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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

शब्दों के आयाम—एक परिक्रमा ( 01)

शब्‍दों के आयाम
   

      ओशो के स्‍वर्णिम बचपन के सत्र-37 लिखते-लिखते अचानक बीच में ऐसा लगा की मैं जो लिख रहा हूं वो शब्‍द और में एक ही हो गए है, मैं खुद शब्‍द और अपने होने के भेद को भूल गया, इतना लवलीन हो गया शब्‍दों में की शरीर से भी नीर भार हो गया, शरीर का भी भार है। हम उसे जब महसूस करते जब हम स्‍वास्‍थ होते है वो भी पूर्ण नहीं, एक झलक मात्र, नहीं तो कितने ही लोगों को तो शारीर का होना भी जब पता चलता है जब अस्वस्थ होते है। मानों शरीर झर गया निर्झरा, शरीर एक घुल कण कि तरह छटक गया। कितना सुखद अस्‍वाद होता है शरीर विहीन होना मानों हमारी पकड़ इस पृथ्‍वी से पलभर के लिए छुट गई।
      लेकिन ये स्‍थिति ज्‍यादा देर नहीं रही और कुछ ही देर में अपने पर लोट आया। लेकिन इसके बाद मन की तरंगें ही बदल गई, मुहँ का स्‍वाद, स्वादों कि खुशबु, मन मानों समुन्दर होकर तरंगें मारने लगा , एक मीठा सा तूफान  लह लाने लगा।
 रोजाना 4-5 हजार शब्‍दों को टाइप करने के बाद जो थकावट होती थी आज न जाने का रफू चकर हो गई, शायद उसके लिए मैं शब्‍द नहीं ढ़ूँढ़ पाऊँ। चलो अच्‍छा ही है इन अनुभवों का भी हम नाहक दम घोटने के लिए उतावले रहते है। क्‍यों हमें उन्‍हें पालतू बनाना चाहते है। फिर आप कहेंगे कि मैं क्‍यों कोशिश कर रहा हूं। बस यूं समझीये कि उलीच रहा हूं ताकि अपने को थोड़ा खाली कर लू...एक मातृवत सुख‍ कि तरह ताकि सीना निर्भर हो जाए..फिर उसमें अतुल्य प्रेम है ये एक अलग बात है।
      जब ये बात मैंने स्‍वामी प्रेम विस्‍तार (मेरा लड़का जो मेरा मित्र अधिक है और लड़का कम है) से बताई तो वो हंस कर कहने लगा, ये आपका शब्‍दों के साथ चौथा आयाम है। मैंने उसे गोर से देखा, कि इसने मेरे अंदर कैसे झांक कर देख लिया। सच जब पीछे मुड़कर उस सफर की और देखता हूं, जब मैं ओशो से जूड़ा था। शुरू के चार-पाँच साल मैंने ओशो को खूब पढ़ा, पढ़ना और ध्‍यान करना बस यही यहीं जीवन में भला लगता था, ऐसा नहीं हमारे जीवन में कई पड़ाव और उसकी गहराई भी जीवन मैं साथ-साथ आती रहते है। वो भी शायद एक पड़ाव था। लेकिन एक बात सत्‍य है कि पढ़ना पूर्ण नहीं है, खास कर किसी बुद्ध पुरूष के वचनों का, क्‍योंकि आम लिखने वाले कि तरह उनके शब्‍द एक दम सीधे सपाट लगेंगे लेकिन आप उनमें उतरते चले जाइये आपको नये-नये अर्थ, नये-नये भाव आपकी समझ के साथ आपके विवेक को पोषित करने लग जाते है। क्‍योंकि ध्‍यान से हम अपने मस्‍तष्‍क रूपी पत्तों को छोड़ कर जड़ रूपी चेतना की तरफ गतिशील हो जाते है। अचानक न जाने क्‍या हुआ सब कार्य यथावत चलता रहा, परन्‍तु मेरा पढ़ना एक दम से बन्‍द हो गया। ये नहीं मैं चाहता नहीं था, मैं पढ़ना चाहता था परन्‍तु पढ़ नहीं पाता था।
