पहले
अपना प्याला खाली करो-(प्रवचन-पहला)
झेन
बोध कथाएं-( A
bird on the wing)
मनुष्य
होने की कला--(A
bird on the wing) "Roots
and Wings" -।0-06-74
to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के
बुद्धा हाल में दिए गये थे। उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित
प्रवचन माला)
कथा:
जपानी
सदगुरु 'नानहन ने श्रौताओ से दर्शन शस्त्र के एक प्रोफेसर का परिचय कराया और तब
अतिथि गृह के प्याले में वह उनके लिए चाय उड़ेलते ही गए।
भरे
प्याले में छलकती चाय को देख कर प्रोफेसर अधिक देर अपने करे रोक न सके। उन्होंने
कहा- ''
कृपया रुकिए प्याला पूरा भर चुका है। उसमें अब और चाय नहीं आ सकती।''
नानइन
ने कहा- ''इस प्याले की तरह आप भी अपने अनुमानों और निर्णयों से भरे हुए हैं जब तक पहले
आप अपने प्याले को खाली न कर लें, मैं झेन की ओर संकेत कैसे
कर सकता हूं?''
तुम
नानइन से भी अधिक खतरनाक व्यक्ति के पास आ गए हो, क्योंकि प्याले को खाली
करने से ही काम चलने वाला नहीं, प्याले को पूरी तरह तोड़ ही देना
होगा। खाली होकर भी, यदि तुम उपस्थित हो, तब भी भरे हुए ही हो। यहां तक कि खाली पन भी तुम्हें भर देता है। यदि तुम
अनुभव करते हो कि तुम खाली हो तो भी तुम पूरी तरह खाली हो कहां? तुम तो वहां हो ही। सिर्फ तुम्हारा नाम बदल गया है, अब
तुम अपने को ' खालीपन ' पुकारते हो।
प्याले को खाली करने से कुछ नहीं होने वाला, इसे तो पूरी तरह
तोड़ ही देना है। जब तुम हो ही नहीं, क्या तब भी चाय तुममें
उडेली जा सकती है? और जब तुम यहां हो ही नहीं तो वास्तव में
तुममें चाय उड़ेलने की जरूरत ही
क्या?
क्या?
जब
तुम खाली होते हो,
तो तुममें पूरा अस्तित्व उड़ेलना शुरू कर देता है, पूरा अस्तित्व प्रत्येक दिशा और आयाम से ऊर्जा की फुहार की तरह बरस उठता
है। जब ' तुम ' नहीं होते तब परमात्मा
ही होता है।
यह
छोटी-सी कहानी बहुत सुन्दर है। दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के साथ ऐसी घटना घटी ही
थी। कहानी कहती है-कि एक दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर नानइन के पास आया। वह अवश्य ही
किसी गलत कारण से ही आया होगा, क्योंकि दर्शन शास्त्र का प्रोफेसर, जैसा कि वह होता है, हमेशा गलत ही होता है।
दर्शनशास्त्र
का अर्थ है, बुद्धि, तर्क, विचार और
वाद-विवाद। यह गलत होने का मार्ग ही है, क्योंकि यदि तुम
तर्क-वितर्क करते हो तो अस्तित्व के साथ प्रेमपूर्ण हो ही नहीं सकते। तर्क ही बाधा
है। यदि तुम तर्क करते हो, तो तुम बंद हो जाते हो। तुम्हारा
पूरा अस्तित्व ही अपने में तुम्हें कैद कर देता है। तब तुम्हारे दरवाजे खुले नहीं होते
और न अस्तित्व ही तुम्हारे लिए खुला होता है।
जब
तुम तर्क करते हो तो दृढ़ता से अपनी बात पर अड़ जाते हो। यह दृढ़ता से अड़ना ही हिंसा
है, आक्रामकता है और आक्रामक मन के द्वारा सत्य नहीं जाना जा सकता और न हिंसा
के द्वारा सत्य की खोज हो सकती है। जब तुम प्रेम में होते हो, केवल तभी तुम सत्य जानने के लिए आ सकते हो, क्योंकि
प्रेम कभी तर्क नहीं करता। प्रेम में तर्क होता ही नहीं, क्योंकि
उसमें आक्रामकता नहीं होती। स्मरण रहे, केवल वह व्यक्ति ही
दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर नहीं था, तुम भी ठीक उसी जैसे हो।
प्रत्येक व्यक्ति अपना तत्वज्ञान अपने साथ लिए चलता है और प्रत्येक व्यक्ति अपने
ढंग से
एक प्रोफेसर ही है, क्योंकि तुम भी अपने उन विचारों की घोषणा करते हो, जिन पर तुम विश्वास करते हो। तुम्हारे भी निर्णय हैं, धारणाएं हैं और इन्हीं निर्णयों और धारणाओं के कारण तुम्हारी आंखें धुंधला गईं हैं और वे ठीक से देख नहीं पातीं। तुम्हारा मन छू है, वह जान नहीं सकता।
एक प्रोफेसर ही है, क्योंकि तुम भी अपने उन विचारों की घोषणा करते हो, जिन पर तुम विश्वास करते हो। तुम्हारे भी निर्णय हैं, धारणाएं हैं और इन्हीं निर्णयों और धारणाओं के कारण तुम्हारी आंखें धुंधला गईं हैं और वे ठीक से देख नहीं पातीं। तुम्हारा मन छू है, वह जान नहीं सकता।
विचार, सुस्ती
उत्पन्न करते हैं क्योंकि जितने अधिक विचार होते हैं, मन पर उतना
ही बोझ पड़ता है। एक भारयुक्त मन कैसे जान सकता है? जितने
अधिक विचार होते हैं, वह ठीक दर्पण पर इकट्ठी हुई धूल की तरह
होते हैं। ऐसे दर्पण में वास्तविकता कैसे प्रतिबिम्बित हो सकती है? तुम्हारी बुद्धि बस केवल स्वयं लिए हुए निर्णयों से ढकी है-उस पर धूल-ही-
धूल है और प्रत्येक इस स्थिति में जो भी मत प्रकट करता है, वह
मूर्ख और मंद है। वे जानने को तो बहुत कुछ जानते हैं। वे जानकारी के बोझ से दबे
होते हैं। वे आकाश में उड़ नहीं सकते, उनके पंख नहीं होते और
वे इतने अधिक मन में उलझे रहते हैं कि पृथ्वी में उनकी कोई जड़ें होती ही नहीं। वे
पृथ्वी से गहरे जुड़े नहीं होते और वे आकाश में उड़ने के लिए स्वतंत्र नहीं होते।
और
स्मरण रहे-तुम सभी उन्हीं जैसे हो। केवल मात्रा का अंतर हो सकता है, लेकिन
प्रत्येक मन गुणात्मक रूप से समान है, क्योंकि मन विचार करता
है, तर्क करता है, बटोरता है और
जानकारियां इकट्ठी करते हुए ठस्ल हो जाता है। केवल बच्चे बुद्धिमान होते हैं। यदि
तुम अपना बचपन याद रख सकी, अपने व्यवसाय को वापस मांग सकी तो
तुम निर्दोष और बुद्धिमान हो जाओगे। यदि बचपन खो जाए और तुम धूल ही इकट्ठी करते
रहो तो निर्दोषता रहेगी ही नहीं और मन भी मूढ़ और धुंधला हो जाएगा। अब तुम्हारे पास
तत्व ज्ञान हो सकता है पुस्तकों का, पर तुम्हारे पास जितना
अधिक उधार ज्ञान होगा, तुम परमात्मा से उतने ही दूर हो जाओगे।
एक
धार्मिक चित्त,
दार्शनिक मन नहीं होता। एक धार्मिक चित्त तो निर्दोष और प्रज्ञावान
होता है। उसका दर्पण स्पष्ट होता है, उस पर धूल- धमास नहीं
होती है और प्रतिदिन निरन्तर वह साफ होता रहता है। इसी को मैं ध्यान कहता हूं।
दर्शनशास्त्र
का प्रोफेसर नानइन के पास आया। वह अवश्य ही किसी गलत कारण से ही आया होगा; वह अवश्य
ही कुछ प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए आया होगा। ऐसे लोग जो प्रश्नों से भरे होते
हैं हमेशा उत्तरों की खोज में होते हैं और नानइन उत्तर नहीं दे सकता। ऐसे प्रश्नों
और उत्तरों से सम्बन्ध रखना ही मूर्खता है। नानइन तो तुम्हें एक नया मन दे सकता है।
नानइन तो तुम्हें एक नई तरह का जीवन दे सकता है; नानइन तो तुम्हें
एक नया अस्तित्व दे सकता है, जिसमें प्रश्न उठते ही नहीं,
लेकिन नानइन की किसी विशिष्ट प्रश्न का उत्तर देने में कोई दिलचस्पी
नहीं। वह ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में रुचि रखता ही नहीं और न ही मैं।
तुम
मेरे पास अवश्य ही बहुत से प्रश्न लेकर आए हो। ऐसा होने के लिए तुम बाध्य हो
क्योंकि मन प्रश्नों का जन्मदाता है। मन प्रश्न निर्मित करने वाली यांत्रिक- व्यवस्था
है। उसमें कोई भी चीज डालो,
एक प्रश्न बाहर निकल आएगा और फिर अनेक-प्रश्न उसका अनुसरण करेंगे।
उसे कोई भी उत्तर दो, वह तुरन्त उसे अनेक प्रश्नों में बदल
देगा। तुम बहुत से प्रश्नों से भरे हुए ही यहां आये हो, तुम्हारा
प्याला पहले से ही भरा हुए हो। तुम्हारा भरा प्याला पहले से ही छलक रहा है,
नानइन को उसमें चाय डालने की आवश्यकता ही नहीं।
मैं
तुम्हें एक नया अस्तित्व दे सकता हूं इसी कारण मैंने तुम्हें यहां आमंत्रित किया
है-मैं तुम्हें कोई उत्तर नहीं दूंगा। सभी प्रश्न और सभी उत्तर व्यर्थ हैं, बस केवल
ऊर्जा का अपव्यय है, लेकिन मैं तुम्हारा रूपान्तरण कर सकता
हूं। मेरे पास केवल यही उत्तर है और यह एक उत्तर ही सभी प्रश्नों को हल कर देता है।
दर्शनशास्त्र
के पास अनेक प्रश्न हैं और अनेक उत्तर हैं-करोड़ों। धर्म के पास केवल एक उत्तर है, प्रश्न
कोई भी हो, उत्तर सदा वही एक होता है। बुद्ध कहा करते थे-तुम
समुद्र का पानी कहीं से भी चखो, उसका स्वाद सदा वही खारा ही
होता है। तुम जो कुछ भी पूछते हो, वह वास्तव में असंगत है।
मैं वही उत्तर दूंगा क्योंकि मेरे पास एक ही उत्तर है। एक वही उत्तर हर ताले की
चाभी की तरह होगा जिससे सभी बंद दरवाजे खुल जाते हैं। यह चाभी किसी खास ताले की
नहीं है-कोई भी ताला हो, यह चाभी उसे ही खोल देती है। धर्म
के पास केवल एक उत्तर है और वह है ध्यान। ध्यान का अर्थ है- अपने को तुम खाली कैसे
करो?
प्रोफेसर
नानइन की झोपड़ी तक पहुंचने में बहुत अधिक चलकर आया होगा और वह अवश्य ही थक गया
होगा, तब नानइन ने कहा होगा-' थोड़ी प्रतीक्षा करें। '
वह जरूर ही बहुत जल्दी में होगा। मन हमेशा जल्दी में ही होता है और
मन हमेशा तुरन्त होने वाले अनुभव की ही खोज में होता है। मन के लिए प्रतीक्षा करना
बहुत कठिन है, लगभग असम्भव है।
नानइन
ने कहा-’‘ मैं आपके लिए चाय तैयार कर दूंगा। आप थके हुए लग रहे हैं। जरा आराम कर लें।
थोड़ी प्रतीक्षा करें और एक प्याला चाय पी लें, तब हम लोग बात
शुरू कर सकते हैं। ‘‘
नानइन
ने पानी खौलाया और प्याले में चाय उड़ेलना शुरू किया, लेकिन वह जरूर प्रोफेसर की
ओर देख रहा था। न केवल चाय का पानी खौल रहा था, प्रोफेसर भी
अन्दर-ही- अन्दर उबल रहा था। न केवल चाय की केतली आवाज कर रही थी, प्रोफेसर के अंदर निरन्तर चल रही चपड़-चपड़ बातचीत उससे भी अधिक शोर से भरी
थी। प्रोफेसर अवश्य ही तैयारी किए बैठा होगा-क्या पूछा जाए कैसे पूछा जाए और कहां
से शुरू किया जाए? वह अवश्य ही गहराई से आत्मप्रलाप कर रहा
होगा,
यह आदमी अंदर से इतना अधिक भरा हुआ है कि कुछ भी उसके हृदय में उतर ही नहीं सकता। उत्तर दिया ही नहीं जा सकता क्योंकि वहां कोई लेने वाला है ही नहीं। मेहमान अंदर प्रवेश कर ही नहीं सकता-वहां कोई कक्ष खाली है ही नहीं। नानइन ने प्रोफेसर के मन के मकान का अवश्य ही मेहमान बनना चाहा होगा।
यह आदमी अंदर से इतना अधिक भरा हुआ है कि कुछ भी उसके हृदय में उतर ही नहीं सकता। उत्तर दिया ही नहीं जा सकता क्योंकि वहां कोई लेने वाला है ही नहीं। मेहमान अंदर प्रवेश कर ही नहीं सकता-वहां कोई कक्ष खाली है ही नहीं। नानइन ने प्रोफेसर के मन के मकान का अवश्य ही मेहमान बनना चाहा होगा।
करुणावश
एक बुद्ध हमेशा तुम्हारे अन्दर मेहमान बनकर रहना चाहता है। वह हर कहीं खट-खटाकर
देखता है, क्योंकि उसमें कोई दरवाजा है ही नहीं और यदि वह दरवाजा तोड़ता भी है,
जो बहुत कठिन है तो अंदर कोई कमरा खाली ही नहीं। तुम स्वयं अपने आप
से और सभी तरह के फर्नीचर तथा फालतू सामान से जो तुमने जन्म- जन्म में जोड़ा है,
इतने अधिक भरे हुए हो कि तुम स्वयं भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकते।
वहां कमरा क्या, कोई स्थान तक कहीं खाली नहीं है। तुम स्वयं
अपने अंदर प्रविष्ट नहीं हो सकते, क्योंकि हर तरह की चीजों
से पूरा स्थान घिरा हुआ है।
तब
नानइन ने प्याले में चाय उडेली। प्रोफेसर बेचैन हो उठा, क्योंकि नानइन
निरन्तर चाय उडेलता गया। प्याला भरते ही चाय बाहर छलकने लगी और बहुत जल्द वह फर्श
पर फैल जाने वाली थी। तभी प्रोफेसर ने कहा-’‘ रुकिए! आप कर
क्या रहे हैं? अब इस प्याले में और चाय आ ही नहीं सकती,
यहां तक कि एक बूंद पुगई नहीं। क्या आप पागल हो गए हैं? आप कर क्या रहे हैं? ‘‘
नानइन
ने कहा-’‘ आपके साथ भी यही मामला है। आप यह देखने में तो इतने सजग हैं और प्याले के
भर जाने के बारे में भी सजग हैं कि अब इसमें एक बूंद भी नहीं आ सकती, लेकिन आप स्वयं अपने बारे में इतने सजग क्यों नहीं हैं? आप अन्दर के तत्व ज्ञान, सिद्धान्त, शास्त्र और स्वयं के निर्णयों से ऊपर तक लबालब भरे हुए हैं। आप पहले ही
बहुत अधिक जानते हैं, मैं आपको कुछ भी नहीं दे सकता। आपने
व्यर्थ ही यहां तक की यात्रा की। मेरे पास आने से पहले आपको अपने प्याले को खाली
करके आना चाहिए था, तभी मैं इसमें कुछ उड़ेल पाता।‘‘
लेकिन
मैं तुमसे कहता हूं कि तुम कहीं अधिक खतरनाक व्यक्ति के पास आ गए हो। नहीं, मैं
प्याले के खाली करने से ही राजी नहीं हूं क्योंकि यदि वहां प्याला होगा तो तुम उसे
फिर से भर लोगे। तुम इतने अधिक आदी और अभ्यस्त हो गए हो कि तुम एक क्षण के लिए भी
प्याले को खाली होने की इजाजत दोगे ही नहीं। जिस क्षण तुम उसे जरा भी खाली होते
देखोगे, तुम उसे भरना शुरू कर दोगे। तुम खालीपन से इतने अधिक
डरे हुए हो कि खालीपन तुम्हें मृत्यु की तरह दिखाई देता है। तुम उसे किसी भी चीज
से भर दोगे, लेकिन तुम इसे भरोगे जरूर। नहीं, मैंने तुम्हें यहां प्याले
को पूरी तरह तोड़ देने के लिए ही आमंत्रित किया है, जिससे कि तुम चाहने पर भी उसे फिर से भर न सको।
को पूरी तरह तोड़ देने के लिए ही आमंत्रित किया है, जिससे कि तुम चाहने पर भी उसे फिर से भर न सको।
खाली
होने का अर्थ है- अब प्याला रहा ही नहीं। उसकी सभी दीवारें गिर गईं, तली भी टूट
गई और तुम एक गहरी खाई बन गए। .तभी मैं अपने को तुममें उड़ेल सकता हूं। बहुत कुछ सम्भव
है, यदि तुम राजी हो जाओ, लेकिन
तुम्हारा राजी होना बहुत श्रमसाध्य है क्योंकि तुम्हारा राजी होना तुम्हारा समर्पण
होगा। खाली होने का अर्थ है-समर्पण करना।
नानइन
प्रोफेसर से कह रहा है-’‘
नीचे झुक जाओ, समर्पण करो और अपने सिर को खाली
करो। मैं उड़ेलने को तैयार हूं।‘‘
प्रोफेसर
ने यद्यपि कोई प्रश्न पूछा नहीं था., लेकिन नानइन ने उत्तर दे दिया,
क्योंकि वास्तव में प्रश्न पूछे जाने की आवश्यकता थी ही नहीं। प्रश्न वहीं-का-वहीं
रहता है।
क्योंकि वास्तव में प्रश्न पूछे जाने की आवश्यकता थी ही नहीं। प्रश्न वहीं-का-वहीं
रहता है।
तुम
मुझसे पूछो या मत पूछो,
मैं जानता हूं कि प्रश्न है क्या। तुममें से बहुत से लोग यहां हैं,
लेकिन मैं उनका प्रश्न जानता हूं क्योंकि गहराई में प्रश्न एक ही
है- उत्कंठा, वेदना, अर्थहीनता,
इस पूरे जीवन की व्यर्थता और यह न जानना कि तुम कौन हो, लेकिन तुम भरे हुए हो। मुझे अपने प्याले को तोड़ने की इजाजत दो। यह प्याला अब
नष्ट होने ही जा रहा है और उसकी मृत्यु होने ही वाली है। यदि तुम इसके नष्ट हो जाने
देने के लिए तैयार हो तो इससे किसी नई चीज का जन्म होगा। प्रत्येक विध्वंस एक नए
सृजन को जन्म देता है। यदि तुम मरने के लिए तैयार हो तो तुम एक नया जीवन पाओगे,
तुम्हारा पुनर्जन्म होगा।
मैं
तो यहां बस एक दाई की तरह हूं। यही बात हमेशा सुकरात कहा करता था! पात्र सद्गुरु
ठीक एक दाई की भांति होता है। मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूं मैं तुम्हें रक्षित
रख सकता हूं मैं तुम्हारा पथ प्रदर्शन कर सकता हूं। वास्तविक रूपान्तरण भौर घटना
तो तुम्हारे ही अंदर घटने जा रही है। वहां कष्ट होंगे ही, क्योंकि
बिना कष्ट के जन्म होना सम्भव ही नहीं है। काफी वेदना हो? ही,
क्योंकि तुमने ही वह इकट्ठी की है, तुम्हें ही
उसे फेंकना है। काफी गहराई तक सफाई और रेचन की आवश्यकता होगी।
जन्म
भी ठीक मृत्यु जैसा है,
लेकिन वेदना का भी अपना अलग मूल्य है। अंधकार की 'व्यथा से ही, नई सुबह का जन्म होता है, एक नया सूरज उगता है। जब तुम बहुत अधिक अंधेरे का अनुभव करो तो समझना- भोर
अधिक दूर नहीं है। जब वेदना असहनीय हो जाए तो समझना परमानंद बहुत अधिक निकट है।
इसलिए वेदनाओं से भागने की कोशिश मत करो-यही वह बिंदु है, जहां
तुम चूक जाते हो। उससे बचने की कोशिश मत करो, उससे होकर
गुजरो। सारे दु:ख और कष्ट तुम्हें जला देंगे,
नष्ट कर देंगे, लेकिन वास्तव में तुम्हें नष्ट नहीं किया जा सकता। जो कुछ भी नष्ट हो सकता है, वह तुम्हारे अंदर का कूड़ा करकट ही है, जो तुमने इकट्ठा कर लिया है। वह सब कुछ जो नष्ट किया जा सकता है वह कुछ ऐसी चीज है, जो तुम नहीं हो। जब वह सब कुछ नष्ट हो जाएगा, तब तुम अनुभव करोगे कि तुम नष्ट किए ही नहीं जा सकते। तुम मृत्यु के पार हो। मृत्यु से गुजरते हुए होशपूर्वक मृत्यु से गुजरते हुए ही, कोई शाश्वत जीवन के प्रति सजग बनता है।
नष्ट कर देंगे, लेकिन वास्तव में तुम्हें नष्ट नहीं किया जा सकता। जो कुछ भी नष्ट हो सकता है, वह तुम्हारे अंदर का कूड़ा करकट ही है, जो तुमने इकट्ठा कर लिया है। वह सब कुछ जो नष्ट किया जा सकता है वह कुछ ऐसी चीज है, जो तुम नहीं हो। जब वह सब कुछ नष्ट हो जाएगा, तब तुम अनुभव करोगे कि तुम नष्ट किए ही नहीं जा सकते। तुम मृत्यु के पार हो। मृत्यु से गुजरते हुए होशपूर्वक मृत्यु से गुजरते हुए ही, कोई शाश्वत जीवन के प्रति सजग बनता है।
कुछ
दिनों तक तुम मेरे सान्निध्य में रहोगे तो बहुत-सी चीजें घटना सम्भव हैं, पर पहला
कदम तो कष्ट और वेदनाओं के द्वारा गुजरने का ही याद रखना है। बहुत बार तो मैं ही
तुम्हारे लिए यह दुःख उत्पन्न करता हूं जिससे जो कुछ तुम्हारे अंदर,' दबा हुआ है वह उभर कर बाहर निकले। उसे नीचे की ओर धकेलो मत, न दबाओ। उसे मुक्त करो। उसे बाहर आने दो। यदि तुम अपने दमित दुःखों को
स्वतंत्र कर सके तो तुम उनसे मुक्त हो जाओगे। तुम परमानंद की स्थिति में केवल तभी
आ सकते हो, जब तुम सभी दुःखों में से गुजर सको, उन्हें फेंक सको और पूरी तरह उनसे मुक्त हो सको।
मैं
तुम्हारे अंदर परम आनन्द की वह ज्योति देख सकता हूं जो ठीक तुम्हारे मन के एक कोने
में है। एक बार तुम्हें बस उसकी झलक मिल जाए फिर वह ज्योति तुम्हारी बन जाएगी। मैं
तुम्हें कई तरीकों से उस ओर धक्का दूंगा जिससे तुम्हें उसकी झलक मिल जाए। यदि तुम
उसे चूक गए तो तुम्हीं उसके लिए जिम्मेदार होंगे, कोई दूसरा नहीं। नदी बह रही
है, लेकिन यदि तुम झुक नहीं सकते, यदि
तुम अपने अहंकार से भरी चित्त-दशा को छोड़ नहीं सकते तो तुम प्यासे वापस जा सकते हो।
तब नदी को दोष मत देना। नदी तो वहां थी, लेकिन तुम्हीं अपने
अहंकार के कारण जैसे लकवा ग्रस्त
हो गए थे।
हो गए थे।
यही
है वह-जिसकी बाबत नानइन कहता है-’‘ प्याले को खाली करो। इसका अर्थ है-मन को खाली
करो। वहां अहंकार है, वह उफन रहा है और जब अहंकार अतिरेक से
बह रहा है तो कुछ भी नहीं किया जा सकता। पूरा अस्तित्व तुम्हारे चारों ओर है,
लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सकता। चारों ओर परमात्मा ही है-तुम उसी
से
घिरे हुए हो,
लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सकता। कहीं से भी परमात्मा तुममें प्रविष्ट
नहीं हो सकता क्योंकि तुमने अपने को अभेद्य किले जैसा बना लिया है। प्याले को
खाली करो। वस्तुत: प्याले को फेंक ही दो। जब मैं कहता हूं-पूरी तरह प्याले को फेंक
दो तो मेरे कहने का अर्थ है कि इतने अधिक खाली हो जाओ-यहां तक कि तुम्हें इस बात
का भी अनुभव न हो कि ' मैं खाली हूं '।
‘‘
एक
बार ऐसा हुआ-बोधिधर्म के पास एक शिष्य आया और उसने कहा- ‘‘ प्यारे
सद्गुरु! आपने मुझसे खाली होने को कहा था। अब मैं खाली हो गया हूं। अब आप और क्या
करने के लिए कहते हो? ‘‘
बोधिधर्म
ने अपने डंडे से उस पर जोर की चोट करते हुए कहा-’‘ जा और अपने इस खालीपन को
बाहर फेंक दे। ‘‘
यदि
तुम कहते हो-’‘
मैं खाली हूं तो मैं हूं तो अभी भी है और मैं कभी भी खाली नहीं हो
सकता। इसलिए खालीपन का दावा नहीं किया जा सकता। कोई भी यह नहीं कह सकता-मैं खाली
हूं? ठीक वैसे ही जैसे कोई यह नहीं कह सकता- मैं विनम्र हूं।
यदि तुम यह कहते हो कि मैं विनम्र हूं तो तुम नहीं हो। कौन दावा कर रहा है इस
विनम्रता का? विनम्र होने का दावा नहीं किया जा सकता। यदि
तुम विनम्र हो तो हो विनम्र, लेकिन तुम उसे कह नहीं सकते। न
केवल तुम उसे कह ही नहीं सकते, तुम उसे अनुभव भी नहीं कर
सकते कि तुम विनम्र हो, क्योंकि इसका अनुभव होना ही फिर
अहंकार को जन्म दे देगा। खाली बनो, लेकिन यह सोचो ही मत कि
तुम खाली हो, अन्यथा तुम स्वयं को ही धोखा दे रहे हो। ‘‘
तुम
अपने साथ बहुत-सा तत्वज्ञान लेकर आए हो। उसे गिरा दो। उसने तुम्हारी कोई भी सहायता
नहीं की है और न तुम्हारे लिए कुछ भी किया है। काफी समय हो चुका। यही ठीक समय है
जब इसे पूरी तरह,
भागों-खण्डों में नहीं, पूरा-का-पूरा गिरा दो।
इन थोड़े-से दिनों में जब तुम मेरे सान्निध्य में रही, बस
बिना सोच-विचार के रहो। मैं जानता हूं कि यह कठिन है, पर फिर
भी मैं कहता हूं-यह सम्भव है और एक बार तुम यह निर्दोष विधि जान गए तो तुम मन की
पूरी व्यर्थता पर, जिसे तुम इतने लम्बे समय से ढ़ोते रहे हो,
हंसोगे।
मैंने
उस एक देहाती आदमी के बारे में सुना है, जो कि जब वह पहली बार रेल से
यात्रा कर रहा था तो वह अपनी गठरी अपने सिर पर यह सोचकर रखे हुआ था कि उसे नीचे
रखने पर रेल को और अधिक वजन ढ़ोना होगा और मैंने किराया तो सिर्फ -अपने लिए- ही
अदा किया है। मैंने टिकट तो खरीदा है पर सामान ले जाने के लिए तो कछ भी नहीं किया
है। इसलिए उसने अपनी गठरी अपने सिर पर रख ली थी। रेलगाड़ी तो उसे और उसके सामान को,
भले ही वह उसे सिर पर रखे या नीचे, ढ़ोए जा
रही थी और इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता था।
तुम्हारा
मन एक फालतू सामान की तरह है। इस अस्तित्व के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम इस
अनावश्यक बोझ को सिर पर ढ़ो रहे हो। मैं कहता हूं-इसे गिरा दो। वृक्ष बिना मन के जीए
जा रहे हैं और मनुष्यों की अपेक्षा कहीं अधिक खूबसूरती से रह रहे हैं, पक्षी
बिना मन के रह रहे हैं और मनुष्य की अपेक्षा कहीं आनन्द से जी रहे हैं। जरा बच्चों
को देखो! जो अभी तक सभ्य नहीं हुए हैं जो अभी तक जंगली ऐं वे भी बिना किसी मन के
निर्दोष बने जी रहे हैं। उनकी इस निर्दोषता पर जीसस और बुद्ध भी ईर्ष्या का अनुभव
करते होंगे। इस मन की कोई .आवश्यकता ही नहीं है। पूरा
संसार बिना मन के बड़े मजे से जी रहा है। तुम उसे क्यों ढ़ोए जा रहे हो? क्या केवल तुम यह सोच रहे हो कि यह परमात्मा और अस्तित्व के लिए बहुत अधिक होगा। एक बार तुम भले ही एक मिनट के लिए सही, तुम उसे उतार कर नीचे रख दो, तुम्हारा पूरा अस्तित्व बदल जाएगा। तुम एक नई दिशा में प्रवेश करोगे, और वह दिशा है भारहीनता की।
संसार बिना मन के बड़े मजे से जी रहा है। तुम उसे क्यों ढ़ोए जा रहे हो? क्या केवल तुम यह सोच रहे हो कि यह परमात्मा और अस्तित्व के लिए बहुत अधिक होगा। एक बार तुम भले ही एक मिनट के लिए सही, तुम उसे उतार कर नीचे रख दो, तुम्हारा पूरा अस्तित्व बदल जाएगा। तुम एक नई दिशा में प्रवेश करोगे, और वह दिशा है भारहीनता की।
मैं
तुम्हें आकाश और स्वर्ग में उड़कर जाने के लिए जो कुछ देने जा रहा हूं- वह हैं पंख।
यह भारहीनता ही तुम्हें यह पंख देती है, जिसकी जड़ें पृथ्वी के नीचे भूमि पकड़
चुकी हैं और वही तुम्हारा केन्द्र है। यह पृथ्वी और स्वर्ग, अखण्ड
अस्तित्व के दो भाग हैं। इस जीवन में, अपने तथाकथित साधारण
जीवन में तुम्हें अपनी जड़ें जमानी चाहिए और अपने आध्यात्मिक जीवन के अंतर आकाश में
भारहीन होकर तुम्हें उड़ना, बहना और तैरना है।
यदि
तुम राजी हो सको तो मैं तुम्हें जड़ें और पंख दे सकता हूं क्योंकि मैं केवल एक दाई
हूं। मैं बच्चे को गर्भ से बाहर आने के लिए विवश नहीं कर सकता। बलपूर्वक बाहर लाया
बच्चा कुरूप होता है और वह मर भी सकता है। बस मुझे इजाजत दो। बच्चा तुम्हारे अंदर
है और तुम पहले ही से उसे गर्भ में लेकर आए हो। प्रत्येक गर्भ परमात्मा को लेकर ही
जन्मता है। बच्चा वहां है और तुम उसे नौ महीने से भी काफी अधिक लम्बी अवधि से, पहले से
ही लिए ढ़ो रहे हो। यही तुम्हारे दुखों का मूल कारण है कि तुम गर्भ में कुछ ऐसा
लिए हुए जी रहे हो जिसकी प्रसव की तुरन्त आवश्यकता
है और आवश्यकता है कि वह बाहर निकले उसका जन्म हो। जरा उस औरत, उस मां के बारे में सोचो, जो नौ महीने गुजर जाने पर भी गर्भ में बच्चे को लिए हुए उसे ढ़ो रही है। यदि शीघ्र प्रसव न हुआ तो उसके लिए यह बहुत बड़ा बोझ बन जाएगा, मां मर जाएगी क्योंकि और अधिक सहना उसके लिए कठिन होगा। यही वजह हो सकती है कि तुम इतने अधिक व्यग्र, दुःखी और तनाव ग्रस्त हो। तुम्हारे अंदर से कोई चीज जन्म लेने वाली है, कुछ ऐसा है जो तुम्हारे गर्भ से बाहर आना चाहता है और मैं इसमें तुम्हारी सहायता कर सकता हूं।
है और आवश्यकता है कि वह बाहर निकले उसका जन्म हो। जरा उस औरत, उस मां के बारे में सोचो, जो नौ महीने गुजर जाने पर भी गर्भ में बच्चे को लिए हुए उसे ढ़ो रही है। यदि शीघ्र प्रसव न हुआ तो उसके लिए यह बहुत बड़ा बोझ बन जाएगा, मां मर जाएगी क्योंकि और अधिक सहना उसके लिए कठिन होगा। यही वजह हो सकती है कि तुम इतने अधिक व्यग्र, दुःखी और तनाव ग्रस्त हो। तुम्हारे अंदर से कोई चीज जन्म लेने वाली है, कुछ ऐसा है जो तुम्हारे गर्भ से बाहर आना चाहता है और मैं इसमें तुम्हारी सहायता कर सकता हूं।
यह
समाधि-साधना-शिविर,
यह शिविर जो अंतर आनंद और कुरुल के लिए है वह केवल तुम्हारी सहायता
करने के लिए हो रहा है जिससे तुम अपने अंदर जो पोज लिए हुए हो, वह गर्भ रूपी पृथ्वी से बाहर आकर और अंकुरित होकर एक केवल वृक्ष बन सके,
लेकिन आधारभूत बात यही होगी कि यदि तुम मेरे साथ रहना चाहते हो तो
अपने मन के साथ न रह सकोगे। दोनों चीजें साथ-साथ नहीं हो सकतीं। जब तुम अपने मन के
साथ होते हो तो मेरे साथ नहीं होते, जब मन नहीं होता,
तुम तभी मेरे साथ होते हो। मैं तुम पर तभी कुछ कार्य कर सकता हूं
यदि तुम मेरे साथ हो। अपने पाले को खाली करो। इसे पूरी तरह फेंक ही दो, नष्ट कर दो उसे।
यह
शिविर बहुत से तरीकों से अलग तरह का होने जा रहा है। इस रात से मैं अपने काम को
पूरी तरह से नई बदली हुई स्थिति में शुरू करने जा रहा हूं। तुम लोग काफी भाग्यशाली
हो, जो यहां हो, क्योंकि इस नई तरह के आत्मिक कार्य के
तुम साक्षी बनोगे। मुझे चाहिए कि मैं इसे स्पष्ट कर दूं क्योंकि कल सुबह से यह
शुरू होने जा रहा है।
तुम
लोग तीन बार ध्यान करोगे। सुबह सक्रिय ध्यान, दोपहर बाद कीर्तन ध्यान और रात में
एक नया ध्यान प्रयोग शुरू किया जा रहा है-सूफी दरवेश नृत्य। ये तीनों 'मान प्रयोग एक ही पूर्ण ध्यान के तीन खण्ड हैं।
पहला
ध्यान प्रयोग जिसे तुम सुबह करोगे, उगते सूर्य से संबंधित है। यह सुबह
का ध्यान प्रयोग है। जब नींद टूटती है और पूरी प्रकृति जीवन्त बनती है। रात जा
चुकी है अंधेरा अब रहा नहीं, सूर्य उगने वाला है और हर चीज
चेतन और सजग होने जा रही है। इसलिए यह पहला ध्यान ऐसा ध्यान प्रयोग है जिसमें तुम
जो भी करो, तुम्हें निरन्तर सजग, सचेतन
और होशपूर्वक रहना है। पहला चरण है-श्वास का, दूसरा चरण रेचन
का और तीसरा महामंत्र 'हूं' का।
साक्षी
बने रहना है। खो नहीं जाना है। खो जाना या अपने को भुला देना आसान है। जब तुम सांस
छोड़ रहे हो, तुम भूल सकते हो अपने को, तुम सांस के साथ इतने एक
हो सकते हो कि तुम साक्षी को भूल जाओ, लेकिन तब तुम असली
मुद्दे से ही चूक जाओगे। सांस जितनी गहरी और तेज सम्भव हो सके, उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा दो लेकिन फिर भी साक्षी बने रहो। एक तटस्थ
दर्शक की तरह, जो कुछ हो रहा है- उसे देखते रहो, जैसे किसी और के करने द्वारा पूरी चीज घट रही है, जैसे
पूरी चीज शरीर में घट रही है और ठीक केन्द्र में बैठी चेतना उसे देख रही है। यह
साक्षी भाव
तीनों चरणों में बनाए रखना है। जब हर चीज रुक जाए और चौथे चरण में तुम पूरी तरह निष्क्रिय हो जाओ, जम जाओ, तब यह सजगता अपने चरम शिखर पर होगी। दोपहर बाद के ध्यान में-कीर्तन, नृत्य और गान-इस बीच अंदर के दूसरे कार्यों को करना है। सुबह तुम पूर्ण सचेतन रहो, दोपहर बाद के ध्यान में तुम्हें आधा चेतन और आधा अचेतन रहना है। दोपहर बाद के ध्यान में-जब तुम सजग हो लेकिन तुम्हें नींद आ रही है। यह दशा ठीक उस मनुष्य की तरह है जो किसी नशे के प्रभाव
में है। वह चलता है, लेकिन ठीक से चल नहीं पाता, वह यह तो जानता है कि कहां जा रहा है, लेकिन हर चीज धुंधली-- धुंधली होती है। वह चेतन है भी और नहीं भी है। वह जानता है कि उसने शराब ली है, वह जानता है कि यह आधी सोई और आधी जागी दशा है। इसलिए दोपहर बाद के ध्यान में याद रहे, इस तरह अभिनय करना है जैसे तुमने शराब पी ली है और आनन्द में हो। कभी तुम अपने को पूरी तरह भूल जाओगे, ठीक एक शराबी की तरह, कभी तुम्हें सब कुछ याद होगा, लेकिन सुबह की तरह पूरी तरह सचेतन नहीं होना है। नहीं, दिन के साथ-साथ गति करो, दोपहर में आधा- आधा। तब तुम प्रकृति के साथ लयबद्ध हो रहे हो।
तीनों चरणों में बनाए रखना है। जब हर चीज रुक जाए और चौथे चरण में तुम पूरी तरह निष्क्रिय हो जाओ, जम जाओ, तब यह सजगता अपने चरम शिखर पर होगी। दोपहर बाद के ध्यान में-कीर्तन, नृत्य और गान-इस बीच अंदर के दूसरे कार्यों को करना है। सुबह तुम पूर्ण सचेतन रहो, दोपहर बाद के ध्यान में तुम्हें आधा चेतन और आधा अचेतन रहना है। दोपहर बाद के ध्यान में-जब तुम सजग हो लेकिन तुम्हें नींद आ रही है। यह दशा ठीक उस मनुष्य की तरह है जो किसी नशे के प्रभाव
में है। वह चलता है, लेकिन ठीक से चल नहीं पाता, वह यह तो जानता है कि कहां जा रहा है, लेकिन हर चीज धुंधली-- धुंधली होती है। वह चेतन है भी और नहीं भी है। वह जानता है कि उसने शराब ली है, वह जानता है कि यह आधी सोई और आधी जागी दशा है। इसलिए दोपहर बाद के ध्यान में याद रहे, इस तरह अभिनय करना है जैसे तुमने शराब पी ली है और आनन्द में हो। कभी तुम अपने को पूरी तरह भूल जाओगे, ठीक एक शराबी की तरह, कभी तुम्हें सब कुछ याद होगा, लेकिन सुबह की तरह पूरी तरह सचेतन नहीं होना है। नहीं, दिन के साथ-साथ गति करो, दोपहर में आधा- आधा। तब तुम प्रकृति के साथ लयबद्ध हो रहे हो।
रात
में सुबह से ठीक उल्टा-पूरी तरह अचेतन बने रहना है और कोई चिंता नहीं लेनी है। रात
आ गई है, सूर्य अस्त हो चुका है और प्रत्येक चीज अचेतन की ओर गतिशील हो रही है।
अचेतन की ओर गति करो। यह गोल-गोल घूमने की सूफी दरवेश ध्यान की विधि बहुत पुरानी
और प्रभावी है। यह इतनी गहरी विधि है कि केवल एक छोटा अनुभव तुम्हें पूरी तरह से
भिन्न बना सकता है। तुम्हें आंखें खुली रखकर इस तरह गोल-गोल घूमना है, जैसे छोटे बच्चे गोल-गोल घूमते हैं, जैसे तुम्हारे अंदर
का अस्तित्व एक केन्द्र बन गया है और तुम्हारा शरीर एक घूमता हुआ पहिया बन गया
है-जैसे एक कुम्हार का चाकघूम रहा है। तुम्हीं केन्द्र हो, लेकिन
पूरा शरीर घूम रहा है।
धीमे--
धीमे क्लाक वाइज घूमना शुरू करो। यदि कोई अनुभव करे कि क्लाक वाइज घूमना कठिन है, तब एग्टी
क्लाक वाइज घूमे, लेकिन नियम क्लाक वाइज घूमने का ही है। यदि
कुछ लोग जो बाएं हाथ से काम करते हैं, तब उन्हें कठिनाई का अनुभव
हो सकता है और वे एण्टी वलाक वाइज घूम सकते हैं। लगभग दस प्रतिशत लोग ही बाएं हाथ
से काम करने वाले हैं, इसलिए यदि उन्हें वलाक वाइज घूमने में
असुविधा का अनुभव हो, वे एण्टी क्लाक वाइज घूमें, लेकिन शुरुआत क्लाक वाइज घूमने से ही करें। जब घूमना शुरू करें तो आंखें
खुली रहें।
संगीत
भी होगा वहां। धीमा,
बस सहायता भर करने को। प्रारम्भ में बहुत धीमे-- धीमे घूमें,
तेज नहीं, बहुत धीमे- धीमे, आनन्द लेते हुए। तब धीरे- धीरे गति बढ़ाए। शुरू के पन्द्रह मिनट गति धीमी
रहे और अगले पन्द्रह मिनट गति तेज, तीसरे पन्द्रह मिनट गति
और तेज और चौथे पन्द्रह मिनट तक तो पागल होकर नृत्य करें। तब उसमें अपनी पूरी
ऊर्जा लगा दें। पनचक्की बन जाएं ऊर्जा पैदा करने वाले वर्लपूल की तरह, उसमें पूरी तरह खो जाएं देखने का कोई प्रयास नहीं, कोई
साक्षी भाव भी नहीं। वर्लपूल बन जाएं पूरी तरह। एक घंटे।
प्रारम्भ
में तुम अधिक देर खडे रहने में समर्थ न हो सकोगे, लेकिन एक चीज याद रहे अपनी
ओर से घूमना बंद न करें। पनचक्की की तरह घूमने को बंद न करें। यदि तुम्हें लगे कि
अब घूमना असम्भव है तो शरीर को अपने आप भूमि पर गिर जाने दें लेकिन उसे रोकें मत।
यदि तुम एक घंटे के मध्य में नीचे गिरते हो तो कोई समस्या नहीं विधि पूरी हो गई
लेकिन अपने ही साथ चालबाजी मत करें धोखा न दें र यह न सोचें कि अब तुम थक गए हो
इसलिए बेहतर है रुक जाएं। नहीं अपनी ओर से कोई निर्णय लेना ही नहीं है। यदि तुम थक
गए हो तो फिर कैसे घूमे जा रहे हो? तुम स्वयं
अपने .आप गिर पड़ोगे। घूमने को उस बिंदु तक पहुंचने दो, जहां तुम स्वयं गिर पड़ो। जब तुम नीचे सीसे तो पेट के बल और यह अच्छा होगा, यदि .तुम्हारे पेट का स्पर्श सीधे भूमि से होता रहे। अब आंखें बंद कर लो। पृथ्वी पर यों लेटे रहो। जैसे अपनी मां की छाती पर एक छोटे बच्चे की तरह लेटे हो। पूरी तरह अचेतन हो जाने में यह घूमना सहायक हो।
अपने .आप गिर पड़ोगे। घूमने को उस बिंदु तक पहुंचने दो, जहां तुम स्वयं गिर पड़ो। जब तुम नीचे सीसे तो पेट के बल और यह अच्छा होगा, यदि .तुम्हारे पेट का स्पर्श सीधे भूमि से होता रहे। अब आंखें बंद कर लो। पृथ्वी पर यों लेटे रहो। जैसे अपनी मां की छाती पर एक छोटे बच्चे की तरह लेटे हो। पूरी तरह अचेतन हो जाने में यह घूमना सहायक हो।
घूमना
शरीर को नशा देता है। यह रासायनिक चीज है यह तुम्हें मतवाला बनाती है जैसे शराब पी
लो हो। इसीलिए कभी-कभी शराबी की तरह चक्कर आने लगते हैं। एक शराबी के साथ होता
क्या है? तुम्हारे कानों के पीछे एक छठी इन्द्रिय होती है जिसमें संतुलन की संवेदना
है। जब तुम कोई नशा लेते हो कोई एल्कोहोलिक चीज या ड़ग तो वह कान के पीछे सीधे
संतुलन साहरने वाली छठी इन्द्रिय तक जाकर उसके कार्य में बाधा डालता है। यही कारण
है कि शराबी ठीक से चल नहीं पाता। उसका संतुलन गड़बड़ा जाता है। वह लड़खड़ाता हुआ चलता
है।
ऐसे
गोल-गोल घूमने में भी होता है। घूमते हुए वास्तव में प्रभाव शराब के नशे जैसा ही
होता है लेकिन इसका आनन्द लो। इस नशे में कुछ चीज कीमती है। शराबी जैसी स्थिति में
अपने होने की स्थिति को सूफी मस्ती कहते हैं। शुरू-शुरू में तुम्हें चक्कर आने
जैसा अनु भव होगा,
कभी- कभी जी मिचलाने की भी शिकायत हो सकती है लेकिन दो या तीन दिनों
में यह अनु भव गायब हो जाते हैं और चौथे दिन से तुम एक नई ऊर्जा का अनुभव करने
लगोगे, जिसे तुमने पहले कभी नहीं जाना था। जी मिचलाना बंद हो
जाता है और ठीक नशे जैसी मस्ती की खुमारी बनी रहती है। इसलिए जो कुछ घट रहा है
उसके प्रति सचेत होने की कोशिश मत करना। उसे होने देना और उस होने
के साथ सच हो जाना।
के साथ सच हो जाना।
सुबह
के समय सचेत और सजग,
दोपहर बाद आधे सावधान और आधे असावधान और रात में पूरी तरह असावधान,
चक्र पूरा हो जाता है।
और
तब पेट के बल जमीन .पर गिर जाना है। यदि कोई पृथ्वी पर लेटते समय नाभि केन्द्र पर
किसी तरह के दर्द का अनुभव करे तो उलट कर पीठ के बल लेट जाए अन्यथा नहीं। नाभि का
पृथ्वी से सम्पर्क तुम्हें ऐसा आनन्द दायक अनुभव देता है जैसे तुम मां के वक्ष से
चिपके हुए सभी चिंताओं और दु:खो से मुक्त लेटे हो, तुम्हारे हृदय की धड़कनें
मां की धड़कनों से मिलकर एक हो रही हैं और तुम्हारी सांस उसकी सांसों से लयबद्ध
होकर चल रही है, लेकिन अब तुम यह अनुभव भूल चुके हो। ऐसा ही अनुभव
पृथ्वी पर लेटकर होता है क्योंकि पृथ्वी मां है। इसी वजह से हिन्दू पृथ्वी को माता
और आकाश को पिता कहते हैं। पृथ्वी में अपनी जड़ें जमा लो। उसके साथ
मिलकर-घुलकर एक हो जाओ। शरीर घुलकर पृथ्वी में जैसे समा जाए। शरीर रहे ही न, तुम भी मिट जाओ, केवल पृथ्वी का ही अस्तित्व रहे।
मिलकर-घुलकर एक हो जाओ। शरीर घुलकर पृथ्वी में जैसे समा जाए। शरीर रहे ही न, तुम भी मिट जाओ, केवल पृथ्वी का ही अस्तित्व रहे।
यह
वही है जिसकी बाबत मैं कहता हूं कि अपने प्याले को पूरी तरह तोड़कर तुम अपने होने
को ही भूल जाओ। पृथ्वी है,
उसी में घुलकर एक हो जाओ।
घंटे
के घूमने में संगीत बजता रहेगा। एक घंटा पूरा होने से पहले ही कुछ लोग नीचे गिर
पड़ेंगे, लेकिन एक घंटे का संगीत पूरा होने पर प्रत्येक को भूमि पर पेट के बल लेट
जाना है। यदि तुम्हें ऐसा अनुभव हो कि तुम अभी भी गिरने की स्थिति में नहीं हो तो
गति को तेज और तेज कर देना। चालीस-पैंतालीस मिनट के बाद ही तुम पूरी तरह पागल जैसे
हो जाओगे और एक घंटा समाप्त होते-होते गिर ही पड़ोगे। यह नीचे अपने आप गिर जाने का
अनुभव बहुत सुंदर है, इसलिए इसमें हेर-फेर मत करना, चतुराई दिखाते हुए कोई प्रक्षेपण मत करना। गिरते समय पेट के बल लेट जाना
और आंखें बंद कर पृथ्वी के साथ एक हो जाना। यह एकत्व की अनुभूति एक घंटे तक
करना।
करना।
इसलिए
रात्रि ध्यान दो घंटे का होगा। सात बजे से नौ बजे तक। इससे पहले कोई चीज खाना नहीं
है। नौ बजे इस गहरे आनंदमय नशे से बाहर आने के लिए सुझाव दिए जाएंगे। इससे बाहर
आने पर तुम ठीक से चलने में समर्थ न हो सकोगे लेकिन परेशान मत होना। उसका मजा लेना।
तब भोजन करके सो जाना।
दूसरी
नई चीज यह, मैं वहां नहीं रहूंगा, केवल मेरी खाली कुर्सी ही
वहां होगी, लेकिन चूक मत जाना क्योंकि एक अर्थों में मैं
वहां हूंगा भी और दूसरे अर्थों में हमेशा मेरी खाली कुर्सी ही तुम्हारे सामने होगी।
ठीक अभी भी कुर्सी खाली ही है, क्योंकि यहां कोई है ही नहीं,
जो उस पर बैठे। मैं तुमसे बात कर रहा है- लेकिन यहां कोई है ही नही,
जो तुमसे बात कर सके। यह समझना जरा मुश्किल है, लेकिन जब अहंकार विसर्जित हो जाता है तो ऐसा होना हो सकता है। बातचीत जारी
हो सकती है, बैठना, चलना और भोजन करना
भी चलता रहता है, लेकिन केंद्र गायब हो जाता है। अभी भी
यह कुर्सी खाली है, लेकिन मैं हमेशा अभी तक के सभी शिविरों में तुम्हारे साथ रहा, क्योंकि तब तुम तैयार न थे। अब मैं अनुभव करता हूं कि तुम तैयार हो। मेरी अनुपस्थिति में कार्य करने के लिए तुम्हें पहले से तैयार होने में मदद जरूर मिलेगी, लेकिन यह अनुभव कि ' मैं हूं ' तुम्हारे अंदर एक खास उत्साह का संचार करता रहता है, जो नकली है। बस यह अनुभव करते हुए कि मैं मौजूद हूं तुम वह काम भी कर डालते हो, जिन्हें तुम कभी करना नहीं चाहते थे, और केवल मेरे प्रभाव के कारण तुम अधिक श्रम कर सकते हो, लेकिन इससे अधिक सहायता मिलेगी नहीं, क्योंकि केवल वही
चीज सहायक हो सकती है, जो तुम्हारे अस्तित्व से स्वत: आए। मेरी कुर्सी वहां होगी, मैं तुम्हें देखता रहूंगा, लेकिन तुम्हें पूरी तरह स्वतंत्रता का अनुभव होगा। यह मत सोचना कि मैं वहां नहीं हूं क्योंकि इससे तुम निराश हो सकते हो और यह हताशा तुम्हारे ध्यान में बाधा बनेगी। मैं वहां हूंगा और यदि तुम ठीक से ध्यान कर रहे हो तो जब तुम्हारा ध्यान पूरी तरह मेरे साथ लयबद्ध जाएगा, तुम मुझे वहां देख सकोगे इसलिए वही कसौटी होगी कि तुम वास्तव में ध्यान कर रहे हो या नहीं। तुममें से बहुत से मुझे और अधिक सघनता से देख सकने में सक्षम होंगे जितना कि ठीक अभी तुम मुझे देख
सकते हो।
यह कुर्सी खाली है, लेकिन मैं हमेशा अभी तक के सभी शिविरों में तुम्हारे साथ रहा, क्योंकि तब तुम तैयार न थे। अब मैं अनुभव करता हूं कि तुम तैयार हो। मेरी अनुपस्थिति में कार्य करने के लिए तुम्हें पहले से तैयार होने में मदद जरूर मिलेगी, लेकिन यह अनुभव कि ' मैं हूं ' तुम्हारे अंदर एक खास उत्साह का संचार करता रहता है, जो नकली है। बस यह अनुभव करते हुए कि मैं मौजूद हूं तुम वह काम भी कर डालते हो, जिन्हें तुम कभी करना नहीं चाहते थे, और केवल मेरे प्रभाव के कारण तुम अधिक श्रम कर सकते हो, लेकिन इससे अधिक सहायता मिलेगी नहीं, क्योंकि केवल वही
चीज सहायक हो सकती है, जो तुम्हारे अस्तित्व से स्वत: आए। मेरी कुर्सी वहां होगी, मैं तुम्हें देखता रहूंगा, लेकिन तुम्हें पूरी तरह स्वतंत्रता का अनुभव होगा। यह मत सोचना कि मैं वहां नहीं हूं क्योंकि इससे तुम निराश हो सकते हो और यह हताशा तुम्हारे ध्यान में बाधा बनेगी। मैं वहां हूंगा और यदि तुम ठीक से ध्यान कर रहे हो तो जब तुम्हारा ध्यान पूरी तरह मेरे साथ लयबद्ध जाएगा, तुम मुझे वहां देख सकोगे इसलिए वही कसौटी होगी कि तुम वास्तव में ध्यान कर रहे हो या नहीं। तुममें से बहुत से मुझे और अधिक सघनता से देख सकने में सक्षम होंगे जितना कि ठीक अभी तुम मुझे देख
सकते हो।
जब
कभी तुम मुझे देखते हो,
तुम निश्चित हो सकते हो कि सभी चीजें ठीक दिशा में हो रही हैं इसलिए
यही कसौटी होगी। इस शिविर के अंत में मैं आशा करता हुं कि तुममें से नब्बे मतिशत
मुझे खाली कुर्सी पर भी देख सकेंगे। दस प्रतिशत लोग अपने मन के कारण चूक भी सकते
हैं, इसलिए यदि तुम मुझे देखो तो उस बारे में सोचना शुरू मत
कर देना कि यह क्या घट रहा है। यह मत सोचना कि यह कल्पना है या प्रक्षेपण या मैं
वास्तव में वहां -हूं। कभी कुछ सोचना ही मत, क्योंकि यदि तुम
सोचने लगे तो मैं तुरन्त विलुप्त हो जाऊंगा, सोचना ही अवरोध
बन जाएगा। दर्पण पर धूल आ. जाएगी और तब फिर प्रतिबिम्ब नहीं बनेगा। जब वहां धूल
नहीं होगी, तुम अभी यहां
मेरे बारे में जितना सजग हो सकते हो, अचानक तब उससे कहीं अधिक सजग हो जाओगे। भौतिक शरीर के प्रति सजग होना अधिक सजगता नहीं है। सूक्ष्म शरीर के प्रति सजगता ही सच्ची सजगता है।
मेरे बारे में जितना सजग हो सकते हो, अचानक तब उससे कहीं अधिक सजग हो जाओगे। भौतिक शरीर के प्रति सजग होना अधिक सजगता नहीं है। सूक्ष्म शरीर के प्रति सजगता ही सच्ची सजगता है।
तुम्हें
बिना मेरे काम करना सीखना चाहिए। तुम हमेशा यहां नहीं रह सकते, तुम्हें
यहां से दूर जाना ही होगा। तुम हमेशा ही मेरे चारों ओर घूमते नहीं रह सकते,
तुम्हें करने के लिए और भी काम हैं। तुम विश्व- भर के कई देशों से
यहां आए हो, तुम्हें कर लौटना ही होगा। कुछ दिनों के लिए ही
तुम मेरे साथ यहां हो, लेकिन यदि तुम मेरी शारीरिक उपस्थिति
के आदी बन गए तो बजाय एक सहायता बनने के वह तो एक व्यवधान बन जाएगा, क्योंकि जब तुम दूर चले जाओगे तब मुझसे चूकते रहोगे। यहां तुम्हारा ध्यान
बिना मेरी उपस्थिति के ऐसा होना चाहिए जिससे तुम कहीं भी जाओ, फिर भी किसी तरह ध्यान प्रभावित न हो।
यह
भी याद रखना है कि मैं हमेशा ही तुम्हारे साथ इस भौतिक शरीर में नहीं रह सकता।
एक-न-एक दिन यह शरीर का वाहन तो छूटना ही है। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, मेरा काम
पूरा हो चुका है। यदि मैं इस शरीर के वाहन को चलाए जा रहा हूं तो केवल तुम्हारे
लिए ही और किसी दिन इसे छोड़ना ही है। इससे पहले कि ऐसा हो, तुम्हें
मेरी अनुपस्थिति में काम करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। और एक बार मेरी अनुपस्थिति
में भी यदि तुम मुझे अनुभव कर सके तो तुम मुझसे मुक्त हो जाओगे और तब मैं भले ही
यहां इस शरीर में न रहूं सम्पर्क टूटेगा नहीं।
ऐसा
हमेशा होता है कि जब बुद्ध वहां होता है, उसकी शारीरिक उपस्थिति इतनी
अर्थपूर्ण बन जाती है कि जब वह शरीर छोड़ देता है तो हर चीज नष्ट हो जाती है। यहां
तक कि आनन्द जैसा शिष्य, जो गौतम बुद्ध का सबसे निकट अंतरंग
शिष्य था, जब उससे बुद्ध ने कहा- 'अब
मुझे इस शरीर को छोड़ना होगा, 'वह रोने और चीखने लगा।
पिछले
चालीस वर्षों से आनन्द बुद्ध के साथ चौबीस घंटे ठीक उनकी छाया की तरह रहता था। वह
एक बच्चे की तरह रोने और चीखने लगा, जैसे अचानक वह अनाथ हो गया हो।
बुद्ध
ने पूछा-’‘ यह तुम क्या कर रहे हो? ‘‘
आनन्द
ने कहा-’‘ अब मेरे लिए विकसित हो पाना असम्भव होगा। जब आप थे, मैं
तब ही विकसित न हो सका, अब मैं कैसे विकसित हो पाऊंगा?
अब फिर करोड़ों जन्म लेने पड़ेंगे, जब मैं फिर
किसी बुद्ध के सान्निध्य में हूंगा, इसलिए मैं तो बरबाद हो
गया! ‘‘
बुद्ध
ने कहा- ‘‘ मेरा ख्याल दूसरा है आनन्द। जब मैं नहीं रहूंगा, तब
तुम तुरन्त बुद्धत्व को प्राप्त हो सकोगे क्योंकि मैं अपने अनुभव से समझ रहा
हूं-तुम मेरे साथ बहुत अधिक आसक्ति में पड़ गए और यही आसक्ति एक अवरोध बन गई है। ‘‘ जैसा बुद्ध ने कहा था, वही हुआ। जिस दिन बुद्ध ने
शरीर छोड़ा, आनन्द बुद्धत्व को प्राप्त हो गया। तब उसके लिए
कुछ भी ऐसा न रहा, जो उसे बांध सके, लेकिन
फिर प्रतीक्षा क्या करना? जब मैं शरीर छोड़े, क्या तुम तभी बुद्धत्व को प्राप्त करोगे? इतनी प्रतीक्षा
क्यों?
मेरी
कुर्सी खाली रह सकती है,
तुम मेरी अनुपस्थिति का अनुभव कर सकते हो और स्मरण रहे-तुम मेरी
उपस्थिति तभी अनुभव कर सकते हो, जब तुम मेरी अनुपस्थिति को
भी महसूस कर सको। यदि मेरे शरीर के वाहन के वहां न होते हुए तुम मुझे नहीं देख
सकते तो तुमने मुझे देखा ही नहीं। यह मेरा वायदा है कि मेरी खाली कुर्सी वास्तव में
खाली नहीं रहेगी। मैं अपनी खाली कुर्सी पर भी रहूंगा। इसलिए ऐसा व्यवहार करो और
कुर्सी कभी खाली नहीं दिखेगी, लेकिन अच्छा यही है कि तुम
मेरे अशरीरी अस्तित्व के सम्पर्क में रहने की कला सीखो। यह अधिक गहरा, अधिक अंतरंग को स्पर्श करने वाला सम्बन्ध है।
इसी
वजह से मैं कहता हूं कि इस शिविर से मेरे कार्य करने का एक नया अध्याय प्रारम्भ
होने जा रहा है और मैं इसे समाधि-साधना शिविर कहता हूं। जो मैं तुम्हें सिखाने जा
रहा हूं वह मात्र ध्यान नहीं है, वह पूर्ण परमानन्द है। यह मात्र पहला कदम नहीं है।
यह आखिरी कदम भी है। तुम्हारे लिए बस अमल की ही जरूरत है, सब
कुछ पहले से ही तैयार है। बस केवल सजग हो जाओ, अधिक सोचो ही
मत। इन तीनों ध्यान प्रयोगों के बीच बचे समय में बातचीत न करते हुए अधिक-से- अधिक
शांत रहो। यदि कुछ करना ही चाहते हो तो हंसो, नाचो या कुछ
ऐसा शारीरिक काम सघन रूप से करो, लेकिन- मानसिक काम नहीं।
टहलने के लिए लम्बे निकल जाओ, जोगिंग करो, धूप में उछलो या जमीन पर लेटकर आकाश को देखते हुए हर बात का मजा लो, लेकिन मन को कार्य करने की इजाजत मत दो। हसों, रोओ,
चीखो, चिल्लाओ, पर सोचो
मत।
यदि
तुम तीनों ध्यान प्रयोगों और उनके मध्य के समय में बिना सोच-विचार के रहो तो
तीन-चार दिनों के बाद तुम्हें अचानक लगेगा कि अंदर का सारा बोझ विसर्जित हो गया।
हृदय हल्का और शरीर भारहीन हो गया और अब तुम अज्ञात में छलांग लगाने के लिए तैयार
हो.... क्या कुछ और....?
पहला
प्रश्न: प्यारे ओशो?
आपने प्रवचन के अंतिम भाग में जो कुछ कहा वह बहुत सुदंर और आनन्द पूर्ण
है? लेकिन पहला भाग बहुत अधिक डर? देना
वाला है- प्याले को तोड़ना, उसको जमीन
पर फेंक देना, दुःख और वेदनाएँ और तुम्हारा न होना तब हम लोगों के मन आ जाते है और हम लोग अपने शरीर के साथ चाल बाजियां खेलने लग जाते हैं हम कहते हैं- मेरे यहां वह दर्द हो रहा है? मरे-हां फफोला पड़ गया है.......
पर फेंक देना, दुःख और वेदनाएँ और तुम्हारा न होना तब हम लोगों के मन आ जाते है और हम लोग अपने शरीर के साथ चाल बाजियां खेलने लग जाते हैं हम कहते हैं- मेरे यहां वह दर्द हो रहा है? मरे-हां फफोला पड़ गया है.......
कृपया
क्या आप हमें कुछ ऐसा संकेत दे सकते है कि हम उन अवरोध को कैसे दूर कर सकते है? जिन्हें अपने
लिए हम स्वयं सर्जित करने है? खास तौर से तब, जब हम भय के विरुद्ध खड़े होते है
कोई
भी संघर्ष अधिक अवरोध उत्पन्न करेगा ही। यदि कोई भय है और तुम उसके बारे में कुछ
भी शुरू करते हो तो एक नया भय प्रविष्ट हो जाता है- भय का भय। यह अधिक जटिल बन
जाता है इसलिए एक ही चीज की जा सकती है कि यदि वहां भय है तो उसे स्वीकार करो।
उसके बारे में कुछ भी करो ही मत। कुछ करने से कोई सहायता नहीं मिलेगी। भय को दूर
करने के लिए तुम जो कुछ भी करोगे, उससे और अधिक भय उत्पन्न होगा, उलझन दूर करने के लिए तुम जो कुछ भी करोगे, उससे उलझन
बढ़ेगी ही। कुछ करो ही मत।
यदि
वहां भय है तो उसे बस कहीं लिख लो। उस भय को स्वीकार करो। और तुम कर क्या सकते हो? भय वहां
है, उस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। उसे देखो,
यदि तुम उस तथ्य को कि भय कहां है, उसे बस लिख
लो, तब भय होगा कहां?
तुमने उसे स्वीकार कर लिया और वह घुलकर बह गया। स्वीकारने से वह घुल जाता है-केवल स्वीकार भाव, और कुछ भी नहीं। यदि तुम उससे लड़ोगे तुम दूसरे झंझट खड़े करोगे और यह चलता ही रहेगा, तब इसका कहीं अंत होगा ही नहीं।
तुमने उसे स्वीकार कर लिया और वह घुलकर बह गया। स्वीकारने से वह घुल जाता है-केवल स्वीकार भाव, और कुछ भी नहीं। यदि तुम उससे लड़ोगे तुम दूसरे झंझट खड़े करोगे और यह चलता ही रहेगा, तब इसका कहीं अंत होगा ही नहीं।
लोग
मेरे पास आते हैं और कहते हैं-हम बहुत भयभीत हैं, हमें क्या करना चाहिए?
यदि मैं कुछ करने के लिए कहता हूं तो वे उसे भयभीत अस्तित्व के साथ करेंगे,
इसलिए वह कृत्य उनके भय से ही आएगा और जो कृत्य भय से आता है,
वह भय के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।
मैंने
सुना है कि एडोल्फ हिटलर गहरे अवसाद अथवा डिप्रेशन से पीड़ित था और मनोवैज्ञानिकों
का कहना था कि यह अंदर छिपी हुई हीनता को ग्रंथि के कारण हैं। इसलिए आर्य रक्त के
सभी जर्मन मनोवैज्ञानिक बुलाए गए। उन्होंने प्रयास किया, लेकिन वे
उसकी कोई सहायता न कर सके। उनके विश्लेषण से कुछ भी नहीं निकला। इसलिए उन्होंने एक
यहूदी मनोवैज्ञानिक को बुलाने का सुझाव दिया। प्रारम्भ में हिटलर एक- यहूदी को
बुलाने के लिए तैयार न था, लेकिन और कोई रास्ता न देखकर उसे समर्पण
करना ही पड़ा। वह महान यहूदी मनोवैज्ञानिक बुलाया गया।
वह
हिटलर के मन में गहराई तक गया, उसने उसके मन और सपनों का विश्लेषण
किया और तब सुझाव दिया, समस्या कुछ खास है नहीं, केवल एक बात दोहराते रहने से, ' मैं महत्वपूर्ण हूं ' मैं महत्वपूर्ण हूं ‘‘ मैं परम आवश्यक हूं ' और मेरे बिना कोई काम हो ही नहीं सकता, इसे दिन-रात जब भी याद आ जाए मंत्र की तरह जपते रहने से सब ठीक हो जाएगा।
किया और तब सुझाव दिया, समस्या कुछ खास है नहीं, केवल एक बात दोहराते रहने से, ' मैं महत्वपूर्ण हूं ' मैं महत्वपूर्ण हूं ‘‘ मैं परम आवश्यक हूं ' और मेरे बिना कोई काम हो ही नहीं सकता, इसे दिन-रात जब भी याद आ जाए मंत्र की तरह जपते रहने से सब ठीक हो जाएगा।
हिटलर
ने कहा-’‘ रुको! तुम मुझे गलत परामर्श दे रहे हो।
वह
मनोवैज्ञानिक कुछ समझ ही न सका। उसने पूछा, ‘‘ आपके कहने का आखिर क्या अर्थ है?
आप इसे गलत परामर्श क्यों कह रहे हैं? ‘‘
हिटलर
ने कहा-’‘ क्योंकि मैं जो कुछ भी कहता हूं मैं उस पर कभी विश्वास नहीं करता। मैं
इतना बड़ा झूठा हूं कि मैं जो कुछ भी कहता हूं उस पर कभी विश्वास कर ही नहीं सकता।
तुम कहते हो दोहरा-मैं महत्वपूर्ण हूं। मेरे बिना कुछ भी काम हो ही नहीं सकता। मैं
जानता हूं-यह बात झूठ है। इसका मतलब है-मैं यही कह रहा हूं कि मैं एक झूठा हूं। ‘‘
झूठ
के बीच, यदि तुम कुछ भी दोहराओगे, वह झूठ ही बन जाएगा। भय से
भरे हुए तुम उससे बचने को जो कुछ भी करोगे वह कृत्य भी फिर भय ही बन जाएगा। घृणा
से भरे, यदि तुम किसी दूसरे को प्रेम करने की कोशिश भी करो
तो उस प्रेम में भी अंतत: घृणा प्रकट हो जाएगी, इसके सिवा वह
कुछ और हो ही नहीं सकती, क्योंकि तुम घृणा से भरे हुए हो।
जाओ
उपदेशकों के पास और वे कहेंगे-' प्रेम करने का प्रयास करो। ' वे लोग व्यर्थ की बकवास कर रहे हैं, क्योंकि जो
व्यक्ति घृणा से भरा हुआ है, वह प्रेम करने की कोशिश कैसे कर
सकता है? यदि वह प्रेम करने की कोशिश भी करता है तो चूंकि यह
प्रेम, घृणा से ही आ रहा है, वह पहले
ही जहरीला हो जाएगा, क्योंकि उसका स्रोत विषैला है। सारे
उपदेशकों की यही वेदना और मुसीबत है।
जो
लोग हिंसक थे,
गांधीजी उनसे अहिंसक होने को कहते थे। उन लोगों की अहिंसा का जन्म
हिंसा से ही हुआ इसलिए उनकी अहिंसा एक ओढ़ा गया मुखौटा है, केवल
दिखाने का चेहरा-भर है। गहराई में, वे लोग अंदर हिंसा से उबल
रहे थे। यदि तुम्हारा ब्रह्मचर्य बहुत अधिक .कामुकता से ही जन्मा है तो वह विकृत
काम-वासना के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता।
इसलिए
कृपया कोई संघर्ष उत्पन्न न करें। यदि तुम्हारे पास एक समस्या है तो दूसरी समस्या
उत्पन्न मत करो उस एक ही के साथ रहो, उससे लड़कर तुम दूसरी उत्पन्न कर
लोगे।
दूसरी
को हल करने से बेहतर एक समस्या को ही हल करना कहीं आसान है और पहली तो स्रोत के निकट
है। दूसरी समस्या दूर है और उसको हल करना असम्भव है।
यदि
तुम्हारे पास भय है और तुम भयभीत हो तो उसे समस्या क्यों बनाते हो? तब तुम
जानते हो कि तुम भय से भरे हुए हो, ठीक वैसे ही जैसे
तुम्हारे पास दो हाथ हैं। उन हाथों से नई समस्या क्यों खड़ी करते हो कि तुम्हारे
पास एक ही नाक है, दो क्यों नहीं है? उनसे
नई समस्या खड़ी करने से लाभ क्या?
भय
है, उसे स्वीकार करो। उसे कहीं लिखकर अलग रख दो। स्वीकार कर उस बारे में चिंता
करना छोड़ दो। होगा क्या? अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि वह
विलुप्त हो गया और यही अंदर का रसायन है। यदि तुम स्वीकार कर लो तो समस्या विलुप्त
हो जाती है। यदि तुम उसके साथ कोई भी संघर्ष करो तो वह समस्या निरन्तर बढ़ती ही जाती
है और जटिल हो जाती है।
हां!
वहां दुःख हैं,
वेदनाएं हैं और अचानक भय भी आ जाता है। उसे स्वीकार करो। वह वहां
हैं .और उस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। जब मैं कहता हूं कि उस बारे में
कुछ भी नहीं किया जा सकता तो यह मत सोचना कि मैं ऐसा किसी निराशावादी दृष्टि से कह
रहा हूं। जब मैं कहता हूं कि इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता तो मैं तुम्हें
इसे हल करने की कुंजी सौंप रहा हूं।
वहां
दुख हैं। यह जीवन के एक भाग हैं और साथ ही विकास के भी, उसमें कुछ
भी गलत नहीं है। दुःख अनिष्ट और बरबादी बन जाता है, जब वह
सृजनात्मक न होकर विध्वंसात्मक होता है। दुःख तभी बुरे बन जाते हैं, जब तुम कष्ट उठाते हो और उनसे कुछ भी मिलता नहीं, लेकिन
मैं तुमसे कह रहा हूं, दुःख के द्वारा परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता
है, तब वह सृजनात्मक बन जाता है। अंधकार सुन्दर है, यदि उससे निकलकर शीघ्र ही भोर आ रही है। वह अंधेरा खतरनाक है, यदि वह अंतहीन है और सुबह की ओर नहीं ले जाता वह निरन्तर बना ही रहता है
और तुम एक दुष्चक्र में फंसकर गाड़ी द्वारा बनाई गई लीक पर चलते ही जाते हो।
वह
यही है, जो तुम्हारे साथ हो रहा है। बस एक दुःख से छुटकारा पाने के लिए तुम दूसरा
दुःख निर्मित कर लेते हो। दूसरे के बाद फिर कोई और... और यह सिलसिला चलता ही रहता
है। वे सभी दु:ख, जिनको अभी तुमने जिया नहीं है, वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। तुम भाग रहे हो... और तुम एक दु:ख से
पीछा छुड़ाते हुए दूसरे पर आते हो। तुम इस दु:ख से बचाव के लिए उस दुख की ओर जा
सकते हो, लेकिन दुःख वहां रहेंगे ही क्योंकि तुम्हारे मन के
पास सृजनात्मक शक्ति है।
दुःख
को स्वीकार करो,
उससे पीछा छुड़ाकर भागो मत। उससे होकर गुजरो। यह एक पूरी तरह काम
करने का भिन्न आयाम है। दु:ख है, उनका सामना करो और उनके द्वारा
होकर गुजरो। वहां भय होगा ही, उसे स्वीकार करो। तुम कांप
उठोगे इसलिए कांपो। एक धोखा खड़ा क्यों करते हो कि तुम नहीं कप रहे और तुम भयभीत
नहीं हो। यदि तुम एक कायर हो तो उसे स्वीकार करो।
प्रत्येक
व्यक्ति' कायर है। जिन व्यक्तियों को तुम बहादुर कहते हो, वह
उनका मात्र बाहरी मुखौटा है। बहुत गहराई में वे भी दूसरों जैसे ही कायर हैं और
वस्तुत : अधिक कायर हैं। बस केवल अपनी कायरता छिपाने के लिए उन्होंने अपने चारों
ओर बहादुरी का घेरा निर्मित कर लिया है और कभी-कभी वे इस तरह से कार्य करते हैं कि
प्रत्येक यह जानें कि वे कायर नहीं हैं। यह बहादुरी ठीक एक पर्दे की तरह है। आदमी कैसे
बहादुर हो सकता है क्योंकि मृत्यु तो है ही वहां? आदमी कैसे
बहादुर हो सकता है.. क्योंकि मनुष्य ठीक हवा में उड़ते हुए पत्ते की तरह है?
पता कांपने में कैसे सहायक हो सकता है? जब हवा
चलती है तो पता कांपेगा ही, लेकिन तुम पत्ते से कभी नहीं कहते
कि तुम कायर हो। तुम सिर्फ यही कहते हो कि पता जीवन्त है इसलिए जब तुम कांपते हो
और भय तुम्हें अपनी पकड़ में ले लेता है तुम हवा में डोलते एक पत्ते हो। बहुत सुंदर
है ऐसा होना। फिर उससे कोई समस्या उत्पन्न क्यों करते हो? लेकिन
समाज ने प्रत्येक चीज में समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं।
यदि
एक बच्चा अंधेरे में डरता है तो हम कहते हैं-डरो मत, बहादुर बनो। क्यों? बच्चा अज्ञानी है-स्वाभाविक रूप से वह अंधेरे में भय का अनुभव करता है। तुम
उसे विवश करते हो, बहादुर बनो। इसलिए वह अपने को विवश बनाता
है और तनाव से भर जाता है। तब वह अंधकार की मुसीबत को झेलता है, लेकिन वह तनाव से भरा है अब उसका पूरा अस्तित्व कांपने को तैयार है,
लेकिन वह उसे दबाता है। यह दबाया हुआ कम्पन पूरी जिन्दगी उसका पीछा
करेगा। यह अच्छा था कि वह अंधेरे में कांप लेता, इसमें कुछ
भी गलत न था। यह अच्छा था कि वह चिल्लाता और भाग खड़ा होता, इसमें
कुछ भी गलत न था। तब बच्चा अंधेरे के बारे में जानकर और उसका अनुभव करने के बाद
उसके बाहर आया होता। उसने महसूस किया होता कि यदि वह अंधेरे में से कांपता,
रोता और चीखता हुआ बाहर आया है, वहां डरने
जैसा कुछ था नहीं। जब तुमने उसे दबा दिया तो तुम कभी भी उस चीज का समग्रता से अनुभव
ही नहीं कर पाते और तुम कभी भी उससे कुछ प्राप्त भी नहीं करते।
दु:ख
के द्वारा गुजरते हुए ही प्रज्ञा आती है और यह आती है स्वीकार भाव से। जैसी भी
स्थिति हो, उसके साथ सहज बने रहो।
समाज
और उसके द्वारा की निंदा की ओर देखो ही मत। यहां कोई भी जज का बहाना किए नहीं बैठा
है और न कोई यहां तुम्हारे कृत्यों पर निर्णय दे रहा है। न दूसरों पर कोई निर्णय
लो तुम और न दूसरों के निर्णयों से परेशान या व्यग्र हो। तुम अकेले और अनूठे हो।
तुम पहले कभी नहीं थे और न कभी अब आगे होंगे। तुम सुन्दर हो, उसे
स्वीकारो और जो कुछ भी घटता है, उसे घटने दो और उस अनुभव में
से होकर गुजरी, दुःखों से गुजरना एक सीख बन जाएगा और तभी वह
सृजनात्मक होगा। भय तुम्हें निर्भयता देता है। क्रोध के द्वारा करुणा आएगी। घृणा
की समझ से प्रेम का जन्म होगा, लेकिन यह सब कुछ संघर्ष करते
हुए नहीं, बल्कि उसमें से सजग चेतना के साथ गुजरते हुए ही
घटता है। उसे स्वीकार करो और उसमें से होकर गुजरो।
यदि तुम यह आवश्यक बना लो कि प्रत्येक अनुभव से होकर गुजरना ही हैं तो वहां मृत्यु भी होगी जिसका सबसे प्रबल अनुभव है। जीवन का अनुभव उस अनुभव के सामने कुछ भी नहीं क्योंकि जीवन, मृत्यु जितना सघन नहीं है।
यदि तुम यह आवश्यक बना लो कि प्रत्येक अनुभव से होकर गुजरना ही हैं तो वहां मृत्यु भी होगी जिसका सबसे प्रबल अनुभव है। जीवन का अनुभव उस अनुभव के सामने कुछ भी नहीं क्योंकि जीवन, मृत्यु जितना सघन नहीं है।
जीवन
एक लम्बे समय में फैला हुआ है। सत्तर या सौ वर्ष। मृत्यु बहुत तीव्र है, क्योंकि
वह फैली हुई नहीं है-वह एक क्षण में होती है। जीवन को सौ या सत्तर वर्ष तक उसमें
से गुजरना होता है, इसलिए वह इतना प्रबल नहीं हो सकता।
मृत्यु एक क्षण में आती है, वह टुकड़ों में नहीं, पूर्णता में आती है। वह इतनी तीव्र होगी कि तुम उससे अधिक तीव्र या प्रबल
कुछ और जान ही नहीं सकते, लेकिन यदि तुम डरे हुए हो, यदि मृत्यु आने से पूर्व तुम उससे बचाव चाहते हो इसीलिए भय के कारण तुम
अचेत हो जाते हो तो एक महान स्वर्णावसर से चूक जाते हो। वही स्वर्णिम द्वार है।
यदि तुम पूरे जीवन सभी चीजों को स्वीकार करते रहे हो तो जब मृत्यु आती है तो शांति
और निष्क्रिय सजगता से तुम उसे स्वीकार करोगे, उससे बचाव
करने के प्रयास के बिनाउसमें प्रवेश करोगे। यदि तुम मृत्यु में शांति और सजग
निष्क्रियता से, बिना किसी प्रयास प्रवेश कर सके तो मृत्यु
तिरोहित हो जाती है। जब कृष्ण, जीसस, बुद्ध
और महावीर: कहते हैं कि तुम अमर हो, शाश्वत हो तो वे किसी
सिद्धांत की बात नहीं कर रहे, वे स्वयं अपने अनुभव की बात कह
रहे हैं।
ऐसी
घटना इस शिविर में भी घट सकती है क्योंकि समाधि भी मृत्यु है, ध्यान भी
मृत्यु है। कई बार ऐसे भी क्षण होंगे, जब तुम्हें अचानक यह
अनुभव होगा कि तुम मर रहे हो। उससे भागने की कोशिश मत करो, उसे
घटने के लिए राजी हो जाओ। यदि तुमने उसे घटने की इजाजत दी तो मृत्यु तो चली ही गई
है, मृत्यु तो अब वहां है ही नहीं और अब अस्तित्व में एक
अंतर्ज्योति, जिसका न कोई प्रारम्भ है और न अंत, आ चुकी है। वह वहां हमेशा ही से थी लेकिन तुम अब उसे महसूस कर पा रहे हो।
इसलिए
सूत्र यह होना चाहिए- भय,
घृणा, ईर्ष्या या दु:ख जो भी चीज हो, उसे लेकर कोई समस्या सृजित मत करो। उसे स्वीकार करो, उसमें से होकर गुजरो, तब तुम सभी दुःखों को पराजित
कर दोगे, यहां तक कि मृत्यु को भी और तुम एकविजयी जिन्न बन
जाओगे।
क्या
कुछ और...?
