेरा शरीर है।' और
जब उन्होंने शराब बांटी तो उन्होंने कहा ः
"खयाल रखना, यह मैं हूं।' यह
प्रतीक की बात है।
परमात्मा को जो शराब की तरह पीने के लिए
तत्पर है,
वही भक्त है। भक्त यानी पियक्कड़। भक्तों का जो जमाव है, वह
तो मधुशाला का जमाव है। आंख में मस्ती हो, पैर में नृत्य हो, हृदय
में उत्सव हो।
"रैन
दिवस बेहोस,
पिया के रंग में राती।
तन की सुधि है नाहिं पिया संग बोलत जाती।।'
और अपना तो होश ही नहीं रहा अब। अपना होश
कहां, जब
परमात्मा सामने खड़ा हो तो अपना होश कहां! "तन की सुधि है नाहिं. . .'।
अब अपना तो कुछ होश ही नहींः अपने तन का तो कुछ पता नहीं। "पिया संग बोलत
जाती।. . .'
लेकिन उसकी याद पूरी है। उसके साथ बात चल रही है, प्रार्थना
चल रही है,
पूजा चल रही है, अर्चना चल रही है।
भक्त तो परमात्मा से ऐसे बात करता है, जैसे
सामने परमात्मा खड़ा हो। उसके साथ परमात्मा का संवाद चलता है। अपने को तो भूल जाता
है, परमात्मा
ही सामने होता है।
"रैन
दिवस बेहोस,
पिया के रंग में राती।
तन की सुधि है नाहिं, पिया
संग बोलत जाती।।
पलटू गुरु प्रसाद से किया पिया को हाथ।'
पलटू कहते हैं ः गुरु की कृपा से परमात्मा
को हाथ में कर लिया। "किया पिया को हाथ।'
"सोई
सती सराहिए जरै पिया के साथ।'
लेकिन उसे साथ करने का उपाय क्या है? उपाय
एक ही हैः "सोई सती सराहिए जरै पिया के साथ।'
बड़ा उलटा उपाय है। अपने को गंवा दो तो
परमात्मा हाथ में आ जाता है। अपने को मिटा दो तो परमात्मा हाथ में आ जाता है। अपने
को उसके चरणों में डाल दो तो तुम्हारे कब्जे में आ जाता है। भगवान भक्त के वश में
है। मगर तुम अपने को मिटा दो। वह शर्त पूरी करनी होती है।
यह आना कोई आना है कि बस रसमन चले आए।
यह मिलना खाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं
मिलता।
तुम्हारी प्रार्थनाएं झूठी हैं। तुम्हारी
पूजाएं झूठी हैं। क्योंकि दिल से दिल तो मिलता ही नहीं; तुम
अपने को तो भूल ही नहीं पाते।
यह मिलना खाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं
मिलता! लेकिन दिल से दिल तो तभी मिले जब तुम अपनी सारी सुरक्षा के आयोजन छोड़ दो; तुम
समर्पण करो;
तुम सारे शस्त्र डाल दो। तुम कहो कि "यह मैं तेरी शरण आया।
बचाना हो बचा,
मिटाना हो मिटा। तू जो भी करे, वही मेरा सौभाग्य
। तेरी मरजी,
मेरी मरजी।' ऐसा जब भक्त कह पाता है परिपूर्ण हृदय से, समग्र
हृदय से,
उसी क्षण परमात्मा हाथ में हो जाता है।
"तुझे
परायी क्या परी,
अपनी आप निबेर।'
और पलटू कहते हैं ः ये बातें सुनकर दूसरों
के विचार में मत पड़ जाना कि अरे, दूसरों के जीवन में परमात्मा नहीं है; कि
अरे बेचारों को कैसे परमात्मा दिलवाएं; कि दूसरों के
जीवन में कैसे रोशनी लाएं ! इस चिंता में मत पड़ जाना। यह भी तरकीब है-- अपने को
बचा लेने की। बहुत लोग हैं ऐसे।
अभी परसों एक युवक आया जर्मनी से। और उसने
कहा ः "और सब तो ठीक है, मैं आपसे यह पूछने आया हूं कि दुनिया में
इतनी गरीबी है,
इतनी परेशानी है, लोग इतने दुःख में हैं, इसके
लिए मैं क्या कर सकता हूं? '
मैंने उससे पूछा ः "पहले मैं एक सवाल
तुझ से पूछूं?
तु दुःख के बाहर है? चिंता-परेशानी के
बाहर है?'
उसने कहा ः "मैं तो बाहर नहीं हूं।' तो
मैंने कहा ः "पहले तू अपने को तो बाहर कर ले। यह तरकीब कि दुनिया दुःख में है, दुनिया
को कैसे मैं दुःख के बाहर लाऊं--यह बड़ी तरकीब है। इससे अपने दुःख और चिंताओं को
भुलाने का उपाय मिल जाता है। इससे अपनी तरफ पीठ कर लेने की सुविधा हो जाती है।'
"लेकिन
तू कैसे दूसरों के जीवन में रोशनी लाएगा'--मैंने उससे कहा--
"अभी तेरे जीवन में रोशनी नहीं है। तू कैसे दूसरों के बुझे दीए जलाएगा, अभी
तेरा दीया बुझा है। अभी तो खतरा यह है कि तू किसी के जलते दीए को बुझा मत आना। तू
कृपा कर। तेरी बड़ी कृपा होगी, अभी तू दूसरों की चिंता मत कर। तू अपनी
चिंता पहले कर ले।'
घर से शुरुआत करो। अपने को बदलो। तुम बदल
जाओगे तो तुम्हारे जीवन में ऐसी किरणें उठेंगी कि और लोग भी बदलेंगे। मगर दूसरों
से शुरू मत करना। दूसरों से शुरू करने में बड़ा मजा मालूम होता है ः अहंकार की
तृप्ति कि देखो,
मैं सेवा कर रहा हूं!
सेवक, सर्वोदयी, खतरनाक
लोग हैं। इनसे सावधान रहना। ये अपने को भी धोखा दे रहे हैं, ये
दूसरे को भी धोखे में डाल रहे हैं। पहले तो किरण अपने भीतर उतार लो।
पलटू कहते हैं ः "तुझे पराई क्या परी, अपनी
आप निबेर।'
पहले अपनी सुलझा ले, अपनी तो निपटा
ले। अपनी इतनी उलझन है, अपनी इतनी बीमारियां हैं, इनको
लेकर तू दूसरों की बीमारी और सुलझाने चला जाएगा, और
झंझट बढ़ा देगा।
दुनिया में जितना उपद्रव समाज-सेवकों के
द्वारा हुआ है,
किन्हीं और के द्वारा नहीं हुआ। यहां बीमार, लोगों
की चिकित्सा करते घूम रहे हैं। यहां पागल, लोगों को मानसिक
स्वास्थ्य देते घूम रहे हैं। यहां मुर्दे, लोगों को जीवन का
दान देते हुए घूम रहे हैं।
"तुझे
पराई क्या परी,
अपनी आप निबेर।
अपनी आप निबेर, छोड़ि
गुड़ विस को खावै।।'
अभी अपने जीवन में अमृत नहीं उतरा, और
तू दूसरों की चिंता में पड़ रहा है! पहले परमात्मा को तो थोड़ा पचा; नहीं
ये तो दूसरों की चिंताएं ही तेरा भोजन बन जाएंगी।. . . "छोड़ि गुड़ विस को
खावै।'
जहां बड़ी मिठास हो सकती थी परमात्मा को अपने भीतर ले लेने से, वहां
लोगों की चिंताएं और दुःखों का हिसाब लगा-लगा कर तू बड़ा खट्टा और कड़वा हो जाएगा, विष
से भर जाएगा।
"कूवां
में तू परै,
और को राह बतावै।'
तू खुद कुएं में पड़ा है और दूसरों को राह
बता रहा है! तेरी बातें खतरनाक हैं। तू दूसरों को भी कुएं में गिराने के लिए करीब
ले आएगा। क्योंकि वही राह तू जानता है। और राह तू जानेगा भी कैसे! जो राह तू नहीं
चला, उसे
तू कैसे जानेगा?
कबीर ने कहा हैः अंधा अंधा ठेलिया, दोनों
कूप पड़ंत। अंधे ने अंधे को राह बतायी, दोनों कुएं में
गिर गए।
जीसस ने भी वही बात कही है कि पहले अपनी आंख
खोलो; अभी
अपनी आंख खुली हो तो इस भ्रांति में मत पड़ो कि तुम किसी को मार्ग बता सकोगे।
कल मैं एक वचन पढ़ रहा था ः
वहां कितनों को तख्तोत्ताज का उर्मां है, क्या
कहिए।
जहां साइल को अकसर कासा-ए-साइल नहीं मिलता।
वहां कितनों को तख्तोत्ताज का उर्मां है, क्या
कहिए।
यहां कितने लोग सिंहासन पाने की कोशिश में
लगे हैं,
जबकि हालत यह है कि जहां साइल को अकसर कासा-ए-साइल नहीं मिलता।' यहां
भिखारी को भिक्षापात्र भी नहीं मिलता है, और यहां सिंहासन
पाने की दौड़ चल रही है! इस संसार में भिक्षापात्र भी नहीं मिलता, मिल
नहीं सकता--और सिंहासन पाने की कोशिश चल रही है!
