प्रश्न—प्यारे ओशो,
कल प्रथम बार मैंने शिविर में विपश्यना ध्यान किया। इतनी उड़ान अनुभव हुई, कृपया विपश्यना के बारे में प्रकाश डालें।
ईश्वर समर्पण। विपश्यना मनुष्य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपश्यना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना अपूर्व हे। विपश्यना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते थे, इहि पस्सिको; आओ और देखो। बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना,आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है दुनिया में जिसमें मान्यता,पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है।
बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया उसे मानना थोड़े ही पड़ता है;मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रकिया थी। दिखाने की जो प्रकिया थी उसका नाम था विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधा सरल प्रयोग है। अपनी आती जाती श्वास के प्रति साक्षी भाव। श्वास जीवन है। श्वास से तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जूड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है। मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण अपरिहार्य रूप से शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोंगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का ओर कोई उपाय नहीं है। जो श्वास को देखेगा,वह श्वास से भिन्न हो गया। और जो श्वास से भिन्न हो गया। वह शरीर से भी भिन्न हो गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए। शरीर से छूटों, श्वास से छूटों, तो शाश्वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊँचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊँचाइयों है जगत में न कोई गहराइयों है जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।
फिर श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है। करूणा में दूसरे ढंग से चलती है। दौड़ने में वह दूसरे ढंग से चलती है। आहिस्ता चलने में वह दूसरे ढंग से चलती है। चित ज्वर ग्रस्त होता है; एक ढंग ये चलती है। तनाव से भरा होता है, तो एक ढंग से चलती है। और चित शांत होता है,मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है।
श्वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलों, श्वास बदल जाती है। श्वास को बदल लो भाव बदल जाते है। जरा कोशिश करना। क्रोध आये,अगर श्वास को डोलने मत देना। श्वास को थिर रखना, शांत रखना। श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। क्रोध उठेगा भी तो गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए श्वास को आंदोलित होना। श्वास आंदोलित हो तो भीतर को केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित हो। चेतना आंदोलित हो तो जुड़ गये।
फिर इससे उल्टा भी सच है: भावों को बदलों, श्वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखने नदी तट पर। भाव शांत है। कोई तरंग नहीं है चित पर। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ। श्वास बड़ी शांत हो गई। श्वास में एक रस हो गया,एक स्वाद....एक छंद बंध गया। श्वास संगीत पूर्ण हो गयी।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले....ख्याल रखना प्राणयाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है। विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांशा है। जैसी है—उबड़-खाबड़ है। अच्छी बुरी है। तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरती हे, जैसी है।
बुद्ध कहते है, तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्टा तुम्हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्हारे हाथ छोटे है। तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तुम बदलों। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया। बुद्ध ने तो कहा3 तुम तो बैठ जाओ,श्वास तो चल ही रही है। जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्या करोगे?
आई एक बड़ी तरंग तो देखोगें और नहीं आई तरंग तो देखोगें। राह पर निकली कारें बसें तो देखोगें; गाय भैंस निकली तो देखोगें। जो भी है जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांशा आरोपित मत करना। शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते रहो, श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।
और निर्चुनाव—बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आँख के सामने से हमारा उससे कुछ लेना देना नहीं है। तो उद्विग्न होने का कोई सवाल ही नहीं है। आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे है, निष्पक्ष देख रहे है। श्वास की तरंग धीरे-धीरे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण भर सब रूक जाना....अनुभव करो। उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली फेफड़े सुकड़े लगे अनुभव करो उस सुड़कने को फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उतप्त श्वास नासा पुटों से बाहर जाती है। फिर क्षण भर सब ठहर जाता है। फिर नया स्वास आयी।
यह पड़ाव है, श्वास का भीतर आना,क्षण भर श्वास का भीतर ठहरना। फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण भर फिर श्वास का बाहर ठहरना। फिर नई श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है—वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने को कोई भी बात नहीं बस देखो। यहीं विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित के सारे रोग तिरोहित हो जाते है। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं,इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते। ही मैं मन नहीं हूं,इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे। मगर गूंगे को गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुन सुनाओगे भीतर ही भीतर, मीठा-मीठा स्वाद लोगे। नाचो गे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह नहीं पाओगे।
ईश्वर समर्पण, ठीक ही हुआ। कहा तुमने; इतनी उड़ान अनुभव हुई। अब विपस्सना के सूत्र को पकड़ लो। अब इसी सूत्र के सहारे चल पड़ो। और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होगी। बस में बैठे ट्रेन में सफर करते। कार में यात्रा करते। राह के किनारे। दुकान पर, बाजार में घर में, बिस्तर पर लेटे। लिखते, पढ़ते खोते नहाते...किसी को पता भी न चले। क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चरण करना है। न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे......इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जायेगी उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अद्भुत आमंत्रण को समझोगे; इहि पस्सिको, आओ और देख लो।
बुद्ध कहते है: ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते है; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते है। इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्ति दायी हे। मान्यताएं हिंदू बना देती है। मुसलमान बना देती है, ईसाई बना देती है। जैन बना देती है। बौद्ध बना देती है। दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान,न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्मा मय हो। ओर वही अनुभव पाना है। वहीं अनुभव पाने योग्य है।
--ओशो
मरौ हे जोगी मरौ
आलोक—आमंत्रण—
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