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गुरुवार, 18 जून 2020

मनुष्य होने की कला--(A bird on the wing)-प्रवचन-03

स्वर्ग और नर्क के द्वार-(प्रवचन-तीसरा)

झेन बोध कथाएं-( A bird on the wing) 
मनुष्य होने की कला--(A bird on the wing) "Roots and Wings" - ।0-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे।  उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा:
झेन सद्‌गुरू हाकुई के निकट आकार समुराई योद्धा रे पूछा-
‘‘क्या वहां स्वर्ग और नर्क जैसी कुछ चीज है? ‘‘
हाकुर्ड़ ने पूछा- '' तुम कौन हो? ''
उस योद्धा ने उत्तर दिया- '' मैं सम्राट की सुरक्षा में लगा समुरार्ड़
योद्धाओं का प्रधान हूं। ''
हाकुई ने कहा- '' तुम और समुराई? अपने चेहरे से तो तुम एक
भिखारी अधिक लगते हो? ''
यह सुनकर वह योद्धा इतना अधिक क्रोधित हो उठा कि उसने
अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाल ली।
उसके सामने शांत खड़े हुए हकुई ने कह?- '' यही खुलता है नर्क
का द्वार।''
सदगुरु को शांत मानसिक स्थिरता देखकर और अनुभव कर वह
योद्धा थोड़ा नीचे झूका और उसने अपनी तलवार म्यान में रख ली
तब हाकुर्ड़ ने कहा-और यहां खुलता है स्वर्ग का द्वार। ''


स्वर्ग और नर्क भौगोलिक स्थान नहीं है। यदि तुम उन्हें खोजने जाओगे तो किसी को भी कहीं पाओगे नहीं, क्योंकि वे तुम्हारे ही अन्दर हैं, वे मनोवैज्ञानिक हैं। मन ही स्वर्ग है और मन ही नर्क। मन में ही इनमें से कोई भी बनने की क्षमता है। लेकिन लोग सोचे चले जाते हैं कि हर चीज कहीं बाहर है। हम हमेशा हर चीज के लिए बाहर की ओर देखते हैं क्योंकि अपने ही अंदर जाना बहुत कठिन है। हम बाहर जाने वाले लोग हैं। यदि कोई कहता है-वहां है परमात्मा, तो हम लोग आकाश की और देखते हैं कि वह वहीं कहीं बैठा होगा।
एक मनोवैज्ञानिक ने जो अमेरिका के एक स्कूल में काम कर रहा था, परमात्मा के बारे में छोटे-छोटे बच्चों से पूछा कि वे परमात्मा के बारे में क्या सोचते हैं? बच्चों की पहचान अधिक स्पष्ट होती है, वे कम चालबाज और अधिक सच्चे होते हैं। वै मनुष्य मन के अधिक अच्छे प्रतिनिधि हैं क्योंकि उनमें कुछ भी विकृत और प्रदूषित नहीं है इसीलिए उसने बच्चों से पूछा और सभी के उत्तर इकट्ठे किए।
परिणाम बहुत हास्यास्पद था। निष्कर्ष के रूप में लगभग सभी बच्चों ने परमात्मा का कुछ इस तरह वर्णन किया-'' परमात्मा एक कहा व्यक्ति है, बहुत लम्बी दाढ़ी है उसकी और वह बहुत खतरनाक है। वह भय उत्पन्न करता है। यदि तुम उसका अनुसरण न करो तो वह तुम्हें नर्क में फेंक देगा और यदि तुम उसकी प्रार्थना करते हुए उसका अनुसरण करो तो वह तुम्हें स्वर्ग और उसके सभी आनन्द देगा। वह आसमान में एक सिंहासन पर बैठा हुआ सभी को देखता रहता है। तुम उससे बचकर कहीं भाग नहीं सकते, यहां तक कि वह तुम्हें बाथरूम में भी देख रहा है। ''
बाहर जाने वाला मन प्रत्येक चीज का प्रक्षेपण बाहर ही करता है। यही है तुम्हारा परमात्मा। हंसो मत, यह मत सोचो कि यह एक बच्चे की धारणा है-नहीं, यह तुम्हीं हो। तुम भी परमात्मा के बारे में ऐसा ही सोचते हो-जैसे वह ब्रह्माण्ड में घूमने वाला एक जासूस हो, जो हमेशा तुम्हें अपराधी समझकर तुम्हारी खोज कर रहा हो, जिससे तुम्हें नर्क में फेंका जा सके, तुम्हें सजा दी जा सके और वह बहुत भयानक और बदला लेने वाला है। यही कारण है कि सभी धर्म भय पर आधारित हैं यदि तुम ऐसा करोगे तो तुम्हारी प्रशंसा की जाएगी, तुम्हें पुरस्कार दिया जाएगा और यदि तुम ऐसा नहीं
करोगे तो तुम्हें सजा दी जाएगी, लेकिन आधार भय का ही है। परमात्मा जैसे ठीक एक शक्तिशाली सम्राट की भांति है जो स्वर्ग में सिंहासन पर बैठा है। यह पूरी धारणा ही बेवकूफी भरी है पर मनुष्योचित है। मनुष्य का मन ही बेवकूफियों से भरा है। यह पूरा ख्याल ही मनुष्य का स्रोत ढूढ़ना है कि वह कैसे विकसित हुआ?
बाइबिल में इस बात का उल्लेख है कि परमात्मा ने अपनी ही छवि में मनुष्य का निर्माण किया। जबकि वास्तविकता पूरी तरह दूसरी ही दिखाई देती है, मनुष्य ने ही अपनी प्रतिभा के अनुसार परमात्मा का सृजन किया है। हमने ही अपनी कल्पना के अनुसार परमात्मा का प्रक्षेपण किया है, यह मनुष्य के मन का ही विस्फोट है-एक विराट मनुष्य मन और बस और कुछ नहीं। स्मरण रहे, यदि तुम सोचते हो कि परमात्मा तुम्हारे बाहर कहीं बैठा है तो तुमने धार्मिक होने की दिशा में अभी पहला कदम भी नहीं उठाया।
ऐसा ही सभी अन्य धारणाओं के भी साथ होता है। स्वर्ग भी बाहर है, नर्क भी बाहर है। जैसे अंदर सिर्फ कुछ नहीं जैसा ही विद्यमान है। क्या है तुम्हारे अन्दर? जिस क्षण तुम अन्दर के बारे में सोचते हो, ऐसा लगता है वहां सब कुछ खाली ही खाली है। आखिर है क्या अंदर? पूरा संसार बाहर है, सेक्स और कामवासना बाहर है, पाप बाहर है, सदाचार भी बाहर है। परमात्मा, स्वर्ग, नर्क और हर चीज बाहर ही है। फिर भीतर है क्या? तुम आखिर हो कौन? जिस क्षण तुम यह सोचते हो, मन बिलकुल कोरा हो जाता है और उसमें कुछ भी नहीं होता।
वास्तव में प्रत्येक चीज अन्दर ही है, बाहर तो मात्र उसका प्रक्षेपण है। तुम्हारे अन्दर भय है तब वह भय ही नर्क का प्रक्षेपण करता है। नर्क केवल तुम्हारे ही अन्दर भय के पर्दे पर प्रक्षेपित की गई एक छवि है-क्रोध और ईर्ष्या आदि का जो भी विष तुम्हारे अंदर है और सभी कुत्सित और दुष्ट भावनाएं जो भी अंदर हैं-नर्क उसी का प्रक्षेपण है। फिर स्वर्ग भी, तुम्हारे अंदर जो भी सुंदर और शुभ है और जो कुछ भी महत्वपूर्ण है, उसकी ही प्रक्षेपित छवि है।
शैतान है मनुष्यता का पतन और परमात्मा है मनुष्य का उदास स्वरूप। परमात्मा है तुम्हारी सुप्त शक्तियों की सर्वोच्च संभावना और शैतान है तुम्हारा सबसे अधिक पतन। शैतान जैसे किसी व्यक्ति का, कहीं भी कोई अस्तित्व नहीं है। तुम्हारी उससे कभी मुलाकात होगी नहीं, बशर्ते कि तुम स्वयं ही शैतान न बन जाओ। तुम्हारी परमात्मा से भी कभी भेंट होगी नहीं, यदि तुम स्वयं परमात्मा ही न हो जाओ।
पूरब में धर्म, मनुष्य-शरीर तक केन्द्रित रहने वाली धारणा से अतीत में काफी समय पहले ही उसका अतिक्रमण कर गया। इसीलिए पूरब के सभी धर्म शरीर- केन्द्रित नहीं हैं। वे कहते हैं तुम परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकते, लेकिन तुम स्वयं परमात्मा हो सकते हो। वे कहते हैं जब तुम अस्तित्व के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचते हो तो वहां तुम्हारा स्वागत करने तुम्हें परमात्मा नहीं मिलेगा। केवल अपनी भगवत्ता के साथ तुम ही वहां होगे। इसलिए यह कहा जा सकता है, वहां परमात्मा का अस्तित्व है ही नहीं केवल अस्तित्व ही परमात्मा है और मैं निरन्तर इसी बात पर जोर दिए जाता हूं। वहां व्यक्ति जैसा कोई सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति अस्तित्व में है ही नहीं।
परमात्मा अनस्तित्वगत है और भगवत्ता अस्तित्वगत है। जिस क्षण मैं भगवत्ता की बात कहता हूं वह कोई अन्दर की चीज बन जाती है और जिस क्षण तुम भगवान या परमात्मा की बात कहते हो, तुम उसे प्रक्षेपित करते हो।
यह कहानी बहुत सुंदर है। झेन सद्‌गुरु हाकुई जैसी खिलावट बहुत कम हुई है। एक योद्धा उसके पास आया, एक महान सिपाही समुराई और उसने पूछा-' ' क्या कोई नर्क है और क्या स्वर्ग भी है? यदि स्वर्ग और नर्क हैं तो उनके द्वार कहां हैं? मैं उसमें कहां से प्रवेश कर सकता हूं? मैं कैसे नर्क की उपेक्षा कर स्वर्ग का चुनाव कर सकता हूं? वे दोनों द्वार हैं कहां? ' '
वह मात्र एक योद्धा था। योद्धा हमेशा सहज-सरल होते हैं। ऐसा व्यापारी खोजना बहुत कठिन है जो सहज-सरल हो। वह हमेशा चालाक और बेईमान होता है, अन्यथा वह व्यापारी हो ही नहीं सकता। एक योद्धा हमेशा बहुत सरल और साधारण होता है अन्यथा वह योद्धा हो ही नहीं सकता। वह दो ही चीजें जानता है-जीवन और मृत्यु- इससे अधिक वह और कुछ भी नहीं जानता। उसका जीवन हमेशा दांव पर लगा होता है और उसे हमेशा जुआ खेलना होता है। वह एक साधारण व्यक्ति होता है। यही वजह है कि व्यापारी एक भी बुद्ध या महावीर नहीं जन्मा सके। यहां तक कि ब्राह्मण भी राम,
कृष्ण, बुद्ध और महावीर को उत्पन्न न कर सके, क्योंकि ब्राह्मण भी एक दूसरी तरह से बहुत चालाक और बेईमान हैं। वे भी व्यापारी हैं-पर दूसरे संसार के। वे इस संसार का नहीं दूसरे संसार का व्यापार करते हैं। उनका पुरोहितवाद ही व्यापार है। उनका धर्म पूरा गणित है। वे व्यापारियों से भी कहीं अधिक चालाक और चालाक ही नहीं बहुत-बहुत चालाक हैं। व्यापारी की चालाकी तो इस संसार तक सीमित है, लेकिन उनकी चालाकी तो इसके भी पार जाती है। वे हमेशा दूसरे संसार के बारे में सोचते हैं, जहां जाकर ग-हें पुरस्कार स्वरूप बहुत कुछ मिलने वाला है, और उनके सारे संस्कार कर्मकाण्ड और पूरा मन इसी में लगा रहता है कि उस दूसरे संसार में कैसे अधिक-से- अधिक सुख प्राप्त किए जाएं। उनका संबंध दूसरे संसार में मिलने वाले सुखों से है और इसीलिए वे व्यापारी हैं इसलिए ब्राह्मण तक एक भी बुद्ध उत्पन्न न कर सके। यह बहुत अजीब बात है। जैनों के सभी चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, योद्धा हैं। बुद्ध भी एक योद्धा थे। राम और कृष्ण भी योद्धा थे। एक साधारण व्यक्ति इन अर्थों में कि उनके मन में बेईमानी, चालाकी और गणित न था। वे दो ही चीजें जानते थे। जीवन और मृत्यु।
इसलिए यह साधारण योद्धा सद्‌गुरु हाकुई से यह पूछने आया कि कहां है स्वर्ग और कहां है नर्क? वह कोई सिद्धान्त सीखने नहीं आया, वह तो बस जानना चाहता है कि वह कौन-साद्वार कहां है जिससे वह नर्क का द्वार छोड्‌कर स्वर्ग के द्वारमें प्रविष्ट हो सके।
हाकुई ने जिस तरह से उत्तर दिया उसे केवल एक योद्धा ही समझ सकता है। यदि उसके स्थान पर कोई ब्राह्मण होता तो उसे शास्त्रों की आवश्यकता होती, वह उनका संदर्भ और प्रमाण देता-वेदों, उपनिषदों, बाईबिल और कुरान से, तब ही ब्राह्मण चित्त उसे समझ पाता।
ब्राह्मण के लिए केवल शास्त्रों का ही अस्तित्व है। शास्त्र ही उसका संसार हैं। एक ब्राह्मण केवल शब्दों के ही संसार में रहता है। यदि वहां कोई व्यापारी होता तो वह
हाकुई का उत्तर न समझ पाता वह तरीका, वह प्रत्युत्तर एक योद्धा ही समझ सकता था। एक व्यापारी हमेशा पूछता है-' ' आपके इस स्वर्ग की क्या कीमत है? क्या दाम है इसका? मैं इसे कैसे प्राप्त कर सकता हूं? मुझे क्या करना चाहिए इसके लिए? मुझे कितना सदाचारी होना चाहिए? मुझे किन सिक्कों में कीमत अदा करनी होगी? मुझे क्या करना चाहिए-जिससे मुझे स्वर्ग मिले?'' वह हमेशा कीमत के बारे में ही पूछता है।
मैंने एक बहुत सुंदर कहानी सुनी है-ऐसा हुआ कि प्रारम्भ में जब ईश्वर ने इस संसार का सृजन किया तो वह पृथ्वी पर आया और उसने कई प्रजातियों के मनुष्यों से पूछा। वह दस नियम (टेन कमांडेन्ट्स) जिनका जीवन में पालन करना था, अपने साथ लेकर आया था। यहूदियों ने इन दस नियमों को सर्वाधिक महत्व दिया, ईसाइयों और मुसलमानों ने भी थोड़ा बहुत माना इन्हें क्योंकि सभी धर्मों का स्त्रोत यहूदी ही हैं जो सबसे बड़े व्यापारी होते हैं।
इसलिए सबसे पहले परमात्मा ने पृथ्वी पर आकर हिन्दुओं से पूछा-' ' क्या तुम इन दस नियमों को लेना चाहोगे? ' '
हिन्दुओं ने कहा-' ' पहला नियम क्या है हमें इनका एक नमूना चाहिए क्योंकि हम इन दस नियमों के बारे में कुछ भी नहीं जानते। ' '
परमात्मा ने कहा-' ' तुम किसी की हत्या नहीं करोगे। ' '
हिन्दुओं ने कहा-' ' यह तो कठिन होगा। यह जीवन बहुत जटिल है और इसमें किसी कठिन स्थिति में मारना भी हो सकता है। इस पूरे ब्रह्माण्ड में ही एक महान लीला हो रही है, जिसमें जीवन, मृत्यु युद्ध और प्रतियोगिता है। यदि जीवन में प्रतियोगिता ही न रही तो जीवन सपाट और बुझा-बुझा सा हो जाएगा। हम लोग नहीं चाहते ये दस नियम। ये तो जीवन के पूरे खेल को बिगाड़ देंगे। ' '
इसलिए परमात्मा फिर मुसलमानों के पास गया। उन्हें भी दस नियमों में से एक का उदाहरण देते हुए उसने कहा-' ' तुम दूसरी स्त्री के साथ व्यभिचार नहीं करोगे ' ' क्योंकि उन लोगों ने भी दस नियमों में से एक के नमूना की बाबत पूछा था।
मुसलमानों ने कहा-' ' यह करना तो कठिन होगा। जीवन का सारा सौंदर्य ही जाता। कम-से-कम चार पत्नियां तो जरूरी हैं। आप इसे दूसरी स्त्री के साथ व्यभिचार कहते हैं, -लेकिन जीवन हमें यही तो न्यामत के रूप में देता है, जो प्रत्येक धर्मपरायण व्यक्ति को चाहिए। दूसरे संसार के बारे में कौन जानता है? ''
आपने यही एक संसार हम लोगों को आनन्द मनाने को दिया है और अब आप दस नियम लेकर आ गए। यह तो विरोधाभासी बात है।
परमात्मा इधर से उधर चारों ओर घूमता रहा। तब वह मोजेज के पास आया, जो सभी यहूदियों का नेता था। मोजेज ने नमूना देने के लिए कहा ही नहीं। जिस क्षण परमात्मा ने कहा-' ' मेरे पास तुम्हें देने के लिए दस नियम है ' ' तो उस क्षण परमात्मा भी यह कहते हुए डर रहा था कि यदि मोजेज ने भी लेने से इन्कार कर दिया तो फिर कोई और बचेगा ही नहीं। उसने प्रत्येक से पूछ लिया था और कोई उन्हें लेने को तैयार न था, इसलिए वही उसकी अंतिम आशा थे।
जब परमात्मा ने मोजेज से पूछा-' ' क्या तुम ये दस नियम लेना चाहोगे? ' ' मोजेज ने क्या उत्तर दया? उसने कहा-' ' उनकी कितनी कीमती होगी? ' ' एक अच्छा और कुशल व्यापारी इसी तरह सोचता है। पहली बात वह यही जानना चाहता है कि उसे क्या देना होगा?
परमात्मा ने कहा-' ' कुछ भी नहीं। ' '
और मोजेज ने तुरन्त कहा-' ' तब में दस के दस ले लूंगा। यदि उनकी कीमत कुछ भी नहीं है और आप उन्हें मुक्त दे रहे- हैं, तो कोई भी समस्या नहीं। ' ' इसी तरह से दस नियमों का जन्म हुआ।
लेकिन वह समुराई कोई यहूदी न था, वह कोई व्यापारी न था। वह एक योद्धा था। वह एक साधारण प्रश्न के साथ आया था। न तो उसकी दिलचस्पी शास्त्रों में थी और न कीमत में। वास्तव में उसकी दिलचस्पी किसी बताए गए शाब्दिक उत्तर में थी ही नहीं। वह तो वास्तविकता जानने में दिलचस्पी रखता था।
और हाकुई -ने किया क्या? उसने पूछा-' ' तुम कौन हो? ' '
उस योद्धा ने उत्तर दिया-' ' मैं एक समुराई हूं। ' '
जापान में समुराई होना बहुत बड़े गौरव को बात समझी जाती है। इसका अर्थ है-एक पूर्ण कुशलतम योद्धा, एक ऐसा व्यक्ति जो एक क्षण में हो अपना जीवन बिना हिचकिचाहट के दे सकता है। उसके लिए जीवन और मृत्यु खेल जैसे हैं।
उसने कहा-' ' मैं एक समुराई हुं। मैं सम्राट के निकट रहने वाले समुराई योद्धाओं का प्रधान हूं और सम्राट भी मेरा सम्मान करते हैं। ' '
हाकुई हंसा और उसने कहा-' ' तुम और समुराई? तुम तो एक भिखारी जैसे दिखाई देते हो।
समुराई के -गर्व को ठेस लगी। उसके अहंकार पर चोट की गई। वह भूल ही गयी कि वह यहां किसलिए आया था। उसने अपनी तलवार म्यान के बाहर, निकाल ली और वह हाकुई को मारने के लिए आगे बढ़ा। वह उस समय यह भूल ही गया कि वह सद्‌गुरु से यह पूछने के लिए आया था कि कहां है स्वर्ग और नर्क का द्वार?
हाकुई हंसा और उसने कहा-' ' यही है नर्क का द्वार। तलवार के साथ यह क्रोध और यह अहंकार ही उसका द्वार खोल देता है। ' '
यही थी वह बात जिसे एक योद्धा समझ सकता था। वह तुरन्त समझ गया। यही था वह द्वार। उसने तलवार तुरन्त अपने म्यान में रख ली, तब हाकुई ने कहा-' ' यहां खुलता है स्वर्ग का द्वार। ' '
नर्क और स्वर्ग तुम्हारे ही अन्दर है। दोनों के ही द्वार तुम्हारे अन्दर है। जब तुम बेहोश होते हो, बेहोश होने जैसा आचरण करते हो, वही है नर्क का द्वार, जब तुम सजग और सचेत होते हो-वही है स्वर्ग का द्वार।
इस समुराई को हुआ बचा? जब वह बस हाकुई को कत्ल करने ही जा रहा था, क्या वह सचेतन था? क्या वह उस बारे में जो उस समय वह करने जा रहा था, अपने पूरे होश में था? क्या वह उसके प्रति सचेत था, जिसके लिए वह यहां आया था? उसका सारा होश गायब हो गया था।
जब अहंकार तुम्हें अपने कब्जे में ले लेता है, तो तुम सजग हो ही नहीं सकते।

अहंकार वह रसायन है जो अपने नशे में तुम्हें पूरी तरह बेहोश कर देता है। इस दशा में तुम जो कुछ करते हो, वह कृत्य अचेतन से आता है, न कि तुम्हारी चेतना से। जब भी कोई कृत्य अचेतन से आता है तो नर्क का दरवाजा खुल जाता है। तुम जो कुछ भी करते हो, उसे इस तरह से करते हो कि तुम स्वयं उसके प्रति सजग नहीं होते कि तुम क्या कर रहे हो। असजगता ही नर्क का द्वार है। तुरन्त ही समुराई सजग हो गया, जब हाकुई ने कहा-' ' यही वह द्वार है जिसे तुमने पहले ही खोल रखा है। ' ' अचानक उसी स्थिति ने उसमें जरूर सजगता उत्पन्न की होगी।
जरा कल्पना करो-तुम्हारे साथ क्या हुआ होता, यदि तुम भी एक योद्धा होते, यदि तुम एक समुराई होते और किसी को मारने के लिए तलवार तुम्हारे हाथ में होती। एक क्षण की देर थी और हाकुई का सिर कटकर शरीर से अलग हो गया होता-केवल एक क्षण मैं। तलवार उसके हाथ में थी और हाकुई कहता है- ' ' यही है वह नरक का द्वार। ' ' यह कोई दार्शनिक उत्तर नहीं है कोई भी सद्‌गुरु दार्शनिक तरीके से उत्तर देता ही नहीं। तत्वज्ञान और व्याख्या तो मध्यम श्रेणी के बोधि को प्राप्त न होने वाले मामूली मनों के लिए है। एक सद्‌गुरु से प्रत्युत्तर स्वयं आता है। यह उत्तर मात्र मौखिक नहीं होता, यह समग्र होता है। हाकुई ने एक खेल खेला, लेकिन यदि एक क्षण की भी देर हो गई होती तो वह कल्ल कर दिया जाता। ठीक वक्त पर हाकुई ने कहा-' यह रहा द्वार।
हो सकता है, तुम लोगों ने समुराई के बारे में न सुना हो। यदि तुम तलवार हाथ में लेकर किसी समुराई को मारने जा रहा हो और बस उसकी गर्दन छूने ही वाले हो और समुराई तुम्हारे सामने निशस्त्र खड़ा हो और अपने को बचा भी न सकता हो तो समुराई के पास एक विशिष्ट ध्वनि का मंत्र होता है।
वह बस एक शब्द इतनी जोर से कहेगा कि तुम्हारी सारी ऊर्जा चली जाएगी और तुम एक पत्थर के बुत की तरह मुर्दा हो जाओगे। वह सिर्फ ' हे! ' कह सकता है और तुम अपने स्थान पर जड़ हो जाओगे तुम्हारा हाथ उठा-का-उठा रह जाएगा, हिलेगा नहीं। वह ध्वनि हृदय पर चोट करती है जो पूरे शरीर को नियंत्रित करती है और मस्तिष्क को आघात लगेगा, सारी क्रियाशीलता विलुप्त हो जाएगी। यदि एक समुराई बिना हथियार भी है, फिर भी तुम उसे मार नहीं सकते। केवल एक ध्वनि ही उसकी रक्षक बन जाएगी। यदि तुम्हारे हाथों में बंदूक या गन है तो या तो तुम्हारे हाथ गति ही
न कर सकेंगे या लक्ष्य चूक जाएगा। वह है केवल एक ध्वनि ही लेकिन वह ध्वनि एक विशिष्ट विधि से इस तरह उत्पन्न हो जाती है कि वह हृदय की गहराई में उतर जाती है और तुम्हारी क्रियाशीलता के ढांचे को पूरी तरह बदल देती है।
जब हाकुई ने कहा-' यह रेहा द्वार! ' तो समुराई जड़ हो गया होगा और उसी जड़ स्थिति में उसकी सारी क्रियाशीलता पंगु हो गई होगी, वह सजग हो गया होगा।
सारी क्रियाशीलता और मन के कार्य व्यापार में बेहोशी है। तुम निरन्तर व्यस्त बने रहते हो-तुम एक क्षण के लिए भी बिच्छल खाली नहीं होते। व्यस्त बने रहना तुम्हारा नशा है और यही कारण है जब तुम्हारी कोई क्रियाशीलता नहीं होती तो -तुम बेचैन हो जाते हो। तुम पड़े हुए समाचार-पत्र को ही फिर से पढ़ने लगते हो-तुम एक काम या दूसरा काम करना शुरू कर देते हो अथवा तुम खिड़कियां ही फिर से खोलना या बंद करना शुरू कर देते हो। कुछ-न-कुछ काम करना जरूरी है, अन्यथा तुम्हारी अचेतन अवस्था टूट जाएगी और तुम सचेतन हो जाओगे।
इसलिए लेन कहता है कि यदि कोई व्यक्ति बिना कुछ भी काम किए छ: घंटे के लिए बैठ सकता है तो वह बुद्धत्व को प्राप्त हो जाएगा। बस सिर्फ छ : घंटे के लिए पर छ: घंटे का समय वास्तव में बहुत लम्बा समय है। सिर्फ छः सेकंड ही काफी होंगे। यदि तुम पूरी तरह बिना किसी क्रियाशीलता के छ: सेकंड ही स्थिर बैठे रहो तो होगा क्या? जब तुम जरा भी किसी भी काम में नहीं लगे होते हो तो तुम बेहोश नहीं हो सकते जब तुम व्यस्त नहीं होते और कुछ नहीं कर रहे होते हो तो पूरी ऊर्जा चेतना बनकर तीव्रता से मुक्त होती है।
यही ऊर्जा किसी कार्य में व्यस्त होने में लगी थी। मन सोच रहा है, शरीर कार्य कर रहा है और पूरी ऊर्जा जो कार्य करने में लगी है, बाहर संसार में बिखर रही है। यदि तुम सोच हो तो भी तुम अपनी ऊर्जा खर्च कर रहो हो क्योंकि प्रत्येक कार्य ऊर्जा लेता है, उसे ऊर्जा की जरूरत होती है। तुम सोचते हुए निरन्तर अपनी ऊर्जा व्यर्थ बिखेरते रहते हो। क्रियाशीलता को भी ऊर्जा की जरूरत होती है और तुम्हारी अनन्त ऊर्जा का स्रोत निरन्तर खाली होता जा रहा है।
तुम्हारे हर ओर से ऊर्जा रिस रही है। यही कारण है कि तुम अपने आपको इतना निर्बल, निराश और नपुंसक होने का अनुभव करते हो।
यह नपुंसकता का अनुभव असहायता के समान होता है, तुम सर्वशक्तिमान हो और तुम नपुंसकता का अनुभव करते हो। तुम्हारे पास ही अनन्त ऊर्जा के सभी स्रोत हैं और तुम ब्रह्माण्ड के स्रोत से जुड़े हो, लेकिन फिर भी तुम नपुंसकता का अनुभव करते हो, क्योंकि तुम उसे निरन्तर व्यर्थ बिखेर रहे हो।
यदि एक क्षण के लिए भी विचार रुक जाएं और कोई भी क्रियाशीलता न हो, यदि तुम एक मूर्ति की तरह बन जाओ, बाहर और अन्दर दोनों से ही अडोल, अकम्प, कहीं कोई भी गति न हो, न मन में और न शरीर में, तभी तीव्र ऊर्जा मुक्त होती है? अब वह जाएगी कहां? क्योंकि कोई क्रियाशीलता नहीं है, इसलिए वह बाहर जा नहीं सकती। वह ऊर्जा का एक स्तंभ या एक लपट बन जाती है। अन्दर सब कुछ चेतन हो जाता है, हर चीज प्रकाश से नहा जाती है और पूरा अस्तित्व प्रकाशवान हो उठता है। इस योद्धा के साथ ऐसा ही जरूर घटा होगा। हाकुईं जैसे बोध को उपलब्ध सदगुरू के सामने आते ही उसकी तलवार हाथ में ही रुक गई होगी। हाकुई के नेत्र मुस्करा रहे थे, चेहरा मुस्करा रहा था और स्वर्ग का दरवाजा खुल गया था। वह समझ गया। तलवार म्यान के अन्दर चली -गई। तलवार को मगन में वापस रखते हुए वह अवश्य ही पूर्ण मीन और शांत रहा होगा। क्रोध विलुप्त होकर, जो ऊर्जाक्रोध में गतिशील थी, वही शांति बन गई होगी।
यदि तुम क्रोध के बीच में अचानक जाग जाओ तो तुम एक ऐसी शांति का अनुभव करोगे, जैसी तुमने पहले कभी अनुभव न की होगी। जो ऊर्जा गतिशील थी, अचानक वह रुक जाती है। तुम तुरन्त शांत हो जाओगे। तुम अपने आंतरिक अस्तित्वगत कुण्ड में जा गिरोगे और यह गिरना इतना आकस्मिक होगा कि तुम तुरन्त सजग हो जाओगे। यह गिरना, धीरे- धीरे गिरना न होकर इतना तीव्र और आकस्मिक होगा कि तुम अचेत नहीं बने रह सकते। तुम रोज की सामान्य चीजों के प्रति इतनी धीमी गति से गतिशील होते हो कि तुम्हें गति का पता ही नहीं चलता, लेकिन अचानक गति से
अगति में, विचार से र्निविचार में और मन से अमन में जाने का इस योद्धा ने अनुभव किया। जैसे ही तलवार म्यान में जा रही थी, उस योद्धा ने वह अपूर्व अनुभव किया और हाकुई ने कहा-' ' यहां खुलता है स्वर्ग का दरवाजा। ''

मौन ही वह द्वार है।
आंतरिक शांति ही वह द्वार है।
अहिंसा ही वह द्वार है।
प्रेम और करुणा ही वह द्वार है।

स्वर्ग या नर्क की कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है, वे मनोवैज्ञानिक हैं और वे तुम्हारा ही मनोविज्ञान हैं। यह ऐसा कोई प्रश्न नहीं है, जो निर्णय के अंतिम दिन तय होने वाला हो। मनुष्य का मन अधिक टालू चालाक और पीछा छुड़ाकर भागने में कुशल है। ईसाइयों, मुसलमानों और यहूदियों ने कयामत के आखिरी दिन का जो विचार -सृजित किया है, जिस दिन प्रत्येक को कब से बाहर निकालकर निर्णय किया जाएगा। जिन्होंने जीसस का अनुसरण किया है, जिन्होंने अच्छा आचरण किया है, वे तो स्वर्ग भेजे जाएंगे और जिन लोगों का खराब आचरण रहा होगा जिन्होंने जीसस का
अनुसरण नहीं किया होगा और न चर्च जाते रहे, वे लोग नर्क में फेंक दिए जाएंगे और यह नर्क शाश्वत होगा।
ईसाइयों का नर्क सबसे अधिक-बेतुकी चीजों में से एक है, क्योंकि उसका कोई अन्त ही नहीं है। यह अन्याय और घोर अन्याय ही प्रतीत होता है कि तुमने चाहे जैसा पाप किया हो, उसकी अन्य कोई सजा नं होकर बस केवल शाश्वत नर्क में डालना ही है। बर्टेन्ड रसेल ने कहीं इसका मजाक उड़ाते हुए कहा है-' ' यदि मैं अपने सभी पापों का हिसाब लगाऊं जो मैंने किए हैं और वे पाप जो मैंने नहीं किए-केवल उनका चिंतन- भर किया है, यदि उन्हें भी शामिल कर लिया जाए तब सख्त-से- सख्त न्यायाधीश भी मुझे चार साल से अधिक के लिए जेल नहीं भेज सकता और ईसाइयत तुम्हें हमेशा के लिए नर्क में धकेल देती है। बर्टेन्ड रसेल ने एक पुस्तक लिखी है-' वाई आई एम नॉट ए क्रिश्चियन ' ( मैं एक ईसाई क्यों नहीं हूं?) यह एक तर्क उसी पुस्तक का है। यह एक सुंदर तर्क है क्योंकि पूरी चीज ही हास्यास्पद प्रतीत होती है और ईसाई केवल एक जीवन पर विश्वास करते हैं।
जैसा कि हिन्दू कहते हैं कि तुमने करोड़ों जन्मों में करोड़ों पाप किए हों तो उस व्यक्ति को शाश्वत नर्क में भेजने की बात तर्कसंगत भी लग सकती है। लेकिन ईसाई तो केवल एकजन्म में ही विश्वास करते हैं जो औसतन सत्तर वर्ष की होती है। तुम इस
अवधि में कितने अधिक पाप कर सकते हो कि तुम्हें शाश्वत नर्क के योग्य समझा जाए। यदि तुम सत्तर वर्षों में प्रतिक्षण निरन्तर पाप ही करते रहो, तब भी शाश्वत नर्क की सजा न्यायपूर्ण नहीं लगती। पूरी चीज ही बदले की भावना से भरी दिखाई देती है इसलिए परमात्मा तुम्हें तुम्हारे पापों के लिए नर्क में नहीं फेंक रहा था, लेकिन तुम
चूंकि अनाज्ञाकार्स रहे हो, तुम चूंकि विद्रोही रहे दो और तुमने उसकी बात सुनी ही नहीं इसलिए। यह तो प्रतिशोध है, लेकिन बदला चुकाना अन्याय है। यह अपराध है। यह हास्यास्पद और बेतुका लगता है।
मनुष्य के मन ने निर्णय का आखिरी दिन सृजित किया। क्यों? आखिरी निर्णय के दिन तक आखिर प्रतीक्षा क्यों? मन हमेशा स्थगित करता है, चीजों को आगे के लिए धकेलता रहता है। उसके लिए अभी और यही निर्णय कर देने की समस्या ठीक नहीं है, उसके लिए तो यह आखिरी निर्णय के दिन की बात है-हम देखेंगे यह समस्या आवश्यक नहीं है। हम देखेंगे कि आगे क्या होता है? वहां उसके कई तरीके हैं और साधन भी आखिरी क्षण में भी तुम जीसस का अनुसरण कर सकते हो, आखिरी क्षण
में भी तुम समर्पण करते हुए कह सकते हो-' ' हे परमात्मा! मैं पापी हूं। ' '
अपने पापों को स्वीकार करो और तुम माफ कर दिए जाओगे। परमात्मा की करुणा अनन्त है। प्रेम ही परमात्मा है और वह तुम्हें क्षमा करने को तैयार है।
ईसाइयों ने पापों को स्वीकार करने की एक विधि ईजाद की है। तुम पाप करो और जाकर पादरी केसामने उन्हें स्वीकार कर लो। उन्हें स्वीकार करते ही तुम भारमुक्त हो जाते हो। यदि तुम ईमानदारी से उन्हें स्वीकार करते हो तो तुम पाप करने के लिए फिर तैयार हो जाते हो, क्योंकि पुराने पाप को पहले की माफी मिल चुकी है। एक बार तुमने यह तरकीब जान ली और तुम्हें कुंजी मिल गई- अब तुम पाप कर सकते हो और क्षमा भी किए जा सकते हो- अब तुम्हें और अधिक पाप करने से कौन रोकने जा रहा है? इसलिए वे ही लोग पादरी के पास हर रविवार आते रहते हैं और अपने पापों की स्वीकृति करते रहते हैं। कभी-कभी तो अहंकारवश लोग ऐसे भी पापों को स्वीकार करते हैं जो उन्होंने कभी किए ही नहीं। अहंकार ऐसा है कि यदि एक बार तुमने उन्हें स्वीकार करना शुरू किया तो तुम उनमें इतना अधिक डूब जाते हो कि तुम उन पापों को भी स्वीकार करने लगते हो, जो तुमने कभी किए ही नहीं। क्योंकि महान पापी होना भी इतना अधिक अहकार से भर देता है और तब मन कहता है-तुम जितने बड़े पापी हो, तुम्हें परमात्मा की उतनी ही अधिक अनुकम्पा और क्षमा मिलेगी।
यह कहा जाता है लियो टॉलस्टाय ने अपनी आत्मकथा के कुछ नोट्‌स लिखे हैं। जिन लोगों ने टॉलस्टाय को पढ़ा है, वे कहते हैं-' ' उन्होंने वे पाप भी स्वीकार किए हैं, जो उन्होंने कभी किए ही नहीं। वह उनका मजा ले रहें हैं। ' ' जीन जैक्रिस रूसो ने अपनी स्वीकारोक्तियां लिखी हैं-' माई कनपेशन्स ' आत्मकथा के रूप में, उनमें वह भी उन पापों को स्वीकार करता है, जो उसने कभी किए ही नहीं। यही महात्मा गांधी के भी साथ सम्भव है। अपनी आत्मकथा में वे स्वयं जिन बातों का उल्लेख करते हैं, उनमें उनकी स्वीकारोक्ति बढ़ा-चढ़ाकर लिखी हो सकती है। इस तरह से भी अहंकार अपना कार्य करता है, तुम जो कुछ भी कहते हो, वह एक अति पर चला जाता है और तब एक मजेदार अनुभव होता है-' ' मैंने अब स्वीकार कर लिया है। मैं अब निर्भर हो गया और अब मुझे क्षमा कर दिया गया। मैं अतीत में एक पापी जरूर था लेकिन अब मैं एक संत हूं। ' '
और यदि तुम एक बड़े पापी रहे हो तो अब तुम एक महान संत कैसे हो सकते हो? क्या महान संत होने के लिए बड़ा पापी होना जरूरी है?
