धन-धन नहीं है। धन एक शक्ति का संचित रूप है। एक रूपया आपकी जेब में पडा है तो सिर्फ वह रूपया नहीं है, शक्ति संचित पड़ी है। इसका आप तत्काल उपयोग कर सकते है। जो आदमी अकड़ कर जा रहा था। उसको रूपया दिखा दीजिए, वह झुक जायेगा। वह रात भर आपके पैर दबायेगा। उस रूपए में वह आदमी छीपा था। जो रात भर पैर दबा सकता है। रूपये की इतनी दौड़ रूपए के लिए नहीं हे। रूपया तो संचित शक्ति है। कनड़ेंस्ड पावर। और अद्भुत शक्ति है। क्योंकि अगर आप एक तरह की शक्ति इकट्ठी कर लें तो आप दूसरी शक्ति में नहीं बदल सकते। रूपया बदला जा सकता है। एक रूपया आपकी जेब में पडा है, चाहे आप किसी से पैर दबाओ,चाहे किसी से सर पर मालिश करा लो। चाहे किसी से कहें कि पाँच दफे उठक-बैठक करो। उसके हजार उपयोग है। अगर आपके पास एक तरह की शक्ति है तो वे एक ही तरह की है, उसका एक ही उपयोग हे। रूपया अनंत आयामी है।
इसलिए इतना पागलपन है रूपये के लिए। पागलपन ऐसे ही नहीं है। जैसा साधु-संन्यासी समझ सकते है कि आप व्यर्थ ही पागल है। लोग व्यर्थ पागल नहीं है। लोग बड़े गणित से पागल है। चाहे उन्हें भी पता न हो, चाहे उन्हें भी स्पष्ट न हो कि वह क्यों पागल है। क्यों इतना रा है रूपये में , क्यों रूपये को पकड़ने और बचाने की इतनी आकांशा है। शायद उन्हें भी साफ न हो; दौड़ अचेतन हो; उन्हें चेतना न हो पूरी की वे क्या कर रहे है। लेकिन बात बिलकुल साफ है। और बात इतनी है कि वह धन के माध्यम से शक्ति इकट्ठी कर रहे है।
कोई आदमी किसी और ढंग से शक्ति इकट्ठ कर रहा है। एक आदमी युनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। शिक्षित हो रहा है। वह भी शक्ति इकट्ठी कर रहा है। वह ज्ञान के द्वारा शक्ति इकट्ठी कर रहा है। एक तीसरा आदमी कुछ और कर रहा है। वह भी शक्ति इकट्ठी कर रहा है किसी और उपाय से । लेकिन अगर सारे लोगों को हम देखें तो अलग-अलग रास्तों से शक्ति की तलाश कर रहे है।
एक आदमी मंत्र सिद्ध कर रहा है। वह भी शक्ति की तलाश कर रहा है। वह भी सोचता है कि मंत्र सिद्ध हो जाए तो लोगों को आंदोलित कर दूँ। प्रभावित कर दूँ। कि हजारों लोग चमत्कृत हो जाएं। जो चाहूं वह करके दिखा दूँ। वह भी उसी कोशिश में लगा है। जो आदमी प्रार्थना कर रहा है। पूजा कर रहा है। ठीक से समझें तो वह क्या कर रहा है। वह भी शक्ति की तलाश कर रहा है। वह ईश्वर को प्रभावित करना चाहता है। मुट्ठी में लेना चाहता है। और उससे कुछ करवाना चाहता है। वह कुछ मेरे लिए कर दे। तो पूजा करेगा, घुटने टेकेगा। मंदिर में गिरेगा। लेकिन आयोजन क्या है उसका। रौएगा। कहेगा। कि मैं पतित हूं, तुम पावन हो। सब कहेगा: लेकिन उसका प्रयोजन क्या है? प्रयोजन है कह वह ईश्वर को अपने हाथ में लेकर संचालित करना चाहता है—अपनी मर्जी के अनुसार। इसलिए तथाकथित धार्मिक लोग कहते सुने जाते है। कि क्या क्षुद्र शक्तियों की तलाश में पडा हो, पर शक्ति को खोजों।
लेकिन क्षुद्र की खोज हो या परम की। लेकिन शक्ति तो जरूर खोजों—पावर, शक्ति का क्या उपयोग है?
शक्ति से स्वयं को तो कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन दूसरे की तुलना में बल मालूम पड़ता है। शक्ति तुलनात्मक है। यह दूसरा सत्य शक्ति के संबंध में समझ लेना चाहिए। वह हमेशा तुलनात्मक है। क्योंकि अ शक्तिशाली है, इतना कहने से कुछ हल नहीं होता। क्यों स ज्यादा शक्तिशाली है। शक्तिशाली हमेशा तुलना में, कंपेरिजन में । आपका सिर्फ इतना कहना ठीक नहीं कि आप धनी है। क्योंकि आप किसी की तुलना में गरीब हो सकते है। तो यह बताना जरूरी है कि आप किसकी तुलना में धनी है। सब शक्तियां तुलनात्मक है। किसी को यह कहना काफी नहीं है कि यह विद्वान है। यह बताना जरूरी कि किसी तुलना में यह विद्वान है। क्यों किसी की तुलना में यह मूढ़ भी हो सकता है। सारी शक्तियां रिलेटिव है, सापेक्ष है। शक्ति का मजा अपने आप में नहीं है। शक्ति का मजा दूसरे को कमजोर करने में है। शक्ति से आप शक्तिशाली नहीं होते। लेकिन दूसरा कमजोर दिखता है। दूसरे के कमजोर दिखने से आपको एहसास होता है। कि मैं शक्तिशाली हूं।
इसलिए धन का असली मजा धन में नहीं है। दूसरों की गरीबी में है। अगर कोई भी गरीब न हो, धन का मजा ही चला गया। कोई रस नहीं है फिर उसमे थोड़ा समझिए कि कोहिनूर हीरा आपके पास है। उसका मजा क्या है? मजा सिर्फ यह है कि आपके पास है, और किसी के पास नहीं है। सबके पास कोहिनूर हीरा हो तो बात ही व्यर्थ हो गई। आप तो कोहिनूर हीरे को एक दम से फेंक देंगे। इसका कोई मूल्य नहीं है। वह वही कोहनूर हीरा है, लेकिन अब इसका कोई मूल्य नहीं है। इसका मूल्य इसमें था कि दूसरों के पास नहीं है। वह बड़े मजे कि बात है। आपके पास है; इसमे मूल्य नहीं है; दूसरे के पास नहीं है, इसमे मूल्य है।
तो सारी शक्ति दूसरे पर निर्भर है और दूसरे की तुलना में है। अमीर-अमीर है, क्योंकि कोई गरीब है। ज्ञानी-ज्ञानी है, क्योंकि कोई अज्ञानी है। शक्तिशाली-शक्तिशाली है। क्योंकि दूसरा निर्बल हे। शक्ति की दौड़ आत्म-खोज नहीं बन सकती। क्योंकि शक्ति की दौड़ दूसरे से बंधी है। दूसरे की तुलना में है। और एक मजे की बात है कि जो दूसरे की तुलना में है वह दूसरे पर निर्भर है। इसलिए बड़े से बड़ा शक्तिशाली आदमी भी अपने से कमजोर लोगो पर निर्भर होता है। यह हमको भी दिखाई देता है। जब आप एक सम्राट को चलते देखते है और उसके पीछे गुलामों को चलते देखते है तो आपको ख्याल नहीं होता की सम्राट गुलामों का उतना ही गुलाम है जितना गुलाम सम्राट का। शायद सम्राट कुछ ज्यादा हो। क्योंकि गुलामों को मौका मिले तो वे छोड़ कर सम्राट को भाग जाएं और स्वतंत्र हो जाएं। लेकिन सम्राट गुलामों को छोड़ कर नहीं जा सकता है। क्योंकि गुलाम के बीन वह सम्राट ही नहीं रह जायेगा। उसका सम्राट पन गुलामों पर निर्भर है। वह गुलामों की भी गुलामी है।
जो व्यक्ति शक्ति की खोज करता है। वह निर्भरता की खोज कर रहा है। वह परतंत्रता की खोज कर रहा है। इसलिए बड़े से बड़ा धनी भी धनवान नहीं हो सकता। और बड़े से बड़ा पंडित भी ज्ञानवान नहीं हो सकता। क्योंकि सब तुलना में सारा मामला है। उसका पांडित्य मूढ़ों पर निर्भर है। मूढ़ अगर विदा हो जाएं तो उसका पांडित्य विदा हो जायेगा।
साधु असाधु पर निर्भर है, असाधु न रहे तो साधु का कोई मुल्य नहीं है। वह खो जाता है। इसलिए साधु कोशिश करता है दुनिया में असाधु ने रहे। लेकिन अगर वे समझेंगे गणित को तो उनको पता चल जाएगा। वह क्या कर रहा है। वे आत्मघात में लगे है। उनकी साधुता असाधुता पर निर्भर है। वह जो बेईमान है, जो चोर है, वह उसकी गरिमा है। वह उसका गौरव है। क्योंकि वे बेईमान नहीं है , वे चोर नहीं है। एक आदमी चोर है। और बेईमान है। वह जो चोर है। बेईमान है। वह साधु की चमक है। थोड़ा देर के लिए कल्पना करें कि कोई बेईमान नहीं है, चोर नहीं है। क्या ऐसे समाज में साधु हो सकता है। कोई साधु हो सकता है। साधु का क्या अर्थ है? कौन पूछेगा साधे को? कौन सम्मान देगा? दुनिया से जिस दिन भी असाधु को मिटाना हो उस दिन साधु को मिटाने की तैयारी चाहिए। वे परस्पर गुलामियां है।
ऐसा ख्याल में साफ आ जाए कि शक्ति तुलनात्मक है, शक्ति दूसरे पर निर्भर है। तो शक्ति कभी भी मुक्ति नहीं बन सकती है। मुक्ति का तो अर्थ यह है कि मैं बिलकुल अकेला रह जाऊं, मुझ पर कोई निर्भरता किसी के ऊपर मेरी निर्भरता न रह जाए। मैं अकेला ही परिपूर्ण आप्तकाम हो जाऊँ। मेरे भीतर ही सब कुछ हो जो मुझे चाहिए, मेरी चाह की पूर्ति कहीं भी बहार से न होती हो।
यह शक्ति से तो नहीं होगा, यह शांति से होगा। और शांति बिलकुल अलग बात है। शक्ति में दूसरे को दबाना है, दूसरे को जीतना है। शांति में किसी को दबाना नही, किसी को जीतना नहीं, अपने को भी दबाना नहीं, अपने को भी जीतना नहीं। शांति का अर्थ है कि मेरी जो ऊर्जा है, मैं जैसा हूं , मैं जो हूं, वहीं मेरा आनंद है। ऐसी प्रतीति में की कोई मांग नहीं है। मैं राज़ी हूं और प्रसन्न हूं और अनुगृहीत हूं। जो भी मैं हूं वहीं मेरा आनंद है। ऐसी प्रतीति में शक्ति की खोज तो समाप्त हो गई और दूसरे से कुछ लेना देना न रहा। दूसरे से कोई संबंध न रहा। यही संन्यास है। जब तक दूसरे से लेना-देना है जब तक दूसरे पर निर्भरता है, तब तक संसार है; वह निर्भरता किसी भी ढंग की हो।
ओशो
ताओ उपनिषाद, भाग—4
प्रवचन—79
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