कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

ओशो का जीवन में प्रवेश--एक परर्कमा-(खंड़-2)

ओशो का जीवन में प्रवेश

      कुछ बातें जीवन में ऐसी होती है, न तो उनके आने की आहट हमें सुनाई देती है और न ही उनके पदचाप ही हमारे ह्रदय में कही छपते है। वे अदृष्‍य मूक हमारे जीवन में प्रवेश कर जाना चाहती है। लेकिन ये कुदरत की प्रबोधन के आगमन अनुभूति इतना पारदर्शी अस्‍पर्शित होती है, कि वो अनछुआ क्वारी की क्वारी ही रह जाती है।। वो इतना शूक्ष्माति-शूक्ष्‍म होता है कि चाहे तो उसके आर-पार आसानी से आया जाया जा सकता है। मेरे जीवन में ओशो का प्रवेश भी कुछ ऐसे ही हुआ। हुआ भी नहीं का जा सकता क्‍योंकि जब उन्‍होंने आकर दस्‍तक दी तो मैं द्वार बंद कर करवट बदल कर सो गया।
      बात सन् 1985 की है उन दिनों ओशो अमरीका से भारत आये थे। मेरा व्‍यवसाय उस समय बहुत अच्‍छा चल रहा था। घर में वो सब कुछ था जो होना चाहिए। घर में ख़ुशियों के साथ-साथ जरूरत की हर चीज थी। मेरी लड़की अन्‍नू( मां बोद्धीउनमनी) उस समय पाँच वर्ष की थी। उसे एक टीचर पढ़ाने आया करता था। वो ओशो को पढ़ता था। एक दिन न जाने उस के मन में क्‍या आई वो जो ओशो पुस्‍तक हाथ में लिए हुए था।
उसने मुझसे आग्रह किया की में एक बार इसे पढ़ कर देखूं। पुस्तकें पढ़ने का बालपन से ही शोक था खास कर हिन्‍दी साहित्य, मैं जब सातवीं कक्षा में था जब ही मैंने पूरा प्रेम चन्‍द साहित्‍य पढ़ लिया था। स्कूल की किताबों में कम मन लगता था, शरत चन्‍द, रविन्‍द्र नाथ, वंकिम दा, विमल मित्र, और नरेश मेहता, ही मेरे विस्‍तर में साथ सोते थे पुस्‍तकों के रूप में।
      सो वो मास्‍टर मुझे किताब देन के लिए ज़िद्द करता रहा, वो गिड़गिड़ाता रहा, बिना किसी स्वार्थ के। मानों कोई अदृष्‍य शक्‍ति उस पर आविष्‍ट हो गई है। और जीवन भी कितना रहस्‍य भरा है बाद मैं करीब पाँच या छं साल बाद वो मेरे पास ध्‍यान करने आया और सन्‍यास भी लिया। लेकिन प्रकृति ने उसको माध्‍यम बनाया मुझे जगाने का। जरूर उससे मुझसे कहीं जायद समर्पण करने की क्षमता होगी। उसका ह्रदय मुझसे कहीं तरल होगा। मैं एक बंजर भूमि बन खड़ा रहा। अब कितनी ही बरसात आ जाए उसमें उगने बाला कुछ भी नहीं था। इसमें और किसी का क्‍या दोष। हमारा मन बड़ा जटिल है, बहुत आयाम है इसके। ये इतना गहरा है आप इसके और छोर को पा नहीं सकते। शायद करोड़ो समुन्दर से भी अथाह गहरा। मैंने उससे साफ मना कर दिया पुस्तक लेने से। बड़ी अजीब बात है जब इससे पहले मैने ‘’ओशो’’ को पढ़ा ही नहीं जाना ही नहीं फिर ये कैसा आग्रह है पहले से इस मन को कैसे पता चल गया की वो एक दार्शनिक है, तर कनिष्ट है, सम्मोहन विद है, और न जाने क्‍या-क्‍या निष्ठ। ये बड़ा अजीब रहस्य है...उस मास्‍टर को किताब हाथ में लिए गिड़गिड़ाते में आज भी अपनी आंखों के सामने खड़ा हुआ देख सकता हूं। उसकी आँखो झर-झर आंसू बह रहे थे। परंतु मैं पत्‍थर ह्रदय कैसे बन गया, मेरी समझ में नहीं आया। मैं टस से मस नहीं हुआ। या ये भी इस मन की ही कोई चालबाजी थी। बो तो मैं आज सालों पीछे जाकर देख पा सका हुं। मेरा अपना अनुभव तो यह कहता है कि जिस कार्य के लिए हमारा मन बिना किसी कारण के रोकना चाहे, उसे एक बार गहरे जाकर देख लेना चाहिए। ये शायद उस मन के मोत की ही कोई घंटी हो जो वो तो सुन सकता है और आपको उस ध्‍वनि से अनभिज्ञ कर देता है। एक कहानी एक बार एक गुरु ने अपने शिष्‍य के हाथ किसी घर्म गुरु के पास अपनी कोई पुस्‍तक भेजी। गुरु ने वो पुस्‍तक हाथ में लेते ही तुरंत बाहर फेंक दी। पास बैठी उसकी पत्‍नी ने कहा ये कैसी अभद्रता कम से कम उनका सम्‍मान रखने के लिए इसे ले कर रख लेते। शिष्‍य न जब जा कर सारी बात गुरु को बताई तो गुरु ने कहा वो धर्म गुरु जरूर मुझसे प्रभावित होगा और उसकी पत्‍नी कभी नहीं हो सकती। शिष्‍य को बात विरोधाभास लगी लेकिन मन का विरोध ही उस आकर्षण का कारण है। वो तर्क की आड़ में अपना बचाव करता रहा यहीं मेरे साथ भी हुआ। काश में एक बार रूक सकता या किसी के आग्रह को आस्‍तित्‍व की पुकार समझ लेता तो मैं आपने गुरु के चरणों में उनके जीते जी चला जाता अफसोस ऐसा नहोना था.....लेकिन ये मेरा अहंकार ही था जो मेरे आड़े आ  रहा था। जब कि आज देखता हूं तो क्या था ऐसा जिस पर में अंहकार कर रहा था। सागर के किनारे पड़ें धूल कणों जो खुद लहरों के कारण पल में इधर पल में अधर फेंका जा रहे हो। जैसा ही तो था।
      समय गुजरता गया, बड़ी अजीब बात है गुजरते हम समय में है समय तो देख रहा है वो तो शाश्वत का हिस्‍सा है वो कैसे गुजर सकता है। लोग कहते है समय काट रहे है समय न हो कोई कपड़े का टुकडा हो जो कट रह हो। हम खुद काट रहे होते अपने जीवन को, ताश के पत्‍ते खेल कर या कुछ भी ऐसा....प्रकीर्ति  ने अपना खेल दिखाया। मेरा एक-एक कदम दलदल में फँसता चला गया। एक कुचक्र ने मुझे घेर लिया, धीरे-धीरे में एक ऊँचाई से गिरते पत्‍थर जैसी मेरी हालत हो गई,जिसे अब घाटी में ही पहुंच कर ही चैन मिलेगा...शायद वहीं उसे होना चाहिए। मैं व्‍यवसाय के नुकसान के साथ-साथ कर्ज में भी फँसता चला गया। इसे पुरी तरह से अपने पार्टनर को भी दोषी नहीं मान सकता। कुछ तो था जो समझ से बहार था। कहीं दूर कुछ घट रहा था अदृष्‍य सा जो छाया बन कर जीवन पर छा रहा था। जिसे दूर नक्षत्रों की गणना करने वाले ज्येातिषी भी नहीं समझ पा रहे थ। क्‍यों मेरे पार्टनर ज्‍योतिष में बहुत विश्वास करता था। मूंगा, राहु का गोमेद, हीरा न जाने क्‍या नहीं किया पर कोई काम नहीं आया।
