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गुरुवार, 4 जून 2020

मनुष्य होने की कला--(A bird on the wing)-प्रवचन-02

न मन न सत्य-(प्रवचन-दूसरा) 
झेन बोध कथाएं-( A bird on the wing) 
मनुष्य होने की कला--(A bird on the wing) "Roots and Wings" - 10-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे।  उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा:
डोको नाम के नए साधक ने सदगुरु के निकट आकर पूछा-
''किस चित्त-दशा में मुझे सत्य की खोज करनी चाहिए?''
सदगुरू ने उत्तर दिया- '' वहां मन है ही नहीं, इसलिए तुम उसे
किसी भी दशा में नहीं रख सकते और न वहां कोई सत्य है? इसलिए
तुम उसे खोज नहीं सकते ''
डोको ने कहा- '' यदि वहां न कोई मन है और न कोई सत्य फिर
यह सभी शिक्षार्थी रोज आपके सामने क्यों सीखने के लिए आते हैं
सदगुरू ने चारों ओर देखा ओर कहा- '' में तो यहां किसी को भी
नहीं देख रहा।  ''
पूछने वाले ने अगला प्रश्न क्रिया- '' तब आप कौन है? जो शिक्षा
दे रहे है?''
सदगुरू ने उत्तर दिया- '' मेरे पास कोई जिह्वा ही नहीं फिर मैं

कैसे शिक्षा दे सकता हूं?''
तब डोको ने उदास होकर कहा- '' मैं आपका न तो अनुसरण
कर सकता हूं और न आप करे समझ सकता हूं ''
झेन सदगुरु ने कहा- '' मैं स्वयं अपने आपको नहीं समझ पाता।  ''

जीवन एक ऐसा रहस्य है, जिसे कोई नहीं समझ सकता और जो यह दावा करता है कि वह उसे समझता है तो वह बस एक अज्ञानी है। जो कुछ कह रहा है, वह उसके प्रति सजग नहीं है कि वह कितनी व्यर्थ की बात कर रहा है। 
यदि तुम बुद्धिमान हो तो तुम्हारा पहला अनुभव यही होगा कि जीवन को समझा नहीं जा सकता। उसे समझना असम्भव है। केवल इतना ही समझा जा सकता है कि समझना असम्भव है। 
जो यह सब कुछ है-इसी को यह बोधमय झेन वृत्तान्त बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त कर रहा है। 
सद्‌गुरु ने कहा-' मैं स्वयं अपने आपको नहीं समझ पाता। यदि तुम किसी भी बोध को उपलब्ध व्यक्ति के पास जाकर पूछो तो वह यही उत्तर देगा, लेकिन यदि तुम बोध को उपलब्ध न होने वाले व्यक्तियों से यही प्रश्न पूछो तो वे इसके बहुत सारे उत्तर देंगे वे बहुत से सिद्धान्त बघारेंगे वे उस रहस्य को सुलझाने की कोशिश करेंगे, जो कभी सुलझ नहीं सकता। यह कोई पहेली नहीं है। पहेली सुलझ भी सकती है, लेकिन रहस्य का हल न होना ही उसकी प्रकृति है-उसको हल करने का कोई उपाय ही नहीं। 
सुकरात ने कहा था-' ' जब मैं युवा था, मैं सोचता था कि मैं बहुत ज्यादा जानता हूं।  जब मैं आ हुआ और प्रज्ञा का फल पका, तब मैंने समझा कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
सूफी सद्‌गुरु जुन्नैद के बारे में यह कहा जाता है कि एक बार वह एक नए युवा के साथ कुछ कार्य कर रहा था।  वह युवा मनुष्य जुन्नैद की आंतरिक प्रज्ञा के बारे में कुछ भी नहीं जानता था और जुन्नैद इतनी अधिक सादगी से रहता था कि उसे महसूस करने के लिए बहुत अधिक मर्मवेधी और संवेदनशील दृष्टि की जरूरत थी कि वह लगभग एक बुद्ध ही है।  वह एक मामूली मजदूर की तरह काम करता था और जिनके पास आंखें थीं, सिर्फ वे ही उसे पहचान सकते थे। 
बुद्ध को पहचानना बहुत सरल है-वे एक बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए सरलता से पहचाने जा सकते हैं, लेकिन जुन्नैद को पहचानना बहुत कठिन है।  वह एक मजदूर की तरह काम कर रहा था और किसी बोधि वृक्ष के -नीचे नहीं बैठा था।  हर तरह से वह पूरी तरह बहुत साधारण था।  एक युवा मनुष्य भी उसके साथ कार्य कर रहा था और वह युवा निरन्तर अपनी जानकारी का प्रदर्शन करते हुए जुन्नैद जो कुछ भी करता उसके बोरे में टिप्पणी -करता जा रहा था-' यह तो गलत है।  इस काम को इस तरीके से ज्यादा अच्छी तरह किया जा सकता है। वह हर चीज के बारे में जानता था। 
अंत में जुन्नैद ने हंसते हुए कहा-' नौजवान! मैं इतना युवा नहीं हूं कि इतना अधिक जान सकूं।
वास्तव में यही कुछ चीज है।  उसने कहा-' मैं इतना युवा नहीं हूं कि इतना अधिक जान सकूं। केवल एक युवा मनुष्य ही इतना कम अनुभवी और मूर्ख हो सकता है। 
सुकरात ठीक ही कहता है-' जब मैं युवा था, मैं बहुत अधिक जानता था और जब अनुभवों ने मुझे थका दिया तो मुझे सिर्फ एक ही बात का अनुभव हुआ कि मैं पूरी तरह अज्ञानी हूं।
जीवन एक रहस्य है, जिसका अर्थ है-इसे सुलझाया नहीं जा सकता और जब उसे हल करने के सभी प्रयास व्यर्थ सिद्ध होते हैं तभी रहस्य, सुबह की तरह आलोकित होने लगता है।  तब सारे द्वार स्वयं खुल जाते हैं और तुम्हें आमंत्रित किया जाता है।  एक नहीं हो सकती।  शांति या मौन आंतरिक स्वास्थ्य है और मन है आंतरिक बीमारी और ज्ञानी की तरह कोई भी परमात्मा के घर में प्रविष्ट नहीं हो सकता और जब तुम अज्ञानी और बच्चे की तरह निर्दोष होते हो, रहस्य तुम्हें आलिंगन में लेता है।  जानने वाले मन के साथ तुम निर्दोष न होकर चालाक होते हो।  निर्दोषता ही उसका द्वार है। 
यह झेन सद्‌गुरु बिलकुल ठीक ही कह रहे हैं-' मैं स्वयं अपने आपको नहीं समझ सका।  यह बहुत गहरा, वास्तव में जितना भी गहरा होना सम्भव है, यह कथन उतना ही गहरा है, लेकिन यह तो उस वृत्तान्त का अंतिम भाग है।  इसे प्रारम्भ ही से शुरू किया जाए।
झेन सद्‌गुरु के पास एक शिष्य आकर पूछता है-' ' मन की किस दशा में मुझे सत्य की खोज करनी चाहिए? ' '
मन एक भ्रम है-जो है ही नहीं, लेकिन ऐसा लगता है कि वह है और वह अपने होने का इतना अधिक अहसास कराता है कि तुम सोचने लगते हो कि तुम ही मन हो।  मन एक माया है, मन ठीक एक सपने जैसा है, मन ठीक एक प्रक्षेपण की तरह है, वह एक साबुन के बुलबुले जैसा है, जिसके अंदर कुछ भी नहीं, लेकिन वह नदी के ऊपर तैरते एक साबुन के बुलबुले जैसा दिखाई देता है।  सूर्य बस उदित होने जा रहा है और उसकी पहली किरणें इस बुलबुले को बेधकर एक इन्द्रधनुष निर्मित कर रही हैं और उसके अन्दर है कुछ भी नहीं।  जब तुम बुलबुले को छूते हो तो वह टूट जाता है और हर चीज अदृश्य हो जाती है-वह इन्द्रधनुष, वह सौंदर्य, कुछ भी नहीं बचता। 
सिर्फ एक खालीपन और अनन्त सूक्ष्मता के साथ मिलकर वह एक हो जाता है।  जैसे ठीक एक दीवार थी वहां, बुलबुलों की दीवार।  तुम्हारा मन बुलबुलों की ठीक एक दीवार जैसा ही है, उसके अंदर तुम्हारा खालीपन है, उसके बाहर मेरा खालीपन है।  वह ठीक एकबुलबुले जैसा है, उसमें किसी नुकीली चीज को चुभाओ, वह बुलबुला रूपी मन विलुप्त हो जाएगा। 
सद्‌गुरु कहता है-' ' वहां कोई मन है ही नहीं, इसलिए उसकी किस दशा के बारे में पूछ रहे हो तुम? ' '
इसे समझना जरा कठिन है।  लोग मेरे पास आकर पूछते हैं-' ' हम मन की शांत दशा को उपलब्ध होना चाहते हैं।’‘
वे सोचते हैं कि मन शांत भी हो सकता है।  मन कभी शांत होता ही नहीं। 
मन का मतलब है-कौलाहल, बीमारी!
मन का मतलब है-तनाव और दुःखपूर्ण स्थिति!!
मन शांत हो ही नहीं सकता।  जब वहां शांति है, तभी अमन है।  जब शांति आती है, मन. विसर्जित हो जाता है।  जब वहां मन होता है तो शांति नहीं होती।  इसलिए वहां कोई शांत मन हो ही नहीं सकता, ठीक वैसे ही जैसे कोई स्वस्थ बीमारी नहीं हो सकती।  क्या एक स्वस्थ बीमारी होना सम्भव है? जब वहां स्वास्थ्य होता है, बीमारी

इसलिए शांत या मौन मन हो ही नहीं सकता और वह शिष्य पूछ रहा है- ‘‘ किस तरह और किस किस्म की मन की दशा में मुझे ' उसे ' प्राप्त कना चाहिए? '' सद्‌गुरु ने दो टूक उत्तर दिया-’‘वहां कोई मन है ही नहीं इसलिए तुम कोई भी दशा प्राप्त नहीं कर सकते।  इसलिए कृपया इस भ्रम को गिरा दें और मन की कोई भी दशा प्राप्त करने की कोशिश न करें। ’‘
यह ऐसा ही है जैसे यदि तुम इन्द्रधनुष की यात्रा करने की सोच रहे हो और तुम मुझसे पूछते हो-’‘ इन्द्रधनुष की यात्रा के लिए हमें क्या कदम उठाना चाहिए? में कहता हूं-कोई इन्द्रधनुष है ही नहीं।  इन्द्रधनुष तो ठीक एक आकृति है आकाश में, -इसलिए उस तक जाने को कोई कदम उठाया ही नहीं जा सकता।  एक इन्द्र धनुष केवल प्रकट होता है, वह वहां होता नहीं।  वह वास्तविक नहीं है।  वह वास्तविकता की झूठी व्याख्या है। ’‘
मन तुम्हारी वास्तविकता नहीं है।  वह एक झूठी व्याख्या है।  तुम मन हो ही नहीं।  तुम कभी मन हुए ही नहीं और न कभी हो ही सकते हो।  तुम्हारी यही समस्या है-तुमने किसी ऐसी चीज से तादात्मा जोड़ लिया है, जो वास्तव में है ही नहीं।  तुम उस भिखारी की तरह हो, जो यह विश्वास करता है कि उसके पास एक साम्राज्य है।  वह इस साम्राज्य के लिए इतना चिंतित है कि कैसे उसकी व्यवस्था की जाए कैसे शासन किया जाए और कैसे अराजकता को रोका जाए।  वहां कोई साम्राज्य है ही नहीं,
लेकिन वह परेशान है। 
च्यांग्त्सु ने एक बार स्वप्न देखा कि वह तितली बन गया है।  सुबह उठने पर वह बहुत उदास था।  उसके मित्रों ने पूछा-’‘ हुउग क्या? हमने आपको कभी इतना उदास
नहीं देखा।’‘
च्यांग्त्सु ने कहा-' ' मैं एक पहेली में उलझ गया हूं।  मैं उसे समझ नहीं पा रहा।   रात सोते हुए मैंने सपने में देखा कि मैं एक तितली बन गया हूं।’‘
उसके मित्रों ने हंसते हुए कहा-' ' सपनों से कोई भी परेशान नहीं होता।  अब तुम जाग गए हो, स्वप्न विसर्जित हो गया इसलिए तुम परेशान करों हो? ' '
च्यांग्त्सु ने कहा-' ' जरूरी बात यह नहीं है।  अब मेरी उलझन यह है कि यदि सपने में च्यांगत्थू एक तितली बन सकता है तो यह भी सम्भव है कि तितली सोने चली गई हो अगर वह सपना देख रही हो कि वह नाम? है।’‘
यदि च्यांग्त्सु सपने में तितली बन सकता है तो दूसरा क्यों नहीं? तितली भी तो स्वप्न में च्यांग्त्सु_ बन सकती है।  इसलिए वास्तविकता क्या है? प्यार? का देखा स्वप्न कि वह तितली बन गया है अथवा वह तितली, जो च्यांग्त्सु बनने का स्वप्न देख रही है? असली क्या है? वहां इन्द्रधनुष है। तुम सपने में एक तितली बन सकते हो और जिसे तुम जिन्दगी कहते हो उसके बड़े स्वप्न में तुम मन भी बन सकते हो। जब तुम जागते हो तो मन को जागी हुई दशा में नहीं पाते हो, तुम एक अमन की दशा में होते हो, तुम अमन को प्राप्त कर लेते हो। 
आखिर अमन का अर्थ क्या है? इसे समझना जरा कठिन है, लेकिन कभी- कभी अनजाने में तुम इस स्थिति में पहुंच जाते हो लेकिन तुम उसे शायद पहचानते नहीं हो। कभी-कभी बस साधारण रूप से बैठे हुए कुछ भी न करते हुए मन में एक भी विचार नहीं होता। जब वहां कोई विचार नहीं है तो मन कहां है? जब वहां कोई विचार नहीं है तो वहां मन भी नहीं है, क्योंकि मन ठीक एक विचार करने की प्रक्रिया है। वह कोई वस्तु नहीं है, वह ठीक विचारों का एक जुलूस जैसा है। तुम यहां हो, मैं कह सकता हूं कि एक भीड़ यहां है, लेकिन क्या वास्तव में वहां भीड़ जैसी कोई चीज है? क्या एक भीड़ महत्वपूर्ण है अथवा वहां केवल वैयक्तिक इकाइयां हैं? धीरे- धीरे
वैयक्तिक लोग चले जाएंगे, क्या तब पीछे वहां भीड़ रह जाएगी? जब एक-एक कर व्यक्ति चले गए तो भीड़ भी नहीं वहां। 
मन ठीक एक भीड़ की तरह है और विचार ही वैयक्तिक इकाइयां हैं क्योंकि विचार निरन्तर बने ही रहते हैं। तुम सोचते हो कि यह एक प्रक्रिया है, बहुत महत्वपूर्ण। प्रत्येक वैयक्तिक विचार को तुम गिरा दो और अंत में कुछ भी न बचेगा। वहां मन जैसी कोई चीज है ही नहीं, केवल सोचना- भर है। 
विचार इतनी तेजी से चलते हैं कि दो विचारों के मध्य तुम अंतराल नहीं देख सकते, लेकिन यह अंतराल हमेशा होता है। वह अंतराल तुम हो। उस अंतराल में न च्यांग्त्सु होते हैं और न तितली-क्योंकि तितली भी एक तरह का मन है और ज्वार? भी एक तरह का मन है। एक तितली विचारों का एक भिन्न जोड़ है, च्यांग्त्सु फिर दूसरे विचारों का जोड़ है, लेकिन दोनों हैं मन ही। जब मन नहीं होता तो तुम कौन हो, च्यांग्त्सु तितली? कोई भी नहीं। तब क्या दशा होती है? यदि तुम सोचते हो कि तुम बुद्धत्व वाली स्थिति में होते हो? यदि तुम सोचते हो कि तुम बुद्धत्व की चित्त दशा में हो तो यह फिर एक विचार है और जब विचार वहां है, तो तुम नहीं हो। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम बुद्ध हो तो यह एक विचार है। मन प्रविष्ट हो गया है, अब वहां प्रक्रिया भी है, आकाश फिर बादलों से घिर गया है और उसका नीलापन खो गया है। अब तुम अनन्त नीलिमा का विस्तार नहीं देख सकते हो। 
दो विचारों के मध्य सजग होने का प्रयास करो, उन दोनों के मध्य रिक्त स्थान और अंतराल में झांको तो तुम उसमें अमन देखोगे, जो तुम्हारा स्वभाव है। विचार आते हैं और चले जाते हैं-उनका आना एक संयोग है, लेकिन आंतरिक स्थान हमेशा ज्यों-का-त्यों अप्रभावित रहता है। बादल इकट्ठे होते हैं और चले जाते हैं, गायब भी हो जाते हैं-वे भी एक संयोग हैं-लेकिन आकाश वही और ज्यों का त्यों रहता है।   तुम्हीं वह आकाश हो। 
एक बार ऐसा हुआ कि एक शिष्य, सूफी सद्‌गुरु बायजीद के पास आया और उसने कहा-' ' प्यारे सद्‌गुरु! मैं बहुत क्रोधी हूं। मुझे क्रोध बहुत आसानी से आ जाता है और मैं वास्तव में पागल हो जाता हूं तब मैं कुछ ऐसी चीजें कर बैठता हूं जिन पर बाद में मुझे भी विश्वास नहीं होता कि मैं ऐसी चीजें भी कर सकता हूं। मैं अपने होश में नहीं रह पाता। इसलिए कृपया बताएं कि मैं इससे कैसे छुटकारा पाऊं, यह कैसे गिरे और मैं कैसे इसे काबू में करूं? ' '
बायजीद ने उसका सिर अपने दोनों हाथों में पकड़ा और उसकी आंखों में झांकने लगा। वह शिष्य थोड़ा बेचैन हो गया। 
बायजीद ने उससे पूछा-' ' तेरा क्रोध आखिर है कहां? मैं उसके अंदर जरा झांकना चाहता हूं।’'
वह शिष्य बेचैन होकर भी हंसते हुए बोला-' ' ठीक इस वक्त तो मैं क्रोध में नहीं हूं। कभी-कभी ही ऐसा होता है।’‘
बायजीद ने कहा- ' ' जो कभी-कभी होता है, वह तेरा स्वभाव नहीं है। यह मात्र संयोग है। यह आता है और चला जाता है। यह ठीक बादलों जैसा है-इसलिए बादलों के बारे में परेशान होने की क्या बात? तू उस आसमान के बारे में सोच, जो हमेशा वहीं रहता है।’‘
यह आत्मा की परिभाषा है-जो आकाश वहां सदा रहता है। वह सब जो आता है और चला जाता है, अप्रासंगिक है। उसके बारे में फिक्र क्या करना, वह तो बस धुंआ है। जो आसमान शाश्वत रूप से बना रहता है, कभी नहीं बदलता, कभी अलग नहीं होता। दो विचारों के बीच उसे ( क्रोध को) गिरा दे, दो विचारों के बीच हमेशा खुला आसमान होता है। उसी में देखते हुए तुम्हें अचानक यह अनुभव होगा कि तुम अमन में हो। 
सद्‌गुरु बिलकुल ठीक है, जब वह कहता है-वहां मन है ही नहीं, इसलिए उसकी कोई दशा हो ही नहीं सकती। तुम व्यर्थ की बात क्यों कर रहे हो? लेकिन व्यर्थ की बातों का भी अपना एक तर्क होता है। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारे पास मन है तो तुम उसकी दशाओं के बारे में सोचना शुरू कर दोगे-चित्त की अज्ञानी दशा, चित्त की बोधपूर्ण दशा, चित्त की विक्षिप्त दशा और मन की शांत दशा। एक बार तुम मन को स्वीकार कर लो, भले ही वह भ्रम हो, तुम उसे बांटने के लिए बाध्य हो। एकबार तुमने स्वीकार कर लिया कि मन वहां है, तुम उसके बारे में कुछ न कुछ खोजना शुरू कर दोगे। 
मन केवल तभी रह सकता है, जब तुम उसके बारे में निरन्तर कुछ खोजते रहो। मनुष्य होने की कला आखिर क्यों? यह इसलिए क्योंकि खोजना एक कामना है, खोजने का अथ है- भविष्य की ओर गतिशील होना और खोजने से उत्पन्न होते हैं स्वप्न। इसलिए कोई शक्ति खोज रहा है, राजनीति में-जाकर कोई वैभव और साम्राज्य खोज रहा है और तब कोई ऐसा भी है जो सत्य खोज रहा है, लेकिन खोजना वहां चल रहा है और खोजना ही एक समस्या है और सवाल इसका नहीं कि तुम क्या सोच रहे हो। कोई भी वस्तु कभी कोई समस्या नहीं होती, किसी भी वस्तु से काम हो जाएगा। मन किसी भी वस्तु को खूंटी बनाकर लटक सकता है, उसे अपने जीने के लिए कोई भी बहाना काफी है।   सद्‌गुरु ने कहा-' ' वहां मन की दशा जैसी कोई चीज है ही नहीं, क्योंकि वहां मन ही नहीं है। वहां कोई सत्य भी नहीं है, इसलिए तुम उसके -बारे में सोचते क्या हो? वहां कुछ भी खोजना हो ही नहीं सकता।’‘
यह सबसे महान सन्देशों में से एक है, जो अभी तक दिए गए हैं। यह बहुत कठिन है। शिष्य यह कल्पना तक नहीं कर सकते कि कहीं कोई सत्य है ही नहीं।   आखिर सद्‌गुरु के इस कहने का क्या अर्थ है, जब वह कहता है कि वहां कोई सत्य भी नहीं है। क्या इसका यह अर्थ है कि वहां कोई सत्य है ही नहीं। नहीं, वह कह रहा है कि तुम्हारे लिए जो उसे खोज रहे हो, वहां कोई सत्य नहीं हो सकता। खोज हमेशा असत्य की ओर ले जाती है। केवल न खोजने वाला चित्त ही यह अनुभव करता है कि
'
जो है' उसे लिए जब तुम खोजते हो तो उससे चूक जाते हो, जो वास्तव में है। खोजना
हमेशा भविष्य की ओर ले जाता है। खोज अभी और यहीं नहीं हो सकती। तुम यहां और अभी खोज ही कैसे सकते हो? तुम केवल हो सकते हो। खोजना एक कामना है- भविष्य के प्रविष्ट होते ही उसके साथ समय आता है... और इस क्षण अभी और यहीं से तुम चूक जाते हो। सत्य तो अभी और यहीं है। 
यदि तुम एक बुद्ध के पास जाकर पूछो-' ' क्या वहां परमात्मा है? ' ' वह तुरन्त उससे इन्कार कर देगा-वहां कोई परमात्मा नहीं है। यदि वह कहता है-' हां है तो वह एक खोजी निर्मित करता है, यदि वह कहता है-' हां, परमात्मा है तो तुम उसे खोजना शुरू कर दोगे। तुम कैसे शांत बैठ सकते हो, जब वहां होने वाले परमात्मा की खोज करनी है, तुम कहां जाओगे भागकर ए तुमने अब एक दूसरा भ्रम खड़ा कर लिया
इसलिए बुद्ध कहते हैं-' ' वहां कोई परमात्मा है ही नहीं।’‘ उन्हें कोई न समझ सका। लोगों ने सोचा-वह नास्तिक है। वह परमात्मा .से इन्कार नहीं कर रहे हैं। वह केवल खोजने वाले को नकार रहे हैं, लेकिन उन्होंने कहा होता कि वहां परमात्मा है तो वहां खोजी भी उत्पन्न हो गए होते और खोजने वाला ही संसार है और जो वह खोज रहा है, वह सभी कुछ माया है। लाखों जन्मों से तुम खोज ही रहे हो, भाग ही रहे हो- कभी इसके पीछे कभी उसके पीछे, कभी इस वस्तु के लिए तो कभी उस वस्तु के होने की कला लिए इस संसार के लिए या उस संसार के लिए लेकिन तुम खोज रहे हो। 
अब तुम सत्य को खोज रहे हो, लेकिन सद्‌गुरु कहते हैं-वहां कोई भी सत्य नहीं है। वह खोजने का सारा आधार ही मिटा देते हैं। वह नीचे से वह जमीन हटा देते हैं, जिस पर तुम खड़े हुए हो, जिस पर तुम्हारा मन टिका हुआ है। वह बस तुम्हें खाई में धकेल देते हैं। 
उस खोजी ने कहा-' ' तब इतने सारे खोजी आपके चारों ओर क्यों बैठे हुए हैं? यदि न कुछ खोजने के लिए है और न कहीं सत्य है तब यह इतनी भीड़ क्यों? ' ' सद्‌गुरु के चारों ओर बैठे लोगों में तुम भी जरूर रहे होंगे। कोई मेरे पास आता है तो मैं कहता हूं-' ' खोजने को वहां कुछ है ही नहीं। कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे खोजा जाए क्योंकि वहां खोजने को कुछ भी तो नहीं है।’‘ वह फिर पूछने के लिए बाध्य होगा ही-' ' तब ये संन्यासी यहां क्यों बैठे हैं। आखिर ये यहां कर क्या रहे हैं? ' '
लेकिन वह खोजी आवश्यक बात से चूके चला जाता है। सद्‌गुरु ने चारों ओर देखा और कहा--'' मैं तो यहां किसी को भी नहीं देख रहा, यहां कोई है ही नहीं।’‘ वह खोजी आवश्यक मुद्दे से चूक रहा है, क्योंकि बुद्धि निरन्तर चूके ही चली जाती है। यदि वह वास्तव में देख पाता, यही वास्तविक तथ्य था कि वहां कोई था ही नहीं। 
तुम दो तरह से हो सकते हो और यदि तुम खोज रहे हो तो तुम ठीक पहले एक पर हो। यदि तुम नहीं खोज रहे हो तो तुम हो ही नहीं। खोजना तुम्हें अहंकार देता है।   ठीक इस क्षण यदि तुम किसी चीज या किसी व्यक्ति को नहीं खोज रहे हो तो तुम यहां हो ही नहीं, यहां कोई भी भीड़ नहीं है। यदि मैं कुछ भी नहीं सिखा रहा हूँ-क्योंकि वहां कुछ भी सीखने जैसा है ही नहीं और जो सिखाया जा सके, वह सत्य नहीं है तो यदि मैं कुछ भी नहीं सिखा रहा हूं और तुम भी कुछ नहीं सीख रहे हो, फिर यहां है कौन? केवल खालीपन या शून्यता है यहां और है शुद्ध शून्यता या परमानन्द। वैयक्तिक रूप से सभी मिट जाते हैं और तब वह गहरे सागर जैसी चेतना बन जाती है। 
लोग व्यक्तिगत रूप से वहां हैं, क्योंकि प्रत्येक के पास व्यक्तिगत मन है। तुम्हारी कामना भिन्न है, इसी वजह से तुम अपने पड़ोसी से भिन्न हो, क्योंकि कामना से ही विशिष्टता और भेद उत्पन्न होते हैं। मैं कुछ और खोज रहा हूं तुम कुछ और खोज रहे हो, मेरा मार्ग तुम्हारे मार्ग से भिन्न है, मेरा लक्ष्य तुमसे अलग है। इसी वजह से मैं तुमसे भिन्न हूं। यदि मैं कुछ भी नहीं खोज रहा हूं और न तुम कुछ खोज रहे हो तो लक्ष्य मिट जाते हैं, मार्ग भी नहीं रह जाते, फिर मन कैसे रह सकता है? प्याला ही टूट गया। मेरी चाय बहती हुई तुममें और तुम्हारी चाय बहती हुई मेरे में समा जाती है। वह फिर सागर जैसा अस्तित्व बन जाता है। 
सद्‌गुरु ने चारों ओर देखा और कहा-' ' मैं तो यहां किसी को भी नहीं देख रहा, यहां कोई है ही नहीं।’‘
बुद्धि चूके ही चले जाती है और उस खोजी ने कहा-' ' तब आप किन्हें सिखा रहे हैं? यदि वहां कोई है ही नहीं, तब आप किन लोगों से बात कर रहे हैं? ' '
और सद्‌गुरु ने कहा-' ' मेरे पास कोई जीभ ही नहीं इसलिए मैं कैसे सिखा सकता हूं? '' सद्‌गुरु उसे देखने तथा उसे सजग बनाने के निरन्तर संकेत देता जा रहा है, लेकिन खोजी अपने ही मन की गहरी खाई में सरिता जा रहा है। सद्‌गुरु उसे संकेत देता जा रहा है, उसके सिर पर चोट करता जा रहा है और मन से बाहर लाने के लिए उसे बता रहा है कि वह व्यर्थ की बातों में उलझा हुआ है। 
यदि तुम वहां रहे होते तो तुम भी उस सद्‌गुरु से सहमत न होकर उस पूछने वाले से ही सहमत हुए होते। वह पूछने वाला ही तुम्हें बिलकुल ठीक लगा होता। यह सद्‌गुरु तो तुम्हें पागल और झक्की लगता है। वह बात भी कर रहा है और कह रहा है-वहां कोई जिह्वा ही नहीं इसलिए मैं कैसे बात कर सकता हूं? वह कह रहा है-मेरा कोई शरीर ही नहीं, फिर कैसे मैं चल सकता हूं कैसे मैं बात कर सकता हूं?
वह कह रहा है-मेरी ओर देखो, मैं बिना रूप और आकृति के अरूप हूं। मैं शरीर में आबद्ध नहीं हूं। तुम्हें जो शरीर दिखाई देता है, लेकिन मैं नहीं हूं इसलिए कैसे मैं बात कर सकता हूं?
' मन चूके ही चले जाता है। मन के साथ यही मुसीबत है। तुम उसे धक्का दो, वह फिर इकट्ठे कर लेता है विचार तुम उस पर चोट करो, बस एक क्षण के लिए वहां थोड़ा-सा हिलना और कांपना होता है और वह फिर ज्यों का त्यों अपने को स्थापित कर लेता है। 
क्या तुमने वह जापानी गुड़िया देखी है, जिसे ' दरूमा डल ' कहते हैं? तुम उसे उल्टी-सीधी किसी भी स्थिति में फेंक दो, उसका सिर भले ही नीचे और पैर ऊपर कर दो, लेकिन तुम कुछ भी करो उसके साथ, गुड़िया बुद्ध की मुद्रा में ही बैठ जाती है।   उसकी तली इतनी भारी होती है कि तुम उसके साथ कुछ कर ही नहीं सकते। उसे किसी भी तरह से फेंक दो, गुड़िया बुद्ध की मुद्रा में ही बैठ जाती है। यह ' दरूमा ' नाम बोधिधर्म से ही आया है। जापान में बोधिधर्म का नाम दरूमा ही है। दरूमा कहा करता था, अर्थात बोधिधर्म कहा करता था कि तुम्हारा मन ठीक इस दरूमा गुड़िया जैसा ही है। वह अपने पास एक ऐसी ही गुड़िया रखता था जिसे वह कभी फेंक देता था, कभी ठोकर मारता था लेकिन वह कुछ भी करे-गुड़िया की मुद्रा जस-की-तस रहती थी-उसका नीचे का भाग इतना अधिक भारी था कि तुम्हारे ऊपर नीचे फेंकने पर भी वह ज्यों-का-त्यों बना रहता था। 
यह सद्‌गुरु भी उस पूछने वाले को धकेदे रहा है। वह थोड़ा-सा हिलता है औरफिर गुड़िया की तरह ज्यों-का-त्यों बैठ जाता है। वह हर बात से चूके ही जा रहा है। अंत में निराश होकर पूछने वाला कहता है- ' ' मैं आपकी बात का अनुसरण ही नहीं कर पा रहा हूं। मैं कुछ भी समझ ही नहीं पा रहा हूं।’‘
और सद्‌गुरु अंतिम चोट मारता हुआ कहता है- ' ' मैं स्वयं को नहीं समझ पा
रहा हूं। 
यह भली- भांति जानते हुए भी कि कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता। मैं तुम्हें सीख दिए जा रहा हूं। यही वजह है कि मैं अनन्त तक जा सकता हूं। यदि वहां कुछ भी ऐसा होता, जो सिखाया जा सकता तो उसे मैंने पहले ही सिखा दिया होता। यह एक अंतहीन कहानी है। इसका कभी निष्कर्ष निकलता ही नहीं, इसलिए मैं कहे चला जाता हूं। यह कभी समाप्त होगी ही नहीं। कहानी के समाप्त होने से पहले तुम समाप्त हो सकते हो, लेकिन इसका कोई अंत नहीं। 
कोई मुझसे पूछ रहा था-' ' आप प्रतिदिन क्यों बोले चले जाते हैं? ' ' मैंने कहा- क्योंकि वहां कुछ भी सिखाने जैसा है ही नहीं। 
किसी दिन अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि मैं नहीं बोल रहा हूं और न मैं कुछ
सिखा रहा हूं। वहां कुछ ऐसा है ही नहीं जो सिखाया जा सके क्योंकि वहां सत्य है ही
नहीं। 
मैं तुम्हें कौन-सा अनुशासन दे रहा हूं? कोई भी नहीं। एक अनुशासित मन आखिर फिर मन ही है., बल्कि और अधिक दुराग्रही, अधिक हठीला और कहीं अधिक बेवकूफ है। जाओ और पूरे संसार में जाकर जरा अनुशासित भिक्षुओं और साधुओं को देखो-ईसाई हिन्दू जैन सभी धर्मों के संन्यासियों को। जहां कहीं भी तुम ऐसा आदमी देखते हो जो पूरी तरह अनुशासित हो, तुम उसके पीछे एक मूढ़ मन पाओगे। उसका प्रवाह रुक गया है। उसकी कोई भी चीज प्राप्त करने की दिलचस्पी इतनी अधिक है कि उससे जो भी करने को कहो, वह उसके लिए तैयार है। यदि तुम कहो-' सिर के बल एक घंटे खड़े रहो तो वह सिर के बल खड़े होने को तैयार है। ऐसा उसकी कामना के कारण है। यदि घंटों सिर के बल खड़ा होने से परमात्मा मिल सकता है तो वह इसके
लिए तैयार है, लेकिन उसे प्राप्त जरूर करता है। 
मैं तुम्हें कुछ ऐसा नहीं दे रहा हूं जिससे तुम कहीं पहुंचकर अपनी कामना की पूर्ति कर सको क्योंकि वहां न कुछ पहुंचने जैसा है और न कुछ पाने जैसा। यदि तुम इस बात का अनुभव कर लो तो तुम इसी क्षण वहां पहुंच गए। अभी इसी क्षण तुम पूर्ण हो, न इसके लिए कुछ करना है और न कुछ बदलना है। तुम अभी इसी क्षण पूर्ण ब्रह्म हो। 
इसी वजह से सद्‌गुरु ने कहा-' ' मैं स्वयं अपने आपको नहीं जानता।’‘ ऐसा सद्‌गुरु खोजना कठिन है जो कहता हो-मैं स्वयं को ही नहीं समझता। एक सद्‌गुरु के लिए यह दावा जरूरी है कि वह जानता है, केवल तभी तुम उसका अनुसरण करोगे। एक सद्‌गुरु के लिए इतना ही जरूरी नहीं है कि वह जानता है, उसके लिए यह दावा करना भी जरूरी है कि कोई और नहीं जानता और केवल वही जानता है। दूसरे अन्य सभी सद्‌गुरु गलत हैं और केवल वह अकेला जानता है। तभी तुम उसका अनुसरण करोगे। तुम्हें पूरी तरह निश्चित होना जरूरी है, तुम तभी उसके शिष्य बनोगे,। सुनिश्चित तुम्हें एक अहसास कराती है कि यहाँ है वह आदमी, जिसका अनुसरण कर मैं पहुंच जाऊंगा। 
में तुम्हें एक कहानी सुनाना चाहूंगा। एक बार ऐसा हुआ कि एक तथाकथित गुरु सफर पर निकला। वह हर गांव में जाकर यह घोषणा करता-' ' मैंने उसे पा लिया है।   मैं जानता हूं परमात्मा को। यदि तुम भी चाहते हो तो आओ और मेरा अनुसरण करो। ’' लोग उससे कहते-' ' अभी यहां बहुत-सी जिम्मेदारियां निभानी हैं। किसी दिन हमें आशा है कि हम आपका अनुसरण करने में समर्थ हो सकेंगे। ’' वे लोग उसके पैर छूते, उसे आदर देते, उसकी सेवा करते लेकिन कोई भी अनुसरण नहीं करता, क्योंकि उनके लिए ऐसी बहुत-सी दूसरी चीजें थीं, जिन्हें पहले -करना था। उन्हें करने से पहले वे कैसे परमात्मा को खोजने जा सकते थे। जो चीजें पहले हैं, उन्हें निबटाना है। परमात्मा तो हमेशा आखिर में आता है और आखिरी चीज 'कभी आती नहीं, क्योंकि
पहली चीजें ही अनन्त हैं और वे कभी खत्म होने पर आती ही नहीं। लेकिन एक गांव में एक पागल आदमी था-पागल ही था वह, अन्यथा कौन ऐसे गुरु का अनुसरण करता। 
उसने गुरु से कहा-' ' बिल्कुल  ठीक। क्या आपने पालिया? '' गुरु थोडा झिझके- और उस पागल आदमी की ओर देखा-क्योंकि यह आदमी खतरनाक दिखाई दे रहा था, यह शख्स अनुसरण कर सकता है और मुसीबत खड़ी कर सकता है-लेकिन पूरे गांव के सामने वह इन्कार. भी नहीं कर सके। इसलिए उन्होंने कहा-' ' हां, मैंने पा लिया। ’'
उस पागल आदमी ने कहा-' ' अब आप मुझे दीक्षा दीजिए। मैं आपका आखिर तक अनुसरण करूंगा। मैं परमात्मा को प्राप्त करना -चाहता हूं। ’'
वह तथाकथित गुरु व्याकुल हो उठा, लेकिन क्या किया जा. सकता था? उस पागल आदमी ने उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया। वह उनकी छाया बन गया। एक साल गुजरने पर उस पागल आदमी ने कहा-' ' कितनी दूर, आखिरी कितनी दूर है परमात्मा का मंदिर? मैं किसी जल्दी मैं नहीं हूं लेकिन फिर भी कितने समय की जरूरत होगी?''
अब तक वह गुरुजी बहुत अधिक असुविधा और परेशानी का उसके साथ रहते का अनुभव कर चुके थे। वह पागल आदमी उन्हीं के साथ सोता, उन्हीं के साथ चलता। वह उनकी छाया बन गया था। इस आदमी के कारण उनकी परमात्मा को पाने की सुनिश्चितता की बात मद्धिम होती जा रही थी। वह जिस किसी गांव में घोषणा करते-' मेरा अनुसरण करो  तो यह कहते हुए वे डर जाते क्योंकि यह पागल आदमी कभी भी कह सकता था-' ' गुरुजी, मैं आपका इतने दिनों से अनुसरण कर रहा हूं और मैं अभी तक नहीं पहुंचा।’‘
दूसरा साल भी गुजर गया और फिर तीसरा भी। इसी तरह छ: साल गुजर गए। एक दिन उस पागल आदमी ने कहा-' ' हम लोग तो कहीं भी नहीं पहुंचे। हम लोग सिर्फ गांवों में यात्रा कर रहे हैं और आप लोगों से कहते हैं-मेरा अनुसरण करो, मैं अनुसरण कर भी रहा हूं- आप जो कुछ कहते हैं, मैं वह सब कुछ करता हूं इसलिए आप यह भी नहीं कह सकते कि मैं अनुशासन का पालन नहीं कर रहा हूँ।’‘
वह पागल आदमी वास्तव में पागल था, इसलिए जो कुछ करने के लिए उससे कहा जाता था, वह उसे करता था। इसलिए गुरुजी यह कहते हुए कि वह आज्ञा का ठीक से पालन नहीं कर रहा है, .उसे न तो धोखा दे सकते थे और न टाल सकते थे।   आखिर में एक रात गुरुजी ने उससे कहा-' ' तुम्हारे कारण मैंने अपना मार्ग हो खो दिया। तुमसे मिलने से पहले मुझे निश्चित था कि मैंने उसे पा लिया, लेकिन अब ऐसा नहीं .रहा। अब कृपया आप पीछा छोड़े।’‘
जहां कहीं कोई कुछ निश्चयात्मकता से कहता है और तुम चूंकि पहले ही से काफी परेशान हो, तुम उसका अनुसरण करना शुरू कर देते हो। क्या तुम ऐसे व्यक्ति का अनुसरण कर सकते हो, जो कहता हो-' ' मैं स्वयं को ही नहीं जानता। मैं स्वयं को ही नहीं समझ सकता।’‘ यदि तुम ऐसे व्यक्ति का अनुसरण कर सकते हो तो तुम जरूर पहुंचोगे। तुम पहले ही पहुंच चुके हो, यदि तुमने इस आदमी का अनुसरण करना तय कर लिया है और उस मन के लिए जो यकीन मांगता है, उस मन के लिए जो ज्ञान मांगता है और मन के लिए जो अधिकृत दावेदारी मांगता है, उसे गिरा दिया है। इसलिए यदि तुम ऐसे व्यक्ति का अनुसरण करने के लिए तैयार हो सकते हो जो कहता है- 'मैं स्वयं अपने आपको नहीं जानता तो सारी खोज ही समाप्त हो जाती है और अब तुम जानकारी बढ़ाने के लिए नहीं पूछ रहे हो।
वह व्यक्ति जो जानकारी बढ़ाने के लिए पूछ रहा है, वह अस्तित्व के बारे में पूछ ही नहीं सकता। सारी जानकारियां और ज्ञान कूड़ा करकट है और अस्तित्व ही जीवन है। जब तुमने जानकारी बढ़ाने के लिए पूछना बंद कर दिया, तुमने सत्य के बारे में भी पूछना बंद कर दिया, क्योंकि सत्य पाने के लिए तुम्हारा लक्ष्य ज्ञान ही था। यदि तुम यह नहीं पूछ रहे हो कि ' यह क्या है ' तो वस्तुत: तुम इतने अधिक अमन की स्थिति में होते हुए शांत हो कि ' वह जो है '-वह स्वयं अपने रहस्य खोल देगा। 
मैं स्वयं भी यही कहता हूं कि मैं नहीं जानता और तुम मेरे से अधिक अज्ञानी मनुष्य के सम्पर्क में अभी तक आए भी नहीं होगे। वहां न तो कोई सत्य है और न उसे पाने का कोई मार्ग है। मैं अभी तक कहीं नहीं पहुंचा हूं मैं तो बस अभी और यहीं हूं। यदि तुम इस अज्ञानी मनुष्य का अनुसरण कर सकते हो तो तुम्हारा मन गिर जाएगा। मन हमेशा ज्ञान का अनुसरण करता है और जब मन गिर जाता है तो कहीं भी जाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अब हर चीज उपलब्ध है, वह हमेशा पहले ही से उपलब्ध रही है और तुमने उसे कभी खोया ही नहीं है। बस केवल अपनी खोज के कारण ही तुम उसकी ओर देख ही नहीं सकते थे। तुम्हारा मन भविष्य की ओर, लक्ष्य की ओर केन्द्रित था और तुम उसकी ओर देखते ही नहीं थे। तुम्हें सत्य चारों ओर से घेरे हुए है, तुम उसी में रहते हो। ठीक उस मछली की तरह जो समुद्र ही में रहती है, तुम भी सत्य के मध्य ही रहते हो। परमात्मा कोई लक्ष्य नहीं है। परमात्मा जैसा भी है वह अभी और
यहां है। ये वृक्ष, यह डोलती पवन, यह घिरते हुए बादल, यह अनन्त मुक्ताकाश, तुम और मैं-यही है वह, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। वह कोई लक्ष्य नहीं है। 
मन को गिराओ तो तुम हो गए प्राप्त भगवत्ता को। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है, वह तो अस्तित्व के साथ एक हो जाने की लीनता है। मन लीनता के विरुद्ध अवरोध खड़े करता है, वह समर्पण के विरुद्ध है। मन बहुत चालाक और हिसाबी-किताबी है। यह कहानी बहुत सुन्दर है। तुम्हीं खोजी हो। तुम्हीं मेरे पास यह पूछने आए हो कि सत्य को कैसे प्राप्त किया जाए। तुम्हीं मेरे पास यह जानने के लिए आए हो किंचित की उस दशा तक कैसे पहुंचा जाए जो आनन्दपूर्ण है। तुम्हीं मेरे पास आए हो उस रहस्य को हल करने के लिए ज्ञान प्राप्त करने। मैं फिर से दोहरा दूं-वहां मन की कोई दशा होती ही नहीं क्योंकि वहां न कोई मन है और न कोई सत्य, इसलिए खोज करने की इजाजत नहीं है। सभी खोज व्यर्थ है। खोज करना ही एक बेवकूफी है। तुमने
खोजा और तुम उसे खो दोगे। उसे खोजो ही मत। वह वहां है ही। तुम दौड़े और तुम उसे खो दोगे। रुक जाओ, वह हमेशा से वहां है ही। उसे जानने या समझने की भी कोशिश मत करो-तुम उसी से घिरे हुए हो। इसके लिए समझ भी थोड़ी है। बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध ने कुछ अधिक नहीं जाना। तुम उससे अधिक जानते हो। 
बहुत से ज्ञानी पंडित बुद्ध के पास आए वे बुद्ध से अधिक जानते थे। महाकाश्यप आया। वह एक महान विद्वान था। सारिपुत्र आया। वह भी बहुत बड़ा ज्ञानी था। जब सारिपुत्र आया तो उसके साथ उसके पांच सौ शिष्य भी आए। वह पूरे देश में विख्यात
था। 
जब सारिपुत्र ने कहा-' ' मैं आपके पास इसलिए आया हूं जिससे आप मुझे वह दें जो ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञान तो मेरे पास काफी है... '' और वास्तव में वह बुद्ध से अधिक जानता था। वह महान ब्राह्मण पंडित था और सभी शास्त्रों का ज्ञाता था। वचनों में बहुत गहराई और सूक्ष्मता से अंदर उतरने की उसकी गहरी पैठ थी। वेद तो उसकी जिह्वा पर थे और वह उनका पाठ कर सकता था, लेकिन उसने बुद्ध से कहा-'' मुझे कुछ ऐसा दीजिए जो ज्ञान से बढ़कर हो। ज्ञान तो मेरे पास बहुत अधिक लेकिन मैं उससे ऊब चुका हूं।’‘
और बुद्ध ने क्या कहा सारिपुत्र से? उन्होंने कहा-' ' सीखे को अनसीखा करो।   नान को गिरा दो और जो उससे बढ़कर है वह तुममें स्वयं घटेगा।’‘
एक सच्चा सद्‌गुरु तुम्हें सीखे हुए को अनसीखा करना सिखाता है। यह कभी ''सीखने जैसा नहीं है। तुम मेरे पास, जो कुछ भी तुम जानते हो उसे अनसीखा बनाने के लिए ही आए हो। कृपया उसे गिरा दो। एक छोटे बच्चे की तरह अज्ञानी बन जाओ।   केवल बच्चे जैसा हृदय ही परमात्मा का द्वार खटखटा सकता है और परमात्मा केवल बच्चे के हृदय की धड़कनों की आवाज को ही सुनता है। तुम्हारी प्रार्थनाएं नहीं सुनी जा पकती, वे केवल चालबाजियों से भरी हैं। केवल एक बच्चे का हृदय ही जो कुछ भी नहीं जानता, उस तक पहुंच सकता है। 
इस वृत्तान्त का यही अर्थ है और यही तुम्हारे लिए भी उचित है क्योंकि तुम्हारा मामला भी उस पूछने वाले जैसा ही है। 
कुछ और...!

प्रश्न: प्यारे ओशो- आपने ठीक अभी हमें बताया कि-आपके पास
हम लोगों को सिखाने जैसा कुछ भी नहीं और पिछली रात हम लोगों
को यह सुनकर गहरा धक्का लगा था जब आपने कहा था कि जहां
तक आपका सम्बन्ध है? आप अपना कार्य पूरा कर चुके है और आय
अपने शरीर में हम लोगों के लिए ही बने हुए हैं युवा जीसस ने कहा
था- मैं पिता द्वारा सौंपे गए गए धंधे के कारण ही यहां हूं
ओशो? आयकर क्या धंधा है अथवा क्या धंधा था?

जब मैं कहता हूं-मेरा कार्य पूरा हो चुका तो इसका अर्थ है कि मेरी कोई भी खोज अब समाप्त हो गई है। मेरा अर्थ है कि यह मैंने अनुभव से जाना है कि कुछ भी प्राप्त करने जैसा है ही नहीं, कुछ भी जानने जैसा है ही नहीं और न कहीं और जाना ही है। यह क्षण ही काफी है और यही क्षण शाश्वत है। जब मैं कहता हूं कि मेरा कार्य पूरा हो चुका तो इसका अर्थ है कि अब मेरी कोई कामना नहीं है। 
कामना ही व्यापार का धंधा है। तुम्हें कुछ काम करना है और केवल तुम तभी प्रसन्न होंगे। मैं बस आनन्दित हूं। इसका सम्बन्ध मेरे कुछ करने से नहीं है, अब वह अकारण होता है-तुम्हारा कोई मित्र तुम्हारे पास है, तुम्हारी प्रेमिका तुम्हारे पास लौटकर आई है और तुम प्रसन्न हो, तुमने कोई लॉटरी जीत ली है और तुम प्रसन्न हो। वहां कारण हैं, वे तुम्हारे पार हैं, वे तुमसे बाहर हैं-तुम्हारी प्रसन्नता बाहर से आती है। इनका कोई कारण है और जिनका कोई कारण होता है, वे हमेशा नहीं बनी रह सकतीं।   प्रेमिका वापस चली जाएगी, मित्र, शत्रु में परिवर्तित हो सकता है और जो कुछ भी तुमने प्राप्त किया, वह खो भी सकता है। जिसका कारण है वह वहां हमेशा नहीं रह सकता, वह शाश्वत नहीं हो सकता। 
जब मैं कहता हूँ कि मेरा कार्य पूरा हो चुका तो इसका अर्थ है कि अब मेरी प्रसन्नता अकारण है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मुझे आनन्दित बनाने में सहायक हो।   मैं बस आनन्दित हूं। यह मुझसे छीना नहीं जा सकता। यदि इसका कोई कारण नहीं है तो तुम इसे अनकिया नहीं कर सकते। तुम इसके साथ कुछ भी नहीं कर सकते, यह तुम्हारे बस से बाहर है और इसे नष्ट नहीं किया जा सकता। मेरा कार्य तो समाप्त हो चुका। जब मैं कहता हूं कि मेरा कार्य-व्यापार समाप्त हो चुका तो मैं भी समाप्त हो चुका क्योंकि मैं केवल कार्य-व्यापार के साथ ही जीवित रह सकता हूं। तब मैं क्यों हूं यहां? यह पुराने प्रश्नों में से एक है। 
बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद बुद्ध चालीस वर्ष जीवित रहे। अपना काम- धंधा समाप्त करने के बाद भी वे चालीस वर्ष और जिए। 
कई बार यह पूछा जाता है- ' ' आप क्यों हैं यहां? ' ' जब आपका कार्य-व्यापार
समाप्त हो चुका तो आपको तो मिट जाना चाहिए। यह अतर्कपूर्ण लगता है। बुद्ध को
एक क्षण भी शरीर में क्यों बने रहना चाहिए? जब कोई कामना ही न रही तो शरीर कैसे
जीवित रह सकता है?
कुछ ऐसी चीज है जो बहुत गहराई मेँ समझना आवश्यक है। जब कामना मिट जाती है तो वह ऊर्जा जो कामना के बने रहने में गतिशील थी, वह विसर्जित नहीं हो सकती। कामना भी ठीक एक तरह की ऊर्जा है। यही कारण है तुम एक कामना को दूसरी कामना में बदल सकते हो। क्रोध कामवासना बन सकता है, कामवासना क्रोध बन सकती है। कामवासना लोभ बन सकती है। जब कभी तुम लोभी व्यक्ति पाओगे, वह कम कामुक होगा। यदि वह वास्तव में पूरी तरह लोभी होगा तो उसमें कामवासना होगी ही नहीं। वह ब्रह्मचारी होगा क्योंकि उसकी पूरी ऊर्जा लोभ की ओर गतिशील है। और यदि तुम बहुत अधिक कामुक व्यक्ति पाओगे तो उसमें लोभ नाम मात्र को न होगा। क्योंकि कुछ भी नया ही नहीं उसके पास। यदि तुम एक ऐसे व्यक्ति को देखो
जिसने कामवासना का दमन किया हो तो वह क्रोधी होगा। वह क्रोध करने को हमेशा तैयार रहेगा। तुम उसकी आंखों में उसके चेहरे में देख सकते हो कि वह बस क्रोध में ही है, उसकी पूरी काम ऊर्जा क्रोध बन गई है। 
यही कारण है कि तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी हमेशा क्रोधी होते हैं। जिस तरह से वे चलते हैं, वे अपने क्रोध को प्रकट करते हैं, जिस तरह से वे तुम्हें देखते हैं, उससे उनका क्रोध प्रकट होता है। उनका मौन भी ठीक सतही होता है-उन्हें जरा--सा छू दो तो उनका क्रोध भभक उठेगा। कामवासना क्रोध बन जाती है। जीवन ही एक ऊर्जा है और यह सभी उसके रूप हैं। जब सभी इच्छाएं मिट जाती हैं तो क्या होता है ?' ऊर्जा नहीं मिटती, ऊर्जा नष्ट नहीं होती। मनोविश्लेषक से पूछो, वह भी यही कहते हैंऊर्जा मिट नहीं सकती। 
गौतम बुद्ध जब बुद्धत्व को प्राप्त हुए तो उनमें एक ऊर्जा कार्यरत थी। वही ऊर्जा, काम, क्रोध, लोभ और लाखों तरीकों से गतिशील थी। वे सभी रूप मिट गए। आखिर राम -ऊर्जा का हुआ क्या? ऊर्जा अस्तित्व के बाहर नहीं जा सकती। और जब कामनाएं रही ही नहीं तो वह अरूप हो गई, लेकिन वह अस्तित्व में रही। अब उसका काम रहा क्या? वह करुणा बन गई। 
तुम करुणावान हो ही नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे पास वह ऊर्जा ही नही। तुम्हारी पूरी ऊर्जा बंटी हुई है, कभी कामवासना में, कभी क्रोध में और कभी लोभ में। करुणा की ऊर्जा का कोई रूप नहीं होता। जब तुम्हारी सभी कामनाएं विसर्जित हो जाती हैं, केवल तभी वह अरूप ऊर्जा करुणा बनती है। तुम करुणा को विकसित नहीं कर सकते। जब तुम कामनामुक्त होते हो, करुणा घटती है, तुम्हारी पूरी ऊर्जा करुणा की ओर गतिशील हो जाती है, लेकिन यह गति पूरी तरह भिन्न होती है। कामना का एक लक्ष्य होता है जो व्यक्ति को प्रोत्साहित करती है, जब कि करुणा प्रोत्साहित नहीं करती, वह अलक्ष्य, बस अतिरेक से बहने वाली अविरल ऊर्जा होती है। 
इसलिए जब मैं कहता हूं कि मैं जीवित तुम्हारे लिए ही हूं तो मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है मैं तुम्हारे जीवित रहने के लिए कुछ कर रहा हूं। अब मैं कुछ कर ही नहीं रहा हूं। कामनाओं के सभी रूप विसर्जित हो गए हैं। अब बिना मेरे भी वह ऊर्जा बह रही है। वह ऊर्जा अतिरेक से अधिक छलक रही है। तुम उसमें सहभागी बन सकते हो। तुम उसे भोजन बना सकते हो। जीसस के कहने का यही अर्थ है, जब वे कहते हैं-'' मुझे अपना भोजन बना लो। मुझे पचा लो, जिससे मैं तुम्हारा रक्त बन सकूं। यह अतिरेक से बहती हुई ऊर्जा तुम्हारा भोजन बन सकती है, तुम्हारे शाश्वत होने के लिए भोजन।’‘
मैं कुछ भी काम नहीं कर रहा हूं। जब मैं कहता हूँ कि मैं तुम्हारे लिए ही जीवित हूं तो केवल यह भाषा है, अन्यथा इस स्थिति की अभिव्यक्ति के लिए कोई दूसरी भाषा है ही नहीं। 
मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं और यह फिर भी किसी तरह घट रहा है। मेरी सभी आकृतियां विलुप्त हो चुकी है। अब एक अरूप ऊर्जा ही रह गई है और वह अतिरेक से बहे जा रही है। जो लोग बुद्धिमान हैं, वे इसमें सहभागी हो सकते हैं, शीघ्र ही यह भी अशरीरी हो जाएगा। पहले ऊर्जा आकृतिहीन बनती है, कामनामुक्त और तब वह अशरीरी हो जाती है। 
शरीर का एक अपना संवेग होता है। जब किसी का जन्म होता है, जब एक बुद्ध का जन्म होता है तो वह दो शरीरों के मिलन से उत्पन्न होता है, माता के और पिता के विशिष्ट क्रोमोसोम और कोष ही उसके शरीर का निर्माण करते हैं। उन कोषों में एक निश्चित अवधि तक जीने का संवेग होता है। -इस बनने वाले संवेग का अर्थ है कि यह शरीर सत्तर या अस्सी वर्ष तक जीवित रहेगा, यह शरीर का क्यू प्रिंट होता है कि वह अस्सी वर्ष तक अस्तित्व में रहेगा। शरीर को यह ज्ञात नहीं होता, वह इसे जान भी नहीं सकता कि जो आत्मा उसमें प्रविष्ट हुई है, वह बुद्धत्व को प्राप्त होने जा रही है। यह मकान जान भी नहीं सकता कि जो व्यक्ति उसके घर में रहने के लिए प्रविष्ट हुआ है, वह बुद्धत्व को प्राप्त हो जाएगा। जब वह व्यक्ति बोध को प्राप्त होता है, तब भी यह मकान उसे जानेगा नहीं। घर वैसा ही चलता रहेगा, उसका अपना जीवन है। शरीर का
अपना अलग जीवन है और शरीर को इसका कोई भी बोध नहीं होता कि व्यक्ति बुद्ध हो गया। वह अपने संवेग से, और अपने ईंधन से चले जाता है। 
बुद्ध चालीस वर्ष की आयु में बुद्धत्व को प्राप्त हुए। शरीर अप्रासांगिक हो गया, लेकिन वह चलता रहा,। उसने अपने अस्सी वर्ष का चक्र पूरा किया। यह अच्छा हुआ। ये चालीस वर्ष अतिरेक से ऊर्जा के छलकने और बहने की अवधि थी और हम लोग जान सके कि बुद्ध क्या होता है? यदि बुद्ध भी उसी क्षण विलुप्त हो गए होते तो कोई धर्म ही नहीं होता। यदि वे शरीर छोड़ देते और यदि बोध को प्राप्त भी हो जाते तो शरीर को गिरा देने से वह जैसे हुए ही न होते और फिर यह कैसे कहा जा सकता था कि क्या कुछ घटा। यह अच्छा ही हुआ, अस्तित्व बहुत-बहुत करुणावान था। बुद्ध चालीस वर्ष तक और जीवित रहे, किसी उद्देश्य से नहीं, लेकिन शरीर के संवेग या गति के कारण। वे बस अतिरेक से छलकते रहे। संवेग या गति समाप्त हो जाने पर यह शरीर भी गिर जाएगा। 
मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर रहा हूं। यदि कोई यह सोचे कि वह तुम्हारे लिए कुछ कर रहा है तो वह भी उसका अहंकार होगा। कोई भी कुछ नहीं कर रहा है, सब कुछ अपने आप घट रहा है। कामनाएं मिटने पर उनकी आकृतियां विलुप्त हो जाती हैं और वही ऊर्जा करुणा बन जाती है। शरीर को अपनी गति पूरी करनी होती है, उसे अपने क्यू प्रिंट के अनुसार अपने को पूरा करना होता है। यह अंतराल, अतिरेक से ऊर्जा के छलकने और बहने का होगा। यह एक भव्य दावत होती है, जो मेरी ओर से नहीं, तुम्हें अखण्ड अस्तित्व के द्वारा दी जाती है। 
भाषा समस्याएं उत्पन्न करती है। भाषा हमेशा द्वंद्वात्मक होती है। भाषा सदा इसी संसार की है। भाषा होती है अज्ञान के लिए वह होती है कामनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अपने अर्थ के साथ-साथ वह कुछ और भी अभिव्यक्त करती है, इसलिए उसके बारे में कोई भी बात कहना बहुत कठिन है, जो इस संसार की नहीं है। या तो पूरी तरह मौन ही हो जाओ.. .लेकिन तब मौन को भी गलत समझा जा सकता है अथवा तुम्हें भाषा का प्रयोग करना ही होगा और हर शब्द का अपना वजन होता है। 
यदि मैं कहता हूं कि मैं यहां तुम्हारे ही लिए हूं तो तुम इसका इस तरह से भी अर्थ लगा सकते हो कि यह तो इनका व्यापार या धंधे जैसा है, यह तो किसी कार्य- व्यापार जैसा है, जबकि यह ऐसा है नहीं। यह तो मात्र अतिरेक से बहता हुआ प्रेम है और मैं कर्ता हूं ही नहीं। यदि इसके लिए मैं कर्त्ता हूं तो वहां प्रेम हो ही नहीं सकता।   बस एक दीपशिखा जल रही है। वहां प्रकाश है, तुम उसमें पथ खोज सकते हो। तुम उसका प्रयोग कर सकते हो, वह तुम्हारे लिए एक ज्योति बन सकती है, तुम्हारे अंदर अग्नि प्रज्वलित कर सकती है, लेकिन सब कुछ तुम्हारे ऊपर निर्भर है। मैं तो बस यहां हूं।
तुम आमंत्रित किए गए हो, पर मेरे द्वारा नहीं बल्कि स्वयं उस ऊर्जा द्वारा ही।   जितना खा सको., मुझे खा लो और मुझे अपना भाग बना लो। इस शुभावसर पर उत्सव मनाओ। 
जीसस के शब्द पुन : समस्याएं खड़ी करते हैं-शब्द हमेशा समस्याएं ही उत्पन्न करते हैं। यदि जीसस यहां उपनिषदों, बुद्ध और महावीर के देश में जन्मे होते तो उनकी भाषा बिलकुल भिन्न होती। जीसस एक यहूदी के घर जन्मे, अत: उन्हें यहूदियों की भाषा, उनकी लोककथाओं और वाक्यों का प्रयोग करना पड़ा। इसीलिए उन्होंने कहा- '' जो कार्य, व्यापार या धंधा, मुझे परमपिता से प्राप्त हुआ, मैं वही कर रहा हूं।’‘
यदि जीसस यहां जन्मे होते तो उन्होंने कभी पिता की बात ही न की होती। पिता की धारणा यहूदी धारणा है। यह अच्छी और सुंदर है, लेकिन मनुष्य के व्यक्तित्व में परमात्मा का आरोपण करती है। परमात्मा पिता नहीं है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है
और न परमात्मा किसी तरह का कोई व्यापार या धंधा कर रहा है, लेकिन यहूदी व्यापारी हैं और उनका परमात्मा भी एक व्यापारी है-एक सर्व श्रेष्ठ व्यापारी-जो प्रबन्ध कर रहा है, बहुत चतुराई से सभी कुछ नियंत्रित कर रहा है। ठीक एक व्यापारी की भांति ही तुम उसे रिश्वत देकर फुसला सकते हो। वह बहुत वास्तविक व्यक्ति है, यदि तुम उसे समर्पण नहीं करोगे तो वह क्रोधित होकर तुम्हें नर्क में फेंक देगा और यदि तुम उसका अनुसरण करते हो तो तुम स्वर्ग और उसका आनन्द भोगेगे। 
यह पूरी भाषा ही लाभ और व्यापार के संसार की है, लेकिन प्रत्येक भाषा की अपनी समस्याएं होती हैं। यह भाषा साकार है, यह हृदय को स्पर्श करते हुए एक पारिवारिक माहौल निर्मित करती है, जिसमें पिता है, पुत्र है और उनका कार्य-व्यापार है। तुम पुत्र के द्वारा पिता तक पहुंच सकते हो.. .जीसस केवल उस समय की प्रचलित भाषा का उपयोग कर रहे हैं। 
इस देश में हम लोगों ने भाषा के कई ढांचों को अपनाने का प्रयास किया। हिन्दुओं ने हजारों-लाखों तरीकों का प्रयोग किया क्योंकि हिन्दुत्व एक धर्म न होकर कई धर्मों का जोड़ है। हिन्दुत्व में सभी तरह के धर्मों का समावेश है, यह एक भीड़ है धर्मों की, यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है। धर्म का हर वह नमूना जो विश्व में कभी भी हो रहा है, हिन्दुत्व में विद्यमान है। यह एक चमत्कार है। एक नास्तिक भी हिन्दू हो सकता है-पर एक नास्तिक ईसाई नहीं हो सकता- और यहां तक कि एक नास्तिक भी बुद्धत्व को प्राप्त .हो सकता है। बुद्ध एक नास्तिक हैं, वे परमात्मा पर विश्वास नहीं करते। वे कहते हैं-कोई आत्मा भी नहीं। वे कहते हैं यहां किसी का अस्तित्व है ही नहीं और वे हिन्दुओं में परमात्मा का अवतार बन गए। यह वास्तव में रहस्यमय है, नास्तिक गौतम बुद्ध हिन्दुओं के दसवें अवतार बन गए। वे कहते हैं वहां
कोई परमात्मा है ही नहीं और हिन्दू कहते हैं-यह व्यक्ति परमात्मा का अवतार है, भगवान है। 
हिन्दू कहते हैं कि नकार भी एक विधायक वक्तव्य है। हिन्दू कहते हैं कि ' ' कहना भी ' हां ' के बराबर है। यह बहुत रहस्यमय है। वे कहते हैं कि यह कहना भी
कि कहीं कोई परमात्मा नहीं है, परमात्मा के होने का एक नकारात्मक तरीका है। यदि परमात्मा के बारे में विधायक भाषा में वक्तव्य दिया जा सकता है तो नकारात्मक भाषा में क्यों नहीं? ' कुछ नहीं ' भी एक शब्द है और पहला भी ठीक दूसरे की ही तरह संगत है। बुद्ध ने कहा-' नहीं ' तब ' नहीं ' भी परिपूर्ण है, शून्यता, उसका स्वभाव बन जाता है। शंकराचार्य ने कहा-' हां ' तब ' हां ' भी पूर्ण बन जाता है और ' हां ' का होने का स्वभाव, सभी का स्रोत ब्रह्म बन जाता है, लेकिन हिन्दू कहते हैं-दोनों का अर्थ एक ही है। प्रत्येक भाषा के हर ढांचे की अपनी अभिव्यक्ति है, अपने लाभ हैं और गड्डे में गिरने के अपने खतरे भी हैं। 
मेरा स्वयं का झुकाव भी नकार की ओर है, इसीलिए मैं झेन सद्‌गुरुओं को इतना अधिक महत्व देता।  मैं वास्तव में उनके वृत्तान्तों से बहुत प्रेम करता हूं-न मन, सत्य और न समझ। 
