एक
प्याला चाय पीजिए-(प्रवचन-चौथा)
झेन
बोध कथाएं-( A bird on the wing)
मनुष्य
होने की कला--(A bird on the wing) "Roots and Wings" -।0-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन
जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे। उन
झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा:
झेन
सदगुरू जोशू मठ में आए।
एक नए
भिक्षु से पूछा- '' क्या
मैंने तुमको पहले कभी देखा है?''
उस नए
भिक्षु ने उत्तरदिया- '' जी नहीं श्रीमान? ''
जोशू
ने कहा- '' तब
आप एक कला चाय पीजिए।''
जोशू
ने फिर दूसरे भिक्षु की ओर मुड़कर पूछा- '' क्या मैंने तुमको
पहले
कभी देखा है?''
उस
दूसरे भिक्षु ने उत्तर दिया '' जी क्या श्रीमान? आपने वास्तव में
मुझे
देखा है ''
जोशू
ने कह?- '' तब
आप एक प्याला चाय पिजिए
कुछ
देर बाद मठ में भिक्षुओ के प्रबंधक ने जोशू से पूछा- '' आपने
कोई भी
उत्तर मिलने पर दोनों को ही चाय पीने का समान आमंत्रण
क्यों
दिया?''
यह
सुनकर जाशू चीखते हुए बोला- '' मैनेजर? तुम अभी भी यही
हरे?''
मैनेजर
ने उत्तरदिया '' जी
श्रीमान? ''
जोश ने
कह?- '' तब
आप भी एक प्याला चाय पीजिए।''
यह
कहानी बहुत ही साधारण है, लेकिन
इसे समझना कठिन है। ऐसा हमेशा से होता रहा है। जो चीज जितनी अधिक साधारण होती है, उसे समझना उतना ही अधिक कठिन होता है। किसी जटिल चीज को समझने के लिए
तुम्हें उसे विभाजित कर उसका विश्लेषण करना होता है। एक साधारण चीज को न
तो विभाजित किया जा सकता है और न उसका विश्लेषण किया जा सकता। वह
चीज इतनी साधारण होती है कि उसमें ऐसा कुछ होता ही नहीं जिसे विभाजित
कर उसका विश्लेषण किया जा सके। साधारण चीज समझने से हमेशा छूट जाती है, यही कारण है कि परमात्मा नहीं समझा
जा सका। परमात्मा सबसे अधिक साधारण है, पूरी तरह कोई भी चीज जितनी ही अधिक साधारण होना संभव है, उससे भी साधारण। यह संसार समझा जा सकता है
क्योंकि यह बहुत जटिल है। जितनी अधिक जटिल चीज होती है, मन उस पर उतना ही अधिक कार्य कर सकता है। जब वह साधारण है तब
वहां श्रमपूर्वक अध्ययन करने को होता ही नहीं, मन कार्य कर ही नहीं सकता।
तर्कशास्त्री
कहते हैं कि साधारण गुण अव्याख्य हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई तुमसे पूछता है- ' ' पीला रंग कैसा है? '' यह इतना साधारण गुण है-पीला रंग, पर तुम इसकी व्याख्या कैसे करोगे?
तुम
कहोगे-'' पीला
रंग बस पीला है। ' ' पूछने
वाला कहेगा- ' ' यह तो
मैं भी जानता
हूं लेकिन पीले रंग की परिभाषा क्या है? यदि तुम कहते हो कि पीला रंग पीला
है, तो तुम
उसकी व्याख्या नहीं कर रहे हो, तुम उसे साधारण रूप से दोहरा रहे हो। यह
एक ही बात को दोहराते हुए अलग शब्दों में कहने का शास्त्र टोटोलॉजी है। ' ' इस सदी में बहुत गहरी समझ और असाधारण प्रतिभाशाली
विद्वानों में से एक जी.ई.मूर हैं जिन्होंने प्रिंसिपा इथीका नाम की
पुस्तक लिखी
है। पूरी पुस्तक में निरन्तर प्रयास करते हुए अच्छा या शुभ क्या है, इसी की व्याख्या की गई है। दो या तीन सौ पृष्ठों में
सभी आयामों से इसी को परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। जी ई मूर के तीन सौ
पृष्ठ किसी अन्य विद्वान द्वारा लिखे गए तीन हजार पृष्ठों से भी अधिक कीमती है।
अंत में मूर ने यही निष्कर्ष निकाला कि अच्छा, या शुभ को परिभाषित किया ही नहीं
जा सकता। उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती क्योंकि वह इतने साधारण गुणों का है।
जब कोई चीज जटिल होती है। उसमें बहुत-सी चीजें होती हैं। तुम एक चीज की
व्याख्या, दूसरी
चीज से जो वहां मौजूद हो, मजे से
कर सकते हो। यदि तुम और मैं एक कमरे में है और तुम पूछते हो- ' ' तुम कौन हो? ' ' तो कम से कम मैं यह तो कह
ही सकता हूं कि मैं तुम नहीं हूं। यह परिभाषा संकेत बन जाएगी। लेकिन यदि में कमरे में अकेला हूं और मैं स्वयं से यह प्रश्न पूछूं-' ' मैं कौन हूं? ' ' तो प्रश्न गूंजता है लेकिन उसका कोई उत्तर नहीं आता है। उसे कैसे परिभाषित किया जाए?
ही सकता हूं कि मैं तुम नहीं हूं। यह परिभाषा संकेत बन जाएगी। लेकिन यदि में कमरे में अकेला हूं और मैं स्वयं से यह प्रश्न पूछूं-' ' मैं कौन हूं? ' ' तो प्रश्न गूंजता है लेकिन उसका कोई उत्तर नहीं आता है। उसे कैसे परिभाषित किया जाए?
यही
वजह है कि परमात्मा से हम चूके जाते हैं। बुद्धि उससे इनकार करती है। तर्क
कहता है-नहीं परमात्मा अस्तित्व के विभाजन का सबसे छोटा अंक है। सबसे अधिक
साधारण और सबसे अधिक आधारभूत।
मन रुक
जाता है। वहां परमात्मा के सिवाय और कुछ है ही नहीं इसलिए कैसे उसकी
व्याख्या की जाए? वह
कमरे में अकेला है। इसी कारण धर्म उसे विभाजित करने की कोशिश करते हैं और तब व्याख्या करना
संभव हो जाता है। वे कहते हैं, ' वह ' यह संसार नहीं है। परमात्मा ही है संसार नहीं है।
परमात्मा पदार्थ नहीं है। परमात्मा शरीर नहीं है। परमात्मा कोई कामना नहीं
है। यही तरीके .हैं उसे परिभाषित करने के।
तुम्हें
किसी चीज के विरुद्ध कोई चीज रखनी होगी, तब एक सीमा बांधी जा सकती है। यदि कोई पास पड़ोस नहीं है तो तुम सीमा
रेखा खींच ले कैसे? .तुम
अपने घर की
मुंडेर किस जगह रखोगे यदि अगल-बगल कोई है नहीं-नहीं यदि कोई आसपास है ही नहीं तो घर की मुंडेर कैसे बना सकते
हो? तुम्हारे
घर की चहारदीवारी तुम्हारे
पड़ोस की मौजूदगी से बनी है। परमात्मा अकेला है, उसके कोई पड़ोसी नहीं है। वह कहां से शुरू होता है? वह कहां जाकर समाप्त होता है? कहीं भी नहीं। तुम
परमात्मा की व्याख्या कर कैसे सकते हो? बस उसकी व्याख्या करने के लिए ही शैतान को पैदा किया गया। परमात्मा शैतान नहीं है, कम-से-कम यह तो कहा ही जा सकता है। तुम यह कहने में तो समर्थ नहीं हो सकते कि परमात्मा क्या है लेकिन तुम यह कह सकते हो वह क्या नहीं है। परमात्मा, संसार नहीं है।
परमात्मा की व्याख्या कर कैसे सकते हो? बस उसकी व्याख्या करने के लिए ही शैतान को पैदा किया गया। परमात्मा शैतान नहीं है, कम-से-कम यह तो कहा ही जा सकता है। तुम यह कहने में तो समर्थ नहीं हो सकते कि परमात्मा क्या है लेकिन तुम यह कह सकते हो वह क्या नहीं है। परमात्मा, संसार नहीं है।
मैं
किसी ईसाई धर्मशास्त्र -की पुस्तक पड़ रहा था। वह कहती है-परमात्मा, बुराई और शैतानियत के सिवाय और सब कुछ है, लेकिन इसको भी परिभाषित करने की
यथेष्ट जरूरत है। बुराई के सिवा यह एक सीमा रेखा खींच देगी। लेकिन धर्मशास्त्र लिखने
वाला सजग नहीं है। यदि परमात्मा सब कुछ है, फिर यह बुराई और शैतानियत कहा से आई? उसे भी हर चीज से आना चाहिए- अन्यथा अस्तित्व का
कोई 'अन्य स्त्रोत
भी है जो परमात्मा से भिन्न है और अस्तित्व का वह अन्य दूसरा स्त्रोत परमात्मा के
समतुल्य बन जाता है। तब शैतान और बुराई कभी नष्ट नहीं किए जा सकते। शैतान और
बुराई परमात्मा के आश्रित नहीं है इसलिए परमात्मा उन्हें कैसे नष्ट कर सकता है? और परमात्मा उसे नष्ट करेगा नहीं, क्योंकि एक बार शैतान नष्ट हो' गया तो परमात्मा की व्याख्या न हो सकेगी। उसकी व्याख्या करने के लिए
शैतान की जरूरत है। वह हमेशा उसके आस-पास और चारों ओर होना ही चाहिए। संतों
को भी पापियों की जरूरत होती है, अन्यथा वे वहां होंगे ही नहीं। तुम जानोगे कैसे
कि कौन है संत? हर
-संत को अपने
चारों और पापियों की जरूरत -होती है, वे पापी ही सीमा रेखा बनाते हैं। एक साधारण
चीज का अर्थ है-उसका अकेला होना।
पहली
चीज जो समझने जैसी है कि जटिल चीजें ही समझी जा सकती हैं। साधारण चीजें नहीं। जोशू की यह कहानी बहुत
-साधारण है। इतनी अधिक साधारण कि वह तुम्हारी समझ से परे फिसल जाती है।
यह
कहानी बहुत अधिक साधारण है कि मन इस पर काम नहीं कर सकता। इस कहानी को महसूस और हृदयंगम करने की कोशिश करें।
मैं यह नहीं कहूंगा कि इसे समझने की कोशिश करें क्योंकि तुम इसे समझ ही
नहीं सकते-इसे महसूस करने की कोशिश करें। यदि तुमने अनुभव करने की कोशिश
की तो तुम्हें इसमें छिपी बहुत-- सी चीजें मिलेंगी। यदि तुमने समझने का प्रयास
किया तो उसमें कुछ भी नहीं है। पूरा वृत्तांत ही व्यर्थ है।
जीशू
एक भिक्षु को देखता है और पूछता है, ' ' क्या मैंने तुम्हें पहले भी देखा है? ' '
वह
भिक्षु कहता है-' ' जी
नहीं श्रीमान! इसकी कोई संभावना ही नहीं है। मैं तो यहां पहली बार ही आया हूं। मैं एक अजनबी हूं।
आपने मुझे पहले कभी नहीं देखा। ' '
जोश
कहता है-' ' ठीक है, तब आप एक प्याला चाय पीजिए मेरे साथ। ' ' फिर -उसने दूसरे भिक्षु से पूछा, ' ' क्या मैंने पहले कभी तुम्हें देखा है? ' '
वह
भिक्षु .कहता है-' ' जी हां
श्रीमान! आपने मुझे जरूर देखा होगा। मैं तो हमेशा यहीं रहता हूं। मैं कोई अजनबी नहीं हूं। ' '
वह
भिक्षु अवश्य ही जोश का शिष्य होना चाहिए और जोश कहता है, ' ' ठीक है, तब आप एक प्याला चाय पीजिए मेरे साथ। ' '
उस मठ
का प्रबंधक दो भिन्न व्यक्तियों के साथ, भिन्न तरीकों से अनजबी और मित्र के साथ, उसके साथ जो पहली बार मठ में आया और उसके साथ जो
हमेशा से यहां
रहता ही था, एक ही
तरह समान प्रतिक्रिया व्यक्त की। अज्ञात के प्रति और ज्ञात के प्रति जोशू एक ही तरह से उत्तर दे रहा है। वह
उनमें कोई भेद करता ही नहीं, बिल्कुल भी नहीं। वह यह नहीं कहता-' ' तुम अजनबी हो, तुम्हारा स्वागत हो। एक प्याला चाय पीना मेरे साथ। ' '
और वह
दूसरे से यह नहीं कहता-.' ' तुम तो
हमेशा से यहां रहते हो, इसलिए तुम्हें
-चाय के लिए निमंत्रित करने की कोई जरूरत नहीं। न वह यह कहता है-' ' तुम तो हमेशा यहां रहते ही हो, इसलिए तुम्हें जवाब देने की भी क्या जरूरत है? ' '
घनिष्टता
या परिचय ऊबाहट उत्पन्न करता है तुम कभी परिचित का अधिक स्वागत नहीं करते। तुम कभी अपनी पत्नी की ओर
देखते तक नहीं। वह तुम्हारे साथ बहुत-बहुत वर्षों से रहती आई है। तुम उसे पूरी
तरह भूल जाते हो कि वह रहती भी है अथवा नहीं। तुम्हारी पत्नी का कैसा चेहरा है? क्या तुमने अभी हाल में ही उसे देखा है? हो सकता है, तुम उसका चेहरा पूरी तरह भूल गए हो। यदि तुम
अपनी आंखें बंद करो और
ध्यान में स्मरण करो तो तुम उस चेहरे को चांद कर सकते हो, जब. तुमने उसे पहली बार देखा था। लेकिन तुम्हारी पत्नी अब
बातचीत की एक बाढ़ वाली नदी की तरह निरंतर बदल रही है। उसका चेहरा बदल गया है।
अब वह पुरानी हो गई है। नदी बहती और निरंतर बहती ही रही है, नए-नए मोडों पर पहुंची है वह। अब शरीर
बदल गया है। क्या तुमने अभी हाल ही में उसे देखा है? वह इतनी अधिक परिचित है कि उसे देखने की कोई जरूरत ही नहीं
होती है। हम किसी ऐसी चीज को देखते हैं जो अपरिचित हो। हम किसी ऐसी चीज की ओर
देखते हैं जो अनजबी हों और ख्यालों में बस जाए। घनिष्टता जन्म देती है
अवहेलना और अनादर को, वह
जन्म
देती है ऊब को।
देती है ऊब को।
मैंने
एक चुटकुला सुना है। दो बहुत धनी व्यापारी मियामी के समुद्र तट पर विश्राम
करते हुए लेटे हुए धूप खान कर रहे थे। एक ने कहा-' ' मैं यह कभी समझ ही नहीं सका कि फिल्म एक्ट्रेस एलिजाबेथ टेलर
में लोग ऐसा क्या देखते हैं? मैं यह समझ ही नहीं पाता कि लोग क्या देखकर उसके-पीछे
इतने पागल बन जाते हैं। आखिर उसके पास है क्या? तुम उसकी आंखें निकाल दो, तुम उसके बाल अलग कर दो, तुम उसके होंठ और उसकी आकृति उससे अलग कर दो, फिर बचेगा क्या? तुम उससे क्या पा सकते हो? ' '
दूसरा
आदमी यह सुनकर उदास हो गया, फिर
उसने खर खराती आवाज में जवाब दिया-' ' जो कुछ बच रहेगा, वह मेरी पत्नी है। ' '
वह जौ
कुछ रह गया है, वही
तुम्हारी पत्नी है। वही तुम्हारा पति है। कुछ भी नहीं बचा है। क्योंकि घनिष्ठता से हर चीज खो गई
है। तुम्हारा पति अब एक भूत है, तुम्हारी पत्नी अब एक चुड़ैल है, जिसकी कोई आकृति नहीं, न कोई होंठ, न आंखें, बस एक बदसूरत बनकर रह गई है वह। हमेशा से ऐसा
नहीं था। एक बार तुम्हीं उसके प्रेम में दीवाने हुए थे, लेकिन अब वहां वह -स्त्री एक अर्से से नहीं है
और अब तुम उसकी
ओर देखते तक नहीं।
वास्तव
में पति और पत्नी एक दूसरे की ओर देखने तक से बचते हैं, दूर रहते हैं। मैं कई परिवारों के साथ रुका हूं और पतियों तथा
पत्नियों को एक दूसरे से बचते या दूर रहते हुए देखा है। एक दूसरे से बचने के लिए उन
लोगों ने कई तरह के खेल उत्पन्न किए हैं। जब उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता है, तब वे हमेशा बहुत बेचैन रहते हैं। एक मेहमान
का वे हमेशा स्वागत करते हैं क्योंकि दोनों एक दूसरे को देखने से बचकर मेहमान
को देखते हैं।
लेकिन
यह सद्गुरु जोशु तो पूरी तरह अलग दिखाई देता है, जो एक अनजबी और निकट परिचित मित्र से एक जैसा ही व्यवहार कर
रहा है। वह भिक्षु कह रहा है- ' श्रीमान! मैं तो हमेशा ही यहां रहता हूं। आप
मुझे भली- भांति .जानते हैं। और जोश कहता है-' ' तब आप भी एक प्याला चाय पीजिए मेरे बाथ। ' ' मठ का मैनेजर इसे समझ न सका। मैनेजर हमेशा मूर्ख होते हैं। प्रबंध
करने के लिए मूर्ख मन की ही जरूरत होती है। ' '
एक
मैनेजर या प्रबंध करने वाला कभी ध्यान में गहरे नहीं उतर सकता। यह बहुत
कठिन है? उसे
हिसाबी-किताबी, नाप-तौल
वाला व्यक्ति बनना होता है, उसे संसार
को भी देखना होता है और उसी के अनुसार चीजों की व्यवस्था करनी होती है।
इसलिए
वह मैनेजर परेशान हो गया, आखिर
यह सब है क्या? यह
क्या हो रहा है? यह अतर्क पूर्ण लग रहा है। एक अजनबी को तो एक चाय
के प्याले के लिए पूछना ठीक भी है, लेकिन इस शिष्य को जो हमेशा यहीं रहता है, क्या चाय के लिए पूछना उचित था?
इसलिए
उसने सद्गुरु से पूछा-' ' आप
अलग- अलग लोगों को उनके भिन्न- भिन्न प्रश्नों का एक ही तरह से क्यों उत्तर
देते हैं? ' '
जोश ने
जोर से चीखते हुए कहा-' ' मैनेजर!
क्या तुम यहां हो? ' '
मैनेजर
ने उत्तर दिया, ' ' जी हां
श्रीमान! मैं यहीं हूं। ' '
और जोर
कहता है-' ' तब आप
भी मेरे साथ एक प्याला चाय पीजिए। ' '
यह जोश
से पूछना, '' मैनेजर!
क्या तुम यहां हो? ' ' यह
उसकी चेतना और उसकी
उपस्थिति को पुकारना था। चेतना हमेशा नूतन होती है, वह हमेशा अनजान और अनजबी होती है। घनिष्टता शरीर के साथ हो जाती
है। वह परिचित बन जाता है, लेकिन
आत्मा नहीं, कभी
नहीं। तुम अपनी पत्नी के शरीर को जानते हो, लेकिन उसमें छिपे अनजान व्यक्ति को कभी नहीं जानोगे। वह
ज्ञात नहीं हो सकता। तुम प्रेम कर सकते हो, यह एक रहस्य है, पर तुम उसे समझ नहीं सकते।
जब
जोशू ने जोर से पुकारा-' ' मैनेजर!
क्या तुम यहां हो? अचानक
मैनेजर सचेत
हो गया, वह भूल
ही गया, कि वह
मठ का मैनेजर है, वह भूल
ही गया कि वह शरीर
है। प्रत्युत्तर उसके हृदय से आया।
उसने
कहा-' ' जी हां
श्रीमान! ' '
यह जोर
से चीखते हुए पूछना इतना आकस्मिक था, वह ठीक एक चोट करने जैसा था कि तुम्हारा प्रश्न पूछना ही असंगत था।
इसी वजह से उसने कहा, ' ' वास्तव में
मैं यहीं हूं श्रीमान! '' उसने
पूछने की जरूरत नहीं थी। उसका प्रश्न ही असंगत था। अचानक उसका अतीत, उसका पुराना मन मिट गया। अब मैनेजर वहां रहा ही
नहीं। बस एक
चेतना रह गई। प्रत्युत्तर उसी से आया। चेतना हमेशा नवीन होती है। वह हमेशा
जन्मती है। वह कभी पुरानी नहीं होती।
और जोड़
कहता है-' ' तब आप
भी मेरे साथ एक प्याला चाय पीजिए। ' ' जोश के लिए जो पहली चीज महसूस करने जैसी है, वह है, ' प्रत्येक चीज नूतन, अजनबी और रहस्यमय है। चाहे वह ज्ञात हो या
अज्ञात, परिचित
हो या अपरिचित, उसे
किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि तुम प्रत्येक दिन उसी उद्यान में आते हो तो धीमे-धीमे
तुम वृक्षों की ओर देखना बंद कर देते हो। तुम सोचते हो कि तुमने उन्हें पहले
ही देख लिया है और तुम उन्हें जानते हो।
धीरे-
धीरे तुम चिड़ियों के चहचहाने को भी सुनना बंद कर देते हो। वे गीत गा रही
होंगी, लेकिन
तुम उन्हें सुनोगे नहीं। तुम उनसे परिचित हो जाते हो। तुम्हारी आंखें बंद हो
जाती हैं। तुम्हारे कान बंद हो जाते हैं लेकिन यदि जोश इस उद्यान में आता है और यह
संभव है कि वह हर रोज यहां आता रहा हो, जन्म-जन्म से आता रहा हो- वह पक्षियों के गीत सुनेगा, वह वृक्षों को झूमते हुए देखेगा। प्रत्येक चीज
प्रत्येक क्षण उसके
लिए नया है।
यही है
वह जिसका अर्थ चेतना होता है। चेतना के लिए हर चीज निरंतर नूतन होती
है। कोई भी चीज पुरानी नहीं होती। पुरानी हो भी नहीं सकती, क्योंकि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक क्षण उत्पन्न हो रही है। यह
सृजनात्मकता का निरंतर प्रवाह है। चेतना कभी भी स्मृति का बोझ नहीं ढोती।
इसलिए
पहली चीज है एक ध्यानी चित्त सदैव नूतनता और ताजगी में जीता है। यह पूरा
अस्तित्व नया-नया जन्मा है-यह उतना ही ताजा है जितनी कि ओस की एक बूंद, यह उतना ही ताजा है जितनी कि पत्ते की एक कोरल, जो बंसत ऋतु में अभी- अभी जन्मी है। यह ठीक नए जन्मे बच्चे की आंखों
जैसा है, हर चीज
ताजी स्पष्ट और साफ है।
उस पर कहीं कोई धूल नहीं। यह है पहली चीज, जो अनुभव करनी है। यदि तुम इस संसार की ओर देखते हुए यह अनुभव करते
हो कि हर चीज पुरानी है तो यह दिखाता है कि तुम ध्यानी नहीं हो।
वास्तव में जब तुम हर चीज में पुरानेपन
का अनुभव करते हो तो यह तुम्हारे पुराने और सड़े मन को प्रदर्शित करता है। यदि तुम्हारा चित ताजा है तो पूरा संसार .ताजगी से भरा है। प्रश्न इस संसार का नहीं है, प्रश्न दर्पण का है। यदि तुम्हारे दर्पण पर धूल जमी है तो यह संसार पुराना है और यदि दर्पण पर कोई धूल नहीं है तो यह संसार पुराना कैसे हो सकता है यदि चीजें पुरानी हो गईं तो तुम बोरियत में जीओगे। प्रत्येक व्यक्ति यहां बोरियत में जिए जा रहा है और प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु से भी ऊब चुका है।
का अनुभव करते हो तो यह तुम्हारे पुराने और सड़े मन को प्रदर्शित करता है। यदि तुम्हारा चित ताजा है तो पूरा संसार .ताजगी से भरा है। प्रश्न इस संसार का नहीं है, प्रश्न दर्पण का है। यदि तुम्हारे दर्पण पर धूल जमी है तो यह संसार पुराना है और यदि दर्पण पर कोई धूल नहीं है तो यह संसार पुराना कैसे हो सकता है यदि चीजें पुरानी हो गईं तो तुम बोरियत में जीओगे। प्रत्येक व्यक्ति यहां बोरियत में जिए जा रहा है और प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु से भी ऊब चुका है।
जरा
लोगों के चेहरे देखो, वे
जीवन को बोझ की तरह ढोए जा रहे हैं, जैसे उसका कोई अर्थ ही न हो, एकदम बोर। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हर चीज उनके
लिए एक दुःस्वप्न
हो, एक कूर
मजाक हो, कोई
उनके साथ -उन्हें कोंचने और दुख देने के लिए जैसे कोई गंदा-खेल रहा हो। जीवन एक उत्सव नहीं
है, वह हो
भी नहीं सकता। जो मन
स्मृतियों से बोझिल हो, उसके
लिए जीवन एक उत्सव हो ही नहीं सकता। यदि तुम हंसते हो तो तुम्हारी हंसी में भी बोरियत
होती है। देखा लोग हंस रहे हैं, लेकिन वे प्रयास करते हुए हंस रहे हैं। उनकी हंसी मात्र
औपचारिक है, उनकी हंसी
बस शिष्टाचार वश
मैंने
एक पदाधिकारी के बारे में सुना है जो अमेरिका में आदिवासियों के एक बहुत
पुराने आदिम समुदाय का निरीक्षण करने के लिए गए। उन्होंने वहां एक लंबा भाषण
दिया। उन्होंने एक बहुत लंबी कहानी सुनाई, वह कथा लगभग आधे घंटे तक चलती रही, तब अनुवादक उठकर खड़ा हो गया और उसने केवल चार
शब्द कहे और सभी
आदिवासी खिलखलाकर हंस पड़े। वह पदाधिकारी उलझन में पड़ गए। जिस वृत्तांत को सुनाने में उन्हें आधा घंटा लग गया
था। उसका अनुवाद चार शब्दों में कैसे हो सकता है? यह तो असंभव है और लोग समझ गए हैं। वे हंस भी
रहे हैं। जी खोलकर
ठहाके लगा रहे हैं। परेशान होकर उन्होंने अनुवादक से पूछा- ' ' तुमने तो चमत्कार कर दिया। तुमने केवल चार शब्द
कहे। मैं तो नहीं जानता कि तुमने उनसे क्या कहा, लेकिन तुम मेरे द्वारा सुनाई इतनी लंबी कहानी का
अनुवाद चांद शब्दों में
कैसे कर सकते हो? ' '
कैसे कर सकते हो? ' '
उस
अनुवादकने कहा-' ' मैंने
उनसे कहा, कहानी
बहुत लंबी है और वह एक मजाक है। तुम लोग जी खोलकर हंसो। ' '
किस
तरह की हंसी बाहर आएगी? ठीक
औपचारिक शिष्टचार की। और यह आदमी आधे घंटे तक श्रम करता रहा। जरा लोगों की
खोखली हंसी देखो। वह एक मानसिक प्रयास कर रहे हैं। उनकी हंसी झूठी है, रंग-रोगन की हुई है, वह केवल होंठों पर है, वह चेहरे का एक व्यायाम- भर है। वह उनके
अस्तित्व के गहरे स्त्रोत से नहीं आ रही है, वह उनके पेट से नहीं निकल रही है, वह एक पैदा की हुई चीज है। यह स्पष्ट है कि हम बोर हो रहे हैं और जो कुछ
कृत्य हम करते हैं, वह इस बोरियत
से ही उत्पन्न होगा और हममें और अधिक ऊब उत्पन्न करेगा। तुम उत्सव नहीं
मना सकते। उत्सव मनाना केवल तभी संभव है, जब अस्तित्व में निरंतर एक नूतनता का अनुभव हो और अस्तित्व तो चिर युवा है
ही। जब कुछ भी बुढ़ापा नहीं, जब
वास्तव में कुछ नहीं मरता, क्योंकि
प्रत्येक वस्तु का निश्चित रूप से पुनर्जन्म हो रहा है, तब वह एक नृत्य बन जाता है। तब वह अंदर बहता हुआ
एक संगीत होता है, चाहे
तुम कोई वाद्य बजाओ या ना बजाओ, यह जरूरी नहीं है, लेकिन संगीत बहता रहता है।
मैंने
एक कहानी सुनी है। यह वाकया अजमेर का है.. .तुमने एक सूफी रहस्यदर्शी ख्वाजा
मुईनउद्दीन चिश्ती के बारे में जरूर सुना होगा। जिनकी दरगाह और जिनकी समाधि
अजमेर में है। अभी तक जितने महान रहस्यदर्शी जन्मे हैं, उनमें से चिश्ती भी एक महान रहस्यदर्शी थे। एक संगीतकार होना, इस्लाम के विरुद्ध है क्योंकि संगीत का निषेध
किया गया है। वे सितार तथा अन्य वाद्य बजाया करते थे। वे एक महान संगीतकार
थे और संगीत का आनंद लेते थे। एक मुसलमान के लिए जरूरी है कि वह पांच
वक्त नमाज पढ़े, लेकिन
वह बस सितार बजाया करते थे। यही उनकी नमाज और प्रार्थना थी। वह बिल्कूल अधार्मिक कृत्य था
पर कोई भी उनसे कुछ कह भी नहीं
पाता था।
पाता था।
कई बार यह कहने के लिए लोग उनके पास आए भी, पर उनके आते ही वे गाना शुरू कर देते और गीत इतना मधुर और सुंदर होता कि
वे यह भूल जाते कि वे क्यों आए थे। वे सितार बजाना शुरू कर देते और वह संगीत
इतना प्रार्थना पूर्ण होता कि इस्लाम के तालिबे इल्म और मौलवी भी जो उसका एतराज करने
के लिए आए होते, एतराज कर ही
न पाते। अपने घर जाकर ही उन्हें याद आता कि वे वहां किसलिए आए थे। चिश्ती
की ख्याति विश्व- भर में फैल गई। विश्व के प्रत्येक भाग सें लोगों ने आना
शुरू कर दिया। एक व्यक्ति जिलानी जो स्वयं एक महान रहस्यदर्शी थे, बगदाद से सिर्फ चिश्ती से मिलने के लिए ही आए। जब
चिश्ती ने यह सुना कि जिलानी मिलने के लिए आए हैं तो उन्होंने अनुभव किया कि
जिलानी के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए किसी वाद्य को बजाना उचित न होगा
क्योंकि वे बहुत कट्टर मुसलमान हैं और ऐसा कर वे उनका अच्छा स्वागत न कर सकेंगे।
इससे उनकी भावनाओं पर चोट लगेगी इसलिए अपने पूरे जीवन में उसी दिन
उन्होंने तय किया कि वे उस दिन न तो कोई वाद्य बजाएंगे और न कोई गीत गाएंगे। वे
सुबह ही से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दोपहर बाद हजरत जिलानी तशरीफ लाए। चिश्ती ने
अपने वाद्य पहले ही छिपा दिए थे।
जब
जिलानी आए तो वे दोनों मौन में बैठ गए और तभी वाद्यों से संगीत स्वयं बजने
लगा। पूरा कक्ष संगीत लहरियों से गूंज उठा। चिश्ती बहुत उलझन में पड़ गए कि
क्या किया जाए? उन्होंने
तो वाद्य पहले ही छिपा दिए थे और ऐसा संगीत तो उन्होंने पहले कभी सुना भी नहीं था।
जिलानी
हंस पड़े। उन्होंने कहा-' ' कायदे-कानून
आपके लिए नहीं है। आपको उन्हें छिपाने की कोई जरूरत थी ही नहीं। आप अपनी
रूह को कैसे छिपा सकते हैं? आपके
हाथ भले ही उन वाद्यों को न बजा रहे हो, आप भले ही अपने गले से न गा रहे हों, लेकिन आपका पूरा अस्तित्व संगीतमय है और यह पूरा
कक्ष संगीत की स्वर लहरियों से इतना अधिक संगीतमय हो गया है कि अब
यह पूरे कक्ष से वही संगीत प्रतिध्वनित हो रहा है। ' '
जब
तुम्हारा चित्त ताजगी से भरा होता है तो पूरा अस्तित्व एक रागिनी बन जाता है। जब
तुम नए-नए जन्मे बच्चे जैसे नए होते हो तो तुम्हें हर कहीं नूतनता दिखाई देती है और
पूरा अस्तित्व प्रत्युत्तर देता है। जब तुम युवा होते हो, स्मृतियों के भार से दबे हुए नहीं
होते, हर चीज
युवा, ताजी
और अजनबी लगती है।
यह जोड़
बहुत अद्भुत है, यह
बहुत गहराई से महसूस करना है, तभी तुम उसे समझने में समर्थ हो सकोगे। लेकिन वह समझ, समझ से अधिक अनुभव -जैसी ही होगी-मानसिक
न होकर वह हृदय से होगी।
इस
कहानी में बहुत से अन्य आयाम भी छिपे हुए हैं। दूसरा आयाम यह है कि तुम
बुद्धत्व को प्राप्त एक ऐसे व्यक्ति के पास आए हो, जिससे तुम कुछ भी कहो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, उसका उत्तर एक जैसा ही होगा। तुम्हारे प्रश्न और
तुम्हारे उत्तर अर्थपूर्ण
नहीं है और न संगत है, उसका
उत्तर एक ही होगा।
उन
तीनों को जोश ने एक ही तरीके से उत्तर दिया, क्योंकि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति
वहीं-का-वहीं रहता है। कोई भी स्थिति उसे बदलती नहीं। स्थिति का इससे कोई
संबंध नहीं। स्थिति के द्वारा तुम बदल जाते हो, तुम पूरी तरह बदल जाते हो, स्थिति तुम्हें अपने नियंत्रण में ले लेती है।
एक ऐसे व्यक्ति से मिलने पर जो अजनबी है, तुम अलग से व्यवहार करते हो। तुम अधिक तनाव पूर्ण
होते हो, स्थिति
को जांचने की
कोशिश करते हो? किस
तरह का आदमी है यह? क्या
यह खतरनाक है अथवा खतरनाक
नहीं है? क्या
आगे जाकर यह मित्र सिद्ध होगा अथवा शत्रु? तुम उसे भय
से देखते हो। यही वजह है कि अनजबी लोगों के साथ तुम बेचैनी का अनुभव करते हो।
से देखते हो। यही वजह है कि अनजबी लोगों के साथ तुम बेचैनी का अनुभव करते हो।
यदि
तुम एक रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे हो तो पहली चीज तुम देखोगे कि सभी यात्री
एक दूसरे से पूछते हैं, वे
क्या करते हैं, उनका
क्या धर्म है? और वे
कहां जा रहे हैं, इन प्रश्नों को पूछने की जरूरत क्या है? यह प्रश्न इसलिए अर्थपूर्ण है क्योंकि वे तभी
चैन की सांस ले पाते हैं। यदि तुम हिंदू हो और वे भी हिंदू है, तब वे आराम से सफर कर सकते हैं। यह आदमी अधिक अजनबी नहीं है।
लेकिन यदि तुम कहते हो। मैं मुसलमान हूं तो हिंदू तनाव से भर जाता है।
तब वहां कुछ खतरा है, कोई
अजनबी
है वहां। वह तुम्हारे और अपने बीच में थोड़ी-सी जगह छोड़ देगा। वह चैन से नहीं बैठ सकता और न आराम कर सकता है अथवा वह अपनी सीट भी बदल सकता है लेकिन एक मुसलमान और भी अधिक धार्मिक है। यदि तुम कहते हो कि मैं एक नास्तिक हूं। मैं धार्मिक हूं ही नहीं और न मेरा कोई धर्म है, तब तुम और भी अधिक- अजनबी बन जाते हो। एक नास्तिक तब वह अनुभव करेगा कि तुम्हारे साथ बैठना भी उसे नापाक कर देगा। तुम उसके लिए एक बीमारी की तरह हो, वह तुमसे बचकर दूर रहेगा। लोग प्रश्न पूछना इसलिए शुरू नहीं करते, क्योंकि वे तुम्हारे बारे में उत्सुक हैं।
नहीं, वे बस स्थिति को आंकना चाहते हैं कि वे अपने परिचित वातावरण में यात्रा कर सकेंगे अथवा वहां कोई अजनबी चीज होगी। वे अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित हैं और यह उनकी जाँच-पडताल अपनी सुरक्षा को लेकर है।
है वहां। वह तुम्हारे और अपने बीच में थोड़ी-सी जगह छोड़ देगा। वह चैन से नहीं बैठ सकता और न आराम कर सकता है अथवा वह अपनी सीट भी बदल सकता है लेकिन एक मुसलमान और भी अधिक धार्मिक है। यदि तुम कहते हो कि मैं एक नास्तिक हूं। मैं धार्मिक हूं ही नहीं और न मेरा कोई धर्म है, तब तुम और भी अधिक- अजनबी बन जाते हो। एक नास्तिक तब वह अनुभव करेगा कि तुम्हारे साथ बैठना भी उसे नापाक कर देगा। तुम उसके लिए एक बीमारी की तरह हो, वह तुमसे बचकर दूर रहेगा। लोग प्रश्न पूछना इसलिए शुरू नहीं करते, क्योंकि वे तुम्हारे बारे में उत्सुक हैं।
नहीं, वे बस स्थिति को आंकना चाहते हैं कि वे अपने परिचित वातावरण में यात्रा कर सकेंगे अथवा वहां कोई अजनबी चीज होगी। वे अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित हैं और यह उनकी जाँच-पडताल अपनी सुरक्षा को लेकर है।
तुम्हारा
चेहरा निरंतर बदलता रहता है। यदि तुम एक अजनबी को देखते हो तो तुम्हारा
चेहरा अलग होता है। यदि तुम एक मित्र को देखते हो, तुरंत ही तुम्हारा चेहरा बदल जाता है। यदि तुम्हारा नौकर वहां मौजूद है
तो तुम्हारा भिन्न चेहरा होता है। यदि वहां तुम्हारा सद्गुरु है तो तुम्हारा कुछ
दूसरा चेहरा होता है। तुम निरंतर अपने मुखौटे बदलते रहते हो क्योंकि तुम निर्भर होते हो
स्थिति पर। तुम्हारे पास न कोई आत्मा है और न तुम्हारी चेतना एकीकृत है, तुम्हारे आस-पास की चीजें ही तुम्हें बदल देती
हैं। जोश
जैसे सद्गुरु के साथ यह स्थिति नहीं है। जोशू के साथ तो स्थिति बिलकुल
भिन्न है। वह अपने आस-पास के वातावरण से नहीं बदलता, वह वातावरण ही बदल देता है, उसके आस-पास क्या कुछ हो रहा है, वह अप्रासंगिक है। उसका चेहरा ज्यों- का-त्यों रहता है। उसे मुखौटे बदलने की जरूरत ही नहीं।
भिन्न है। वह अपने आस-पास के वातावरण से नहीं बदलता, वह वातावरण ही बदल देता है, उसके आस-पास क्या कुछ हो रहा है, वह अप्रासंगिक है। उसका चेहरा ज्यों- का-त्यों रहता है। उसे मुखौटे बदलने की जरूरत ही नहीं।
ऐसा
कहा जाता है कि एक बार एक गवर्नर जोशू से भेंट करने आया। वास्तव में वह
एक शक्ति सम्पन्न बड़ी राजनीतिक हस्ती थी। एक गवर्नर था। उसने एक कागज पर
लिखा-' ' मैं आपके
दर्शनों के लिए आया हूं। ' ' उसके
नीचे अपना नाम और किस
राज्य का गवर्नर है, उसका
उल्लेख किया। वह जाने-
अनजाने अवश्य ही जोशू को प्रभावित करना चाहता था।
जोश ने
कागज की उस चिट को देखा और उसे फेंकते हुए उस आदमी से कहा, जो यह संदेश लेकर आया था-'' इन सज्जन से कहो कि मैं उन्हें देखना तक नहीं चाहता।उन्हें
बाहर निकाल दो। ''
उस
आदमी ने लौटकर कहा-' ' उन्होंने
आपके कागज की चिट फेंक दी और कहा है, मैंने इन सज्जन को देखना तक नहीं चाहता। उन्हें
बाहर निकाल दो। ' '
गवर्नर
समझ गया। उसने फिर एक कागज पर केवल अपना नाम लिखते हुए एक वाक्य लिखा, '' मैं आपके दर्शन करना चाहता हूं। ' '
जब जोश
के पास वह कागज पहुंचा तो उसने कहा-' ' अच्छा! तो यह है वह सज्जन। उन्हें भेज दो। ' '
गवर्नर
अंदर आया और उसने पूछा, ' ' आपने ऐसा
अजीब और अप्रत्याशित व्यवहार क्यों किया और कहा, मुझे बाहर निकाल दिया जाए। ' '
जोशु
ने कहा-' ' मुखौटे
लगे चेहरों को अंदर आने की इजाजत नहीं है। ' ' गवर्नर एक चेहरा है, एक मुखौटा है। मैं तुम्हें भली- भांति पहचाता
हूं और यदि तुम अपने मुखौटे के साथ आए हो तो तुम्हें आने की इजाजत
नहीं है। अब ठीक है। मैं तुम्हें भली- भांति जानता हूं लेकिन मैं किसी गवर्नर को
नहीं जानता। अब आगे से जब तुम आया करो तो अपने गवर्नर को पीछे अपने घर छोड्कर
आया करो। उसे साथ लाने की जरूरत नहीं। ' '
हम
लगभग अपने चेहरों का प्रयोग करते है और
तुरंत हम बदल जाते हैं। यदि हम बदली हुई परिस्थिति देखते हैं तो तुरंत बदल
जाते हैं, जैसे
हमारे पास कोई स्थायी
और निश्चित एकीकृत आत्मा है ही नहीं।
जोशू
के लिए हर चीज, हर
व्यक्ति एक जैसा है-वह अजनबी हो, मित्र हो, शिष्य हो या इसका अपना मैनेजर हो। उसका उत्तर एक
ही है-' ' मेरे
साथ एक प्याला चाय पीजिए।
' ' वह
अंदर से वही-का-वही रहता है। मेरे साथ एक प्याला चाय पीजिए ही क्यों? झेन सद्गुरुओं के लिए यह एक बहुत प्रतीकात्मक
चीज है।
चाय की
खोज झेन सदगुरु द्वारा की गई और उनके लिए चाय कोई साधारण चीज नहीं है। प्रत्येक झेन मठ में एक चाय घर
होता है। वह बहुत विशिष्ट एक मंदिर की भांति होता है। तुम इसे अभी समझने में समर्थ
न हो सकोगे.. .कि झेन सद्गुरु अथवा झेन मठ के लिए चाय कितनी अधिक धार्मिक चीज
है। चाय ठीक एक प्रार्थना के समान है। वह उनके द्वारा ही खोजी गई है।
भारत
में यदि तुम किसी संन्यासी को चाय पीते हुए देखते हो तो तुम्हें लगेगा कि वह एक
भला आदमी नहीं है। गांधीजी अपने आश्रम में किसी को भी चाय पीने की इजाजत
नहीं देते थे। चाय पीने की मनाही थी, वह एक पाप करने जैसा था और किसी को भी
चाय पीने की इजाजत नहीं थी। यदि गांधीजी ने इस कहानी को पढ़ा होता तो उन्हें
चोट लगती, एक
बुद्धत्व को उपलब्ध जोश जैसा व्यक्ति लोगों को चाय के लिए आमंत्रित कर रहा है?
लेकिन
चाय के प्रति झेन का पृथक दृष्टिकोण है। चाय का नाम पहली बार एक चीनी
झेन मठ से आया, ' ' ता! ' ' वहीं पहली बार उन्होंने चाय की खोज की और यह पाया
कि चाय ध्यान में सहायता करती है क्योंकि वह तुम्हें अधिक सजग बनाती है और
निश्चित रूप' से
सचेत करती है। यही वजह है कि जब तुम चाय ले लेते हो तो तुम्हें तुरंत नींद में जाना कठिन हो जाता है।
उन्होंने पाया कि चाय होश साधने और सजगता में सहायक है। इसलिए झेन मठों में चाय, ध्यान का ही एक भाग है।
जोशू
चैतन्यता से अधिक और किस चीज का आमंत्रण दे सकता है? इसलिए जब वह कहता है-मेरे साथ एक प्याला चाय पीजिए तो
वह कह रहा है-एक प्याला होश पीजिए। चाय उनके लिए बहुत प्रतीकात्मक है।
वह कह रहा है-मेरे साथ -बैठकर एक प्याला होश से और भर जाइए। उसका
आमंत्रण परिचित, अपरिचित मित्र, अनजबी और यही तक कि मठ के मैनेजर के लिए भी है, जो वहां हमेशा रहता हुआ मठ का सारा प्रबंध संभालता है।
एक
प्याला चाय पीजिए। यही सब कुछ एक बुद्ध किसी को दे सकता है और इससे
अधिक मूल्यवान और कुछ भी नहीं है।
इनेन
मठों में उनका एक अलग चाय कक्ष होता है। वह सबसे अधिक पवित्र स्थान ठीक एक मंदिर की भांति होता है। तुम जूते
पहने हुए उसमें प्रवेश नहीं कर सकते क्योंकि वह पवित्र सजगता का मंदिर है? तुम बिना स्नान किए हुए उसमें प्रविष्ट नहीं
हो सकते, क्योंकि
वह चाय कक्ष है, जबकि
चाय का अर्थ है-होश उसके सभी संस्कार प्रार्थना की भांति हैं। जब लोग चायघर
में प्रविष्ट होते हैं तो स्नान करने के बाद घुले स्वच्छ वस्त्र पहनते हैं, जूते चाय कक्ष के बाहर उतारते हैं और निरंतर मौन
रहते हैं।
कक्ष में प्रवेश .करते ही कोई भी बात करना वर्जित है और वे फर्श पर ध्यान की
मुद्रा में
मौन बैठ जाते हैं। तब मेजबान चाय तैयार करता है। प्रत्येक निरंतर मौन ही बैठा -रहता
है। चाय खौलना शुरू हो जाती है और प्रत्येक केतली में चाय के खौलने की सूक्ष्म
ध्वनि को सजगता से सुनता है। प्रत्येक वह ध्वनि सुनने हुए ही जैसे चाय पीना शुरू
कर देता है? यद्यपि
चाय अभी तैयार नहीं हुई है।
यदि
तुम किसी झेन भिक्षु से पूछो तो यह कहेगा कि चाय कोई ऐसी चीज नहीं है।
जिसे तुम किसी अन्य पेय की भांति उडेलो और बेहोशी से पी जाओ। यह एक पीने की चीज
नहीं। यह एक ध्यान और प्रार्थना है इसलिए वे केतली में उबलती चाय का मधुर
संगीत सुनते हैं और उसे सुनते हुए ही वे अधिक सजग और मौन हो जाते हैं। तब उनके
सामने प्याले रखे जाते हैं जिन्हें वे बहुत सम्मान से स्पर्श करते हैं। ये प्याले सामान्य
नहीं होते, प्रत्येक
मठ प्यालों को स्वयं बनाता है और यदि वे बाजार से भी खरीदे जाएं तो पहले वे उन्हें तोड़ते हैं और फिर
उन्हें क्यू से जोड़ते हैं जिससे वे विशिष्ट
हो जाएं, जिससे तुम ठीक उन जैसे ही कहीं और न खोज सको।
हो जाएं, जिससे तुम ठीक उन जैसे ही कहीं और न खोज सको।
तब
प्रत्येक व्यक्ति प्याले को स्पर्श करता हुआ उसे महसूस करता है। प्याले का अर्थ
है शरीर, यदि
चाय का अर्थ है सजगता और यदि तुम्हें सजग होना है तो जड़ों से ही, जो शरीर है, सजग होना होगा। उसे स्पर्श करते हुए वे सजग हैं
ध्यान ही कर रहे हैं।
तब चाय डाली जाती है और उसकी सोंधी सुवास चारों ओर फैल जाती है। यह एक लंबा
समय लेती है। एक घंटा, दो
घंटा-इसलिए यह केवल एक मिनट का काम नहीं कि तुमने चाय पी, प्याला फेंका और चल दिए। यह एक धीमी और लंबी
प्रक्रिया है, जिससे
हर कदम स्वाद और उससे उत्पन्न उष्णता प्रत्येक को होशपूर्ण और सजग रहते हुए
अनुभव करनी होती है।
यही
वजह है कि एक सद्गुरु स्वयं शिष्यों को चाय देता है। एक सद्गुरु जब स्वयं
प्याले में चाय उड़ेल रहा हो, तब तुम अधिक सजग और होशपूर्ण होगे, जब कि नौकर द्वारा प्याले में उडेली चाय को तुम
सामान्य रूप से भूल सकते हो। जब जोश जैसा सद्गुरु तुम्हारे प्याले में चाय उड़ेल रहा
हो-यदि मैं आकर तुम्हारे प्याले में चाय हा! तो तुम्हारा मन तुरंत विसर्जित हो जाएगा, तुम शांत और मौन हो जाओगे। कोई चीज
विशिष्ट पवित्रतम घट रही होती है और चाय पीना एक ध्यान बन जाता है। जोश
कहता है-मेरे साथ एक प्याला चाय पीजिए। चाय तो एक बहाना है। जोश तुम्हें अधिक सजगता देगा और सजगता आती है
संदेनशीलता से। तुम जो कुछ भी करो। तुम्हें अधिक संवेदनशील होना होगा, जिससे कि चाय जैसी साधारण चीज भी......
क्या
तुम चाय से भी कम महत्व की कोई चीज खोज सकते हो? क्या तुम चाय से भी अधिक साधारण और तुच्छ कोई चीज खोज सकते हो? नहीं, तुम नहीं खोज सकते ओर झेन सद्गुरुओं और बौद्ध भिक्षुओं ने
अति साधारण और सामान्य कृत्य को भी असाधारण के शिखर तक पहुंचा दिया है। उन्होंने
यह और वह के मध्य एक पुल निर्मित कर दिया है, जैसे चाय और परमात्मा एक हो गए हों। जब तक चाय
ही दिव्य न जो
जाए तुम दिव्य न हो सकोगे, क्योंकि
जो सबसे कम है, उसे ही
उठाकर सबसे अधिक
करना है, जो अति
साधारण है, उसे
उठाकर असाधारण बनाना है और पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाना है। दो के मध्य एक सेतु
निर्मित करना है जिससे उनमें कोई अंतर न रह जाए।
यदि
तुम किसी झेन मठ में जाओ और वहां एक सद्गुरु को चाय पीते हुए देखो तो एक
भारतीय मन परेशानी में पड़ जाएगा। यह किस तरह का व्यक्ति है, जो चाय पी रहा है? क्या तुम बोधि वृक्ष के नीचे बैठे चाय पीते हुए
किसी बुद्ध की कल्पना कर सकते हो? तुम ऐसा सोच भी नहीं सकते, ऐसा सोचने की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।
भारतीय मन सदा से अद्वैतता की बात करता रहा .है, लेकिन सबसे अधिक द्वैतता उसने ही उत्पन्न की है। तुम अद्वैत, एवं और एक की बाबत सुनते रहे हो पर तुमने
जो कुछ भी किया है उससे द्वैत ही निर्मित हुआ है। तुमने दो के मध्य इतनी अधिक
दूरी र्निमित कर दी है कि उसे कोई पुल बनाकर पाटना संभव ही नहीं दिखाई देता।
यह सब कुछ शंकराचार्य द्वारा संसार को माया या एक भ्रम बताने के कारण हुआ है।
तुमने इस और उस संसार के बीच इतनी अधिक दूरी निर्मित कर -ली है कि उनके मध्य
कोई सेतु बनाया ही नहीं जा, सकता
इसलिए किया क्या जाए?
शंकराचार्य
ने कहा है-' ' यह
संसार एक भ्रम है, माया
है, तुम्हें
पुल बनाने की जरूरत
ही नहीं। यह संसार है ही नहीं। बस यही वह तरीका है जिससे एक पर आ सकते
हो तुम, तुम्हें
दूसरे को दूसरे से पूरी तरह इनकार करना होगा, लेकिन इनकार करने से कोई सहायता न मिलेगी, भले ही तुम कहो कि संसार एक भ्रम है, लेकिन वहां वह होगा ही। ' ' फिर समस्या क्या है? क्यों शंकराचार्य जीवन- भर 'लोगों को यह सिखाते रहे कि संसार एक भ्रम है, एक छलावा है? यदि वह एक भ्रम है तो किसी को
चिंता करने की फिर जरूरत क्या? यदि शंकराचार्य ने उसे एक भ्रम होना जान लिया, तब उसके बारे में उन्हें परेशान होने की जरूरत क्या थी? इससे लगता है कि वहां कोई समस्या है। कोई सेतु नहीं बनाया जा सकता, इसलिए सिर्फ एक ही तरीका रह जाता है कि अपनी चेतना से कहा जाए कि वह है ही नहीं और उसे गिरा दिया जाए जिससे एक ही रह जाए। हमारे पास एक तक जाने एक ही रास्ता है कि दूसरे से इनकार कर दिया जाए।
चिंता करने की फिर जरूरत क्या? यदि शंकराचार्य ने उसे एक भ्रम होना जान लिया, तब उसके बारे में उन्हें परेशान होने की जरूरत क्या थी? इससे लगता है कि वहां कोई समस्या है। कोई सेतु नहीं बनाया जा सकता, इसलिए सिर्फ एक ही तरीका रह जाता है कि अपनी चेतना से कहा जाए कि वह है ही नहीं और उसे गिरा दिया जाए जिससे एक ही रह जाए। हमारे पास एक तक जाने एक ही रास्ता है कि दूसरे से इनकार कर दिया जाए।
झेन के
पास सेतु बनाने का दूसरा तरीका है और मेरा ख्याल है कि वह अधिक सुंदर
है। इसमें दूसरे से इनकार करने की कोई जरूरत नहीं और तुम इनकार कर भी नहीं
सकते, यहां
तक कि इनकार में भी तुम दावा करते रहोगे। यदि तुम कहते हो कि इस संसार का कोई अस्तित्व है ही नहीं, तुम्हें इस संसार की ओर इशारा करते हुए बताना
होगा, जो
कहीं है ही नहीं, फिर
तुम इशारा किस ओर कर रहे हो, किसके बारे में यह तथ्य बता रहे हो? यदि वहां कुछ है ही नहीं, फिर तुम अपनी उंगली से इशारा किस और
कर रहे हो? तब तुम
एक बेवकूफ हो। इस संसार का अस्तित्व तो है ही और
यदि तुम कहते कि वह एक भ्रम है तो केवल यह तुम्हारी व्याख्या है। यदि यह संसार एक भ्रम है तो वह भी सत्य या वास्तविक नहीं हो सकता। क्योंकि इससे वह को प्राप्त करना है। यदि यह संसार असत्य है तो तुम्हारा ब्रह्म भी सत्य नहीं हो सकता। यदि सृष्टि असत्य है तो सृष्ट भी सत्य कैसे हो सकता है? क्योंकि सृष्टिकर्ता से ही सृष्टि हुई है। यदि गंगा असत्य है या भ्रम है तो गंगोत्री भी कैसे सत्य या वास्तविक हो सकती है। यदि मैं एक भ्रम या झूठ हूं तो मेरे माता- पिता का भी झूठा होना एक बाध्यता है, क्योंकि स्वप्न से ही स्वप्न उत्पन्न होता है। यदि माता-पिता सत्य और वास्तविक है, तभी उनका बच्चा सत्य या वास्तविक होगा।
यदि तुम कहते कि वह एक भ्रम है तो केवल यह तुम्हारी व्याख्या है। यदि यह संसार एक भ्रम है तो वह भी सत्य या वास्तविक नहीं हो सकता। क्योंकि इससे वह को प्राप्त करना है। यदि यह संसार असत्य है तो तुम्हारा ब्रह्म भी सत्य नहीं हो सकता। यदि सृष्टि असत्य है तो सृष्ट भी सत्य कैसे हो सकता है? क्योंकि सृष्टिकर्ता से ही सृष्टि हुई है। यदि गंगा असत्य है या भ्रम है तो गंगोत्री भी कैसे सत्य या वास्तविक हो सकती है। यदि मैं एक भ्रम या झूठ हूं तो मेरे माता- पिता का भी झूठा होना एक बाध्यता है, क्योंकि स्वप्न से ही स्वप्न उत्पन्न होता है। यदि माता-पिता सत्य और वास्तविक है, तभी उनका बच्चा सत्य या वास्तविक होगा।
झेन
कहता है- दोनों ही सत्य है, लेकिन
दोनों दो नहीं हैं, उनके
मध्य पुल बना दो
इसलिए चाय पीना प्रार्थना बन जाता है। सबसे अधार्मिक चीज भी पवित्र बन जाती है। यह
एक प्रतीक है और झेन कहता है, यदि तुम्हारा साधारण जीवन आसाधारण बन जाता
है। केवल तभी तुम एक आध्यात्मिक हो, अन्यथा तुम अध्यात्मिक हो ही नहीं। साधारण
में ही असाधारण को पाना है, परिचितों
में ही अपरिचिति को, ज्ञात
में अज्ञात को, पास में दूर को और यह में वह को पाना है। इसलिए
जोश कहता है, आइए
मेरे साथ एक
प्याला चाय पीजिए।
इस
कहानी का एक अन्य आयाम और भी है और वह आयाम है-स्वागत। प्रत्येक का स्वागत है। तुम कौन हो, इससे कोई संबंध नहीं, तुम्हारा स्वागत है। एक बुद्धत्व को प्राप्त सद्गुरु के द्वार पर, जोड़ या एक बुद्ध के द्वार पर प्रत्येक का स्वागत
है। एक
अर्थ में जो द्वार है, वह
खुला है, आओ और
एक प्याला चाय पीयो। आखिर इसका क्या अर्थ है? आओ और आकर एक प्याला चाय लो। जोड़ कह रहा है-.
अंदर आओ और आकर
विश्राम करो।
यदि
तुम तथाकथित दूसरे सदगुरुओं, भिक्षुओं और संन्यासियों के पास जाओ तो तुम
और अधिक तनाव से भर जाओगे? तुम
भयभीत हो जाओगे और वे अपराध- भाव उत्पन्न करते हैं, वह तुम्हें निंदित दृष्टि से देखते हैं और वे इस
तरह से तुम्हारी ओर
देखते हैं, जैसे
तुम एक पापी हो और वे कहना शुरू कर देंगे, यह गलत है, वह गलत है, इसे छोड़ो और उसे छोड़ो।
वास्तव
मैं बोध को प्राप्त व्यक्ति का यह तरीका नहीं है, वह तो तुम्हें परम विश्राम का अनुभव कराएगा। एक चीनी कहावत है कि यदि तुम
वास्तव मैं एक महान व्यक्ति के पास पहुंच जाते तो उसके सान्निध्य में तुम
विश्राम का अनुभव करोगे और यदि तुम किसी नकली महान व्यक्ति के पास जाओ तो वह
तुम्हारे अंदर तनाव उत्पन्न करेगा। वह जाने- अनजाने में यह प्रदर्शित करने का हर
संभव प्रयास करेगा कि तुम उससे नीचे हो, एक पापी हो, एक अपराधी हो और वह तुमसे उच्च और सर्वश्रेष्ठ
है। एक बुद्ध तुम्हारी
सहायता करेगा विश्रामपूर्ण होने में, क्योंकि विश्राम में ही तुम एक बुद्ध हो सकते
हो। वहां अन्य कोई उपाय है नहीं।
'' आइए
मेरे साथ एक प्याला चाय पीजिए। '' जोश कह रहा है-' ' आइए मेरे साथ विश्रामपूर्ण हो जाइए। चाय तो प्रतीक
है-विश्रामपूर्ण होने का। ' ' यदि
तुम एक बुद्ध
के साथ चाय पी रहे हो तो तुम्हें तुरंत यह अनुभव होगा कि तुम न तो तुम विदेशी हो और
न अजनबी। एक बुद्ध तुम्हारे प्याले में चाय उड़ेल रहा है.. बुद्ध ही नीचे उतरकर
तुम्हारे पास आ गया है। बुद्ध यहां तक आया है और वह अपने साथ वह लेकर आया है।
ईसाई और यहूदी इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। मुसलमान इस बाबत सोच भी नहीं सकते। यदि तुम स्वर्ग का द्वार
खटखटा तो क्या ऐसे परमात्मा की तुम कल्पना कर सकते हो तो जो बाहर आकर तुमसे कहे- ' ' आओ और मेरे साथ एक प्याला चाय पीओ। ' ' यह बात ही व्यर्थ या अधार्मिक दिखाई देती है।
उनके अनुसार तो
परमात्मा अपने सिंहासन पर बैठा हुआ अपनी हजारों आंखों से तुम्हारे अस्तित्व के प्रत्येक
निर्जन स्थान और कोने-कोने को देख रहा होगा कि तुमने कहां और कब कितने
पाप किए और वहां वह अंतिम दिन निर्णय भी देगा।
जोश
कोई निर्णय नहीं सुनाएगा, वह
तुम्हें जांचेगा भी नहीं, वह तो
बस तुम्हें स्वीकार
कर लेता है और कहता है-' ' आओ
मेरे साथ विश्राम करो। ' ' विश्राम
भी आवश्यक
बात नहीं है। यदि तुम बुद्ध मनुष्य के -साथ विश्रामपूर्ण हो सकते हो तो उसका
बुद्धत्व तुम्हारे अंदर उतरना शुरू हो जाएगा क्योंकि जब तुम विश्राम में होते हो तो तुम
पोरस हो जाते हो, तुम्हारे
शरीर के रोम-रोम खुलकर उसकी ऊर्जा पीने लगते देह- -जब तुम तनाव में होते हो तुम बंद होते हो।
तुम्हारी विश्रामपूर्ण दशा में ही सद्गुरु तुम्हारे अंदर प्रवेश करता है। जब तुम
विश्रामपूर्ण होते हुए बहुत आराम से चाय पी रहे
होते हो, तब जोड़ कुछ कर रहा होता है। वह तुम्हारे मन में प्रवेश नहीं कर सकता, लेकिन वह तुम्हारे हृदय के द्वारा अंदर प्रवेश कर सकता है। तुमसे एक प्याला चाय के लिए पूछना, तुम्हें मित्र वत बनाते हुए वे विश्राममय बनाना है, तुम्हें अपने निकट से निकटतम लाना है। स्मरण रहे कि जब भी तुम किसी के साथ कुछ खा-पी रहे होते तो उसके साथ बहुत घनिष्ट हो जाते हो। भोजन और सेक्स केवल दो ही चीजें ऐसी हैं जो घनिष्ट संबंध जोड़ती हैं। सेक्स में तुम निकटतम और घनिष्ट हो जाते हो और साथ में भोजन करते हुए भी यह घनिष्टता बढ़ती है। सेक्स की अपेक्षा भोजन अधिक और आधारभूत से घनिष्टता बढ़ाता है क्योंकि जब बच्चा जन्म लेता है तो अपनी मां से वह जो पहली
चीज पाता है, वह भोजन ही होगा। सेक्स तो बाद में आएगा, जब वह सेक्स करने के लिए परि एक बनेगा, चौदह या पंद्रह वर्ष बाद। इस संसार में जो पहली चीज तुम प्राप्त करते हो, वह भोजन है और वह भोजन भी एक पेय पदार्थ था। विश्व में पहली घनिष्टता मां और बच्चे के बीच होती है।
होते हो, तब जोड़ कुछ कर रहा होता है। वह तुम्हारे मन में प्रवेश नहीं कर सकता, लेकिन वह तुम्हारे हृदय के द्वारा अंदर प्रवेश कर सकता है। तुमसे एक प्याला चाय के लिए पूछना, तुम्हें मित्र वत बनाते हुए वे विश्राममय बनाना है, तुम्हें अपने निकट से निकटतम लाना है। स्मरण रहे कि जब भी तुम किसी के साथ कुछ खा-पी रहे होते तो उसके साथ बहुत घनिष्ट हो जाते हो। भोजन और सेक्स केवल दो ही चीजें ऐसी हैं जो घनिष्ट संबंध जोड़ती हैं। सेक्स में तुम निकटतम और घनिष्ट हो जाते हो और साथ में भोजन करते हुए भी यह घनिष्टता बढ़ती है। सेक्स की अपेक्षा भोजन अधिक और आधारभूत से घनिष्टता बढ़ाता है क्योंकि जब बच्चा जन्म लेता है तो अपनी मां से वह जो पहली
चीज पाता है, वह भोजन ही होगा। सेक्स तो बाद में आएगा, जब वह सेक्स करने के लिए परि एक बनेगा, चौदह या पंद्रह वर्ष बाद। इस संसार में जो पहली चीज तुम प्राप्त करते हो, वह भोजन है और वह भोजन भी एक पेय पदार्थ था। विश्व में पहली घनिष्टता मां और बच्चे के बीच होती है।
जोशू
कह रहा है-' ' आओ, मेरे साथ एक प्याला चाय पियो। मुझे अपनी मां बनने
दो। मुझसे लेकर तुम पीयो और एक सद्गुरु एक मां के समान है। मेरा जोर इसी पर है
कि सद्गुरु एक मां है, पिता
नहीं। ''
ईसाई
गलत हैं जो अपने पादरी को पिता या फादर कहकर पुकारते हैं क्योंकि पिता
एक अस्वाभाविकचीज है, एकसामाजिकघटना
मात्र है। सिवाय मनुष्य समाज के प्रकृति में पिता का कोई अस्तित्व है ही नहीं, वह एक पैदा की गई एक विकसित चीज है।
माता स्वाभाविक है। बिना किसी सभ्यता, शिक्षा और समाज के भी उसका अस्तित्व है, वह वहां पूरी प्रकृति में है। वृक्षों में भी
मातृत्व है। शायद तुमने न सुना हो कि न केवल मां तुम्हें जीवन देती है, लेकिन वृक्ष के पास भी एक मां का हृदय है। वे लोग
इंग्लैंड में ऐसे प्रयोग कर रहे हैं। वहां एक विशेष प्रयोगशाला है। जहां वे पौधों
के साथ प्रयोग कर रहे हैं और उन्होंने एक बएक हुत रहस्मय घटना की खोज की है। यदि एक बीज मिट्टी में दबाया जाए और उस बीज का मातृ वृक्ष पास न हो तो उसे अंकुरित होने में काफी समय लगता है। यदि मातृवृक्ष काट दिया गया हो या नष्ट हो गया हो तो बीज को अंकुरित होने में एक लंबा समय लग जाता है। मां की उपस्थिति बीज के भी अंकुरित होने में सहायक है।
के साथ प्रयोग कर रहे हैं और उन्होंने एक बएक हुत रहस्मय घटना की खोज की है। यदि एक बीज मिट्टी में दबाया जाए और उस बीज का मातृ वृक्ष पास न हो तो उसे अंकुरित होने में काफी समय लगता है। यदि मातृवृक्ष काट दिया गया हो या नष्ट हो गया हो तो बीज को अंकुरित होने में एक लंबा समय लग जाता है। मां की उपस्थिति बीज के भी अंकुरित होने में सहायक है।
एक सद्गुरु
मां है, वह
पिता नहीं है। पिता के साथ तुम केवल बुद्धि के तल पर जुड़ते हो, जबकि मां के साथ संबंध समग्र अस्तित्व के होते
हैं। तुम मां का एक भाग हो, तुम पूरी तरह उसी के हो। यह बात सद्गुरु के साथ
भी होती है, लेकिन
उल्टे कम में।
तुम माँ से आए और अब तुम सद्गुरु के पास जाओगे। यह स्त्रोत को वापस लौटने जैसा
है।
इसलिए
झेन सद्गुरुहमेशा तुम्हें चाय पीने के लिए आमंत्रित करते हैं। वे प्रतीक रूप
में कह रहे हैं आओ, मेरे
पास आकर एक शिशु बन जाओ। मुझे तुम अपना दूसरा गर्भ बनने दो। मुझमें प्रवेश करो मैं तुम्हें
पुनर्जन्म दूंगा।
साथ
भोजन करने से घनिष्टता बढ़ती है और यह तुममें इतनी गहराई से जड़ें जमा चुकी
हैं कि तुम्हारा
पूरा जीवन उससे प्रभावित है। विश्व- भर के अलग- अलग समाजों और संस्कृतियों में सभी पुरुष स्त्रियों के वक्ष
के संबंध में ही सोचे जा रहे हैं। चित्रों, मूर्तियों, फिल्मों और उपन्यासों में और जो कुछ भी हो, उनका केंद्र बिंदु स्त्री के स्तन ही बने
रहते हैं। स्तनों के प्रति इतना आकर्षण क्यों? संसार के साथ बच्चे का पहला अंतरंग
संबंध उसी के द्वारा जुड़ता है, उसी के द्वारा वह अस्तित्व के बारे में जानता है।
संसार
में पहली बार तुम स्तनों का ही स्पर्श करते हो, पहली बार तुम ही तुम अस्तित्व के निकट
आते हो और पहली बार स्तनों केद्वारा ही तुम दूसरे को जानते हो। यही वजह है कि पुरुषों
का स्तनों
के प्रति इतना
अधिक आकर्षक है।
तुम किसी ऐसी स्त्री की ओर आकर्षित नहीं हो सकते जिसके स्तन न हो और छाती
सपाट हो। यह कठिन है क्योंकि वहां तुम मां का अनुभव नहीं कर सकते। इसलिए एक
कुरूप स्त्री भी आकर्षक बन जाती है, यदि उसके स्तन सुंदर हों जैसे कि स्तन ही उसके
अस्तित्व की मुख्य और और केंद्रीय वस्तु है, और स्तन हैं क्या? स्तन ही भोजन है। सेक्स तो बाद में आता है, भोजन पहले आता है।
जोशू
का इन तीनों को अपनने पास चाय पीने के लिए बुलाना, उनसे घनिष्टता बढ़ाने के लिए एक पुकार है। मित्र साथ-साथ भोजन
करते हैं। जब तुम भोजन कर रहे हो, तो यदि उसी समय कोई अजनबी आ जाए तो तुम असुविधा
का अनुभव करते हो। अजनबी
के साथ भोजन करने में असुविधा का अनुभव होता है। इसी वजह से होटल या
रेस्तरों में सभी चीजें गलत जैसी हो गई हैं। क्योंकि अजनबियों के साथ भोजन जैसे विषैला
हो जाता है और तुम इसलिए थकान और तनाव का अनुभव करते हो। चूंकि वह एक
परिवार नहीं है, तुम वि
श्रामपूर्ण भी नहीं हो।
जो
तुम्हें प्रेम करता है, यदि ऐसे
किसी व्यक्ति के द्वारा भोजन बनाया गया हो तो उसके अलग गुण और अलग स्वाद होता है। यहां तक कि
उसके रासायनिक गुण भी बदल जाते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब
तुम्हारी पत्नी क्रोध में हो, उसे भोजन बनाने की अनुमति मत दो, अन्यथा वह विषैला हो जाएगा। यह बहुत कठिन है
क्योंकि पत्नी
लगभग हमेशा ही क्रोध में रहती है और मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि जब तुम
भोजन कर रहे हो, तभी
यदि तुम्हारी पत्नी बातचीत में तर्क वितर्क करते हुए मुसीबत खड़ी करना शुरू करे तो खाना बंद कर दो, लेकिन तब तो तुम मर ही जाओगे। क्योंकि
पत्नी लगभग हमेशा तभी मुसीबत खड़ी करती है। जब तुम भोजन कर रहे होते
हो। यह संसार बहुत प्रेमशून्य है। यदि पत्नी में थोड़ी-सी भी समझ है तो वह यह जानती
है कि झगड़ने का सबसे खराब समय वही होता है जब उसका पति भोजन कर रहा हो, क्योंकि जब वह तनावयुक्त है, विश्रामपूर्ण न होकर थका है तो भोजन विषैला हो
जाता है और उसे पचाने में एक लंबा समय लगता है। मनोवैज्ञानिक' कहते हैं कि ऐसा भोजपन पचाने के लिए दुगुना समय लगता है और
पूरा शरीर इसे भुगतता है।
भोजन घनिष्टता है, वह प्रेम है और झेन सद्गुरु तुम्हें हमेशाचाय केलिए आमंत्रित करते हैं। वे तुम्हें चाय कक्ष में ले जाएंगे और तुम्हें स्वयं चास सर्व करेंगे वे तुम्हें पीने के लिए भोजन ही दे रहे हैं। वे बता रहे हैं, मेरे निकटतम हो जाओ, घनिष्ट हो जाओ, इतनी दूर क्यों खड़े हुए हो? घर जैसा ही अनुभव करो।
भोजन घनिष्टता है, वह प्रेम है और झेन सद्गुरु तुम्हें हमेशाचाय केलिए आमंत्रित करते हैं। वे तुम्हें चाय कक्ष में ले जाएंगे और तुम्हें स्वयं चास सर्व करेंगे वे तुम्हें पीने के लिए भोजन ही दे रहे हैं। वे बता रहे हैं, मेरे निकटतम हो जाओ, घनिष्ट हो जाओ, इतनी दूर क्यों खड़े हुए हो? घर जैसा ही अनुभव करो।
इस
कहानी के यही सभी आयाम है, -लेकिन
ये आयाम अनुभव के हैं। तुम इन्हें समझ नहीं सकते, लेकिन अनुभव कर सकते हो और अनुभव ही सर्वोच्च
समझ होती है
प्रेम में ही अधिक जानना होता है। यह हृदय है ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट केंद्र
मस्तिष्क या मन
नहीं, वह तो
बस दूसरे नंबर पर है, वह काम
करने के लिए उपयोगी है। मन के द्वारा तुम परिधि को जान सकते हो, पर केंद्र को नहीं।
लेकिन
तुम हृदय के बारे में पूरी तरह भूल ही चुके हो, जैसे कि वह कुछ नहीं है। तुम उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते हो।
यदि मैं हृदय के बारे में कुछ बात शुरू करता हूं हृदय के केंद्र बारे मेँ तो तुम फेफड़ों
के बारे में .सोचोगे, हृदय
के बारे में नहीं।
फेफड़ों
के बीच छिपा हुआ है, वहीं
कहीं नीचे गहराई में। ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे शरीर में आत्मा छिपी हुई है। तुम्हारे फेफड़ों के
मध्य तुम्हारा हृदय छिपा हुआ है। वह कोई भौतिक चीज नहीं है इसलिए तुम यदि किसी डॉक्टर के पास
जाओ तो कहेगा कि वहां न
कोई हृदय है और न हृदय का कोई केंद्र, केवल फेफड़े हैं और जहां तक वह जितना
जानता है, उसके
अनुसार वह ठीक है। क्योंकि तुम शरीर की चीर-फाड़ करो तो वहां कोई भी हृदय केंद्र नहीं है। केवल फेफड़े
हैं। ठीक जैसे कि तुम्हारी आत्मा तुम्हारे शरीर में छिपी है। वैसे ही तुम्हारा
हृदय केंद्र भी तुम्हारे फेफड़ों के बीच छिपा हुआ है।
हृदय
को जानने के उसके अपने तरीके हैं। जोशू को केवल हृदय के द्वारा ही समझा
जा सकता है। यदि तुम उसे बुद्धि के द्वारा समझने का प्रयास करोगे तो वह संभव
तो है, पर तुम
उसे गलत समझ सकते हो? लेकिन संभव
है नहीं, इतना
तो निश्चित
है।
क्या
कुछ और...?
प्रश्न
: प्यारे ओशो? में
ऐसा अनुभव करता है कि आपके निकट
बने
रहना चाहता है लेकिन इसके साथ- साथ ही में जितनी तेजी से
संभव
हो सके, आपसे
दूर भी भाग जाना चाहता हूं मैं इस भय को
समझ नहीं
पात? चूंकि मैं
तरह के अनुभव के अलावा किसी अन्य
अनुभव
के बारे में होशपूर्ण नहीं है।
यह
स्वाभाविक है, यह कोई
अपवाद नहीं है। जब कभी तुम्हें मेरे जैसे व्यक्ति के निकट होने का अनुभव होता है, उसी के साथ भय भी होगा, क्योंकि मेरे निकट रहने का अर्थ है-मृत्यु। मेरे निकट रहने का अर्थ
है कि तुम्हें अपने को खो देना होगा। यह उसी तरहका भय है जो नदी को भी होता है। जब वह
सागर के निकट आती है- उसके किनारे खो जाएंगे और हर नदी वापस लौट जाना
चाहती है लेकिन उसका कोई उपाय नहीं है।
यदि
तुम्हें मेरे निकट आने की गहरी प्रवृत्ति का अनुभव हो तो उससे छूटकर भाग
जाने का कोई उपाय नहीं है। तुम प्रयास कर सकते हो, पर तुम्हें असफलता मिलेगी, दूसरों ने भी प्रयास किया है और वे आगे भी करते
रहेंगे। यदि तुम्हें कोई शक्ति मेरे पास आने को प्रवृत्त कर रही है, तो तुम्हें आना ही होगा। तुम वापस आने में देर
कर सकते
हो, छुटकारा
पाने के लिए संघर्ष कर सकते हो अथवा उसे आगे के लिए टाल सकते हो, पर इस सबसे अधिक और कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि
तुम्हारे अस्तित्व की
गहराई में वह तड़प तुम्हें मेरी ओर प्रवृत्त कर रही है।
भय केवल
मन में है। मेरे पास आने के लिए तुम्हारे अस्तित्व की गहराई का केंद्र ही
-तुम्हें उकसा रहा है, लेकिन
मन भयभीत है क्योंकि पास आने का अर्थ है मृत्यु। एक सद्गुरु के निकट बने रहना एक मृत्यु जैसा
हैं। तुम्हारे अहंकार को विसर्जित होना ही होगा। तुम्हारा अहंकार सोचना शुरू कर
देता है-कोई भी घटना घटे, उससे पहले
ही मुझे दूर भाग जाना चाहिए। मैं तो खो जाऊंगा। मुझे भाग ही जाना चाहिए। तुम्हारा
अहंकार तुम्हें निरंतर भाग जाने को कहेगा। अहंकार उसके तर्कसंगत कारण भी खोज
लेगा। वह तुम्हें भागने में सहायता करने के लिए मेरे अंदर की कमियां खोज
लेगा। वह तुम्हें हर तरीके से संतुष्ट करने की कोशिश करेगा कि मैं एक गलत आदमी हूं। प्रेम मृत्यु के समान है और किसी भी प्रेम की अपेक्षा सद्गुरु के प्रति प्रेम सर्वाधिक मृत्यु के निकट है।
लेगा। वह तुम्हें हर तरीके से संतुष्ट करने की कोशिश करेगा कि मैं एक गलत आदमी हूं। प्रेम मृत्यु के समान है और किसी भी प्रेम की अपेक्षा सद्गुरु के प्रति प्रेम सर्वाधिक मृत्यु के निकट है।
यदि
तुम किसी स्त्री से प्रेम करते हो. तो तुम उस पर अधिकार जमा सकते हो। यही
कारण है कि प्रेमी एक दूसरे पर अधिकार जमाने और मालकियत पाने के लिए -राजनीति
का खेल खेलते रहते हैं। वहां यह भय निरंतर रहता है कि यदि तुम अपना प्रभाव
जमाकर उसे काबू में न रख सके तो दूसरा अधिकार जमा लेगा, इसलिए वे निरंतर लड़ते -रहते हैं। पति-पत्नी और
प्रेमी-प्रेमिका संघर्ष ही करते रहते हैं। यह संघर्ष अपने अस्तित्व को बचाने और जीने का है।
भय केवल यही है कि मैं कहीं दूसरे में खो न जाऊं।
लेकिन
जब तुम एक सद्गुरु के निकट आते हो, तुम उस पर अधिकार नहीं जमा सकते, तुम उससे संघर्ष नहीं कर सकते। इसलिए और इसी
कारण भय इतना गहरा होता
है क्योंकि हम उसके साथ राजनीति का खेल नहीं खेल सकते या तो तुमको उससे दूर
भागना होगा अथवा अपने को उसमें समाहित कर देना होगा, इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यदि तुम उससे
बचकर दूर पलायन कर जाते हो तो अपने अस्तित्व के गहरे स्रोत से तुम्हें सुनाई
देता है-तुम गलत कर रहे हो, यदि
तुम भाग भी
गए हो तो तुम्हें वापस लौटना होगा। यदि तुम पास आते हो तो मन कहता है- ' ' तुम कहां जा रहे हो? यदि तुम उसके और नजदीक गए तो तुम जल सकते हो।
'' और यह
-ठीक भी है, अहंकार
ठीक ही कहता एं। वहां तो ज्योति जल ही रही है। यदि
तुम अधिक निकट आए तो तुम जल ही जाओगे। मन संघर्ष उत्पन्न करेगा, आंतरिक तनाव और वेदना को जन्म देगा। तुम बस अधिक-से- अधिक कुछ देर तक रुक सकते हो., पर देर-सवेर तुम्हें उसमें समाहित होना ही होगा। कोई भी नदी अपने को सागर में गिरने से रोक नहीं सकती। एक बार तुम उसके पास आ गए तो बस आ गए और तब वहां पीछे लौटने का कोई रास्ता है ही नहीं।
तुम अधिक निकट आए तो तुम जल ही जाओगे। मन संघर्ष उत्पन्न करेगा, आंतरिक तनाव और वेदना को जन्म देगा। तुम बस अधिक-से- अधिक कुछ देर तक रुक सकते हो., पर देर-सवेर तुम्हें उसमें समाहित होना ही होगा। कोई भी नदी अपने को सागर में गिरने से रोक नहीं सकती। एक बार तुम उसके पास आ गए तो बस आ गए और तब वहां पीछे लौटने का कोई रास्ता है ही नहीं।
बाहर
जाने का कोई दरवाजा है हीं नहीं। तुम यहां हो। तुमने बहुत लंबा सफर तय
किया है न केवल भौतिक रूप से स्थान की दूरी तय की है, बल्कि तुमने लंबी अवधि तक अंतर्यात्रा भी की है। तुम इस बिंदु की
ओर आने के लिए कई जन्मों से यात्रा करते आए हो, तुमने ऐसा चाहा भी था और अब जब तुम इस बिंदु के
निकट आ गए हो तो
तुम भयभीत हो गए हो। तुम्हें अपने खोए जाने के भय की अनुभूति हो रही है। भय
होना स्वाभाविक है। इसे समझो, उसके काबू में मत आओ। एक छलांग लगाओ, वह छलांग केवल एक मृत्यु न होगी, वह तुम्हारा पुनर्जन्म भी होगा, लेकिन तुम उसे जान नहीं सकते। तुम्हें तो मौत और केवल मौत
दिखाई देती है। उसके पार, मृत्यु
के पीछे, जो कुछ छिपा है, तुम उसे देख नहीं सकते। मैं उसे देख सकता हूं।
मैं जानता हूं तुम्हारा
पुनर्जन्म होगा, लेकिन
किसी का भी पुनर्जन्म नहीं हो सकता, जब तक उसकी मृत्यु न हो जाए।
इसलिए
मृत्यु न तो लक्ष्य है और न मृत्यु अंत है, वह तो बस शुरुआत है। जब तुम मरने के लिए तैयार हो, तुम पुनर्जन्म के लिए तैयार हो। पुराना मिलेगा
और उसके स्थान
पर पूरी तरह नए का जन्म होगा। वह नया तुम्हारे अस्तित्व के केंद्र से बाहर आने के लिए
संघर्ष कर रहा है। वह पुराना तुम्हारे मन से संघर्ष कर रहा है क्योंकि मन के पास
स्मृति है, पुराना
अतीत है। पुराना अतीत और आने वाला भविष्य तुम्हारे ही अंदर संघर्ष कर रहे हैं। यही समस्या है। अब यह तुम पर
निर्भर है। यदि तुम अतीत के काबू में आ जाते हो, तब तुम स्थगित कर दोगे, देर लगाओगे और इसे तुम कई जन्मों से टालते 'आ रहे हो। यह कोई पहली बार तुम इसे नहीं टाल रहे
हो, पहले
भी कई बार
तुम इससे चूक गए हो। कई बार तुम ही बुद्ध, महावीर और जीसस के भी पास आए हो और पलायन कर भाग गए हो। तुमने आंखें बंद कर उनसे बचने की कोशिश की है। तुम बार-बार यही खेल खेलते रहे हो, लेकिन खेल तो तटस्थ है। मैं इसलिए तुमसे कहता हूं क्योंकि तुम केवल मृत्यु देख सकते हो। नदी केवल यह देख सकती है कि वह सागर में जाकर खो जाएगी, वह यह नहीं देख पाती कि वह स्वयं सागर ही बन जाएगी। वह देख भी कैसे सकती है? उस सागर जैसा अस्तित्व तो केवल तभी होगा,
जब नदी मिट जाएगी इसलिए नदी यह देख नहीं पाती। जब तुम्हारा अहंकार विसर्जित होगा, केवल तभी तुम जान पाओगे कि तुम हो कौन?
तुम इससे चूक गए हो। कई बार तुम ही बुद्ध, महावीर और जीसस के भी पास आए हो और पलायन कर भाग गए हो। तुमने आंखें बंद कर उनसे बचने की कोशिश की है। तुम बार-बार यही खेल खेलते रहे हो, लेकिन खेल तो तटस्थ है। मैं इसलिए तुमसे कहता हूं क्योंकि तुम केवल मृत्यु देख सकते हो। नदी केवल यह देख सकती है कि वह सागर में जाकर खो जाएगी, वह यह नहीं देख पाती कि वह स्वयं सागर ही बन जाएगी। वह देख भी कैसे सकती है? उस सागर जैसा अस्तित्व तो केवल तभी होगा,
जब नदी मिट जाएगी इसलिए नदी यह देख नहीं पाती। जब तुम्हारा अहंकार विसर्जित होगा, केवल तभी तुम जान पाओगे कि तुम हो कौन?
