‘यथार्थत:
बंधन और मोक्ष
सापेक्ष है; ये
केवल विश्व
से भयभीत
लोगों के लिए
है। यह विश्व
मन का
प्रतिबिंब
है। जैसे तुम
पानी में एक सूर्य
के अनेक सूर्य
देखते हो,
वैसे ही बंधन
और मोक्ष को
देखो।’
यह बहुत
गहरी विधि है; यह
गहरी से गहरी
विधियों में
से एक है। और
विरले लोगों
ने ही
इसका प्रयोग
किया है। झेन
इसी विधि पर
आधारित है। यह
विधि बहुत
कठिन बात कह
रही है—समझने
में कठिन,
अनुभव करने
में कठिन नहीं
है। परंतु
पहले समझना
जरूरी है।
यह सूत्र कहता
है, कि हम संसार
और निर्वाण दो
नहीं है। वे
एक ही है। स्वर्ग
और नरक दो
नहीं है। वे
एक ही है।
वैसे ही बंधन
और मोक्ष दो
नहीं है, वे भी एक ही
है। यह समझना
कठिन है, क्योंकि
हम किसी चीज
को आसानी से
तभी सोच पात
है जब वह
ध्रुवीय विपरीतता
में बंटी हो।
हम कहते है
कि यह संसार
बंधन है; इससे छूटा
जाए और मुक्त
हुआ जाए? तब मुक्ति
कुछ है जो
बंधन के
विपरीत है, जो
बंधन नहीं है।
लेकिन यह
सूत्र कहता है
कि दोनों एक
है, मोक्ष और
बंधन एक है। और
जब तक तुम
दोनों से नहीं
मुक्त होते, तुम
मुक्त नहीं
हो। बंधन तो बाँधता
ही है,मोक्ष
भी बाँधता है।
बंधन तो
गुलामी है ही
मोक्ष भी
गुलामी है।
इसे
समझने की
कोशिश करो। उस
आदमी को देखो
जो बंधन के
पार जाने की
चेष्टा में
लगा है। वह क्या
कर रहा है। वह
अपना घर छोड़
देता है,
परिवार छोड़
देता है,
धन दौलत छोड़
देता है,
संसार की
चीजें छोड़
देता है। समाज
छोड़ देता है।
ताकि बंधन के
बाहर हो सके, संसार की ज़ंजीरों
से मुक्त हो
सके। लेकिन तब
वह अपने लिए
नयी ज़ंजीरें गढ़ने
लगता है। और
वे ज़ंजीरें
नकारात्मक
है। परोक्ष
है।
मैं
एक संत को
मिला जो धन
नहीं छूते है।
वे बहुत सम्मानित
संत है। उनका
सम्मान वे
लोग जरूर
करेंगे जो धन
के पीछे पागल
है। यह व्यक्ति
उनके विपरीत
ध्रुव पर चला
गया है। अगर
तुम उनके हाथ
में धन रख दो
तो वे उसे ऐसे
फेंक देंगे
जैसे कि वह
जहर हो या कि
तुमने उनके
हाथ पर सांप
रख दिया हो।
वे उसे फेंक
ही नहीं देंगे,
वे आतंकित हो
उठेंगे। उनका
शरीर कांपने
लगेगा।
क्या
हुआ है? वे धन से लड़
रहे है। वे
पहले जरूर ही
लोभी, अति लोभी व्यक्ति
रहे होंगे।
तभी वे दूसरी
अति पर पहूंच
गए है। उनकी
धन की पकड़
आत्यंतिक
रही होगी;वे धन के
लिए पागल रहे
होंगे। वे धन
से ग्रस्त
रहे होंगे। वे
अब भी धन से
ग्रस्त है,
लेकिन अब उनकी
दिशा बदल गई
है। वे पहले
धन की तरफ भाग
रहे थे; अब
वे धन के विपरीत
भाग रहे है।
मैं
एक संन्यासी
को जानता हूं
जो किसी स्त्री
को नहीं
देखता। वे
बहुत घबरा
जाते है। अगर
कोई स्त्री
मौजूद हो तो
आंखें झुका
रखते है। वे
सीधे नहीं
देखते। क्या
समस्या है?
