धर्म का जन्म..एकांत में—प्रवचन-आठवां
प्रशनसार-
1-क्या ध्यान की तरह भक्ति भी एकाकीपन से ही
शुरू होती है?
2-पलटूदास जी कहते हैं : "लगन-महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम'। और नक्षत्र-विज्ञान कहता है कि
लग्न-मुहूर्त से काम बनने की संभावना बढ़ जाती है?
3-काम पकने पर उसमें रुचि क्षीण होने लगती है।
प्रेम पकने पर क्या होता है?
4-सब कुछ दांव पर लगा देने का क्या अर्थ है?
5-प्रबल जीवेषणा के होते हुए भी किस भांति भक्त
को अपने हाथ से अपना सीस उतारना संभव होता है?
6-संत पलटूदास उसे गंवार कहते हैं जो जगत् की झूठी
माया में फंसा है और उसे बेवकूफ, जो प्रेम की ओर कदम
बढ़ाता है। फिर बुद्धिमान कौन है?
पहला प्रश्न : ध्यान है एकाकी की उड़ान--एकाकी
तक। भक्ति है एकाकी की उड़ान--परमात्मा तक। क्या ध्यान की तरह भक्ति भी एकाकीपन से
ही शुरू होती है?
धर्म
का जन्म ही एकांत में है,
एकाकीपन में है। जहां तक भीड़ है, जहां तक भीड़
में लगाव है, जहां तक भीड़ के बिना रहना क्षणभर को कठिन
है--वहां तक धर्म नहीं, संसार है।
और
ध्यान रहे,
भीड़ से भागकर ही कोई भीड़ से नहीं भाग जाता है। भीड़ में होकर भी कोई
एकांत में हो सकता है। भीड़ भीतर नहीं होनी चाहिए। और एकांत में होकर भी भीड़ में हो
सकता है। दूर हिमालय की गुफा में बैठकर भी तुम अगर चिंतन करो औरों का, मित्रों का, प्रियजनों का, शत्रुओं
का, बाजार का, दुकान का--तो तुम भीड़
में हो।
तो
भीड़ मनोवैज्ञानिक जरूरत जब तक है, जब तक ऐसा लगता है कि बिना भीड़
के मैं मिटा, बिना भीड़ के मैं न रह सकूंगा; चाहिए ही भीड़; बाहर हो तो ठीक, बाहर न हो तो भीतर खड़ी कर लूंगा--तब तक तुम संसार में हो।
संसार
मन की इस रुग्ण दशा का नाम है कि "दूसरों के बिना मैं नहीं हो सकता हूं; परनिर्भरता का नाम है, कि मेरा अस्तित्व दूसरों के
होने पर ही निर्भर है; कि मेरा सुख दूसरे पर ही निर्भर है;
अकेला मैं दुःखी हूं; दूसरा मुझे सुख देगा।
फिर पति हो, पत्नी हो, मां हो, पिता हो, भाई हो, मित्र
हो--मगर कोई दूसरा मुझे सुख देगा! सुख दूसरे के पास है, मैं
भिखारी हूं।' यह संसार है।
सुख
मेरा मेरे भीतर है,
मैं सम्राट हूं--यह धर्म।
तो
धर्म का जन्म ही एकांत में होता है। लेकिन एकांत का मतलब अकेलापन नहीं होता। भूलकर
मत सोचना कि एकांत का मतलब अकेलापन होता है। अकेलापन तो एक नाकारात्मक दशा है।
जैसे
सब घर के बाहर चले गए और तुम अकेले रह गए--यह एकांत नहीं है। घर में अकेले हो, मगर मन हजार दौड़ें भर रहा है। घर में अकेले हो, मगर
अकेले होने में रस तो नहीं आ रहा; अकेले होने में छंद तो
पैदा नहीं हो रहा; मगन तो नहीं हो; मस्त
तो नहीं हो--उदास हो। सोचते हो कोई आ जाए, कोई मित्र ही
द्वार खटखटा दे; कोई पड़ोसी बुला ले; कोई
आ जाए! और अगर कोई न आए तो रेडियो चला लो, टेलीविजन देखने
लगो, अखबार पढ़ो, उपन्यास पढ़ो--मगर खो
जाओ कहीं!
अकेलापन
तब--जब एकांत काटता हो। एकांत तब--जब अकेलेपन में रस की धार बहे।
तो
एकांत और अकेलेपन का फर्क भी समझ लेना।
एकांत
तब -- जब तुम परम आनंदित हो; तुम्हें याद भी नहीं आती दूसरे
की; क्षणभर को भी दूसरे का विकल्प खड़ा नहीं होता; दूसरे का विचार लहराता नहीं। तुम परम मस्ती में हो। तुम डोल रहे हो अपनी
मस्ती में। तुम अपने को ही पी रहे हो। तुम्हारे भीतर से गीत उठ रहे हैं। तुम्हारे
भीतर परम शांति है--नकारात्मक नहीं, मरघट की नहीं--ऐसी शांति
जहां जीवन के फूल खिलते हैं; ऐसी शांति जहां परमात्मा की
सुवास उठती है; जीवंत शांति; आह्लादित शांति इस फर्क की भी ख्याल में ले लेना। शांति
मूर्दा भी होती है; मूर्दा का मतलब होता है उदासी कीनीराश
हताश शांति, आह्लादित भी होती है, नाचती
हुई भी होती है। और जब नाचती हुई होती है तो ही परमात्मा तक ले जाती है। जब उदास
होती है तो तुम पत्थर के ढेले की तरह पड़े रह जाते हो राह के किनारे; तुम्हारे जीवन में गति नहीं होती, गत्यात्मकता नहीं
होती, सरित-प्रवाह नहीं होता। तुम बहते नहीं; सूखी तलैया हो जाते हो। और रोज-रोज पानी सूखता और मछली रोज-रोज तड़पती और
दुःखी होती और परेशान होती।
बहती
हुई शांति!
कल-कल
की ध्वनि से भरी हुई शांति!
पर, धर्म तो शुरू होता ही एकांत में है। फिर धर्म चाहे भक्ति का हो और चाहे
ध्यान का; चाहे प्रेम का, चाहे ज्ञान
का--इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
एकांत
दो प्रकार का हो सकता है,
क्योंकि मनुष्य-जाति दो भागों में बंटी है। एक, जिसको कार्ल गुस्ताव जुंग ने बहिर्मुखी व्यक्ति कहा है, ऐक्स्ट्रोवर्ट और एक, जिसको अंतर्मुखी व्यक्ति कहा
है, इंट्रोवर्ट।
दुनिया
में दो तरह के लोग हैं। एक,
जिनके लिए आंख खोलकर देखना सहज है; जो अगर
परमात्मा के सौंदर्य को देखना चाहेंगे तो इन वृक्षों की हरियाली में दिखाई पड़ेगा,
चांदत्तारों में दिखाई पड़ेगा, आकाश में
मंडराते शुभ्र बादलों में दिखाई पड़ेगा, सूरज की किरणों में,
सागर की लहरों में, हिमालय के उत्तुंग
हिमाच्छादित शिखरों में, मनुष्यों की आंखों में, बच्चों की किलकिलाहट में।
बहिर्मुखी
का अर्थ है,
उसका परमात्मा खुली आंख से दिखेगा। अंतर्मुखी का अर्थ है, उसका परमात्मा बंद आंख से दिखेगा, अपने भीतर। वहां
भी रोशनी है। वहां भी कुछ कम चांदत्तारे नहीं हैं। कबीर ने कहा है हजार-हजार सूरज।
भीतर भी हैं! इतने ही चांदत्तारे, जितने बाहर हैं। इतनी ही हरियाली,
जितनी बाहर है। इतना ही विराट भीतर भी मौजूद है, जितना बाहर है।
बाहर
और भीतर संतुलित हैं,
समान अनुपात में हैं। भूलकर यह मत सोचना कि तुम्हारी छोटी-सी देह,
इसमें इतना विराट कैसे समाएगा; यह विराट तो
बहुत बड़ा है, बाहर विराट है, भीतर तो
छोटा होगा! भूलकर ऐसा मत सोचना। तुमने अभी भीतर जाना नहीं। भीतर भी इतना ही विराट
है--भीतर, और भीतर, और भीतर! उसका भी
कोई अंत नहीं है। जैसे बाहर चलते जाओ, चलते जाओ, कभी सीमा न आएगी विश्व की--ऐसे ही भीतर डूबते जाओ, डूबते
जाओ, डूबते जाओ, कभी सीमा नहीं आती
अपनी भी। यह जगत् सभी दिशाओं में अनंत है। इसलिए हम परमात्मा को अनंत कहते हैं;
असीम कहते हैं, अनादि कहते हैं । सभी दिशाओं
में!
महावीर
ने ठीक शब्द उपयोग किया है। महावीर ने अस्तित्व को "अनंतानंत' कहा है। अकेले महावीर ने--और सब ने अनंत कहा है। लेकिन महावीर ने कहा,
अनंतता भी अनंत प्रकार की है; एक प्रकार की
नहीं है; एक ही दिशा में नहीं है; एक
ही आयाम में नहीं है--बहुत आयाम में अनंत है, अनंतानंत! इधर
भी अनंत है, उधर भी अनंत है! नीचे की तरफ जाओ तो भी अनंत है,
ऊपर की तरफ जाओ तो भी अनंत! भीतर जाओ, बाहर
जाओ--जहां जाओ वहां अनंत है। यह अनंता एकांगी नहीं है, बहु
रूपों में है। अनंत प्रकार से अनंत है--यह मतलब हुआ अनंतानंत का।
तो
तुम्हारे भीतर भी उतना ही विराट बैठा है। अब या तो आंख खोलो--और देखो; या आंख बंद करो--और देखो! देखना तो दोनों हालत में पड़ेगा। द्रष्टा तो बनना
ही पड़ेगा। चेतना तो पड़ेगा ही। चैतन्य को जगाना तो पड़ेगा। सोए-सोए काम न चलेगा।
बहुत
लोग हैं जो आंख खोलकर सोए हुए हैं। और बहुत लोग हैं जो आंख बंद करके सो जाते हैं।
सो जाने से काम न चलेगा;
फिर तो आंख बंद है कि खुली है, बराबर है;
तुम तो हो ही नहीं, देखनेवाला तो है ही
नहीं--तो न बाहर देखोगे न भीतर देखोगे। यह आंख बीच में है। पलक खुल जाए तो बाहर का
विराट; पलक झप जाए तो भीतर का विराट।
बहिर्मुखी
का अर्थ है,
जिसे परमात्मा बाहर से आएगा। अंतर्मुखी का अर्थ जिसे परमात्मा भीतर
से आएगा। अंतर्मुखी ध्यानी होगा; बहिर्मुखी, भक्त। इसलिए अंतर्मुखी परमात्मा की बात ही नहीं करेगा। परमात्मा की कोई
बात ही नहीं; परमात्मा तो "पर' हो
गया। अंतर्मुखी तो आत्मा की बात करेगा। इसलिए महावीर ने, बुद्ध
ने परमात्मा की बात नहीं की। वे परम अंतर्मुखी व्यक्ति हैं। और मीरां, चैतन्य, इन्होंने परमात्मा की बात की। ये परम
बहिर्मुखी व्यक्ति हैं। अनुभव तो एक का ही है क्योंकि बाहर और भीतर जो है वह दो
नहीं है; वह एक ही है। मगर तुम कहां पहुंचोगे? बाहर से पहुंचोगे या भीतर से, इससे फर्क पड़ जाता है।
इधर से कान पकड़ोगे या उधर से, इतना ही फर्क है। कान तो वही
हाथ में आएगा। आता तो परमात्मा ही हाथ में है। जब भी कुछ हाथ में आता है, परमात्मा ही हाथ में आता है। और तो कुछ है ही नहीं हाथ में आने को। जिस
हाथ में आता है वह हाथ भी परमात्मा है। परमात्मा ही परमात्मा के हाथ में आता है।
मगर
बहिर्मुखी एक ढंग से यात्रा करता है, अंतर्मुखी दूसरे
ढंग से। बहिर्मुखी मूर्ति रखेगा भगवान की, मंदिर बनाएगा,
श्रृंगार लगाएगा भगवान को, नाचेगा मूर्ति के
आसपास। सूर्य को नमस्कार करेगा। चांदत्तारों में देवताओं का निवास बनाएगा। ठीक है।
जैसे भी हो, उस परम सौंदर्य की प्रतीति होनी चाहिए।
अंतर्मुखी
मूर्ति इत्यादि हटा देगा;
उसकी कोई जरूरत नहीं है। न साज-श्रृंगार, करेगा
परमात्मा का।
ऐसा
हुआ : राबिया एक सूफी फकीर औरत, के घर दूसरा सूफी फकीर, हसन ठहरा हुआ था। सुबह हुई, अंधेरा कटा, सूरज निकला। हसन बाहर खड़ा था झोंपड़े के। इस अपूर्व सुबह को देखकर मगन हो
उठा। भक्त था। नाचने लगा। और उसने आवाज दी राबिया को कि "राबिया, तू भीतर बैठी क्या कर रही है? बाहर आ, बड़ी सुंदर सुबह निकली है! परमात्मा की ऐसी सुंदर सुबह है और तू भीतर बैठी
क्या कर रही है? सूरज ने अपना जाल फैला दिया है। पक्षी गीत
गा रहे हैं। सुबह की शीतल हवा है। रात का अंधेरा कट गया है। ये परम आनंद के क्षण
हैं। तू भीतर बैठी क्या कर रही है?'