      ओशो टाईम्‍स लगा तार आती रही, हाँ अख़बार में नहीं पढ़ता था। उसे खोल कर देख लेता, कम्यून के चित्र देखता और अपनी यादों में वहाँ जाकर भाव विभोर हो जाता। परन्‍तु जैसे ही किसी लेख को पढ़ता बस दो या तीन वाक्‍य के बाद लगता कि मुझे पता है आगे क्‍या लिखा है और पढ़ ही नहीं पाता। लाख कोशिश करता फिर भी... मैं एक दम शब्दों से दुर हो गया, केवल शब्दों को सुनना अच्‍छा लगता। ओशो  के प्रवचन सुनता। क्‍या सुनता ये गोण था। सुनना ऐसा हो गया जैसे कोई पक्षी गीत गा रहा है, या झरनों का कलरव नाद सुनाई दे रहा है। हम उसे केवल सुनते है मात्र उनमें समझने के लिए कुछ भी नहीं होता, सुनना भी शब्‍द थोड़ ठीक नहीं है मानो पी रहे है। न तो वे क्‍या बोल रहे है इससे मतलब था, या किसी टोपिक पर बोल रहे है, मानों मस्‍तिष्‍क काम ही नहीं कर रहा था। हां ह्रदय में जरूर स्पंदन महसूस होता, और आँखो से आंसू की धारा बह उठती, बिना किसी कारण के। एक ही कैसेट को अलट पलट कर मैं एक साल तक सुनता रहा ।शायद आपको यकीन नहीं होगा....ओर रोज-रोज उस में  नया पन लगता जैसे आज पहली बार सुन रहा हूं। आप शायद सोच रहे है या तो में हिलैरी हो गया हूं या सठिया गया हूं। शायद इनमें दोनों नहीं मैं मन के क्रिया कलापों को धरातल पर शांत लेटे हुए आराम करते देख रहा था। उसमें कोई बेचैनी नहीं कोई हवा का झोंका नहीं एक दम शांत कोई लहर फिर कैसे उठ सकती थी।
      ‘’ओशो बा हाऊस’’ बनने के बाद मेरे पास काफी समय और एनर्जी होने से लगता कुछ करू,  अचानक हमारा पालतू कुत्‍ता ‘’पोनी’’ जो 15-16 साल को हो कर 10 सितम्‍बर को मर गया। वो इतना बूढा हो गया था कि उसे दिखाई देना भी बन्‍द हो गया था। उसके सूंघने कि शक्‍ति जो उसके जीवन का आधार होती है वो भी खतम हो गई थी। प्रकृति कैसे अपनी एक-एक धरोहर को समेटने लग जाती है, अंतिम समय मैं । वो मरा भी इतना होश पूर्व की आप लोगों को यकीन नहीं  होगा। वो अंतिम समय तक ओशो के प्रवचन सुनता रहा। उस को कितनी भी पीड़ा हो, मृत्‍यु की पीड़ा असहाय होती हैं वो मैने उसकी आंखों में दिखाई दे रही थी। उसके मरने से पहले सुबह साढे सात बजे में उससे मिलने के लिए गया। जब उसकी जबड़े एक दम अकड़ कर सख्त हो गये था, क्‍योंकि चार दिन पहले उसने ठोस खाना छोड़ दिया था, दो दिन से दुध पानी भी उसके गले से नीचे उतरना बंद हो गया था। मुहँ एक दम अकड़ गया था मैंने चाह कर भी पानी डालने की कोशिश‍ की परन्‍तु वो अंदर गया ही नहीं। मेरा उसके पास जान और उसके सर पर हाथ फेरना था कि न जाने कहां से उसके अंदर शक्ति आ गई और वो एक अजीब भाषा आ..ऊँ....औ ....कर के करीब दस मिनट तक कुछ कहना चाहता रहा। मानो जाने से पहले अपना आखरी कलेवा इक्‍कठा कर रहा है, जो उसे उस अंजान सफर में सहयोगी होगा। फिर मैंने ओशो का प्रवचन लगा दिया उसने आंखे बंद कर ली। और ठीक प्रवचन के ही बीच उसने प्राण छोड़ दीये इतना शांत चेहरा मानो सो रहा है, वो एक जंगली था उस की गर्दन अधिक लंबी थी आम कुत्तों से, वो भेडिया जैसा अधिक दिखाई देता था या जंगली कुत्तों की कोई नसल जब कभी डिस्कवरी चैनल पर उस जैसी नसल दिखाई देती है तो हमे महसूस होता कि हमारा पोनी भी इन्हीं का वंश का होगा। वो जंगल से  ही आया था और जंगल में ही उसे दबा दिया। बस रह गई कुछ यादें...तब लगा क्‍यों न पोनी की आत्‍म कथा लिखू उसी की ज़ुबानी....ऐसा नहीं है पोनी एक अजूबा था दुनियां में पहले भी ऐसी घटनाएं पशु पक्षियों के साथ घटी है। बुद्धो की वाणी या उनकी तरंगों में वो आविष्‍ट हो जाते। रमण जी के आश्रम में एक गाय थी, रमण जी कही भी प्रवचन देने जाते वो वहां पहुंच जाती और खिड़की पर अपना मुहँ टेक कर रमण जी को सुनती रहती। जब प्रवचन बंद हो जाता तो वह चली जाती। चमत्‍कार तो ये था कि उसे समय और  स्थान का पता कैसे लगता था। आज भी उनके आश्रम में दो समाधि है एक उनकी माता जी की और दुसरी उस गाय कि। ओशो भी जब चाऊतंसु भवन में आये तब वहां पर इतने तोते हो गये कि सब संन्यासियों को अचरज होने लगा की ये किलकारी मारने के लिए कहां से आ गये, और किसी ने  तो प्रश्न भी पूछ लिया था। एक दिन एक चिड़िया अचानक ओशो जी के बांह पर आकर बैठ गई ओशो जी बोलते रहे और क्षण भर में वो मर गई।
      और मैंने लिखना शुरू कर दिया लेकिन इतना आसान नहीं था, मैं छोटे-छोटे शब्‍दों को भी याद करने लग जाता की कैसे लिखू, जैसे कि ‘’जंगल’’ लिखने के लिए सोचता ही रहता पर्दा एक दम सफेद हो जाता कोई चित्र या शब्‍द नहीं आता.....आज भी ऐसा होता है लिखते हुए मुझे मात्राओं का ध्‍यान ही नहीं आता।
      फिर अचानक मुझे मुऊंटआबू जाना पड़ा, प्रजापति ब्रह्म कुमारी विश्‍वविद्यालय में सर्व धर्म सम्‍मेलन का आयोजन किया था। वहां पर मुझे भी दस मिनट तक बोलने के लिए कहां गया, वहां पर बड़े-बड़े धर्माधिश, शंकराचार्य, पंडित पुरोहित, कथा वाचक न जाने क्‍या-क्‍या आये हुए थे। उनके सामने मैं तो एक नन्‍हा सा बच्‍चा क्‍या बोलूं कुछ न सूजा, इससे पहले मैने माईक भी नहीं पकड़ा था किसी तरह से ...तुतलाता से एक अबोध बच्‍चे कि तरह ह्रदय से बोला, न उसमे संस्‍कृत के बड़े श्लोक थे जो जनता के गले से नीचे नहीं उतरते थे। इस से वो अपनी धाक जमाते ...अपनी पंडिताई दिखाते।
      और अब, अचानक लिखते-लिखते मुझे जो अद्वितीय का स्‍वाद मिला है। अपने होने भर का, शायद ये भी अस्‍तित्‍व का एक पड़ाव है, मंजिल न हो। क्‍यों अपने होने में एक स्वयंता है, परन्‍तु नदी के बहाव में एक पत्‍थर कि तरह से समझो नदी बही जा रही है, और मैं उसे देख रहा हूं, क्‍योंकि में हूं। क्या ऐसा नहीं हो सकता की मैं भी उस जल धारा का ही हिस्सा बन जाऊँ , यहि आस्‍तित्‍व चाहता है। तब हम क्‍यों बने रहना चाहते है शायद अपने मैं के कारण। मैं तो खुद यहां रूकना नहीं चाहता अपना होना एक अभूतपूर्व है परन्‍तु र्पूणता नहीं।
      एक बात सत्‍य है, शब्दों को पढ़ना, फिर सुन कर समझने की कोशिश करना, उसके बाद अनसुना सुनना, मानों जल में उतरने जैसा है। उसके बाद उन्‍हें लिखना ये एक अभूतपूर्व अनुभव है जो पानी में उतर कर उसकी सीतलता का अनुभव ही नहीं उस स्पर्श उसकी सीतलता में अपने आप को डूबा पाने जैसा है। अब तैरने का क्‍या आनंद है वे आयाम भी होना चाहिए पानी है तो तैरने का आनंद भी लिया जा सकता है। शायद वे आयाम आग हो....मंज़िले और भी है आगे, यू रुकते नहीं मुसाफिर,.....शब्‍दों के भी अपने आयाम है वह भी जीवित हो सकते है। हम उनके साथ हम सफर की तरह यात्रा कर सकते है। वो भले ही मुद्रा लगे लेकिन उनमें भी प्राण है, राख कितनी ही राख हाँ कही तो तपिश दबी होगी किसी  ठोर पर ......
एक अनुभव।

--मनसा आनंद मानस
















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