भय को
यह इजाजत मत दो कि वह तुम्हें अपने काबू में कर ले, आने दो प्रेम को जो तुम पर अपना अधिकार जमा ले। प्रेम आता है
केंद्र से और भय आता है बाहर परिधि से। इस परिधि को इजाजत मत दो कि वह इतनी
अधिक महत्वपूर्ण हो जाए कि वह तुम पर अपना अधिकार जमा लें। तुम्हारे पास
खोने का है ही क्या? यदि
पुनर्जन्म नहीं
भी होता है जबकि पुनर्जन्म है, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि मान लो यदि
तुम्हारा पुनर्जन्म
नहीं हुआ और तुम मर गए तो भी तुम आखिर क्या खो दोगे? खोने को है क्या तुम्हारे पास? नदी को आखिर ऐसा क्या मिला है जो बचाने जैसा हो।
पहाड़ों के द्वारा जो
जीवन मिला था, वह ठीक
एक संघर्ष जैसा था, मैदानों
के द्वारा जो जीवन मिला, वह ठीक
गंदगी से भरा हुआ एक यात्रा पथ था। सागर में जाकर समाहित होने पर आखिर
खोना क्या है? कुछ भी
नहीं।
इसलिए
इस बारे में जरा सोचो। यदि तुम मेरे निकट आते हो तो तुम्हारे पास खोने के लिए
आखिर है क्या? तुम्हारी
वेदनाएं और दुख? तुम्हारा
पागलपन? तुम्हारे
पास खोने
को है क्या? तुम्हारे
पास कुछ भी तो नहीं खोने के लिए लेकिन हम अपने अंदर कभी झांककर देखते ही नहीं कि हमारे पास खोने के
लिए कुछ है ही नहीं, क्योंकि ऐसा भी
करने में भय लगता है। तुम यही सोचना पसंद करते हो कि तुम बहुत कुछ खो दोगे
और जैसे वहां एक खजाना है जिसे तुम फिर कभी देख न सकोगे। वहां कोई खजाना
है ही नहीं। घर बिलकूल खाली है और वहां कभी कोई चीज थी ही नहीं, लेकिन तुम इतने भयभीत हो कि तुम कभी देखते ही
नहीं क्योंकि तुम जानते हो कि वहां कुछ भी नहीं है। एक भिखारी भी स्वप्न देखता
है कि वह एक सम्राट है और स्वप्न में वह सम्राट बनकर उसका मजा लेता है। और
तब वह डर जाता है कि यदि उसका साम्राज्य छिन गया, तब? लेकिन वहां कभी कोई साम्राज्य था ही नहीं।
तुम
इसलिए मेरे पाए आए हो क्योंकि वहां कभी कोई साम्राज्य रहा ही नहीं। तुम्हें
कुछ भी नहीं खोना है और अब तुम डर गए हो। जरा अपने मन की चालबाजियों और मन
के द्वारा दिए धोखों की ओर देखो तो।
एक
आदमी ने कुत्तों की दुकान में प्रवेश किया। उसने चारों ओर घूमकर सब कुछ
देखा। फिर दुकानदार से पूछा-' ' उस बड़ी कुत्ते की क्या कीमत है। ' ' वह एक खूंखार और भयानक अलसेशियन कुत्ता था।
दुकानदार
ने उत्तर दिया-' ' पांच
सौ रुपए। ' ' यह
कीमत उसके लिए बहुत अधिक थी, तब मन-ही-मन तर्क करते हुए उसने दूसरे छोटे
कुत्ते की ओर संकेत करते हुए पूछा-' ' इस छोटे कुत्ते की क्या कीमत है? ' '
दूकानदार
ने उत्तर दिया-' ' एक
हजार रुपए। ' ' यह
कीमत उसके लिए बहुत अधिक थी, तब मन-ही-मन तर्क करते हुए उसने दूसरे छोटे
कुत्ते की ओर संकेत करते हुए पूछा-' ' इस छोटे कुत्ते की क्या कीमत है। ' '
दुकानदार
ने उत्तर दिया-' ' दो
हजार रुपए। ' '
वह
व्यक्ति बहुत उलझन में पड़ गया। तब व्यग्र होकर उसने पूछा-' ' यदि मैं कुछ भी कोई भी चीज न खरीदूं तो उसकी क्या कीमत
होगी? ' ' चूंकि ज्यों-ज्यों
कुत्ता छोटा
होता जा रहा था, कीमतें
बढ़ती जा रही थी। यदि मैं कुछ भी न खरीदूं तो उसकी कीमत क्या होगी। यही तुम्हारा भय है।
यदि
तुम मेरे निकट आते हो तो क्या होगा? कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि तुम्हारे पास खोने को कुछ है ही नहीं और घटेगा सब कुछ, क्योंकि एक बार यह तुम्हारा कुछ नहीं
खो जाए तो हर चीज घटना संभव हो जाएगा। एक बार यह काल्पनिक शरण स्थल, जो तुम्हारे लिए बंधन बन गया है, यदि मिट जाए तो तुम्हारे सामने अनन्त आकाश का खुला
वातायन होगा। एक बार तुम्हारी जीवन सरिता के दोनों तट जो तुम्हारे लिए बंदीगृह
बन गए हैं मिट जाएं तो तुम सीमाहीन अनन्त सागर बन जाओगे।
नदी को
अभय होकर अज्ञात में, दिशाहीन
होकर गिर जाने दो। वहां मृत्यु तो होगी, मृत्यु के हमेशा बाद पुनर्जन्म. होता ही है।
मरते और मरकर पुन: जन्म लो। अपने को खो दो और उसे पा लो। भय आता है-मन से और
प्रेम आता है तुम्हारे हृदय से। अपने ह्रदय की सुनो।
एक बार
ऐसा हुआ कि एक
राजा के विशाल महल में एक संगीत वाद्य था। वह उससे बहुत प्रेम करता था, लेकिन एक दिन उसमें कुछ खराबी आ गई और वह वाद्य- यंत्र
इतना अनूठा था कि कोई भी नहीं जानता था कि उसे कैसे ठीक किया जाए। किसी ने भी
कभी उस जैसा वाद्य-यंत्र देखा ही न था। राजा ने भी उस जैसा वाद्य- यंत्र को तब सुना था, जब वह एक छोटा-सा बच्चा था। तब उसके पिता जीवित
थे और तभी से उस वाद्य
यंत्र में कुछ खराबी आ गई थी। लेकिन वह उससे इतना प्रेम करता था कि उस वाद्य
यंत्र को अपने ही कमरे में रखता था। वह बहुत सुंदर था। बाहर से भी वह सुंदर दिखाई
देता था। उसे ठीक करने के लिए कई विशेषज्ञ बुलाए पर सब कुछ व्यर्थ हुआ।
उन लोगों ने -बहुत प्रयास किए पर चीजें बद से बदतर होती गई और वह वाद्य- यंत्र
अधिक-से-अधिक क्षति ग्रस्त होने लगा। राजा ने उसके ठीक होने की सभी आशाएं छोड़
दीं क्योंकि वह वाद्य यंत्र ठीक न हो सका।
तब
अचानक एक दिन एक भिखारी आया। उसने द्वारपाल से कहा-' ' मैंने सुना है कि राजा के वाद्य-यंत्र में कुछ खराबी आ
गई है। मैं उसे ठीक कर का। द्वारपाल का मन हंसने को हुआ क्योंकि संसार की
कई राजधानियों के विशेषज्ञ और संगीतज्ञ भी आकर उसमें उसकी खराबी को न खोज सके।
वह इतना जटिल वाद्य- यंत्र था कि लोगों ने ऐसा वाद्य-यंत्र आज तक न
देखा था और वे यह भी न जानते थे कि इससे किस तरह का संगीत उत्पन्न होता है, द्वारपाल का मन हंसने को हुआ, लेकिन उसने उस भिखारी को देखने के बाद उसकी
आत्मविश्वास से भरी आवाज सुनी, उसकी आंखें देखी जिनमें प्रामाणिकता झलक- रही थी।
भिखारी होते हुए भी उसका चेहरा शानदार दिखाई दे रहा था। द्वारपाल का
मन कह रहा था कि इसके भी प्रयास व्यर्थ ही होंगे, लेकिन उसका हृदय कह रहा था-' ' इस आदमी में आत्मविश्वास दिखाई देता है, इसमें आखिर गलत क्या होगा यदि यह भी कोशिश कर ले।
' ' इसलिए वह उसे
राजा के पास ले गया।
उस
भिखारी की ओर देखकर राजा हंसा और उसने कहा-' ' क्या तुम पागल हो गए हो? हर तरह के विशेषज्ञ कोशिश करके हार गए। तुम जरूर
पागल हो, जो सोचते
हो कि तुम उसे ठीक कर दोगे। ' '
उस
भिखारी ने कहा-' ' जितना नुकसान
होना था हो चुका। अब उससे अधिक नुकसान क्या हो सकता है? वह वाद्य--यंत्र तो पहले ही से पूरी तरह खराब है।
मैं उसे और कोई
नुकसान क्या पहुंचा सकता हूं इसलिए इसमें क्या एतराज है आपको, यदि आप मुझे भी एक अवसर दें। ' '
राजा
ने सोचा, ' ' यह
कहता तो ठीक है, अब
इससे अधिक खराब और क्या हो सकता है। इसलिए उसने कहा-' ' ठीक, है तुम भी कोशिश करके देख लो। ' '
कई
दिनों तक भिखारी उस वाद्ययंत्र के पीछे जैसे गायब हो गया। वह दिन-रात उस काम
करता रहा, करता
ही रहा और अचानक आधी रात को एक दिन उसने उस वाद्य-यंत्र को बजाना शुरू किया। पूरा महल
अज्ञात मधुर स्वर लहरियों से गज गया। वह संगीत इतना दिव्य था कि प्रत्येक उसे देखने
दौड़ पड़ा। राजा ने अपने शयनकक्ष से बाहर आकर उस भिखारी से कहा-' ' तुमने उसे ठीक कर दिया। तुम्हें काफी कठिनाई
जरूर हुई होगी क्योंकि यह लगभग असंभव काम था। तुमने तो चमत्कार कर दिया। ' '
उस
मनुष्य ने कहा-' ' नहीं, यह काम कठिन नहीं था, क्योंकि पहली बात तो यह है कि मैंने ही इस वाद्य-यंत्र को आपके
पिताजी के समय बनाया था। ' '
यदि
तुम तैयार हो तो पहली बात तो यह कि मैं और अधिक क्षति नहीं पहुंचा सकता, क्योंकि तुम पहले ही क्षतिग्रस्त हो। तुम जितना
अधिक नुकसान अपना कर चुके- हो, उसकी अपेक्षा मैं तुम्हें और कोई नुकसान पहुंचा
भी नहीं सकता, यह बात निश्चित
है। मेरी आंखों में झांको और मेरी आवाज का अनुभव करो और मुझे भी एक अवसर
दो। यह कठिन नहीं है मैं तुमसे कहता हूं एक बार कोई में घुल जाए तो वह सभी
चीजों के स्रोत जहां से तुम भी आए हो, वहीं होता है।
मैं
वहाँ नहीं हूं। यदि मैं वहां होता तो यह काम कठिन होता। वहाँ मेरे अंदर कोई विशेषज्ञ
नहीं है, जो था, वह बहुत पहले ही मर चुका है। अहंकार ही वह
विशेषज्ञ है और मैं
कुछ भी नहीं जानता।
मैं
वहां हूं ही नहीं। मैं कभी का विसर्जित हो चुका हूं। वहां सागर हैं, परमात्मा भी है, पर मैं नहीं हूं।
पहली
बात तो यह कि तुम जिस स्त्रोत से आए हो, तुम उसके निकट ही हो और परमात्मा के लिए कुछ भी असंभव नहीं है क्योंकि पहली
बात तो यह है कि उसने तुम्हें बनाया है और मैं वहां हूं नहीं.। यह बहुत कठिन
होता। यदि मैं वहां हूं मैं तभी तुम्हें नुकसान पहुंचाऊंगा। अहंकार ही नुकसान कर सकता
है। विशेषज्ञ केवल तुम्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं वे तुम्हें ठीक नहीं कर सकते।
तुम
बहुत से विशेषज्ञों के साथ रह रहे हो और उन्होंने जितनी भी हानि पहुंचाना संभव
है, वह हर
तरह की क्षति पहुंचा दी और अब तुम्हारी मरम्मत की जानी असंभव है, लेकिन नदी सागर में गिर सकती है और अकस्मात मधुर
रागिनी झंकृत हो सकती है। तुम्हारे अंदर से ही संगीत प्रकट होगा, एक ऐसा संगीत, जैसा तुमने आज तक न सुना होगा यह तुम्हारे ही अंदर छिपा हुआ था, बस अहंकार को इसके रास्ते से अलग हटा
देगा।
मैंने
सुना है। एक स्कूल का शिक्षक पहली कक्षा के छात्रों से पूछ रहा- ' ' घर पर तुम अपने परिवार की किस तरह की सहायता करते
हो? ' '
एक
छोटे लड़के ने कहा-' ' मैं
अपना बिस्तर खुद बिछाता हूं। ' '
दूसने
ने उत्तर दिया-' ' मैं
-लेटे धोता हूं और ऐसा वैसा काम कर देता हूं। ' ' लेकिन तब शिक्षक ने देखा कि एक छोटा बच्चा जॉनी
चुपचाप बैठा है इसलिए उसने उससे पूछा, ' ' जॉनी! तुम क्या करते हो? ' '
जानी
एक क्षण तो हिचकिचाया और तब उसने उत्तर दिया-' ' अधिकतर मैं अपने को रास्ते से अलग रखता हूं। ' '
अपने
आपको रास्ते सो बाहर रखो, बस
इतना ही सब कुछ है। तुम अपने और मेरे बीच में आओ ही मत। केवल अपने आपको रास्ते से
बाहर रखी। यदि तुम एक क्षण के लिए भी अपने को मन या अहंकार के रास्ते से अलग रख
सके तो चीजें घटेंगी ही। पुराना मरता है और नए का जन्म होता है।
आज बस
इतना ही!
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