निश्चित ही, वे
अति कामुक रहे
होंगे।
कामवासना से
बहुत ग्रस्त
रहे होंगे। वह
ग्रस्तता
अभी भी जारी
है। लेकिन
पहले वे स्त्रियों
के पीछे भागते
थे अब वे स्त्रियों
से दूर भाग
रहे है। पर स्त्रियों
से ग्रस्तता
बनी हुई है;
चाहे वे स्त्रियों
की और भाग रहे
हों या स्त्रियों
से दूर भाग
रहे हो। उनका
मोह बना ही हुआ
है।
वे
सोचते है कि
अब स्त्रियों
से मुक्त है,
लेकिन यह एक
नया बंधन है।
तुम प्रतिक्रिया
करके मुक्त
नहीं हो सकते।
जिस चीज से
तुम भागोगे वह
पीछे के रास्ते
से तुम्हें
बाँध लेगी;
उससे तुम बच
नहीं सकते हो।
यदि कोई व्यक्ति
संसार के
विरोध में मुक्त
होना चाहता है
तो वह कभी
मुक्त नहीं
हो सकता; वह
संसार में ही
रहेगा। किसी
चीज के विरोध
में होना भी
एक बंधन है।
यह
सूत्र कहता
है: ‘यथार्थत:
बंधन और मोक्ष
सापेक्ष है......।’
वे
विपरीत नहीं,
सापेख है।
मोक्ष क्या
है? तुम कहते हो, जो
बंधन नहीं है।
वह मोक्ष है।
और बंधन क्या
है? तब तुम कहते
हो, जो मोक्ष
नहीं है वह
बंधन है। तुम
एक दूसरे से उनकी
परिभाषा कर
सकते हो। वे
गर्मी और ठंडक
की भांति है।
विपरीत नही
है। गर्मी क्या
है और ठंडक क्या
है? वे एक ही चीज
की कम और ज्यादा
मात्राएं है—ताप
की मात्राएं
है। लेकिन चीज
एक ही है; गर्मी और
ठंडक सापेक्ष
है।
तंत्र
कहता है, बंधन और
मोक्ष संसार
और निर्वाण दो
चीजें नहीं है; वे
सापेक्ष है, वे
एक ही चीज की
दो अवस्थाएं
है। इसलिए
तंत्र अनूठा
है। तंत्र कहता
है कि तुम्हें
बंधन से ही
मुक्त नहीं
होना है, तुम्हें
मोक्ष से भी
मुक्त होना
है। जब तक तुम
दोनों से मुक्त
नहीं होते,
तुम मुक्त
नहीं हो।
तो पहली
बात कि किसी
भी चीज के
विरोध में
जीने की कोशिश
मत करो, क्योंकि
ऐसा करके तुम
उसी चीज की
कोई भिन्न
अवस्था में
प्रवेश कर
जाओगे। वह
विपरीत दिखाई
पड़ता है।
लेकिन विपरीत
है नहीं।
कामवासना से
ब्रह्मचर्य
में जाने की
चेष्टा
करोगे तो तुम्हारा
ब्रह्मचर्य
कामुकता के
सिवाय और कुछ
नहीं होगा।
लाभ से अलोभ
में जाने की
चेष्टा मत
करो, क्योंकि
वह अलोभ भी
सूक्ष्म लोभ
ही होगा।
इसीलिए अगर
कोई परंपरा
अलोभ सिखाती
है तो उसमें
भी तुम्हें
कुछ लालच देती
है।
जो
लोग लोभी है,
पर लोभ के
लोभी है। वे
इस उपदेश से
बहुत
प्रभावित
होंगे। वे
इसके लालच में
बहुत कुछ
छोड़ने को
तैयार हो
जायेंगे। कि ‘अगर तुम लोभ
को छोड़ दोगे
तो तुम्हें
परलोक में
बहुत मिलेगा’। लेकिन
पानी की
प्रवृति,पाने
की चाह बनी
रहती है। अन्यथा
लोभी आदमी
अलोभ की तरफ
क्यों जाएगा?
उनके लोभ की
सूक्ष्म
तृप्ति के
लिए कुछ
अभिप्राय कुछ
हेतु तो चाहिए
ही।
तो
विपरीत
ध्रुवों का
निर्माण मत
करो। सभी विपरीतताएं
परस्पर
जुड़ी है। वे
एक ही चीज की
भिन्न-भिन्न
मात्राएं है।
ओर अगर तुम्हें
इसका बोध हो
जाए तो तुम
कहोगे कि
दोनों ध्रुव
एक है। अगर
तुम यह अनुभव
कर सके, और अगर यह
अनुभव तुम्हारे
भीतर गहरा हो
सके तो तुम
दोनों से मुक्त
हो जाओगे। तब
तुम न संसार
चाहते हो न
मोक्ष। वस्तुत:
तब तुम कुछ भी
नहीं चाहते हो;
तुमने चाहना
ही छोड़ दिया।
और उस छोड़ने
में ही तुम
मुक्त हो गए।
इस भाव में ही
कि सब कुछ
समान है, भविष्य
गिर गया। अब
तुम कहां
जाओगे?
यदि
कामवासना और
ब्रह्मचर्य
एक है, तो कहां
जाना है। यदि
लोभ और अलोभ
एक ही है। हिंसा
और अहिंसा एक
ही है, तो फिर जाना
कहा है? कहीं जाने
को न बचा।
सारी गति
समाप्त हुई;
भविष्य ही न
रहा। तब तुम
किसी चीज की
भी कामना,
कोई भी कामना
नहीं कर सकते, क्योंकि
सब कामनाए एक
ही है। फर्क
केवल परिमाण
को होगा। तुम
क्या कामना
करोगे। तुम क्या
चाहोगे?
कभी-कभी
मैं लोगों से
पूछता हूं, जब
मेरे पास आते
है। मैं पूछता
हूं: ‘सच
में तुम क्या
चाहते हो?’
उनकी चाहत
उनसे ही पैदा
होती है। वे
जैसे है उसमें
ही उनकी जड़
होती है। अगर
कोई लोभी है।
तो वह अलोभ की
चाह करता है।
अगर कोई कामी
है तो वह
ब्रह्मचर्य
की कामना करता
है। कामी
कामवासना से
छूटना चाहता
है। क्योंकि
वह उससे
पीड़ित है।
दुःखी है।
लेकिन ब्रह्मचर्य
की एक कामना
की जड़ उसकी
कामुकता में
की है।
लोग
पूछते है: ‘इस
संसार से कैसे
छूटा जाए?’
संसार
उन पर बहुत
भरी पड़ रहा
है। वे संसार
के बोझ के
नीचे दबे जा
रहे है। और वे
संसार से बुरी
तरह चिपके भी
है। क्योंकि
जब तक तुम
संसार से
चिपकते नहीं
हो तब तक
संसार तुम्हें
बोझिल नहीं कर
सकता। यह बोझ
तुम्हारे
सिर में है; और
उसका कारण तुम
हो बोझ नहीं।
तुम इसे ढो
रहे हो। लोग
सारा संसार
उठाए है; और फिर वे
दुःखी होते
है। और दुःख
के इसी अनुभव
से विपरीत
कामना का उदय
होता है। और
वे विपरीत के
लिए लालायित
हो उठते है।
पहले वह
धन के पीछे
भाग रहे थे; अब
वे ध्यान के
पीछे भाग रहे
है। पहले वह
इस लोक में कुछ
पाने के लिए
भाग दौड़ कर
रहे थे; अब वे परलोक
में कुछ पाने के
लिए भाग दौड़
कर रहे है।
लेकिन भाग
दौड़ जारी है।
और भाग दौड़
ही समस्या है;
विषय
अप्रासंगिक
है। कामना
समस्या है;
चाह समस्या
है। तुम क्या
चाहते हो, यह
अर्थपूर्ण
नहीं है। तुम
चाहते हो, यह
समस्या है।
और तुम
चाह के विषय
बदलते रहते
हो। आज तुम ‘क’ चाहते हो, कल ‘ख’ चाहते हो, और
तुम समझते हो
कि मैं बदल
रहा हूं। और
फिर परसों तुम
‘ग’ चाह करते
हो। और तुम
सोचते हो कि
मैं
रूपांतरित हो
गया। लेकिन तुम
वही हो। तुमने
‘क’ की चाह की,
तुमने ‘ख’ की
चाह की। और
तुमने ही ‘ग’की
चाह की;
लेकिन क-ख-ग ये
सब तुम नही
हो। तुम तो वह
हो जो चाहता
है। जो कामना
करता है। और
वह वही का वही
रहता है।
तुम
बंधन चाहते
हो। और फिर
उससे निराशा
हो जाते हो।
ऊब जाते हो।
और तब तुम
मोक्ष की
कामना करने
लगते हो।
लेकिन तुम
कामना करना
जारी रखते हो।
और कामना बंधन
है; इसलिए तुम
मोक्ष की
कामना नहीं
करते। चाह ही बंधन
है। इसलिए तुम
मोक्ष नहीं
चाह सकते। जब
कामना
विसर्जित
होती है तो
मोक्ष है;
चाह का छूट
जाना मोक्ष
है।
इसी
लिए यह सूत्र
कहता है: ‘यथार्थत:
बंधन और मोक्ष
सापेक्ष है।’
तो
विपरीत से
ग्रस्त मत
होओ।
‘ये
केवल विश्व
से भयभीत
लोगों के लिए
है।’
बंधन
और मोक्ष,
ये शब्द उनके
लिए है जो
विश्व से
भयभीत है।
‘यह
विश्व मन का
प्रतिबिंब
है।’
तुम
संसार में जो
कुछ देखते हो
वह प्रतिबिंब
है। अगर वह
बंधन जैसा
दिखता है तो
उसका मतलब है कि
वह तुम्हारा
प्रतिबिंब
है। और अगर यह
विश्व मुक्ति
जैसा दिखता है
तो भी वह तुम्हारा
प्रतिबिंब
है।
‘जैसे
तुम पानी में
एक सूर्य के
अनेक सूर्य
देखते हो,
वैसे ही बंधन
और मोक्ष को
देखा।’
सुबह
सूरज ऊगता है।
और सरोवर उनके—बड़े
और छोटे,
सुंदर और
कुरूप,अनेक
टुकड़े कर
देता है। एक
ही सूरज इन
अनेक छवियों
में
प्रतिबिंबित
होता है। अनेक
रूप और आकारों
में कहीं गंदा
और कही शुद्ध।
लेकिन जो
प्रतिबिंब को
देख कर यथार्थ
को देखेगा उसे
एक ही सूर्य
दिखाई देगा।
जिस
संसार को तुम
देखते हो वह
तुम्हारा
प्रतिबिंब
है। अगर तुम
कामुक हो तो
सारा संसार
तुम्हें
कामुक मालूम
पड़ेगा। और
अगर तुम चोर
हो तो सारा
संसार तुम्हें
उसी धंधे में
संलग्न
मालूम
पड़ेगा।
एक
बार मुल्ला
नसरूद्दीन और
उसकी पत्नी,
दोनों मछली
पकड़ रहे थे।
और वह जगह
प्रतिबंधित
थी। केवल
लाइसेंस लेकर
ही लोग वहां
मछली पकड़ सकत
थे। अचानक एक
पुलिस का
सिपाही वहां आ
गया। मुल्ला
की पत्नी ने
कहा: ‘मुल्ला, तुम्हारे
पास लाइसेंस
है, तुम भागों; इस बीच मैं
यहां सक खिसक जाऊगी।’ मुल्ला
भागने लगा,
वह भागता गया।
भागता गया। और
सिपाही उसका
पीछा करता
रहा। मुल्ला
ने अपनी पत्नी
को वही छोड़
दिया और भागने
लगा।
दौड़ते-दौड़ते
मुल्ला को
ऐसा लगा की
उसकी छाती फट
जाएगी। तभी उस
सिपाही ने उसे
पकड़ लिया।
सिपाही भी
पसीने से तरबतर
था। उसने मुल्ला
से पूछा: ‘तुम्हारा
लाइसेंस कहां
है?’
मुल्ला ने
लाइसेंस
निकाल कर
दिखाया।
सिपाही ने गौर
से लाइसेंस को
देखा और उसे
सही पाया। और
तब उसने पूछा:
नसरूद्दीन,फिर तुम भाग
क्यों रहे थे?
तुम्हारे
पास तो
लाइसेंस था।
मुल्ला
ने कहा: ‘मैं
एक डाक्टर के
पास जाता हूं,
और वह कहता है
कि भोजन के
बाद आधा मील
दौड़ करो।’ सिपाही
ने कहा: ‘लेकिन
वह तो ठीक है, लेकिन तुम
देख रहे थे कि
मैं तुम्हारे
पीछे भाग रहा
हूं, चिल्ला
रहा हूं। तब
तुम क्यों
नहीं रुके’?
मुल्ला ने
कहा: ‘मैं
समझा कि शायद
तुम भी उसी
डाक्टर के
पास जाते हो।’
बिलकुल तर्कसंगत
है; यही हो रहा है।
तुम अपने चारों
और जो कुछ देखते
हो वह तुम्हारा
प्रतिबिंब ज्यादा
है। यथार्थ कम
है। तुम अपने को
ही सब जगह प्रतिबिंबित
देख रहे हो। और
जिस क्षण तुम
बदलते हो, तुम्हारा
प्रतिबिंब भी
बदल जाता है। और
जिस क्षण तुम समग्ररतः:
मौन हो जाते हो, शांत
हो जाते हो, सारा
संसार भी शांत
हो जाता है। संसार
बंधन नहीं है, बंधन
केवल एक प्रतिबिंब
है। संसार मोक्ष
भी नहीं है। मोक्ष
भी प्रतिबिंब है।
बुद्ध को सारा
संसार निर्वाण
में दिखाई पड़ता
है। कृष्ण को
सारा जगत नाचता-गाता, आनंद
में, उत्सव मनाता
हुआ दिखाई पड़ता
है। उन्हें कही
कोई दुःख नहीं
दिखाई पड़ता है।
लेकिन तंत्र
कहता है कि तुम
जो भी देखते हो
वह प्रतिबिंब ही
है। जब तक सारे
दृश्य नहीं विदा
हो जाते और शुद्ध
दर्पण नही बचता—प्रतिबिंबरहित
दर्पण। वही सत्य
है। अगर कुछ भी
दिखाई देता है
तो वह प्रतिबिंब
ही है। सत्य एक
है। अनेक तो प्रतिबिंब
ही हो सकते है।
और एक बार यह समझ
में आ जाए—सिद्धांत
के रूप में नहीं, अस्तित्वगत, अनुभव
के द्वारा—तो
तुम मुक्त हो, बंधन
और मोक्ष दोनों
से मुक्त हो।
इसे इस ढंग
से देखो। जब तुम
बीमार होते हो
तो स्वास्थ्य की
कामना करते हो।
यह स्वास्थ्य
की कामना तुम्हारी
बीमारी का ही
अंग है। अगर तुम
स्वस्थ ही हो
तो तुम स्वास्थ्य
की कामना नहीं
करोगे। कैसे करोगे? अगर
तुम सच में स्वस्थ
हो तो फिर स्वास्थ्य
की चाह कहां है? उसकी
जरूरत नहीं है।
अगर तुम
यथार्थत: स्वस्थ
तो तुम्हें महसूस
नहीं होता कि मैं
स्वस्थ हूं।
सिर्फ बीमार, रोगग्रस्त
लोग ही महसूस कर
सकते है कि हम स्वस्थ
है। उसकी जरूरत
क्या है। तुम
कैसे महसूस कर
सकते हो की तुम
स्वस्थ हो। अगर
तुम स्वास्थ
ही पैदा हुए और
कभी नहीं बीमार
हुए, तो क्या तुम
कभी अपने स्वास्थ
को महसूस कर सकोगे?
स्वास्थ
तो है, लेकिन उसका अहसास
नहीं हो सकता।
उसका अहसास तो
विपरीत के द्वारा, विरोधी
के द्वारा ही हो
सकता है। विपरीत
के द्वारा ही, उसकी
पृष्ठभूमि में
ही किसी चीज का
अनुभव होता है।
अगर तुम बीमार
हो तो स्वास्थ
का अनुभव कर सकते
हो; और अगर तुम्हें
स्वास्थ्य
का अनुभव हो रहा
है तो निश्चित
जानो कि तुम अब
भी बीमार हो।
तो नरोपा
ने कहा: ‘हां
और नहीं दोनों।
हां इसलिए कि अब
कोई बंधन नहीं
रहा। और नहीं इसलिए
कि बंधन के जाने
के साथ मुक्ति
भी विलीन हो गई।
मुक्ति बंधन का
ही हिस्सा थी।
अब मैं दोनों के
पार हूं; न बंधन
में हूं, और
न मोक्ष में।’
धर्म को
चाह मत बनाओ। धर्म
को कामना मत बनाओ।
मोक्ष को, निर्वाण
को कामना का विषय
मत बनाओ। वह तभी
घटित होता है जब
सारी कामनाए खो
जाती है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-तीन
प्रवचन-45
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें