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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

स्वर्णिम बचपन—( सत्र--31 )

मस्‍तो बाबा से मिलन
      पागल बाबा अपने अंतिम दिनों में हमेशा कुछ चिंतित रहते थे। मैं यह देख सकता था, हालांकि उन्‍होंने कुछ कहा नहीं था, न ही किसी और ने इसका उल्‍लेख किया था। शायद किसी और को इसका अहसास भी नहीं था कि वे चिंतित थे। अपनी बीमारी, बुढ़ापा या आसन्‍न मृत्‍यु के बारे में तो निशचित ही उन्‍हें कोई फ़िकर नहीं थी। उनके लिए इनका कोई महत्‍व नहीं था।
      एक रात मैं जब उनके साथ अकेला था, मैंने उनसे पूछा, सच तो यह है कि मुझे आधी रात को उन्‍हें नींद से जगाना पड़ा, क्‍योंकि ऐसा कोई क्षण खोजना जब उनके पास कोई न हो बहुत ही कठिन था। उन्‍होंने मुझसे कहा, क्‍या बात है, अवश्‍य ही कोई बहुत महत्‍वपूर्ण बात होगी अन्‍यथा तुम मुझे न जगाते। मैंने कहा: हां, प्रश्‍न तो यही है, मैं देख रहा हूं कि थोड़ी चिंता की छाया ने आप को घेर लिया है। पहले तो यह कभी नहीं होती थी। आपका आभा मंडल सदा सुर्य के प्रकाश की तरह स्‍वच्‍छ और तेज रहा है। लेकिन अब मुझे थोड़ी सी छाया दिखाई देती है। यह मृत्यु तो नहीं हो सकती।  
  
      उन्‍होंने हंस कर कहा: हां, छाया तो है, और वह मृत्‍यु नहीं है। यह भी सच है। मुझे चिंता यह है कि मैं एक ऐसे आदमी की प्रतीक्षा कर रहा हूं जिसको मैं तुम्‍हारा उत्तरदायित्व सौंप सकूं। मैं चिंतित हूं क्‍योंकि वह अभी तक यहां पहुंचा नहीं है। और अगर मैं मर गया तो तुम्‍हारे लिए उसको खोजना असंभव होगा।
      मैंने कहा: अगर सचमुच मुझे किसी कह आवश्यकता है तो मैं उसे खोज लुंगा। लेकिन मुझे किसी कह आवश्यकता नहीं है। मरने से पहले आप पूर्णत: निशचित हो जाइए। मैं आपकी चिंता का कारण नहीं बनना चाहता। आपकी मृत्‍यु भी उतनी ही वैभवशाली, प्रफुल्‍लित, उतनी ही सुंदर होनी चाहिए जितना सुंदर आपका जीवन रहा है।
      उन्‍होंने कहा: यह संभव नहीं है.......लेकिन मुझे मालूम है कि वह आदमी जरूर आएगा। मैं अकारण ही चिंता कर रहा हूं। वह अपने वायदे का पक्‍का है, उसने वादा किया है, वह यहां पर मेरे मरने से पहले अवश्‍य पहुंच जाएगा।
      मैंने उनसे पूछा: उनको कैसे मालुम है कि आप कब मरने बाले है।   
      उन्‍होंने हंस कर कहा: इसीलिए तो मैं तुम्‍हारा उससे परिचय करना चाहता हूं। तुम बहुत छोटे हो और मैं चाहता हूं कि कोई मुझ जैसा व्‍यक्‍ति तुम्‍हारे निकट रहे। उन्‍होंने कहा: सच तो यह है कि यह एक पुरानी परंपरा है कि अगर कोई बच्‍चा कभी जाग्रत होने वाला है तो उसे उसके बचपन में ही कम से कम तीन जाग्रत लोगों द्वारा पहचान लिया जाना चाहिए।
      मैंने कहा: बाबा, यह सब बकवास है। मुझे जाग्रत होने से कोई नहीं रोक सकता है। उन्‍होंने कहा: मुझे मालूम है। लेकिन मैं पुराने ढंग का रूढ़िवादी आदमी हूं। इसलिए कृपा करके खासकर मेरी मृत्‍यु के समय परंपरा और रूढ़ि के विरोध में कुछ न कहो।
      मैंने कहा: अच्‍छा आपके कारण मैं चुप रहूंगा। मैं कुछ नहीं कहूंगा। क्‍योंकि मैं जो कुछ भी कहूंगा वह किसी न किसी तरह परंपरा और रुढि के विरूद्ध होगा।
      उन्‍होंने कहा: मैं यह तो नहीं कह रहा कि तुम्‍हें चुप रहना चाहिए, लेकिन मुझे समझने की कोशिश करो। मैं बढ़ा आदमी हूं। तुम्हारे सिवाय मैं इस दुनिया में किसी और की परवाह नहीं कहता। मुझे नहीं मालूम कि क्‍येां और कैसे तुम मेरे इतने नजदीक आ गए। मैं चाहता हूं कि कोई मेरी जगह ले ताकि बाद में तुम्‍हें मेरी याद न आए। तुम मुझे मिस न करो।
      मैने कहा: बाबा, कोई भी व्‍यक्‍ति आपकी जगह नहीं ले सकता। लेकिन मैं वादा करता हूं कि मैं पूरी कोशिश करूंगा कि मैं  आपको मिस न करू।     
      लेकिन यह आदमी दूसरे दिन सुबह पहुंच गया।
      मुझे पहचानने वाले पहले जाग्रत व्‍यक्‍ति थे, मग्‍गा बाबा, दूसरे थे, पागल बाबा, और तीसरे तो और भी अजीब थे। मेरी कल्‍पना के भी बाहर, पागल बाबा भी इतने पागल न थे। उनका नाम था मस्‍त बाबा।
      बाबा एक आदरसूचक शब्‍द है, जिसका अर्थ है: दादा। लेकिन किसी भी जाने-माने समाधिस्‍थ व्‍यक्‍ति को लोग बाबा कहते थे। क्‍येांकि असल में वहीं समाज में सबसे बड़ा, सबसे बुजुर्ग आदमी होता है। ऐसा न भी हो, भले ही वह नवयुवक हो, लेकिन उसे बाबा ही कहा जाता है।
      मस्‍त बाबा का तो कहना ही क्‍या, कमाल के आदमी थे, कमाल के। जैसा आदमी मुझे पसंद है ठीक वैसे ही थे। उनको तो मानों मेरे लिए ही बनाया गया था। पागल बाबा के परिचय कराने से पहले ही हम मित्र बन गए।
      मैं घर के बाहर खड़ा था। मुझे नहीं मालूम की मैं वहां क्‍यों खड़ा था। कम से कम इस समय तो मुझे याद नहीं आ रहा, क्‍योंकि बहुत पुरानी बात है। शायद मैं भी इंतजार ही कर रहा था। क्योंकि पागल बाबा ने कहा था कि वह आदमी अवश्‍य अपनी वादा पूरा करेगा। वह आएगा। और मैं हर बच्चे की तरह बहुत उत्‍सुक था। मैं बच्‍चा ही था और अन्‍य अनेक बातों के बावजूद भी मैं बच्‍चा ही रहा हूं। शायद मैं इंतजार कर रहा था या कुछ और करने के बहाने उस आदमी की रहा देख रहा था। और मैने देखा कि वे  आ रहे थे। मैंने तो सोचा भी न था कि वे इस प्रकार आएंगे। वे दौड़ते हुए आ रहे थे। वे बहुत बुजुर्ग न थे। पैंतीस वर्ष से अधिक उम्र के नहीं थे। वे युवावस्‍था की पराकाष्‍ठा पर थे। वे ऊंचे,अति दुबले थे और उनके लंबे सुंदर बाल और सुंदर दाढ़ी भी थी।
      मैंने उनसे पूछा: क्‍या आप मस्‍त बाबा है।
      चौंक कर उन्‍होंने पूछा: तुम्‍हें मेरा नाम कैसे मालूम हुआ।
      मैंने कहा: इसमें कोई रहस्‍य की बात नहीं है। पागल बाबा आपका इंतजार कर रहे है। उन्‍होंने आपके नाम का जिक्र किया है। आप सच में ऐसे व्‍यक्‍ति है जिसके साथ रहना तो मैं स्‍वयं पसंद करता। आप उतने ही पागल है जितने युवावस्‍था में पागल बाबा रहे होगें। शायद युवा पागल बाबा आपके रूप में वापस आ गए है।
      उन्‍होंने कहा: तुम तो मुझसे भी अधिक पागल मालूम होते हो। यह तो बताओ कि पागल बाबा कहां है।
      मैंने उनको रास्‍ता दिखाया और उनके पीछे-पीछे प्रवेश किया। उनहोंने पागल बाबा के चरण स्‍पर्श किए। उन्‍होंने कहा: मस्‍तो, यह मेरा अंतिम दिन है—वे उन्‍हें इसी नाम से पुकारते थे—मैं तुम्‍हारा इंतजार कर रहा था और थोड़ा चिंतित हो रहा था।
      मस्‍तो ने कहा: क्‍यों, मृत्‍यु का तो आपको कोई डर नहीं है।
      बाबा ने उत्‍तर दिया: निश्चित ही मृत्‍यु का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है। लेकिन अपने पीछे देखो। यह लड़का मेरे लिए सब कुछ है। शायद यह वह सब कुछ कर सकेगा जो मैं करना चाहता था। और कर न सका। तुम इसके पैर छुओ। मैं इंतजार कर रहा था ताकि मैं तुम्‍हारा इससे परिचय करा सकूं।
      मस्‍त बाबा ने मेरी आंखों में झाँका....पागल बाबा ने न जाने कितने लोगों को मुझसे परिचित करवाया और मेरे पैर छूने को कहा था। उन सब में से केवल यही एक सच्‍चे आदमी थे। यह एक तरह की छाप  बन गई थी, सब लोगों को मालूम था कि अगर पागल बाबा को मिलने जाओ तो उस लड़के के पैर छूने पड़ते हैं जो कि सब तरह से एक आफत है। और तुम्‍हें उसके पैरों को छूना ही पड़ता है। क्‍या बेतुकी बात है, पर पागल बाबा तो पागल है। यह आदमी मस्‍तो तो अलग ही ढंग का था। अपनी आंखों में आंसू लिए,हाथ जोड़ कर उन्‍होंने कहा: इस क्षण से आगे अब तुम मेरे पागल बाबा होंगे। वे अपना शरीर छोड़ रहे है, लेकिन अब वे तुम्‍हारे रूप मैं जीवित रहेंगे। न जाने कितना समय बीत गया,क्‍योंकि वे मेरे पैरो को छोड़ ही नहीं रहे थे। वे रो रहे थे। उनके सुंदर बाल जमीन पर फैले हुए थे। मैंने कई बार उनसे कहा: मस्‍त बाबा, अब बस करो। उन्‍होंने कहा: जब तक मुझे मस्‍तो नहीं कहो गे, मैं तुम्‍हारे पैर नहीं छोड़ुगा।
      अब मस्‍तो ऐसा शब्‍द है जो किसी बुजुर्ग द्वारा किसी बच्चे के लिए उपयोग किया जाता है। मैं उनको मस्‍तो कैसे कहता। लेकिन मेरे लिए कोई दूसरा चारा ही नहीं था। मुझे कहना ही पडा। पागल बाबा ने भी कहा, अब देर मत करो। उसे मस्‍तो कहो ताकि मैं निश्‍चिंत होकर मर सकूं। स्‍वभाव: ऐसी परिस्थिति में मुझे उन्‍हें मस्‍तो कहना ही पडा। जैसे ही मैंने यह नाम लिया, मस्‍तो ने कहा, तीन बार ऐसा कहो।
      पूर्व में यह भी एक परंपरा है कि जब तक एक बात को तीन बार न कहा जाए तब तक उसका कोई खास महत्‍व नहीं होता। तो तीन बार मैंने कहा: मस्‍तो, मस्‍तो, मस्‍तो। अब मेहरबानी करके मेरे पैर छोड़ दो। और मैं हंसा, पागल बाबा हंसे और मस्‍तो हंसे....ओर हम तीनों की इस हंसी ने हमें अटूट बंधन में बाँध दिया।
      उसी दिन पागल बाबा की मृत्‍यु हो गई। लेकिन मस्‍तो नहीं रुके। यद्यपि मैंने उनसे कहा था कि मृत्‍यु अति निकट है।
      उन्‍होंने कहा: मेरे लिए अब तुम्‍हीं हो। जब भी मुझे आवश्‍यकता होगी मैं तुम्‍हारे पास आ जाऊँगा। ये तो मरने ही वाले है। सच तो यह है कि इन्‍हें तीन दिन पहले ही मर जाना चाहिए था। सिर्फ तुम्‍हारे कारण उनके प्राण अटके हुए थे, क्‍योंकि वे मुझे तुमसे परिचित करा सकें और यह सिर्फ तुम्‍हारे लिए ही नहीं वरन मेरे लिए भी जरूरी था।      
      पागल बाबा के मरने से पहले मैने उनसे पूछा: मस्‍त बाबा के यहां आ जाने के बाद आप इतने खुश क्‍यों है।
      उनहोंने कहा: सिर्फ अपने रूढ़ीवादी मन के कारण। क्षमा करना।
      वे इतने अच्‍छे वृद्ध आदमी थे, नब्‍बे साल की उम्र में वक एक छोटे से लड़के से इतने प्‍यार से क्षमा मांग रहे थे।
      मैंने कहा: मैं यह नहीं पूछ रहा कि आपने उनका इंतजार क्‍यों किया। यह प्रश्‍न उनके या आपके बारे में नहीं है। वे तो इतने प्‍यारे आदमी हैं, इतने सुंदर है। इंतजार करने योग्‍य है। मैं तो यह पूछ रहा हूं कि आप इतने चिंतित क्‍यों हो गए थे।
      उन्‍होंने कहा: मैं फिर तुमसे कहता हूं कि इस समय तुम तर्क मत करो। तुम्‍हें मालूम है कि मैं तर्क का विरोध नहीं करता। तुम जिस तरह से तर्क करते हो वह मुझे बहुत पसंद है—विशेषत: जिस प्रकार तुम अपने तर्क को अजीब मोड़ दे देते हो। लेकिन यह समय नहीं है, अब इसके लिए समय नहीं है। मैं तो उधार के समय पर जीवित हूं। मैं तुम्‍हें केवल इतना ही बता सकता हूं कि मैं उसके आने से खुश हूं ओर मुझे इसकी भी खुशी है कि तुम दोनों मित्र बन गए और एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण हो गए—यही मैं चाहता था। शायद एक दिन तुम इस पुरानी परंपरा की सचाई को समझ सकोगे।      
      इस परंपरागत विचार के अनुसार जब तक भावी बुद्ध का उसके बचपन में तीन समाधिस्‍थ व्‍यक्‍ति पहचान न लें तब तक उसका बुद्ध बनना असंभव सा है। पागल बाबा तुम सही थे। अब मुझे मालूम हो गया है कि यह केवल रूढ़िगत विचार नहीं है। किसी के बुद्धत्‍व को पहचाने से उसको बड़ी सहायता मिलती है। विशेषत: पागल बाबा या मस्‍तो जैसे आदमी जब तुम्‍हें पहचान लें और तुम्‍हारे पैर छुएँ।
      मैं उनको मस्‍तो ही कहता रहा, क्‍योंकि पागल बाबा ने कहा था कि उसको फिर कभी मस्‍त बाबा न कहना। वह बुरा मान जाएगा। मैं उसको मस्‍तो कहता था और अब से तुम्हें भी उसे यही कहना होगा।
      अब दृश्‍य भी देखने जैसा होता था। जिस आदमी का आदर सैकड़ों लोग करते थे उसको एक बच्‍चा मस्‍तो कह कर पुकारता था। और सिर्फ यही नहीं, मैं जो भी कहता वे तत्‍क्षण वही करते। उदाहरण के लिए, एक बार वे भाषण दे रहे थे। मैंने उठ कर कहा, मस्‍तो, तुरंत बंद करो। वे एक वाक्‍य के बीच में थे, उन्‍होंने उसे पूरा भी नहीं किया और बीच में बोलना बंद कर दिया। लोगो ने उन से आग्रह किया कि वे अपनी बात को पूरा करें, लेकिन उन्‍होंने कोई उत्‍तर नहीं दिया। उन्होंने मेरी और इशारा किया। मुझे माइक्रोफोन पर जाकर लोगों से कहना पडा कि अब वे अपने घर जाएं, क्‍योंकि भाषण समाप्‍त हो गया है। और मस्‍तो मेरे कब्‍जे में है।      
      वे खूब हंसे और मेरे पैर छुए। और उनका मेरे पैरों को छूना...हजारों लोगों ने मेरे पैर छुए होंगे, लेकिन उनका अपना ही अनोखा तरीका था। वे तो मेरे पैरो कोक इस प्रकार छूते थे मानो साक्षात परमात्‍मा उनके सामने खड़ा हो। उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगती और उनके लंबे बाल.....उनको दुबारा बैठाने में मुझे उनकी मदद करनी पड़ती ।
      मैं उनसे कहता, मस्‍तो,…. अब बहुत हो चुका बस करों। लेकिन वहां सुनता कौन, वे या तो रोते, गाते या किसी मंत्र का जाप करते। मुझे तब तक इंतजार करन पड़ता जब तक वे अपना इस प्रकार का कार्यक्रम समाप्‍त न कर देते। कभी- कभी तो मुझे आधे घंटे तक बैठना पड़ता केवल यह कहने के लिए कि अब बस करो। लेकिन यह भी तो तभी कह सकता था। जब उनके भावों की अभिव्‍यक्‍ति समाप्‍त हो जाती। अखीर मैं भी तो शिष्‍टाचार जानता हूं। जब हवे अपने हाथों से मेरे पैरों को पकड़े रहते तो मैं उस समय सीधे यह तो नहीं कह सकता था, बस, अब मेरे पैर छोड़ दो। सच तो यह है कि मैं कभी नहीं चाहता था कि वे उन्‍हें छोड़े, लेकिन मुझे और भी कई काम करने होते थे। और उन्‍हें भी। यह व्‍यावहारिक दुनिया है। यद्यपि मैं हमेशा बहुत अव्यवहारिक हूं। पर जहां तक लोगों का सवाल है, मैं अव्यावहारिक नहीं हूं। मैं हमेशा बहुत ही व्‍यावहारिक हूं, जब बीच में बोलने का मुझे मोका मिल जाता तो मैं कहता, मस्‍तो, बस करो, काफी हो गया। रो-रो कर अपनी आंखों को लाल कर रहे हो। और अपने बालों को तो देखो, मिटटी से लथपथ हो रहे है। मुझे उनको धोना पड़ेगा।
      तूम लोग जानते हो कि भारत की धूल ओमनीप्रजेंट है, हर जगह मौजूद रहती है—खास कर गांव में। सब कुछ धूल से सना हुआ होता है। लोगों के चेहरे भी मटमैले हो जाते है। वे भी क्‍या कर सकते है। कितनी बार को धोएं। अब एक राज कि बात बताऊ—किसी से कहना मत—यहां भी, एयरनकंडीशंड़ कमरे में रहते हुए जहां कोई धूल नहीं होती, मैं जब भी बाथरूम में जाता हूं तो पुरानी आदत के अनुसार अपना मुहँ धो लेता हूं। यहां तो मुहँ धोने कि जरूरत नहीं है। लेकिन एक दिन में कई बार अपना मुहँ धो लेता हूं। बस एक पुरानी भारतीय आदत है। भारत में तो इतनी धूल होती है। कि मैं बार-बार बाथरूम में मुंह धोने जाता था। मेरी मां मुझसे कहती, ऐसा लगता है कि हमें तुम्‍हारे कमरे में ही बाथरूम बना देना चाहिए। ताकि तुम्‍हें बार-बार पूरे घर में से गुजर कर नजाना पड़े। तुम करते क्‍या हो, उनसे कहता: यहां इतनी धूल है। मैं सिर्फ अपना मुँह धोता हूं।
      मैंने मस्‍तो से कहा: मुझे तुम्‍हारे बाल धोने पड़ेंगे। और मैं उनके बाल धोया करता था। उनके बाल बहुत सुंदर थे और मुझे सुंदरता से प्रेम है। जिस मस्‍तो के आने के बारे में पागल बाबा इतने चिंतित थे। वे तीसरे जाग्रत पुरूष थे। बाबा चाहते थे कि तीन जाग्रत व्‍यक्‍ति एक छोटे से असंबुद्ध बच्‍चे के पैर छुएँ। और वे इसमें सफल हुए।

      पागलों का अपना ही ढंग होता है। उन्‍होंने इसका इंतजाम अच्‍छी तरह से कर लिया। उन्‍होंने संबुद्ध जनों को राज़ी कर लिया एक ऐसे लड़के के पैर छूने के लिए जो संबुद्ध नहीं था।
      मैंने उनसे पूछा: क्‍या आप नहीं सोचते कि यह कुछ हिंसात्‍मक है।
      उन्‍होंने कहा: बिलकुल नहीं। वर्तमान को भविष्‍य के प्रति अर्पित होना चाहिए। और अगर एक संबुद्ध व्‍यक्‍ति भविष्‍य में न देख सके तो वह संबुद्ध नहीं है। यह किसी पागल आदमी के दिमाग का विचार नहीं है। उन्होंने कहा, यह एक अत्‍यंत आदरणीय और प्राचीन मान्‍यता है।
      बुद्ध ने जब जन्‍म लिया और जब वे केवल चौबीस घंटे के थे तो एक संबुद्ध व्‍यक्‍ति उनके पास पहुंचा और उसने रोते हुए उस बच्‍चे के पैर छुए। गौतम बुद्ध के पिता को यह देख कर बहुत आश्‍चर्य हुआ, उनको अपने आंखों पर विश्‍वास नही हो रहा था। क्‍योंकि यह व्‍यक्‍ति बहुत प्रसिद्ध था। और बुद्ध के पिता भी उसके पास जाते थे। वे सोच रहे थे कि क्‍या इस आदमी का दिमाग खराब हो गया है। जो यह चौबीस घंटे पहले पैदा हुए बच्‍चे के पैर छू रहा है। बुद्ध के पिता ने उनसे पूछा, क्‍या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि आप इस छोटे से शिशु के पैर क्‍यों छू रहे है।
      उस संबुद्ध व्‍यक्‍ति ने कहा: मैं इसके पैर छू रहा है, क्‍योंकि में इसकी भावी संभावना को देख सकता हूं। अभी तो यह कली है, लेकिन जल्‍दी ही यह पूर्ण विकसित कमल बन जाएगा।
      और बुद्ध के पिता—शुद्घोधन उनका नाम था—ने उनसे पूछा, तो आप रो क्‍यों रहें हे। अगर यह कमल खिलने बाला है। तो आपको तो इसके लिए खुश होना चाहिए।
      उस वृद्ध व्‍यक्‍ति ने कहा: मैं इसलिए रो रहा हूं, क्‍योंकि जब यह कमल बनेगा, तब में नहीं रहूंगा।
      हां, किसी खास क्षणों में बुद्ध पुरूष भी रो पड़ते है। विशेषत: उन क्षणों में जब वे किसी बच्‍चे कि बुद्ध बनने की संभावना के साथ यह भी देख लेता है कि जब यह अद्भुत घटना-घटेगी तो उस समय तक उनकी मृत्‍यु हो चुकी होगी। यह निश्‍चित ही कठिन है। यह तो अंधकारपूर्ण रात्रि के उस प्रहर जैसा है जब पक्षियों का गान सुनाई देने लगा है, सूर्योदय होने वाला है, क्षितिज पर थोड़ा सा उजाला भी दिखाई दे रहा है.....लेकिन एक और सुबह को देखने से पहले ही तुम्‍हें मर जाना है।
      निशचित ही बुद्ध के पैरों को पकड़ कर रोने वाला वृद्ध व्‍यक्‍ति ठीक ही था। मैं यह अपने अनुभव से जानता हूं। आज तक मैं जितने लोगों से मिला हूं उसमें से सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण ये तीन है। और मैं नहीं सोचता कि मैं इन तीन से अधिक महत्‍वपूर्ण व्‍यक्‍ति से कभी मिलूंगा।
      अपनी समाधि के बाद मैं अन्‍य संबुद्ध लोगों से भी मिला हूं, लेकिन वह दूसरी कहानी है। मैं अपने उन शिष्‍यों से भी मिला हूं। जिनकेा संबोधी प्राप्‍त हो चुकी है। लेकिन वह भी दूसरी कहानी है। विचित्र सौभाग्‍य की बात तो यह है कि मैं उस समय पहचाना गया जब मैं बच्‍चा ही था और सब लोग मेरे विरूद्ध थे। मेरे परिवार सदा मेरे विरूद्ध था। हां, इसमें मैं अपने माता पिता आरे भाईयों को सम्‍मिलित नहीं करता। लेकिन मेरा परिवार बहुत बड़ा था और वे सब मेरा विरोध करते थे। मैं उनकी बात समझ सकता हूं। एक प्रकार से वे सही थे, क्‍योंकि वे समझते थे कि मैं पागलों जैसा व्‍यवहार करता हूं और इसकी चिंता थी।
      उस छोटे से शहर का हर आदमी मेरे पिताजी से मेरी शिकायत करता था। मुझे यह तो मानना पड़ेगा कि उनमें असीम धैर्य था। उनको चौबीस घंटे मेरे बारे में शिकायतें सुननी पड़ती। हर दिन-रात, कभी-कभी तो आधी रात को भी कोई न कोर्इ आकर उनसे कहता कि मैंने क्‍या गलत काम किया है। और मैं सदा वहीं काम करता जो मुझे नहीं करना चाहिए था। कभी-कभी तो मुझे भी अपने आप पर ताज्‍जुब होता कि कैसे मैं वहीं करता हूं जो मुझे नहीं करना चाहिए। क्‍योंकि गलती से भी कभी मुझसे कुछ ठीक तो होता ही नहीं था।
      मैंने एक बार पागल बाबा से पूछा: शायद आप मुझे यह बता सकें। अगर मैं पचास प्रतिशत ठीक काम करूं और पचास प्रतिशत गलत काम करूं तो यह बात समझ सकता हूं, लेकिन मैं तो शत प्रतिशत गलत काम करता हूं। मुझे नहीं मालूम कि मैं यह कैसे करता हूं। क्‍या आप मुझे यह समझा सकते है।
      पागल बाबा हंसे और उन्होंने कहा: तुम बहुत अच्‍छी तरह से इसकी व्‍यवस्‍था करते हो। काम करने का यही तरीका है। दूसरे क्‍या कहते है, तुम इसकी परवाह मत करो। तुम तो अपने ढंग से चलते रहो। सब शिकायतों को सुनो और अगर तुम्‍हें सज़ा मिले, तो उसे भी खुशी-खुशी स्‍वीकार कर लो, उसका भी मजा है।
      और मैं सचमुच सज़ा को भी मजे सह भोग लेता था। जब मेरे पिताजी ने देखा कि मैं सज़ा का भी पूरी तरह से मजा ले लेता हूं तो उन्‍होंने मुझे सज़ा देनी बंद कर दी। उदाहरण के लिए, उन्‍होंने एक बार मुझसे कहा ,इस इमारत के सात चक्कर लगाओ। तेजी से दौड़ों और वापस आओ। तो मैंने उनसे पूछा: क्‍या मैं सत्‍तर चक्‍कर लगा सकता हूं। सुबह का समय इतना सुहावना है। मैंने उनके चेहरे की और देखा। वे सोच रहे थे कि वे मुझे सज़ा दे रहें है। और मैंने सचमुच सत्‍तर चक्‍कर लगाए। धीरे-धीरे उनकी समझ में आ गया कि मुझे सजा देना कठिन है। क्‍योंकि मैं उसका मजा लेता। पिताजी को मेरे कारण अनावश्‍यक बहुत परेशानी हुई। इसलिए मुझे उनसे बहुत सहानुभूति थी।  
      मुझे लंबे बाल रखने का बहुत शौक था और सिर्फ यही नहीं मैं पंजाबी ड्रेस पहनता था। ये कपड़े उस इलाके में नहीं पहने जाते थे। हमारे गांव में कुछ गायक आए थे। उन्‍होंने यह पंजाबी ड्रेस पहना हुआ था। यह ड्रेस मुझे बहुत पसंद आई। मेरा तो खयाल यह है कि भारत में सबसे सुंदर पोशाक यही है। मुझे सलवार-कुर्ता पहने हुए और  लंबे बालों के साथ देख कर लोग समझते कि मैं लड़की हूं।
      और मैं दिन भर पिताजी की दुकान में से घर के भीतर आता-जाता रहता। लोग पिताजी से पूछते, यह लड़की किसकी हे। इसने कैसे कपड़े पहने हुए है। यह सुन कर मेरे पिताजी को बहुत बुरा लगता। मुझे तो इसमें कोई बुराई दिखाई नहीं देती कि कोई आपके लड़के को लड़की समझ बैठे। लेकिन इस पुरूष प्रधान समाज में मेरे पिताजी का मुझसे नाराज होना स्‍वाभाविक था। उन्‍होने झल्‍ला कर मुझसे कहा: सुनो,यह कलवार-कुर्ता पहनना बंद करो। ये औरतों जैसे कपड़े है। और अपने इन बालों को भी काट दो, नहीं तो मैं खूद ही इन्‍हें काट दूँगा।
      मैंने उनसे कहा: आप मेरे बाल काट कर पछताओगे।
      उन्‍होंने कहा: क्‍या मतलब है तुम्‍हारा।
      मैंने कहा: मैंने कह दिया है। अब आप खुद सोच लो और पता लगा लो कि मेरा क्‍या मतलब है। आप पछताओगे।
      वे बहुत नाराज हो गए। केवल इस बार ही मैंने उन्‍हें इतने गुस्‍से में देखा था। उनकी कपड़ों की दुकान थी और कपड़ा काटने के लिए वहां पर कैंची तो रहती ही थी। वे दुकान से कैंची ले आए और मेरे बालों को काट दिया और कहा: अब नाई के पास जाकर इनको ठीक करवा लो—नहीं तो कार्टून जैसे दिखाई दोगे।
      मैंने कहा: मैं तो जाऊँगा, लेकिन आप पछताओगे।
      उन्‍होंने कहा: अब इसका क्‍या मतलब है।
      मैंने कहा: मैं क्‍यों समझाऊ्ं ।यह आपका ही किया हुआ है। आप सोचो, किसी काक कुछ समझाने की मेरी कोई जिम्‍मेदारी नहीं है। आपने मेरे बाल काटे है और आप ही पछताएंगे।     
      मैं उस नाई के पास गया जो अफीमची था। मैंने उसको चुना, क्‍योंकि वही एक ऐसा नाई था जो मेरा कहना मानता। दूसरा कोई इसके लिए तैयार न होता। असल में बात यह है कि भारत में बच्‍चे का सिर तब मुड़वाते है जब उसका बाप मर जाता है। मैं इस अफीमची के पास गया, उससे मेरा बहुत प्रेम था। उसका नाम नत्थू था। मैंने उससे कहा: नत्‍थू क्‍या तुम मेरे बाल घोंट दोगे। मेरा सिर सफाचट कर दोगे।
       उसने कहा: हां, हां, हां, --तीन बार।
      मैंने कहा: वाह, एक बात को तीन बार कहने का ढंग तो बुद्ध का है। अच्‍छा अब घोट दो। और उसने मेरे सारे बाल काट दिए, सिर घोट दिया।
      जब मैं घर आया तो मुझे देख कर पिताजी को विश्‍वास नहीं हुआ। मैं बौद्ध भिक्षु जैसा दिखाई दे रहा था। बौद्ध भिक्षु और हिन्दू संन्‍यासी में यही भेद है। कि हिंदू संन्‍यासी अपने सारे बाल मुंडवा देता है। लेकिन जहां सहस्‍त्रार है, जहां सातवां चक्र है। वहां वह थोड़े से बाल रख छोड़ता है। ताकि कड़ी धूप से वह सुरक्षित रहे। लेकिन बौद्ध भिक्षु अधिक हिम्‍मत वाला है। वह सारे बाल काट देता है। अपने सिर को पूरी तरह से मुंडवा देता है।
      मेरे पिताजी ने कहा: यह तुमने क्‍या किया, क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि इसका मतलब क्‍या है। अब मेरे लिए पहले से भी ज्‍यादा मुसीबत खड़ी हो जाएगी। सब लोग पुछोगे कि क्‍या इस बच्‍चे का पिता मर गया है जो इसको अपना सर मुँड़वाना पड़ा।
      मैंने कहा: अब यह आप जानो। मैंने तो कहा था आप पछताएंगे।
      और उन्‍हे कई महीने तक पछताना पडा। क्‍योंकि मैंने अपने सिर के बालों को उगने ही नहीं दिया। और लोग उनसे पूछते रहे कि क्‍या बात हे। क्‍या करण है।
      नत्‍थू हमेशा वहां होता था और वह बहुत प्‍यारा आदमी था। जब भी मैं जाऊँ और उसकी कुर्सी खाली होती मैं उस पर जाकर बैठ जाता और कहता,नत्‍थू, फिर से काट दो। तो जो थोड़े-बहुत बाल उगे होते उनको वह काट देता। उसने मुझसे कहा: मुझे सिर घोटने में बड़ा मजा आता है। ये बेवकूफ लोग मुझसे आकर कहते है। हमारे बाल ऐसे काटो, वैसे काटो, इस स्‍टाइल में या उस स्‍टाइल में सब बकवास करते है। सबसे अच्‍छा स्‍टाइल तो यही है। न मुझे कोई चिंता करनी पड़ती है, न तुम्‍हें। बस सिर सफाचट हो जाता है....संतों जैसा।
      मैंने कहा: हां, तुमने बिलकुल ठीक कहा—बिलकुल साधु-सन्‍यासी जैसा। पर क्‍या तुम्हें मालूम है कि अगर मेरे पिता को मालुम हो गया तुम मेरा सर मूँड़न कर रहे हो तो तुम मुसीबत में पड़ोगे।      
      उसने कहा: तुम चिंता मत करो। सब जानते हे कि मैं अफीमची हूं, मैं कुछ भी कर सकता हूं। गनीमत है कि मैंने तुम्‍हारा सिर नहीं काट दिया। और हंस पडा।
      मैने कहा: ये अच्‍छी बात है, अगली बार जब अगर मैं अपनी सिर कटवाना चाहूंगा तो मैं तुम्हारे पास आऊँगा। मुझे तुम पर पूरा भरोसा है।
      उसने कहा: हां, मेरे बेटे, हों मेरे बेटे, हां मेरे बेटे।
      शायद अफीम के कारण वह हर बात को ती बार कहता था। शायद तभी वह अपनी उस बात को सुन सकता था जो वह कह रहा था।
      लेकिन मेरे पिताजी ने सबक सीख लिया। उन्‍होंने मुझसे कहा: मैं बहुत पछता चुका हूं। अब दुबारा मैं ऐसा कभी नहीं करुंगा। और उन्‍होंने कभी नहीं किया। उन्‍होंने अपना वादा पूरा किया। यही एक ऐसा मौका था जब उन्‍होंने पहली और अखीरी बार मुझे सज़ा दी थी। मुझे भी इस पर विश्‍वास नहीं होता था, क्योंकि मैं बहुत ज्‍यादती करता था। बहुत शैतानी करता था। लेकिन वे बहुत धैर्यपूर्वक सब शिकायतों को सुनते और मुझे कभी कुछ नहीं कहते। सच तो यह है के वे सदा मुझे बचाने की पूरी कोशिश करते।
      एक बार मैंने उनसे पूछा मुझे सज़ा न देने का वायदा किया है, लेकिन मुझे बचाने को तो वादा नहीं किया। मुझे बचाने की तो कोई जरूरत नहीं है।
      उन्होंने कहा: तुम इतने शैतान हो कि अगर मैं तुम्हें न बचाऊ तो मुझे नहीं लगता कि तुम बच पाओगें। कोई भी, कहीं भी तुम्‍हें मार डालेगा। मुझे तुम्‍हारी रक्षा करनी ही पड़ेगी। उपर से बाबा भी हमेशा मुझसे कहते है कि हमें इस बच्‍चे की सुरक्षा का सदा ध्‍यान रखना चाहिए। मैं उनसे प्रेम करता हूं, उनका आदर करता हूं। अगर उन्‍होंने तुम्‍हारी सुरक्षा करने के बारे में  कहा है तो वे ठीक ही कहते होगें।  पागल बाबा गलत नहीं हो सकते। सारा गांव गलत हो सकता है, मैं गलत हो सकता हूं। लेकिन वे गलत नहीं हो सकते।
      और मुझे मालूम है कि पागल बाबा सबको,मेरे अध्‍यापकों और मेरे रिश्‍तेदारों को बार-बार कहते थे। कि इस बच्‍चे का ध्‍यान रखो, इसे सुरक्षित रखो। यहां तक कि मेरी मां को भी मुझे सुरक्षित रखने को कहा जाता था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि इसके बारे में उन्‍होंने केवल मेरी नानी से कुछ नहीं कहा। यह इतना साफ था कि अपवाद था कि मुझे उनसे पूछना पडा कि आप कभी मेरी नानी से मुझे सुरक्षित रखने के बारे में क्‍यों कुछ नहीं कहते।
      उन्‍होंने कहा: इसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम्‍हारी रक्षा के लिए तो वह अपनी जान पर भी खेल जाएगी। वह तो मुझसे भी लड़ पड़ेगी। मेरा उस पर पूरा विश्‍वास है। तुम्‍हारे परिवार में केवल वही एक है जिससे मुझे तुम्‍हारी सुरक्षा के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
      उनकी अंतर्दृष्‍टि पारदर्शी था, हां। कुछ ऐसी आंखें भी होती है जो मनुष्‍य द्वारा निर्मित उस धुंध के पार भी देख सकती है जिसमें वह अपने आपको छिपा लेता हे।

--ओशो

     

2 टिप्‍पणियां:

  1. ओशो के जन्मदिन की बधाई हो। मैंने इस किताब को दो सौ पन्नों तक पढ़ लिया है। अगर आप निरंतर लिखते रहे तो मैं आगे भी पढ़ सकूंगा। आभार।

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  2. मैं जबलपुर पागल बाबा के उस स्थान पर जरूर जाऊंगा जहां उन्होंने ओशो के बचपन में ही बुद्धत्व को पहचान लिया था, हालांकि पागल बाबा का मंदिर चंद्रपुर में भी है, जिसके बगल में टाटा का एक बड़ा प्रोजेक्ट चालू है कैंसर का हॉस्पिटल बन रहा है, मैं उसमें इंटीरियर का काम करता हूं, पागल बाबा के मंदिर में अक्टूबर महीने में मेला लगता है तीन दिन तक चलता है मेला,

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