तुम्हारी कामना विधायक है। यदि विधायक ढंग से परमात्मा पर जोर दिया जाए तो तुम्हारी कामना कभी मरेगी नहीं, वह परमात्मा की ओर उत्सुख हो जाएगी और तुम परमात्मा को पाने की चाह करने लगोगे। नकारात्मकता तुम्हारी सभी कामनाओं को और कामना की सभी वस्तुओं को नकारती है। तब सभी कामनाएं और वस्तुएं विलुप्त हो जाती हैं और अपने शुद्धतम रूप में केवल तुम्हीं बचे रह जाते हो। 
इसी परिपूर्ण शुद्धता, निर्दोषता और उसके आशीर्वाद को मैं चाहता हूं कि तुम मेरे साथ आनन्द लो। यह कोई सिखावन नहीं है और न मैं कोई शिक्षक हूं। यह कोई सिद्धांत भी नहीं है, यह तो बस वह आनन्द है जिसका तुम मेरे साथ मजा ले रहे हो। मैं यहां उपलब्ध हूं और यदि तुम अपने मन को उठाकर एक ओर अलग रख दो तो हम लोग उत्सव मना सकते हैं। मैं तो एक अंर्तर्नृत्य हूं जिसमें तुम भी सहभागी हो सकते हो। तुम इसी को मेरा व्यापार या धंधा कह सकते हो। 
जहां तक मेरा सम्बन्ध है, मेरा काम पूरा हो चुका है और मैं थक चुका हूं। अब वही ऊर्जा करुणा बन गई है, जो अतिरेक से बह रही है और वे सभी जो वास्तव में इसका स्वाद लेना चाहते हैं, बेशर्त आमंत्रित हैं। तुम्हें कुछ भी देना नहीं है, तुम्हें तो बस लेना-ही-लेना है। न कोई अनुशासन, न कोई मोल- भाव, तुमसे किसी तरह की कोई अपेक्षा ही नहीं। यह तो एक उपहार है। यह हमेशा से ऐसा ही रहा है और हमेशा रहेगा भी। सर्वोच्च परमानन्द एक उपहार ही होता है। इसी कारण हम इसे अहोभाव प्रसाद कहते हैं जैसे कि परमात्मा ही अपने अतिरेक से बरसाती ऊर्जा को तुम्हें देता है।
मैं तुम्हें एक कहानी सुनाना चाहूंगा जिसे जीसस प्राय: कहा करते थे। उन्होंने इसे कई बार दोहराया है-वे इसे अवश्य ही बहुत प्रेम करते होंगे। वे कहा करते थे- एक बार ऐसा हुआ कि एक धनी व्यक्ति को अपनै बगीचे में कार्य करने के लिए कुछ मजदूरों की जरूरत हुई, इसलिए उन्हें लाने उसने अपने आदमी को बाजार भेजा। वहां जितने भी मजदूर मौजूद थे, उन सभी को बुलाकर उनसे बगीचे में काम शुरू कराया गया। तब कुछ और मजदूरों ने भी यह बात सुनी तो वे दोपहर में आए। तब कुछ और दूसरे मजदूरों ने भी यह बात सुनी तो वे सूरज डूबने से कुछ पहले आए लेकिन सभी को काम पर लगा दिया गया। 
और जब सूरज डूब गया तो उस धनी व्यक्ति ने सभी को इकट्ठा कर प्रत्येक को समान धन की मजदूरी चुका दी। स्पष्ट रूप से जो लोग सुबह काम करने आए थे, उन्होंने निराश होकर कहा-' ' यह कैसा अन्याय है? आपने यह कैसा न्याय किया? हम लोग तो सुबह आए थे और हम लोगों ने दिन- भर काम किया। ये दूसरे लोग जो दोपहर या ठीक दो घंटे पहले ही आए हैं और कुछ लोग तो ठीक अभी- अभी ही आए है उन्होंने काम भी नहीं किया है, फिर भी आपने उन्हें हमारे ही बराबर मजदूरी दे दी।   यह तो सरासर अन्याय है।’‘
उस धनी व्यक्ति ने हंसकर कहा-' ' तुम दूसरों के बोरे में मत सोचो। जो कुछ मैंने तुम्हें दिया है, क्या वह काफी नहीं है? ' '
उन लोगों ने कहा-' ' वह है तो जरूरत से ज्यादा ही, पर फिर भी यह अन्याय है। उन लोगों को मजदूरी क्यों मिल रही हैं जो अभी- अभी आए हैं? ' '
धनी व्यक्ति ने कहा-' ' मैं उन्हें इसलिए देता हूं क्योंकि मेरे पास -बहुत अधिक है, मेरी आवश्यकता से भी अधिक है। तुम लोगों को इस बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। तुम लोगों ने अपेक्षा से अधिक पा लिया इसलिए तुलना मत करो। मैं उन्हें उनके कार्य के लिए नहीं दे रहा हूं मैं तुम्हें इसलिए दे रहा हूं क्योंकि मेरे पास आवश्यकता से अधिक है।’‘
जीसस ने कहा-' ' कुछ लोगों ने परमात्मा को फैं???ब्रे के लिए बहुत कठिन श्रम किया, कुछ लोग दोपहर बाद आए जबकि कुछ तो सूरज डूबने के निकट आए और उन सभी ने उसी परमात्मा को पाया। जो लोग सुबह आए थे, उन्हें यह आपत्ति होनी ही चाहिए-यह तो बहुत ज्यादा है।’‘
तुम जरा देखो-तुम लोग इतना अधिक ध्यान जाने कब से कर रहे हो और अचानक कोई बस शाम को आता है और बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है। तुम इतने अधिक पुराने संन्यासी हो, जरा देखें, यदि सभी साधु-संन्यासी स्वर्ग यह देखें कि पापी लोग भी परमात्मा के सिंहासन के निकट बैठे हुए हैं तो क्या होगा? वे लोग उदास हो जाएंगे, यह हो क्या रहा है?-इन पापियों ने कभी अपने जीवन को अनुशासित नहीं किया, इन लोगों ने कभी कुछ साधना वगैरह को ही नहीं और ये फिर भी यहां बैठे हैं जबकि हमारा ख्याल था कि ये लोग नर्क में होंगे। 
वहां कोई नर्क है ही नहीं, हो भी नहीं सकता। नर्क हो भी कैसे सकता है। परमात्मा इतना अधिक समृद्ध है कि उसकी करुणा से हर जगह स्वर्ग ही है। ऐसा होना भी चाहिए ऐसा होना जरूरी भी है और ऐसा है भी। उसके ही अतिरेक से बहती करुणा का प्रसाद है-स्वर्ग, वहाँ नर्क हो ही नहीं सकता। नर्क तो इन्हीं साधु-संन्यासियों ने निर्मित किया है जो पापियों की स्वर्ग में होने की कल्पना भी नहीं कर सकते। उन लोगों को सख्ती से विभाजित किया अपना विशिष्ट स्थान चाहिए और वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि तुम भी वहां होगे। 
ऐसा कहा जाता है कि एक हसीदी फकीर बालशेम के दर्शन करने एक महिला आई। वह लगभग सत्तर वर्ष की थी और उसका पति अस्सी वर्ष का था। अब धीरे- धीरे वह सदाचारी बनता जा रहा था। उसने पूरा जीवन पाप करते हुए ही बिताया था, इसलिए वह धन्यवाद अदा करने आई थी कि आखिर उन्होंने उसके पति को बदल ही दिया, जो लगभग असम्भव था। क्योंकि वह जीवन- भर पाप ही करता रहा था, लेकिन अब चूंकि वह बदल रहा था इसलिए वह बालशेम का शुक्रिया अदा करने आई थी।   वह हमेशा एक धार्मिक महिला की तरह रही थी। कभी भी इधर-उधर डिगी नहीं थी, न कभी गलत मार्ग पर चली थी और हमेशा सही रास्ते पर चलते हुए वह हमेशा यही सोचती थी कि स्वर्ग में उसी का स्वागत करने की जैसे प्रतीक्षा की जा रही है। वह यह भली- भांति जानती थी कि उसका पति तो नर्क जाएगा ही। 
बालशेम हंसा और उसने कहा-' ' जितना बड़ा पापी उतना ही बड़ा संत! ''
 ''
वह औरत उदास हो गई और उसने कहा, ' ' तब आपने मुझे यह पहले क्यों
नहीं बताया था? आपको तो चालीस वर्ष पूर्व ही मुझे यह बताना चाहिए था।’‘
जितना बड़ा पापी, उतना ही बड़ा संत। इस औरत ने यदि अपने पति को स्वर्ग
में देख लिया तो उसे नर्क जैसी यंत्रणा ही होगी। 
इन तथाकथित सदाचारी लोगों ने ही नर्क निर्मित किए हैं, अन्यथा परमात्मा के अतिरेक से बहती करुणा से नर्क निर्मित हो ही नहीं सकता। जो संत सुबह आएंगे, वे भी वही पाएंगे, जो पापियों को शाम आने पर मिलेगा। प्रत्येक प्राप्त करने ही जा रहा है, वह भेंट, वह प्रसाद, जो निरन्तर बरस रहा है। 
मैं यहां हूं किसी व्यापार- धंधे के लिए नहीं, बल्कि उपहारस्वरूप, लेकिन तुम बहुत डरे हुए और भयभीत हो। तुम व्यापार की ही बात समझ सकते हो। तुम बराबर के सब जानते ही नहीं। तुम तभी समझ सकते हो, यदि तुम्हें कुछ शर्ते पूरी करने को कहा जाए। यदि तुमसे कुछ भी नहीं मांगा जाता तो तुम समझते हो कि तुम घाटे में हो।   सभी अपेक्षाएं मन की ही हैं, सभी अनुशासन मन के लिए हैं और तथाकथित सभी संत और तथाकथित पापी भी मन से ही संबंध रखते हैं। जब वहां कोई मन है ही नहीं, तब वहां न कोई पापी है और न कोई संत और परमात्मा की करुणा का उपहार सभी पर समान रूप से बरस रहा है। 
आज बस इतना ही...!


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