शिकस्ता-पा को मुज्दा, खस्तगाने-राह
को मुज्दा
कि रहबर को सुरागे-जादहे-मंजिल नहीं मिलता।
--शिथिल
जनों को मंगल समाचार, रास्ते के थके हुओं को मंगल समाचार।
शिकस्ता-पा को मुज्दा. . . शिथिल जनों को मंगल समाचार, एक
शुभ संदेश! खस्तगाने-राह को मुज्दा. . . जो थक गए हैं चलते-चलते उनके लिए एक शुभ
समाचार... कि रहबर को सुरागे-जादहे-मंजिल नहीं मिलता। घबड़ाओ मत, जिसको
तुम पथ-प्रदर्शक समझ रहे हो, नेता, उसको भी मंजिल
नहीं मिली। बेफिक्र रहो। चिंता में मत पड़ो कि तुमको मार्ग नहीं मिल रहा है और
मंजिल नहीं मिल रही। तुम्हारे महात्मा को भी नहीं मिली है। बेफिक्र हो जाओ। यह
मंगल समाचार है। यह शुभ समाचार है कि तुम्हारे नेता को भी नहीं मिली। इस भ्रांति
में मत पड़े रहो कि किसी को मिल गयी है। तुम्हें जो ले चल रहे हैं, उनको
भी नहीं मिली है।
पलटू महत्त्वपूर्ण बात कह रहे हैं ः
"तुझे
पराई क्या परी,
अपनी आप निबेर,
अपनी आप निबेर, छोड़ि
गुड़ विस को खावै।
कूवां में तू परै, और
को राह बतावै।
औरन को उजियार, मशालची
जाय अंधेरे।'
देखा न मशालची जब रात में चलता है मशाल लेकर, तो
खुद तो अंधेरे में चलता है, क्योंकि मशाल की रोशनी तो पीछे होती है।
कंधे पर रखे है मशाल, तो मशाल की रोशनी तो पीछे पड़ती है; जो
पीछे आ रहे हैं उनको कुछ दिखाई भी पड़े, लेकिन मशालची
अंधेरे में चलना चल रहा है। अब यह बड़े मजे की बात है कि जिस मशालची को अंधेरे में
पड़ रहा है,
वह कहां ले जाएगा! मशाल भी उसके हाथ में हो तो मशाल तो मशालची को
नहीं चलाती;
मशालची चल रहा है और मशाल को कंधे पर रखे हैं, और
मशाल की रोशनी देखकर दूसरे उसके पीछे चल रहे हैं। और मशालची खुद अंधेरे में चल रहा
है।
"औरन
को उजियार मशालची जाय अंधेरे।
त्यों ज्ञानी की बात मया से रहते घेरे।।'
ऐसे तुम्हारे तथाकथित पंडितों की बात है।
मशालें बड़ी लिए हैं, शास्त्रों का बड़ा बोझ है। खुद माया से घिरे
हैं; दूसरों
को राह बता रहे हैं ब्रह्मा तक जाने की।
"औरन
को उजियार,
मशालची जाय अंधेरे।
त्यों ज्ञानी की बात, मया
से रहते घेरे।।
बेचत फिरै कपूर, आप
तो खारी खावै।
खुद तो खड़िया मिट्टी खाते हैं और बाजार में
कपूर बेचते हैं।'
"बेचत
फिरै कपूर,
आप तो खारी खावै।
घर में लागी आग दौड़ के घूर बुतावै।।'
वह जो बाहर सड़क के किनार घूरा है, उसमें
आग लग जाए तो दौड़कर उसको बुझाते हैं और घर उनका जल रहा है।
"घर
में लागी आग दौड़ के घूर बुतावै।
बेचत फिरै कपूर, आप
तो खारी खावै।।
पलटू यह सांची कहै, अपने
मन का फेर।
तुझे पराई क्या परी अपनी आप निबेर।।'
पलटू कहते हैं ः सच कहता हूं तुमसे। इसे याद
रखना, भूल
मत जाना।
"पलटू
यह सांची कहै,
अपने मन का फेर।'
यह बड़ी मन की तरकीब है। यह मन का बड़ा जाल
है। यह मन की बड़ी होशियारी है। मन मिटना नहीं चाहता। तो वह तुम्हें अपनी
परेशानियों से बचाना चाहता है। वह कहता हैः तुम्हारी क्या परेशानी है; देखो
दुनिया में इतना दुःख है, पहले इनको तो साथ दो। और मन बड़े अच्छे तर्क
खोजता है। मन कहता है ः ध्यान, प्रार्थना, पूजा, ये
सब तो स्वार्थ हैं।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैंः यह तो
स्वार्थ है। दुनिया में इतना दुःख है और हम ध्यान करें! समझ लो कि हम सुखी भी हो
गए तो यह सुख तो बड़ा स्वार्थ है। दुनिया में इतना दुःख है!
मैं उनसे पूछता हूं कि तुम अगर दुःखी रहे, इससे
दुनिया का दुःख कुछ कम होगा? दुनिया में दुःख क्यों है? क्योंकि
तुम दुःखी हो। तो तुम दुःख की किरणें फैला रहे हो। तुम दुःख का जाल फैला रहे हो।
दुनिया में दुःख क्यों है? क्योंकि अधिक लोग दुःखी हैं, इसलिए
दुःख घना होता जाता है। अगर तुम एक आदमी भी सुखी हो जाओ तो तुमने दुनिया की बड़ी
सेवा की;
कम-से-कम दुनिया का एक
हिस्सा तो सुख की किरणें फैलाएगा। एक तरफ से तो कम-से-कम सुख की सुवास उठेगी। फिर
जिनको भी थोड़ी समझ है और जिनको भी सुख की तलाश है, वे
तुम्हारी तरफ आने लगेंगे। तुम्हें जाना भी न पड़ेगा; प्यासे
कुएं की तरफ आने लगते हैं। और जब कुआं प्यासे की तरफ जाए तो ज़रा सावधान रहना। अगर
कुआं प्यासे की तरफ जाए तो बहुत खतरा है ः यह प्यासे की प्यास तो शायद ही बुझाए; प्यासे
को कुएं में गिरा ले, इसी बात की संभावना है। प्यासा कहीं. . .।
अगर प्यासे को प्यास है तो कुआं खोजेगा।
अगर लोग दुःखी ही रहना चाहते हैं तो तुम कौन
हो उन्हें सुखी बनानेवाले? और तुम कैसे बना सकोगे? अगर
उन्होंने यही तय किया है कि उनको दुःखी रहना है तो दुनिया में कोई उन्हें सुखी
नहीं बना सकता। परमात्मा भी उन्हें सुखी नहीं बना सकता। नहीं तो परमात्मा ने अब तक
सुखी बना ही दिया होता।
परमात्मा तुम्हारी स्वतंत्रता का बड़ा आदर
करता है। अगर तुमने तय किया है दुःखी होना, तो तुम्हारे तय
के साथ है। तुमने जो तय किया, तुम्हारे साथ है। ठीक है, तुम
दुःखी रहो--तुम्हारा चुनाव, तुम्हारी मालकियत है। जब तुम सुखी होना
चाहोगे,
तभी सुखी हो सकोगे।
फिर लोग मुझसे कहते हैं कि ठीक, ध्यान
तो करें,
लेकिन हमें यह बात बेचैन करती रहती है कि दुनिया दुःखी है। मैं
उनसे पूछता हूं ः दुनिया सदा से दुःखी है, और तुम चले जाओगे, उसके
बाद भी दुःखी रहेगी, क्या तुम यह तय करके आए हो कि तुम्हारे जाने
के बाद दुनिया को तुम सुख में छोड़ जाओगे या कि तुम छोड़ सकोगे? बुद्ध
नहीं छोड़ गए,
कृष्ण नहीं छोड़ गए, राम नहीं छोड़ गए, मुहम्मद
नहीं छोड़ गए,
क्राइस्ट नहीं छोड़ गए--तुम्हारे क्या इरादे हैं? ये
सारे लोग स्वार्थी थे; परार्थी तुम पहली दफा पैदा हुए हो।
लेकिन मन के बड़े फेर हैं। मन बड़े तर्क खोजता
है। मन कहता है ः "क्या ध्यान में पड़े हो! अरे दुनिया में इतना दुःख है, पहले
दुःख तो अलग करो!'
बात जंचती भी है, तर्क समझ में भी आता है। इसी तर्क में पड़कर
तो लोग झंझटों में उलझ जाते हैं।
दुनिया में दुःख है, इस
दुःख में तुम्हारा भी हाथ है। क्योंकि दुःखी आदमी दुःख फैलाता है। दुःखी आदमी दुःख
ही दे सकता है। जो तुम्हारे पास है, वही तो दोगे। जो
तुम्हारे पास नहीं है उसे कैसे दोगे? दुःखी आदमी विवाह
करेगा तो पत्नी को दुःख देगा; बच्चे उसके होंगे तो बच्चों को दुःख देगा। दुःखी
पत्नी पति को दुःख देगी; बच्चों को दुःख देगी। यह परिवार दुःख का हो
जाएगा। यह परिवार जिन-जिन से जुड़ेगा, उनको दुःख देगा; यह
पड़ोस को दुःखी कर देगा। ऐसे दुःख फैलता चला जाता है। दुनिया में अगर सुख लाना हो, दीया
जलाओ ध्यान का,
प्रार्थना का, पूजा का, अर्चना का। इस
स्वार्थ को पूरा करो। सबसे पहले अपनी सेवा करो, फिर तुमसे बड़ी
सेवा हो सकेगी।
"पलटू
यह सांची कहै,
अपने मन का फेर।
तुझे पराई क्या परी, अपनी
ओर निबेर।।'
पहले अपनी तरफ तो आंख उठा। पहले ध्यान अपनी
तरफ तो ले जा। फिर दूसरों में उलझना। और जो सुलझ गया, उससे
दूसरे भी सुलझते हैं। यह सहज ही होता है फिर; यह कुछ करना नहीं
पड़ता। उसकी मौजूदगी करती है। उसके आशीष करते हैं। उसके वचन करते हैं। उसका मौन
करता है। उसकी उपस्थिति करने लगती है। फिर कुछ करना नहीं पड़ता। फिर वह सेवा करने
नहीं निकलता-- उससे सेवा होने लगती है।
पलटू कहते हैं ः मेरी तरफ देख, मैं
बड़े नीच घर में पैदा हुआ, बड़े साधारण गरीब घर में पैदा हुआ, मेरी
कोई ऊंचाई न थी,
मेरी तरफ देखो! मैंने अपनी निबेर ली, तो
बड़ी क्रांति हो गयी। क्या हुआ?
"पलटू
नीच से ऊंच भा. . .।' जैसे ही मैंने अपने भीतर भक्ति का दीया
जलाया,
मैं अचानक नीचे से ऊंचा हो गया। कहां खड्डे में पड़ा था, कहां
शिखर पर विराजमान हो गया। कहां अंधेरे में टटोलता फिरता था और राह न मिलती थी, और
कहां बिजली चमक गयी, रोशनी हो गयी, और
सारी राह खुल गयी।
"पलटू
नीच से ऊंच भा,
नीच कहै ना कोय।'
अब मैं चकित हूं कि मुझ साधारण आदमी के लोग
पैर आकर पड़ते हैं;
मेरे पैरों पर सिर रखते हैं। बड़े-बड़े अमीर राजा, बड़े
प्रतिष्ठित लोग मेरी सलाह लेने आते हैं, मुझे हैरानी होती
है। क्योंकि मैं तो वही हूं पलटू--साधारण-सा आदमी! मेरा इसमें क्या! यह महिमा
परमात्मा की है। मेरे चरणों में थोड़े ही सिर झुकाते हैं वे--वे मेरे माध्यम से
परमात्मा को सिर झुकाते हैं। और कल अगर मैं इनकी सहायता करने गया होता तो इनके
द्वार से ही लौटा दिया गया होता; इनके द्वार पर भी मुझे प्रवेश नहीं मिल सकता
था। सहायता तो दूर, ये मेरा शब्द भी सुनने को राजी न होते। आज
क्या हो गया?
कैसी महिमा!
"पलटू
नीच से ऊंच भा,
नीच कहै ना कोय।
नीच कहै ना कोय, गए
जब से सरनाई।।'
और जब से प्रभु के शरण गए, जब
से गए सरनाई,
जब से उसके चरणों में सिर को रख दिया, तब
से कोई मुझे नीच नहीं कहता। लोग मुझे भी ऊंचा कहने लगे। उस ऊंचे के साथ जुड़कर मैं
भी ऊंचा हो गया। उस आनंदित के साथ जुड़ कर मैं भी आनंदित हो गया। उस परम उत्सव के
साथ जुड़कर मेरे जीवन में भी नाच आ गया, सुगंध आ गयी।
"नीच
कहै ना कोई गए जब से सरनाई।
नारा बहि के मिल्यो गंग में गंग कहाई।।'
मैं तो नाले जैसा था, गंदा
नाला था,
लेकिन गंगा में मिल गया और जब से गंगा में मिल गया, मेरी
भी पूजा हो रही है। "मिल्यो गंग में गंग कहाई।' अब
तो मुझे भी लोग गंगा कहते हैं। मुझे पक्का पता है कि मैं कौन हूं। मुझे पक्का पता
है मैं कैसा था। मुझे वे सारे दुर्दिन पता हैं, वे सारी लंबी
अंधेरे की यात्राएं, जन्मों-जन्मों के पापकर्म मुझे सब पता हैं।
लेकिन सब क्षण में धुल गया।
.
. .गए जब से सरनाई,
नारा बहि के मिल्यो गंग में गंग कहाई।।
पारस के परसंग लोह से कनक कहावै।'
यह पारस का साथ हो गया, लोहा
कंचन हो गया।
तुम परमात्मा का साथ खोज लो पहले।
"तुझे
पराई क्या परी,
अपनी आप निबेर।'
"पारस
के परसंग लोह से कनक कहावै।
आगि मंहै जो परै जरै आगइ होइ जावे।।'
और जब से मैं उसमें जल गया, जब
से मैं उसकी आग में उतर गया, जब से मैं उस प्यारे की अग्नि में समर्पित
हो गया. . .।
"आगि
मंहै जो परै जरै आगइ होई जावै।'
तब से मैं आग ही हो गया। तब से पलटू नहीं
रहा--परमात्मा ही है। वही बोलता, वही उठता, वही
चलता। पलटू तो खो गया।
"सोइ
सती सराहिए जरै पिया के साथ।'
पलटू कहते हैं ः मैं तो जल गया उस प्यारे के
साथ। मैंने तो उस प्यारे की अग्नि में अपने को समर्पित कर दिया। मैं क्या जला, मेरी
सब उलझनें भी जल गयीं। मैं क्या जला, मेरी सब समस्याएं
भी जल गयीं। मैं क्या जला, मेरे सब पाप भी जल गए। मैं क्या जला, मेरा
सब अतीत भी जल गया। मैं निष्कलंक, निष्कपट, निःशुद्ध, निर्विकार
होकर प्रकट हुआ।
"पारस
के परसंग लोह से कनक कहावै।'
आगि मंहै जो परै जरै आगइ होइ जावै।।
राम का घर है बड़ा सकल ऐगुन छिप जाई।
पलटू कहते हैं ः यह तो जाना तब जब पता चला
कि राम का घर इतना बड़ा है कि सब पाप छिप जाते हैं। राम की महिमा इतनी बड़ी है कि
उसके साथ जुड़ते ही सब पाप मिट जाते हैं। आदमी अपनी समस्याओं को सुलझा नहीं सकता।
आदमी सुलझाता है तो और समस्याएं उलझती चली जाती हैं। आदमी की समस्याएं सुलझती हैं
सिर्फ उस पारस के साथ जुड़ जाने से।
"पलटू
गुरु परसाद से किया पिया को हाथ।
सोई सती सराहिए जरै पिया के साथ।।'
उसको भर हाथ कर लो, फिर
अपने से सब हो जाता है।
जीसस ने कहा है ः तुम प्रभु को खोज लो, फिर
शेष सब अपने से आ जाता है। और उसे बिना खोजे, तुम कुछ भी खोजते
रहो, कुछ
भी हाथ न आएगा;
सिर्फ जीवन गंवाओगे, अवसर गंवाओगे।
"राम
का घर है बड़ा सकल ऐगुन छिप जाई।
जैसे तिल को तेल फूल संग बास बसाई।।'
देखते हैं न, फूल
के पास तिल को रख दो तो फूल की बास तिल में समा जाती है, फिर
तिल का तेल बन जाता है। तेल में भी बास आती है--मगर फूल के संग।
कहीं कोई खिला हुआ फूल हो, उसके
संग हो जाओ,
सत्संग कर लो, तुम में भी बास बस जाएगी। और फिर परमात्मा
के परम फूल के साथ जब हो जाओगे****)१०श्**ष्ठ**इ२५५)२५५**** "पलटू गुरु परसाद
से किया पिया को हाथ।'. . .तो फिर ऐसी सुवास बस जाएगी जो एक बार
