कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

स्वर्णिम बचपन—( सत्र--32 )

( भगवान )—मस्‍तो बाबा का उद्घोष

    मुझे सदा यह हैरानी होती है कि आरंभ से ही मेरे साथ कुछ ठीक हुआ है। किसी भी भाषा में ऐसा कोई मुहावरा नहीं है। कुछ गलत हो गया, जैसा मुहावरा तो पाया गया है। लेकिन कुछ ठीक हो गया जैसा मुहावरा है ही नहीं। पर मैं भी क्‍या कर सकता हूं। जब से मैंने पहली श्‍वास ली है तब से अब तक सब ठीक चलता रहा है। आशा है कि आगे भी यह क्रम इसी प्रकार चलता रहेगा। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा, क्‍योंकि यही उसका ढंग बन गया है।
      न जाने कितने लोगों ने अकारण ही मुझसे प्रेम किया है। लोगों का आदर उनके गुणों या योग्‍यता के कारण होता है। लेकिन मुझे तो लोगों ने मैं जैसा हूं वैसा ही होने के कारण प्रेम किया है। सिर्फ अभी ही ऐसा नहीं है—इसीलिए मैं कह रहा हूं कि आरंभ से ही सब बातें पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार ठीक घटती रही हैं। अन्‍यथा कैसे सब सही होगा।
      आरंभ से ही—और हर क्षण जो मैंने जिया है—ठीक से ठीक ही होता चला जा रहा है। इस पर केवल हैरान ही हुआ जा सकता है।
      शायद मैं परमात्‍मा शब्‍द को एक नया अर्थ दे सकता हूं कि जब हमने कुछ किया नहीं, हममें को ई योग्‍यता नहीं, को ई पात्रता नहीं और फिर भी बिना किसी कारण के हमारे बावजूद हमारे साथ सब कुछ ठीक होता है।
      निश्‍चित ही मैं ठीक व्‍यक्‍ति नहीं हूं। लेकिन फिर भी मेरे साथ सब ठीक ही होता रहा। आज भी मुझे विश्‍वास नहीं होता कि सारी दुनिया के इतने लोग मुझसे आकारण ही इतना प्रेम करते है। मेरी तो अपनी आंतरिक या बाहरी ऐसी कोई अपलब्‍धि नहीं है। कि जिसके कारण मैं आदर पा सकूं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं, केवल शून्‍य हूं, शून्‍य।
      जिस दिन मैंने विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ी उस दिन मैंने सबसे पहला काम यह किया कि सहज कर और संजो कर रखे गए अपने सारे सर्टिफ़िकेटों और डिप्‍लोमाओ को आग लगा दी। उनको जला दिया, और ये सब देख कर मैं इतना खुश हो रहा था कि मेरा परिवार वहां इक्ट्ठा हो गया, उन्‍होंने सोचा अब मैं पूरी तरह से पागल हो गया हूं। हमेशा ही सोचते थे कि में थोड़ा पागल हूं। उनके चेहरे देख कर मैं और भी अधिक जोर से हंसने लगा।
      उन्‍होंने कहा: ' हां, आखिर हो ही गया।'
      मैंने कहा: हां, आखिर हो ही गया।
      उन्‍होंने कहा: हो ही गया से तुम्हारा क्‍या मतलब है।'
      मैंने कहा: ' जिंदगी भी से मैं इस सर्टिफ़िकेटों के जालना चाहता था लेकिन जला नहीं सका, क्‍योंकि हमेशा उनकी जरूरत पड़ती थी। लेकिन अब इनकी कोई जरूरत नहीं है। अब मैं फिर से उतना ही अशिक्षित हो  सकता हूं। जितना कि मैं जन्‍म के समय था।'
      उन्‍होंने कहा: ' तुम बिलकुल बुद्धू हो , बिलकुल बुद्धू हो। बिलकुल पागल हो। तुमने इतने मूल्‍यवान सर्टिफ़िकेटों को जला दिया। तुमने सोने के मैडल को भी कुएं में फेंक दिया। अब विश्‍वविद्यालय में प्रथम आने के प्रमाणपत्र को भी तुमने जला दिया।
      मैंने कहा: ' अब कोई भी उस सारी बकवास के बारे में मुझसे बात नहीं कर सकता।
      आज भी मुझमें कोई विशेष गुण या योग्यता नहीं है। मैं हरि प्रसाद जैसा संगीतज्ञ नहीं हूं, न मैं नोबल पुरस्‍कार विजेताओं जैसा ही हूं। मैं तो बस कुछ भी नहीं हूं। फिर भी हजारों लोग बिना किसी अपेक्षा के मुझसे प्रेम करते है।
      अभी उस दिन गुड़िया ने मुझे बताया कि जब मैं इस कुर्सी में बैठा हुआ था, आशीष मेरी दूसरी कुर्सी को ठीक कर रहा था। गुड़िया ने देखा कि वह बहुत रो रहा है। उसने आशीष को इस प्रकार आंसू बहाते कभी नहीं देखा था। तो उसने उससे पूछा कि बात क्‍या है, तुम क्‍यों रो रहे हो।
      आशीष ने कहा: ' बात तो कुछ नहीं है। जरा देखो तो ओशो ने पाँच दिन तक किसी को यह नहीं बताया कि उनकी कुर्सी में से बदबू आ रही है। मैं ने इसको बनाया है इसलिए इसकी बदबू के लिए भी मैं ही जिम्‍मेवार हूं, मुझे अच्‍छी तरह से इसकी जांच करनी चाहिए थी। इसके हर हिस्‍से को अच्‍छी तरह से सूंघना चाहिए था। अब इसके लिए मुझे कौन क्षमा करेगा।'
      आशीष को साधारण कारपैंटर नहीं है। उसने इंजीनियरिंग में पीएचडी. की डिग्री प्राप्‍त की है। वह उतना योग्‍य है जितना को ई हो सकता है। और यूं तो उस कुर्सी में कोई खास गड़बड़ भी नहीं है। अगर कुछ गड्ड है तो मुझमें है। जब मैंने उसके आंसुओं के बारे में सुना तो मुझ उन ढेर सारे लोगों की याद आई जिन्‍होंने मुझसे प्रेम किया है और मेरे लिए रोंए है—बिना किसी कारण के। और मैं कोई बहुत अच्‍छा आदमी भी नहीं हूं।
      अगर तुम अच्‍छे बुरे लोगों को अलग-अलग करो तो मैं तो बुरे में ही गिना जाऊँगा। मुझे महात्‍मा गांधी, माओ जेडोंग, कार्ल मार्क्‍स, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर की पंक्‍ति में खड़ा नहीं किया जा सकता। और यह सूची लंबी है। जहां तक बुरे आदमियों का सवाल है, मैं अकेला ही हूं। कम से कम मैं किसी को इतना बुरा नहीं मान सकता। एडोल्‍फ हिटलर, मुसोलिनी, जौसेफ़ स्टेनली नह जो भी किया उसे वे अच्‍छा ही समझते थे, भले ही वह अच्‍छा न हो लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं। ये सब मानसिक रूप से अपंग थे, रूग्‍ण मन के थे लेकिन बुरे नहीं थे। मैं किसी को इतना बुरा नहीं मान सकता। अगर मुझे गणना करनी पड़े तो मैं सुक़रात, जीसस, मंसूर और सरमद जैसे लोगों को याद करूंगा, वे लोग जिनको सूली पर चढाया गया था। कई प्रकार से दंडित किया गया था। लेकिन नहीं, मैं इनको भी नहीं गन सकता। वे अपने आप में अलग-अलग थे।
      लोगों ने मुझे भी सज़ा देने की कोशिश की, लेकिन इसमें वे कभी सफल न हो सके। कन्‍तार मास्‍टर से लेकर मोरा जी देसाई तक ने मुझे सताने की भरपूर कोशिश की, लेकिन अंत में उन्‍हें मुंह की खानी पड़ी है। वे डाउन दि ड्रेन, नाली में चले गए जहां कि सच में उन्‍हें पहले से ही होना चाहिए था।
      लेकिन यह बड़ी अजीब बात है, मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि आरंभ से ही मैं फूलों के रास्‍ते पर ही चला हूं। वे कहते है कि इसका विश्‍वास न करो। लेकिन मैं क्‍या कर सकता हूं। मैं उस रास्‍ते पर चला हूं और मुझे मालूम है। मैंने अपने जीवन के हर क्षण में आनंद का अनुभव किया है।
      कल मैंने जिस अंतिम व्‍यक्‍ति का नाम लिया था वे ही मुझे दि ब्‍लेसिड वन भगवान कहने वाले प्रथम व्‍यक्‍ति वे। आज शाम मैं उनकी चर्चा को ही जारी रखूंगा। मस्‍त बाबा...मैं उनको सिर्फ मस्‍तो ही कहूंगा, क्‍योंकि यही उनकी इच्‍छा था कि मैं उन्‍हें मस्‍तेा कह कर ही संबोधित करूं। मैंने उनको सदा मस्‍तो ही पुकारा, लेकिन मस्‍तो कहने में मैं थोड़ा झिझकता था और मैंने इस झिझक के बारे में उनको बताया भी था। पागल बाबा ने भी मुझसे यही कहा था कि अगर वह चाहता है कि तुम उसको मस्‍तो कह कर पुकारों, जैसा कि मैं उसे पुकारता हूं, तो तुम वैसा ही करो। नहीं तो उसे दुःख होगा। मेरे मरने के बाद उसके लिए मेरा स्‍थान तुम ले लोगे।
      और उस दिन पागल बाब मर गए। और मुझे उनको मस्‍तेा कहना ही पडा। उस समय मैं बारह वर्ष से अधिक आयु का नहीं था और मस्‍तो पैंतीस वर्ष के या उससे भी अधिक के थे। एक बारह वर्ष के लड़के के लिए किसी कि उम्र का ठीक-ठीक अंदाज लगाना बहुत मुशिकल है। फिर पैंतीस वर्ष की आयु सदा भ्रम में डाल देती है, वह व्‍यक्ति तीस का हो सकता है। या चालीस का। यह सब उसके जेनेटिक्‍स पर निर्भर करता है।
      अब यह बहुत ही उलझा हुआ मामला है। मैंने ऐसे पुरूषों को देखा है जो साठ साल के है, पर उनके बाल अभी भी काले है। यह कोई बड़ी बात नहीं है। इस उम्र में औरतों के भी बाल ऐसे ही होते है। ऐसे पुरूष वास्‍तव में औरत बनने बाले थे। लेकिन गलती से ऐसी ही गया। यह सारा खेल तो केमिस्‍ट्री का है। औरतों की बायों केमिस्‍ट्री पुरूषों से अलग है। इसलिए उनके बाल पुरूषों के बालों की तरह जल्‍द सफेद नहीं होते। शायद ही कोई औरत गंजी होती है। किसी गंजी औरत को खोजना बड़ा सुंदर होगा। अपने सारे जीवन में मैंने केवल एक ही औरत को देखा है जो गंजी हो रही था—यह दस बरस पहले की बात है। शायद अब तक तो वह पूरी तरह से गंजी हो गई होगी।
      औरतें क्‍यों गंजी होती है। कोई खाल कारण नहीं है। शरीर मरे हुए कोशाणुओ को बालों के रूप में बाहर फेंक देता है। अब स्‍त्रियों के दाढ़ी या मूँछें तो होती नहीं—उनके शरीर की थोड़ी सी जगह में ही बाल उगते है। कोई भी पुरूष अपने बालों को उतना नहीं बढा सकता जितना स्‍त्री बढा सकती है। क्‍योंकि उसकी क्षमता विभक्‍त है। और प्रकृति ने स्‍त्री की औसत उम्र को पुरूष की औसत उम्र से दस वर्ष अधिक रखा है।
      एक बात और है, पैंतीस साल की आयु में पुरूष की यौन-ऊर्जा अपनी चरम सीमा पर होती है। पुरूषों के दिल को ठेस न पहुँचे इसलिए में ऐसा कहा रहा हूं। सच तो यह है कि अठारह वर्ष की आयु में ही उसकी यौन-शक्‍ति चरम बिंदु पर होती है। उसके बाद तो उतार शुरू हो जाता है। इसको यूं भी कहा जा सकता है कि पैंतीस वर्ष में उसके अंत का आरंभ शुरू होता है। उसी समय पुरूष को यह महसूस होता है कि अब सह समाप्‍त हो गया। पैंतीस और चालीस वर्ष के बीच में पुरूष आध्‍यात्‍मिक बन जाता है। इस उम्र में वह निरर्थक चीजों से प्रभावित हो जाता है। वास्‍तविक कारण यह है कि उसकी यौन-शक्‍ति क्षीण होने लगती है। इसीलिए उसका ध्‍यान परमात्‍मा के सर्वशक्‍तिमान होने की और जाता है।
      क्‍या शब्‍द गढ़ा है—ओमनीपोटेंस, सर्वशक्‍तिमान। इस दुनिया के सर्वाधिक नपुंसक पुरूष ने ही सबसे सर्वशक्‍तिमान शब्‍द को गढ़ा होगा। उस समय ये पुरूष थियोसॉफिकल सोसाइटी या जेहोवा के सदस्‍य बनने लगते है। पैंतीस और चालीस के बीच की आयु बाले पुरूष किसी भी संस्‍था के सदस्‍य बनने को तैयार हो जाते है। क्‍योंकि उस समय उन्‍हें किसी ऐसे सहारे की आवश्‍यकता होती है जो उन्‍हें यह दिलासा दिलाए कि वे अभी जीवित है। बस इसी समय उनको गिटार, सीरत या बांसुरी बजाने की सूझती है। और अगर कोई पैसे वाला है तो वह गोल्‍फ खेलने लगता है। अगर कोई बहुत अमीर है तो वह बीयर पीने लगता है। या ताश खेलने लगता है। इस दुनिया में हजारों लोग हर वक्‍त ताश खेल रहे है।
      किसी तरह कि दुनियां में हम रह रहे है। ताश के राजा, रानी और जोकर उनके लिए सब कुछ है। अब तो संसार में ताश के ही राजा-रानी बचे है या इंग्‍लैंड की महारानी बच गई हैं, जो न तो वास्‍तविक रानी है। न ताश की ही रानी है, उससे भी बदतर है।
      मैं क्‍या कह रहा था।
      आप मस्‍तो के बारे में बता रहे थे....उसे हमेशा मस्‍तो कहते थे।
      मस्‍तो, अच्‍छा।
      वह राजा था—ताश का राजा नहीं, इंग्‍लैंड का राजा भी नहीं। सचमुच‍ राजा। इसे सिद्ध करने के लिए और किसी चीज की जरूरत नहीं थी। उसको देखते ही पता चल जाता था बड़ी अजीब बात है। कि सबसे पहले उसने ही मुझे दि ब्‍लेसिड वन, भगवान कहा था।
      जब उसने मुझे भगवान कहा, तो मैंने कहा: मस्‍तो, क्‍या तुम पागल बाबा की तरह पागल हो गए हो या तुम्‍हारा पागलपन उससे भी बढ़ गया है।  
      उन्‍होंने कहा: याद रखना, इस क्षण से मैं तुम्‍हें भगवान ही कहूंगा। हजारों लोग तुम्‍हें भगवान कहेंगे,लेकिन तुम्‍हें पहली बार भगवान कहने वाला प्रथम व्‍यक्‍ति मैं हूं। और इसका श्रेय मुझे मिलना चाहिए।
      हम दोनों गले लग कर खूब रोंए। वह हमारी अंतिम भेंट थी। मेरे उस अनुभव के ठीक एक दिन पहले। बाईस मार्च उन्‍नीस से तिरपन के दिन को हमने एक-दूसरे का आलिंगन किया बिना यह जाने कि यह हमारा अंतिम मिलन है। शायद उनको मालूम था, लेकिन मुझे इसका कोई आभास नहीं था। अपनी सुंदर आंखों में आंसू भर कर उन्‍होंने मुझे बताया।      
      अभी उस दिन मैंने चेतना से पूछा: चेतना मेरा चेहरा कैसा दिखाई दे रहा है। उसने कहा: क्‍या, मैंने कहा: मैं इसलिए पूछ रहा हूं क्‍योंकि मैंने कई महीनों से सिवाय फलों के और कुछ भी नहीं खाया। हां, कुछ दिन देवराज का मिश्रण भी खाया है। मुझे यह नहीं मालूम कि उसमें क्‍या-क्‍या डाला गया है। लेकिन इसके बारे में यही कहा सकता हूं, कि उसको खाने के लिए दृढ़ संकल्‍प की जरूरत है। आधे घंटे तक तो इसको चबाना पड़ता है। लेकिन यह है तो बहुत अच्‍छा, जब तक मैं इसे खाना समाप्‍त करता हूं तब तक मैं इतना थक जाता हूं, इतनी थक जाता हूं कि मुझे नींद आने लगती है। इसीलिए मैं पूछ रहा था।
      उसने कहा: ओशो, जब आप मुझसे पूछ ही रहे है, तो क्‍या मैं सच बोल सकती हूं
      मैने कहा: हां, बिलकुल सच ही कहना।
      उसने कहा: जब मैं आपको देखती हूं तो मुझे सिवाय आपकी आंखों के और कुछ भी दिखाई नहीं देता। इसीलिए कृपा करके मुझसे मत पूछिए। मुझे मालूम नहीं है कि आप पहले कैसे दिखाई देते थे। या अब कैसे दिखाई देते है। बस मुझे तो केवल आपकी आंखों के बारे में मालूम है।
      मुझे इस बात का बहुत अफसोस है कि मैं तुम्‍हें मस्‍तो को नहीं दिखा सकता। उसका तो सारा शरीर ही सुंदर था। ऐसा लगता था जैसे  कि वह देवलोक से आया हो भारत में बहुत सी सुंदर कहानियां प्रचलित है। ऋग्‍वेद में एक कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है।
      उर्वशी एक ऐसी अप्‍सरा है जो स्‍वर्ग लोक के सुखों से ऊब चुकी है। मुझ यह कहानी बहुत प्रिय है,क्‍योंकि यह सच है। अगर तुम्‍हारे पास सब सुख सुविधाएं हो तो कब तक तुम उनका उपभोग कर सकते हो। एक न एक दिन तो ऊब ही जाओगे। यह कहानी किसी ऐसे आदमी ने लिखी है जो इस बात को अच्‍छी तरह से जानता था।
      उर्वशी सब तरह से सुखों देवताओं के भोग-विलास और उनके प्रेम से बुरी तरह से ऊब गई। अंत में जब वह प्रमुख देवता इंद्र के पास थी, उसने इस अवसर का फायदा उठाया, सब स्‍त्रीयां ऐसा ही करती है। ठीक समय को देख कर वे कभी घड़ी की फरमाइश करती है। और कभी हीरे की अंगूठी की या हार की।
      आशु, तुम क्‍या सोच रही हो, क्‍या तुम्‍हें मालूम है। हाँ  तुम हंसती हो क्‍योंकि मैं जानता हूं। तुम्हीं बता दो, नहीं तो मै ही यह बता दूँगा। और तुम इतनी खुशी से हंस रही हो, मैं उसे नष्‍ट करना पसंद नहीं करूंगा।   
      उर्वशी इंद्र से कहती है, अगर आप मुझसे इतने खुश है तो क्‍या आप मुझे एक छोटा सा उपहार देंगे। अधिक नहीं, बहुत ही छोटा सा। इंद्र ने कहा: माँगों, तुम क्‍या माँगती हो, तुम्‍हें मिल जाएगा। उर्वशी ने कहा: मैं धरती पर जाकर साधारण मनुष्‍य से प्रेम करना चाहती हूं।
      इंद्र तो मदिरा के नशे में पूरी तरह डूबा हुआ था। तुमने देखा हो गा कि भारतीय देवता ईसाई परमात्‍मा जैसे नहीं है। ईसाई पादरियों जैसे नहीं है। परमात्‍मा की क्‍या बात। ईसाइयत तानाशाही धर्म है। हिंदू धर्म अधिक प्रजातांत्रिक है और अधिक मानवीय भी है।
      नशे में धुत इंद्र कहता है, अच्‍छा, जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा। लेकिन एक शर्त है—जैसे ही तुम उस आदमी को बताओ गी कि तूम अप्‍सरा हो, वैसे ही तुम्‍हे वापस स्‍वर्ग में आना पड़ेगा।
      उर्वशी धरती पर आती है और पुरुरवा के प्रेम में पड जाती है। पुरुरवा बहुत कुशल धनुर्धर और कवि है। और उर्वशी इतनी सुंदर है कि पुरुरवा उससे विवाह करना चाहता है।
      उर्वशी ने कहा: विवाहा की तो बात ही मत करो। वादा करो कि तुम इस बात को दुबारा नहीं करोगे। तभी मैं तुम्‍हारे साथ रह सकती हूं। और पुरुरवा, एक कवि उर्वशी जैसी औरत का सौंदर्य समझता है। उसने ऐसा सौंदर्य कभी नहीं देखा। वह तो धरती पर उतरी हुर्इ देवांगना थी। उसके अनुपम रूप, नशीले सौंदर्य के कारण वह उससे यह वादा कर देता है। फिर उर्वशी कहती है। एक और बात कि तुम मुझसे कभी यह नहीं पुछोगे के मैं कौन हूं। अन्‍यथा हम अभी से ही सब भूल जाएं, कुछ शुरू करना ही ठीक नहीं है। पुरुरवा कहता है: मैं तुमसे प्रेम करता हूं। मुझे यह जानने की कोई आवश्‍यकता नहीं है कि तुम कौन हो। मैं कोई अन्‍वेषक थोड़े ही हूं। इन दोनों वायदों के बाद उर्वशी पुरुरवा के साथ रहने लगती है। कुछ दिनों के बाद ...एक तरह से वेद बहुत ही मानवीय है, और कोई शास्‍त्र इतना मानवीय नहीं है। सभी दूसरे शस्‍त्र शब्‍दों के आडंबर से या दूसरे शब्‍दों में गोबर से भरे हुए है। जैसा कि हर प्रेम-प्रसंग, हर हनीमून के आरंभ और अंत होता है। पश्‍चिम में शायद थोड़ा जल्‍दी अंत आ जाता है बजाए भारत के। इसलिए इन प्रेमियों को छह महीने लगते है। अमरीका में हनीमून के आरंभ और अंत के लिए एक सप्‍ताह काफी है। और जब हनीमून समाप्‍त हाता है तो विवाह शुरू होता है। जीसस, और तुम कहते हो कि जो पास करते है वे मृत्‍यु के बाद नरक में जाते है...यह तो हनीमून के बाद की बात है। सच में तो यह विवाह है...भारत में छह महीने लगते है......बैलगाड़ी की गति से समाप्‍त होता है।
      एक रात उर्वशी सोई हुई थी। उसकी आंख खुली और उसने पुरुरवा को अपनी और देखते हुए पाया। अब पति को तो ऐसा नहीं करना चाहिए। क्‍या कोई अपनी पत्नी को ऐसे देखता है। वह सोई हुई थी और वह उसे एकटक देख रहा था। अगर वह किसी और की पत्‍नी होती तब तो ठीक था। लेकिन अपनी ही पत्‍नी को देखना। लेकिन उर्वशी का सौंदर्य निशचित ही दिव्‍य रहा होगा, वह तो दूसरे लोक की ही थी। पुरुरवा से रहा न गया और उसने हैरान होकर उससे पूछ ही लिया कि तुम कौन हो। उर्वशी न कहा: पुरुरवा, तुमने अपना वादा तोड़ा दिया है। मैं तुम्‍हें सच बात अवश्‍य बता दूंगी, लेकिन अब मैं तुम्‍हारे साथ नहीं रहूंगी। जिस क्षण उसने उसे बताया कि वह स्‍वर्ग से ऊबी हुई देवांगना है और वह धरती पर वास्तविक लोगों का अनुभव लेने आई थी। क्‍योंकि देवता तो बहुत नकली, झूठे थे। उसी क्षण वह एक सुंदर सपने की तरह गायब हो गई। पुरुरवा ने बार-बार उस खाली बिस्‍तर को टटोल कर देखा,लेकिन वहां पर कोई न था। मुझे जो कहानियां बहुत प्रिय है, उनमें से यह एक है।
      मस्‍तो भी इस जगत में देवलोक से आया हुआ को देवता ता। उसने अवर्णनीय सौंदर्य को बताने का यही एक मात्र तरीका है। उसके शारीरिक सौंदर्य का तो कहना ही क्‍या। लेकिन यह सिर्फ शारीरिक सौंदर्य की बात नहीं है। मैं शरीर की सुंदरता के विरूद्ध नहीं हूं, पुरी तरह से पक्ष में हूं। मुझे उसका शरीर बहुत अच्‍छा लगता था। जब मैं उसके चेहरे को छूता था तो वह पूछता, तुम अपनी आंखें बंद करके मेरे चेहरे को क्‍यों छूते हो।
      मैंने कहा: तुम इतने सुंदर हो, में और कुछ नहीं देखना चाहता, इसलिए अपनी आँखो को बंद रखता हूं। ताकि बाद में अपने स्‍वप्‍न में मै तुम्‍हे वैसा ही देख सकूं जैसा तुम हो।
      तुम मेरे शब्‍द नोट कर रहे हो। ताकि मैं तुम्‍हें सपने में उतना ही सुंदर देख सकूं जितने तुम हो। मैं चाहता हूं कि तुम मेरे सपने बन जाओ। लेकिन सिर्फ उसका शरीर ही सुंदर नहीं था, नहीं सिर्फ उनके बाल—मैंने कभी ऐसे सुंदर बाल नहीं देखे, खासकर किसी पुरूष के सिर पर ऐसे सुंदर बाल नहीं देखे। मैं उनके बालों को छूता और उनके  साथ खेलता था, और वे हंसते।
      एक बार उन्‍होंने कहा: क्‍या खूब, बाबा तो पागल थे ही, अब मुझे उन्‍होंने ऐसा गुरु दे दिया है जो उनसे भी अधिक पागल है। उन्‍होंने मुझे कहा था कि तुम उनकी जगह लोगे, इसलिए कुछ भी करने से तुम्‍हें मैं रोक नहीं सकत। अगर तुम मेरा सिर भी काट डालों तो भी मैं इसे सहर्ष स्‍वीकार करूंगा।
      मैंने कहा: चिंता मत करो, मैं तो एक बाल भी नहीं काटूंगा। जहां तक तुम्‍हारे सिर का सवाल है, बाबा न पे पहले ही अपना काम कर दिया है। अब तो सिर्फ बाल रह गए है। फिर हम दोनों हंसते। यह बहुत बार बहुत तरीकों से होता रहा।
      लेकिन मस्‍तो तन और मन, दोनों से सुंदर थे। जब भी मुझे जरूरत होती, वह बिना मुझे बताए रात को चुपचाप मेरे खीसे में पैसे डाल देते ताकि मुझे पता ही न चले कि ये पैसे कहां से आए है। तुम्‍हें मालूम है कि अब तो मैं कोई जेब नहीं रखता मेरे ये पाकेट कैसे खो गए, क्‍या तुम्‍हें इसकी कहानी मालूम है। इनके खो जाने का जाने कारण मस्‍तो है। यह मेरी जेब में रूपये पैसे, सोना आदि कुछ भी डाल देते थे। आखिर,मैने जेब न रखने का फैसला किया। क्‍योंकि जेब होने से लोगों को या तो उसमें कुछ डालने की सूझती है। या काटने की। और इस प्रकार जेब काट कर वे जेब कतरे बन जाते है। इस दुनिया में कैंवल मैं ही एक ऐसा व्‍यक्ति हूं। जिस जेब की जरूरत नहीं है। इससे यह फायदा है कि जेब को कोई काट ही नहीं सकता। जब जेब ही नहीं है तो काटेगा क्‍या। इस दुनिया में केवल मैं ही एक ऐसा व्‍यक्‍ति हूं, जिसे जेब की जरूरत नहीं है। इससे यह फायदा है कि जेब को कोई काट ही नहीं सकता। जब जेब ही नहीं है तो कोई काटेगा क्‍या। और बहुत दुर्लभ, कभी-कभी अपवाद भी हो सकता है—मेरे जैसे आदमी के साथ वे मस्‍तो जैसे बन जाते है।
      मस्‍तो तो इस इंतजार में रहते कि में सो जाऊँ। कभी-कभी मैं भी सोने का ढोंग करता। उनको अपने सोए रहने का विश्‍वास दिलाने के लिए मैं खर्राटे भी लेता। फिर जैसे ही वे मेरी जेब में हाथ डालते तैं उन्‍हें रंगे हाथों पकड़ लेता और कहता, मस्‍तो, क्‍या कोई साधु-संन्‍यासी ऐसा करता है। और हम दोनों हंस पड़ते। अंतत: मैंने जेब रखना ही बंद कर दिया। यह भी अच्‍छा है कि मुझे कोई बोझ नहीं ढोना पड़ता। कोई और हमेशा यह काम करता है। मुझे करने की जरूरत नहीं है। वर्षों से मुझे जेब की जरूरत नहीं रही,हमेशा कोई न कोई मेरे लिए इसका इंतजाम कर देता है।
      आज सुबह जब गुड़िया मुझे चाय दे रही थी तो मैंने तश्तरी को अपने हाथ से छूट जाने दिया। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मैने गिरा दी। वह ज्‍यादती होगी, क्‍योंकि तश्तरी बहुत कीमती थी। उसमें सोने की कारीगरी की गई थी। और अगर मैं यह कहता कि मैंने इसे गिरा दिया तो वह मुझे माफ नकारती। हां, मैंने तश्‍तरी को हाथ से छूट जाने दिया तो स्वभावत: वह गिर गई। उसके लिए उड़ना तो संभव न था, उसे गिरना ही था।
      उस क्षण में मैं उन बहुत सी बातों को समझ गया जो मैं हमेशा से जानता था। पर उस समय वे मुझमें एक साथ चरम बिंदु पर पहुंच गई। गिरना....आदमी उड़ नहीं सकता था ....न आदम न ईव—स्‍वभावत: उन्‍हें गिरना पडा। वह सांप की राजनीति नहीं थी, मनुष्‍य का गिरना स्‍वभाविक था, स्‍वाभाविक,बहुत स्‍वभाविक था अदम और ईव का गिरना। क्‍योंकि वे उड़ नहीं सकते थे। न लुफथानसा था, प पैनएम था। एअर इंडिया तक न था। और बेचारा अदम तो बहुत ही गरीब था। लेकिन एक प्रकार से यह अच्‍छा ही हुआ कि वह गिर गया, अन्‍यथा वह उसी स्‍थिति में होता जिसमें उर्वशी थी।
      स्‍वर्ग के सब फलों का वह स्‍वाद लेता बिना उनको मजा लिए। वह ईव के साथ रहता बिना प्रेम के। स्‍वर्ग में कोई इतना प्रेम नहीं करता। मैं यह कह सकता हूं बिना इस डर के कि इसके लिए मैं वहां से निष्कासित किया जा सकता हूं। स्‍वर्ग अंतिम जगह है जहां मैं जाना पसंद नहीं करूंगा। स्‍वर्ग में जाने सी बजाए में नरक में जाना पंसद करूंगा। मालूम है क्‍यों। वहां के अच्‍छे संग-साथ के कारण। स्‍वर्ग तो भयानक, डरावना है। संतों का संग-साथ... है परमात्‍मा ये सब देवता मूढ़ होंगे, जड़ बुद्धि या शायद बिना मस्‍तिष्‍क के होगें, रोबोट जैसे। नहीं तो वे कैसे निरंतर गोल चक्‍कर में घूमते रहते। मुझे उनके साथ नहीं रहना। मैं उनका हिस्‍सा बनना नहीं चहेता।
      लेकिन, मस्‍तो तो ऐसा दिखाई देता था मानो कोई देवता धरती पर उतर आया हो। मैं उससे बहुत प्रेम करता था—अकारण। क्‍योंकि प्रेम किसी कारण से नहीं होती। अभी भी मैं उससे प्रेम करता हूं। मुझे मालूम नहीं है कि वह जीवित है या नहीं, क्‍योंकि बाईस मार्च उन्‍नीस सो तिरपन को वह अदृश्‍य हो गया।
      उसने कहा कि मेरा उत्‍तरदायित्‍व पूरा हो गया है। पागल बाबा से मैंने जो वादा किया था, वह पूरा तरह से प्रकट हो गई है—तुम्‍हें जो बनना था वह बन चुके हो।
      मैंने कहा: नहीं मस्‍तेा, मुझे अभी भी तुम्‍हारी आवश्‍यकता होगी—अन्‍य कारणों से। उसने उत्‍तर दिया: नहीं, अब मैं और इंतजार नहीं कर सकता। अब तुम स्‍वयं अपनी आवश्‍यकताओं की पूर्ति कर सकोगे।
      उसके बाद कभी-कभी मैं हिमालय से आए किसी संन्‍यासी या भिक्षु से सुनता कि मस्‍तो कालिम्‍पोंग में है नैनीताल में है या यहां है या वहां है। लेकिन वह हिमालय से कभी नहीं लौटा। हिमालय जाने बाले हर आदमी से मैं कहता कि तुम कभी ऐसे व्‍यक्‍ति से मिलो... लेकिन यह बहुत मुश्‍किल था क्‍योंकि उसे अपनी फोटो खिंचवाना पसंद नहीं था।
      एक बार बड़ी मुश्‍किल से मैंने उसको फोटोग्राफर के पास जाने के लिए राज़ी किया। मेरे गांव का फोटोग्राफर बहुत होशियार था, उसका नाम था मुन्‍न्‍ुामियां था, जो बहुत गरीब था लेकिन उसके पास कैमरा था। वह दुनिया का सबसे पुराना माडल रहा होगा। उसके कैमरे का तो सुरक्षित रखना चाहिए था। वह दुनिया का सबसे पुराना माडल रहा होगा। उसके कैमरों को तो सुरक्षित रखना चाहिए था। आज उसकी कीमत करोड़ों रूपये की होती। सारी फिल्‍म में से शायद एकाध फोटो ही ठीक होती। वह भी निशचित नहीं था। और जब तुम अपनी उस फोटो को देखते तो तुम भरोसा ही न कर सकते थे कि उसने ऐसा कैसे किया होगा। क्‍योंकि वह तुम्‍हारे जैसी दिखाई ही न देती। वह बहुत बढ़िया फोटोग्राफर था। वह फोटोग्राफ के साथ जो करता था शायद पिकासो ही उसे पसंद करता..या मैं नहीं जानता, अगर मुन्नू मियां ने पिकासो की स्‍वयं की फोटो ली होती हो शायद वह भी पसंद न करता।
      किसी न किसी तरह मैं मस्‍तो को मुन्नू मियां के पास ले गया। मुन्नू मियां तो बहुत खुश हो गए, मस्‍तो बेमन से उस गांव के स्टूडियों में बैठ गए—उसे स्टूडियों भी नहीं कहा जा सकता क्‍योंकि वहां पर केवल एक बिना बांहों की जंग लगी लोगे की कुर्सी थी। लोग शायद ही कभी वहां पर फोटो खिंचवाने आते थे इसलिए वहां पर स्‍टूडियों जैसा कुछ था ही नहीं।
      तुम कलपना भी नहीं कर सकते कि भारतीय गांव में फोटो कैसे खींची जाती है। अभी भी वहीं ढंग है। पृष्‍ठभूमि को सुंदर बनाने के लिए पीछे की और एक पर्दा लटका हुआ होता है जिस पर बंबई की सड़कों का दृश्‍य चित्रित होता है। बडी-बड़ी इमारतें, मोटर कारें, बसें आदि—और ऐसा समझा जाता की फोटो बंबई में लिया गया है। अब एक रूपये में जब तीन फोटो तैयार किए जाएंगे तो और क्‍या मिल सकता है। मस्‍तो ने मेरे किए कराए पर पानी फेर दिया, या ज्‍यादा सही होगा कि मुन्‍नू मिया कि बेवकूफी के कारण मेरी सारी मेहनत बेकार गई। वह कैमरे में प्‍लेट रखना ही भूल गया।
      अभी भी वह सारा दृश्‍य मेरी आँखो के सामने घूम जाता है। मैंने मुन्‍नू मिया को अच्‍छी तरह से समझाया था कि फोटो खींचने में कोई गलती नहीं होनी चाहिए...इस आदमी को बड़ी मुशिकल से यहां लाया हूं। और अगर तुमने उसकी फोटो तैयार कर ली तो तुम्‍हारे स्टूडियों का बहुत नाम हो जाएगा। वह समझ भी गया और उसने कहा: मैं कोशिश करूंगा। सिर्फ मुझे अंग्रेजी के दो शब्‍द सिखा दो। मैंने सुना है कि बड़े शहरों में फोटो खींचने से पहले कहते है, प्लीट बी रंडी । उसने तो यह हिन्‍दी में कहा, लेकिन इस विशेष आदरणीय सज्‍जन को प्रभावित करने के लिए वह इसे अंग्रेजी में कहना चाहता था। फिर वह यह भी जानना चाहता था कि फोटो लेने के बाद थे क्यू कैसे कहा जाता है। तो उसने सब ठीक-ठाक किया,फिर उसने अंग्रेजी में कहा: प्‍लीज बी रेडी।
      मस्‍तो को भी यह विश्‍वास नहीं हुआ कि मुन्नू मियां अंग्रेजी जानते है। फिर उन्‍होंने क्‍लिक किया, कैमरे से जोर की क्‍लिक कि आवाज आई। मैं अभी भी उनके कैमरे को देख सकता हूं। और मैं निशचित तौर पर कह सकता हूं कि सिर्फ उसकी प्राचीनता के कारण उसकी कीमत लाखों डालर की होती। बहुत बड़ा था वह। फिर उन्‍होंने कहा: थैंक्‍यू सर। और हम वहां से चल पड़े।
      वह हमारे पीछे दौड़ते हुए आए, उनकी आंखों में आंसू थे। उन्‍होंने कहा: मुझे माफ करना। आप वापस आइए। मैं कैमरे में प्‍लेट डालना ही भूल गया।
      वह सुनते ही मस्‍तो ने कहा: बेवकूफ यहां से भाग जाओ नहीं तो मैं बहुत नाराज हो जाऊँगा। और मैं बहुत गुस्‍से बाला आदमी हूं।
      मैं जानता था कि मस्‍तो गुस्‍से बाले नहीं थे। मैंने मुन्‍ना मिया से कहा: तुम चिंता मत करो, मैं फिर से यह इंतजाम कर दूँगा। लेकिन वह तो भाग गए—सचमुच दौड़ गए। मैं कहता ही रह गया, मेरी बात सुनो। मत भागों। लेकिन उन्‍होंने मेरी एक न सुनी।
      मैंने मस्‍तो को स्‍टूडियों में दुबारा जान पे के लिए राज़ी कर लिया, लेकिन हम वहां पहुंचे तो वहां ताला लगा हुआ था। मुन्‍ना मिया इतना डर गए थे कि हमें वहां आता देखते ही वह स्टूडियों का ताला लगा कर भीग गए।
      इसलिए हमारे पास मस्‍तो की कोई तस्‍वीर नहीं है। मैं तुम लोगों को सिर्फ तीन फोटो दिखाना चाहता था—एक मस्‍तो की—एक दुर्लभ सौंदर्य....एक दूसरे आदमी की जिसकी चर्चा मैं बाद में करूंगा और एक महिला की—जिसकी बात भी मैं बाद में करूंगा। लेकिन मेरे पास इन तीनों में से किसी का फोटो नहीं है।
      बडी अजीब बात है। ये तीनों अपना फोटो नहीं खिंचवाना चाहते थे—बिलकुल नहीं चाहते थे। शायद इसलिए कि फोटो सौंदर्य को बिगाड़ देती है। सौंदर्य तो जीवंत होता है। और फोटो निर्जीव होती है। जब हम किसी फूल की तस्‍वीर लेते है तो तुम क्‍या सोचते हो कि वह वही फूल होता है। जो अब भी वहीं है। नहीं, तब तक वह फूल वही नहीं रहता, वह बढ़ जाता है। वह वही नहीं है—उसका विकास नहीं हो सकता। आरंभ से ही वह मृत है। तुम उसे क्‍या कहते हो। स्‍टिल वार्न, मृत जात, क्‍या वह ठीक है।
      हां ओशो
      अच्‍छा,तो तस्‍वीर मृत है, निर्जीव है, पहली श्‍वास लेने से पहले ही मर चुकी है। वह श्‍वास ही नहीं लेता।
      सिर्फ एक व्‍यक्‍ति जिनसे मैं बहुत प्रेम करता था और जो सुंदरतम गो में सि एक था और उन्‍होंने मुझे अपनी तस्‍वीर खींचने दी। वे थीं मेरी नानी लेकिन उन्‍होंने यह शर्त रखी कि एलबम उनके पास रहेगी।
      मैंने कहा: उसमें तो कोई हर्ज नहीं है लेकिन क्‍यों। मुझ पर विश्‍वास नहीं है।
      उन्‍होंने कहा: तुम पर तो विश्‍वास है लेकिन इन तस्‍वीरों का विश्वास नहीं है। मुझे मालूम है कि तुम मेरा को ई नुकसान नहीं करोगे लेकिन इन तस्‍वीरों को मैं अपने पास ही रखूंगी मेरे मरने के बाद तुम इन्‍हें ले लेना।
      सो मैंने उनकी अनेक फोटो लीं। उन्‍होंने मुझे रोका नहीं। लेकिन उनकी मृत्‍यु के बाद जब मैंने उनकी वह अलमारी खोली जहां वे उस एलबम को रखती थी, ता देखा कि उनकी एलबम तो बिलकुल खाली है। वे स्‍वयं तो नहीं सकती थी। उन्‍होंने मेरे पिता से लिखवाकर कर रखा था।
मुझे क्षमा करना उस पर उन्‍होंने अपने दाएं अंगूठे की छाप लगा कर हस्‍ताक्षर किए हुए थे।
      जिन लोगों से मैं तुम्‍हें परिचित कराना चाहता था। उन्‍होंने मुझे उनकी फोटो लेने ही नहीं दी। केवल एक ने इसकी अनुमति मुझे दी लेकिन ऐसा लगता है कि नानी इसलिए राज़ी हो गई क्‍योंकि वे मेरे दिल को दुखाना नहीं चाहती थी।....ओर वे सदा अपनी सब तस्‍वीरे फाड़ती रही।
      एलबम तो खाली थी। मैंने अच्‍छी तरह से देखा और मुझे पता लगा कि उसकी भी कभी उपयोग ही नहीं गया था। मैंने पूरे घर मैं तसवीरें खोजी, लेकिन उसमें एक  भी तस्‍वीर नहीं थी। मैं तुम्‍हें नानी की आंखें दिखना चाहता था—केवल आंखें। उनका सारा शरीर सुंदर था लेकिन उनकी आंखें। एक कवि ही उनकी वर्णन कर सकता है। यह चित्रकार—और मैं दोनों ही नहीं है। मैं केवल इतना कह सकता हुं कि वे ओखे उस असीम और अपार को प्रतिबिंबित करती थी।

--ओशो                ***नानी
     

1 टिप्पणी: