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सोमवार, 8 जून 2020

अजनबी तुम अपने से लगते हो--(कविता) मनसा-मोहनी

अजनबी तुम अपने से लगते हो-(कविता)
 

तड़प है परंतु दर्द कहां है उसमें,
वो एक एहसास है, पकड़ कहां है उसमें।
वो दूर जरूर है, मगर दूर कहां है हमसें।
तार बिंधे है विरह के, राग कहां है इनमें।
पीर ने घेरा हमको, दर्द कहां है दिलमें
कुछ लोग कितने अनजान से होते है
परंतु फिर भी कितने करीब होते है आपने
मानों वो मैं हूं और वो उसकी परछाई
कैसे फिर एक याद की बदली घिर आई
मानों अभी वा पास आकर बैठ जाऐगा
और मिलेगे ह्रदय से ह्रदय के तार
तब बहेगे धार-धार आंसू के झरने
वहां छलक रहा होगा कोई उनमाद

दूर किसी सुदूर की घाटी से
कोई पुकारता सा लगता है
अजनबी तुम कितने अपने-अपने से लगते हो
मानों मैं-मैं नहीं तुम ही तुम हो
कैसे दूरी मिट जाती है पल में
कई युगों की कल्पों की
अजनबी मैंने तुम्हें पहले भी जाना है
जीया है, पिया है तेरे संग साथ को
न जाने क्यों मुझे बार-बार ऐसा लगता है।

(मनसा-मोहनी)

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