और
पता है राबिया ने क्या कहा?
राबिया खिलखिला कर हंसी और उसने कहा, हसन,
तुम्हीं भीतर आओ। क्योंकि बाहर तुम जिस सूरज को देख रहे हो, मैं उस सूरज बनानेवाले को अपने भीतर देख रही हूं।
उसने
"भीतर'
का मतलब बिल्कुल गहरा लिया। उसने झोंपड़े के भीतर की बात ही नहीं की।
उसने कहा, तुम जिसे देख रहे हो, बाहर,
उसके बनानेवाले को मैं भीतर देख रही हूं। सूरज बाहर सुंदर है
क्योंकि उसके हाथ की छाप है। जहां-जहां उसका हस्ताक्षर है, वहां-वहां
सौंदर्य है, वहां-वहां धन्यता है, वहां-वहां
प्रसाद है। लेकिन मैं उसी को देख रही हूं। तुम्हीं आंख बंद करो और भीतर आओ हसन,
कब तक बाहर घूमते रहोगे?
यह
भक्त और ज्ञानी का फर्क है। हसन भक्त है; राबिया ज्ञानी है।
अगर तुम मुझसे पूछो तो न तो जो बाहर रस ले रहा है, उसे भीतर
आने की जरूरत है; न भीतर जो रस ले रहा है, उसे बाहर आने की जरूरत है। जो जहां रस ले रहा है, उसी
रस में डूबते-डूबते निमज्जित हो जाए, खो जाए।
तो
न तो मैं हसन से कहूंगा,
भीतर आओ। अगर मैं वहां होता तो हसन से कहता, तुम
बाहर नाचो। और राबिया से कहता, तू भीतर नाच; न हसन को भीतर बुला। और न हसन, तू राबिया को बाहर बुला;
क्योंकि राबिया को बाहर दिखाई न पड़ेगा--अंतर्मुखी है। और हसन को
भीतर दिखाई न पड़ेगा--बहिर्मुखी है।
और
ध्यान रखना,
बहिर्मुखी और अंतर्मुखी में कोई मूल्यांकन नहीं कर रहा हूं कि इनमें
कौन अच्छा, कौन बुरा। कोई अच्छा-बुरा नहीं। जहां से प्रभु
मिल जाए, प्रभु का मिलना अच्छा।
पूछा
है तुमनेः "ध्यान है एकाकी की उड़ान एकाकी तक। भक्ति है एकाकी की उड़ान
परमात्मा तक। क्या ध्यान की तरह भक्ति भी एकाकीपन से शुरू होती है?'
निश्चित
ही। दोनों एकाकीपन से ही शुरू होती हैं। दोनों ही भीड़ से मुक्त होकर शुरू होती
हैं। लेकिन दोनों का स्वाद थोड़ा भिन्न होता है। प्रथम तो भिन्न होता है; अंततः एक हो जाता है। मार्ग शुरू में भिन्न होते हैं। नदी एक, घाट बहुतेरे। घाटों के ढंग अलग-अलग हैं। नदी एक है। अगर घाट पर ध्यान
रखोगे तो भेद मालूम पड़ेगा; अगर नदी पर ध्यान करोगे तो भेद
मालूम नहीं पड़ेगा। जो जाना जाता है वह तो एक; जिसके द्वारा
जाना जाता है, वह तो एक--लेकिन जिन विधियों से जाना जाता है,
वे अनेक। घाट बहुतेरे।
भक्त
का एकाकीपन अलग;
ज्ञानी का एकाकीपन अलग--प्रथम चरण में। तुम बड़े हैरान होओगे कि
एकाकीपन और एकाकीपन कैसे अलग हो सकते हैं! समझने की कोशिश करो। जब भक्त एकाकी होता
है तो अपने को मिटाने लगता है; तभी एकाकी हो पाता है। जब
परमात्मा बचता है और भक्त मिट जाता है--तो एकाकी। एक बचा। जब तक भक्त भी रहता है,
तब तक दो। इसलिए भक्त की सारी चेष्टा है : परमात्मा बचे, मैं मिट जाऊं। कबीर कहते हैं : प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाय। या तो मैं या तू। अगर यही मामला है तो "मैं'
को मिटा दूंगा।
इसलिए
तो कहा पलटू ने कि जो अपने हाथ से सीस काटने को तैयार हो वही इस मार्ग पर कदम
बढ़ाए। इतना जो पागल हो,
ऐसा जो मर्द हो, वही कदम बढ़ाए। अपने को मिटा
डालना होगा, पोंछ डालना होगा। एक ही बचेगा। परमात्मा बचेगा।
ज्ञानी
क्या करता है?
ध्यानी क्या करता है? ध्यानी भीड़ को छोड़ता है,
परमात्मा को भी छोड़ देता है। वह कहता है, जब
तक यह परमात्मा है तब तक तो दूजा बचा है। इसलिए बौद्ध झेन फकीरों ने कहा है,
अगर बुद्ध भी रास्ते पर मिल जाएं तो उठाकर तलवार दो टुकड़े कर देना,
ताकि तुम अकेले बचो; दूसरा नहीं चाहिए। झेन
फकीरों ने कहा है कि अगर बुद्ध का नाम भी स्मरण आ जाए तो कुल्ला करके मुंह साफ कर
लेना।
ये
बुद्ध के भक्त इस तरह कह रहे हैं। यह ज्ञान का मार्ग है। ये कहते हैं, दूसरे की ज़रा भी जगह नहीं है, एक ही बचना चाहिए।
तुम्हारी चेतना मात्र बचे; कोई भी न बचे। चेतना में कोई
दृश्य न बचे; कोई दिखाई पड़नेवाला न बचे। कोई भी बचा है दूसरा,
भगवान भी बचा है दूसरा, तो अड़चन है।
रामकृष्ण
के गुरु तोतापुरी ने रामकृष्ण को कहा था, जब तक यह तेरी काली
बची है, तब तक तू अभी मुक्त नहीं हुआ। यह काली तो गिरानी
पड़ेगी। यह काली तो हटानी पड़ेगी।
यह
ज्ञानी बोल रहा है भक्त से। क्योंकि अभी तो बचा दूसरा; द्वि बची; द्वैत बचा। अद्वैत चाहिए। दर्पण बचे और
दर्पण में किसी का भी प्रतिबिंब न बचे। पहले प्रतिबिंब बनता था लोगों का, अब नहीं बनता; लेकिन परमात्मा का बनने लगा। मगर
परमात्मा भी तो "पर' है।
तो
ज्ञानी कहता है,
"पर' को बिल्कुल भुला दो, "पर' को बिल्कुल छोड़ दो। अकेले तुम ही बचो। राम का
स्मरण भी न बचे। राम की प्रतिमा भी न बचे। शुद्ध निर्विकार, निर्विकल्प
चैतन्य बचे। वहां पहुंच गए।
फर्क
समझना। ध्यानी सब "पर'
को छोड़कर--"पर' में परमात्मा भी सम्मिलित
है--जब अकेला बच जाता है, तो एकाकी। और भक्त सबको छोड़ कर
परमात्मा को बचा लेता है। सब में स्वयं भी सम्मिलित है। सब को छोड़कर परमात्मा को
बचा लेता है। तब एकाकी।
मगर
परमात्मा बचे या आत्मा बचे,
जब एक ही बचता है तो उन दोनों का स्वाद एक ही हो जाता है। फिर उसके
नाम का ही फर्क है। जिसको महावीर, आत्मा कहते हैं उसी को
शंकर, परमात्मा कहते हैं। फिर नाम का ही भेद है। फिर ज़रा भी
फर्क नहीं रहा। जहां एक ही बचा, अब तो नाम की ही बात रही।
तुम उसे क्या कहते हो--आत्मा कहो, परमात्मा कहो। ध्यानी
आत्मा कहेगा, क्योंकि ध्यानी तो परमात्मा को छोड़ ही चुका,
मिटा ही चुका। तो अब तो जो बची है, वह मेरा ही
शुद्धतम रूप है। अहं ब्रह्मास्मि! मैं ही ब्रह्मा हूं।
और
भक्त तो यह कैसे कहेगा कि मैं ही ब्रह्म हूं! वह तो कहेगा : मैं तो गया, पहले ही जा चुका। वह तो कब का जा चुका। अब एकाकी ब्रह्मा मात्र है। अब तो
तू ही है!
दोनों
ही एकाकी से शुरू होते हैं,
भीड़ को छोड़कर और दोनों परम एकांत में पूर्ण होते हैं। शुरू में
थोड़े-थोड़े भेद होंगे--अंतर्मुखता के, बहिर्मुखता के। अंतिम
चरण में कोई भेद नहीं रह जाता; अभेद प्रकट होता है।
दूसरा प्रश्न : पलटूदास जी कहते हैं :
"लगन-महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम'। और नक्षत्र-विज्ञान कहता है कि लगन-महूरत से काम बनने की संभावना बढ़
जाती है।... ?
नक्षत्र-विज्ञान
सांसारिक मन की ही दौड़ है। ज्योतिषियों के पास कोई आध्यात्मिक पुरुष थोड़े ही जाता
है। ज्योतिषियों के पास तो संसारी आदमी जाता है। कहता है : भूमि-पूजा करनी है, नया मकान बनाना है, तो लगन-महूरत; कि नई दुकान खोलनी है, तो लगन-महूरत; कि नई फिल्म का उद्घाटन करना है, लगन महूरत; कि शादी करनी है बेटे की, लगन-महूरत।
संसारी
डरा हुआ है : कहीं गलत न हो जाए! और डर का कारण है, क्योंकि सभी
तो गलत हो रहा है; इसलिए डर भी है कि और गलत न हो जाए! ऐसे
ही तो फंसे हैं, और गलत न हो जाए!
संसारी
भयभीत है। भय के कारण सब तरफ सुरक्षा करवाने की कोशिश करता है। और जिससे सुरक्षा
हो सकती है,
उस एक को भूले हुए है। वही तो पलटू कहते हैं कि जिस एक के सहारे सब
ठीक हो जाए, उसकी तो तू याद ही नहीं करता; और सब इंतजाम करता है : लगन-महूरत पूछता है। और एक विश्वास से, एक श्रद्धा से, उस एक को पकड़ लेने से सब सध
जाए--लेकिन वह तू नहीं पकड़ता, क्योंकि वह महंगा धंधा है। उस
एक को पकड़ने में स्वयं को छोड़ना पड़ता है; सिर काट कर रखना
होता है।
इसलिए
वह तो तुम नहीं कर सकते। तुम कहते हो : हम दूसरा इंतजाम करेंगे; सिर को भी बचाएंगे और लगन-महूरत पूछ लेंगे; सुरक्षा
का और इंतजाम कर लेंगे; और व्यवस्था कर लेंगे; होशियारी से चलेंगे; गणित से चलेंगे; आंख खोलकर चलेंगे; संसार में सुख पाकर रहेंगे।
ज्योतिषी
के पास सांसारिक आदमी जाता है। आध्यात्मिक आदमी को ज्योतिषी के पास जाने की क्या
जरूरत! आध्यात्मिक व्यक्ति तो ज्योतिर्मय के पास जाएगा, कि ज्योतिषी के पास जाएगा? चांदत्तारों के बनानेवाले
के पास जाएगा कि चांदत्तारों की गति का हिसाब रखनेवालों के पास जाएगा?
और
फिर आध्यात्मिक व्यक्ति को तो हर घड़ी शुभ है, हर पल शुभ है।
क्योंकि हर पल का होना परमात्मा में है; अशुभ तो हो कैसे
सकता है! कोई भी महूरत अशुभ तो कैसे हो सकता है! यह समय की धारा उसी के प्राणों से
तो प्रवाहित हो रही है। यह गंगा उसी से निकली है; उसी में बह
रही है; उसी में जा कर पूर्ण होगी।
आध्यात्मिक
व्यक्ति को तो सारा जगत् पवित्र है, सब पल-छिन सब
घड़ी-दिन शुभ है। ये तो गैर-आध्यात्मिक की झंझटें हैं। वह सोचता है : कोई भूल-चूक न
हो जाए; ठीक समय में निकलूं; ठीक दिन
में निकलूं; ठीक दिशा में निकलूं; महूरत
पूछ कर निकलूं।
किससे
डरे हो?
तुमने मित्र को अभी पहचाना ही नहीं; वह सब तरफ
छिपा है। तुम कैसा इंतजाम कर रहे हो? और तुम्हारे इंतजाम किए
कुछ इंतजाम हो पाएगा?
कितना
तो सोच-सोच कर आदमी विवाह करता है और पाता क्या है ? तुम कभी
सोचते भी हो कि सब विवाह इस देश में लगन-महूरत से होते हैं और फिर फल क्या होता है?
फिल्मों का फल छोड़ दो। जिंदगी का पूछ रहा हूं। फिल्में तो सब शादी
हुई, शहनाई बजी. . . और खत्म हो जाती हैं, वहीं खत्म हो जाती हैं। शहनाई बजते-बजते ही फिल्म खत्म हो जाती है क्योंकि
उसके आगे फिल्म को ले जाना खतरे से खाली नहीं है। सब कहानियां यहां समाप्त हो जाती
हैं कि राजकुमारी और राजकुमार का विवाह हो गया और फिर वे सुख से रहने लगे। और उसके
बाद फिर कोई सुख से रहता दिखाई पड़ता नहीं। असल में उसके बाद ही दुःख शुरू होता है।
मगर उसकी बात छेड़ना ठीक भी नहीं है।
इतने
लगन-महूरत को देखकर तुम्हारा विवाह सुख लाता है? इतना
लगन-महूरत देखकर चलते हो, जिंदगी में कभी रस आता है? इतना सब हिसाब बनाने के बाद भी आती तो हाथ में मौत है, जो सब छीन लेती है; जो तुम्हें नग्न कर जाती है,
दीन कर जाती है, दरिद्र कर जाती है। हाथ में
क्या आता है इतने सारे आयोजन-होशियारी के बाद, इतने चतुराई
के बाद? पलटू कहते हैं कि अपनी चतुराई पकड़े हुए हो, मगर इस चतुराई का परिणाम क्या है? आखिरी हिसाब में
तुम्हारे हाथ क्या लगता है?
सिकंदर
भी खाली हाथ जाता है। यहां सभी हारते हैं। संसार में हार सुनिश्चित है। चाहे शुरू
में कोई जीतता मालूम पड़े और हारता मालूम पड़े-- अलग-अलग ; लेकिन आखिर में सिर्फ हार ही हाथ लगती है। जीते हुओं के हाथ भी हार लगती
है; और हारे हुओं के हाथ हार तो लगती ही है। यहां जो दरिद्र
वे तो दरिद्र रह ही जाते है, यहां जो धनी है वे भी तो अंततः
दरिद्र सिद्ध होते हैं। यहां जिनको कोई
नहीं जानता था, जिनका कोई नाम नहीं था, कोई प्रसिद्धि नहीं थी, कोई यश नहीं था--वे तो खो ही
जाते हैं; लेकिन जिनको खूब जाना जाता था, बड़ी प्रसिद्धि थी--वे भी तो खो जाते हैं। मिट्टी सब को समा लेती है। चिता
की लपटों में सभी समाहित हो जाता है। रेखा भी नहीं छूट जाती।
कितने-कितने
लोग इस जमीन पर नहीं रह चुके हैं! तुम जहां बैठे हो, वैज्ञानिक
कहते हैं, जमीन के एक-एक इंच पर कम-से-कम दस-दस आदमियों की
लाशें गड़ी हैं। हम सब मरघट में बैठे हैं। जहां भी हो वहां मरघट है। पूरी जमीन पर
मरघट कई दफे बन चुका , बिगड़ चुका। आज यहां बस्ती है, कभी मरघट था। आज जहां मरघट है, कभी बस्ती बन जाएगी।
कितनी दफे उलट-फेर हो चुके हैं! यह जमीन कितनों को लील गई है! यह तुम्हें भी लील
जाएगी। कितनों का नाम रह गया है? और नाम रह भी जाए तो कोई
क्या रहता है! जब तुम ही न रहे तो नाम के रहने से भी क्या होता है?
लगन-महूरत
पूछ कर पहुंचते कहां हो?
इसका भी कभी हिसाब किया कि लगन-महूरत ही पूछते रहोगे? सांसारिक पूछता है लगन-महूरत। जितना सांसारिक आदमी हो, जितना महत्त्वाकांक्षी हो, उतना लगन-महूरत पूछता है।
दिल्ली में तुम पाओगे, सब तरह के ज्योतिषी अड्डा जमाए बैठे
हैं। चुनाव के समय उनकी खूब बन जाती है। सभी राजनेता के अपने-अपने ज्योतिषी हैं।
और वे ज्योतिषी उनको कहते हैं कि बस, इस मुहूरत में खड़े हो
जाओ; इस मुहूरत में भर देना फार्म चुनाव का; इस मुहूरत में ऐसा करना; यह ताबीज बांध लो, यह गंडा बांध लो; इस बार जीत निश्चित है।
मेरे
एक मित्र हैं,
ज्योतिष का धंधा करते हैं। और यह तो सब बेईमानी के धंधों में एक
धंधा है। उन्होंने एक कारीगरी की, उससे खूब प्रसिद्ध हुए।
राष्ट्रपति के चुनाव में दो व्यक्ति खड़े थे, दोनों को जा कर
कह आए कि आपका सफल होना निश्चित है। दोनों को कह आए। दो में से एक तो कोई होगा ही।
जो हो गया उसके पास जा कर पहुंचे; उसने तो उसके चरण भी छू
लिए और उनको लिखित सर्टिफिकेट भी दिया कि इनका ज्योतिष बड़ा सही है, ये कह कर गए थे मुझसे। दोनों को कह आए थे। जो हार गया, उसकी तो बात ही खत्म हो गई। अब उसके पास जाने की जरूरत ही नहीं है;
उसको याद भी नहीं है कि कौन आया, कौन गया। मगर
जो जीत गया, उसको याद दिलाने पहुंच गए, उससे सर्टिफिकेट ले आए।
जब
वे सर्टिफिकेट ले आए तो मैंने उनसे पूछा, मुझे पता है
तुम्हारा ज्योतिष कितना, कैसा है! मुझे पता है कि ज्योतिष में
कितना क्या। तुमने यह घोषणा कैसे की थी?
उन्होंने
कहा कि अब आपसे क्या छुपाना! दोनों की घोषणा कर आए थे। एक तो जीतेगा ही न। जो
जीतेगा उससे सर्टिफिकेट ले आएंगे।
उसका
सर्टिफिकेट ले आए,
फिर सारे अखबारों में सर्टिफिकेट छपवा दिया। राष्ट्रपति के साथ
तस्वीर निकलवा कर छपा दी। तब से उनका धंधा खूब चल निकला। अब तो लोग उनके पास काफी
आते हैं। और जब सौ आदमी आते हैं, तुम उनसे कहते ही चले जाओ
कि यह होगा, वह होगा; उसमें से कुछ को
तो होने वाला है; पचास को होनेवाला है। जिनको हो जाएगा उनकी
भीड़ बढ़ती जाती है। जिनको नहीं होता वे दूसरे ज्योतिषी खोजते हैं; तुम नहीं जंचते उनको, बात खत्म हो गई; वे किसी और के चक्कर में पड़ेंगे। लेकिन तुम्हारे पास जिनको लाभ हो जाता है,
वे आने लगते हैं; उनकी भीड़ बढ़ने लगती है;
उनका शोरगुल बढ़ने लगता है। फिर जब नया आदमी आता है तो वह देखता है
कि इतने लोगों को लाभ हो रहा है तो जरूर लाभ होता होगा।
ये
सब मनोवैज्ञानिक धंधे हैं। इनका मौलिक आधार सम्मोहन है। ये सब भ्रांति से चलते हैं
और भ्रांति तब तक चलती है जब तक आदमी को यह भ्रम है कि संसार में कुछ पा लूंगा। डर
तो लगता है कि मिलना मुश्किल है। किसको मिला! लेकिन उपाय कर लूंगा। तो फिर उपाय
में कोई कमी न रह जाए। तो सभी उपाय कर लूं। इसमें अब मुहूरत भी पूछ ही लूं, कौन जाने. . .।
मैंने
सुना है एक बड़े वैज्ञानिक के संबंध में कि वह अपनी बैठक में --स्वीडन में रहता
था--घोड़े का नाल लटकाए हुए था। एक अमरीकन पत्रकार उसे मिलने गया। उसने कहा कि
"आश्चर्य,
आप इतने बड़े वैज्ञानिक, नोबल पुरस्कार के
विजेता, और आप यह घोड़े का नाल लटकाए हुए हैं!' स्वीडन में लोग लटकाते हैं। उससे लाभ होता है। घोड़े का नाल लटकाने से
लोगों को लाभ होता है।
अलग-अलग
धारणाएं हैं लोगों की लाभ की। ". . . मगर आप ! आप इस अंधविश्वास में पड़े हैं!'
वह
वैज्ञानिक हंसने लगा। उसने कहा कि मैं इसको बिल्कुल नहीं मानता। यह बिल्कुल
अंधविश्वास है।
तो
फिर उसने कहा : जब आप कहते ही हैं कि यह बिल्कुल अंधविश्वास है और नहीं मानते, तो फिर अपनी बैठक में क्यों लटकाए हुए हैं?
उन्होंने
कहा : जिस आदमी ने यह मुझे दिया, उसने कहा कि मानो या न मानो,
लाभ तो होगा ही।
देखते
हैं आदमी का लोभ कैसा है! "मानो या न मानो, लाभ तो होगा
ही!'
"तो मैंने सोचा देख ही लें लटका कर। मानता तो मैं नहीं हूं। है तो
अंधविश्वास। लेकिन जिसने मुझे दिया है वह कहता है : मानो या न मानो, लाभ होगा ही।'
लाभ
की आकांक्षा है तो तुम फंसोगे कहीं न कहीं। लगन-मुहूरत देखकर कहीं न कहीं फंसोगे।
पलटू
तो बड़ी गहरी बात कह रहे हैं। पलटू तो कह रहे हैं : आध्यात्म के खोजी को क्या
लगन-मुहूरत?
परमात्मा को पाने के लिए कोई विधि-विधान थोड़े ही करना पड़ता है! सब झूठ
है, कहते हैं पलटू। लगन-मुहूरत झूठ सब।
परमात्मा
में जाना हो तो हर मुहूरत मुहूरत है। यही क्षण जा सकते हो। तुम्हारे ऊपर निर्भर
है। परमात्मा रोक थोड़े ही रहा है। वह यह थोड़े ही कह रहा है कि ठीक , समय पर आना।
और
जिस क्षण बुद्ध को ज्ञान हुआ, वह मुहूरत शुभ था या नहीं?
लेकिन इस पूरी पृथ्वी पर अज्ञानी पड़े रहे और उनमें से तो किसी को न
हुआ। मुहूरत शुभ था। बुद्ध को हुआ। जिस क्षण मीरां को हुआ, मुहूरत
शुभ था? लेकिन और तो किसी को न हुआ।
तुम
पर निर्भर है। मुहूरत तो प्रतिपल शुभ है; तुम जब आंख खोल
लोगे तब हो जाएगा।
पलटूदास
यह कह रहे हैं कि अगर पकड़ना ही हो तो क्या छोटे-मोटे ज्योतिषियों को पकड़ते हो, उस ज्योतिर्धर को पकड़ो। जिसने समय बनाया, उसी की शरण
गह लो। जिसने सब पल-छिन बनाए उसकी याद से भर जाओ . . । तो कहते हैं, जब राम की याद आ जाए, जब उसके नाम का स्मरण हो जाए,
वही शुभ घड़ी है। जब याद करो तभी शुभ घड़ी है।
तीसरा प्रश्न : काम पकने पर उसमें रुचि क्षीण
होने लगती है। प्रेम पकने पर क्या होता है?
जो
भी पक जाएगा उसमें रुचि क्षीण हो जाती है। जिसमें पकान आ गई, हम उसके आगे बढ़ गए। पका फल वृक्ष से गिर जाता है। पका कि गिरा। कच्चा होता
है, तब तक वृक्ष पर होता है। जब तक कच्चा होता है तब तक
इसीलिए वृक्ष पर होता है कि अभी पकना है और वृक्ष के रस की जरूरत है। रस मिलेगा तो
पकेगा। जब पक गया तो गिर जाएगा, क्योंकि वृक्ष को और भी
कच्चे फल हैं जिन पर ध्यान देना है। अब तुम पक गए, तुम गिर
गए। इसलिए तो पके व्यक्ति फिर नहीं लौटते। बुद्ध फिर नहीं लौटते पलटू, फिर नहीं लौटते--पक गए। यह संसार के वृक्ष से उन्होंने जितना रस लेना था,
ले लिया; गिर गए इस वृक्ष से।
जो
पक जाता है जीवन में,
उससे ही मुक्ति हो जाती है। तुम थोड़ा चौंकोगे। क्योंकि तुम सोचते थे
कि काम पक जाएगा, काम की वासना पक जाएगी तो गिर जाएगी,
फिर प्रेम का जन्म होगा। फिर प्रेम पकेगा, तब
क्या होगा? जब प्रेम पकेगा तो प्रेम भी गिर जाएगा और
प्रार्थना पैदा होगी। और जब प्रार्थना भी पक जाएगी तो प्रार्थना भी गिर जाती है।
तब शून्य रह जाता है। "गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में
विसराम'! तब कुछ भी नहीं बचता।
काम
गिरा--प्रेम आया। वही ऊर्जा जो काम में लगती थी, मुक्त होकर
प्रेम बन जाती है। फिर प्रेम पका, प्रेम भी गिर गया; फिर वही ऊर्जा जो प्रेम को पकाती थी, प्रार्थना बन
जाती है। फिर एक दिन प्रार्थना भी जाती है।
ऐसा
थोड़े ही है कि बुद्ध अब भी कहीं किसी लोक में बैठे हुए ध्यान कर रहे हैं और मीरां
किसी लोक में बैठी है और अभी भी नाच रही है। यह तो पागलपन हो जाएगा। हर चीज पक
जाती है,
हर चीज की पकान का क्षण आ जाता है; समाप्त हो
जाती है। और जहां सब समाप्त हो जाता है, उसी को हम परमात्मा कहते
हैं। जहां कुछ भी पकने को शेष न रहा, कुछ भी कच्चा न रहा,
उसी घड़ी को हम परमात्मा की घड़ी कहते हैं। सब पक गया, सबसे मुक्ति हो गई। जो-जो कच्चा है उससे बंधन बना रहता है।
इसलिए
तो मैं निरंतर तुमसे कहता हूं, किसी भी वासना को कच्ची मत
रखना। पका ही लेना। डरना मत। भयभीत मत होना। अगर धन पाने की आकांक्षा हो तो पा ही
लेना; बीच में मत लौट आना। मेरी सुनकर मत लौट आना। कोई कहता
हो धन में कुछ भी नहीं है, उसकी सुनकर लौट मत आना। तुम्हें
दिखना चाहिए कि कुछ भी नहीं है; दूसरे के दिखने से क्या होता
है? मैंने पुकारा कि धन में कुछ भी नहीं है और तुम्हें अभी
धन में बहुत कुछ दिखाई पड़ रहा था : तुम मेरे मोह में पड़ गए; तुम
मेरी बात में पड़ गए; तुम्हें मेरी बात का तर्क समझ में आ
गया। तर्क समझ में आ गया, लेकिन तर्क से कोई अनुभव तो बनता
नहीं। मैंने तुम्हें चुप कर दिया; तुम मुझसे जूझ न पाए,
विवाद न कर पाए। मैंने बड़े तर्कों से तुम्हें शांत कर दिया, तुम मेरे साथ चलने लगे। लेकिन तुम्हारा मन तो बाजार की तरफ दौड़ता रहेगा।
तुम्हारी देह मेरे साथ हो जाएगी; तुम्हारा मन बाजार में ही
दौड़ता रहेगा। तुम्हें धन अभी पाना था। अभी महत्त्वाकांक्षा भीतर बनी रहेगी। रात
तुम सपने देखोगे। जब कभी ध्यान करने बैठोगे तो ध्यान तो न हो पाएगा, धन ही धन की याद आएगी तब तुम परेशान होओगे। तुम कहोगे कि क्या बात है;
कि मैं ध्यान करने बैठता हूं और धन की याद क्यों आती है? कुछ भी अड़चन नहीं है, सीधी-सी बात है कि धन अभी पका
नहीं था। अभी तुमने अपने अनुभव से नहीं जाना था कि धन व्यर्थ है। तुम्हें तो लगता
है अभी भी कि सार्थक है। मेरी बात सुनकर चले आए। "कानों सुनी सो झूठ सब,
आंखों देखी सांच'। आंख पर भरोसा करना, कान पर नहीं।
इस
देश में यह दुर्घटना बहुत घटी है। घटने का कारण कि इस देश का सौभाग्य कि यहां बहुत
संत-पुरुष हुए । वह सौभाग्य हमने अपने दुर्भाग्य में बदल लिया। हमने संतों की अमृत
वाणी सुनी। हमें उनकी बात जंची। न केवल उनका तर्क प्रबल था, उनके व्यक्तित्व का वजन भी प्रबल था। हमने उनके पास यह अनुभव किया कि वे
जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। मगर ठीक ही कहते होंगे। ठीक
ही है, ऐसा हमारे अनुभव से गवाही नहीं मिलती। उनके
व्यक्तित्व की गरिमा ने, उनके ज्योतिर्मय रूप ने, उनकी चिंमय-धारा ने हमें आंदोलित किया, प्रभावित
किया : हम पीछे चल पड़े और हमारा मन संसार में भटकता रहा। इससे इस देश में बड़ी
दुर्गति हुई। लोग कहने को धार्मिक हैं और भीतर इतने सांसारिक, जितने कि दुनिया में तुम कहीं न पाओगे। यहां धन को गाली दिए जाते हैं और
धन की पकड़ जितनी इस देश में है उतनी कहीं भी नहीं है। धन है भी नहीं पकड़ने को
अब--पकड़ ही है। और धन को गाली भी दिए जाते हैं।
अकसर
तो ऐसा लगता है कि धन को इसलिए गाली दिए जाते हैं जैसे लोमड़ी ने अंगूरों को खट्टा
कहा था। पहुंच नहीं सकी थी,
छलांग बहुत मारी थी। मगर अंगूर के गुच्छे दूर थे। एक खरगोश छिपा
देखता था। उसने पूछा : मौसी, क्या बात है, बड़ी थकी-मांदी कहां जा रही हो? अंगूर तक पहुंच नहीं
सकी क्या?'
लोमड़ी
नाराज हुई। उसने कहा : "नासमझ छोकरे! अंगूर खट्टे हैं।'
आदमी
का अहंकार ऐसा है कि जिसको न पा सके उसको खट्टा कहने लगता है। मगर पाने की वासना
तो भीतर चलती रहेगी। यह लोमड़ी रात में भी सपना देखेगी और उछलेगी अंगूरों को पकड़ने
के लिए और यह कल फिर आएगी जब कोई भी देखता न होगा। फिर प्रयास करेगी। परसों भी
आएंगी। और अगर यहां कोई लोग होंगे तो कुछ बहाना करके गुजर जाएगी। लेकिन आएगी
बार-बार। हजार उपाय करेगी,
सीढ़ी लगाने की चेष्टा करेगी, कोई। मार्ग
खोजेगी। अभ्यास करेगी ऊंची छलांग लगाने का। और कहती रहेगी कि अंगूर खट्टे हैं। ऐसे
अहंकार को भी बचाएगी।
इस
देश में ऐसा हो गया। जितनी धन पर पकड़ इस देश में है दुनिया में किसी देश में नहीं
है। जिन देशों को तुम भौतिकवादी कहते हो--अमरीका या ऐसे देश--धन की इतनी पकड़ नहीं
है। अमरीकी जितनी आसानी से धन छोड़ता है, हिंदुस्तानी छोड़ता
ही नहीं है--एक पैसा नहीं छोड़ता।
इधर
मुझे रोज का अनुभव है। यहां पश्चिम से इतने लोग आए हैं! धन पर उनकी कोई पकड़ ही
नहीं है : कूड़ा-कर्कट है। ठीक, जैसा संतों ने कहा है,
"हाथ का मैल है', वैसा ही अनुभव करते
हैं। लेकिन हिंदुस्तानियों की पकड़ भारी है। है भी नहीं, अंगूरों
तक पहुंच भी नहीं पाए और अंगूर खट्टे हैं, यह भी दोहराए चले
जाते हैं।
कैसे
यह हुआ?
यह दुर्घटना कैसे घटी? यह एक बड़े सौभाग्य के
कारण घटी। यह बड़ा चमत्कार है, बड़ा विरोधाभास है। सौभाग्य यह
कि परम संत इस देश में हुए। उन्होंने बड़े अनुभव की बात कही, उन्होंने
अपने अनुभव की बात कही। उनके लिए तो पक गई थी बात। बुद्ध ने जब कहा कि धन में कुछ
भी नहीं है तो जानकर कहा। तुमने जब मान लिया, तब तुमने बिना
जाने मान लिया; बस वहीं भूल हो गई। तो तुम अड़चन में पड़ जाते
हो।
एक
मित्र ने पूछा है प्रश्न कि "आपने कहा कि कबीर को भोले-भाले लोग ही समझ पाए, पंडित वंचित रह गए।' और "आपको समझने के लिए तो
केवल जिनके पास धन है वे ही आ सकते हैं; भोले-भाले सीधे-साधे गरीब नहीं आ सकते। इसका क्या कारण है?'
कई
बातें समझ लेने जैसी हैं। एक : गरीब होने से कोई भोला-भाला और सीधा-सादा नहीं
होता। इस भूल में मत पड़ना। यह तर्क हमारे मन में बड़ा गहरा है कि कोई गरीब ही है तो
भोला-भाला है। गरीब होने से कोई भोला-भाला हो जाता है? गरीब होना पर्याप्त है भोला-भाला होने के लिए? जब भी
हम "भोले-भाले' शब्द का उपयोग करते हैं, हम उसमें "गरीब' भी जोड़ देते हैं; जैसे कि गरीब होना कुछ भोले-भाले होने का प्रमाण-पत्र है! गरीब होने से यह
कुछ पता नहीं चलता कि तुम भोले-भाले हो। इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि तुम
कुशल नहीं हो। दौड़ तो तुम्हारी भी है।
गरीब
भी धन के पीछे उसी तरह दौड़ रहा है जिस तरह अमीर दौड़ रहा है। अमीर सफल हो गया है, गरीब सफल नहीं हुआ है। दौड़ में ज़रा भी फर्क नहीं है।
तो दुनिया में दो तरह के धनी लोग हैं : धनाढय और
धनाकांक्षी। गरीब तो यहां कोई है ही नहीं। गरीब तो कभी कोई मुश्किल से होता है।
जिस दिन बुद्ध ने छोड़ा राजमहल, उस दिन गरीब पैदा हुआ। गरीब का
मतलब यह होता है : धन व्यर्थ है मगर जिसके पास धन है ही नहीं, वह धन को व्यर्थ कैसे कहेगा? वह अंगूर खट्टे ही कह
सकता है। बुद्ध को मैं गरीब कहता हूं।
जीसस
का बड़ा प्रसिद्ध वचन है : ब्लैसिड ऑर दि पुअर इन स्पिरिट! (धन्य हैं वे, जो आत्मा से दरिद्र हैं।) क्या मतलब इसका? कौन-सी
दरिद्रता की बातें कर रहे हो?
महावीर
और बुद्ध की बात हो रही है। जिन्होंने अनुभव से जान लिया कि धन व्यर्थ है, इस व्यर्थता के बोध के कारण धन उनके हाथ से छूट गया। "छोड़ा', ऐसा भी नहीं कहता। जो व्यर्थ है, वह छूट जाता है,
छोड़ना नहीं पड़ता। "त्यागा', ऐसा भी नहीं
कहता। कूड़े-कर्कट को कोई त्यागता है? तुम रोज कूड़ा-कर्कट साफ
करते हो घर में और कचरे-घर में फेंक आते हो--तो तुम कोई जाकर अखबार के दफ्तर में
खबर थोड़े ही करते हो कि आज फिर कूड़ा-कर्कट त्याग दिया, छाप
देना खबर!
कूड़ा-कर्कट
है तो बात खत्म हो गई,
त्यागना क्या है?
बुद्ध
और महावीर गरीब हैं--उस अर्थ में गरीब जिस अर्थ में जीसस कह रहे हैं। लेकिन क्या
तुम सोचते हो कि जिनको तुम गरीब कहते हो, वे इस अर्थ में
गरीब हैं? उनकी दौड़ तो उतनी ही है, महत्त्वाकांक्षा
उतनी ही है। सफल नहीं हो रहे हैं।
असफलता
का नाम भोला-भालापन है?
अकुशलता है। भोला-भालापन क्या है? तुम सोचते
हो, गांव के आदमी भोले-भाले हैं? इस
भ्रांति में मत पड़ना। गांव के लोग उतने ही दांव-पेंच में लगे हैं जितने दांव-पेंच
में शहर के लोग लगे हैं। हां, गांव के दांव-पेंच अलग हैं,
क्योंकि गांव की दुनिया अलग है। गांव में आदमी दांव-पेंच करता है कि
उसके पास एक अच्छी बग्घी हो जाए। फिएट कार की कोशिश नहीं करता, यह बात सच है, क्योंकि फिएट कार गांव की दुनिया में
नहीं है। मगर एक अच्छी बग्घी हो जाए और वह भी दिखला दे गांव के मालगुजार को कि
तुझसे ज्यादा शानदार घोड़ा मेरे पास है, तुझसे ज्यादा शानदार
बग्घी मेरे पास है! यह दौड़ उसकी भी है।यही
छोटे नगर का आदमी फिएट के लिए कोशिश करता है कि यह देख, मेरे पास फिएट है, दिखा दूं गांव को! बंबई का आदमी
होता है तो रॉल्सरायस की कोशिश करता है। मगर यह कोशिश एक ही है। ये अलग-अलग तल के
लोग हैं, अलग-अलग वातावरण के लोग हैं, मगर
इनकी दौड़ एक ही है। दौड़ में कुछ फर्क नहीं है।
सिर्फ
गांव का होने से भोला-भाला मत कह देना। अकसर लोग जब भी "भोले-भाले' शब्द का उपयोग करते हैं तो "गरीब' भी जोड़ देते
हैं। गरीब होना सिर्फ इस बात का सबूत है कि तुम दूसरों से कम चालाक हो, बस। चालाक नहीं हो, इस बात का सबूत नहीं है। तुम
दूसरों से कम चालाक हो। तुम्हारी कुशलता कम है। तुम ईमानदार हो, इस बात का सबूत नहीं है। बेईमानी में तुम्हारी निपुणता कम है, तुम दीक्षित कम हो। चाहते तो तुम भी वही हो, जो
दूसरे कर रहे हैं या पाने की कोशिश में है या पा लिया है। मगर तुम उपाय नहीं खोज
पाते हो।
गरीब
से गरीब आदमी के मन में भी धन की वैसी ही आकांक्षा है--प्रबल आकांक्षा है--जैसी
धनी आदमी के मन में है। कोई फर्क नहीं है। हर गरीब कोशिश में लगा है कि धनी हो
जाए। तो कहां की दरिद्रता है? कौन-सा भोला-भालापन है?
मेरे
देखे कभी कोई धनी तो धन से मुक्त हो सकता है; गरीब धन से कभी
मुक्त नहीं हो पाता। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है. . . यह आकस्मिक नहीं है कि जो धन
पाकर धन की व्यर्थता को देख लिए हैं, वे धर्म में उत्सुक
हों। यह आकस्मिक नहीं है। यह बिल्कुल गणित के अनुसार है। और अगर तुम कभी ऐसा भी
पाओ कि कोई गरीब आदमी धर्म में वस्तुतः उत्सुक है तो उसका केवल इतना ही मतलब होता
है कि पिछले जन्मों में धन की दौड़ देख चुका; और कुछ मतलब
नहीं होता। आज की गरीबी के कारण उत्सुक नहीं हो रहा हैः कल की बीती अमीरी के कारण
उत्सुक हो रहा है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कोई गरीब आदमी धार्मिक नहीं हो सकता।
हो सकता है। पलटू गरीब ही रहे। कबीर गरीब ही रहे। दरिया गरीब ही रहे। लेकिन यह
जन्मों-जन्मों में जो धन की दौड़ जानी है और धन की व्यर्थता जानी है, उसका ही संचित सार है। यह गरीबी से नहीं निकला है अनुभव कि धन व्यर्थ है।
कैसे निकलेगा? जिसके पास धन नहीं है; "धन व्यर्थ है'-- ऐसा अनुभव कैसे निकलेगा? धन व्यर्थ है, यह जानने के लिए धन का होना जरूरी है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जिनके पास धन है, उन सभी को यह
अनुभव निकल आएगा। लेकिन जिनको यह अनुभव निकलता है, उनके पास
तो धन होना चाहिए।
जो
कामवासना की दौड़ में दौड़े हैं, उनके जीवन में कामवासना की
व्यर्थता साफ हो जाती है। जिन्होंने पद की दौड़ में भाग लिया है वे धीरे-धीरे पद की
व्यर्थता को देखने लगते हैं। जो पद की दौड़ में हैं, धन की
दौड़ में हैं, महत्त्वाकांक्षा की दौड़ में हैं, धन भी जिनके पास है, पद भी जिनके पास है और फिर भी
उनको पद और धन की व्यर्थता नहीं दिखाई पड़ती--वे गंवार हैं; उनके
पास बुद्धि नहीं है; वे बुद्धू हैं।
मेरे
देखे,
अगर कोई गरीब आदमी धर्म में उत्सुक हो जाए तो बड़ा बुद्धिमान है और
अमीर आदमी धर्म में उत्सुक न हो तो बड़ा बुद्धू है। गरीब उत्सुक हो जाए तो वह यही
बता रहा है कि उसके पास बड़ी प्रज्ञा, बड़ी समझ है! समझ
जन्मों-जन्मों में इकट्ठी की होगी; निचोड़ है उसके पास। गरीब
रहते और धर्म में उत्सुक हो गया, इसके लिए बड़ी क्रांतिकारी
समझ चाहिए। और धन होते हुए भी धन से जो मुक्त न हो, उसके लिए
बड़ी जड़ बुद्धि चाहिएः सब है और उसको दिखाई नहीं पड़ता कि इसमें कुछ भी सार नहीं है।
जब सब हो तो दिखाई पड़ना ही चाहिए कि इसमें कुछ भी नहीं है।
निरंतर, सदा ही, जब भी कोई देश धनी होता है, तब धार्मिक होता है। और जब कोई देश दरिद्र हो जाता है तो उसके पास एक ही
धर्म बचता है; उसको कम्यूनिज्म कहो, समाजवाद
कहो या कुछ और नाम दो। गरीब देश के पास एक ही धर्म बचता है : साम्यवाद। केवल अमीर
देश के पास ही धर्म होता है। यह बुद्ध और महावीर के समय इस देश में ऊंचाई देखी।
स्वर्ण-शिखर देखे। यह देश सोने की चिड़िया थी। तब इसने धर्म की उड़ान ली।
आज
यह देश गरीब है। आज इस गरीब देश के पास धर्म की केवल राख रह गई है, लाश रह गई है। इसका असली भाव तो आज कम्यूनिज्म का है; असली भाव तो समाजवाद का है। इसलिए राजनेता कोई भी हो, पार्टी कोई भी बदले; लेकिन समाजवाद की तरफ दोनों को
सिर झुकाना पड़ता है। गैर-समाजवादी को भी समाजवाद का नारा लगाना पड़ता है, तो ही वोट मिलता है। कोई समाजवादी हो या न हो, इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन लोग एक बात जानते हैं कि जनता भूखी है; दीन है, दरिद्र है और एक ही भाषा समझ सकती है आज--वह
भाषा हैः कैसे अच्छा मकान मिले, कैसे अच्छे वस्त्र मिलें,
कैसे अच्छा भोजन मिले, कैसी नौकरी मिले।
और
यह बात ठीक भी है,
इसमें कुछ बुराई भी नहीं है, कुछ गलती भी नहीं
है। भूखा आदमी भोजन की भाषा समझता है। कितनी सदियों से हमने सुना है और कहा है :
"भूखे भजन न होहिं गोपाला!' ठीक ही बात है। भूखे भजन
नहीं हो सकते। भूख में कैसा भजन! भूख में भूख का ही भजन होता है, गोपाल की कैसे याद आए; गोपाल पर तो नाराजगी आती है।
तो
यह कुछ आकस्मिक नहीं है कि जो समृद्ध हैं, वे धर्म में उत्सुक
होते हैं। वे ही उत्सुक हो सकते हैं। गरीब अभी धन में उत्सुक होगा। और गरीब अगर
जाए भी मंदिर, जाए भी मस्जिद, जाए भी
गुरुद्वारा तो वह धन के ही मांगने के लिए जाता है, ध्यान
मांगने के लिए नहीं जाता।
मेरे
पास आ जाते हैं कभी ऐसे लोग, तो उनकी मांग बड़ी अजीब होती है।
यहां मैं रोज देखता हूं। अगर पश्चिम से कोई आता है, समृद्ध
देश से कोई आता है, उसके प्रश्न अलग होते हैं। वह पूछता है
कि मन में चिंताएं हैं, इनसे कैसे छुटकारा हो? वह पूछता है कि मन उद्विग्न है, यह कैसे शांत हो?
वह पूछता है कि जीवन में कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ता, अर्थ कैसे आए?
इस
देश से लोग आ जाते हैं,
तो उनका सवाल अजीब ही होता है! कोई कहता है कि मेरे लड़के की तबीयत
खराब है, आपकी कृपा हो जाए तो वह ठीक हो जाए; कि मेरे पति की नौकरी छूट गई है, आप कुछ आशीर्वाद
दो! यह बड़ी दयाजनक स्थिति है। मेरे पास नौकरी के लिए आशीर्वाद मांगने आने का मतलब
क्या होता है? और जो मेरे पास नौकरी के लिए आशीर्वाद मांगने
आता है, उसकी धर्म में कोई रुचि हो सकती है? अभी तो संसार ही नहीं पका, अभी सत्य की तरफ उठना
कैसे होगा?
जो
जीवन के सब सुखद-दुःखद अनुभवों से गुजरता है, जो जीवन के सब
बुरे-भले अनुभवों को झेलता है और जिसकी प्रज्ञा प्रौढ़ हो जाती है--वही व्यक्ति
धार्मिक हो पाता है।
तुमने
पूछा है : "काम पकने पर उसमें रुचि होने लगती है, प्रेम पकने पर क्या होता है?'
काम
यानी शरीर। प्रेम यानी मन। प्रार्थना यानी आत्मा ये तीन तल हैं। जब काम से थक जाते
हो तो प्रेम का जन्म होता है। जब कामुकता थक जाती है तो प्रेम का सूत्रपात होता
है। जब तक तुम कामुकता से भरे हो तब कैसा प्रेम? तब तक तो
तुम केवल शरीर में उत्सुक हो; दूसरे व्यक्ति में तो उत्सुक
होते नहीं। तुम शोषण करते हो। जब काम थक जाता है, और अनुभव
में आ जाता है कि काम से कुछ मिलने को नहीं है, तब दूसरे
व्यक्ति के भीतर शरीर ही नहीं दिखाई पड़ता; दूसरे के भीतर
छिपा हुआ "व्यक्ति' अनुभव में आना शुरू होता है। एक नई
दिशा खुलती है। तुम्हारे जीवन में प्रेम का सूत्रपात होता है। कोमल तंतु प्रेम के
खुलते हैं।
जब
प्रेम भी पक जाता है,
तब तुम दूसरे व्यक्ति में व्यक्ति ही नहीं देखते; दूसरे व्यक्ति में तुम्हें आत्मा दिखाई पड़ती है, परमात्मा
का आवास दिखाई पड़ता है--तब प्रार्थना शुरू होती है।
काम
को ऐसे समझो कि कली--फूल की कली। प्रेम को ऐसे समझो कि कली खिल गई, फूल बन गया। और प्रार्थना को ऐसे समझो कि सुवास मुक्त हो गई फूल से;
हवा गंध से भर गई। लेकिन जब प्रार्थना भी पक जाती है, तो वह भी शांत हो जाती है। जब काम भी गया, प्रेम भी
गया, प्रार्थना भी गई, सब चला गया और
मात्र शून्य रह गया भीतर; न कोई भाव उठते न कोई विचार उठते;
न कोई संसार बचा, न कोई मोक्ष बचा; न पदार्थ बचा और न परमात्मा बचा; जहां अब कोई चीज
बची ही नहीं--वहां तुम मूलस्रोत पर आ गए। यहीं क्रांति घटती है। यहीं समाधि फलित
होती है। इस अवस्था को ही हमने निर्वाण कहा है। यह परम दशा है। फिर इससे गिरना
नहीं होता। जो इसमें पहुंच गया, उसको बुद्ध ने कहा
"अनागामी' हो गया; अब वह वापिस न
लौटेगा; अब उसका पुनः आगमन न होगा।
लेकिन
ध्यान रखना,
काम अगर पका न और तुमने जल्दबाजी की और भाग कर प्रेम पकड़ना चाहा,
तो तुम्हारा प्रेम झूठा रहेगा। अगर प्रेम पका न और तुम प्रार्थना को
बुला लाए, तो तुम पूरे हृदय से न बुला सकोगे; तुम्हारी प्रार्थना में छुपा हुआ प्रेम नीचे खींचता रहेगा। इसलिए हर सीढ़ी
पर ठीक से पैर जमाओ और हर सीढ़ी को ठीक से कर लो। और जब तक थोड़ा भी रस रहे, रुके रहना; जल्दी नहीं है, अनंत
काल मौजूद है। कोई घबड़ाहट नहीं है। जब उस सीढ़ी से पूरी तरह छुटकारा हो जाए,
ज़रा भी राग न रह जाए, ज़रा भी रस न रह जाए,
ज़रा भी भाव न रह जाए--तब दूसरी सीढ़ी पर कदम रखना। तब तुम्हारे कदमों
में एक मजबूती होगी और तुम जहां होओगे वहां पूरे-पूरे होओगे; अधूरे-अधूरे नहीं, खंड-खंड नहीं। नहीं तो एक पैर एक
नाव में और दूसरा पैर दूसरी नाव में। तब बड़ी बेचैनी और बड़ी दुविधा पैदा होती है।
दो घोड़ों पर सवार कभी मत बनना।
और
यहां ऐसे लोग हैं जो तीनत्तीन घोड़ों पर एक साथ सवार हैं। काम अभी चल ही रहा है।
प्रेम का राग भी छेड़ दिया है। प्रेम का राग उठ ही रहा है। ओर प्रार्थना के लिए
शांत होने की चेष्टा भी कर रहे हैं। तो कुछ भी नहीं हो पाता। काम के कारण प्रेम
नहीं हो पाता और प्रेम के कारण प्रार्थना नहीं हो पाती। प्रार्थना के कारण ठीक से
प्रेम भी नहीं हो पाता--और प्रेम के कारण प्रार्थना नहीं हो पाती। प्रार्थना के
कारण ठीक से प्रेम भी नहीं हो पाता--और प्रेम के कारण ठीक से काम भी नहीं हो पाता।
जीवन एक बिगूचन,
एक विडंबना हो जाती है। लोग किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े हो जाते हैं।
चौराहे पर खड़े हैं और चारों मार्गों पर जाने की चेष्टा कर रहे हैं; एक तरफ हाथ बढ़ा दिया है, एक तरफ पैर बढ़ा दिया है,
एक तरफ सिर लगा दिया। तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे।
चौथा प्रश्न : सब कुछ दांव पर लगा दने का क्या
अर्थ है?