आखिरी निर्णय, पापों की स्वीकारोक्ति, ये सभी मन की चालबाजियां हैं। नर्क और स्वर्ग अंत में नहीं, वे अभी और यहीं हैं। प्रतिक्षण द्वार खुलता है और प्रतिक्षण तुम नर्क और नर्क के बीच ही आते-जाते रहते हो। यह क्षण-प्रतिक्षण का प्रश्न है और ये बहुत जरूरी है, एक क्षण में ही तुम नर्क से स्वर्ग में और स्वर्ग से नर्क में चले जाते हो। यही इस कहानी का अर्थ है। एक अकेले क्षण में और यहां तक कि एक क्षण भी पूरा नहीं गुजरा और हाकुई कहता है-यह है नर्क का द्वार। अब नर्क का द्वार खुल गया है और एक क्षण भी नहीं बीता था और वह कहता है-' ' देखो! यह है स्वर्ग का द्वार। ' '
स्वर्ग और नर्क दूर-दूर नहीं हैं। वे एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। केवल एक छोटी- सी मुंडेर उन्हें विभाजित करती है। तुम बिना द्वार के उस मुंडेर को फलांग सकते हो। तुम इससे छलांग लगाकर उसमें पहुंच सकते हो। सुबह तुम स्वर्ग में हो सकते हो और शाम को नर्क में। इस क्षण स्वर्ग और उस क्षण नर्क। यह ठीक एक दृष्टिकोण है, ठीक मन की एक दशा कि तुम बस कैसा अनुभव कर रहे हो। एक अकेले जीवन में ही तुम कई बार नर्क देख सकते हो और कई बार स्वर्ग की सैर कर सकते हो। एक दिन में ही महावीर के एक शिष्य की एक बहुत सुंदर कहानी है। वह बहुत बड़ा राजा था और सभी का त्याग कर वह महावीर का शिष्य बन गया था। वह बहुत बड़ा योगी था और उसने बहुत कठोर तप किया था। उसने अति पर जाकर, वे सभी साधनाएं की थीं, जो कुछ महावीर ने बताई थीं। उसका नाम देश- भर में विख्यात था। उसका नाम प्रसन्नचन्द्र था। यहां तक कि अन्य राजा भी उसके पास उसे सम्मान और आदर प्रकट करने के लिए आते थे।
एक दूसरा राजा बिम्बसार, जो प्रसन्नचन्द्र का मित्र था, जब वह भी एक राजा था, उस गुफा में उससे भेंट करने आया, जहां आंखें खोले प्रसन्नचन्द्र धूप में नंगा खड़ा हुआ था। बिम्बसार ने प्रसन्नचन्द्र को झुककर प्रणाम किया और सोचा-वह समय कब आएगा, जब मैं भी इतना शांत, मौन और आनन्दपूर्ण बन सकूंगा। इस व्यक्ति ने सब कुछ प्राप्त कर लिया है और वह एक प्रस्तर प्रतिमा की तरह।
तब वह प्रसन्नचन्द्र के सद्‌गुरु महावीर के निकट गया, जो उसी वन में कहीं निकट ही थे। उसने महावीर से पूछा-' ' भगवान! आपके पास आने से पूर्व मैं प्रसन्नचन्द्र के पास गया था। वह आंखें मूंदे, स्वर्गीय, प्रसादपूर्ण होकर खड़ा था। वह तो ज्ञान को प्राप्त हो गया। ऐसा क्षण मेरे लिए कब आयेगा? मैं इतना भाग्यशाली नहीं हूं-उससे मुझे ईर्ष्या हो रही है और मेरा दूसरा प्रश्न है-जब मैं प्रसन्नचन्द्र के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहा था, यदि उसी क्षण प्रसन्नचन्द्र ने शरीर छोड़ दिया होता, तो वह कहां पहुंचता? उसे कौन-सा स्वर्ग मिलता? ' '
 क्योंकि जैन कहते हैं-वहां सात स्वर्ग और सात नर्क है।
महावीर ने उत्तर दिया-' ' वह गिरकर सातवें नर्क में जाता। ' '
बिम्बसार कुछ समझ ही न सका, वह घबरा गया और उलझन में पड गया। उसने कहा-' ' आप क्या कह रहे हैं? सातवां नर्क? प्रसन्नचन्द्र तो इतना शांत, मौन और इतनी ध्यानपूर्ण स्थिति में इतने परमानंद में था और यदि वह सातवें नर्क में गिरता है तो मेरे साथ क्या होगा? क्या सातवें नर्क के पार भी और दूसरे नर्क हैं? नहीं, आप जरूर मेरे साथ मजाक कर रहे हैं, कृपया सत्य बताइए। ' '
महावीर ने कहा-' ' यही सत्य है। ठीक तुम्हारे सामने ही, वहीं, से कुछ लोग गुजर रहे थे। वे भी प्रसन्नचन्द्र के प्रति सम्मान प्रकट करने गए थे और उन लोगों में उसके-निकट ही कुछ चर्चा-परिचर्चा होने लगी। उसने उसे सुना और उसके लिए नर्क के दरवाजे खुल गए। वे लोग राजधानी से लौट रहे थे, जहां का वह कभी राजा था। वे कह रहे थे-इस बेवकूफ ने सब कुछ त्याग दिया। इसने जिस प्रधानमंत्री को राज- काज चलाने की पूरी जिम्मेदारी सौंपी है, वह एक चोर है। वह लूट-खसोट करते हुए सब कुछ बरबाद किए दे रहा है। जब तक प्रसन्नचन्द्र का पुत्र युवा होगा और राजा
बनेगा, तब उसके लिए कुछ बचेगा ही नहीं और यह बेवकूफ यहां आंखें बंद किए खड़ा है। प्रसन्नचन्द्र ने इसे सुना और अचानक नर्क के दरवाजे उसके लिए खुल गए वह भूल ही गया। ' '
वह भी एक समुराई, एक योद्धा एक क्षत्रिय था। वह पूरी, तरह भूल ही गया कि वह सब कुछ त्याग चुका है। वह भूल गया कि उसके पास कोई तलवार नहीं है, वह पूरी तरह भूल गया कि अब वह एक मुनि है। वह समुराई जो हाकुई के पास गया था, उसके पास तो एक तलवार भी थी। प्रसन्नचन्द्र के पास तो कुछ भी नहीं था। वह नंगा खड़ा था। लेकिन उसने जैसे तलवार खींच ली-वह तलवार जो वहां थी ही नहीं, वह बस एक भ्रम था और वह पूरी तरह भूल गया कि अब वह एक मुनि है। वहां सभी कुछ इतना भारयुक्त हो गया था, उस खबर को सुनकर वह इतना अधिक व्यग्र हो उठा था कि उसने म्यान से अपनी तलवार खींचकर जैसे सपने में कहा-' मैं अभी जीवित हूं। वह प्रधानमंत्री अपने को समझता क्या है? मैं अभी जाकर उसका सिर धड़ से अलग कर दूंगा। में अभी तो यहां जीवित हूं। '
ठीक अपनी पुरानी आदत के कारण-पुराने दिनों में वह जब भी क्रोधित हुआ करता था, वह हमेशा अपने मुकुट को छूता था, इसलिए उसने अपने मुकुट को छुआ और वहां कोई मुकुट नहीं था, वहां तो केवल उसका घुटा हुआ सिर था। तभी अचानक उसे याद आया-मैं कर क्या रहा हूं? यहां कोई तलवार भी नहीं है। मैं तो एक मुनि हूं और मैंने सब कु_छ छोड़ दिया है।
महावीर ने कहा-' ' उसी क्षण उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। यदि वह उस क्षण मर गया होता तो वह सातवें स्वर्ग में पहुंचता। प्रसन्नचन्द्र ने अनुभव किया कि वह किस कल्पना जाल में उलझ गया था। केवल कल्पना के द्वारा ही नर्क का द्वार खुल गया और अब वह बंद हो चुका है। यदि उस क्षण उसने शरीर छोड़ दिया होता तो वह सातवें स्वर्ग में पहुंचता। ' '
स्वर्ग और नर्क- तुम्हारे ही अंदर है। उनके दरवाजे बहुत निकट हैं, अपने सीधे हाथ से तुम एक को और अपने बाएं हाथ से तुम दूसरे को खोल सकते हो। बस मन की वृत्ति बदलते ही तुम्हारा पूरा अस्तित्व बदल जाता है। स्वर्ग से नर्क और नर्क से स्वर्ग। यह निरन्तर चलता रहता है। आखिर इसका रहस्य क्या है? रहस्य यह है कि जब तुम अचेत होते हो, जब तुम कृत्य बेहोशी में करते हो, बिना सजग हुए तुम नर्क में होते हो, और जब तुम सचेतन होते हो, जब तुम कृत्य होशपूर्वक करते हो, तुम स्वर्ग में होते हो यदि इस सजगता का एकीकरण होकर यह संगठित हो जाए तुम्हारे अंदर
तुम उसे कभी खो न सकी, तब वहां तुम्हारे लिए कोई नर्क होगा ही नहीं। यदि तुम्हारी बेहोशी इतनी अधिक प्रगाढ़ और एकीकृत हो जाए कि तुम उसे कभी खो ही न सकी, तब तुम्हारे लिए कहीं कोई स्वर्ग होगा ही नहीं।
लेकिन सौभाग्य से बेहोशी कभी इतनी प्रगाढ़ होती ही नहीं, उसका एक भाग हमेशा चेतन रहता है, जब तुम्हें अपना पूरा अस्तित्व अचेतन लगता है, तब भी तुम्हारा साक्षी होने का भाग हमेशा चेतन ही बना रहता है। यहां तक कि जब तुम सोते हो, उसका एक भाग साक्षी बना रहता है। यही कारण है कि सुबह तुम कभी--कभी यह कहते हो कि बड़ी सुंदर प्यारी नींद आई। कभी तुम कहते हो, नींद में डरावने स्वप्न आते रहे, बहुत व्याकुलता रही। कभी कहते हो, मैं इतनी गहरी नींद सोया, इतनी शांति और बहुत आनंदमयी नींद आई कि बस कुछ पूछो मत।
कौन जानता है इसे? क्योंकि तुम तो सोए हुए थे। इसलिए कौन जानता है कि तुम नींद में इतने अधिक आनंदित थे। चेतना का एक भाग साक्षी बना देख रहा था, एक भाग निरन्तर सजग था, जो जान रहा था। कौन जानता है कि नींद में डरावने सपने आए और तुम व्याकुल परेशान और व्यग्र रहे। तुम तो सोए हुए थे। फिर कौन जागता है इसे? एक भाग निरन्तर साक्षी बना रहा। यहां तक कि नींद में भी तुम्हारा एक भाग जानता रहता है। तुम पूरी तरह अचेत नहीं हो सकते।
और एक बार चेतना प्राप्त हो जाए फिर वह कभी खो नहीं सकती। तुम उसे भूल सकते हो, लेकिन वह खो नहीं सकती। तुम इस प्रक्रिया को उलट नहीं सकते। तुम सदा के लिए नर्क में नहीं रह सकते-ईसाइयों का यह सिद्धान्त पूरी तरह गलत और झूठा है, लेकिन तुम सदा के लिए स्वर्ग में रह सकते हो। यह हिन्दुओं की धारणा है। नर्क केवल अस्थायी हो सकता है,, वह कुछ समय के लिए तो हो सकता है। वह कालवाचक है। स्वर्ग हो सकता है शाश्वत। क्षणिक स्वर्ग और शाश्वत स्वर्ग के मध्य भेद करने के लिए हिन्दुओं के पास एक अलग शब्द है-मोक्ष। हिन्दुओं के पास तीन
शब्द हैं जबकि ईसाइयों, मुसलमानों और यहूदियों के पास केवल दो शब्द हैं।
स्वर्ग और नर्क दो शब्द हैं, मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों के लिए और हिन्दू कहते हैं-नर्क, स्वर्ग और मोक्ष-जो दोनों के पार एक तीसरा शब्द है। हिन्दू कहते हैं-स्वर्ग में प्राप्त करने जैसा कुछ है ही नहीं, उसे खोया जा सकता है। जब स्वर्ग की दशा स्थायी बन जाती है, जब उसे खोया नहीं जा सकता तो वही मोक्ष है। परिपूर्ण स्वतंत्रता। तब आनन्द तुम्हारा स्वभाव बन जाता है, तब स्वर्ग और नर्क दोनों मिट ही जाते हैं। तब तुम कहीं भी रहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम रहोगे हमेशा स्थायी परमानंद में।
यही तीसरी दशा ही लक्ष्य है हिन्दुओं का, लेकिन तुम यह तीसरी दशा प्राप्त नहीं कर सकते, यदि तुम हिलते-डुलते रहो, यदि तुम स्वर्ग और नर्क के मध्य झूलते रहो, तब कुछ भी एकीकृत और संगठित नहीं हो सकता। तब तुम बातों के कौलाहल में रहते हो, तब अस्तित्व तरल होकर बहता रहता है। वह एक निश्चित, स्थायी और पारदर्शी सघन रूप नहीं ले पाता अर्थात तुम्हारा ' क्रिस्टीलाइजेशन ' नहीं हो पाता। कभी तुम बहकर नर्क में चले जाते हो और कभी स्वर्ग में। क्रिस्टीलाइजेशन का अर्थ
है-तुम अधिक-से- अधिक होशपूर्ण बनी, तुम अधिक-से-अधिक केन्द्रित होकर अपनी पूरी चेतना अपने केन्द्र पर एकीकृत कर दो, तुम अधिक-से- अधिक जीवन्त और गहरे बनो, कम-से-कम सोए और अधिक-से- अधिक सचेत बनो। एक क्षण ऐसा आता है जब तुम भले ही नींद में हो तुम पूर्ण सचेत होते हो।
आनन्द, बुद्ध के कक्ष में उन्हीं के साथ सोता था। एक बुद्ध देखने जैसा होता है, जब वह सो रहा हो। इसलिए आनन्द कभी-कभी उन्हें सोते हुए देखता रहता था- बुद्ध को सोए हुए देखना बहुत सुंदर घटना और अवसर होता था। वह एक निर्दोष छोटे बच्चे की तरह दिखाई देते थे, जिसके पास दिन- भर का कोई बोझ नहीं होता था और उनकी नींद स्वप्नरहित होती थी।
तुम स्वप्न केवल इसलिए देखते हो, क्योंकि तुम एक भार लिए चल रहे हो, तुम स्वप्न केवल इसलिए देखते हो क्योंकि दिन अधूरा गुजारा तुमने। बहुत-सी चीजें दिन में अधूरी छूट गईं, जिन्हें तुम्हें सपनों में पूरी करना है। तुमने एक स्त्री को देखा था, तुमने उसकी कामना की थी, पर उसे प्राप्त करना सम्भव न था। समाज, कानून, राज्य, नैतिकता, तुम्हारा विवेक तुमने अपना ध्यान दूसरी ओर मोड़ दिया। तुम उस स्त्री से दूर भाग गए थे, लेकिन वह स्वप्न में तुम्हारा पीछा करेगी और वह अधूरा कार्य पूरा होगा। तुम इस स्त्री से प्रेम करो, यदि वास्तविकता में न सही तो स्वप्न में, केवल तभी तुम्हारी बेचैनी दूर होगी। अधूरा कार्य ही एक भार बन जाता है।
एक बुद्ध की नींद स्वप्नरहित होती है क्योंकि उसके लिए कुछ भी अधूरा नहीं रह गया। वहां न कोई कामना है और न कोई लालसा। क्रोध, वह उठता ही नहीं और न वह बना रहता है। चीजें उसके सामने से यों गुजर जाती हैं जैसे वे एक दर्पण के सामने से गुजर रही हों। एक स्त्री सामने से निकल जाती है, बुद्ध उसे देखते हैं, लेकिन कोई लालसा नहीं उठती। स्त्री गुजर गई, दर्पण फिर खाली रह गया, उसका कोई चिह्न या छाप पीछे नहीं छूटी। उसकी नींद स्वप्नरहित होती है।
एक बच्चे की भी नींद स्वप्नरहित नहीं होती, यहां तक कि एक बच्चे की भी कामनाएं होती हैं। वह कामना भले ही एक स्त्री के लिए न हो। वह एक खिलौने के लिए या किसी अन्य चीज के लिए हो सकती है, लेकिन एक बच्चा भी स्वप्न देखता है। बिल्ली और कुत्ते भी स्वप्न देखते हैं। एक सोती हुई बिल्ली की ओर देखो और तुम्हें अनुभव होगा कि वह चूहे का स्वप्न देख रही है। वह उछल रही है, पकड़ रही है, कभी निराश तो कभी बहुत खुश है। एक सोते हुए कुत्ते को देखो, तुम अनुभव
करोगे कि वह मक्खियों या हड्डियों अथवा लड़ने के बारे में सपने देख रहा है। कभी वह तनावग्रस्त होता है तो कभी विश्रामपूर्ण। उसकी नींद व्यग्रता से गुजरती है।
एक बुद्ध को सोते हुए देखना बहुत सुंदर अनुभव है, इसीलिए आनन्द उन्हें देखा करता था। बुद्ध सो रहे होते और आनन्द बैठा उन्हें देख रहा होता। जैसे वह अस्तित्व के मौन सरोवर हों। उनमें अधूरा कुछ भी नहीं, हर चीज और हर क्षण ठीक और परिपूर्ण, मन जैसे कोरा दर्पण, जिसमें न स्वप्न और न कोई निशान प्रतिबिम्बित होता, चेतना का बिना कीचड़ का स्फटिक जैसा पारदर्शी निर्मल जल।
आनन्द हैरान हो जाता यह देखकर, क्योंकि बुद्ध हमेशा एक ही करवट सोते थे। वे पूरी रात उसी करवट लेटे रहते, कभी करवट बदलते ही नहीं। वे जिस मुद्रा में लेटते थे, वह मुद्रा बहुत प्रसिद्ध हो गई और उसे शयन मुद्रा कहा जाने लगा। तुमने भी बुद्ध की यह मुद्रा देखी होगी। श्रीलंका, चीन, जापान और भारत में उनकी इसी मुद्रा में बहुत-सी मूर्तियां और चित्र हैं। यदि तुम अजन्ता जाओ तो बुद्ध की लेटी हुई मुद्रा में वहां भी उनका एक चित्र और मूर्ति है। यह वही मुद्रा है जिस मुद्रा में बुद्ध लेटते थे और जिसका उल्लेख आनन्द ने किया है। वही मुद्रा जिसमें वे करवट लिए बिना पूरी रात
सोते थे।
अत : एक दिन आनन्द ने पूछा-' ' भगवान। यों तो हर चीज ठीक है लेकिन एक बात मुझे उलझन में डालती है कि आप पूरी रात एक ही मुद्रा में बने रहते है। आप सोते भी हैं या नहीं ? क्योंकि यदि कोई सोता है तो वह कई मुद्राएं बदलेगा। फिर भी जब आप सोते है या सोते हुए जान पड़ते हैं तो ऐसा लगता है जैसे आप पूर्ण सजग हों, ऐसा लगता है, जैसे आप पूर्ण चेतन हों। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आप जान रहे हों कि शरीर क्या कर रहा है। आप अचेतावस्था में भी कभी मुद्रा नहीं बदलते। ''
बुद्ध ने कहा-' ' हां आनन्द! जब चित्त शांत हो जाता है, जब स्वप्न नहीं रहते तब केवल शरीर सोता है। चेतना सदा सजग बनी रहती है। ' '
गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है-' ' योगी रात में सोता हुआ भी जागता रहता है। वह रात में सोते हुए भी नहीं सोता। उसका केवल शरीर सोता है, उसका शरीर विश्राम करता है, लेकिन उसकी चेतना निरन्तर सजग बनी रहती है। वास्तव में एक योगी की चेतना को विश्राम की आवश्यकता होती ही नहीं, क्योंकि वह सदा वि श्रामपूर्ण ही होती है, उसमें कहीं कोई तनाव होता ही नहीं। विश्राम की आवश्यकता तो तब होती है, जब तनाव हो। तुम पूरे दिन इतने अधिक तनावपूर्ण रहते हो कि तुम्हारी चेतना विश्राम करना चाहती है। एक योगी का शरीर विश्राम करता है क्योंकि शरीर थक जाता
है, शरीर एक यात्रिक ढांचा है-लेकिन उसकी चेतना सदा सजग और निरन्तर सावधान रहती है। वह सजगता का एक सतत प्रवाह है। ' '
जब तुम्हारी चेतना न टूटने वाली सजग अनुभूति बन जाती है, फिर उसमें मूर्च्छा के अंतराल नहीं होते। जब तुम्हारे अंदर वहां कोई अंधकार नहीं होता, तब तुम्हारे अंदर का मंदिर बोध के प्रकाश से आलोकित हो उठता है। प्रकाश की किरणें हर कोने तक पहुंचकर घर के किसी भी भाग में अंधकार रहने ही नहीं देती। तुम मुक्त हो जाते हो, तुम एक स्वतंत्र व्यक्ति होते हो। क्राइस्ट का यही अर्थ है। अपने मन का शासक, मुक्तिदाता, पुनर्जीवन प्राप्त करने वाला मनुष्य। अब तुम्हारे लिए कोई रात होती ही नहीं, केवल दिन होता है। अब तुम्हारे अंदर सूरज कभी डूबता नहीं।
स्वर्ग का अर्थ है-चैतन्य और नर्क का अर्थ है-मूर्च्छा और वहां एक से दूसरे में गतिशील होने की सम्भावना है। जब यह सम्भावना तिरोहित हो -जाती है फिर वहां न स्वर्ग होता है और न नर्क। तब एक तीसरा, सर्वोच्च का द्वार खुलता है तुम स्वतंत्र ही नहीं, स्वतंत्रता ही हो जाते हो। यही लक्ष्य है।
हाकुई ने ठीक ही किया, लेकिन यह केवल एक योद्धा के साथ ही किया जा सकता था। उस योद्धा से तुरन्त उसका प्रत्युत्तर आया-वह पहले क्रोधित हुए, क्रोध का रौद्र अवतार ही बन गया। यदि वह एक व्यापारी होता तो वह मुस्कराया होता, क्रोध उसके अंदर होता। वह हाकुई का सिर तुरन्त धड़ से अलग करने को तत्पर न होता और हाकुई का उत्तर देना व्यर्थ हो जाता।
तुम भी इसे करके देखो-जब तुम क्रोध में हो, तुम मुस्कराओ। तुम इतने झूठे और अप्रामाणिक बन गए हो कि तुम क्रोध में भी झूठ बोलते हो। तुम्हारे प्रेम पर: भी विश्वास नहीं किया जा सकता, क्योंकि तुम्हारा क्रोध भी अविश्वसनीय है। तुम्हारा तु जीवन निरन्तर बोला गया झूठ है। तुम जो कुछ भी करते हो, तुम सच्चे नहीं होते। क्रोध, तुम उसके प्रति भी सच्चे नहीं हो तुम उस पर मुस्कान चिपकाकर उसे छिपाते हो-तुम कुछ और ही दिखाना चाहते हो। तब तुम सजग नहीं बन सकते, और यही है-नर्क का द्वार।
वह योद्धा एक बच्चे की तरह था-वह पूरी तरह समग्र रूप से क्रोधित हो -उठा। वह इतना अधिक क्रोधित हो उठा कि वह उस व्यक्ति की हत्या करने जा रहा था, जिसके पास वह शिष्य होने के लिए आया था। वह सद्‌गुरु की तलाश में आया था और वह उसी व्यक्ति को मारने जा रहा था। वह समग्र था। उसकी समग्रता ने ही उसकी सहायता की। यदि तुम अपने क्रोध में समग्र हो तो तुम क्रोध के जाने पर समर हो जाओगे और यदि तुम्हारा क्रोध झूठा है तो तुम अपने मौन में भी प्रामाणिक नहीं हो सकते।