बस जाती है तो फिर जाती नहीं। फिर उड़ती नहीं। कितनी ही उड़े, बढ़ती
ही जाती है। कितनी ही बंटे, बढ़ती ही चली जाती है। शाश्वत झरना मिल जाता
है। जैसे तिल को तेल, फूल संग बास बसाई।
"भजन
केर परताप तें तन मन निर्मल होय।
पलटू नीच से ऊंच भा, नीच
कहै ना कोय।।'
भजन केर परताप तें. . . सिर्फ भजन के प्रताप
से! कुछ और किया नहीं; उसका गीत भर गाया है, कुछ
और किया नहीं। सिर्फ उसके रंग में रंग कर नाचे हैं। कुछ और किया नहीं, सिर्फ
उसकी मस्ती की शराब पी है।
"रैन
दिवस बेहोस पिया के रंग में राती।
तन की सुधि है नाहिं पिया संग बोलत जाती।।'
भजन का अर्थ ः अपना तो होश खो गया, सिर्फ
परमात्मा की प्रार्थना का होश रहा है। भजन केर परताप तें. . .। और उस भजन के
प्रताप से. . . "तन मन निर्मल होय'....सब निर्मल हो गया
है।
इसे समझना। ज्ञानी कहता है ः निर्मल होना
पड़ेगा,
तब परमात्मा मिलेगा। भक्त कहता है ः परमात्मा मिल जाए तो निर्मलता
आ जाए। फर्क समझ लेना। ज्ञानी कहता है ः चेष्टा करनी पड़ेगी, पाप
काटने पड़ेंगे,
कर्म-मल धोना पड़ेगा, रग-रग साबुन से
घिस-घिस कर सफाई करनी पड़ेगी। जन्मों-जन्मों का कचरा है, काटना
पड़ेगा,
खुद ही काटना पड़ेगा। तब जब सब तरह से शुद्धि हो जाएगी, तो
फिर प्रभु का मिलन है; तो फिर सत्य का दर्शन है।
भक्त कहता है ः अपने किए से यह होगा? और
भक्त ने बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है ः अपने किए से यह होगा? अपने
किए से तो यह कचरा पैदा हुआ। अपने किए से तो यह जन्म-जन्म का दुःख और पीड़ा और
अंधकार पैदा हुआ। अपने किए से उजाला होगा? अपने किए से यह
गंदगी कटेगी?
जिस अहंकार के कारण यह गंदगी पैदा हुई, वही
अहंकार साबुन बन सकेगी?
भक्त कहता है ः भरोसा नहीं आता। भक्त कहता
है ः मैं अपने को भली-भांति जानता हूं। अगर मेरे किए ही मुक्ति होनी है, तो
फिर मुक्ति होनी ही नहीं है। मुझे तो कोई उठा ले। मुझे तो कोई पिया का हाथ मिल
जाए। इस गङ्ढे में गिरने में तो मैं कुशल हूं; इससे निकल मैं
सकूंगा अपने आप,
यह मुझे भरोसा नहीं है। निकलने की कोशिश में और गिरता जाऊंगा।
भक्त कहता है ः मैंने अपने पर श्रद्धा खो दी
है, जन्मों-जन्मों
का अनुभव साफ कर रहा है कि मैं अपने पर क्या श्रद्धा करूं? अब
तो सिर्फ एक ही चमत्कार मुझे उठा सकता है ः परमात्मा मुझे उठा ले। तो मैं क्या
करूं--इस गङ्ढे में पड़ा हुआ भक्त? कहता है ः भजन करूंगा, उसे
पुकारूंगा। उसकी सहायता चाहिए।
"भजन
केर परताप तें. . .।'
भजन का अर्थ होता है ः मैं तो पापी। मैं तो
बुरा। मैं तो दुर्जन! मेरे किए तो गलत ही हुआ। मेरे किए तो गलत ही होगा। बस तेरे
से आशा जुड़ी है। तेरा आश्वासन है। तू उठाए तो उठ जाएं। तू खींचे तो खिंच जाएं। तो
हम क्या करें--बस पुकारेंगे।
भक्त तो ऐसा है जैसे छोटा बच्चा, अपने
झूले में पड़ा है,
अपने से उठ ही नहीं सकता। अपने से उठे तो झूले से और गिरेगा, हाथ-पैर
तोड़ लेगा। क्या कर सकता है? रो सकता है। चिल्ला सकता है। कहीं मां होगी
तो सुन लेगी।
भजन
का अर्थ होता है ः अगर कहीं परमात्मा है तो सुन लेगा। हम पुकारे चले जाएंगे। हम
रोएंगे। और हम क्या कर सकते हैं! आंसू बहाएंगे। गीत गुनगुनाएंगे। पुकारेंगे। अगर
है परमात्मा कहीं,
अगर इस अस्तित्व में कहीं भी करुणा है, अगर
इस अस्तित्व में कहीं भी कोई धड़कता हुआ हृदय है--
तो हम इसी के बेटे हैं, इसी
अस्तित्व से आए हैं, तो कहीं कोई मां हमें खींच लेगी। बस इसी
भरोसे. . .।
भक्त की सारी की सारी जीवन-पद्धति पुकारने
की पद्धति है;
स्मरण करने की पद्धति है; रोने की पद्धति
है। भक्त का भरोसा आंसुओं पर है। भक्त का भरोसा अपने हाथों पर नहीं है। अपने हाथों
का खेल तो जन्मों-जन्मों देख लिया। भक्त का भरोसा तो अब रुदन पर है, कि
रोएंगे,
अब तो पुकारेंगे। अगर अस्तित्व में कहीं भी कोई करुणा का सूत्र है
तो जरूर करुणा आएगी और बचाएगी। अगर कहीं कोई अस्तित्व में सूत्र ही नहीं करुणा का
तो ठीक है,
यही गङ्ढा है, इससे बाहर जाने का फिर कोई उपाय नहीं।
"भजन
केर परताप तें तन मन निर्मल होय।'
भजन की अपरंपार महिमा, कि
उसे पुकारते-पुकारते, जो करने से कभी न हुआ था, वह
पुकारने से होने लगा।
तुम ज़रा करो यह पुकार--और तुम चकित हो
जाओगे। तुम ज़रा घड़ीभर बैठ कर रोओ, डोलो, पुकारो परमात्मा
को! शुरू-शुरू में तुम्हें लगेगा, कि क्या पागलपन कर रहे हो! क्योंकि तुमने
कभी पुकारा नहीं। तो तुम्हें इस पुकारने की कला का कुछ पता नहीं। कोई फिक्र न करना; समझना
कि चलो पागलपन ही सही। कभी पागलपन करके भी देख लेना चाहिए, कि
शायद कुछ हो। एक प्रयोग तो कर लो! और तुम चकित होओगे कि आधा घड़ी तुम रो लिए और तुम
पुकारते रहे,
तुम सिर्फ राम ही राम कहते रहे, अल्लाह-अल्लाह ही
कहते रहे और डोलते रहे--तुम चकित होओगे घड़ी भर बाद, तुम्हारा
हृदय ऐसा हलका हो गया जैसे कभी न हुआ था! तुम फिर से छोटे बच्चे जैसे निर्दोष हो
गए। यह पुकार चमत्कार कर गयी। और यह तो शुरुआत है। मगर एक झलक खुलेगी। भीतर कुछ
खिल जाएगा। तुम हलके हो जाओगे। चलोगे तो पैर जमीन पर न पड़ते हुए मालूम पड़ेंगे। कुछ
नया-नया! सब तरफ रंग कुछ साफ-साफ है। जिंदगी उदास नहीं। चारों तरफ जैसे एक गीत
छाया है। सब तरफ जैसे कोई। एक रहस्य छिपा है। तुम आश्चर्य-चकित । तुम्हारी आंखों
में पहली दफा आश्चर्य का भाव फिर से उठेगा। बचपन में कभी खो दिया था वह भाव, वह
सरलता फिर आएगी। तुम अपने में फर्क होते देखने लगोगे। अगर तुम ऐसे आधा घंटा
पुकारने के बाद आए हो और पत्नी ने तुमसे कुछ कहा--अगर कल कहा होता तो तुम नाराज
हुए होते--आज तुम अचानक पाओगे नाराजगी नहीं आ रही। आज इतनी आधा घड़ी पुकार के बाद
तो तुम अगर घर के बाहर आओगे और भिखमंगे को द्वार पर पाओगे, तो
तुम यह न कह सकोगे आगे जाओ। तुम फर्क पाओगे। तुम्हारा मन होगा कुछ दें। तुम्हें
इतना मिला सिर्फ पुकारने से, यह भी पुकार रहा है! कौन जाने तुम्हारे हाथ
से ही परमात्मा इसे कुछ देना चाहता है। तुम्हारा देने का मन आज सरल होगा, सहज
होगा। तुम दुकान पर बैठ कर पाओगे कि ग्राहक को उतनी आसानी से नहीं लूट रहे हो, जैसे
कल तक लूट रहे थे । रोज-रोज तुम फर्क पाओगे। दो-चार महीने में तुम पाओगे, तुम्हारे
कलुष धुल गए,
जो तुम धो-धोकर नहीं धो सकते थे--सिर्फ पुकारने से धुल गए। आंसुओं
से धुल जाती है आत्मा। प्रार्थना से धुल जाती है आत्मा।
"भजन
केर परताप तें तन मन निर्मल होय।
पलटू नीच से ऊंच भा नीच कहै ना कोय।।'
पलटू कहते हैं ः खूब हुआ! मैंने कुछ किया भी
नहीं। पुकारा भर। पुकार को भी कुछ किया, ऐसा तो नहीं कह
सकते। मैंने तो कुछ किया नहीं। रोया भर। अब रोने को थोड़े ही कोई बड़ा कर्तव्य कहते
हैं! लेकिन नीचे से अचानक ऊंचा हो गया। किसी ने खींच लिया गङ्ढों से, बिठा
दिया शिखर पर। इस सूत्र को खयाल में रखना।
"सोई
सती सराहिए जरै पिया के साथ।
जरै पिया के साथ, सोई
है नारी सयानी।
रहै चरन चित लाय, एक
से और न जानी।।
जगत् करै उपहास, पिया
का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै।
ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे भूख-प्यास याद संग चलती स्वासा।।
रैन दिवस बेहोस पिया के रंग में राती।
तन की सुधि है नाहिं पिया संग बोलत जाती।।
पलटू गुरु परसाद से किया पिया को हाथ।
सोई सती सराहिए जरै पिया के साथ।।'
इसमें आ गया प्रार्थना का सारा सूत्र। इसमें
आ गया भजन का सारा सार। मस्ती, बेहाशी, मदमस्ती। प्रभु
से चर्चा,
बात, संवाद, पागलपन, दीवानापन।
और दूसरे की फिक्र छोड़ो; नहीं
तो प्रार्थना न कर पाओगे। और प्रार्थना हो जाए तो दूसरे की सेवा तुमसे अनायास हो
सकेगी।
"तुझे
पराई क्या परी,
अपनी आप निबेर।
अपनी आप निबेर छोड़ि गुड़ विस को खावै।
कुवां में तू परै, और
को राह बतावै।।
औरन को उजियार मशालची जाय अंधेरे।
त्यों ज्ञानी की बात मया से रहते घेरे।।
बेचत फिरै कपूर आप तो खारी खावै।
घर में लागी आग दौड़ के घूर बुतावै।
पलटू यह सांची कहै अपने मन का फेर।
तुझे पराई क्या परी, अपनी
ओर निबेर।।'
पहले तो अपने को जोड़ लो प्रभु से; फिर
तुम सेतु बन जाओगे बहुतों के लिए। बहुत तुम्हारे सेतु से गुजरेंगे और प्रभु से
जुड़ेंगे। पहले तुम आनंदित हो जाओ; फिर बहुतों को तुमसे आनंद की किरण मिलेगी।
पहले तुम नाचो;
फिर बहुतों के जमे-थमे पैर, सड़ गए पैर पुनः
नाच से भर जाएंगे,
पुनः जीवंत हो जाएंगे।
पहले तुम उत्सव से भर जाओ, फिर
तुम बहुतों की आंखों में उत्सव के दीए जला दोगे। बहुत प्राण तुम्हारे साथ नाचेंगे, रास
रचाएंगे;
लेकिन पहले तुम. . .। शुरुआत वहां से। और घबड़ाओ मत, यह
मत सोचो कि मैं इतना नीचा आदमी , मैं ऐसा पापी आदमी, मुझ
से क्या होगा! ठीक है, तुमसे कुछ होने वाला नहीं है; लेकिन
तुम पुकार तो सकते हो। कितने ही गहरे गङ्ढे में कोई गिरा हो, क्या
पुकार भी नहीं सकता? और कितने ही पाप में कोई पड़ा हो, क्या
रो भी नहीं सकता?
आंख में आंसू तो हैं, पर्याप्त है।
इतने से ही बात हो जाएगी।
"पलटू
नीच से ऊंच भा नीच कहै न कोय।
नीच कहै न कोय, गए
जब से सरनाई।'
जिस गङ्ढे में हो, उसी
को मंदिर बना लो,
वहीं सिर झुका लो। उसी गङ्ढे में बिछा दो नमाज का कपड़ा, वहीं
झुक जाओ।
"पलटू
नीच से ऊंच भा,
नीच कहै ना कोय।
नीच कहै ना कोय, गए
जब से सरनाई
नारा बहि के मिल्यो गंग में गंग कहाई।।
पारस के परसंग लोह से कनक कहावै।
आगि मंहै जो परै, जरै
आगइ होइ जावै।।
राम का घर है बड़ा, सकल
ऐगुन छिप जाई।
जैसे तिल को तेल, फूल
संग बास बसाई।
भजन केर परताप तें तन-मन निर्मल होय।
पलटू नीच से ऊंच भा नीच कहै ना कोय।।'
यही घड़ी आज ही आ सकती है--पुकारो! यह बात आज
ही घट सकती है-- रोओ! यह बात अभी हो सकती है। कोई तुम्हें सीढ़ी नहीं लगानी; तुम
जहां हो वहीं परमात्मा का हाथ पहुंच जाएगा। लेकिन तुम्हारे बिना पुकारे परमात्मा
तुम्हारे जीवन में बाधा नहीं देता। तुम्हारी स्वतंत्रता की सुरक्षा रखता है। तुम्हारी
स्वतंत्रता के प्रति बड़ा समादर है। तुम नरक जाने को स्वतंत्र हो; तुम
स्वर्ग जाने को भी स्वतंत्र हो। नरक जाने में तुम्हें चेष्टा करनी पड़ती है। स्वर्ग
जाने में तुम्हें निश्चेष्ट होकर पुकारना पड़ता है। वही है भजन का सार-सूत्र ः
निश्चेष्ट होकर पुकारो। अपने पर भरोसा छोड़कर पुकारो। कहो कि मेरे किए तो जो भी हुआ
गलत हुआ--अब तू आ!
आज इतना ही।
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