अर्थ
तो सीधा-साफ है। सब कुछ यानी सब कुछ। अर्थ पूछते हो, कुछ बचाने
का मन होगा। अर्थ पूछते हो, कोई तरकीब निकालना चाहते हो।
सीधी-सी बात है। इसकी व्याख्या करनी होगी?
अगर
तुमसे कोई कहे कि सब वस्त्र उतार डालो, तो तुम पूछोगे कि
सब वस्त्र उतार डालने का क्या अर्थ है? सब वस्त्र उतार डालने
का मतलब सब वस्त्र।
कोई
तुमसे कहे कि सब सामान यहीं रख दो, भीतर न ले जाओ,
तो तुम पूछते हो कि सब सामान रखने का क्या अर्थ ? सब सामान यानी सब सामान। इस पर पूछने जैसा क्या है?
सब
कुछ दांव पर लगा देने का अर्थ है कि तुम्हारी अपनी बुद्धिमत्ता से तुम अब तक नहीं
पहुंचे,
अब अपनी बुद्धिमत्ता को चढ़ा दो। चालबाजियां न करो। होशियारियां न
करो। लोग होशियारियां कर रहे हैं। इसलिए सद्गुरु को मिल कर भी तुम नहीं मिल पाओगे।
क्योंकि तुम सद्गुरु के साथ भी चालबाजियां करते हो।
यहां
लोग आ जाते हैं। एक सज्जन आ गए। संन्यास ले लिया। जब उन्होंने संन्यास लिया, तभी मुझे लगा। मैंने उनसे पूछा : "आप काहे को संन्यास ले रहे हैं?
किसलिए संन्यास ले रहे हैं?' तो उन्होंने कहा
कि अब आपने पूछ लिया तो कैसे छिपाऊं! इसलिए ले रहा हूं कि शायद संन्यास लेने से
ध्यान लग जाए।
फिर
मैंने उनसे पूछा कि और यहां से लौटकर घर ये गैरिक वस्त्र पहन सकेंगे? उन्होंने कहा कि अब आपने जब पूछ ही लिया तब कैसे छिपाऊं! यही सोचा कि चलो
यहां तो ले लो, अब घर कौन आप देखने आने वाले हैं! ट्रेन में
बदल लूंगा कपड़े। घर जाते वक्त अपने कपड़े फिर पहन लूंगा। लेकिन यहां तो ले लो। शायद
यहां लेने से ध्यान में गति आ जाए।
यह
चालबाजी है। अब तुम बेईमानी कर रहे हो। और बेईमानी से सोचते हो कि ध्यान में गति आ
जाएगी! किसको धोखा दे रहे हो? अपने को ही धोखा दे रहे हो।
तुमसे कहा किसने कि तुम संन्यास ले लो? तुम ध्यान करो। ध्यान
करने से संन्यास आ सकता है; संन्यास लेने से कैसे ध्यान आ
जाएगा? तुम ध्यान करो। कम से कम थोड़े निष्कपट यहां तो रहो!
यहां भी तुम कपट और चाल कर रहे हो। यहां भी तुम सोच रहे हो कि यहां लेने में क्या
हर्जा है, ले लो, यहां तो कोई देख भी
नहीं रहा, किसी को घर पता भी नहीं चलेगा!
.
. . अब दूर गोहाटी से आए हैं। गोहाटी कहां किसको खबर होनेवाली है कि
तुमने यहां गैरिक वस्त्र पहन लिए थे। या अगर पता भी चल जाएगा, तुम कह दोगेः "वहां पहन लिए थे, वहां सब लोग
पहने हुए थे; सोचा, सबसे संग-साथ हो
जाना अच्छा है; जैसा देश वैसा वेष; अपने
घर अपने वस्त्रों में पहुंच जाएंगे।' मैं तो तुम्हारा पीछा
नहीं करूंगा, गोहाटी नहीं आऊंगा--देखने कि अब तुम कपड़े पहने
हुए हो कि नहीं पहने हुए हो। मगर तुम चूक गए मौका। यहां अगर आए थे पंद्रह-बीस दिन
के लिए तो वे पंद्रह-बीस दिन भी खराब कर लिए; तुम अपनी
बेईमानी यहां लेकर आ गए।
लोग
चालबाजियां कर रहे हैं। लोग परमात्मा के साथ भी. . . मौका लगे तो उसकी भी जेब काट
लें;
मौका लग जाए तो उसको भी लूट लें।
सब
दांव पर लगाने का अर्थ होता है : चालबाजियां अब और नहीं। अब तुम सब खोलकर ही रख
दो। तुम कह दो : "यह मैं हूं! बुरा-भला जैसा हूं, स्वीकार कर लें। बुराइयां नहीं हैं, ऐसा भी नहीं
कहता। भलाइयां भलाइयां हैं, ऐसा दावा भी नहीं करता। यह हूं
बुरा-भला, सब का जोड़त्तोड़ हूं। इसे स्वीकार कर लें। अब आपके
हाथ में हूं, अब जैसा बनाना चाहें बना लें।'
पूछा
है "योग चिंमय'
ने। यह प्रश्न योग चिंमय का है। योग चिंमय में ऐसी बेईमानी है।
प्रश्न अकारण नहीं उठा है। होशियारी है। करते भी हैं तो . . .अगर मैं कहूंगा तो
कुछ करते भी हैं तो उतनी ही दूर तक करते हैं जहां तक उनकी बुद्धि को जंचता है;
उससे एक इंच आगे नहीं जाते। होशियारी बरतते हैं। होशियारी बरतो,
कोई हर्जा नहीं--मेरा कुछ हर्जा नहीं है; तुम
ही चूक जाओगे। तो चूकते चले जा रहे हैं। यहां मेरे पास आनेवाले प्राथमिक लोगों में
से हैं और पिछड़ते जा रहे हैं। चूंकि सब दांव पर लगाने की हिम्मत नहीं है। अपनी
बुद्धि को बचाकर लगाते हैं। वे कहते हैं: "इत्ता तो हिसाब अपना रखना ही
पड़ेगा। कल आप कहने लगो कि गङ्ढे में कूद जाओ तो कैसे कूद जाऊंगा? देख लेता हूं कि ठीक है, नीचे मखमल बिछी है तो कूद
जाता हूं। अब गङ्ढे में पत्थर पड़े हों, तब तो मैं रुक
जाऊंगा। जब तक मखमल बिछी है, तब तक कूदूंगा; जब गङ्ढे में देखूंगा पत्थर पड़े हैं तो मैं कहूंगा कि अब नहीं कूद सकता।'
.
. . तो अपनी होशियारी को लेकर चलोगे--चूक जाओगे। फिर मुझे दोष मत
देना। दोष तुम्हारा ही था। अपने को बेशर्त न छोड़ो।
और
ऐसे बहुत मित्र हैं। और अगर चूकते हैं तो नाराज होंगे; सोचेंगे कि शायद उन पर मेरी कृपा कम है, शायद मैं
पक्षपाती हूं। लेकिन कभी यह न देखेंगे कि क्यों चूक रहे हैं, किस कारण चूक रहे हैं।
मन
चालबाज है।
मैंने
सुना,
एक आदमी ने अखबार में खबर दी : आवश्यकता है एक नौकर की। विज्ञापन
पढ़कर एक आदमी नौकरी के लिए आया। नौकरी की आशा से आनेवाले उम्मीदवार ने पूछा कि
मुझे वेतन क्या मिलेगा? उस आदमी ने कहा, जिसने विज्ञापन दिया था, कि वेतन कुछ नहीं मिलेगा,
केवल खाना मिलेगा। आदमी गरीब था। उसने कहा : "चलो ठीक है,
खाना ही सही। और काम? काम क्या होगा?'--नौकर ने पूछा। उन सज्जन ने कहा : "सबेरे-शाम दो वक्त गुरुद्वारा जाकर
लंगर में खाना खा आओ और साथ ही हमारे लिए खाना बांधकर लेते आओ।'
आदमी
बड़ा बेईमान है! खूब तरकीब निकाली कि लंगर में खाना खा लेना, तुम भी खा लेना, तुम्हारा खाना भी हो गया, खत्म! तुम्हारी नौकरी भी चुक गई और मेरे लिए खाना लेते आना। यह तुम्हारा
काम है।. . .तो मुफ्त में सब हो गया।
ऐसे
ही लोग आध्यात्म भी बड़ी होशियारी से करना चाहते हैं--मुफ्त में कर लेना चाहते हैं:
"कुछ लगे ना,
कुछ रेखा न खिंचे, कुछ दांव पर ना लगे! अपने
को बचाकर घट जाए घटना। मुफ्त मिल जाए। कोई प्रयास न करना पड़े और कोई कठिनाई न
झेलनी पड़े।'
और
जहां तुम्हारे अहंकार को चोट हो, जहां तुम्हारी बुद्धि को चोट
हो--वहीं पीछे हट जाओगे। और वहीं कसौटी है।
इसलिए
पलटू ठीक कहते हैं कि कोई मर्द हो तो बढ़े। मर्द ही नहीं--पागल हो, तो हिम्मत करे इतनी।
सब
दांव पर लगा देने का अर्थ हैः पागल की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं। अंधे की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं। पहले दांव पर लगाने के लिए खूब सोच लो,
विचार लो। कोई यह नहीं कह रहा है कि सोचो-विचारो मत। खूब सोचो,
खूब विचारो, वर्षों बिताओ, चिंतन-मनन करो, सब तरफ से जांच-परख कर लो; लेकिन एक बार जब निर्णय कर लो कि ठीक है, ठीक आदमी
के करीब आ गए, यही आदमी है--जब ऐसा लगे कि यही आदमी है तो
फिर आगा-पीछा न सोचो। फिर सब चरणों में रख दो। फिर कहो कि ठीक है, अब तुम्हारे साथ चलता हूं : नरक जाओ तो नरक, स्वर्ग
जाओ तो स्वर्ग; अब तुम जहां रहोगे वहीं मेरा स्वर्ग है।और
तुम जैसे रखोगे वही मेरा स्वर्ग है।
अहंकार
दांव पर लगा देने का अर्थ है।
तुम
संन्यास भी लेते हो तो तुम अहंकार दांव पर नहीं लगाते।
दो
तरह के लोग संन्यास लेते हैं। एक हैं, जो संन्यास
सोच-विचार कर लेते हैं; जो कहते हैं, हम
सोचेंगे-विचारेंगे, सब तरह का पक्ष-विपक्ष करेंगे, फिर अपना निर्णय लेंगे, फिर संन्यास लेंगे। दूसरे
हैं, जो भाव से संन्यास लेते हैं, विचार
से नहीं। बड़ा अन्य संन्यास है उनका। आंसुओं के माध्यम से संन्यास लेते हैं,
तर्क के माध्यम से नहीं। रस-विभोर होकर संन्यास लेते हैं; निष्पत्ति से नहीं, निष्कर्ष से नहीं। बुद्धि को एक
तरफ रखकर संन्यास लेते हैं। मेरे पास आते हैं, उनसे मैं
पूछता हूं: "कुछ सोच लो।' वे कहते हैं : "सोचना
क्या!' मैं उनसे कहता हूं: "पहले विचार लो।' वे कहते हैं: "विचारना क्या!' आपको देखा,
बात हो गई। आप अगर अपात्र समझें तो न दें। आप अगर न दें तो आपकी
मर्जी । मगर मैं लेने को हूं। और अब सोचना-विचारना नहीं है। सोच-विचार तो बहुत कर
चुका और जिंदगी भर सोच-विचार में गंवा दी और कुछ हाथ में न लगा। अब एक काम तो मुझे
कर लेने दें बिना सोच-विचार के। यह भाव से उठा संन्यास है।
चिंमय
ने जब संन्यास लिया तो काफी सोच-विचार किया और अभी भी सोच-विचार चल रहा है। बड़ी
सोच-विचार से,
बड़ा हिसाब लगाया होगा भीतर! दिन बिताए। बड़ी झिझकते-झिझकते संन्यास
में प्रवेश किया। और अभी भी प्रवेश हो नहीं पाया; अभी भी
दरवाजे पर अटके हैं। अभी भी दरवाजे पर खड़े हैं। अभी भी उस सीमा पर खड़े हैं,
जहां से वापिस लौटना संभव है। उससे आगे नहीं बढ़ते हैं कि जहां से
वापिस लौटना कठिन हो जाए; जहां से कि वापिस लौटा ही न जा सके,
उस सीमा तक नहीं जाते। फिर चूकेंगे। चूक रहे हैं। और जब चूकेंगे तो
दोष मुझे देंगे। यह भी मजा है। जब चूकोगे तो स्वभावतः कहीं तो दोष दोगे, किसी को तो दोष दोगे!. . . तो मुझे ही दोष दोगे।
एक
स्त्री से कोई पूछ रहा था कि तेरी खिड़की का कांच कैसे टूट गया? उसने कहाः "मुझसे मत पूछो, मेरे पति से पूछो।
उन्होंने तोड़ा है।' उसने पूछा : "लेकिन तेरे पति को तो
मैं अभी बाहर पूछा हूं। वे कहते हैं कि पत्नी से पूछो।' पत्नी
ने कहा : "उन्हीं ने तोड़ा है। खड़े थे इस खिड़की के पास और जब मैंने उनकी तरफ
बेलन फेंका तो नामर्द की तरह हट गए, तो कांच फूट गया। किसने
तोड़ा? न हटते, न टूटता। उन्हीं से
पूछो।'
आदमी
का मन सदा दूसरे को दोष देने की वृत्ति से भरा होता है। अगर तुम्हें न घटेगा तो
तुम मुझ पर नाराज होओगे। और कभी तुम्हें भूलकर भी यह खयाल न आएगा कि अगर नहीं घटा
तो कहीं ऐसा तो नहीं था कि कुछ मैं चालबाजियां करता रहा। खूब समझ लेना। अगर
तुम्हारी समझदारी इतनी ही तुम्हारे काम आ जाए कि तुम यह समझ पाओ कि समझदारी की यह
बात नहीं है,
यह काम दीवानों का है, यह काम मस्तों और
पागलों का है--तो घटना घट जाएगी, सब दांव पर लग जाएगा।
कह
न ठंढी सांस में
अब
भूल वह जलती कहानी
आग
हो उर में तभी
दृग
में सजेगा आज पानी
हार
भी तेरी बनेगी
मानिनी
जय की पताका
राख
क्षणिक पतंग की है
अमर
दीपक की निशानी
वेध
दो मेरा हृदय
माला
बनूं,
प्रतिकूल क्या है?
मैं
तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो
उस कूल क्या है?
शिष्य
तो बंधने को तैयार है।
बेध
दो मेरा हृदय
माला
बनूं,
प्रतिकूल क्या है?
बस
माला का फूल बन जाऊं. . . "बेध दो मेरा हृदय, छेद दो मेरा
हृदय। माला बनूं, प्रतिकूल क्या है? ' तुम्हारे
छेदने में कुछ दुश्मनी नहीं है। छेद दो, नहीं तो माला का
हिस्सा नहीं बन पाऊंगा।
मैं
तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो
उस कूल क्या है?
कहीं
भी पहचान हो जाए--इस कूल तो यहां, उस कूल तो वहां--जहां ले चलो।
चलने को राजी हूं।
मैं
तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो
उस कूल क्या है?
कह
न ठंढी सांस में
अब
भूल वह जलती कहानी
आग
हो उर में तभी
दृग
में सजेगा आज पानी
हार
भी तेरी बनेगी
मानिनी
जय की पताका।
शिष्य
जब हारता है तो ही विजेता होता है। गुरु से हार जाने से बड़ी और कोई विजय नहीं है।
गुरु से जीतने की कोशिश तुम्हारी हारने की संभावना है। गुरु से जीतने की चेष्टा, अपने को बचाए रखने का प्रयास--तुम्हारी पराजय है। यह विरोधाभासी वचन ठीक
से खयाल में रखना। धन्यभागी हैं वे जो गुरु से हार जाएं, क्योंकि
वहीं जीत गए।
हार
भी तेरी बनेगी
मानिनी
जय की पताका
राख
क्षणिक पतंग की
है
अमर दीपक की निशानी
बेध
दो मेरा हृदय माला बनूं,
प्रतिकूल क्या है?
मैं
तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो
उस कूल क्या है?
पांचवां प्रश्न : प्रबल जीवेषणा के होते हुए भी
किस भांति भक्त को अपने हाथ से अपना सीस उतारना संभव होता है? कृपा करके समझाइए।
जब
तक प्रबल जीवेषणा है,
तब तक यह संभव नहीं होता।
जब
तक प्रबल जीवेषणा है--लस्ट फॉर लाइफ--जब तक जीने की महान् आकांक्षा है, तब तक तो तुम भक्त बनते ही नहीं, शिष्य बनते ही
नहीं। जीवेषणा की पराजय. . . बहुत-बहुत तरह से जांच लेने के बाद जब तुम पाते हो कि
जीवन में कुछ है ही नहीं; कुछ और चाहिए जो जीवन से ऊपर
हो--तब।
बुद्ध
ने राजमहल छोड़ा। उस रात. . . बड़ी मीठी कहानी बौद्धशास्त्रों में है। बुद्ध युवा
थे। सब उनके पास था। सुंदर पत्नी थी। और उसी रात उनको बेटा जन्मा था। बुद्ध ने
उसका नाम राहुल रखा। बड़ा सोचकर रखा। राहुल का मतलब होता हैः राहु, जिसके चक्कर में कभी चांद पड़ जाता है, तो ग्रहण लग
जाता है। तो बुद्ध ने कहा है कि यह और बेटा हो गया आज. . .। भागने का मैं विचार
किए बैठा था, पत्नी रोकने को काफी थी, पिता
रोकने को काफी थे; राजमहल, धन-दौलत,
साम्राज्य, सब रोकने को काफी था--और राहुल भी
आ गए हैं! यह राहु भी आ गया! अब इस बेटे का मोह मुझे रोकेगा।
इसलिए
नाम "राहुल'
रखा। और इस डर से कि अब कहीं यह बेटा मुझे न रोक ले, उसी रात भाग गए। जब महल से निकले, रथ पर सवार हुए,
तो कहते हैं: देवताओं ने रास्तों पर फूल बिछा दिए, कमल के फूल बिछा दिए, कि घोड़ों के पैरों की आवाज न
हो, कहीं राजमहल जग न जाए! नहीं तो एक, यह जो महाक्रांति का क्षण आया है एक आदमी के जीवन में, यह रुक जाएगा, अवरुद्ध हो जाएगा। सदियों में कभी कोई
बुद्ध होता है। जगत् प्रतीक्षा करता है सद्गुरु की। यह मौका चूक न जाए. . .।
दरवाजे
ऐसे थे नगर के,
कि खुलते थे तो उनकी मीलों तक आवाज होती थी। तो देवताओं ने दरवाजे
ऐसे खोले कि ज़रा भी आवाज न हो। सारे पहरेदार गहन निद्रा में सुला दिए। ज्योतिषियों
ने कहा था बुद्ध के पिता को कि जिस दिन इसका बेटा पैदा होगा, उस दिन सावधान रहना। बेटा जब पैदा हुआ तो पहरे बहुत बढ़ा दिए गए थे,
सब तरफ फौजें लगा दी गई थीं, कि उनके भागने की
संभावना थी। सारे पहरेदार देवताओं ने सुला दिए।
ये
देवता इतनी फिक्र क्यों कर रहे हैं? यह कहानी बड़ी मीठी
है-- प्रतीकात्मक है। यह इतना ही कह रही है कि सारा अस्तित्व आह्लादित होता है जब
कोई व्यक्ति सत्य की तरफ उन्मुख होता है। सब तरह से सहारा मिलता है। सब तरफ से
सहयोग मिलता है। जब कोई असत्य की तरफ जाता है तो सारा जगत् तुम्हारा दुश्मन हो
जाता है। और जब कोई सत्य की तरफ जाता है तो सारा जगत् तुम्हारा साथी हो जाता है।
बस तुम जाओ भर।
फिर
जब महल छोड़कर दूर वन में निकल आए और अपने सारथी से कहा कि अब तुम लौटा ले जा रथ को, मेरे इस प्यारे घोड़े को, मुझे क्षमाकर, मैं चला जंगल, मैं सत्य की खोज पर निकला हूं--उस
बूढ़े सारथी ने आंखों में आंसू भरे हुए कहा : "आप यह क्या कर रहे हैं? यह सुंदर महल, यह सुंदर पत्नी, ये सब सुख-भोग आप छोड़कर जा रहे हैं। और इसी को पाने के लिए तो हर आदमी तड़फ
रहा है। हर आदमी ऐसे ही महल चाहता है, ऐसा ही धन, ऐसी सुंदर पत्नी , ऐसा सुंदर बेटा चाहता है। आप इसको
छोड़कर जा रहे हैं? आप होश में हैं?'
बुद्ध
ने कहा : मैं पीछे लौटकर देखता हूं, मुझे तो महल नहीं
दिखाई पड़ता है--केवल लपटें दिखाई पड़ती हैं। मुझे कोई पत्नी नहीं दिखाई पड़ती,
कोई बेटा नहीं दिखाई पड़ता। सब तरफ आग लगी है। और जितने जल्दी मैं
खोज लूं कि जीवन का सत्य क्या है, उतना ही अच्छा । इसके पहले
कि मैं जल जाऊं इस आग में, इसके पहले कि यह जीवन मौत में
परिणत हो जाए--मैं खोज लेना चाहता हूं; मैं सब दांव पर लगा
देना चाहता हूं। सब दांव पर लगा देना चाहता हूं। जो कुछ मेरे पास है, सब छोड़ने को तैयार हूं। लेकिन यह मैं जानना चाहता हूं कि जीवन का सत्य
क्या है!'
बुद्ध
ने जिस परिपूर्णता से यह बात कही, कहते हैं वह जो बूढ़ा सारथी था,
उसकी भी समझ में आई। बात तो सच थी। जीवन उसने भी देख लिया था। पाया
तो कुछ भी न था। लेकिन अभी तक उसे खयाल न आया था कि जीवन के पार भी कोई जीवन हो
सकता है! कहते हैं, वह भी उतरा और बुद्ध के पीछे जंगल में
प्रविष्ट हो गया।
मगर
यहां तक बात रुक गई होती तो भी ठीक थी। इतिहास नहीं है यह--यह पुराण है। कहते हैं, घोड़ा जब यह सुन रहा था, बुद्ध जब समझा रहे थे सारथी
को, तो घोड़े ने भी सुना। घोड़े को भी बड़ा प्रेम था। बचपन से
बुद्ध को लेकर घुमाने निकलता था यह घोड़ा। यह बुद्ध का प्यारा घोड़ा था। उसकी आंख से
आंसू टपके। और जब बुद्ध और सारथी भी जंगल में चले गए, तो
कहते हैं घोड़ा भी जंगल में चला गया।
यह
बात मुझे बड़ी प्यारी लगती है कि घोड़ा भी जंगल में चला गया! उसे भी बात दिखाई पड़ी
कि जब बुद्ध के जीवन में कुछ नहीं ,
जब मनुष्य के जीवन में कुछ नहीं है, तो
मुझ घोड़े के जीवन में क्या रखा है! उसकी जीवेषणा बुझ गई। वह भी खोज पर निकल गया। उसने
कहा : अगर बुद्ध सब दांव पर लगाते हैं तो मैं भी सब दांव पर लगा दूंगा।
बाद
में किसी ने बुद्ध से पूछा है कि उस घोड़े का क्या हुआ। बुद्ध ने कहा कि वह सत्य को
खोजते मर गया--भविष्य में कभी बुद्ध होगा।
सब
दांव पर घोड़े ने भी लगा दिया! भाव चाहिए। अब घोड़े के पास विचार तो नहीं है, लेकिन घोड़ा भी रोता है। घोड़े के भी आंसू गिरते हैं। घोड़े के पास बहुत
बुद्धि तो नहीं है। लेकिन प्रेम था इस आदमी से--इस बुद्ध से! और यह जब जाने लगा तो
इसको भी चौंक आई, चेत आया, होश आया।
प्रबल
जीवेषणा जब तक है,
तब तक तो तुम शिष्य न बन सकोगे, भक्त न बन
सकोगे। लेकिन प्रबल जीवेषणा ही तुम्हें उस घड़ी ले आती है, जहां
जीवेषणा गिर जाती है। जीवेषणा में दौड़-दौड़ कर एक दिन पता चलता है : इस जीवन में
कुछ भी नहीं है। जिस दिन यह पता चलता है कि इस जीवन में कुछ भी नहीं, उस दिन पलट गए; उसी दिन "पलटू' का जन्म; उसी दिन तुम लौटे। उस दिन तुम्हारी नई खोज
शुरू होती है। फिर तुम धन नहीं खोजते, ध्यान खोजते हो;
संसार नहीं खोजते, संन्यास खोजते हो; बंधन नहीं खोजते, मोक्ष खोजते हो; वासना नहीं खोजते, प्रार्थना खोजते हो। जब ऐसी खोज
शुरू हो जाती है, तो ही समर्पण होता है; तो ही कोई सीस को उतारकर रखने को राजी होता है।
आखिरी प्रश्न : संत पलटू दास उसे गंवार कहते हैं
जो जगत् की झूठी माया में फंसा है और उसे बेवकूफ, जो प्रेम की ओर कदम बढ़ाता है। फिर बुद्धिमान कौन है?
गंवार
उसे कहा उन्होंने ,
जो अभी संसार में उलझा है; इसे होश नहीं यह
क्या कर रहा है। इसे गंवार कहा--उनकी तरफ से जिन्हें होश आ गया है, जो जाग गए हैं, उनकी तरफ से इसे गंवार कहा--उनकी तरफ
से जिन्हें होश आ गया है, जो जाग गए हैं, उनकी तरफ से इसे गंवार कहा कि तू जाग । और फिर, जो
परमात्मा के प्रेम में संलग्न हो रहा है, उसको बेवकूफ-बेवकूफ,
पागल कहा। यह किसकी तरफ से कहा? यह उनकी तरफ
से कहा, जो सोए हुए हैं।
ये
सापेक्ष शब्द हैं। ये दोनों शब्द दो अलग ढंग से कहे गए , दो तरफ से कहे गए। पहला तो पलटू ने अपनी तरफ से कहाः "अजहूं चेत
गंवार! अब जाग! बहुत हो गया।' फिर दूसरा तो व्यंग्य में कहा,
मजाक में कहा, हास्य में कहा। दूसरा कहा कि
देख, सोच-समझ कर जागना, क्योंकि यह
पागलों का काम है। दुनिया तुझे पागल कहेगी। दुनिया हंसेगी। दुनिया कहेगी : दिमाग
खराब हुआ इसका। तेरी पद-प्रतिष्ठा जाएगी। तेरा सत्कार-सम्मान जाएगा। वे ही लोग जो
कल तक कहते थे "तू बुद्धिमान है', वे ही कहेंगे बेवकूफ।
वे ही जो कल तक सलाह मांगने आते थे, वे ही तुझे सलाह देने
आने लगेंगे कि "यह क्या कर रहे हो, तुम्हारा दिमाग ठीक
है? कुछ होश में हो? किसकी बातों में
पड़े हो? कहां उलझ गए? अरे, बस यह संसार ही है--वे ही कहेंगे--"खाओ-पीओ, मौज
करो; इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। यह कहां का परमात्मा,
किसकी बातों में पड़ रहे हो! कब किसको दिखा, कब
किसको मिला?'
तो
पलटू मजाक में कह रहे हैं दूसरी बात। वे कह रहे हैं कि अगर पागल बनने की तैयारी
हो...। क्योंकि दुनिया पागल कहेगी। अब खयाल रखना, संत तो बहुत
कम हैं जो तुमको गंवार कहें; ना के बराबर हैं। ऐसा आदमी
कभी-कभार तुम्हें मिलेगा जो तुम्हें गंवार कहे। और तुम अगर उसके पास न जाओ तो
तुम्हें सुनने का सवाल भी न उठेगा। लेकिन यह संसार तो चारों तरफ है, जो तुम्हें पागल कहेगा।
तो
अगर तुम्हें यह चुनना हो कि संतों के द्वारा गंवार कहे जाना चुनना, कि संसार के द्वारा पागल कहे जाना चुनना--तो तुम सोचोगे कि संत कितने हैं?
कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर, कभी कोई नानक कह देगा गंवार, मगर इनसे मिलना भी कहां
होना है! क्या फिक्र पड़ी है इनकी! इनको झुठलाया जा सकता है। हम इनके पास ही न
जाएंगे; पर न मारेंगे वहां। सुनेंगे नहीं इनकी बात। और
इक्के-दुक्के आदमियों की बात का भरोसा भी क्या? दुनिया तो
बहुमत में मानती है। यह भीड़, इससे कहां जाओगे? यह पागल कहेगी। यह जगह-जगह उंगली उठाएगी। यह जगह-जगह कांटे बिछाएगी। जहां
जाओगे वहां कहेगी तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। और यह भीड़ परायों की नहीं है;
अपने वाले भी कहेंगे। खुद की पत्नी हंसेगी। खुद के बेटे-बच्चे
हंसेंगे। खुद के प्रियजन-परिजन मजाक उड़ाने लगेंगे। यह भीड़ बड़ी है।
पलटू
दोनों शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि अगर आना हो इस तरफ, चेतना हो, अगर गंवारी छोड़नी हो तो पागल होना पड़ेगा,
क्योंकि सारी दुनिया तुम्हें पागल कहेगी। मगर, अगर तुम्हें एक संत पुरुष भी मिल जाए कहने को कि अब तुम गंवार न रहे,
तो कहने दो सारी दुनिया को पागल, कुछ हर्जा
नहीं है। एक संत का वक्तव्य पर्याप्त है। इस सारी दुनिया के वक्तव्यों का कोई मूल्य
नहीं है। एक बुद्ध तुम्हें आशीष देने को मिल जाए तो सारी दुनिया को देने दो
गालियां, इनकी गालियां कुछ न कर पाएंगी। एक बुद्ध का आशीष
पर्याप्त होगा। वह आशीर्वाद नाव बन जाएगी। वह तुम्हें उस पार ले जाएगी।
और
संसार तो गालियां देता है। संसार की कुछ खूबियां हैं। वह गाली देता है--कुछ कारणों
से। पहला तो,
जब कोई व्यक्ति कुछ अनूठे ढंग के काम करने लगता है, कि प्रार्थना करने लगा कि पूजा करने लगा कि नाचने लगा, कि गीत गुनगुनाने लगा, कि नाम स्मरण करने लगा--तो
संसार के लोगों को बेचैनी होती है। यह बेचैनी स्वाभाविक है। यह बेचैनी इस बात की
है कि इस आदमी की मौजूदगी से उन्हें अपने पर शक होने लगता है कि हम कहीं गलत तो
नहीं कर रहे, कहीं हम भूल तो नहीं कर रहे! और यह बात खटकती
है कि कोई आदमी हमें दिखा रहा है कि हम भूल कर रहे हैं। वे झपटते हैं--प्रतिरोध
में, प्रतिशोध में, प्रतिक्रिया में।
वे सिद्ध करना चाहते हैं कि तुम गलत हो। जरूर उनकी भीड़ है। वे चारों तरफ से टूट
पड़ते हैं इस आदमी पर कि तुम गलत हो।
मेरे
एक मित्र,
मेरे एक संन्यासी ने पटना से लिखा। संन्यास लेकर गए, बड़े आनंद-मग्न थे। जब मुझसे विदा लेने आए थे, तब भी
मैंने उनसे कहा था कि थोड़ा संभालना इस आनंद-मग्नता को; इसको
ज्यादा छलकने मत देना, क्योंकि लोग समझ न पाएंगे। लोग
समझेंगे पागल हो गए।
पर
वे बोले : "रोक भी कैसे सकता हूं? यह छलक रही है।'
और जरूर वे मस्त थे, गहरी मस्ती में थे। और दस
दिन बाद ही उनका पत्र आया कि आपने ठीक ही कहा था। मैं बड़ी झंझट में पड़ गया हूं।
अस्पताल में भरती हूं । घर के लोग समझते हैं, मेरा दिमाग
खराब हो गया है। क्योंकि घर के लोग कहते हैं कि "बिना कारण तुम प्रसन्न क्यों
हो? कभी तो प्रसन्न नहीं थे पहले! तुम बिना कारण हंसते क्यों
हो? अकेले बैठे-बैठे तुम हंसते क्यों हो? बीच रात में उठकर क्यों बैठ जाते हो? आंख बंद करके
क्या करते हो?'
पत्नी-बच्चे, परिवार, सबने मिलकर--उन्होंने लिखा कि--मुझे अस्पताल
में भरती कर दिया। और यहां मैं हंसता हूं या भजन गाता हूं तो डॉक्टर कहता है कि
भाई यह तुम बंद करो; नहीं तो इलेक्ट्रिक शॉट देने पड़ेंगे,
दवाई से अगर नहीं माने। तो मुझे और हंसी आती है कि यह भी खूब हो रहा
है। मैं जिंदगीभर दुःखी रहा, कोई इलेक्ट्रिक शॉट देने न आया।
मैं जिंदगीभर परेशान था, बेचैन था, चिंता
में था--और किसी ने मुझे पागल न समझा, यह भी खूब हुई! जिंदगी
में पहली दफा आनंद की थोड़ी-सी गंध मिली--और मैं पागल हो गया! और मेरी पत्नी भी
नहीं समझती; उसको मैं समझाता हूं, वह
कहती हैः "तुम चुप रहो, तुम बिल्कुल बोलो ही मत! तुम
होश में नहीं हो।' मैंने अपने बेटे को बुला कर कहा कि तू
पढ़ा-लिखा है, शायद तू कुछ समझ जाए. . .। उसने कहा कि आप शांत
ही रहिए; डॉक्टर ने बोलने की मनाही की है। आप बकवास करो ही
मत। आप ज्ञान की बातें मत बघारो। आपका दिमाग खराब हो गया है।
अब
इस आदमी से कोई भी नहीं पूछता कि यह आदमी को भीतर क्या हो रहा है! इसको तो लोग
बोलने ही नहीं देते। और उनका लिखना भी ठीक है; वे कहते हैं कि
इससे मुझे और हंसी आ रही है। इससे मैं और यह जगत् का खेल देख कर प्रसन्न हो रहा
हूं। मगर मेरी प्रसन्नता उन्हें दिक्कत में डाले दे रही है।
पूछा
है कि अब मुझे अस्पताल से बाहर निकलने को मिलेगा कि नहीं? उनके घर के लोगों को लिखवाया। किसी तरह से छूटे, आकर
मिलकर गए। उनको बहुत समझाकर भेजा है कि अब प्रसन्नता अपनी भीतर संभालना। यह गगरी
भर गई है, इसको छलकने मत देना। और यह जो हीरा भी मिल गया है,
इसको गांठ बांध लो; इसको बार-बार खोलकर देखना
मत। क्योंकि लोग जब तुम्हें देखेंगे कि तुम अपनी गांठ खोलकर बार-बार देखते हो,
उनको तो हीरा दिखाई नहीं पड़ेगा, उनके पास तो
आंखें नहीं हैं; वे कहेंगे : "देखते क्या हो बार-बार
खोल कर? है तो कुछ भी नहीं।' हीरा
तुम्हें दिखाई पड़ेगा, तो तुमको हंसी आएगी कि इन अंधों को,
किसी को दिखाई नहीं पड़ता। और उनको दिखाई नहीं पड़ेगा; वे भी क्या करें, उनकी भी मजबूरी है।
इसलिए
कहा पागल।
इसलिए
पलटू सावधान कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि इस रास्ते पर आना हो, गंवारी से मुक्त होना हो, तो पागल होने की तैयारी
रखना। क्योंकि जो पागल हैं, वे ही इस सूली पर चढ़ने जाते हैं।
यह
जो सूली लगती है--सारी दुनिया को दिखाई पड़ने में--यह सिंहासन है। लेकिन सिंहासन तो
उसको दिखाई पड़ेगा जो इस पर विराजमान हो जाता है; या उन
थोड़े-से लोगों को दिखाई पड़ेगा जो विराजमान हो गए हैं। उनकी संख्या अंगुलियों पर
गिनी जा सकती है। मगर शेष भीड़, बहुमत तो विक्षिप्त समझेगा,
पागल समझेगा।
पश्चिम
के पागलखानों में ऐसे बहुत-से लोग बंद हैं, जो पागल नहीं हैं;
जो पूरब में होते तो हम उन्हें परमहंस कहते।
पश्चिम
का एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक है : आर०डी० लैंग। उसने एक बड़ी क्रांति पैदा कर रखी
है। उसने इन पागलों के लिए बड़े जोर से आंदोलन चलाया है कि ये पागल नहीं हैं; ये मस्त लोग हैं--जिनको सूफी "मस्त' कहते हैं,
हिंदू "परमहंस' कहते हैं। ये मस्त हैं,
इनको तुम पागलखानों में डाले हुए हो और इनको सता रहे हो और इनके
हाथों में जंजीरें पहना दी हैं! और इनका कोई कसूर नहीं है; इनका
सिर्फ कसूर इतना है कि ये प्रसन्न हैं, आनंदित हैं।
यह
दुनिया इतनी दुःखी है कि यहां आनंदित होना अपराध है। यह दुनिया इतनी... इतनी गंवार
है कि यहां बुद्धिमान होना गंवारों की आंखों में पागल सिद्ध हो जाना है।
आज इतना ही।
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