दूसरा
प्रश्न : प्यारे ओशो? जब आप हमसे दु:खो को सहन करने के बारे में बात
करते है? आप हमें उसके ही साथ- साथ प्रसन्न बने रहने के लिए
भी कहते हैं इन दोनों चीजों से समझौता करने की कोशिश कठिन लगती है
जब
मैं कहता हूं कि दु खो को प्रसन्नता से सहन करो तो यह विरोधाभासी दिखाई देता है और
तुम्हारा मन सोचता है कि दोनों के साथ कैसे समझौता किया जाए क्योंकि तुम्हारे लिए
दोनों परस्पर विरोधी हैं। वे हैं नहीं, वरन वे परस्पर विरोधी दिखाई देते
हैं। तुम दु:खों का भी मजा ले सकते हो।
आखिर
रहस्य क्या है-दु खो का कैसे मजा लिया जाए? पहली चीज तो यह है कि यदि तुम
पलायन न करो, यदि दु:ख के वहां होने को तुम स्वीकार कर लो,
यदि तुम उनका सामना करने को तैयार हो, यदि तुम
उन्हें किसी तरह भुलाने की कोशिश नहीं कर रहे हो, तब तुम
उनसे अलग हो जाते हो। दु:ख वहां होते हैं लेकिन तुम्हारे चारों ओर, वे केन्द्र पर न होकर परिधि पर होते हैं। फिर दु:ख का केन्द्र पर होना असम्भव
है क्योंकि ऐसा वस्तुओं का स्वभाव नहीं है। वे हमेशा परिधि पर होते हैं और तुम
होते हो केन्द्र पर।
इसलिए
जब तुम उनका होना स्वीकार कर लेते हो, तुम पलायन नहीं करते, तुम पीछा छुड़ाकर भागते नहीं, तुम दहशत में नहीं होते,
तब अचानक तुम सजग हो जाते हो कि दु:ख वहां परिधि पर हैं और उनकी
वेदना किसी और को हो रही है, तुम्हें नहीं, ओर तुम उन्हें बस देख रहे हो। एक सूक्ष्म प्रसन्नता का भाव तुम्हारे
अस्तित्व के चारों ओर फैल जाता है क्योंकि तुम जीवन के आधारभूत सत्यों में से एक
का अनुभव कर रहे हो।
इसलिए
जब मैं कहता हूं उनका आनन्द लो तो मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि आत्म पीड़क बन
जाओ। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि अपने लिए दु:ख निर्मित करो और फिर उनका आनन्द
लो। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि किसी पहाड़ी से नीचे गिर पड़ी और फिर हड्डियां
तोड़कर उस पीड़ा का आनन्द लो-नहीं। वहां इस
तरह के बहुत से लोग हैं, जो संन्यासी या तपस्वी बन गए हैं और अपने शरीर को सताने
के लिए दु:खों का सृजन कर रहे हैं। ये लोग स्वपीड्क और बीमार हैं। ऐसे लोग बहुत खतरनाक हैं। वे चाहते है कि दूसरों को भी दु:खी बना दें लेकिन वे इतने साहसी नहीं हैं। वे दूसरों के प्रति हिंसक होकर उन्हें मार देना चाहते हैं, उन्हें अपंग कर देना चाहते हैं लेकिन वे इतने साहसी नहीं है इसलिए उनकी पूरी हिंसा अपने ही अंदर उतरकर आत्महिंसा बन गई है। अब वे स्वयं को ही अपंग बनाकर स्वयं को ही सता रहे हैं और उसका मजा ले रहे हैं।
तरह के बहुत से लोग हैं, जो संन्यासी या तपस्वी बन गए हैं और अपने शरीर को सताने
के लिए दु:खों का सृजन कर रहे हैं। ये लोग स्वपीड्क और बीमार हैं। ऐसे लोग बहुत खतरनाक हैं। वे चाहते है कि दूसरों को भी दु:खी बना दें लेकिन वे इतने साहसी नहीं हैं। वे दूसरों के प्रति हिंसक होकर उन्हें मार देना चाहते हैं, उन्हें अपंग कर देना चाहते हैं लेकिन वे इतने साहसी नहीं है इसलिए उनकी पूरी हिंसा अपने ही अंदर उतरकर आत्महिंसा बन गई है। अब वे स्वयं को ही अपंग बनाकर स्वयं को ही सता रहे हैं और उसका मजा ले रहे हैं।
मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि स्वपीडक बनो। मैं तो सिर्फ यह कह रहा हूं कि वहां दु:ख है, तुम्हें
उन्हें कहीं खोजने की जरूरत नहीं। वहां पहले से ही बहुत से दुःख है, तुम्हें उन्हें कहीं और छूने के लिए नहीं जाना है। दु:ख पहले ही से वहां
हैं, जीवन का जैसा स्वभाव है, उसमें दु:ख
उत्पन्न होते ही हैं। वहां बीमारी है, वहां मृत्यु है,
वहां शरीर है, जिसकी प्रकृति से ही दु:ख
उत्पन्न होते हैं। उन्हें देखो, बहुत ही तटस्थ दृष्टि से।
उन्हें देखो-वे हैं क्या और क्या घट रहा है। उनसे भागो मत। मन तुरन्त कहता है-इनकी
ओर देखो मत। उनसे पीछा छुड़ाकर भाग जाओ, लेकिन यदि तुम पलायन कर
गए तो तुम आनन्दित नहीं हो सकते।
अगली
बार जब तुम बीमार पड़ी और डॉक्टर तुम्हें बिस्तर पर लेटे रहने का सुझाव दे तो इसे
एक वरदान की तरह लो। अपनी आंखें बंद कर बिस्तरे पर विश्राम करते हुए बस अपनी
बीमारी को देखो। उसका निरीक्षण करो कि वह है क्या? उसका विश्लेषण करने की
कोशिश मत करो, उसके सिद्धान्तों में मत जाओ, बस उसे देखो कि वह है क्या? पूरा शरीर थका हुआ,
बुखार से तप रहा है-उसे देखो। अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम तेज
ज्वर से चारों ओर से घिरे हो, लेकिन तुम्हारे अंदर एक ऐसा ठंडा
बिन्दु है, जिसे बुखार तो छू नहीं सकता, उसे प्रभावित नहीं कर सकता। पूरा शरीर बुखार से जल रहा है, लेकिन वह उस शीतल बिंदु को स्पर्श नहीं कर सकता।
मैंने
एक झेन भिक्षुणी के बारे में सुना है, जिसकी अब मृत्यु हो चुकी है,
लेकिन मरने से पूर्व उसने अपने शिष्यों से पूछा-' तुम लोगों का क्या सुझाव है? मुझे किस तरह मृत्यु का
आलिंगन करना चाहिए? '
झेन
में यह एक पुरानी परम्परा है कि सद्गुरु शिष्यों से पूछते हैं। वे इसलिए पूछते
हैं जिससे वे होशपूर्वक मर सकें। और भले ही वह मौत हो, वे उसके बारे
में इतने खेलपूर्ण हैं कि वे उसकी चर्चा करते हुए हंसते हैं, मजाक करते हैं और किस तरह मौत का होशपूर्वक स्वागत किया जाए उसकी विधियां
खोजने में आनन्द मानते हैं।
इसलिए
शिष्यों ने सुझाव दिया-'
प्यारे सद्गुरु! अच्छा हो यदि, आप सिर के बल
खड़े होकर मरें अथवा किसी ने सुझाव दिया-टहलते हुए... क्योंकि हमने किसी की भी
टहलते हुए मृत्यु की बाबत नहीं सुना।
इसलिए
इस झेन भिक्षुणी ने पूछा-'
तुम लोगों का क्या सुझाव है? '
उन
लोगों ने कहा-'
अच्छा यह होगा कि हम लोग बड़ी आग प्रज्वलित करें और आप उसके बीच
बैठकर ध्यान करते हुए प्राण छोड़े। '
उसने
कहा-' यह विधि सुन्दर है और पहले कभी इसके बारे में सुना भी नहीं गया।
इसलिए
एक चिता तैयार की गई और वह भिक्षुणी बुद्ध की मुद्रा में बडे आराम से उसके बीच बैठ
गई और तब उन लोगों ने आग प्रज्वलित कर दी। भीड़ में से एक व्यक्ति ने पूछा-' वहां आपको
कैसा लग रहा है? यहां इतनी अधिक गर्मी है कि मैं और अधिकनिकट
आकर आपसे पूछ नहीं सकता, इसीलिए मैं चिल्लाते हुए पूछ रहा हूं-वहां
आपको कैसा लग रहा है? '
उस
भिक्षुणी ने हंसते हुए उत्तर दिया-' सिर्फ एक बेवकूफ ही ऐसे प्रश्न पूछ
सकता है। वहां कैसा महसूस हो रहा है? वहां तो सदा शीतलता का
ही अनुभव होता है। पूरी तरह शीतल। '
वह
अपने आंतरिक केन्द्र की बात कह रही है। वहां शाश्वत शीतलता ही होती है और केवल एक बेवकूफ
व्यक्ति ही ऐसा प्रश्न पूछ सकता है। वह यह बात क्यों कह रही है कि एक बेवकूफ
व्यक्ति ही ऐसे प्रश्न पूछ सकता है। यह स्पष्ट है। जब एक व्यक्ति ध्यान करते हुए
आग में बैठने को तैयार है और तब आग जला दी जाती है और वह शांत बैठी रहती है, स्पष्ट
रूप से इस बात से प्रदर्शित होता है कि इस व्यक्ति ने अपने अस्तित्व के अंदर सबसे
गहराई में वह शीतल बिन्दु पा लिया है, जो किसी भी आग से प्रभावित
नहीं होता, अन्यथा ऐसा होना सम्भव ही नहीं था।
इसलिए
जब तुम ज्वर से जलते हुए बिस्तरे पर लेटे हो और तुम्हारा पूरा शरीर जैसे आग में
जला जा रहा है-तो बस उसे देखना, निरीक्षण करना। देखते-देखते तुम चारों कोनों से
खिसकते हुए उस स्रोत तक पहुंच जाओगे, एक संतुलन या कहें एक लय
प्राप्त कर लोगे। बस देखना, कुछ भी नहीं करना और तुम कर ही
क्या सकते हो? ज्वर वहां है, तुम्हें
उससे होकर गुजरना है और अनावश्यक रूप से उससे संघर्ष करने में कोई लाभ नहीं। तुम
विश्राम कर रहे हो और यदि तुम ज्वर से संघर्ष करोगे तो तुम और अधिक जवरग्रस्त हो
जाओगे इसलिए बस उसका निरीक्षण करो। ज्वर को देखते और उसका निरीक्षण करते हुए तुम
शीतल होते जाओगे, जितना अधिक देखोगे उतने और शीतल हो जाओगे।
बस निरीक्षण करते-करते तुम एक शिखर, शीतल शिखर पर पहुंच जाते
हो, इतना अधिक शीतल कि हिमालय भी उससे ईर्ष्या करे क्योंकि
उसके शिखर इतने अधिक शीतल नहीं होते। यह शरीर अपने ही अंदर गौरीशंकर शिखर छिपाए
हुए हैं। तब तुम महसूस करते हो कि ज्वर विलुप्त हो गया.. .जैसे वह कभी था ही नहीं,
वह केवल दूर? बहुत दूर किसी और के शरीर में था।
तुम
और तुम्हारे शरीर के मध्य अनन्त स्थान है- अनन्त शून्यता और मैं कहता हूं कि तुम
और तुम्हारे शरीर के बीच इतने बड़े अंतराल का अस्तित्व है कि उनके मध्य कोई पुल
बनाया ही नहीं जा सकता और सभी दुःख केवल परिधि पर होते हैं। हिन्दू कहते हैं कि यह
एक स्वप्न है क्योंकि यह अंतराल इतना बड़ा और न पाटे जाने वाले पुल जैसा है। यह ठीक
उस सपने जैसा है,
जो कहीं और चल रहा है, उसे तुम नहीं देख रहे,
वह तुम्हारे साथ नहीं घट रहा-वह किसी और दूसरे नक्षत्र और किसी अन्य
संसार में घट रहा है।
जब
तुम अपने दुःखों का निरीक्षण करते हो, अचानक तुम दुःख भोगने वाले
नहीं रह जाते, तब तुम उसका आनन्द लेने लगते हो।
नहीं रह जाते, तब तुम उसका आनन्द लेने लगते हो।
दुःखों
के द्वारा तुम उसके विपरीत ध्रुव के प्रति सजग हो जाते हो, आनन्दपूर्ण
होना, तुम्हारा आंतरिक अस्तित्व है। इसलिए जब मैं कहता
खदुःखों का आनन्द लो तो मैं कह रहा हूं-उनका निरीक्षण करो, उन्हें
देखो, अपने आंतरिक स्रोत पर, अपने केन्द्र
पर लौटकर आओ। तब अचानक वेदनाएं और दुःख रहते हीन हीं, केवल
परमानन्द रहे जाता है। वे लोग जो केवल परिधि पर रहते हैं, दु:खों
में ही जीते हैं। उनके लिए कोई परमानन्द है ही नहीं। उनके लिए जो अपने केन्द्र पर
लौट आए हैं, कोई दुःख रहता ही नहीं। उनके लिए मात्र परमानन्द
रह जाता है।
जब
मैं कहता हूं-प्याला तोड़ दो तो यह तोड़ना परिधि का है और जब मैं कहता
हूं-पूरी तरह खाली हो जाओ तो यह मूल स्रोत पर वापस लौट आना है, क्योंकि शून्यता के द्वारा ही हम जन्मे हैं और हमें शून्यता में ही वापस लौट जाना है। खालीपन या शून्यता एक शब्द है, जिसका वास्तव में परमात्मा के शब्द के स्थान पर प्रयोग करना कहीं अधिक बेहतर और उपयोगी है, क्योंकि परमात्मा के साथ हमें यह अनुभव होना शुरू हो जाता है कि वहां कोई व्यक्ति जैसा विद्यमान है। इसलिए बुद्ध ने कभी परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं कहा, उन्होंने सदा शून्यता, खालीपन, अस्तित्वहीनता का प्रयोग किया।
हूं-पूरी तरह खाली हो जाओ तो यह मूल स्रोत पर वापस लौट आना है, क्योंकि शून्यता के द्वारा ही हम जन्मे हैं और हमें शून्यता में ही वापस लौट जाना है। खालीपन या शून्यता एक शब्द है, जिसका वास्तव में परमात्मा के शब्द के स्थान पर प्रयोग करना कहीं अधिक बेहतर और उपयोगी है, क्योंकि परमात्मा के साथ हमें यह अनुभव होना शुरू हो जाता है कि वहां कोई व्यक्ति जैसा विद्यमान है। इसलिए बुद्ध ने कभी परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं कहा, उन्होंने सदा शून्यता, खालीपन, अस्तित्वहीनता का प्रयोग किया।
अपने
केन्द्र पर तुम अस्तित्वहीन हो, जैसे हो ही नहीं। बस एक रिक्त स्थान है,
एक शाश्वत शीतलता है, तुम मौन हो और आनंदपूर्ण
हो। इसलिए जब मैं कहता हूं उसका आनन्द लो, तो मेरा अर्थ है,
सावधानी और ध्यान से निरीक्षण करो, तब तुम आनंदित
होंगे ही।
जब
मैं कहता हूं- आनन्द लो तो मेरा अर्थ दुःखों से पलायन कर जाना नहीं है।
बस...
आज इतना ही!
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