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रविवार, 30 जनवरी 2011

इस सदी का बड़ा चमत्‍कार—

  चीन का कम्यूनिज़म का हमला भंयकर है। न केवल चीन में, बल्‍कि तिब्‍बत से भी सारी संभावनाओं को विनाश करने की चेष्‍टा चीन ने की है। तिब्‍बत में भी लाओत्‍से और बुद्ध को मान कर चलने वाला एक वर्ग था। शायद पृथ्‍वी पर अपने तरह का अकेला ही मुल्‍क था तिब्‍बत, जिसको हम कह सकते है पूरा का पूरा देश एक आश्रम था। जहां धर्म मूल था, बाकी सब चीजें गोण थी। जहां हर चार आदमियों के बीच में एक संन्‍यासी था और ऐसा कोई घर नहीं था जिसमें संन्‍यासियों की लंबी परंपरा न हो। जि बाप के चार बेटे होते वह एक बेटे को तो निश्‍चित ही संन्‍यास की तरफ भेजता। क्‍योंकि वह परम था।
      लेकिन चीन ने तिब्‍बत को भी अपने हाथ में ले लिया है। और तिब्बत में भी संन्‍यास की गहन परंपराएं बुरी तरह तोड़ डाली गई। कोई संभावना नहीं दिखती कि तिब्‍बत बच सकेगा।
      दलाई लामा तिब्‍बत से जब हटे तो चीन की पूरी कोशिश थी कि दलाई लामा तिब्‍बत से हट न पाएँ। उन्‍नीस सौ उनसठ में,जो लोग भी धर्म के गुह्म रहस्‍य से परिचित है, उन सबके लिए एक ही ख्‍याल था कि दलाई लामा किसी तरह तिब्‍बत से बाहर आ जाएं और उनके साथ तिब्‍बत के बहु मुल्‍य ग्रंथ और तिब्‍बत के कुछ अनूठे साधक और संन्‍यासी भी तिब्‍बत के बाहर आ जाएं। लेकिन बाहर आ सकेंगे,यह असंभावना था। कोई चमत्‍कार हो जाए तो ही वह बाहर आने का उपाय था। क्‍योंकि दलाई लामा के पास कोई आधुनिक साज सामान नहीं; कोई फौज,कोई बम, कोई हवाई जहाज, कोई सुरक्षा का बड़ा उपाय नहीं। और चीन ने पूरे तिब्‍बत पर कब्‍जा कर लिया था।
      दलाई लामा का तिब्‍बत से निकल आना बड़ी अनूठी घटना है। क्‍योंकि हजारों सैनिक पूरे हिमालय में सब रास्‍तों पर खड़े थे। और कोई सौ हवाई जहाज पूरे हिमालय पर नीची उड़ान भर रहे थे। कि कहीं भी दलाई लामा का काफिला तिब्‍बत के बाहर न निकल जाये। लेकिन चमत्‍कार हुआ।
      जिन चमत्‍कारों को आपने सुना है—मोहम्मद, महावीर,बुद्ध—वे बहुत पुरानी घटनाएं हो गई है। सुना है आपने कि मोहम्‍मद चलते थे तो उनके ऊपर, अरब के रेगिस्‍तान में छाया के लिए बादल उनके उपर चलते थे। सुना है महावीर चलते थे तो कांटा भी पडा हो सीधा तो उलटा हो जाता था। ये सारी बातें कहानी मालूम होती है। लेकिन अभी उन्‍नीस सौ उनसठ में जो घटना घटी है वह कहानी नहीं हो सकती। और उसके हजारों पर्यवेक्षक है, निरीक्षक है।
      जितनी देर दलाई लामा को भारत प्रवेश करने में लगी। उतनी देर पर पूरे हिमालय पर एक धुंध छा गई। और सौ हवाई जहाज खोज रहे थे, उन्‍हें नीचे दिखाई नहीं दिया। हालाकि वह बहुत नीची उडान भर रहे थे। पर धुंध बहुत गहरी थी। नीचे देखना लगभग असंभव था। वह धुंध उसी दिन पैदा हुई जिस दिन दलाई लामा पोतला से बाहर निकले; और वह धुंध उसी दिन समाप्‍त हुई जिस दिन दलाई लामा भारत की सीमा में प्रवेश कर गये। और वैसी धुंध हिमालय पर कभी भी नहीं देखी गई थी। वह पहला मौका था।
      तो जो लोग धर्म की गुह्म धारणाओं को समझते है, उनके लिए यह एक बहुत बड़ा प्रमाण था। वह प्रमाण इस बात का था कि जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है। अगर वह विनष्‍ट होने के करीब है, तो पूरी प्रकृति भी उसको बचाने में साथ देती है। लाओत्‍से की पूरी परंपरा नष्‍ट होने के करीब है। इसलिए दुनिया में बहुत तरह की कोशिश की जाएगी कि वह परंपरा नष्‍ट न हो पाए। उसके बीज कहीं और अंकुरित हो जाएं। कहीं और स्‍थापित हो जाएं। मैं जो बोल रहा हूं वह भी उस बड़ प्रयास का एक हिस्‍सा है।
      और अगर लाओत्‍से को कभी भी स्‍थापित करना हो तो भारत के अतिरिक्‍त ओर कहीं स्‍थापित करना बहुत मुश्‍किल है। दलाई लामा को भी जरूरी नहीं था  कि भारत भागे; कहीं और  भी जा सकते थे। लेकिन कहीं और आशा नहीं है। वे जो लाए हे, उसे किन्‍हीं ह्रदय तक पहुंचाना हो तो उन ह्रदयो की और कोई संभावना न के बराबर है।
      इसलिए लाओत्‍से पर बोलने की मैंने चुना है कि शायद कोई बीज आपके मन में पड़ जाए, शायद अंकुरित हो जाए। क्‍योंकि भारत समझ सकता है। अकर्म की धारणा को भारत समझ सकता है। निसर्ग की , समभाव की धारणा को भारत समझ सकता है। क्‍योंकि हमारी भी पूरी चेष्टा यही है हजारों सालों से।
      यह सून कर आपको कठिनाई होगी। क्‍योंकि आपको समझाने वाले साधु-महात्‍मा भी जो समझा रहे है, वह कंफ्यूशियस से मिलता-जुलता है। लाओत्‍से से मिलता जुलता नहीं है। आपको भी जो शिक्षाऐं दी जाती है। वे भी प्रकृति की नहीं है। वह भी सारी शिक्षाऐं आदर्शों की है। उनमें भी कोशिश की जा रही है कि आपको कुछ बनाया जाए।
      मैं मानता हूं कि वह भी भारत की मूल धारा नहीं है। भारत की भी मूल धारा यहीं है कि आपको कुछ बनाया न जाए। क्‍योंकि जो भी आप हो सकते है, वह आप अभी है। आपको उघाड़ जाए। बनाया न जाएं। आपके भीतर छिपा है, आपको कुछ और होना नहीं है। जो भी आप हो सकते थे, और जो भी आप कभी हो सकेंगे, वह आप अभी इसी क्षण है। सिर्फ ढंका है। कुछ निर्मित नहीं करना है, कुछ अनावरण करना है, कुछ पर्दा हटा देना हे। आदमी को बनाना नही है। परमात्‍मा, आदमी परमात्‍मा है—सिर्फ इसका स्मरण, सिर्फ इसका बोध, इसकी जाग्रति। जैसे खजाना आपके घर में है, उसे कहीं खोजने जाना थोड़े ही है। कोई दूर की यात्रा थोड़े ही करनी है। लेकिन वह कहां गड़ा है, उसका आपको स्‍मरण नहीं रहा। हो सकता है, आप उसी के ऊपर बैठे हो। आपको उसका कोई पता न हो।
      लाओत्‍से को भारत में स्‍थापित करना, भरत की ही जो गहनत्‍म आंतरिक दबी धारा हे, उसको भी आविष्‍कृत करने का उपाय है।
ओशो
ताओ उपनिषाद,भाग-4
प्रवचन—65

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