इसलिए जब हाकुई ने कहा- ' ' देखो! तुमने खोल दिया नर्क का द्वार। ' ' तुरन्त समुराई ने उसका अनुभव किया। इसका अनुभव केवल तभी किया जा सकता है जब तुम समग्र और सच्चे हो, अन्यथा अनुभव नहीं किया जा सकता। तुम ऐसे धोखेबाज हो कि तुमने हाकुई को भी धोखा दे दिया होता। तुम मुस्कराए होते, इसका अर्थ है कि जो नर्क का दरवाजा खुला होगा, लेकिन तुमने उस पर स्वर्ग का साइनबोर्ड लगा दिया होता। बाहर से देखने पर यह लगता कि यह स्वर्ग है पर अन्दर होता नर्क। तुम विभाजित और खण्डित हो। नहीं, इससे कुछ भी सहायता मिलने वाली नहीं। वह योद्धा अपने
क्रोध में इतना अधिक समग्र हो गया कि उसने अपनी सारी चेतना खो दी। वह क्रोधित नहीं हुआ, वह क्रोध ही बन गया। वहां और कोई था ही नहीं जो क्रोध में हो-वह बस क्रोध ही बन गया। उसकी पूरी ऊर्जा क्रोध बन गई। वह पागल हो उठा। ऐसे ही समग्रता के शिखर पर चीजों को अनुभव किया जा सकता है क्योंकि वे गहराई में तुम्हारे अंदर उतर जाती है और तब कोई भी सजग बन सकता है।
हाकुई ने कहा-' ' देखो! ' ' और वह योद्धा देख सका। वह एक सच्चा आदमी था। जब हाकुई ने कहा-' ' यह है नर्क का द्वार। ' ' वह उसका अनुभव कर सका। जब तुम समग्र होते हो, तुम तभी महसूस कर सकते हो। अचानक क्रोध तिरोहित हो गया और क्योंकि वह समग्र था, वह पूरी तरह तुरन्त गायब भी हो गया। यदि वह खण्डित होता तो वह पूरी तरह तिरोहित भी नहीं हो सकता था। वह समग्र था, इसलिए पूरा- का-पूरा ही विलुप्त हो गया। पीछे एक गहरा मौन रह गया। यही मैं निरन्तर तुमसे कहता आ -रहा हूं। समग्र बनो, प्रामाणिक -बनो और सच्चे बनो।
यदि तुम एक पापी हो तो एक सच्चे पापी बनो, संत बनने का दिखावा करने की कोशिश मत करो। एक सच्चा पापी देर--सवेर संत बनेगा ही। बस समय की बात है। एक सच्चा पापी प्रामाणिक है, आवश्यक बात यही है, पाप नहीं है आवश्यक बात। मैंने सुना है, एक फेरीवाला पकड़कर न्यायालय लाया गया। वह बिना लाइसंस के काम कर रहा था। वह शहर में नया आदमी था, लेकिन यह जानता था कि -लाइसेंस लेना जरूरी है। वहां मजिस्ट्रेट के सामने कुछ और लोग भी खड़े हुए थे-तीन औरते
भी पकड़ी गई थीं। वे वेश्याएं थीं जो बिना लाइसेंस' के धंधा चला रही थीं। यह वास्तव में एक आश्चर्यजनक संसार है-सरकारें वेश्यावृत्ति के लिए भी लाइसेंस देती हैं। चूंकि वे बिना लाइसेंस लिए धंधा चलाने के जुर्म में पकड़ी गई थीं, अत: मजिस्ट्रेट ने पहली स्त्री से पूछा-' ' तुम्हें क्या कहना है तुम कौन हो और क्या कर रही थी? ' ' स्त्री ने कहा-' ' मैं एक मॉडल हूं। ' '
वह झूठ बोल रही थी। मजिस्ट्रेट ने उसे तीस दिनों के सख्त कारावास की सजा सुनाई।
फिर उसने दूसरी स्त्री से वही प्रश्न किया। उसने कहा-' ' कहीं-न-कहीं कुछ- न-कुछ गलत है। मैं गलत जुर्म में पकड़ी गई हूं। मैं तो एक अभिनेत्री हूं। ' '
मजिस्ट्रेट ने उसे साठ दिनों के लिए जेल भेजने की सजा सुनाई।
फिर उसने तीसरी स्त्री की ओर देखा। उस तीसरी स्त्री ने कहा-' ' श्रीमान! मैं एक वेश्या हूं।''
मजिस्ट्रेट विश्वास कर ही न सका कि एक वेश्या भी इतनी सच्ची हो सकती है और कोई भी बात इतनी सत्यता से स्वीकार कर सकती है।
उसने कहा-' ' प्रामाणिकता और सत्य बोलना इतना दुर्लभ हो गया है कि तुमने मुझे अंदर से हिला दिया। मेरा कभी ऐसे व्यक्ति से आमना-सामना नहीं हुआ जो सच्चा हो। जाओ, मैं तुम्हें माफ करता हूं। मैं तुम्हें कोई सजा दूंगा ही नहीं। ' '
तब नंबर आया उस फेरीवाले का। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा-' ' तुम क्या कर रहे हो? ' '
उसने कहा-' ' स्पष्ट कहना ही उचित होगा। मैं भी एक वेश्या हूं। ' '
यही है वह जो सब कुछ चले जा रहा है। चेहरे, सभी ओर नकली चेहरे और धोखा। तुम इसके प्रति सजग भी नहीं हो कि तुम कैसे धोखा देते हो और किसे धोखा देते हो। वहां कोई है ही नहीं जिसे धोखा दिया जाए तुम अपने को ही धोखा दिए जा रहे हो, कभी उससे छिपने की कोशिश करते हो और कभी उससे दूर भाग जाने की। इस तरह का झूठ वहां था ही नहीं, वह योद्धा एक सच्चा इंसान था। हर समय मरने मारने को तैयार। वह तुरन्त इतना प्रज्वलित हो उठा कि आग की लपट बन गया।
दरवाजा खुल गया। तुम्हारा दरवाजा पूरी तरह कभी खुला नहीं होता-तुम छेदों के द्वारा चोरी से झांकते हो। तुम्हारे स्वर्ग का दरवाजा भी कभी पूरा खुला नहीं होता, तुम पिछले द्वार से प्रवेश करते हो।
किसी भी माध्यम के लिए जो आधारभूत चीज है-वह है-समग्र होना, तभी वह सत्य और मौन को प्राप्त कर सकता है। जब तुम क्रोधित होते हो तो क्रोध ही हो जाओ। परिणाम के बारे में सोचो ही मत। जो परिणाम होता है, उसे होने दो, उसे बरदाश्त करो, लेकिन स्वयं को धोखा मत दो।
जब नर्क में प्रवेश करो तो समग्रता से प्रविष्ट होकर पूरी पीड़ा से गुजरो। अपने आधे मन को बाहर छोड्‌कर और आधे को अंदर रखकर कभी उससे होकर मत गुजरी। पूरी तरह बरदाश्त करो। वहां दर्द तो होगा, लेकिन दर्द ही परिकाष्ठा  देता है। उस आग से गुजरते हुए पीड़ा तो होती ही है, लेकिन यदि तुम समझ गए तो उसका अतिक्रमण कर जाते हो। केवल समग्र मन ही इसे समझ सकता है। जब क्रोध विलुप्त होता है तो तुम इतने शांत और ध्यानपूर्ण हो जाते हो।
यदि तुम प्रेम करते हो तो प्रेम भी समग्रता से करो। यदि तुम घृणा करते हो तो घृणा भी समग्रता से करो। उसे खण्डित होकर मत करो, जो भी परिणाम हो, उसे बरदाश्त करो। परिणामों के कारण तुम धोखा देने की कोशिश करते हो-तुम हो फेरीवाले और कहते हो-- एक वेश्या हूं। केवल परिणामों की चिंता के कारण ही तुम कभी क्रोध नहीं करते, कभी अपनी तृणाप्रकट नहीं करते, तब तुम स्वर्ग से भी जाओगे। जो भी व्यक्ति पूरी तरह नर्क का द्वार खोलने में भी सक्षम नहीं है, वह स्वर्ग का द्वार पूरी तरह खोलने में भी सक्षम न हो सकेगा। नर्क के द्वारा ही जाओ। स्वर्ग का रास्ता नर्क
के द्वारा ही गुजरता है और स्वर्ग, नर्क के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यही अर्थ है इस वृत्तान्त का।
हाकुई ने उस योद्धा के लिए पहले नर्क निर्मित किया, नर्क ही पहले निर्मित होना चाहिए था। नर्क निर्मित करना आसान है-तुम हमेशा तैयार ही हो, हमेशा उसका दरवाजा खटखटा ही रहे हो। तुम डरे हुए हो, लेकिन तैयार हो, इतना साहस नहीं-जुटा पाते पर हमेशा उसके लिए तैयार हो, खतरे का सामना नहीं करते लेकिन उसके लिए तैयार हो। वहां अंदर, निरन्तर कौलाहल ही हो रहा है। हाकुई ने पहले स्वर्ग निर्मित नहीं किया, जो असम्भव था, क्योंकि किसी की तैयारी नहीं थी। स्वर्ग बहुत दूर है और नर्क बहुत पास, ठीक उस कोने में। तुम जरा चलो और उसमें पहुंच जाओ।
मैं भी तुम्हारे लिए स्वर्ग निर्मित नहीं कर सकता। यही कारण है कि मेरी सभी ध्यान विधियां पहले नर्क निर्मित करने के लिए ही तैयार की गई हैं। लोग मेरे पास आते है और कहते हैं-? ' हमें आप शांत बना दीजिए। आप हमें पागल बनाने पर जोर क्यों देते हैं? ' '
मैं कुछ भी नहीं कर सकता-तुम शांत नहीं हो सकते। पहले पूरी तरह पागल बनो। मैं तुम्हारे लिए नर्क निर्मित करता हूं और तुम्हें उससे होकर गुजरना है। यह सबसे निकटतम चीज है। तुम इसे आसानी से कर सकते हो। स्वर्ग तो बहुत दूर है और जिसने नर्क से गुजरते हुए वहां की यात्रा नहीं की है, वह वहां पहुंच नहीं सकता। सभी विचारने के बाद ही मैं इसके लिए आग्रह कर रहा हूं।
अब तुम इस कहानी को समझ सकते हो। हाकुई ने योद्धा से कहा-' ' तुम और समुराई? तुम्हारा चेहरा तो भिखारी जैसा दिखाई देता है। ' '
एक समुराई इस बात को सहन नहीं कर सकता, यह बहुत अधिक है। एक भिखारी? वह कभी भी अपने जीवन की भीख नहीं मांगेगा। वह मर जाएगा, लेकिन भीख नहीं मांग सकता। तुरन्त ही उसके केन्द्र को छू दिया गया। एक भिखारी, असम्भव! तलवार म्यान से बाहर आ गई।
मैं भी तुम्हें छूकर तुम्हारे तार छेड़ रहा हूं तुम पर प्रहार कर रहा हूं। अपनी सभी ध्यान विधियों में तुम पर चोट कर रहा हूं जिससे तुम्हारा नर्क बाहर आए। लेकिन तुम इतने कायर हो कि यदि तुम्हारा नर्क बाहर भी आ जाता है, पर फिर भी वह पूरा नहीं होता। तुम उसके साथ खेलते हो, तुम उसमें डूबते नहीं, तुम खण्डित हो। तुम सिर्फ कुनकुने होकर रह गए हो। इस कुनकुनेपन से कुछ नहीं होने का। तुम्हें उबलने के बिंदु तक आना होगा, केवल तभी तुम भाप बन सकोगे। अहंकार सौ डिग्री के उबलने के बिंदु पर ही भाप बनकर उड़ता है, उससे पहले नहीं। तुम बस कुनकुने होकर रह गए हो। इसका कोई उपयोग नहीं, यह तो गर्मी की ऊर्जा का व्यर्थ अपव्यय है। तुम फिर ठंडे पड़ जाओगे, ध्यान के बाद ही ठंडे हो जाओगे। अपने रेचन में अति पर जाकर ही नर्क का दरवाजा खुलता है और मैं तुमसे वायदा करता हूं यदि तुम नर्क का द्वार खोल सके तो मैं दूसरा स्वर्ग का द्वार तुरन्त खोल दूंगा। वह हमेशा से खुला हुआ ही है। एक बार तुमने नर्क का द्वार खोल दिया तो वह ठीक उसके निकट ही है। इतना कहना ही काफी है, ' देखो, यह रहा नर्क का द्वार। ' तब वह दरवाजा बंद हो जाता है और स्वर्ग

का दरवाजा खुल जाता है।
क्या कोई बात और?
००
प्रश्न : प्यारे ओशो? जैसा आपने अभी स्वर्ग और नर्क के बारे में
कहा, इसका उससे क्या संबंध है? जरे अभी तक आप जड़ों और
आकाश में पंखों के साथ उड़ान भरने के बारे में कह रहे थे जबआप
कहते है कि इस पृथ्वी में अपनी जड़ें जमाओं और पंखों के साथ स्वर्ग
में उड़ान भरो? मेरे अन्दर यह अहसास बहुत विस्तार से फैल चुका है
कि पृथ्वी तो अत्यंत निकट है और स्वर्ग बहुत-- बहुत दूर है। साथ हरई
' यह ' और ' वह ' का महत्व भी समझाने की अनुकम्पा को

हां! यह पृथ्वी निकट है लेकिन वह इस वजह से निकट नहीं है बल्कि तुम्हारे कारण निकट है। वहां स्वर्ग बहुत दूर है इस वजह से वह दूर नहीं है बल्कि तुम्हारे कारण ही वह दूर है।
' यह ' का अर्थ है-यह संसार, ' यह ' का अर्थ है यह शरीर। ' यह ' का अर्थ है ये कामनाएं ये क्रोध और घृणा आदि और ये भौतिक दृश्यमान जगत। ' यह ' का अर्थ है वह सभी कुछ, जिसकी धर्मों द्वारा निंदा की गई है। वे हमेशा ' यह ' के विरुद्ध हैं ' ' वह ' का अर्थ हैं-ब्रह्म। ' वह ' का अर्थ है मोक्ष, ' वह ' का अर्थ है दिव्यता या भगवत्ता। ' यह ' का अर्थ है-यह भौतिक संसार, यह शैतानी संसार, जो विश्व के सभी धर्मों द्वारा निंदित किया गया है। मैं इसकी निंदा नहीं करता। मैं इसी संसार के लिए तुम्हें जडें देना चाहता हूं। सभी धर्म यही कहते हैं कि जब तक इस जगत से जुड़ी तुम सारी जड़ों को अलग निकालकर न फेंक दो, तुम ' वह ' में जाने के लिए पंख नहीं पा सकते।
वे सभी ' यह ' अर्थात इस संसार, इस शरीर और सभी दृश्यमान पदार्थों के विरुद्ध हैं। तुम सभी जिसे निकट जैसा महसूस करते हो, वे उसके विरुद्ध हैं। वे सभी उसकी बात करते हैं जो तुमसे बहुत-बहुत दूर हैं जो कुछ चीज वास्तविकता से पृथक है, जिसे वे ब्रह्म, परमात्मा या मोक्ष कहते हैं। उसे कोई नहीं जानता, ' उससे ' किसी का कभी संबंध नहीं जुड़ा, कोई सम्पर्क नहीं हुआ और न किसी ने ' उसका ' स्पर्श तक किया। वह एक सपने जैसा दिखाई देता है, ठीक एक कविता या कल्पना की भांति।
सभी धर्मों ने ' यह ' की निंदा की है। वे कहते हैं-संसार से अपनी जड़ें अलग कर दो और इसी कारण वे संन्यास को संसार का त्याग कहते हैं वे ' यह ' को छोड़ना ही संन्यास कहते हैं, लेकिन मैं नहीं। वे एक द्वैत उत्पन्न करते हैं न केवल द्वैतता, बल्कि ' यह ' और ' वह ' के मध्य, समय और शाश्वता के मध्य, भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य वे एक विरोध उत्पन्न करते है।
मेरे देखे ' यह ' के अंदर जमी जड़े, तुम्हें ' वह ' तक जाने को पंख मिलने में सहायता -देती हैं। मैं कोई विरोध उत्पन्न नहीं करता और न कोई विरोध है। विरोध का भाव तो उस मन से आता है, जो सदा द्वैतता और संघर्ष में रहता है। संघर्ष करने से सिद्धान्तों का जन्म होता है जिनमें द्वैतता और वाद-विवाद है। मैं अद्वैत हूं मेरा किसी से कोई संघर्ष नहीं। इसलिए मैं ' वह ' को ' यह ' के विरुद्ध नहीं, ' यह ' की ही खिलावट मानता हूं। मैं पंखों को जड़ों के विरुद्ध नहीं, बल्कि- उन्हें जड़ों की खिलावट के रूप में ही देखता हूं। ये वृक्ष, आकाश में अपने पंख फैलाए खडे हैं, उनकी शाखाएं ही उनके पंख हैं। उनकी जड़ें पृथ्वी में हैं और पंख आकाश में। मैं चाहता हूं कि तुम एक मजबूत पेड़ की तरह बनो, जिसकी जल्द ' यह ' में और राख ' वह ' में हों।
मेरा परमात्मा संसार के विरुद्ध नहीं है, मेरा परमात्मा तो संसार या अस्तित्व ही है। यह पृथ्वी भी उस स्वर्ग के विरुद्ध नहीं है, वे दोनों एक वस्तु के ही दो विपरीत ध्रुव है।
' यह ' तुम्हें अपने निकट लगता है क्योंकि तुम्हारा मन अभी इस दशा में नहीं है कि वह अदृश्य को देख सके। तुम्हारा मन इतना परेशान और इतने निम्न स्तर पर है कि तुम केवल असमतल और दृष्टिगोचर ही देख सकते हो, सूक्ष्म वस्तुएं तुमसे के -जाती हैं। यदि तुम्हारा मन शांत व निर्विचार हो जाए तो सूक्ष्म चीजें भी दृश्यमान हो जाएंगी। परमात्मा दृश्यमान नहीं है, पर वह हर जगत् उपस्थित है, लेकिन तुम्हारा मन अभी तक सूक्ष्म चीजों से अदृश्य को देखने में लयबद्ध नहीं हो सका है। अदृश्य को भी -देखा जा सकता है।
अदृश्य का अर्थ होता है, वह जिसे देखा न जा सके, लेकिन नहीं, अदृश्य भी देखा जा सकता है, केवल तुम्हें अधिक परिष्कृत और अधिक सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। एक अंधा व्यक्ति नहीं देख सकता, वह उसे भी नहीं देख सकता जो तुम्हें दिखाई देता है, लेकिन आंखों का इलाज कर उसे दृष्टि दी जा सकती है, तब वह धूप, रंग और इन्द्रधनुष सभी कुछ देख सकेगा। वह सभी जो कुछ अदृश्य था, अब उसके लिए दृश्यमान हो जाता है।
परमात्मा दृश्यमान नहीं है। तुम्हारे पास ही सम्यक अंतर्दृष्टि या ठीक आंखें नहीं है, बस इतनी-सी ही बात है। तुम अभी वह लयबद्ध अस्तित्व नहीं हो जिसके लिए सूक्ष्म अपने द्वार खोलता है।
मेरे लिए ' यह ' और ' वह ' विभाजित नहीं है। ' यह ' ' वह ' में पहुंच जाता है और ' वह ' आ जाता है ' यह ' में। तुम्हारे लिए ' वह ' का अर्थ है-जो बहुत दूर है-जो मेरे लिए नहीं है। मेरे लिए ' यह ' है, ' वह ' किसी दिन तुम्हारे लिए भी ऐसी स्थिति होगी जब ' यह  ' वह ' बन जाएगा। यह संसार ही परमात्मा है। यह दृश्यमान ही अदृश्य को छिपा लेता है। इसी कारण मेरा संन्यासी त्यागी नहीं है। मेरा संन्यास किसी चीज के विरोध में नहीं है। वह समग्रता के लिए अखण्ड होने के लिए है।
अपने शरीर में जड़ें जमाए रहो, जिससे आत्मा में जाने के लिए तुम पंख पा सकी। जमीन में जड़ें जमाए रहो जिससे तुम आकाश में फैल सको, दृश्यमान में जड़ें बनाए रखो, जिससे तुम अदृश्य में पहुंच सको। न तो द्वैतता उत्पन्न करो और न कोई सक्रिय विरोध। यदि मैं किसी चीज के विरुद्ध हूं तो मैं सक्रिय विरोध के विरुद्ध हूं। मैं किसी चीज के विरुद्ध बनने के विरोध में हूं। मैं जीवन के इस पूरे अखण्ड वर्तुल के लिए हूं। यह संसार और परमात्मा कहीं भी विभाजित नहीं हैं। वहां कोई सरहद नहीं है-संसार ही फैलता हुआ परमात्मा है और परमात्मा जो निरन्तर विस्तार ले रहा है,
वही संसार है। वास्तव में दो शब्दों का प्रयोग करना ही ठीक नहीं है, लेकिन भाषा समस्याएं उत्पन्न करती है। जब हम सृष्टि कर्ता और सृष्टि कहते हैं, हम उन्हें दो में विभाजित कर देते हैं, क्योंकि भाषा द्वंद्वात्मक है। वास्तव में, अस्तित्व में वहां न सृष्टिकर्ता है और न सृष्टि, केवल सृजनात्मक है, केवल अनन्त सृजन की एक प्रक्रिया है। यहां कुछ भी विभाजित नहीं है, प्रत्येक चीज एक है- अविभाजित है।
भाषा, ठीक एक राजनीतिक-नक्शे की तरह है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, राजनीतिक नक्शे पर बांटे गए देश हैं। यदि तुम घूमती हुई पृथ्वी से स्वयं पूछो कि भारत कहां समाप्त होता है और कहां पाकिस्तान शुरू होता है तो पृथ्वी हंसेगी और सोचेगी कि तुम पागल हो गए हो। पृथ्वी गोल है, वह एक है, केवल राजनैतिक नक्शे  पर नक्शे सभी झूठे हैं और राजनीतिज्ञ, वे पागल आदमी हैं, ऐसे पागल जिन्होंने शक्ति और सत्ता प्राप्त कर ली है। ये लोग पागलखानों में बंद पागलों से कहीं अधिक खतरनाक है, क्योंकि उनके पास शक्ति और सत्ता है।
भाषा भी राजनीतिक नक्शो की भांति है, शब्द विभाजित करते हैं और अस्तित्व एक है। कहां तुम समाप्त करोगे और मैं कहां से शुरू करूंगा कहां है वह बिंदु जिससे जहां मैं समाप्त करूं और तुम शुरू करो और वहां हम एक रेखा खींच सकें? कहां? वहां कोई भेद किया ही नहीं जा सकता और न कोई सीमा रेखा खींची जा सकती है। वायु तुम्हारे अंदर बहे चले जाती है, तुम सांस लेते हो, यदि एक क्षण के लिए भी तुम्हारे अंदर वायु बहना बंद कर दे और श्वास न आए तो तुम मर जाओगे और वह वायु जो मेरे अन्दर क्षण- भर पूर्व थी, उसने मुझे छोड्‌कर तुममें प्रवेश कर लिया। ठीक एक क्षण पहले वह मेरा जीवन था और अब वह तुम्हारा जीवन है। तुम्हारी श्वास मुझ तक पहुंच गई है, वह तुम्हारा जीवन था और अब यह मेरा जीवन है। हम लोगों को कहां विभाजित किया जा सकता है?
तुम्हारे और मेरे मध्य जीवन शैली जैसी कोई चीज है, जो प्रवाहित हो रही है। वृक्ष ऑक्सीजन उत्पन्न किए जा रहे हैं और तुम श्वास लेते हो। यदि सभी वृक्ष मिट जाएं तो तुम भी मिट जाओगे। वृक्ष निरन्तर ब्रह्माण्डीय किरणों को भोजन में बदल रहे हैं-ये फल और सब्जियां ही वही भोजन हैं। यदि वे मिट जाएं तो तुम भी नहीं रहोगे। वे निरन्तर तुम्हारे लिए भोजन उत्पन्न किए जा रहे हैं और इस तरह तुम जीवित हो। यह सारी हरियाली तुम्हारे लिए भोजन उत्पन्न करने की एकसतत प्रक्रिया है और तुम उस पर निर्भर हो।
बादल विचरण करते हुए तुम्हारे लिए जल ला रहे हैं। सब कुछ एक दूसरे से संबंधित है, जुड़ा है। बहुत दूर से सूरज तुम तक अपनी किरणें भेजता है और वे किरणें ही जीवन हैं। यदि सूरज बुझ जाए तो सारा जीवन मिट जाएगा। यद्यपि सूरज भी यह ऊर्जा किसी अन्य स्रोत से प्राप्त कर रहा है। वैज्ञानिक अभी तक उस स्रोत को खोज पाने में सफल नहीं हुए हैं, लेकिन यदि वह स्रोत मिट जाए तो हर चीज नष्ट हो जाएगी। प्रत्येक चीज एक दूसरे से संबंधित है, एक दूसरे से जुड़ी हुई है। इस संसार का अस्तित्व खण्डों में नहीं इसका अस्तित्व पूर्णता में है, एक अखण्ड की भांति।
मेरे लिए ' यह ' -और- ' वह ' ही परमात्मा है। इसीलिए मैं बहुत परस्पर-विरोधी बातें कहता हूं। मैं तुम्हें दो चीजें देना चाहता हूं-पृथ्वी में जाने के लिए जड़े, जो सभी इसी संसार में हैं और स्वर्ग में जाने के लिए पंख, वह स्वर्ग जो अभी तुम्हारे लिए सभी वास्तविकता से पृथक है और वह सब कुछ जिसे अभी तुम समझ नहीं सकते और जो मन के पार है। सीमित के लिए जडें और असीमित के लिए पंख। तुम्हें ' यह ' छोड़ने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि यदि तुम ' यह ' अर्थात संसार छोड़ते हो तो तुम अपनी जड़ें ही छोड़ रहे हो।
ऐसा ही हुआ है, इसी कारण तुम्हारे साधु संन्यासी और भिक्षु इतना मुर्दा दिखाई देते हैं। उन्होंने यह संसार छोड़ दिया है, वे लोग जड़ से उखड़े हुए लोग हैं। एक वृक्ष को जड़ से उखाड़ कर, तुम पृथ्वी में छिपी जड़ों वाले भाग को खुला अरक्षित छोड़ रहे हो, लेकिन शीघ्र ही और शाखाएं मृत हो जाएंगी और पत्ते झरना शुरू हो जाएंगे।
यही तुम्हारे पुराने तथाकथित साधुओं संन्यासियों के साथ घट रहा है। उन्होंने अपनी जड़ें ही उखाड़कर नष्ट कर दी हैं क्योंकि वे इस संसार और उसकी पृथ्वी के विरुद्ध हैं और उनकी खिलावट रुक गई है।
क्या तुमने किसी ऐसे पुराने संन्यासी को खिलावट की दशा में देखा है, जब प्रतिदिन उससे फूल झर रहे हो, जो प्रतिक्षण नई ऊर्जा निखरा रहा हो, जो प्रतिदिन अज्ञात में पुष्पित और सुरभित हो रहा हो? नहीं, तुम उसके स्थान पर अपने ढांचे से बंधे, जड़, अनुशासनप्रिय एक मुर्दा अस्तित्व को देखोगे वहां।
महावीर जीवन्त हो सकते हैं लेकिन महावीर का अनुसरण करने वालों को जाकर जरा देखो तो, उनके चेहरे देखो, तुम वहां खिलते हुए पुष्प नहीं पाओगे। उनकी आंखें बुझी-बुझी सी मुर्दा हैं। वे जड से उखड़े वृक्षों जैसे हैं। वे दया और करुणा के पात्र हैं, उन्हें सहायता की आवश्यकता है। वे रुग्ण हैं- क्योंकि बिना जड़ों के वे रुग्ण होने के लिए बाध्य हैं। यह सम्भव है, उन्होंने अपनी कामवासना ही नष्ट कर दी हो लेकिन वे नहीं जानते कि उन्होंने अपने प्रेम को भी नष्ट कर दिया है। सेक्स या कामवासना ' यह ' है और प्रेम है ' वह '। जब तुम सेक्स को मार देते हो तो प्रेम भी मर जाता है।
मैं कहता हूं कि कामवासना में इतने गहरे उतरो कि वह प्रेम बन जाए तुम्हारी वे ही जड़ें फूल खिलाना प्रारम्भ कर देती हैं। प्रारम्भ अंत बन जाता है, बीज ही वृक्ष बन जाता है। उसमें इतने गहरे उतरो कि वहां छिपा दूसरा मिल जाए। वह व हां हमेशा से ही है। तुम अपने क्रोध को नियंत्रित कर सकते हो लेकिन तब वहां करुणा न होगी। अपने क्रोध में इतने गहरे जाठगे कि क्रोध, करुणा बन जाए। तब तुम्हारे साथ कोई चमत्कार जैसी चीज होगी। तब तुम पर आशीर्वाद बरस उठेगा, वरदानों की झड़ी लग जाएगी और होगा केवल परमानन्द।
यह पृथ्वी उन सभी चीजों की प्रतीक है जिन्हें अभी तक निंदित किया गया है और स्वर्ग प्रतीक है उन सभी कामनाओं का -जो की गई हैं, लेकिन में उनमें विभाजन नहीं करता, मेरे लिए दोनों एक ही हैं। ऐसा एक दिन तुम्हारे लिए भी शीघ्र आएगा, जब तुम देख सकोगे कि ' यह ', ' वह ' का गर्भधारण किए हुए है। यह -संसार परमात्मा के लिए ठीक एक गर्भ की भांति है। ' वह ', अलौकिक और रहस्यपूर्ण के लिए ' यह ' एक सुरक्षात्मक आवरण की भांति है। बीज और उसका आवरण या छिलका वृक्ष के विरोध में नहीं है, वह एक सुरक्षात्मक खोल है। पदार्थ, उस दैवी शक्ति, की ठीक सुरक्षा के लिए है। देखो, हमेशा इन दोनों में एकता खोजने का प्रयास करो। यह एकता अथवा इनका योग ही धर्म है, इस योग के टूटते ही धर्म खो जाता है। किसी का भी विरोधी बनना छोड़, क्योंकि यदि तुम किसी के विरुद्ध हो तो तुम जिद्दी, सख्त और अधिक सख्त होकर मुर्दे जैसे बन जाओगे।
मैंने सुना है कि एक बार ऐसा हुआ कि डाकुओं का एक गिरोह गलती से एक मठ में घुस गया। उन्होंने सोचा था कि यह किसी धनी व्यक्ति का घर है क्योंकि मठ बाहर से बहुत भव्य और सम्पन्न दिखाई देता था-इसलिए वे लोग चोरी के लिए उस मठ में रात को घुसे, लेकिन उस मठ के भिक्षुओं ने उनका सख्त प्रतिरोध करते हुए अच्छी-खासी लड़ाई की। वे लोग इसीलिए प्रसन्न थे कि सभी लोग सुरक्षित भागने में सफल हुए।
जब वे लोग शहर के बाहर इकट्ठे हुए तो एक डाकूने दार्शनिक अंदाज में कहा- '' कुच्छ बुरा नहीं है, हम लोगों के पास सौ रुपये तो हैं। ' '
उनका सरदार बोला-' ' अरे बेवकूफ! मैंने तुम लोगों से हमेशा कहा है कि इन साधुओं से दूर रहो। हम लोगों के पास पांच सौ रुपए थे, जब हम लोग इस मठ में घुसे थे। ' '
मैं भी तुमसे यही कहता हूं-भिक्षुओं और साधुओं से दूर ही रहो। यदि तुम उनके मठ या आश्रम में पांच सौ रुपए लेकर प्रवेश करते हो तो बाहर आने पर तुम्हारे पास सिर्फ सौ फूल बचेंगे। ये लोग ' यह ' के अर्थात संसार के दुश्मन हैं और मैं कहता हूं कि जो लोग ' यह ' के शत्रु हैं, वे ' वह ' के भी दुश्मन बनने के लिए बाध्य होंगे, यह जरूरी नहीं है कि वे इस बात को जानते हों या न जानते हों।
' यह ' को प्रेम करो और इतनी गहराई से प्रेम करो कि तुम्हारा प्रेम ' यह ' का अतिक्रमण कर ' वह ' तक पहुंच जाए। मेरे कहने का यही अर्थ है, जड़ें इसी पृथ्वी में, और पंख उस स्वर्ग में।

आज बस इतना ही।


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