      आखिर समय ऐसा आ गया की बच्‍चों की फीस तक में नहीं दे सका, और बच्‍चें घर पर ही बैठ गये। हमारे सारे सपने मृगमरीचिका ही बने रह गये। शेख चिल्‍ली के सपने। हाथ इतना तंग हो गया कि मां कि दवाई के लिए पैसे नहीं। वो तो भला हो हमारे भाई साहब का जिन्‍होंने मां को बेसा हास्‍पिटल में भर्ती करा दिया। एक सवा महीने मां हास्पिटल में रही। उसके फेफड़े खराब हो गये थे। लेकिन ये कुदरत का अजीब रहस्‍य है। जब ड़ाक्टरों ने कह दिया कि अब ये ठीक है, आप इन्‍हें घर ले जा सकते है। वो छुटटी मिलने के एक दिन पहले हमारे साथ बहार तक घूमने आई और वही  पर में उसके लिए खाना ले आया हिमांशु जो दो  साल का था उस के हाथ से रोटी के टुकडे लेकर खेल-खेल कर खाता रहा। जब हम दूसरे दिन गये तो वो इस दुनियां में नहीं रही। हम आखरी समय उसके साथ नहीं थे। अचानक रात को खासी उठी और उनका दम निकल गया। ड़ाक्टरों ने कहा उसे काफी तकलीफ थी। जो उसके चेहरे से दिखाई नहीं देती थी।    
      आपको यह जान कर अचरज होगा की जब मुझे मां की मृत्‍यु की खबर मिली तो मेरी जेब में दो रूपये थे। कफ़न के भी पैसे नहीं थे। मुझे लगा मेरे नीचे है वो एक सुलगता लावा है। जिसमें मैं झुलसा जा रहा हूं। मगर मेरी इच्‍छा पूर्ण जलने की थी। वो उसे पुरी नहीं कर पा रहा है। आंखे केवल सूनी थी उनमें रोने के लिए आंसू भी नहीं थे। दूर रेगिस्‍तान में भटकते मुसाफिर की तरह, एक जलती प्‍यास....जिसका कोई अंत नहीं वो केवल एक गर्म उसास सी है जो प्‍यास को और अधिक कर रही थी। ़
      मैं अपने पार्टनर के पास गया। जिसने मुझे पड़ोस से मांग कर 1500/- दिये। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या हो रहा है। कोई बात मुझ से छुपी नहीं थी। मेरे खुद के 15लाख रूपये के अलावा उसके भी पैसे जैसे मिटटी हो गये। उसके घर की हालात तो हमारे से भी बदतर थे। क्‍योंकि उसके बच्‍चे बडी कक्षा में पढ रहे थे। वो खंडे़लवाल थे। जब उनके बड़े लड़के की शादी हुई तब मैं आखरी बार उन से मिला था। उस समय तक मुझे ओशो मिल गए थे। वो शायद1993 की बात थी। उसकी शादी में जब मैं नाचा तो सब लोग मेरा नाच देखते ही रह गय। क्‍योंकि ओशो के प्रत्‍येक महत्‍व पूर्ण ध्‍यान के बाद नृत्‍य एक उत्‍सव का पड़ाव आता ही है फिर मेरा नाचना वो भी कुछ होश को लिए हुए ओर अंदर एक आनंद का सागर हिलोरे मार ही रहा था। अंकल आप का नाच सब से अलग था। में केवल हंस दिया ओर क्‍या बता सकता था। क्‍या उसे समझाया जा सकता है। नहीं शब्‍द उससे अछूते रह जाते है।
      जब तक ध्‍यान का रस मेरे सूखे जीवन को पल्‍लवित करने लगा था। जलती धरा पर अषाढ़ के मेघों ने चार बुंदे बरसा दी थी। जिससे उठी वो उमस में भी एक मदहोशी थी, जीवन जो रस हीन हो गया था उस में फिर स्पंदन महसूस होने लगा था। एक ऐसी उच्‍छवास जो सीने में भर कर नव जीवन दायिनी का काम कर रही थी। उसी दिन मैं उनसे कहा लाला जी (मैं अपने पार्टनर को इसी नाम से पुकारता था) अगर आप के पास पैसा आ जाए तो मुझे दे देना। वरना आप भगवान के घर भी मेरे कर्ज से आप मुक्‍त हो। और उनको तो यकीन ही नहीं आ रहा था कि मैं क्‍या कह रहा हूं। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और अपने माथे से लगा लिया। हालाकि लाला जी मेरे से उम्र में तीस साल बड़े थे। जब भी हम कही जाते तो मुझे सब मजाक में उनका हनुमान कहते थे। कि आज आपका हनुमान नहीं आया। आज आपके हनुमान को राम मिल गया। अब भरत या सुग्रीव कि उसे इतनी जरूरत नहीं रही। और मैने उन्‍हें दिल से माफ कर दिया। माफ करने जैसा उन्‍होंने किया भी क्‍या था। वो मेरा हाथ पकड कर रोने लगे। क्‍योंकि वो घंटो शिव कि उपासना करते थे। कि तुझे जरूर कुछ मिल गया है। शायद में लकीर का फकीर उसी लकीर पर चलता रहूँ। आज मुझे तुझ से ईर्षा हो रही है। तुमने कुछ पा लिया है जो अद्भुत है, और वो रो पड़े। आज पता नहीं इस दुनियां में है या नहीं में उस दिन के बाद उनके पास नहीं गया। क्‍योंकि मुझे देख कर उन्‍हें छोटा पन लगे। मेरे पैसे कि याद आए, ये मैं नहीं चाहता था।
      शायद कोई बड़ी घटनाएं इन छोटी घटनाओं के पीछे खड़ी हुई हमारा इंतजार कर रही होती है। लेकिन हम आंखों के पास या अति दूर कि चीजों को नहीं देख सकते। यही तो आस्तित्व का गहनत्‍म रहस्‍य है जिसे वो अपने ह्रदय में छूपाए रहता है। जब वो हमारे ऊपर कण-कण बरसना चाहता है। हम सुविधाओं का छात तान लेते है। और आपने के बहुत बुद्धिमान समझ कर इतराते फिरते है।     
      कुल मिला कर मैंने तो यह मान लिया कि जीवन में  जो घटता है उसे प्रसाद समझ कर ग्रहण कर लो। शुभ या अशुभ वो हमारी समझ के बहार है। उस आस्‍तित्‍व पर छोड़ दो वो जो कर रहा है। वो हमसे अधिक हमारी फिक्र करता है। एक छोटे बच्‍चे की तरह क्‍या माता पिता अपने बच्चे का गलत कर सकते है। नहीं तो वो क्‍या इस छोटे से रिश्ते से भी गया बीता रिश्ता है। उस कुदरत ने हमे बनाया है। वो हमारा अच्‍छा बुरा पहचानती हे, जानती है ,लेकिन उसने हमें स्वतंत्रता दे रखी है। यही उसकी महानता है यही उसका गौरव है। इस लिए वो महान है। फिर उस अंधकार के सीने में क्‍या छीपा है, ये तो समय ही बताता उस समय दिखाई नहीं देता। लेकिन वे मार्ग मधुर है, अति पावन है, अति आलोकिक है, नीरवता, निस्तब्धता भरी सीतलता है। कुल मिल कर चलकर देखने जैसा है.......

उस अंधकार के बाद मैने क्षितिज पर चमकता सूर्य देखा।
     भूल गया मैं काली रात को, जो दुर खड़ी मुस्‍कुरा रही थी।
कौन करता स्‍वागत उस सुबह का,
     कैसे फैलता जीवन में फिर अनवरता विस्‍तार,
कैसे गाते पक्षी मधुर गीत,
     झरने कलरव गान पर न इठलाते।
कैसे अठखेलिया करती ये लताएं,
     कैसे  फुल  फिर मुस्कराते पाते।
कैसे चटकती ये कलियों,
     फिर मूक रह जाता क्‍या कोयल का गान?
नहीं भँवरा करता गुंजन,
     शायद सुर न छूते निशब्‍द का स्पंदन।
     आया एक मधुमास,
     ले आया उच्‍छवास।
     फैला गया जीवन में हास,
     वो रास, जो करता आनंद का परिहास।

--मनसा आनंद मानस



      

2 टिप्‍पणियां: